शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

आज गले का कॉलर देख कर नानी याद आ गई


आज फुटपाथ पर एक बंदा दिखा गले में इस तरह का कॉलर पहने हुए तो मुझे नानी याद आ गई ... कहावत वाली नहीं, असल वाली नानी.....क्योंकि इस तरह का कॉलर हमने सब से पहले इस कायनात में अपनी नानी के गले में जब देखा तो हम सहम से गये थे...

1970 के आसपास की बात है...पिता जी की तबीयत ठीक न थी, नानी बस से अंबाला से अमृतसर आई थीं, पिता जी की तबीयत का हाल चाल पूछने ...उन दिनों भी पांच घंटे ही लगते थे ...आज भी शायद उतने ही लगते हैं इतना विकास होने के बाद भी ...हम ठहरे पक्के रेलों के दीवाने, हमने नानी को कहा कि गाड़ी में आया करो, तो वह झट से हमें समझाया करती ...गाड़ी तो अपने वक्त पर जाती है, बस का क्या है, जब अड़्डे पर जाओ, बस मिल जाती है ....उन्होंने अधिकार यात्राएं बस में कीं और हम लोगों ने गाडि़यों में....चाहे गाड़ी के इंतज़ार में एक दो घंटे स्टेशन पर ही क्यों ने बैठना पड़ता...

खैर, नानी आई तो उस के गले में एक कड़क सा कॉलर देख कर मैं तो भई डर गया....मैं तो बहुत छोटा था, लेकिन मुझे मन ही मन चिंता तो हो ही रही थी कि पता नहीं नानी के साथ क्या लफड़ा हो गया है ...कभी वह उसे उतार देती, कभी लगा लेती ...लेकिन मेरा डर तो लगातार बना हुआ था कि नानी के गले में यह फंदा सा आखिर है क्या!! हमें पता चला कि नानी के गले की हड़्डी बढ़ गई है ...न हमें उस का क ख ग ही पता था, बस हम फ़िक्र कर कर के आधे हुए जा रहे थे ...

खैर, फिर जब मैं बीस तीस बरस का हुआ तो अकसर लोग इस तरह के कॉलर लगाए दिखने लगे ...लेकिन अभी हाल फिलहाल में देखते हैं कि ये कॉलर बडे़ ट्रेंडी से हो गए हैं....छोटे साइज़ के और बिल्कुल नर्म, स्पंज जैसे ......लेकिन वह नानी वाला कालर तो ऐसा था कि वह तो फंदे जैसा दिखता था ...उसे देख कर तो मेरा सिर घूमने लगता था, डर से ....वैसे भी वह इतना सख्त था कि उससे नानी को क्या पता कितना फर्क पड़ा होगा या नहीं.......और वह कॉलर नानी के कमरे की शेल्फ पर अकसर टिका रहता था आगे कईं बरसों तक ...हम जब भी अंबाला जाते तो उसे देख कर थोड़ा उदास तो ज़रुर हो जाते ....यह तो मुझे याद है ...

मेरे भी गलत पोश्चर की वजह से मुझे अकसर सिरदर्द होता ही रहा है ....बिल्कुल यह भी उस का एक कारण है ...क्योंकि मुझे पता नहीं मुझे कंधे झुका कर चलने की आदत कहां से पड़ गई....मुझे बहुत टोका जाता है ....लेकिन शायद मेरे अंदर कहीं यह बात घर कर चुकी है कि अकड़ कर बिल्कुल सीधा तन के चलने वाले लोग घमंडी, गुरूर वाले होते हैं ...और किसी भी बात का घमंड करने के लिए मेरे पास कोई वजह है नहीं, इसलिए मैं हमेशा से झुक कर ही चलता हूं ......लेकिन मुझे इतने बरसों बाद इस बात का अहसास ऐसा हुआ है कि मैं अपनी इस आदत से नफ़रत करता हूं ...नहीं आत्म-विश्वास-वास का कोई चक्कर नहीं है, ईश्वरीय अनुकंपा है....बस ऐसे ही कईं आदतें बेकार में पीछे पड़ जाती हैं, यह झुक कर चलने वाली आदत भी कुछ ऐसी ही है ...

हां, मुुझे भी कुछ बरस पहले कॉलर पहनने का विशेषज्ञ ने मशवरा दिया था....लेकिन मैंने तो दो-तीन दिन पहन कर ही उसे किसी ज़रुरतमंद को दे दिया था...वैसे सिर में दर्द हो, सिर में ऐंठन सी रहे, मतली जैसा लगता हो, चक्कर आने लगें, बार बार उल्टी होने लगे तो आम भाषा में कोई भी बंदा इसे सरवाईकल की बीमारी कह के अपना ज्ञान बघार देता है ...और कुछ लोग तो इलाज भी बता देते हैं....मुझे भी कुछ ज़्यादा पता नहीं इस के बारे में सिवाए इस के कि इस तरह के जब लक्षण हों तो बंदे को तीन विशेषज्ञों के पल्ले पड़ना है, एक तो हड़्डी रोग विशेषज्ञ, एक ईएऩटी स्पेशलिस्ट और बहुत बार एक एमडी फ़िज़िशियन से भी परामर्श लेना भी पड़ता है ...जब किसी को कुछ नहीं मिलता, तो फिर कहा जाता है कि डिप्रेशन (अवसाद) लगता है, चिंता का मर्ज़ है, मनोरोग विशेषज्ञ से मिल लीजिए....

मुझे लगता है ये सब इस तरह की तकलीफ़ें हमारी जीवनशैली से जुड़ी हुई हैं.....न सोने का टाइम, न जागने का, सारा दिन सिर झुकाए किसी न किसी स्क्रीन में अपनी आंखें गड़ाए रहते हैं, खाने-पीने के बारे में तो कहें ही क्या, जंक-फूड़, फॉस्ट-फूड, अजीबोगरीब फूड सप्लीमेंट .......इन सब के बावजूद भी क्या गर्दन में दर्द न होगा ...

मैंने सोचा कवर उतार कर ही सरवाईकल पिल्लो के दीदार करवाए जाएं पढ़ने वालों को ....

पांच छः साल पहले मेरी भी गर्दन में दर्द रहने लगा तो मुझे एक फ़िजि़योथेरेपिस्ट ने कहा कि आप तो एक सरवाईकल पिल्लो ले लो ....जब मैं उसे लेने गया तो पता चला कि वह तो करीब चार हज़ार का था ...कड़वा घूंट भर कर ले तो लिया..लेकिन मुझे उस से बहुत फायदा हुआ है ...अच्छा, सब तरफ से तकिये के बारे में ही तरह तरह के मशवरे सुन सुन कर तंग आ चुके थे, तुम तकिया लिया ही न करो, तुम एक पतली सी चादर रख लिया करो, सिर के नीचे.....और भी कुछ न कुछ हिदायतें ..........लेकिन जब से यह सरवाईकल पिल्लो लिया है, बहुत आराम सुकून महसूस कर रहा हूं ...अब सच में यह पता नहीं कि यह चार हज़ार रूपये जो खर्च किये हैं उस का मनोवैज्ञानिक प्रभाव है या कुछ और ......क्योंकि कोई ज्ञानी हड्डी रोग विशेषज्ञ ही एक बार कह रहा था कि इन सरवाईकल पिल्लो से कोई फ़र्क नहीं पड़ता .......लेकिन मुझे तो फ़र्क पड़ा दिक्खे है ...मैं क्यों झूठ ही कह दूं कि कुछ फ़र्क नहीं हुआ मुझे ...रात में उसे जब सिर के नीचे रखते हैं तो पता ही नहीं चलता कि उसे ले भी रखा है या नहीं.....दिक्कत यह है कि अब बाहर कहीं जाते वक्त उसे उठा कर साथ रखने की इच्छा होती है लेकिन यह सब कहां प्रेक्टीकल है, अब कोई लोहे के ट्रंक लेकर चलने वाले दिन थोड़े न हैं, हो्लडाल वाले दिन भी लद गए .......अब तो अगर हमारे पास स्मार्ट-लगेज नहीं है तो हम अपने आप को पिछड़ा महसूस करते हैं......पिछले बरस ही मैं एक शादी में अपनी एक व्ही-आई-पी की अटैची ले गया....वही जो तीस चालीस बरस पहले नईं नई आई थीं....जिसे पहिये न होते थे ....एक तो स्टेशन पर लोग उस अटैची को ऐसे देख रहे थे जैसे किसी अजायब घर की किसी शै को देख रहे हों और दूसरा,यह कि उसे स्टेशन पर उठाते वक्त मुझे उस दिन भी नानी याद आ गई थी .......छोटी थी अटैची, लेकिन ठूंंसने से हम कहां बाज़ आते हैं....जब तक उस का ताला ही न टूट जाए .....😎😂

पोस्ट लिखने के बाद यू-ट्यूब पर सिरदर्द के ऊपर गीत ढूंढने की थोड़ी सिरदर्दी मोल ली तो यही दिख गया ...जॉन्ही वॉकर साहब का यह हिट गीत ... यह उन दिनों की बात है जब न कोई सरवाईकल के कॉलर था, न सरवाईकल पिल्लो और न ही किसी विशेषज्ञ का मशवरा ही इतनी आसानी से मिल पाता था, लेकिन चंपी सब कुछ ठीक कर देती थी ....