बुधवार, 21 मई 2008

सफल डाक्टर का फंडा....

दो-चार दिन से सोच रहा हूं कि क्या केवल निजी हस्पतालों में ही मरीज़ से अच्छे ढंग से बात करने की ज़रूरत है, क्या सरकारी हस्पतालों में यह कोई इतना ज़रूरी नहीं है....क्या सरकारी हस्पतालों में इस बारे में रिलैक्शेसन हो सकती है। .....नहीं ,नहीं, किसी तरह की रिलैक्शेसन की बात सोची भी नहीं जा सकती ।

बात यह है ना कि अगर तो हम मरीज से अपने इंटरएक्शन को भी उस के इलाज का एक हिस्सा ही मानते हैं तो जिस ढंग से हम मरीज़ से बात कर रहे हैं..............इस ढंग का भी उस के इलाज पर , उस के तंदरूस्त होने की संभावनाओं पर, या यूं कह लें कि मरीज़ का नहीं, उस के परिवार जनों का विश्वास जीतने के लिये यह बेहद लाज़मी है कि किसी भी डाक्टर का मरीज़ के साथ बातचीत करने का ढंग इतना नफ़ीस हो कि मरीज़ को तो एक बात यही लगे कि वह तो डाक्टर के पास पहुंच कर आधा ठीक वैसे ही हो गया है.....और बाकी आधा भी उसे तुरंत ठीक कर ही दिया जायेगा।
तो, यह तो पत्थर पर लिखी बात है कि हम जो बात मरीज़ से बात करते हैं...वो बात ही नहीं , उसे कहने का ढंग भी उस के इलाज का ही एक अभिन्न हिस्सा है....क्योंकि कितनी सारी बातें हैं जिन का उस के इलाज से सीधा संबंध है...जो केवल एक इस बात पर आधारित होती हैं कि मरीज़ हमें कितना अपना मानता है, उस के परिजन हमें कैसे देखते हैं, हमारी छवि कैसी है ?

बातें शायद ये सारी कहने में जितनी आसान हैं, उतनी व्यवहार में उतनी आसान हैं नहीं................और एक बात और भी तो है, इस में नकलीपन चल नहीं सकता, सवाल ही पैदा नहीं होता, वो कहते हैं ना कि आंखें भी होती हैं दिल की जुबां......बिल्कुल ठीक ही कहते हैं। वो बात अलग है कि कभी कभार इस तरह के बर्ताव का थोड़ा ढोंग भी करना होता है.....ऐसा करने के बहुत से कारण हैं......उस एरिया में फिर कभी घुसेंगे.....लेकिन एक आम सा कारण जो मुझे दिखा है, जो मैंने अनुभव किया है वह यही है कि किसी कारण वश डाक्टर का स्वयं का मूड भी तो थोड़ा ऑफ हो ही सकता है........क्या वह इंसान नहीं है !! ….मन ठीक होते हुये भी वह उस दिन उस वक्त अगर मरीज़ की सलामती के लिये उसे अच्छा फील करवाने के लिये वह अपने मन का भारीपन अपने रूम के बाहर ही कहीं रखकर मरीज से , उस के परिजनों से अच्छे से बतिया रहा है तो भई मैं तो इसे उस डाक्टर की बहुत बड़ी उपलब्धि ही मानूंगा क्योंकि मैं जानता हूं कि ऐसा करना कितना मुश्किल है। ( हां, वो बात अलग है जब कोई डाक्टर किसी मरीज से इतने अच्छे से इंटरएक्ट करने की कोशिश कर रहा होता है, चाहे कभी कभार रियर्ली उस में इतनी जैनूयननैस ना भी हो, लेकिन वह बिल्कुल थोड़ा थोड़ा ड्रामा सा कर रहा है क्योंकि उस का स्वयं का मन ठीक नहीं है, तो ऐसे करते करते कब उस के मन का भारीपन हल्केपन में बदल जाता है....यह तो भई चिकित्सक को भी पता नहीं चलता) ।

एक बात और अहम् यह भी तो है कि कईं सरकारी हस्पतालों में मरीज़ की प्राइवेसी का इतना ध्यान रखा नहीं जाता, मुझे आज तक यह पता नहीं लगा कि आखिर हम क्यों समझ लेते हैं कि जिस के पास बाहर प्राइवेट में किसी डाक्टर के पास जाने के पैसे नहीं हैं, या जो कोई भी सरकारी हस्पतालों में आ रहा है, उस की कोई प्राइवेसी नहीं है। मैं तो भई इस से घटिया सोच मान ही नहीं सकता।

इसी प्राइवेसी वाली बात पर एक बात याद आ रही है.....मैं रोहतक मैडीकल कॉलेज में उन दिनों रजिस्ट्रार था....एक दिन राउंड चल रहा था , एक सीनियर डाक्टर एक ही कमरे में बहुत सारे डाक्टरों के बैठने की व्यवस्था के लाभ गिनाये जा रहे थे....गिनाये जा रहे थे ......कुछ समय तक तो सुना ...लेकिन एक हद के बाद मेरे से रहा नहीं गया.....मुझे यही लगा कि यार, होना-हवाना तो मेरे कहने से क्या है, लेकिन मन में अपनी बात आखिर क्यों दबी रहने दूं......तो मैंने कह ही दिया ....सर, ऐसा है ना कि इस तरह की व्यवस्था से हम मरीज़ की प्राइवेसी तो खत्म ही कर देते हैं। मैंने फिर आगे कहा कि सर, अब मुझे अगर किसी डाक्टर के पास कुछ परामर्श लेने जाना होगा, अगर कुछ उस से कोई बात करनी होगी तो मैं तो भई कोई ऐसा डाक्टर ही ढूंढूंगा जो अलग से बैठा हुया है ताकि मैं अपनी बात उसे अकेले में कह सकूं। तो, उस वरिष्ठ अधिकारी का जवाब सुन कर मैं झेंप कर रह गया.....उस ने मुझे यह कह कर चुप करा दिया कि डाक्टर साहब, आप तो बड़े आदमी हो गये ना। इतना सुनने पर मैंने भी अपनी बीन तुरंत नीचे ज़मीन पर पटकने में ही समझदारी समझी ( समझ गये न आप !)।

एक बात जो मुझे बेहद अखरती है कि कुछ सरकारी हस्पतालों में मरीज़ से उस के स्टेट्स के हिसाब से ही बात होती है। अब यह मेरा अनुभव है, मैं इस के बारे में किसी तरह की भी सफाई सुनने के मूड में कम से कम इस समय तो हूं नहीं.........तो, चलिये, यह तो मान भी लिया कि मरीज़ तो बेचारा बीमार है तो शायद इस मजबूरी की वजह से उसे डाक्टर का किसी तरह का भी लहज़ा आपत्तिजनक नहीं लगता, लेकिन उस के साथ अकसर उस के जो परिजन होते हैं उन्हें तो यह बिलकुल नहीं पचता कि उन के मरीज़ के साथ किसी तरह से भी बात करने के लहज़े में कुछ भी कमी रहे।
बात कोरी मनोविज्ञान की है........बच्चा है , उस के लिये तो भई उस का बाप किसी हीरो नंबर वन से कम नहीं है, वैसे देखा जाये तो हो भी क्यों, बच्चे के इस सोच के पीछे आखिर बुराई क्या है और जहां तक मरीज़ की पत्नी की बात है, उस के लिये तो उस का संसार ही वह स्टूल पर बैठा उस का बीमार बंदा है, उस का तो फरिश्ता ही वही है, तो फिर अगर कोई डाक्टर इन समीकरणों को नहीं समझता, केवल किताबों के आसरे ही मरीज़ को ठीक करने में लगे हुये उस से ठीक ढंग से व्यवहार नहीं कर पाता तो समझो उस की तो शामत आ ही गई .....उस का तो तवा पचास लोगों में लगेगा ही।
बदकिस्मती यही है कि इस तरह की बातें मैडीकल कालेजों में नहीं सिखाते ....यह तो हर बंदे को जिंदगी की किताब के पन्नों से ही सीखनी पड़ती हैं। तो इन्हें जितनी जल्दी सीख लिया जाये उतना ही ठीक है।

हम बहुत ही मज़ाकिया ढंग से कह तो देते हैं कि यार, ये नीम-हकीम तो भई क्वालीफाईड डाक्टरों से भी ज्यादा सफल हो रहे हैं। तो इस का कारण भी यही है कि उन्होंने इस मरीज़ के इस ह्यूमन कंपोनैंट को बहुत ऊंचा रखना सीख लिया है.........मैं इन नीम-हकीमों को किसी तरह से डिफैंड करने की कोई कोशिश नहीं कर रहा हूं.....वैसे मरीज़ के इलाज के दौरान क्या क्या गुल खिला कर मरीज़ की जिंदगी से किस तरह से खिलवाड़ करते हैं, वो बात तो है ही ...आप सब जानते ही हैं....लेकिन यहां बात हो रही थी केवल उन के व्यवहार की , मरीज़ के मन में उन के प्रति विश्वास की।
तो संक्षेप में इतना ही कहना चाहूंगा कि डाक्टरी विज्ञान की जानकारी के साथ ही साथ डाक्टर में ढ़ेरों सॉफ्ट स्किलस का डिवेल्प होना भी बेहद ज़रूरी है......क्योंकि इन सब को भी इस्तेमाल करना मरीज के इलाज का हिस्सा ही है। और रही बात डाक्टर की, कईं बार उसे इन को व्यवहार में लाने के लिये किस तरह से शमा की भांति जलना पड़ता है, इस की चर्चा फिर कभी । लेकिन इतना ध्यान रहे कि यह काम इतना आसान भी नहीं है, खास कर तब जब कोई सहानुभूति करने का , जैनूइयन बनने का ढोंग कर रहा है..............क्योंकि कागज़ के फूल...कागज़ के फूल....खुशबू कहां से लायोगे !!

शिक्षण संस्थानों का यह धंधा बढिया है !

मुझे बहुत ही ज्यादा आपत्ति है उन सारे शिक्षण संस्थानों से जो अपने प्रोस्पैक्ट्स महंगे महंगे मोलों पर बेचते हैं कि कईं बार डिसर्विंग छात्र इसलिये ही इन प्रोस्पैक्ट्स को खरीद ही नहीं पाते। इन का मोल जो अकसर दिखता है...पांच सौ रूपये, हज़ार रूपये..........यह इन संस्थानों की डकैती है, लूट है, सरे-आर धांधली है। और जब उस प्रोस्पैक्ट्स को देखो तो इतना अजीब सा लगता है कि यार इन चार पन्नों की कीमत पांच सौ रूपये। दरअसल होता ऐसा है कि इन संस्थानों ने अप्लाई करने की फीस भी इस में शामिल की होती है। एक बार जब प्रोस्पैक्ट्स लोग खरीद लें,तो कालेज, यूनिवर्सिटी एवं संस्थानों की बला से........अप्लाई करें या न करें, इलिजिबल हैं कि नहीं ....उन से इस से क्या लेना-देना.....उन का तो सीधा सा काम है रूपये इक्ट्ठा करने .....सो वे पहले ही से कर चुके हैं।
एक बार इतने महंगे महंगे प्रोस्पैक्ट्स खरीदने के बाद छात्रों के पास इन कोर्सों के लिये अप्लाई करने के सिवाय कोई विकल्प रहता ही नहीं। बस, यह सब धांधली देख कर बहुत दुख होता है। अकसर इस समय मैं यही सोच रहा होता हूं कि लोग डाक्टरो का तो कईं बार रोना रोते हैं लेकिन इस तरह के रोने राते किसी को देखा नहीं......न तो कभी प्रिट मीडिया में ही इस तरह से आवाजें उठती देखीं, न ही शायद इलैक्ट्रोनिक मीडिया में ही इस के बारे में कभी कुछ सुना.......................पता नहीं लोग अपनी बात कहने के लिये किस बात का इंतजार कर रहे हैं।
मैं मानता हूं कि किसी मैकडोनाल्ड में जाकर पांच सौ रूपये के बर्गर -फिंगर चिप्स खाने वाले लोगों पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन आम आदमी किसे अपना दुखडा सुनाये।
मुझे ही बतलाईये की इस के लिये किस को अपनी बात लिख कर भेजनी होगी.......मैं ही करूं थोड़ी शुरूआत। मेरे विचार में यह बहुत गंभीर मसला है। आप क्या सोचते हैं इस के बारे में।