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गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

खिलते हैं गुल यहां...

किसी भी रास्ते पर या किसी बाग में कोई फूलों को तोड़ कर एक पन्नी में इक्ट्ठा करते दिख जाता है तो मुझे बहुत बुरा लगता है ..मन ही मन दुआ ज़रूर करता हूं कि ईश्वर इन्हें सद्बुद्धि दीजिए कि बागों में फूल तोड़ने के लिए नहीं होते..

एक एनजीओ द्वारा मुहिम चलाई गई थी..टीवी पर भी विज्ञापन आया करता था बहुत बार ..जिस घर से किसी तरह की भी डेमोस्टिक वॉयलेंस की आवाज़ आ रही हो तो बस आप एक काम कीजिए...चुपचाप जा कर उस घर की घंटी बजा दीजिए...बस, इतने से प्रयास का कमाल देखिए।

दिल्ली में भी कुछ मुहिम चली तो थी शायद कुछ इस तरह की गांधीगिरी कि जिस किसी को भी आप देखें कि वह ऑड-ईवन का उल्लंघन कर रहा है, स्कूली बच्चे उसे प्यार से एक फूल थमा दिया करें...

और अब तो घर से बाहर जा कर शोच करने वालों के लिए भी कुछ इसी तरह का काम हो रहा कईं जगहों पर ...जब ये लोग दिखें तो कुछ लोग ढोल बजाने लग जाते हैं ..और उन्हें एक फूल भेंट करते हैं..


मैंने भी सोचा कि इन फूल तोड़ने वालों का भी कुछ ऐसा ही समाधान होना चाहिए... आज भी एक औरत बहुत खूबसूरत से फूल एक के बाद एक तोड़े जा रही थी, मुझ से रहा नहीं गया...मैं बस चंद लम्हों के लिए रूक गया और उस तरफ़ देखने लग गया..कुछ कहा नहीं...चंद लम्हों में ही फूल टूटने बंद...यही होना चाहिए, आप को भी जब कभी इस तरह के लोग दिखें, मुंह से कुछ न कहिए, बस रूक कर उन की तरफ़ देख लीजिए....इतना ही काफ़ी है ...क्योंकि उन्हें पता है कि वे गलत कर रहे हैं, एक तरह की चोरी कर रहे हैं ....बस, अहसास ही करवाना होता है कि हम देख रहे हैं।

चोरी भी ऐसी कि किसी के हिस्से की खुशियों पर डाका डाल रहे हैं ...आप ने ज़रूर अनुभव किया होगा ...हम लोग कईं बार कितने भी निराश हों तो एक मुस्कुराता फूल हमें कैसे खुश कर देता है ...मेरे घर के सामने यह फूल है ..जब सुबह ड्यूटी पर जाने से पहले कभी मेरी नज़र इस पर पड़ जाती है तो मैं उत्साह से भर जाता है ..

सत्संग में हमें अकसर समझाते हैं...
गुजरों जब बाग से 
बस दुआ मांगते चलो
जिस पर हैं ये फूल 
वह डाल हमेशा हरी है ....

और बाग में फूलों की बात तो और भी निराली है ...लोग सुबह सुबह ऊर्जा लेने पहुंचते हैं...अपनी सब तरह की दुनियावी परेशानियों से निजात पाने हेतु...आते जाते जैसे ही इन्हें ये फूल दिखते हैं तो इन के चेहरों पर खुशियां कईं गुणा बढ़ जाती हैं... और हमें पता नहीं कि डाल पर लगे फूलों ने सैंकड़ों-हज़ारों को राजी कर देना है ...और हम हैं कि उन्हें दो टके की पन्नी में बटोरने की हिमाकत से बाज ही नहीं आते...

आज सुबह की खुशियों की डोज़
ईश्वर ने इन फूलों को बनाया ही इसलिए है ताकि हम इन से कईं तरह की सीख ले सकें....सहनशीलता, परोपकार, प्रेम एवं सौहार्द के पाठ पढ़ सकें..और इस से साथ साथ इन को बनाने वाले कलाकार का ध्यान हमेशा मन में बसा कर रखें।
आज मुझे इन फूलों ने खुश कर दिया... एक दम भरपूर खुशीयां मिलीं...

आज बाग में सुबह जल्दी जाने का अवसर मिल गया....देखा तो सैंकड़ों लोग टहल रहे थे...सभी आयुवर्ग के ... छोटे छोटे बच्चे भी पूरे मजे कर रहे थे...कुछ झूला झूल रहे थे ..एक तो मजे से स्केटिंग कर रहा था...स्केट्स भी कुछ तरह के ही थे इस के ...मुश्किल तरह के ..लेकिन बचपन तो बचपन होता है, बेपरवाह।

बहुत से लोग ग्रुप में और कुछ लोग अकेले ही अपने अपने योगाभ्यास में लगे दिखे..योगाभ्यास में मैने नोटिस किया है कि जो लोग ग्रुप में करते हैं उन में से कुछ लोग बातें बहुत कर रहे होते हैं...योग अपने साथ जुड़ने का जरिया है ...क्या इतने शोर शराबे में यह संभव हो पाता होगा!....पता नहीं, यार!!

एक दो लोग ७०-८० के दशक के फिल्मी गीत का लुत्फ उठाते दिखे ..टहलते हुए.... यू ही तुम मुझ से बात करती हो ...(फिल्म-सच्चा झूठा) ...खुश थे, मस्त थे, इस तरह के गीतों में ...बहुत अच्छे... एक भाई जी लंबे समय से शीर्षासन पर ही जमे दिखे ...उन की मर्जी।

यह सुबह की यात्रा का वर्णऩ बार बार क्यों, ताकि आप को बार बार प्रेरित किया जा सके कि उठिए आप भी, कुछ मिनटों के लिए घर से बाहर तो निकलिए ..  जल्दी करिए, वरना तीखी धूप आ जायेगी.... सुप्रभात!

बाग से बाहर आते हुए एक युवक की टी-शर्ट पर एक स्लोगन दिखा ...Everything will be OK... अच्छा कूल संदेश है...लेकिन मुझे सिद्ध समाधि योग के गुरू रिषी प्रभाकर जी की बात याद आ जाती है...अपने बंबई प्रवास के दौरान उन्होंने हमें दो कैसेट रोज़ाना सुनने को कहा था... Everything is OK और दूसरी थी..Nothing Matters! उस कैसेट में यही था कि अगर हम इस चेतना के साथ जीते हैं कि Everything is OK... तो यह ईश्वर के प्रति हमारा सर्वश्रेष्ठ समर्पण है, जो भी यह ईश्वर कर रहा है, अच्छा ही कर रहा है, सब कुछ इस के आदेशानुसार हो रहा है तो बेशक अच्छा ही हो रहा है....अकर्ता भाव बना रहता है इस सोच से...जब कि Will be OK वाली बात भी सतही तौर पर ठीक तो लगती होगी लेकिन उस में ऐसा लगता है कि अभी कुछ तो गड़बड़ है जिस के लिए कुछ तो करना पड़ेगा ताकि सब कुछ ठीक हो जाए.......Let's start the day with simple thought...........Everything is OK!

Just chill! और जाते जाते ज़रा इन के पहले प्यार की खुशबू थोड़ी आप भी ले लीजिए...



बुधवार, 20 अप्रैल 2016

लोग दो तरह के होते हैं...


आप को भी उत्सुकता हो रही होगी कि अब यह कौन सा नया वर्गीकरण लेकर आ गया है लोगों का ...वैसे मैं किसी भी तरह के वर्गीकरण में विश्वास नहीं करता ...लेकिन एक वर्गीकरण मेरे विचार में हमेशा से है ..एक वे लोग जो पेड़-पौधों से प्यार करते हैं और दूसरे वे जो नहीं करते।





मैं कईं बार एक बात पहले भी शेयर कर चुका हूं कि कालेज में हमारी बॉटनी के प्रोफैसर साहब ...श्री एप सी कंवल साहब हमें बहुत अच्छे से बॉटनी पढ़ाते थे..मुझे इस में बहुत रूचि थी...मैं बॉटनी ही पढ़ना चाहता था...पेड़-पौधों की बातें करना, उन के रहस्यों के बारे में जानना अच्छा लगने लगा था...तभी डेंटल कालेज वालों ने बुला लिया...थ्री-ईडिट्एस फिल्म नाम की कोई चीज़ थी नहीं...क्योंकि बीडीएस करने के बाद नौकरी मिल जायेगी ...क्योंकि कालोनी के किसी दूसरे लड़के को मिल गई थी...इसलिए हम भी डैंटल कालेज के सुपुर्द कर दिये गये ..अगले आठ साल के लिए...न चाहते हुए भी ...लेकिन वहां भी दूसरे साल तक पहुंचते पहुंचते मन टिक गया...और टॉप-वॉप करना एक बार शुरू हो गया तो बस! 

वनस्पति विज्ञान के प्रोफैसर साहब की बात करना चाहता हूं...हमें पेड़-पौधों के बारे में बहुत अच्छे से समझाया करते थे..पहली बात पता चला कि इन का भी अस्तित्व हमारी तरह ही है .. (living beings)...पू. सुंदर लाल बहुगुणा के चिपको मूवमेंट के बारे में बताते हुए वे अकसर इतने भाव-विभोर हो जाते थे कि हम सब भी इमोशनल हो जाया करते ..बाल मन वैसे भी कच्ची मिट्टी जैसा होता है ..वही मूवमेंट जिस में जब ठेकेदार के लोग गांवों में पेड़ काटने जाते तो चिपको मूवमेंट से जुड़े लोग पेड़ों के साथ चिपक जाते कि पहले हमें काटो, फिर पेड़ों को काटो...और इस तरह से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई पर बहुत रोक लग पाई...

एक काम करिए..चिपको मूवमेंट जैसी महान मुहिम को पास से जानने के लिए गूगल करिए .. chipko movement... पूरा दिन कैसे निकल गया, पता ही नहीं चलेगा..


चलिए चिपको मूवमेंट के बारे में तो आपने जान लिया...अब मैं पोस्ट में थोड़ा सा ओपिनियन डालूंगा...ब्लॉग की सब से बड़ी मजबूरी कह लें या USP कि इस में ब्लॉगर का ओपिनियन भी शामिल होता है ...






पेड़ों के बारे में मेरे जो विचार हैं उन्हें शेयर करना चाह रहा था...ये जो मैं नीचे तस्वीरें लगा रहा हूं ये सब लखनऊ शहर की हैं...शहर के अंदर मैं अकसर देखता हूं कि लोगों की पेड़ों से बेइंतहा मोहब्बत है .. इन की पूजा-अर्चना होती है ...मैं जब किसी पेड़ के इर्द-गिर्द लाल धागे बंधे देखता हूं, उस के नीचे किसी मूर्ति पड़ी देखता हूं जिसके आस पास लाल रंग के कपड़े में लिपटे पानी के मटके और धूप-बत्ती जलती देखता हूं तो मैं बहुत खुश हो जाता हूं..यह खुशी बस इसलिए होती है कि चलिए, यह पेड़ तो कुल्हाड़ी से बच गया, इसे तो इस के आसपास के लोगों ने गोद ले ही रखा है..

जितना भी देश को देखा है यही अनुभव किया है कि जिन क्षेत्रों की पुरातन संस्कृति की धरोहर कायम हैं ..वे लोग किसी न किसी वजह से पेड़-पौधों का सम्मान करते हैं, वहां पर पेड़-पौधे बच जाते हैं ...या फिर जहां पर पेड़ बहुत कम हैं...बड़े महानगरों में जैसे ...वहां भी लोग इन के बारे में बड़े सजग हैं, इन पर कुल्हाडी आसानी से चलने नहीं देते...मैं तो इतना भी कहता हूं कि हमारा इन पेड़ों के प्रति क्या रवैया है, यह हमारी मानसिकता को भी दर्शाता है शायद..

ओपिनियन की बात करूं ...तो मैंने यह अनुभव किया कि पंजाब-हरियाणा में लोगों को पेड़-पौधों से ज़्यादा प्यार नहीं है, मैंने जैसा कि पहले कहा ...यह मेरा ओपिनियन है ..शायद आप को ठीक न लगे, लेकिन जो मैंने बचपन से अनुभव किया...अपने परिवेश में, आस पास ...यहां तक कि अपने परिवार में, उसी के आधार पर ही कुछ कहना चाहता हूं...प्रेम तो दूर, मैंने तो परिवार में भी घने, छायादार पेड़ों को मामूली कारणों की वजह से कटवाते ही देखा...इसे पेड़ों की बेअदबी ही तो कहेंगे!






हरियाणा में हाल ही के जाट अंदोलन के दौरान कितनी बड़ी संख्या में पेड़ काट दिये गये....संख्या मैं भूल गया..लेकिन वह संख्या किसी को भी रूलाने के लिए बहुत थी...काटे भी इसलिए केवल कि सड़कों पर उन्हें बिछा कर रास्ते को रोका जा सके.....जीत गये भाई, थम जीत गये....आरक्षण की बहुत बहुत मुबारकबाद।

कुछ कारण जो मैंने देखे अनुभव किए पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलने के ...

धूप रोक रहे हैं, काटो इन पेड़ों को 
एक अहम् कारण पंजाब हरियाणा में पेड़ों को काटने का यह है कि यहां पर जैसे ही सर्दी शुरू होती है ...लोगों को बहुत सी धूप चाहिए....कितनी?...हमारी धूप की भूख इस कद्र बढ़ जाती है कि हमें पेड़ों की हरियाली की वजह से रूक जाने वाली धूप से अचानक बहुत प्यार हो जाता है ...हम तुरंत किसी मजदूर को दिहाड़ी पर लगा कर सब से पहले पेड़ को अच्छे से कटवा दिया करते हैं, धूप तो खुल के आए...कंपकंपाते हाड़ खुले तों!

यह मैं बचपन से देख रहा हूं...निरंतर ... सोचने वाली बात यह है कि क्या धूप ज़रूर उतनी ही जगह में आयेगी...थोड़ा इधर उधर बैठ कर भी धूप श्नान लिया जा सकता है ...लेकिन नहीं, हम से सहन नहीं होता कि पेड़ हमारे हिस्से की धूप को रोक लें

जब हम लोग बिल्कुल छोटे थे तो अकसर सर्दी शुरू होते ही कश्मीर से हातो आ जाया करते थे यह काम करने ...वे ३०-४० रूपये लिया करते और पेड़ लगभग सारा काट दिया करते ...वे कुल्हाडी अपने साथ ही लेकर चला करते थे...

इन बंदरों ने नाक में दम कर रखा है 
एक दूसरा कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई का यह भी है जो पेड़ बड़े बड़े घरों में लगे हुये हैं उन पर अकसर बंदर आ जाते हैं...अब बंदर तो ठहरे बंदर ...उन्हें कौन शिष्टाचार सिखाए....कभी घर के किसी बाशिंदे की बनियान फाड़ दी या किसी बडे-बुज़ुर्ग को उसने आंखें दिखा दी तो उन की खैर नहीं....तेरी ऐसी की तैसी....तेरी इतनी हिम्मत ...कल सुबह ही तूरा बंदोबस्त करता हूं...सुबह सुबह किसी मजदूर को बुला कर गुस्से में पेड़ ही कटवा दिया जाता है ...न रहेगा बांस न रहेगी बांसुरी ...

पत्ते बहुत गिरने लगे हैं, पेड़ ही कटवा देते हैं
रोज़ रोज़ घर के आंगन में अगर पतझड़ के मौसम में बहुत से पत्ते गिरने लगे हैं ..तो पेड़ को ही अच्छे से कटवा दिया जाए...प्रूनिंग के नाम पर उसे उस की औकात बता दी जाती है ...बस, पत्ते गिरने बंद ..और सभी खुश...

बच्चों के पत्थरों से बचने के लिए 
कभी घर की दीवार के बाहर या अंदर लगे फलदार पेड़ों से बेर, शहतूत या आम लेने के लिए बच्चे पत्थरों का इस्तेमाल करते हैं...आंगने में गिरने वाले इन पत्थरों के चक्कर में कब किसी का दिमाग सटक जाए, कोई भरोसा नहीं, बच्चे तो भाग लिए...कोई बात नहीं, पेड़ तो है, इसी को ही बुरी तरह से कटवा छंटवा कर ही दम लिया जाता है ...अब देखते हैं पत्थर कहां से आते हैं। 





पीपल तो घर की नींव में घुस जायेगा
जितना भयभीत मैंने अपने आस पास के लोगों को पीपल जैसे पेड़ों से होते देखा है, शायद ही किसी और पेड़ से देखा हो ...इन्हें घर में पीपल का छोटा सा पौधा देख कर यही लगता है कि यह घर की नींव में घुस कर बहुत गड़बड़ कर देगा...लेकिन इसे अकसर लोग स्वयं नहीं उखाड़ते...किसी मजदूर को कहते हैं...क्योंकि अगर इसे काटने से अगर कोई पाप वाप लगने वाला इश्यू है तो वह मजदूर ही सुलटे...हम क्यों बेकार उस चक्कर में पड़ें...क्योंकि ऐसी आस्था तो है कि इस तरह के पेड़ पवित्र तो हैं लेिकन घर में नहीं, बाहर किसी जगह पर लगे हुए...जहां पर इन की परिक्रमा ली जाती है, इन पर लाल-पीले धागे बांधे जाते हैं...यह सब कुछ देख कर भी आदमी असमंजस में पड़ जाता है ..
वैसे मजदूर भी अच्छे समझदार हो चले हैं ..वे और कुछ भी काट-उखाड़ देंगे लेकिन पीपल जैसे पेड़ को काटने से मना कर देते हैं.. बहुत अच्छे!

 कीड़े-मकौड़े बहुत हो गये है, कटवाओ इस शहतूत को
कीड़े-मकौड़े अगर घर आंगन में दिखने लगें ना...जिन के छिद्रों के आस पास हम लोग पास ही के खाली मैदान में जाकर आटा डाल कर आते हैं...लेिकन अगर ये घर में दिखने लगें और एक बार यह देख लिया कि यह शहतूत के पेड़ की वजह से आ रहे हैं ...बस, फिर न कोई बचा सके इस शहतूत को...वैसे भी शहतूत काटने वाला सारा पेड़ काट भी देगा और दो टोकरियां भी दे जायेगा...चलो निपटाओ इस को भी, बुलाओ उस काटने वाले को ...मकौड़ों ने नाक में दम कर रखा है!

क्यारी में फुल-गोभी नहीं बढ़ रही तो भी यह शीशम बलि चढ़ता है 
अगर पड़ोस वाली आंटी की फुल-गोभी चंद दिन पहले तैयार हो गई और हमारी अभी बिल्कुल छोटी है तो इस पर मंथन होगा कि कहीं इस बड़े से शीशम की वजह से नीचे ज़मीन तक न धूप सही पहुंचने के चक्कर में तो सब्जी ठीक से बढ़ नहीं रही...ठीक है, कल इस कमबख्त शीशम की छुट्टी करते हैं.

शीशम को तो जड़ से निकलवा देते हैं..
एक घनी पढ़ी लिखी हमारी आंटी जी थी पड़ोस की ...वे पेड़ों की छंटाई नहीं करवाती थीं, सात आठ सौ रूपये में पूरे पेड़ को ही बेच दिया करती थीं...उन्हें हमेशा यही रहता था कि अगर जड़ रहेगी तो फिर से इन के उगने का "खतरा" रहता है। मैं कईं बार देखा करता कि आठ दस मजदूर लग जाते, सारा दिन लगा कर पेड़ काटते, फिर बड़ी मेहनत से उस की जड़ भी निकालते ...ट्राली पर डाल कर उसे सात सौ रूपये थमा कर भाग लेते...और हम जैसों के लिए बहुत से प्रश्न छोड़ जाते ...अजीब सा लगता था यह सब देखना....

पड़ोसी की शिकायत है कि पत्ते उस तरफ़ गिरते हैं, धूप रोक रखी है 
कईं बार पड़ोसी की शिकायत हो जाती है कि आप के पेड़ के पत्ते हमारी तरफ़ गिर रहे हैं, इस ने तो धूप ही रोक ली है हमारे हिस्से की...इसी चक्कर में भी बड़े, छायादार पेड़ों को कोई भी कुल्हाडी से न बचा पाता...

और भी बहुत से अनुभव हैं ...क्या क्या लिखूं....छुट्टी का दिन है, ये चित्रहार के सुंदर गीत सुनिए और छुट्टी मनाईए..बहुत दिनों से इस विषय पर मन के भाव प्रकट करना चाह रहा था... 

लखनऊ शहर में आम जन का पेड़ों के प्रति प्यार देख कर मन खुश होता है ...सर्विस में जैसे होता है ..अच्छा काम करने वालों से भी कोई न कोई तो नाखुश रहते ही हैं...एक बॉस था किसी ज़माने में ..एक बार उसने कहा कि लखनऊ भिजवा देंगे आपको ...हमें लखनऊ के बारे में बिल्कुल पता नहीं था, हमें लगा कि जैसे कि यह काला पानी भिजवाने की बात कह रहे हों, हमारे मुंह से अनायास निकल गया कि अगर लखनऊ तो नहीं जाएंगे, हम त्याग-पत्र दे देंगे...पांच छः साल तक यह सिलसिला चलता रहा ...एक बार शायद कोई हमारा त्याग-पत्र ही चाहता होगा कि चलो, इन के लखनऊ के आर्डर निकाल देते हैं...वहां तो क्या जाएंगे...नौकरी छोड़ देंगे.....लेिकन कहने की बातें और होती हैं....कौन छोड़ता है नौकरी इन छोटी छोटी बातों के लिए... हम लोग आ गये लखनऊ......इतना बढ़िया शहर, बढ़िया लोग .....अब मन में यही मलाल है कि पांच सात साल पहले ही उसने इधर भिजवा दिया होता, हम भी यहां की सभ्यता-संस्कृति को और पास से देख लेते...

बहरहाल, जो मैंने ऊपर पेड़ों की तस्वीरें लगाई हैं ये सब लखनऊ में मैंने दो दिन पहले खींची थी...मैं जहां भी घने, छायादार पेड़ देखता हूं, उन्हें निहारने लगता हूं ...कैमरे में बंद कर लेता हूं...आप अनुमान नहीं लगा सकते कि मुझे ऐसे पेड़ों को निहारने और इन के साथ समय बिताने की कितनी ज़्यादा भूख है ....

आज के इस विचार को यहीं समाप्त करते हैं.... 

ये कहां के आदिवासी हैं, दिखते तो किसी दूर-देश के हैं, लेकिन बोल-वाणी बिल्कुल बाराबंकी वाली ... 😄 😎 😄....but one of my fav. songs...इस की सी.डी मैं अनगिनत बार देख-सुन चुका हूं...my sons make fun of this!😉


लखनऊ की दो बदसूरत सड़कें जो मुझे लगती हैं वे हैं जेल रोड और व्हीआईपी रोड़...कहते हैं इस क्षेत्र में कुछ साल पहले घना जंगल था..बहुत पुराने छायादार पेड़ पौधे...अब तो इन रास्तों पर चलते हुए ऐसे लगता है जैसे आग बरस रही हो...एक भी पेड़ नहीं दिखता, बिल्कुल बदसूरत रास्ते....पता नहीं कौन प्लॉनिंग करता है, सड़क के बीचों बीच डिवाईजर पर भी पेड़ों के नाम पर कांटेदार झाड़ियां लगवा दी गई हैं...कमबख्त ये भी उमस भरी गर्मी में आने जाने वालों की आंखों में घमौड़ियों की तरह चुभती हैं। 


मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

24-25 की उम्र में बालों की कलरिंग...

परसों मेरे पास एक युवक आया था..उम्र २४-२५ साल की थी..मैं उसे चेक कर रहा था तो मेरा ध्यान उस के कुछ ज़्यादा ही काले बालों की तरफ़ चला गया...मैं ऐसे ही पूछ लिया ..क्या बात है बाल इतने ज़्यादा काले कैसे हैं?...मुझे उस का जवाब सुन कर बहुत ही हैरानगी हुई कि मैं बालों को कलर करता हूं...

इतनी कम उम्र के किसी नवयुवक से बालों को कलर करने वाली बात मैं पहली बार सुन रहा था...उसने बताया कि क्या करता डाक्साब, बहुत ज़्यादा बाल सफ़ेद हो गये थे...

मैंने कईं बार इस ब्लॉग पर शेयर किया है कि विविध भारती पर हर सोमवार के दिन बाद दोपहर ४ से ५ बजे तक एक प्रोग्राम आता है ..पिटारा...उस पिटारे से हर सोमवार के दिन सेहतनामा प्रोग्राम निकलता है ...इस में किसी विशेषज्ञ से वार्ता सुनाई जाती है..

कल विविध भारती में एक चमडी रोग विशेषज्ञ से बालों की सेहत के बारे में ही चर्चा चल रही थी..बीच बीच में आमंत्रित विशेषज्ञ की पसंद के हिंदी फिल्मी गीतों का तड़का भी लग रहा था..

मैं चंद मिनट तक ही इस प्रोग्राम को सुन सका...उसके बाद मेरे मरीज़ आने शुरू हो गए...लेकिन कुछ बातें इन्हीं बालों के बारे में आपसे शेयर करने की इच्छा हो रही है..

बातें हो रही थीं छोटी उम्र में युवावस्था में ही बाल झड़ने की और बाल सफ़ेद होने की ...एक बात जिस पर बहुत ज़ोर दिया जा रहा था वह यही थी कि जिस तरह से अाधुनिकता की दौड़ में जंक फूड़, फास्ट फूड और प्रोसेस्ड फूड ने हमारे पारंपरिक सीधे सादे हिंदोस्तानी को पीछे धकेल दिया है ..विशेषकर युवाओं में...उसी का परिणाम है कि बहुत ही कम उम्र में बाल गिरने लगते हैं...और बाल सफेद होने लगते हैं...डाक्साब बता रहे थे १८-२० साल के युवा आने लगे हैं जिन के बाल गिरने की वजह से उन्हें baldness परेशान करने लगी है..

अभी टीवी देख रहा हूं एक विज्ञापन आ रहा है जिस में एक २५-३० साल का एक युवक बालों के पतलेपन को दुरूस्त करने के लिए किसी हेयर-टॉनिक लगाने की सलाह दे रहा है...बिना किसी चमडी रोग विशेषज्ञ की सलाह के सब कुछ बकवास है ..बिल्कुल उसी तरह से जिस तरह से डेंटिस्ट की सलाह के बिना लोग तरह तरह के मंजन-लोशन मुंह और मसूड़ों पर लगाना शुरू कर देते हैं जिन से होता कुछ नहीं...बस रोग को बढ़ावा ही मिलता है।

दूसरी बात विविध भारती के प्रोग्राम में डाक्साब बता रहे थे ..वह यह थी कि कुछ लोग हेयर कलर करने के लिए कलर नहीं मेंहदी का इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं...डाक्साब ने साफ़ साफ़ कहा कि आजकल ऐसी मेंहदी मिलती ही नहीं जिस में कैमीकल न मिला हो...बिल्कुल सही फरमाया डाक्साब ने...

वे बता रहे थे कि किस तरह से आज कल मेंहदी कुछ ही मिनटों में किस तरह से हाथों और बालों को गहरे रंग में रंग देती है ....यह सब तरह तरह के कैमीकल का ही कमाल है...जो हमारी बालों की सेहत के लिए ही नहीं, सेहत के लिए भी बहुत खराब होता है...

आप-बीती भी ब्यां करनी होती है ब्लॉग में

इधर उधर की तो हांक ही लेते हैं हम कलम वाले लोग, लेकिन ब्लॉग में आपबीती बताना भी तो अहम् होता है...

मैंने भी आज से लगभग १५ वर्ष पहले अपनी मूंछों और कान के बिल्कुल पास पास काली मेंहदी लगानी शुरू की थी...बिल्कुल थोड़ी लगाता था...लेकिन अपने आप पर हंसी आती थी यह सब करते हुए...लगाता था मैं चार पांच मिनट के लिए ही ...लेकिन जलन शुरू हो जाती थी होंठों पर...फिर धो कर बर्फ लगा लेता था...

कुछ समय बाद समझ आ गई कि यह काली वाली मेंहदी प्योर नहीं है...कैमीकल तो है ही इसमें...किसी अच्छी कंपनी की मेंहदी लेंगे ..उन दिनों गोदरेज की नुपूर मेंहदी आने लगी थी..शायद दो तीन वर्ष तक लगाता रहा ...दस पंद्रह दिन में एक बार थोड़ी सी ..चंद मिनटों के लिए ...लेकिन इसी चक्कर में मूंछों और कानों के आस पास बहुत से बाल सफेद हो गये...और ऊपर वाले होंठ पर निरंतर एलर्जी जैसी लाली रहने लगी...बहुत बार खारिश भी हो जाती।

अब लगने लगा कि इस से आगे चलें....गार्नियर कंपनी का हेयर कलर लगाना शुरू कर दिया... मूंछों पर और कान के आस पास... कर तो लेता था यह सब कुछ लेकिन अजीब सा लगता था, बहुत बड़ा फेक होने की फीलिंग आती थी...अपने आप से झूठ बोलने जैसा लगता था...

शायद चार पांच साल हो गये हैं इस बात को ...एक दिन विचार आया कि अब सिर के बाल भी बीच बीच में सफ़ेद होने लगे हैं...अब यह गार्नियर कंपनी वाला कलर सिर के बालों पर भी लगाना शुरू किया जाए....उस दिन जब बड़े बेटे ने मेरे इस फितूर के बारे में सुना तो उसने आराम से इतना ही कहा .... "What is this, yaar? One must always grow old gracefully!"

बस, उस दिन मुझे ऐसा झटका लगा कि मैंने मूंछों, कान के पास के बालों पर भी सब तरह के कलर-वलर लगाने बंद कर दिये...अब मैं बहुत बार उस का शुक्रिया अदा करता हूं कि यार, अच्छा किया तुमने उस दिन मेरी खिंचाई की....After all, child is the father of man!

शैंपू के बारे में आपबीती
सब कलर वलर छोड़ने के बाद धीरे धीरे शैंपू भी ना अच्छा लगता...यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव था... इस में मैंने किसी चमडी रोग विशेषज्ञ से कुछ नहीं पूछा...मुझे यही लगने लगा कि पता नहीं इन शैंपू आदि में भी क्या क्या डाल रखा होगा... मुझे लगता है कि शायद यह सब सोचना कुछ ज्यादा ही था....लेकिन सच्चाई जो है सो है...मुझे पतंजलि का शैंपू भी अजीब सा लगता...यही लगता कि यह भी दूसरे अन्य शैंपुओं की तरह ही होगा.....और एक बात मैंने नोटिस की हमेशा कि बालों को शैंपू करने के बाद वे बड़े शुष्क से हो जाते थे...

रीठा, आंवला, शिकाकाई
इतने में पता चला कि बाज़ार में रीठा, आंवला, शिकाकाई का पावडर मिलता है....बस दो तीन साल से केवल इसे ही इस्तेमाल करता हूं ..कलर करने के लिए नहीं...बस, बालों की सफाई के लिए ...दो तीन दिन बाद एक चम्मच पानी में घोल कर नहाते समय सिर पर लगाता हूं ...पांच मिनट में धो लेता हूं...अच्छे से सफ़ाई हो जाती है ...इस मिश्रण के बारे में कहा जाता है कि इसे कुछ घंटे बालों पर लगा कर छोड़ देना चाहिए.........अब, इतने झंझट में नहीं पड़ा जाता....मुझे इसी बात की खुशी है कि हेयर कलर पीछे छूट गये हैं और बालों की सफ़ाई भी प्राकृतिक ढंग से रीठा-आंवले के मिश्रण से अच्छे से हो जाती है ...

अपने ब्लॉग पर हम लोग भी क्या क्या शेयर कर देते हैं....अपने साबुन-शैंपू तक की बातें...बस इसलिए कि अगर हम एक दूसरे के अनुभव से कुछ सीख सकें...वैसे इतना लिखते लिखते सिर की चंपी करवाने की इच्छा तो हो ही गई होगी...उस का भी जुगाड है यहां..

पिछले कुछ वर्षों में भी इस विषय पर मैं कुछ कुछ लिखता रहा हूं...अभी ध्यान आया तो ब्लॉग खंगालने पर ये कढ़ियां मिल गईं...


गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

बतरस.....कटहल, गंगा जल, कांग्रेस बूटी और पौधों के नक्षत्रों-गृहों की बातें




आज सुबह एक दुकान पर कुछ लेने के लिए रुका तो बाकी पूजन सामग्री तो समझ में आ रही थी ..ये इंजेक्शन की शीशियां समझ में नहीं आई..मैंने सोचा ...गुलाब जल या केवड़ा जैसा कुछ होगा...


इसे हाथ में उठाया तो पता चला कि यह तो गंगा जल है ...दुकानदार ने पूछने पर बताया कि पांच रूपये की शीशी है ...मैं इसी सोच में पड़ गया कि कुछ साल पहले तक तो ५ लिटर की प्लास्टिक की कैनीयों में बिकता था गंगा जल..अब जब कि पाप इतने बढ़ गये हैं लेकिन गंगा जल की पैकिंग इतनी छोटी हो चली है..एक ध्यान यह भी आया कि पता नहीं पतंजलि इंडस्ट्री इसे कब लांच करेगी...देखते हैं..वैसे टीके की एक शीशी तो इस से भी छोटी आती है !


आज मैं स्टेशन के बाहर खड़ा था..मैंने देखा एक ८० साल के करीब की वृद्ध महिला सीढ़ियां चढ़ रही थी और उस के पीछे ४०-५० के करीब की महिला थी...बहु-बेटी होगी... मुश्किल से वह वृद्धा सीढ़ियां चढ़ रही थीं, मुझे देख कर यही लगा कि उस के पीछे चलने वाली महिला भी धीरे धीरे उस के पीछे उस का साथ देने के लिए चल रही हैं, हाथ में डंडी लिए हुए थे ...शायद उस वृद्धा की ही होगी। 

लेिकन जैसे ही ये दोनों ऊपर पहुंची...मैंने देखा कि वृद्धा से भी ज़्यादा उस अधेड़ उम्र की टांगों की हालत खस्ता थी...उस की टांगे और घुटने तो बिल्कुल मुड़े हुए से ही थे...धीरे धीरे वे दोनों आगे बढ़ गई...

मुझे भी फ्लैट फुट है और घुटनों में लफड़ा तो है ...सुबह सुबह ऐंठन और दर्द--विशेषकर सर्दी के दिनों में आने वाले समय का संकेत दे रहा है...लेकिन टहलने वहलने से अच्छा लगता है, तकलीफ़ बहुत कम है...

उन दो महिलाओं को देख कर यही ध्यान आ रहा था कि हमें हर हालत में ईश्वर का तहेदिल से शुक्रिया अदा करते रहना चाहिए...हर पल....जिस भी हालत में हम हैं..मैं अपने निराश हुए मरीज़ों को भी यही बात कहता हूं हमेशा...कोई मुंह की हड्‍डी तुड़वा लेता है किसी हादसे में ...बहुत निराश है तो मैं कहता हूं अगर आंखें भी चली जातीं, और दिमाग पर भी चोट आ जाती तो क्या कर लेते!...शायद मेरी बातें उन में शुकराने के भाव पैदा कर देती हैं..

इन्हीं महिलाओं की ही बात करें...कि इन से भी कईं गुणा बदतर हैं कुछ लोग जो अपनी दिनचर्या भी नहीं कर सकते, इस तरह की सीढ़ियां तो चढ़ना तो दूर, नहा तक नहीं पातीं अपने आप ....कुछ तो इतने असहाय हैं कि बेड पर लेटे रहते हैं, उठ ही नहीं पाते....वैसे भी हमारा अस्तित्व बस इतना है कि अंदर गई सांस बाहर आई तो आई...हमारे अस्तित्व की एक एक घड़ी ..पल-छिन कहते हैं ना इसे...यह ईश्वरीय अनुकंपा, रहमत ही  है। 

हर हालात में इस सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान कण कण में मौजूद इस निराकार, परमपिता परमात्मा का शुकराना करने की आदत डाल लें...ज़िंदगी अच्छी लगने लगती है....सत्संग की और बातें मुझे कितनी समझ में आई, कितनी नहीं, लेकिन यह बात पक्के से मन में घर कर गई है...


     आज मैं राजकीय उद्यान की तरफ़ निकल गया...वहां पर योग की कक्षा चल रही थी..

बाग में घूमते घूमते यह भी पता चला कि आपातकालीन प्रसाधन नाम की भी कोई चीज़ होती है ...पहली बार इस तरह का नाम सुना है ..कितनी शालीनता से कह दिया गया है कि आपातकाल में ही इसे इस्तेमाल कीजिए...लखनऊ की यही बातें हैं जो यहां से जाने के बाद याद आएंगी..

अच्छा बातें तो होती रहेंगी...मुझे यह बताएँ कि कटहल जिस की हम लोग सब्जी खाते हैं, वह किस तरह की झाड़ी में लगती है...बता पाएंगे, कभी देखा इस की झाड़ी को? ब्लॉग को आगे पढ़ने से पहले रूक जाइए और इस का जवाब मन में रख लीजिएगा...


मैंने इस बाग में इस तरह के फल देखे तो मुझे एक बार लगा कि यह कटहल है...लेकिन यकीं नहीं हुआ...इस तरह के पेड़ पर ये इतने बड़े बड़े फल...

मैं वही खड़ा था तो सामने से हमारी एक कर्मचारी का पति आ रहा था...मैं इन्हें जानता हूं..मैंने पूछा कि यह कटहल ही है? उन्होंने भी इस की पुष्टि की ...

    इस बाग में कटहल के बहुत से पेड़ दिखे...बिल्कुल छोटे फल कुछ नीचे भी गिरे हुए थे...


मैं तो कटहल देख रहा था और यही सोच रहा था कि जो बड़े बड़े फल नीचे गिरते होंगे...अगर वे किसी को नीचे लग जाते होंगे तो ..

यह भी कटहल का ही पेड़ है....हम लोग कुछ साल पहले तक कटहल की सब्जी नहीं खाते थे..लेिकन अब लखनऊ में आने के बाद खाने लगे हैं...यहां सब्जी तो वैसे भी अच्छी ही मिलती है ...मुझे लगता है इस के छिलके को काटने-उतारने का खासा झंझट होता है ...लेकिन यहां दुकानदार उसे उतार कर ही देते हैं..

इस पार्क में मैंने यह देखा कि कुछ रास्तों पर कांग्रेसी बूटी लगी हुई थी...नहीं नहीं, राहुल गांधी में इस का कोई कसूर नहीं है, इस का नाम ही कांग्रेस ग्रास है ...और यह कांग्रेस बूटी सेहत के लिए विशेषकर सांस की तकलीफ़ें पैदा करने के लिए बहुत बदनाम है...सरकारी विभागों में तो इसे काटने और नष्ट करने के लिए (किसी दवाई के छिड़काव से) ठेके दिये जाते हैं...



हर तरफ़ कांग्रेस बूटी की भरमार है ...और चुनाव सिर पर हैं...बाकी आप सब सुधि पाठकगण हैं।



आज बाग में टहलते हुए मेरे ज्ञान में एक इज़ाफ़ा यह भी हुआ कि नक्षत्रों और गृहों के मुताबिक भी पौधे होते हैं...इस की फोटो खींच ली, लेकिन पढ़ा नहीं...कभी फ़ुर्सत होगी तो देख लेंगे..

इस तरह के भीमकाय पौधों के पास से गुजरते ही मुझे अपनी तुच्छता का अहसास हो जाता है ..इसलिए मैं हमेशा ऐसे पौधों की फोटू ज़रूर खींच लेता हूं...मुझे ये बड़ा सुकून देते हैं..अकेले मुझे ही क्यों, सब को ही चैन मिलता है इन के सान्निध्य से...


भाई यह तो पोस्ट आज कटहल स्पैशल ही हो गई दिक्खे है ...बार बार कटहल की फोटू दिख रही है...


इस बाग में प्रवेश करते ही बोतल पाम के ये पौधे आप का स्वागत करते हैं...मुझे इन पौधों को देखना ही बहुत रोमांचिक करता है ..

मैं इस बाग में दो तीन बार पहले भी जा चुका हूं लेकिन मुझे नहीं पता था कि यह इतने बडे़ क्षेत्र में फैला हुआ है ... अच्छा लगा...इस का ट्रेक भी रेतीला है, एक दम बढ़िया....बस, कांग्रेस की बूटी का कुछ हो जाए तो बात बने...यह स्वच्छता मिशन में भाग लेने वाले कुछ लोग जो बस शेल्फी लेनी की फिराक में रहते हैं..अगर ये लोग सब मिल कर एक ही दिन कुछ घंटे का सामूहिक श्रमदान करें तो बूटी से निजात पाई जा सकती है ..


परसों से यह बात बार बार याद आ रही है ...कभी एक जगह लिख कर याद करता हूं, कभी दूसरी जगह ..परफेक्ट वेलापंती...

अब पोस्ट को बंद करते समय चित्रहार भी पेश करना होगा...लीजिए सुनिए...पिछले ४० सालों से धूम मचा रखी है इस ने भी ....न धर्म बुरा, न कर्म बुरा...न गंगा बुरी ..न जल बुरा...

अभी पोस्ट लिखने के बाद किचन की तरफ़ गया पानी पीने तो वहां पर भी कटहल जैसी महक आई..मैंने सोचा कि सुबह की सैर का hang-over ही होगा...तभी सामने देखा तो कटहल की सब्जी पड़ी थी..उस समय यही ध्यान आया कि आज के दिन काश मैंने सुबह से अपनी ट्रांसफर का ध्यान किया होता.... 😎 😎
कटहल की सब्जी ..