बुधवार, 3 नवंबर 2021

चलती है लहरा के पवन ..कि सांस सभी की चलती रहे!

अगर हमारे दौर के फिल्मी गीतकारों को जिनको स्वर्गवासी हुए भी ज़माना गुज़र गया, यह पता चले कि उन के लिखे अल्फ़ाज़ के लोग इतने बरसों बाद भी इतने दीवाने हैं और अगर वे फ़रियाद करें (वहीं स्वर्ग में अगर कोई पिटिशन डालने की व्यवस्था होती) कि उन्हें फिर से पुराना चोले में हिंदोस्तान रवाना कर दिया जाए ..तो ख़ुदा भी उन की यह फ़रमाईश मान लेता। 

सांसें....कितना ख़ूबसूरत लफ़्ज़ है न , है कि नहीं! सब से पहले तो मुझे इस बात का ख़्याल आ रहा है कि यह जो हिंदी-उर्दू का विवाद खड़ा किए रहते हैं न ....यह सांसें भी उर्दू का ही लफ़्ज़ है, इस का क्या करें, इसे बोलना बंद कर दें या इन लेना ही बंद कर दें, क्या आप और हम इन के बिना रह पाएंगे...बिल्कुल ऐसे ही हिंदोस्तानी ज़बान न तो हिंदी है न ही उर्दू है ...वह मिली-जुली हिंदी-उर्दू की एक गंगा-जमुनी दरिया की तरह हिंदोस्तान के हर कोने में बह रही है ...ज़बान किसी धर्म की, मज़हब की नहीं होती, यह किसी की मिल्कियत भी नहीं होती, ज़बान तो इलाकों की होती है...अगर यह बात किसी की समझ में आ जाए तो ठीक है, यह उसी की ज़िंदगी आसान कर देगा...वरना जो है सो है। मुझे भी इतनी सी बात ५५ साल की उम्र में उर्दू की पहली जमात में पता चली थी...

सांसें....बेहद खूबसूरत लफ़्ज़, जो देखा जाए तो हर पल हमारी ज़िंदगी के साथ रहता है पल..पल...हर पल। जब हम लोग किसी बाबा-वाबा को सत्संग में सुना करते और वह सांसों की अहमियत पर बोलते थे तो हमें कहां समझ में आता था यह सब...हमें तो बस जम्हाईयां आती रहती थीं कि बहुत हो गया यार, अभी भी भोग पड़ने में बीस मिनट लगेंगे, तब कहीं प्रसाद लेकर यहां से निकलेंगे...

कितनी बार सुन चुके हैं, पढ़ चुके हैं कि ज़िंदगी से ज़्यादा गिले-शिकवे करने का कोई मतलब है नहीं, बात बस इतनी सी है कि अगर बाहर गई एक सांस लौट कर वापिस आ रही है न, इस का मतलब सब ठीक है...कुछ साल पहले की बात है, बड़ा बेटा जब बाली गया था तो उसने समंदर के नीचे स्वीमिंग की थी, जिसे स्कूबा-डाईविंग कहते हैं...उसने भी वहां से वापिस लौटना पर यही ज्ञान दिया था कि बाप, जब तक बंदे की सांसें चल रही हैं न, सब ठीक है....इस के आगे कुछ टेंशन करने का मतलब है भी तो नहीं। 

बात है भी कितने पते की है! सांसे ये जो हमारी चल रही हैं, मैं अकसर सोचता हूं कि क्या यह किसी करिश्मे से कम हैं...सारे शरीर में लाखों-करोड़ों रासायनिक प्रक्रियाएं निरंतर चल रही हैं ....चौबीस घंटे, सातों दिन ...एसिड-बेलेंस मेन्टेन हो रहा है, शरीर में इलैक्ट्रोलाइट बेलेंस भी हो रहा है, अनेकों तरह की पदार्थ हमारी ग्रंथियों से निकल रहे हैं जो विभिन्न क्रियाओं को कंट्रोल कर रहे हैं...अब क्या क्या लिखें, ईश्वर की दी गई नेमतों की फेहरिस्त बनाने लगें....है कि नहीं बेवकूफ़ी वाली बात ........बात तो सिर्फ़ इतनी सी है जो जितनी जल्दी समझ आ जाए उतना ही अच्छा है ...कि हमें हर सांस के साथ ईश्वर को याद करना है, हर पल, हर श्वास के साथ प्रभु का शुक्रिया अदा करना है ...कि आप की अपार कृपा से सांसें चल रही हैं, वरना शु्क्रिया करने की बजाए, इन सांसों को अपनी अकल से समझने की कोशिश करेंगे तो हाथ कुछ नहीं आएगा....यह सब रेहमत की बातें हैं, जैसे जैसे हमारी लिखाई-पढ़ाई बढ़ने लगती है, हम ख़ुद को कुछ समझने लगते हैं ये रब्बी बातें हमारी समझ में आना कम हो जाती हैं ...हम समझते हैं कि हम धन-दौलत के बलबूते सब कुछ अपने कंट्रोल में रखेंगे .....लेकिन ऐसा होता कहां है! इत्मीनान से पलों के साथ जिएं...ज़्यादा टेंशन से, ज़्यादा सोच-विचार से कुछ मिलने वाला नहीं, जो हाथ में है वह भी सरक जाएगा। 

सांसें ...इतना ख़ूबसूरत लफ़्ज़ और बातें मैं इस के बारे में इतनी पकाने वाली लिखता जा रहा हूं ...इतने खूबसूरत शब्द के बारे में बातें भी  ख़ुशगवार ही होना चाहिए...वैसे यह काम हमारे फिल्मी गीतकार बख़ूबी कर गये हैंं....मैं जब भी फिल्मी दुनिया के दिलकश गीतों को याद करता हूं तो मुझे सांसें लफ़्ज़ का ख्याल आते ही दो तीन गीत याद आ जाते हैं....एक तो वही है ...मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है ......चलती है लहरा के पवन ..कि सांस सभी की चलती रहे। यह गीत मेरे मन के बहुत करीब है ...इतने बरसों से इसे देखते सुनते यह मन में पक्का घऱ बना चुका है...

सांसों की जब बात चली तो कल बड़े भाई ने ३१ साल पुराना यह गीत भी याद दिला दिया....सांसों की ज़रूरत है जैसे ज़िंदगी के लिए ..यह भी बहुत खूबसूरत गीत है। हिंदी फिल्मों के नगमों के साथ अकसर हमारें ढ़ेरों यादें जुड़ी होती हैं...१९९० के जुलाई माह में हम लोग शादी के बाद मसूरी घूमने गए थे ...वहां पर जुलाई में मौसम बड़ा ख़ुशग़वार था ...हल्की हल्की बारिश की फुहार चलती ही रहती थी, बादलों की आंख-मिचौली भी चलती रहती ...मुझे याद है हम लोगों को वहां की सड़कों पर टहलते हुए दुकानदारों के टेपरिकार्डरों पर चलता यह गीत बहुत बार सुनाई पड़ता ....'आशिकी' फिल्म का यह बेहद सुपरहिट गीत है ...यह पिक्चर उन्हीं दिनों रिलीज़ हुई थी...


सांसों पर लिखे बहुत से गीत और भी याद आ रहे हैं ...

सांसों पर लिखते लिखते अब बोर सा होने लगा हूं ...सोच रहा हूं फिर से थोड़ा सो ही जाऊं..लेकिन यह बात है कि सांसों पर बहुत से नग्मे हैं ...जिन्हें हम नेट पर तलाश कर सकते हैं...सांसों को जिस भी नज़रिए से देखा जाए, शोखी की निगाह से, रूहानियत की निगाह से, ज़िंदगी के फ़लसफ़े की निगाह से .......गीतकार अपनी बात लिख कर हमें दे गए हैं....हम उन्हें सुनें न, उन से सबक न लें तो कसूर किसका है😎