शनिवार, 31 जनवरी 2009

चमड़ी को चमड़ा बनने से पहले --- पानमसाले को तो अभी से ही थूकना होगा !!


हमारा धोबी नत्थू अकसर मुझे जब यह कहता है कि वह तो पिछले 20 साल से ज़र्दे-धूम्रपान का सेवन कर रहा है लेकिन उसे किसी प्रकार की बीमारी नहीं है, यहां तक की कभी कब्ज की शिकायत भी नहीं हुई ----यह सुन कर मुझे यह लगता है कि वह मुझे मुंह चिढ़ा रहा हो कि देखो, हम तो सब कुछ खा पी रहे हैं लेकिन फिर भी हैं एक दम फिट !!

वैसे मुझे वह क्या चिढ़ायेगा ---लेकिन इसे पढ़ कर कहीं आप भी यह मत सोच लें कि ज़र्दा-धूम्रपान उस के लिये घातक नहीं है। ज़र्दा-धूम्रपान से होने वाले नुकसान शुरू शुरू में महसूस नहीं होते हैं –इन का पता तभी चलता है जब कोई लाइलाज बीमारी जकड़ लेती है। लेकिन यह पता नहीं कि किसी व्यक्ति को यह लाइलाज रोग 5 वर्ष ज़र्दा-धूम्रपान के सेवन पर होगा या 50 वर्ष के इस्तेमाल करने के बाद !!

इसे समझने के लिये एक उदाहरण देखिये --- अपने मकान के पिछवाड़े में बार बार भरने वाले बरसात के पानी को यदि आप ना देख पायें तो नींव में जाने वाले इस पानी के खतरे का अहसास आपको नहीं होगा। उसका पता तभी चलेगा जब इससे मकान की दीवार में दरार आ जाए या मकान ही गिर जाए ---लेकिन तब तक अकसर बहुत देर हो चुकी होती है। ज़र्दा-धूम्रपान का इस्तेमाल एक प्रकार से बार-बार पिछवाड़े में भरने वाले पानी के समान है।

आज मेरे पास लगभग बीस वर्ष का युवक आया ----आया तो था वह मुंह में किसी गांठ को दिखाने के लिये ---लेकिन मुझे उस का मुंह देख कर लगा इस ने तो खूब पान-मसाला खाया लगता है। पूछने पर उसने बताया कि डेढ़-दो साल पहले इस पानमसाले के एक पैकेट को रोज़ाना खाना शूरू किया था और पिछले तीन महीने से छोड़ रखा है--- ( लगभग सभी मरीज़ यही कहते हैं कि कुछ दिन पहले ही बिल्कुल छोड़ दिया है !!) –उस नवयुवक के मुंह की चमड़ी बिलकुल चमड़े जैसी बन चुकी थी --- और चमड़ा भी बिलकुल वैसा जैसा पुराना चमड़ा होता है ---अपने जिस शूज़ को आप छःमहीने तक नहीं पहनते जिस तरह से उस का चमड़ा सूख जाता है, बिलकुल वैसी ही लग रही थी उस के मुंह की चमड़ी ---- उस से मुंह पूरा खोले ही नहीं बन पा रहा था । इस अवस्था को कहते हैं ----ओरल सबम्यूकसफाईब्रोसिस (Oral submucous fibrosis)---- यह पानमसाला सादा या ज़र्देवाला खाने से हो सकती है और इसे मुंह के कैंसर की पूर्व-अवस्था कहा जाता है (Oral precancerous lesion of the oral cavity) .

कृपया इसे ध्यान से पढ़िये ---- मुंह की कोमल त्वचा (Oral mucous membrane) के साथ तंबाकू, चूना, सुपारी आदि का सतत संसर्ग बड़े भयंकर परिणाम ले आता है । मुंह की त्वचा द्वारा रक्त में घुलता निकोटीन ( nicotine) तो अपने हिस्से का काम करता ही है , लेकिन इन वस्तुओं का सतत संपर्क मुंह की कोमल त्वचा के ऊपर की पर्त को इतना ज़्यादा नुकसान पहुंचाता है कि धीरे धीरे यह कोमल त्वचा अपना मुलायमपन (smoothness), चमकीलापन (luster), और लचक (elasticity) खो देती है।
लार-ग्रंथि (salivary gland) को हानि पहुंचने से लार कम हो जाती है और मुंह सूखा रहता है। स्वाद परखने वाली ग्रंथियां (taste buds) भी कुंठित हो जाती हैं और प्रकृति की जिस अद्भुत रचना से मानव नाना प्रकार के भिन्न भिन्न स्वादों को परख पाता है, वे निक्म्मी हो जाती हैं।

इस के फलस्वरूप मुंह की त्वचा सूखी, खुरदरी, झुर्रीदार बन जाती है और उस की निचली पर्त में भी अनेकानेक परिवर्तन होने लगते हैं। ऐसे मरीज़ों का मुंह खुलना धीरे धीरे बंद हो जाता है जैसा कि मुझे आज मिले इस मरीज़ का हाल था। गरम,ठंडा,तीखा, खट्टा सहन करने की क्षमता बहुत ही कम हो जाती है। इसी स्थिति को ही सब-म्यूक्स फाईब्रोसिस (Submucous fibrosis) कहा जाता है और यह मुंह में होने वाले कैंसर की एक खतरे की घंटी के बराबर है। ऐसे व्यक्ति को तुरंत पान-मसाले, गुटखे, ज़र्दे वाली लत छोड़ कर अपने दंत-चिकित्सक से बिना किसी देरी के मिलना चाहिये क्योंकि ऐसे व्यक्तियों में भविष्य में मुंह का कैंसर हो जाने की आशंका होती है। इसीलिये इन सब को ---पानमसाले को भी ----हमेशा के लिये आज ही इसे थूक देने में समझदारी है।

संक्षेप में कहें तो इस तरह के सब पदार्थ केवल लोगों की सेहत के साथ घिनौना खिलवाड़ ही कर रहे हैं ---ध्यान आ रहा है कि पिछले हफ्ते ही एक नवयुवक जिस की उम्र भी लगभग 20-22 की ही होगी के मुंह में देखने पर पाया कि उस के मुंह में ओरल-ल्यूकोप्लेकिया है --- ( यह भी मुंह के कैंसर की एक पूर्व-अवस्था ही है ) लेकिन इस उम्र में मैंने पहले यह अवस्था पहले कभी नहीं देखी थी ---अकसर 35-40 साल के आसपास ही मैंने इस तरह के ल्यूकोप्लेकिया के केस देखे थे ---वह युवक कुछ सालों से ज़र्दे का सेवन करता था। ध्यान इस बात का भी आ रहा है कि कुछ हानिकारक पदार्थ जो इन में पड़े होते हैं उन का हमें पता है लेकिन उन पदार्थों का हमें कैसे पता चलेगा जिन के बारे में तो पैकेट के ऊपर भी कुछ नहीं लिखा होता लेकिन अकसर मीडिया में इन हानिकारक तत्वों की भी पोल खुलती रहती है।

चलो, यार, इधर ब्रेक लगाते हैं ----ताकि इस समय पान मसाला चबा रहे अपने बंधु , इसे थूक कर ( सदा,सदा के लिये !!) , अच्छी तरह कुल्ला करने के बाद तरोताज़ा होकर नेट पर वापिस लौटें और फिलहाल चुपचाप इस सुपरहिट गाने से ही काम चला लिया जाए।

गुरुवार, 29 जनवरी 2009

आज एक पुराने पाठ को ही दोहरा लेते हैं !

सीख कबाब आप के शहर में भी खूब चलते होंगे---लेकिन इसे जानने के बाद शायद आप कभी भी उस तरफ़ का रूख ही न करना चाहेंगे --- ब्रिटेन के विभिन्न शहरों में बिकने वाले लगभग 500 कबाबों के अध्ययन करने से यह पता चला है कि इन में इतनी वसा, इतना नमक और इस तरह का मांस होता( shocking level of fat, salt and mystery meat !) है कि इसे जान कर आप भी हैरान-परेशान हुये बिना रह न पायेंगे।

जब कोई व्यक्ति कबाब खाता है तो समझ लीजिये उसे खाकर वह अपने दिन भर की नमक की ज़रूरत का 98प्रतिशत खाने के साथ साथ लगभग एक हज़ार कैलोरीज़ खपा लेता है। कहने का मतलब कि एक महिला को सारे दिन में जितनी कैलोरीज़ लेने की ज़रूरत है , उस का आधा भाग तो एक कबाब ने ही पूरा कर दिया। कबाब खा लेने से दैनिक सैचुरेटेड फैट की मात्रा का डेढ़ गुणा भी निगल लिया ही जाता है। कुछ ऐसे कबाब हैं जिन में लगभग दो हज़ार कैलोरीज़ का खजाना दबा होता है।

चिंता की बात यह भी तो है कि इन में से बहुत से कबाब तो ऐसे पाये गये जिन्हें बनाने के लिये वह मांस इस्तेमाल ही नहीं किया गया था जिस का नाम इंग्रिडिऐंट्स में लिखा गjया था। ज़रूरी नहीं कि कुछ भी सीखने के लिये सारे तजुर्बे खुद ही किये जाएं ----दूसरों के अनुभव से भी तो हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। और यहां इस अध्ययन से हम यह सीख क्यों न ले लें कि अगर ब्रिटेन में यह सब हो रहा है तो अपने यहां क्या क्या नहीं हो रहा होगा ? -----यह सोच कर भी हफ्तों पहले खाये कबाब की मात्र याद आने से ही उल्टी जैसा होने लगे तो कोई बड़ी बात नहीं है !!

ऊपर लिखी नमक वाली बात से तो मैं भी सकते में आ गया हूं –इस समय ध्यान आ रहा है कि यह नमक हमारी सेहत के लिये इतना जबरदस्त विलेन है लेकिन हम हैं कि किसी की सुनने को तैयार ही नहीं है, बस अपनी मस्ती में इस का अंधाधुंध इस्तेमाल किये जा रहे हैं -----जिस की वजह से उच्च रक्तचाप एवं हृदय रोग के चक्कर में फंसते चले जा रहे हैं।

नमक के बारे में अमेरिका में लोग कितने सजग हैं कि न्यू-यार्क सिटी में विभिन्न रेस्टरां, बेकरर्ज़, होटलों आदि को कह दिया गया है कि नमक के इस्तेमाल में 25 फीसदी की कटौती तो अभी कर लो, और 25 फीसदी की कटौती का लक्ष्य अगले दस साल के लिये रखो---- क्योंकि यह अनुमान है कि इस 50फीसदी नमक की कटौती से ही हर साल लगभग डेढ़ सौ अमेरिकियों की जान बचाई जा सकती है।

और जिन वस्तुओं में नमक कम करने की बात इस समय हो रही है उन में पनीर, बेक्र-फॉस्ट सीरियल्ज़, मैकरोनी, नूडल्स, केक, मसाले एवं सूप आदि शामिल हैं ---- ( cheese, breakfast cereals, bread, macaroni, noodle products, condiments, soups) .

न्यूयार्क सिटी बहुत से मामलों में सारे विश्व के लिये एक मिसाल सामने रखता है ---पहले वहां पर विभिन्न रेस्टरां में ट्रांस-फैट्स के इस्तेमाल पर रोक लगी , फिर हाल ही में वहां पर होटलों के मीनू-कार्डों पर बेची जाने वाली वस्तुओं के नाम के आगे उन में मौज़ूद कैलोरीज़ का ब्यौरा दिया जाने लगा और अब इस नमक को कम करने की मुहिम चल पड़ी है। इस से हमें भी काफ़ी सीख मिलती है – इतना कुछ तो सरकार किये जा रही है ---और किसी के घर आकर नमकदानी चैक करने से तो रही !!

हमें बार बार सचेत किया जा रहा है कि नमक एक ऐसा मौन हत्यारा है जिसे हम अकसर भूले रहते हैं। इसी भूल के चक्कर में बहुत बार उच्च रक्तचाप का शिकार हो जाते हैं, गुर्दे नष्ट करवा बैठते हैं, दिल के मरीज़ हो जाते हैं और कईं बार यही मस्तिष्क में रक्त-स्राव ( stroke) का कारण भी यही होता है। सन् 2000 में एक सर्वे हुआ था कि अमेरिका में पुरूष अपनी दैनिक ज़रूरत से दोगुना और महिलायें लगभग 70 फीसदी ज़्यादा नमक का इस्तेमाल करते हैं और इस के दुष्परिणाम रोज़ाना हमारे सामने आते रहते हैं, लेकिन फिर भी पता नहीं हम क्यों समझने का नाम ही नहीं ले रहे , आखिर किस बात की इंतज़ार हो रही है ?

एक बार फिर से उस पुराने पाठ को याद रखियेगा कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन 2300मिलिग्राम सोडियम से ज़्यादा सोडियम इस्तेमाल नहीं करना चाहिये ---इस 2300 मिलिग्राम सोडियम का मतलब है कि सारे दिन में एक चाये वाले चम्मच से ज़्यादा खाया गया नमक तबाही ही करता है ------हाई-ब्लड प्रैशर, हृदय रोग से बचना है तो और बातों के साथ साथ यह नमक वाली बात भी माननी ही होगी------ इस खामोश हत्यारे से जितना बच कर रहेंगे उतना ही बेहतर होगा।

यह पुराने पाठ को दोहरा लेने वाली बात कैसी रही ? -- स्कूल में भी जब हम लोग कोई पाठ पढ़ते थे, अपने मास्टर साहब कितने प्यार से उसे दोहरा दिया करते थे ---बाद में हम लोग उसे घर पर दोहरा लिया करते थे और फिर कईं बार टैस्ट से पहले, त्रैमासिक, छःमाही, नौ-माही परीक्षा से पहले सब कुछ बार बार दोहरा करते थे और फिर जब बोर्ड की मैरिट लिस्ट में नाम दिखता था तो क्या जबरदस्त अनुभव होता था , लेकिन जो शागिर्द मास्टर के पढ़ाये पाठ को आत्मसात करने में ढील कर जाते थे उन का क्या हाल होता था , यह भी हम सब जानते ही हैं -------तो फिर उन दिनों की तरह अपनी सेहत के लिये इन छोटी छोटी हैल्थ-टिप्स को नहीं अपने जीवन में उतार लेते ----- आखिर दिक्तत क्या है !! ----मास्टर लोगों की मजबूरी यही है कि कॉरपोरल पनिशमैंट के ऊपर प्रतिबंध लग चुका है , वरना हम लोगों की क्या मजाल कि ..............................!!

बुधवार, 28 जनवरी 2009

चार साल से भी ज़्यादा हो गये हैं टाई पहने हुये ...


जब से अमर उजाला में मेरा यह लेख छपा है –इसे चार साल से भी ज़्यादा हो गये हैं ---मुझे कभी टाई पहनने की इच्छा ही नहीं हुई। अकसर अपने दूसरे साथियों को देख कर जो कभी थोड़ी प्रेरणा मिलती भी है वह इस लेख का ध्यान आते ही छू-मंतर हो जाती है। बस, इसे पढ़ते हुये यह ध्यान दीजियेगा कि यह तो बस मेरी ही आप बीती है ---बस, जगह जगह अपने यार का ज़िक्र करने का केवल एक बहाना ही किया है। उस समय शायद अपने बारे में इतनी बात मानने की भी हिम्मत नहीं थी !!

लेकिन यह शत-प्रतिशत सच है कि यह लेख छपने के बाद एक बार भी टाई नहीं पहनी ----सभी जगह इस के बिना ही काम चला लिया। इसे क्या कहूं ----लेख का असर ? ………………जो भी है, धन्यवाद, अमर उजाला !!

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

इन के लुप्त होने का मुझे बहुत दुःख है !!

मैं जब भी 26 जनवरी के राष्ट्रीय महोत्सव में सम्मिलित होता हूं तो एक बात मेरे को बहुत ही ज़्यादा कचोटती है कि इस के माध्यम से वैसे तो हम अपने संविधान की सालगिरह मनाते हैं, जश्न मनाते हैं ------यही संविधान जो हमें सब की बराबरी का सुंदर पाठ पढ़ाता है, यह कहता है कि देश के सब नागरिक एक समान हैं, कोई बड़ा नहीं, कोई छोटा नहीं ---- और यह संविधान प्रत्येक भारतीय को बराबरी का हक दे रहा है, लेकिन अकसर जहां पर ये समारोह चल रहे होते हैं मैं अकसर देखता हूं कि बहुत से लोगों को लड्डू के लिफ़ाफे तो दूर, यारो ,एक दरी भी नसीब नहीं होती ----- कुछ लोग दो-तीन घंटे तक बस चुपचाप खड़े होकर सारे प्रोग्राम का आनंद ले कर चुप चाप घर चले जाते हैं।

और मैं जब ऐसे ही किसी प्रोग्राम में सोफ़े पर बैठा इन सब की तरफ़ नज़र दौड़ाता हूं तो पाता हूं कि इन में से ऐसे भी हैं जो कि उम्र में मेरे से बहुत बड़े हैं, बुजुर्ग हैं ----और यह उन की देश-प्रेम की भावना है कि जो ये इन समारोहों में खिंचे चले आते हैं। और साथ में यह भी सोचता रहता हूं कि क्या मैं सोफ़े पर बैठा इस खड़ी जनता-जनार्दन के किसी भी सदस्य से ज़्यादा बड़ा भारतीय हूं, इन में से किसी से भी ज़्यादा देशभक्त हूं, इन में से किसी से भी किसी भी किस्म से ज़्यादा श्रेष्ठ हूं तो पाता हूं कि ऐसा बिलकुल नहीं है---------यही लोग इसी देश की जान है, संविधान रचे जाने की प्रेरणा है, इन्हीं लोगों के सपने इस संविधान में पड़े हैं, इन की आशायें-उम्मंगें-----सब कुछ इऩ का इसी संविधान में ही है। मैं इन्हें सम्मान पूर्वक कुर्सी जैसी छोटी वस्तु दिलाने की बात सोचता हूं ---- लेकिन अगर यह संविधान ही न होता तो इऩ की क्या हालत होती,यही सोच कर कांप जाता हूं !! जो भी होती , वह तो अलग बात है लेकिन चूंकि अभी तो हम सब भारतीयों की बराबरी का मसीहा ---यह संविधान है ---- तो फिर इन्हें बैठने के लिये कुर्सी नसीब क्यों नहीं होती ? मुझे यह प्रश्न परेशान कर देता है।

और हां, इस तस्वीर में यह जो आप संगीत का यंत्र देख रहे हैं ना, यह गणतंत्र दिवस के समारोह-स्थल के बाहर से लिया गया है ---- कल तो मैं और मेरा बेटा इसे तानपुरा कह कर ही बुलाते रहे, लेकिन आज ध्यान आ रहा है कि यह तो एक-तारा है ---- क्या मैं ठीक कह रहा हूं ?.
मुझे इस तरह के यंत्र देख कर बहुत ही खुशी होती है क्योंकि अपना बचपन याद आ जाता है और इन लुप्त हो रहे यंत्रों से जिन से देश की मिट्टी की खुशबू आती है
और इसे बेचने वाली महान आत्मा की बात ही क्या करें ---- यह फ़िराक दिल इंसान इसे बजाने की कला भी खरीदने वाले हर खरीददार को सिखाये जा रहा है। लेकिन मुझे इस यंत्र होने के धीरे धीरे लुप्त होने के साथ साथ इसे बेचने वाले उस गुमनाम से हिंदोस्तानी की भी फिक्र है क्योंकि मुझे दिख रहा है कि उस की खराब सेहत उस की निश्छल एवं निष्कपट मुस्कुराहट का साथ दे नहीं पा रही है , लेकिन साथ में सब को गणतंत्रदिवस की शुभकामनायें तो कह ही रही हैं। गणतंत्रदिवस के मायने सब के लिये अलग हैं ---इस जैसे हिंदोस्तानियों के लिये शायद यह कि इस दिन उस के ये यंत्र इतने बिक जायेंगे कि अगले पांच दिन बढ़िया निकल जायेंगे। यही सोचता हुआ कि इस महात्मा के बाद इस यंत्र का क्या होगा----कौन करेगा इतनी मेहनत इसे बनाने में, और कौन ही परवाह करेगा इन्हें खरीदने की !! ---बिना किसी विशेष प्रयास के यह वाद्य़ यंत्र भी लुप्त हो कर रह जायेगा---- तभी बेटे को कहता हूं कि चलो, बैठो यार चलते हैं।

गणतंत्र दिवस की आप सब को बहुत बहुत शुभकामनायें। तो, उस उस गुमनाम राही ( जो वह इकतारा बेच रहा था ) के नाम पर यह गीत ही हो जाये ----

सोमवार, 26 जनवरी 2009

आज मुझे इस विज्ञापन की बखिया उधेड़नी ही होगी !

अवार्डों का मौसम है ---विभिन्न कारणों की वजह से लोगों को अवार्ड मिल रहे हैं –मुझे भी लगभग पंद्रह महीने तक हिंदी ब्लॉग लिखने के बाद परसों एक टिप्पणी के रूप में अवार्ड मिला कि मैं आंखे बंद करके एलोपैथी के लिये विज्ञापनीअंदाज़ में लेख लिखता हूं। इस से पिछली पोस्ट पर भी कुछ इस तरह की मिलती जुलती एक टिप्पणी आई थी।

वैसे इस तरह का स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत तो है नहीं क्योंकि मैं किसी सेठ का गुलाम तो हूं नहीं कि कोई मुझे यह बताये कि यह लिख और यह मत लिख। वैसे कोई अगर यह कहता भी है तो तुरंत समझ में आ ही जाता है कि लिखने वाला किस भावना से ऐसा आग्रह कर रहा है। अपना तो सीधा सा फंडा है कि जिस बात को लिख कर सिर हल्का सा हो जाये , बस लिख कर छुट्टी की जाये, लेकिन फिर भी स्पष्ट कर ही देना ठीक होगा कि इस विज्ञापनबाजी के चक्कर में मुझे आज तक तो पड़ने की कोई ज़रूरत महसूस ही नहीं हुई। और शुक्र है कि किसी भी चीज की कमी नहीं है , वरना ज़रूरत अविष्कार की जननी है –यह मैं भी अच्छी तरह से जानता हूं।

लेकिन यह टिप्पणी देने वाले का भला हो --- क्योंकि इस विज्ञापनी अंदाज़ वाली बात से यह प्रेरणा मिली कि क्यों न मैं ब्लॉग में कुछ विज्ञापनों की बखिया ही उधेड़ लिया करूं। यह जो विज्ञापन आप यहां देख रहे हैं—इस तरह के कईं विज्ञापन आप को अकसर दिखते रहते हैं और इस तरह के लोशन वगैरा खरीदने के लिये उकसा ही देते हैं।

अकसर ऐसे मरीज़ मिलते हैं जिन से पता चलता है कि उन्होंने अपने दांतों पर बाज़ार से लेकर एक लोशन लगाया ताकि दांत चमक जायें लेकिन दो-चार दिन बाद ही दांत काले पड़ गये और साथ ही दांतों में ठंडा-गर्म लगना शुरू हो गया।

ऐसे एक एक बात गिनाने लगूंगा तो पोस्ट बहुत ही लंबी हो जायेगी—इसलिये एक काम करता हूं कि तरह तरह के लोशनों की हमारे मुंह एवं दांतों के स्वास्थ्य में क्या कोई भूमिका है , इस का विश्लेषण करते हैं ।

अभी तक कोई भी ऐसा लोशन बन कर तैयार नहीं हुआ है जिसे लगाने से दांत में किसी भी रंग का दाग दूर हो जाये -
लोशन के द्वारा यह काम संभव है ही नहीं --- ये दाग वगैरा दूर हो सकते हैं केवल एक प्रशिक्षित डैंटिस्ट के अपना इलाज करवा कर ही । कईं बार तो दांतों की पालिशिंग से ही ये दाग दूर हो जाते हैं। मैंने प्रशिक्षित डैंटिस्ट इसलिये लिखा है क्योंकि ये झोलाछाप अपने आप को दांतों का डाक्टर कहने वाले बशिंदे भी बहुत बार इस तरह के लोशन लोगों के दांतों पर लगा तो देते हैं ---बात में क्या होता है , इस से उन्हें क्या मतलब ? होता दरअसल यह है कि जो ये प्रोडक्ट्स वगैरह ये नीम-हकीम तथाकथित दंत-चिकित्सक इस्तेमाल करते हैं इस में कोई न कोई एसिड ( अमल, तेजाब) जैसी वस्तु पड़ी होती है ,अब आप ही सोचें कि जब इन तरह तरह की बेहद आयुर्वैदिक पदार्थों की आड़ में दांतों पर यह एसिड भी रगड़ा जायेगा तो क्या परिणाम होंगे --- मैं इस तरह के परिणाम अकसर देखता ही रहता हूं।

मसूढ़ों को शक्तिशाली बनाने वाला भी कोई लोशन अभी नहीं बना ---
ये सब गल्त क्लेम हैं, गल्त ही क्या , बेबुनियाद एवं भ्रामक हैं। लेकिन अफ़सोस यही है कि यहां पर लोशन ही नहीं तरह तरह के मंजन जो बसों में , फुटपाथों पर बिकते हैं ...वे भी यह क्लेम करते फिरते हैं। यह संभव ही नहीं है -----ये सब गुमराह करने के रास्ते हैं।

लोशन से दांत, इनामैल सुरक्षित रहेगा ---
इस का जवाब पहले ही दे चुका हूं कि ये लोशन इनामैल की धज्जियां उड़ाते हैं ना कि उसे सुरक्षित रखते हैं।

दांत की पथरी, मुंह से दुर्गंध, ठण्डा पानी या मिठाई खाने पर दांत सिरसिराना, पाइरिया एवं दांत से खून आना इस तरह के लोशन से कभी भी बंद हो ही नहीं सकता
यह कतई संभव है ही नहीं –अगर कोई ऐसी तकलीफ़ है तो डैंटिस्ट से मिल कर उपचार करवाना ही होगा, वरना दंत-रोग अंदर ही अंदर बढ़ता ही रहेगा।
इस तरह के लोशन ही क्यों, हिंदी के अखबारों में या जगह जगह ऐसी पेस्टों के विज्ञापन भी मिल जायेंगे जो कहेंगे कि इस से पॉयरिया ठीक हो जायेगा, मसूड़ों से खून आना ठीक हो जायेगा ---यह सरासर झूठ है, इस पर कभी भी विश्वास न ही करें तो बेहतर होगा – क्वालीफाइड डैंटिस्ट के पास जाये बिना यह कभी भी ( शत-प्रतिशत गारंटी !!) दुरूस्त हो ही नहीं सकता। हां, एक बात हो सकती है कि कुछ समय के लिये दांतों एवं मसूड़ों की कोई अवस्था दब जाये लेकिन इस अवस्था के पीछे जो कारण हैं वे बिल्कुल बरकरार रहते हैं और मज़े से पल्लवित-पुष्पित होते रहते हैं और बीमारी को उग्र रूप देना में योगदान देते हैं।

हिलने वाले दांतों तो मजबूत करने वाला कोई लोशन भी नहीं बना
अकसर यह भी कहा जाता है कि हिलने वालेदांत तो बिठाने के लिये भी पाउडर मिलता है। यह भी सरासर लोगों को च - - बनाने का एक ढंग है लेकिन लोग किसी ठोस प्रामाणिक जानकारी के अभाव में खुशी खुशी बन भी तो रहे हैं। हिलते दांतों के बारे में कुछ विशेष बातें मैं पहले भी लिख चुका हूं।

कहने को तो कोई यह भी कहे कि यार ये जो लोशन वगैरा मिलते हैं इन में तो कपूर, बबूल , माजूफल, लौंग का तेल, नारियल का मूल, दालचीनी, बकुल, अमृत पत्ता ------सब कुछ पड़ा तो हुआ है, सब कुछ आयुर्वैदिक ----भला, यह क्यों इस तरह के लोशन को भला-बुरा कह रहा है—हो न हो, यह मीडिया डाक्टर तो वास्तव में ही आयुर्वेद का धुर विरोधी भी है और किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त भी है।

आयुर्वेद की तारीफ़ मैं किन अल्फाज़ में करूं ---मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं, लेकिन आज कल कईं ऐसे -वैसे निर्मात्ता आयुर्वैदिक के नाम पर लोगों को वही बनाये ( आप समझते हैं क्या, ऊपर आप को हिंट दे तो दिया था !!) जा रहे हैं। वैसे भी मुझे अकसर उन इनग्रिडिऐन्ट्स की चिंता रहती है जिस का ज़िक्र इस तरह की दवाईयों की पैकिंग पर या रैपर पर कभी भी नहीं होता। और लोग यही समझते हैं कि आयुर्वैदिक ही तो है ना, तो सब ठीक ही होगा।

आयुर्वेदिक पद्धति से कोई अपनी किसी भी बीमारी का इलाज करवाना चाहता है तो उसे प्रशिक्षित आयुर्वेद के चिकित्सक के पास जाना ही होगा ----- वे ही इस तरह की दवाईयों के जानकार हैं, वरना झोलाछाप देसी डाक्टर तो इस देश के लगभग हर परिवार में एक-दो होते ही है जो लोकल बस स्टैंड पर खरीदी किसी देसी दवाईयों की किताब से ही अपने फन का सिक्का जमाने की धुन में मस्त हैं।

मुझे डर लगता है जिस तरह से लोग बस में किसी भी तरह के चूर्ण का सैंपल किसी से भी लेकर अपना हाजमा दुरुस्त करने लगते हैं, किस तरह अपने मुंह की बास खत्म करने के लिये किसी मंजन को आजमाने से नहीं चूकते, और तो और किसी से भी आंखों की दवाई डलवाने से भी नहीं चूकते----लेकिन ये सब खतरनाक काम हैं।लेकिन अफ़सोस जिन लोगों को मैं यह बात कहनी चाह रहा हूं उन तक मेरी बात शायद ही कभी पहुंचेगी। फिर भी कर्म किये जाना अपना कर्त्तव्य है।

और जाते जाते उस टिप्पणी का एक बार फिर से धन्यवाद करना चाहूंगा कि मुझे उस से एक नया आइडिया मिला। और रही बात, किसी टिप्पणी के माध्यम से किसी का मनोबल कम करने की बात, तो हम जैसे लोग कहां इस मिट्टी के बने हैं , हम ठहरे ढीठ किस्म के लोग, ऐसी हज़ारों टिप्पणीयों का स्वागत है और यह भी वायदा है कि इन्हें कभी भी डिलीट नहीं करूंगा-------मुझे उस टिप्पणी में यह भी लिखा गया था कि उसे डिलीट कर दूं , वरना मेरे टिप्पणीकारों को बुखार आ जायेगा---- लेकिन अफसोस मैं ऐसा करने के बिल्कुल भी मूड में नही हूं ---बुखार आयेगा तो क्या है , पैरासिटामोल की टेबलेट है ना !!

अभी मुझे ध्यान आ रहा है निठल्ला चिंतन ब्लॉग के तरूण जी का --- उन्होंने मुझे शुरू शुरू में एक बार सचेत भी किया था कि कमैंट-माडरेशन ऑन कर लेनी चाहिये ---- मैंने ऑन की भी थी लेकिन कुछ दिन बाद ही अन्य ब्लागर बंधुओं के अनुरोध पर हटा भी दी थी क्योंकि पता नहीं मैं समझता हूं कि कमैंट-माडरेशन ऑन करना किसी आज़ाद बाशिंदे के मुंह पर पट्टी बांधने के समान है। आज सब तरफ़ आज़ादी की हवा चल रही है ---हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार है , है कि नहीं ?

और जाते जाते उस टिप्पणी करने वाले से इतना ज़रूर पूछना चाहूंगा कि मेरी ऐसी कौन सी पोस्टें हैं जहां से उन्हें विज्ञापनबाजी की बास आ रही है , मुझे तो अपनी सभी पोस्टों से सच्चाई की , प्रेम प्यार की, अपनेपन की, सद्भाव की, विश्व-बंधुत्व की खुशबू आ रही है, लेकिन मैं गलत भी हो सकता हूं ---इसलिये अगर अन्य पाठकों को भी ऐसी वैसी बास आ रही हो, तो प्लीज़, बेझिझिक हो कर लिखियेगा, चाहे तो अनॉनीमस ही लिख दीजियेगा-----ताकि इस मीडिया डाक्टर पर बेकार लिखने की माथा-फोड़ी छोड़ कर हम भी नेट पर कोई दूसरी गली पकड़ें जहां पर दो पैसे भी कमायें और रोज़ाना बच्चों के तानों से भी बचें कि क्या हो जायेगा पापा ये सब लिखने से, देख लेना कुछ भी नहीं होगा !!

मैं खुशवंत सिंह जी की बेबाक लेखनी का बहुत प्रशंसक हूं --- पर पता नहीं आज कल उन के लेख दिखते नहीं हैं ---अगर आप को इस का कुछ पता हो कि वे आजकल किस पेपर में छपते हैं तो बतलाईयेगा, हां, तो उन की लिखी एक बात का ध्यान आ रहा है --- भगवान का शुक्र है कि पैन के लिये कोई कांडोम नहीं बना !! वाह, खुशवंत जी, क्या खूब बात कही !! -- आज के ज़माने में अगर ऐसा भी कुछ बन जाता तो अपने जैसों कितने ही लोगों का मन की बातें मन में रखे रहते दम ही निकल जाता।


मैं भी कभी कभी बाल की कितनी खाल खींचने लग जाता हूं ---- मैंने इतना लिख कर जो बात कही, वही बात सुपरस्टार राजेश खन्ना कितनी सहजता से, कितने सुकून से, कितने सुरीले अंदाज़ में कह रहे हैं, आप भी सुनिये।

रविवार, 25 जनवरी 2009

हनी, हम बच्चों को तबाही की तरफ़ धकेल रहे हैं !


इस समय मेरे सामने बच्चों के एक जंक-फूड का रैपर पड़ा हुआ है जिस के ऊपरी लिखी सूचना पढ़ कर मुझे डिस्कवरी चैनल के उस बहुत ही लोकप्रिय प्रोग्राम का ध्यान आ रहा है --- Honey, we are killing the kids !!
Ingredients के आगे लिखा हुआ है ----Rice meal, Edible oil, Corn Meal, Gram Meal, Spices, Condiments and Salt.

और इस के आगे एक बहुत ही बड़ी स्टैंप लगी हुई है कि नो एमएसजी, ज़ीरो ट्रांसफैट्स एवं कोलेस्ट्रोल फ्री ( No Added MSG, Zero Trans Fats, Cholesterol free) ---- अब इन शातिर कंपनियों को पता है कि पब्लिक को कैसे उल्लू बनाना है – चलो मान भी लिया कि कंपनी ने इस पैकेट में MSG ( Monosodium glutamate ---जिसे आमतौर पर रेहड़ी वाले चीनी नमक कह कर बहुत फख्र महसूस कर लिया करते हैं ), लेकिन यह कोलैस्ट्रोल फ्री वाली बात तो मेरी समझ में कभी आई नहीं कि आखिर यह कैसे हो सकता है कि इस तीस ग्राम के पैकेट में अगर लगभग 12 ग्राम वसा है तो यह भला कौन सा जादू हो गया कि फिर भी यह कोलैस्ट्रोल फ्री है।

इस पांच रूपये के पैकेट पर लिखी बाकी जानकारी कुछ इस प्रकार की थी --- कुल वजन 30 ग्राम
प्रत्येक 16 ग्राम उत्पाद में निम्नलिखित इन्ग्रिडिऐंट्स हैं –
कैलीरीज़ – 92.6
टोटल फैट – 5.8 ग्राम
कोलैस्ट्रोल - ज़ीरो मिलिग्राम ( कंपनी के लिये ज़ोर ज़ोर से तालियां मारने की इच्छा हो रही है !!----इतना बहादुरी का काम कर दिया !!)
टोटल कार्बोहाइड्रेट – 8.48 ग्राम
प्रोटीन – 1ग्राम

तो, सीधा सीधा इस का मतलब यह हुआ कि जब किसी ने यह पांच रूपये का पैकेट खा लिया तो उस ने बिना वजह स्वाद स्वाद के चक्कर में या यूं कह लें कि अपने मां-बाप के लाड के चक्कर में बिल्कुल कोरी सी 200 कैलोरी अपने अंदर फैंक दीं।

और ध्यान दें कि लगभग आधी कैलोरीज़ इस तरह के पैकेट में फैट से ही आ रही हैं।

अब अगर कोई यह सोचे कि क्या डाक्टर आज इस मासूम से पांच रूपये के पैकेट के पीछे पड़ गया है। जो भी हो, यह पैकेट इतना मासूम है----इस का कारण यह है कि इस तरह के पैकेट खाने से एक तो बच्चों को इस का चस्का सा लग जाता है जिस तरह का बीड़ी का या गुटखे-पान मसाले का चस्का होता है उसी तरह से इन बेकार की चीज़ों का भी एक चस्का ही होता है।

आपने क्या कहा ---- हम कौन सा बच्चों को ये सब रोज़ ले कर देते हैं ? –चलिये मैं यह भी बात मान लूं कि आप बच्चों को ये कभी कभी ले कर देते हैं लेकिन फिर भी आप ने उस दिन के लिये उस का नुकसान कर ही दिया ना---- क्योंकि बच्चों की भी अपनी कैलीरोज़ की ज़रूरत है –अब दो-चार सौ कैलोरी अगर उस की इस तरह के एक-दो चालू उत्पादों से पूरी हो गई तो भला उसे दाल, सब्जी खाने की क्या पड़ी है ---- बस, इस तरह के एक दो पैकेट, साथ में एक चॉकलेट बार, और ऊपर से थोड़ी बहुत कोल्ड-ड्रिंक हो गई तो हो गया उस का रात का खाना ----कब सोफे पर टीवी देखता हुआ, किसी भूत-प्रेत वाला टीवी सीरियल देखते देखते खौफ से डर कर आंखे बंद कर के सोने का नाटक करते करते खर्राटे भरने लगता है किसी को पता ही नहीं चलता क्योंकि वे अभी दूसरी तरफ़ वारदात देखने में मसरूफ़ हैं --- तो, बात तो ठीक ही हुई ना कि हनी, हम लोग बच्चों को तबाह ( चलिये खुल कर ही लिख देते हैं ---तबाह नहीं मार रहे हैं !!) – कर रहे हैं ।

हां, इस प्रोग्राम में दिखाया जाता था कि एक खूब मोटा-ताज़ा विदेशी
परिवार कैसे अपने खाने पीने की आदतों, टीवी देखने की आदतों एवं एक्सरसाइज़ करने की आदतों में क्रांतिकारी बदलाव कर के अपनी फिटनैस को पुनः प्राप्त कर लेते हैं ---- यह प्रोग्राम मुझे बहुत बढ़िया लगता है इसे देखने के बाद मैंने भी बहुत बार खीर एवं हलवा खाने के लिये मना किया होगा।

यह जो जंक फूड है ना इन पर सारी सूचना होती भी तो अंग्रेज़ी में ही है ----वैसे अगर हिंदी में भी यह सब लिखा रहेगा तो इन शक्तिशाली कंपनियों का भला कोई क्या उखाड़ लेगा --- वैसे इंगलिश में यह सारी सूचना लिख कर इन का काम आसान भी तो हो जाता है ---जो मां-बाप इंगलिश नहीं भी जानते वो भी इन्हें यह सोच कर खरीदते हैं कि चलो, इंगलिश में सब कुछ लिखा है तो ठीक ही होगा। लेकिन जो भी हो, आज कल जब भी मैं किसी ऐसे बच्चे के हाथ में ये पैकेट देखता हूं जिसे मैं समझता हूं कि इस पैकेट से कहीं ज़्यादा रोटी-सब्जी की ज़रूरत है तो मन बहुत दुःखी होता है --- इच्छा होती है इस के हाथ से इसे कैसे भी छीन लूं --- बाद में जब भूख लगेगी तो चुपचाप मज़े से खिचड़ी खा ही लेगा।

आप का प्रश्न मैंने भांप लिया है --- कि डाक्टर तुम्हारे सामने इस तरह के जंक-फूड का पैकेट कहां से आया ?—आप के सामने तो लगता है आज पोल खुल गई ---कल शाम को बेटे को दिलाया था ---लेकिन ज़रा इस तरफ़ भी ध्यान दीजियेगा कि यह सब होता कितने समय के बाद ------निःसंदेह कुछ महीनों के बाद !!
लेकिन फिर भी यह गलत है ---आखिर क्यों मैं उसे यह चस्का लगाने में उस की मदद कर रहा हूं !!

शनिवार, 24 जनवरी 2009

होल्टर-मॉनीटर टैस्ट – 24 घंटे तक चलने-वाली चलती-फिरती ईसीजी !!

होल्टर-मॉनीटर एक ऐसा यंत्र है जिसे हम एक पोर्टेबल ईसीजी मशीन कह सकते हैं जिस से किसी व्यक्ति के हृदय की गतिविधि 24 से 48 घंटे तक रिकार्ड की जाती है । यह तो हम जानते ही हैं कि ईसीजी के द्वारा हमारे हृदय की इलैक्ट्रिक गतिविधि चंद मिनटों के लिये जांची जाती है और होल्टर –मॉनीटर के द्वारा हमारे हृदय की लय ( cardiac rhythm) को हास्पीटल के बाहर 24 से 48 घंटे तक रिकार्ड कर लिया जाता है।

और इस दौरान उस मरीज़ की सारी दैनिक क्रियायें चलती रहती हैं यहां तक की उस के सोते रहते भी यह मशीन चालू रहती है। इस से डाक्टरों को ऐसे लक्षणों को देखने का अवसर मिलता है जो कुछ समय के लिये आते हैं फिर खत्म हो जाते हैं लेकिन इन के साथ साथ हृदय की लय में बदलाव भी होता है ।

यह टैस्ट करवाने से पहले किसी विशेष तैयारी की आवश्यकता नहीं होती है --- जिन पुरूषों की छाती पर बहुत से बाल हैं उन्हें उन की शेव करने के लिये कहा जा सकता है।

यह टैस्ट होता कैसे है ? – डाक्टर के पास अथवा किसी डॉयग्नोस्टिक लैब में काम कर रहा टैक्निशियन मरीज को होल्टर-मॉनीटर फिट कर देता है और इसे इस्तेमाल करने की उचित सलाह दे देता है । मरीज़ की छाती पर पांच स्टिकर लगा दिये जाते हैं—इन के साथ जुड़ी तारों को होल्टर-मॉनीटर के साथ जोड़ दिया जाता है। इन तारों के द्वारा आप के हृदय का दिन भर का इलैक्ट्रिक पैटर्न मॉनीटर में रिकार्ड हो जाता है और इस स्टोर किये जा चुके डैटा का डाक्टर बाद में विश्लेषण करते हैं।

होल्टर मॉनीटर का साइज़ इतना होता है कि यह किसी के पर्स में अथवा जैकेट की जेब में आसानी से आ जाता है , वैसे इसे स्ट्रैप की मदद से कंधे पर भी लटकाया जा सकता है।

इस के लगे रहते ही आप को अपनी दैनिक क्रियायें करनी होती हैं ---बस इतना ध्यान रखना होता है कि जब तक आप इसे धारण किये रहते हैं उस समय तक आप को नहाना नहीं होता और दूसरा यह कि आप को एक छोटी डॉयरी इस लिये दी जाती है ताकि आप उस में ऐसे किसी भी अजीबोगरीब लक्षण को ( समय के साथ) अपने पास लिख कर रखें – ऐसा लक्षण जो आप को थोड़ा बहुत भी चिंताजनक सा लगा हो !!

टैस्ट के बाद डाक्टर आप की डॉयरी के साथ साथ होल्टर मानीटर में स्टोर किये गये डैटा को यह जानने के लिये स्टडी करता है कि आप के द्वारा बताये गये ( लिख कर रिकार्ड किये गये लक्षण ) लक्षण क्या हृदय के किसी रोग की वजह से हैं !!

इस टैस्ट को करवाने से कोई रिस्क नहीं है – बस, आप को मॉनीटर हास्पीटल को वापिस लौटाना होता है !! बाद में इस रिकार्डिंग का प्रिंट-आउट लेकर डाक्टर इस का अध्ययन करते हैं।

संक्षेप में बताया जाये तो यही है कि कुछ एंजाइना ( angina) के मरीज़ ऐसे होते हैं जिन में डाक्टर को लगता है कि इनमें इस्कीमिक हार्ट डिसीज़ ( हृदय को मिलने वाले रक्त की सप्लाई की कमी) हो सकती है लेकिन इन की ईसीजी नार्मल आ रही है ---तो फिर दिन भर सारी सामान्य दैनिक क्रियाओं के दौरान ऐसे मरीज़ों के हृदय की एक्टीविटी रिकार्ड करने के लिये होल्टर-मानीटर टैस्ट करवाया जाता है।

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

अनहोनी को होनी कर दें ...!!

निःसंदेह अमर अकबर एंथोनी में निरूपा राय को एक साथ अकबर और एंथोनी का रक्त चढ़ता दिखाते हुये रील-लाइफ़ में एक अनहोनी को होनी बता कर के तो दिखा दिया। लेकिन ऐसा रियल लाइफ में नहीं होता है क्योंकि जब किसी रक्त-दाता से रक्तदान प्राप्त होता है तो उस की कईं प्रकार की जांच होती है।


इसी बात पर ध्यान आ रहा है कि ये जो डाक्टर लोग रेडियो एवं टीवी वगैरह पर आते हैं इन की सब बातें पूरे ध्यान से सुननी चाहिये क्योंकि अकसर मैंने यह देखा है कि ये सारी उम्र भर के अनुभव को उस एक घंटे के कार्यक्रम में श्रोताओं से साझा कर देना चाहते हैं। ऐसे ही मुझे दो-दिन पहले विविध-भारती पर सुने एक ऐसे ही कार्यक्रम का ध्यान आ रहा है जिस में वह किसी ब्लड-बैंक के डाक्टर से की गई बातचीत का प्रसारण कर रहे थे।


अकसर हम लोग सोचते हैं कि किसी सर्टीफाइड ब्लड-बैंक से लिया गया रक्त लिया है तो वह शत-प्रतिशत सुरक्षित ही होता है। लेकिन डाक्टर साहब इस बात पर भी प्रकाश डालने का प्रयत्न कर रहे थे कि ठीक है, रक्त किसी सर्टीफाइड बैंक से लिया है लेकिन फिर भी कुछ बीमारी तो इस प्रकार से लिये रक्त से भी फैलने का रिस्क तो बना ही रहता है ---चाहे यह रिस्क होता बहुत कम है !!

अब आप का यह सोचना बिलकुल मुनासिब है कि अब यह कौन सी नईं मुसीबत है कि किसी मान्यता-प्राप्त ब्लड-बैंक से रक्त लेकर भी रिस्क की चिंता बनी रहे। दोस्तो, यह इसलिये है क्योंकि अभी भी बहुत से ऐसी वॉयरस हैं जिन का हमें पता ही नहीं है। जिन वॉयरसों अथवा जिवाणुओं का हमें पता है उन की तो हम नें रक्त दाता से रक्त लेकर जांच कर डाली लेकिन जिन के बारे में अभी चिकित्सा विज्ञान को कुछ भी पता ही नहीं है, उन का क्या ? कल ही मैं पढ़ रहा था कि रक्त के चढ़ाने से एक अन्य नईं सी बीमारी ( नाम ध्यान में नहीं आ रहा ) के फैलने के रिस्क का भी पता चला है ।

चलिये इस नईं सी बीमारी का तो मैं नाम भूल गया – लेकिन हैपेटाइटिस सी का तो नाम हम सब को याद है। दोस्तो, रक्त-दान से प्राप्त किसी भी रक्त की थैली के बाहर लिखा होता है कि इस रक्त की वीडीआरएल, हैपेटाइटिस बी, हैपेटाइटिस सी, एच-आई-व्ही, मलेरिया के जीवाणुओं के लिये जांच की जा चुकी है और इस सुरक्षित है ।
अकसर सर्टीफाइड सरकारी ब्लड-बैंक रक्त के एक यूनिट के लिये 250 रूपये की रकम लेते हैं – और यह रक्त की कीमत नहीं है (!!) , यह तो इसे टैस्टिंग करने की कीमत है और वह भी ये सब कैसे कर पाते हैं मैं इस का पता लगा कर बताऊंगा क्योंकि अकसर बाजार में ये सारे टैस्ट ही एक हज़ार-बारह सौ रूपये में होते हैं क्योंकि हैपेटाइटिस सी के लिये रक्त की जांच करने के ही लगभग 650 रूपये का खर्च बैठता है।

बात मुझे आज हैपेटाइटिस सी के बारे में ही करनी है --- मलेरिया, वीडीआरएल टैस्ट के साथ साथ हैपेटाइटिस बी और एचआईव्ही की जांच भी होती है , यह तो आप सब अच्छी तरह से जानते ही हैं लेकिन हैपेटाइटिस सी के बारे में इतना कहना चाहता हूं कि रक्त दान से प्राप्त रक्त की हैपेटाइटिस सी के लिये जांच अभी पिछले कुछ ही सालों से शुरू की गई है ----पहले यह टैस्टिंग नहीं की जाती थी –और जब से यह एचआईव्ही का शैतान आ गया तो उस के बाद से ही ये सारे टैस्ट वगैरह होने लगे।

इस का क्या यह मतलब है कि जब से हम लोगों ने रक्त के लिये इस तरह के टैस्ट करवाने शुरू कर दिये उस समय से ही ये बीमारियां हैं ---नहीं, उस से पहले ही से ये बीमारियां हैं लेकिन हमें इन के जीवाणुओं के बारे में ही पता ही न था और अगर पता भी था तो हमारे पास कुछ बीमारियों को पता करने के साधन नहीं थे और जहां कहीं किसी बीमारी अथवा इंफैक्शन का पता करने के लिये साधन थे , वहां तब यह पालिसी ही नहीं थी अथवा शायद ज़रूरत ही नहीं समझी जा रही थी कि इस बीमारी के लिये भी रक्त की जांच किये जाने की ज़रूरत है !!

अब यह पढ़ कर यह विचार आना कि यह सब भ्रम मात्र हैं ---- क्या पहले रक्त नहीं चढ़ा करता था ( blood transfusion) ---पहले भी तो यह सब होता ही था ना ---- ठीक है , होता तो था लेकिन जैसे कि ऊपर बार बार बताया जा चुका है कि हमारे पास कुछ बीमारियों की टैस्टिंग करने का कोई जुगाड़ ही न था।

अब चलिये हैपेटाइटिस की ही बात करते हैं ----कहां किसी को पीलिया होने पर इतनी जांच की जाती थी ----बस, पीलिया हो गया है तो यह कह दिया जाता था कि इस का सारा रक्त पानी बन गया है – और कुछ बच जाते थे और कुछ लंबे समय तक बीमार रहते थे और कुछ को पीलिये की बीमारी लील लिया करती थी। लेकिन आज किसी की व्यक्ति को जब पीलिया होता है तो तुरंत उस की जांच की जाती है कि यह दूषित पानी पीने की वजह से है ( हैपेटाइटिस ए) , दूषित रक्त अथवा ऐसे ही अन्य कारणों की वजह से ( हैपेटाइटिस बी, सी) , शराब द्वारा लिवर को तबाह कर दिये जाने की वजह है , पित्ते में पत्थरी की वजह से है ..........कहने का भाव यह है कि जो भी कारण पता चलता है उस के मुताबिक मरीज़ का इलाज शुरू कर दिया जाता है।

अब जिस बात पर मैं ज़ोर देना चाहता हूं कि जब हैपेटाइटिस सी की बीमारी की जांच नहीं हुआ करती थी , बीमारी तो यह तब भी थी और रक्तदान से प्राप्त रक्त को किसी को चढ़ाने के कारणवश फैलती तो होगी लेकिन किसी को पता ही नहीं चलता था । फिजिशियन से बात हो रही थी कि जिस दौर में हैपेटाइटिस सी का टैस्ट नहीं किया जाता था , उस ज़माने में जिन लोगों को रक्त चढ़ाया गया होगा, उन में हैपेटाइटिस सी की पुरानी बीमारी ( chronic hepatitis C infection) होने की संभावना तो है ही----यह रिस्क तो उन को झेलना ही पड़ा।

हैपेटाइसिस सी के बारे में थोड़ी बातें जाननी ज़रूरी हैं ---- इस इंफैक्शन के बारे में यह कहा जा सकता है कि यह वॉयरल सिकनैस खामोश रह सकती है और जिस का इलाज करना मुश्किल तो हो सकता है लेकिन इस का इलाज हो भी सकता है ।

हैपेटाइटिस सी इंफैक्शन का पता कईं बार तब चलता है जब बहुत सालों तक यह लिवर को तबाह कर चुकी होती है। विकसित देशों में तो आज की तारीख में लिवर ट्रांसप्लांट का एक मुख्य कारण ही वॉयरल हैपेटाइटिस है।
हैपेटाइटिस सी के बारे में यह बात बहुत रोचक है कि आज कल जिस तरह की दवाईयां उपलब्ध हैं उन के इस्तेमाल से पुरानी इंफैक्शन के 40 से 80 प्रतिशत केसों को जड़ से नष्ट किया जा सकता है।

सब से ज़्यादा ध्यान देने योग्य बात यही है कि हैपेटाइटिस सी से इंफैक्शन का कईं कईं साल तक पता ही नहीं चलता । ये वायरस इतनी चंचल है कि अकसर यह कईं सालों तक सोई रहती है और उस के बाद यह एक ऐसा रूप धारण कर लेती है कि डाक्टर लोग भी असमंजस की स्थिति में हैं कि इस के इलाज की सिफारिश करें अथवा मरीज़ों को सजग रहते हुये इंतज़ार करने की सलाह दें ( wait and watch !!) .

कहीं आप को यह सुन कर एक झटका न लगे कि अमेरिका जैसे देश में 32 लाख लोग ऐसे हैं जिन में हैपेटाइटिस सी की क्रानिक इंफैक्शन तो है लेकिन उन्हें इस का पता नहीं है ---- ऐसा कहा जाता है कि पांच में से चार लोगों में जब यह इंफैक्शन पहली बार होती है तो इस के कुछ भी लक्षण नहीं होते ( no symptoms).

अमेरिका में तो बहुत से लोगों को तो तब ही इस हैपेटाइसिस सी की बीमारी का पता चलता है जब वे रक्त दान देते हैं अथवा हैल्थ इंश्योरैंस के लिये उन का सारा चैक-अप होता है।

जिन लोगों को हैपेटाइटिस सी से इंफैक्शन होती है उन में से लगभग एक तिहाई लोग ऐसे होते हैं जिन की रोग-प्रतिरोधक शक्ति ( natural immunity) ही इस वॉयरस का खात्मा कर देती है लेकिन 70 फीसदी लोग ऐसे होते हैं जिन में यह एक क्रॉनिक संक्रमण का रूप ले लेती है जिस की वजह से लिवर की सिरोसिस ( liver cirrhosis) एवं लिवर के कैंसर की संभावना बहुत बढ़ जाती है। विडंबना देखिये कि जो लोग हैपेटाइटिस सी से इंफैक्शन होने के तुरंत बाद बीमार हो जाते हैं उन में इस वायरस के खत्म हो जाने की काफ़ी संभावना रहती है।
तो इस हैपेटाइटिस सी का इलाज क्या है ? – इस के लिये दवाईयां तो हैं जो महंगी तो हैं ही –इस के साथ ही साथ उन के साइड-इफैक्टस भी सीरियस किस्म के होते हैं । इसलिये कईं बार यह फैसला करना कि किस का इलाज किया जाये और किस का नहीं थोड़ा पेचीदा सा काम ही होता है।


विशेषज्ञों के अनुसार लगभग एक तिहाई ऐसे मरीज़ जिन में यह क्रॉनिक इंफैक्शन होती है उनमें लिवर सिरोसिस हो जाती है ---- पांच से दस प्रतिशत मरीज़ ऐसे होते हैं जिन में लिवर कैंसर हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो बहुत से मरीज़ क्रॉनिक इंफैक्शन होते हुये भी बिना किसी तकलीफ़ के ज़िंदगी बिता देते हैं --------मुश्किल बात यही बताना है कि कौन सा बंदा ठीक चलता रहेगा और किस की इस क्रॉनिक इंफैक्शन की वजह से मौत हो जायेगी।

अमेरिका में 1980 के दशक में हैपेटाइटिस सी इंफैक्शन के हर साल दो लाख चालीस हज़ार नये केस पकड़ में आते थे और यह संख्या 2006 में केवल 19000 रह गई है । लेकिन हम लोग ज़रा अपने यहां की हालात की कल्पना करें ----- सीधा जवाब है कि हमें पता ही नहीं है कि हम कहां पर खड़े हैं --- इस की एक छोटी सी शुरूआत मैं सूचना के अधिकार के अंतर्गत यह पता कर के करने की करूंगा कि पिछले पांच सालों में रक्त-दान के कितने केसों में से कितने लोगों में हैपेटाइटिस सी का संक्रमण पाया गया है।

हां, तो आप यह सब पढ़ कर भयभीत तो नहीं हो गये ----क्या करें, थोड़ा बहुत आदमी हो ही जाता है और विशेष कर अगर किसी को उस ज़माने में रक्त चढ़ाया जा चुका है जब रक्तदान से प्राप्त रक्त की हैपेटाइटिस सी की टैस्टिंग ही नहीं हुआ करती थी ----अगर ऐसा है तो डरने की बजाये आप अपने फिजिशियन से मिल कर अगर वह आप को सलाह दे तो हैपेटाइटिस सी के लिये अपना ब्लड-टैस्ट करवा लेंगे तो बेहतर होगा।

वैसे एक बात की तरफ़ हमेशा ध्यान रहना चाहिये कि अभी भी बहुत से वॉयरस हैं जिन का हमें अभी पता ही नहीं है --- लेकिन फिर भी दोस्त जब किसी को रक्त-दान दिया जाना होता है उस की लाइफ़ बचाने के लिये रक्त चढ़ाया ही जाता है ---- फौरी तौर पर उस की ज़िंदगी बचाना सब से ज़्यादा लाज़मी होता है ।

लेकिन एक बात का आप को पता है कि कई बार आप्रेशन के वक्त जिस किसी मरीज़ को रक्त दिये जाने की संभावना रहती है वह आप्रेशन के कुछ महीने पहले अपना ही रक्त निकलवा कर सुरक्षित रखवा देता है जिसे उस के आप्रेशन के समय ज़रूरत पड़ने पर चढ़ा दिया जाता है --- इसे ऑटोलॉगस ट्रांसफ्यूज़न ( Autologous transfusion) --कहते हैं। एक तरह से किसी तरह की बीमारी के फैलने की होनी को अनहोनी में बदलने का एक रास्ता !!

मैंने जो बात अनहोनी को होनी में बदलने की की थी उसे होनी को अनहोनी में बदल कर समाप्त कर रहा हूं। बस, अपना ध्यान रखियेगा।

सोमवार, 19 जनवरी 2009

हिल रहे दांत मरीज़ों की नींद उड़ा देते हैं

बहुत दिनों से विचार था कि हिलते हुये दांतों के बारे में थोड़ी चर्चा की जाये। यह एक बहुत ही आम समस्या है जिस के लिये मरीज़ दंत-चिकित्सक के पास चले आते हैं। मुझे लग रहा है कि हिलते हुये दांतों के कारणों व उपचार के ऊपर थोड़ी रोशनी डालने की आवश्यकता है।

चलिये, बच्चे के जन्म से भी पहले गर्भवती मां के दांतों से शुरू किया जाये---बहुत सी गर्भवती महिलाओं मसूड़ों से रक्त आने की शिकायत करती हैं- इस का नाम ही है प्रैगनेन्सी जिंजीवाइटिस ( अर्थात् गर्भावस्था में होने वाली मसूड़ों की सूजन) – इस दौरान भी कुछ महिलायें यह शिकायत करती हैं कि उन के दांत हिल से रहे हैं---इस का सीधा सरल समाधान होता है कि दंत-चिकित्सक से इस का उपचार करवा लिया जाये जिस से लगभग शत-प्रतिशत केसों में राहत मिल जाती है।

चलिये, बबलू का जन्म हो---लेकिन यह क्या, उस के मुंह में तो जन्म के समय से ही दो छोटे छोटे दांत मौजूद हैं ----जो हिल तो रहे हैं –लेकिन सारा कुनबा मुंह फुलाये बैठा है कि हो ना हो कोई तो अनर्थ होने ही वाला है –यह तो घोर अपशगुन है । लेकिन मेरी भी तो सुनिये---- कोई अपशगुन-वगुन नहीं है, होता है कभी कभी ऐसा होता है लेकिन इन हिलते हुये छोटे छोटे दांतों ( neo-natal /natal teeth) को तुरंत दंत-चिकित्सक के पास ले जाकर निकलवा देना चाहिये ---इस का कारण यह है कि इन दांतों की वजह से बच्चा स्तनपान कर नहीं पाता ऊपर से मां की छाती पर इन की वजह से जख्म हो जाते हैं। एक बार और यह भी है कि बच्चा चाहे कुछ ही दिनों का ही हो, इस प्रकार के दांतों को निकालना बहुत ही ज़्यादा आसान होता है क्योंकि इन दांतों की जड़े बेहद कमज़ोर होती हैं और ये लगभग मसूड़े के ऊपर ही पड़े होते हैं जिन्हें बिना कोई इंजैक्शन लगा कर , केवल एक दवाई लगा कर या थोड़ा सा सुन्न करने वाली दवाई का स्प्रे करने के पश्चात् डैंटिस्ट निकाल बाहर करता है।

बबलू बड़ा हो गया --- थोड़ी थोड़ी मस्ती करने लगा --- 2-3 साल का हो गया – बस कभी कभी गिर जाता है और अपने होंठ कटवा लेता है और कईं बार आगे के दूध वाले दांत थोड़ा थोड़ा हिलना शुरू हो जाते हैं ----लेकिन धैर्य रखिये ऐसे केसों में भी कुछ खास करने की ज़रूरत नहीं होती। बस, बर्फ लगा कर उस का रक्त रोकिये--- और थोड़ा बहुत हिलते हुये दांतों की चिंता न करिये ---यह जो मां प्रकृति है ना यह भी इन नन्हे-मुन्नों के आगे घुटने टेक ही देती है – और मैंने अपनी प्रैक्टिस में देखा है कि इन बच्चों में कुछ खास करने की ज़रूरत नहीं होती --- और दंत-चिकित्सक से मिल कर एक दो दिन बस दर्द-निवारक ड्राप्स वगैरह लगाने से सारा मामला रफ़ा-दफ़ा हो जाता है ---शुरू शुरू में मुझे भी इस की बहुत हैरानी हुआ करती थी। बस करना इतना होता है कि बच्चे को उन दांतों को इस्तेमाल करने के लिये रोकना होता है।

बबलू और भी बडा हो गया ---लगा साईकल चलाने, गली-क्रिकेट खेलने और ऐसे ही एक दिन गिर गया ---अगले दांत पर ज़ोर आया जिस मे दर्द भी शुरू हो गया और वह थोड़ा थोड़ा हिलना भी शुरू कर दिया। इस के लिये ज़रूरत है एक-आधा दिन देख लें, कोई दर्द-निवारक दवाई वगैरा दे दें ---और उस के बाद उसे दंत-चिकित्सक के पास लेकर जाना बहुत ज़रूरी होता है क्योंकि वह इस का एक्स-रे करने के पश्चात् चोट की उग्रता का अनुमान लगाते हैं और यथोचित उपचार कर देते हैं ----बताने वाली बात यह है कि इस तरह का हिलता हुआ दांत भी उचित उपचार के बाद बिल्कुल ठीक हो जाता है ----हिलना जुलना बिल्कुल बंद, एक दम फिट !! अकसर मां-बाप बहुत घबराये से होते हैं लेकिन जब उन्हें सब कुछ समझा दिया जाता है तो वे भी आश्वस्त हो जाते हैं। बस बच्चे को यह समझाने की बहुत ज़रूरत होती है कि वह कम से कम दो-तीन हफ्ते दांत को बार बार पकड़ कर शीशे के सामने खड़े होकर यह चैक करने की कोशिश ना करे कि दांत कितना जाम हुआ है और कितना अभी हिल रहा है --------प्रकृति को उस का काम करने का समय तो देना ही होगा।

बबलू बड़ा हो गया ---- और अब बना गया बब्बन उस्ताद ---- लेकिन अब उसे दांत सफा करने की फुर्सत नहीं ---- कभी कभार कोई मंजन घिस दिया तो घिस दिया, वरना छुट्टी ---दंत चिकित्सक के पास नियमित चैक-अप करवा कर आने का कोई ख्याल ही नहीं। ऊपर से बब्बन ने गुटखे और तंबाकू वाली चुनौतिया को जेब में रखना शुरू कर दिया। ऐसे में क्या हुआ कि बब्बन के 25-30 साल के होते होते मसूडों से रक्त आने लगा ----चूंकि मसूड़ों से खून ब्रुश करने से या दातुन करने से आता था, इसलिये पड़ोस के पनवाड़ी बनारसी चाचा की सलाह उस के काम आ गई ----बब्बन, चल छोड़ इन ब्रुश दातुन का चक्कर, तू तो बस मेरी मान तू तो नमक-तेल शुरू कर दे ---तेरी चाची का भी पायरिया इसी से ठीक हुआ था –बस , उस दिन से बब्बन ने दांतों की थोड़ी बहुत सफाई जो वह पहले कर लिया करता था ,वह भी बंद कर दी -----बस अगले दो-चार-पांच साल ऐसे ही चलता रहा ---किसी साइकिल वाले से, किसी बस में मंजन व अंजन बेचने वाले से कोई भी पावडर लेकर लगा लिया ---- चंद दिनों के लिये रोग दब गया लेकिन यह मसूड़ों से आने वाला खून तो थमने का नाम ही नहीं ले रहा है और अब तो दांत भी हिलने लगे हैं , इसलिये बब्बन ने सोचा कि चलते हैं ---किसी चिकित्सक के पास।

सिविल हस्पताल के चिकित्सक ने चैक-अप किया ---बता दिया कि भई तुम्हारा पायरिया रोग तो नीचे हड़डी तक फैल चुका है, इस का तो पूरा इलाज होगा ---मसूड़ों की सर्जरी होगी और या तो फलां फलां मसूड़ों के स्पैशलिस्ट के पास चले जाओ वरना पास ही के कस्बे के डैंटल कालेज में जा कर अपना पूरा इलाज करवा लो, तभी दांत बच सकते हैं।

गुस्से से लाल बब्बन डाक्टर को कोसता हास्पीटल से बाहर आकर यही सोच रहा कि लगता है कि इस डाक्टर का दिमाग फिर गया है ---अब इत्ती से तकलीफ़ के लिये मैं भला आप्रेशन करवाऊंगा ----- हा, हा, हा......इतने में उस की नज़र सामने के फुटपाथ पर बैठे एक फुटपाथ छाप दंदान-साज़ पर पड़ती है ----बब्बन ने सोचा कि अभी बस को आने में तो थोड़ा टाइम है चलो इस के साथ थोड़ा टाइम-पास कर लिया जाये। उस समय वह किसी दूसरे शिकार का दांत उखाड़ रहा था और जब नहीं उखड़ा तो कल आने के लिये कह दिया। अब बारी बब्बन की थी ----उस ने इतना ही कहा था कि मेरे तीन चार ऊपर के और तीन चार नीचे के दांत हिल रहे हैं ---बस , फिर तो वह उस फर्जी फुटपाथ छाप चिकित्सक की बातों में ऐसा उलझा कि उस ने कुल 15 रूपये में अपना इलाज करवा ही लिया। इलाज के तौर पर उस ने एक बहुत ही नुकसानदायक पदार्थ उस के हिलते हुये दांतों के आगे-पीछे चेप दिया और बब्बन खुशी खुशी घर की तरफ़ चल पड़ा।

रास्ते में दूसरे बस-यात्रियों से भी उस फुटपाथ वाले बंदे के गुण गाता रहा और उस सिविल हास्पीटल वाले डाक्टर की ऐसी की तैसी करता रहा । कुछ समय तक वह रहा खुश ----उसे लगा वह ठीक हो गया है लेकिन तीन-चार महीनों में ही उस का मुंह सूज गया और बहुत ज़्य़ादा इंफैक्शन हो गई।

इंफैक्शन इतनी ज़्यादा हो गई कि उसे एक क्वालीफाइड दंत चिकित्सक के पास जाना ही पड़ा ---उस ने एक्स-रे किया तो पता चला कि हिलते दांतों के इतने बेरहम इलाज की वजह से आस पास के चार-दांत भी पूरी तरह से नष्ट हो गये हैं, वे भी पूरी तरह से हिलने लग गये हैं --- और आस पास के मसूड़ों में भयंकर सूजन आई हुई है। ऐसे में उसे अगले चार पांच दिनों में अपने छः दांत उखड़वाने पड़े ।

अपने बाकी के दांतों का भी उचित उपचार करवाने की जगह उस ने फिर किसी नीम हकीम डैंटिस्ट की बातों में आकर एक तार सी लगवा ली कि इस से बाकी के दांत रूक जायेंगे --- लेकिन कुछ महीनों बाद फिर वही सिलसिला –साथ वाले अच्छे भले दांत भी हिल गये ---- धीरे धीरे कुछ महीनों में उस को छः दांत और उखड़वाने पड़े ----अब तक जितने दांत बच रहे थे उन की भी हालत पतली ही थी ---इसलिये बब्बन उस्ताद ने फैसला किया कि अब इन का क्या काम -----तो चालीस-ब्यालीस के आसपास उस ने सारे दांत निकलवा दिये ----और कुछ साल तक नकली दांत लगवाने की सलाह ही बनाता रहा जिस की वजह से उस के जबड़े की हड्डी ( जिस पर नकली दांत टिकते हैं) काफी घिस गई -----एंड रिजल्ट यह निकला कि जब अपनी बेटी की शादी से पहले उस ने नकली दांतों का सैट लगवा तो लिया लेकिन वह कभी भी सैट ही नहीं हो पाया ---- बब्बन आज भी बिना दांतों के ही रोटी खाता है --- और यही वजह है कि वह ठीक से कुछ खा नहीं पाता –और पचास की उम्र में ही उस की सेहत इतनी ढल गई है कि वह पैंसठ का लगता है ।

यह बबलू-बब्बन की कहानी नहीं -----रोज़ाना ऐसे केस देखता हूं ---सिक्वैंस लगभग यही रहता है । मेरी अगर कोई बात माने तो दांतों को स्वस्थ रखने के लिये ये गुटखे-वुटखे,पान मसाले सदा के लिये थूक देने होंगे, सुबह तो ब्रुश करना ही है , रात को सोने से पहले भी ब्रुश करने की आदत डालनी होगी, जुबान रोज़ाना टंग-क्लीनर से साफ़ करनी होगी और अपने दंत-चिकित्सक से छः महीने के बाद जा कर नियमित दांतों का चैक-अप करवाना भी निहायत ज़रूरी है।

यह बात लगता है कि किसी पत्थर पर खुदवा दूं कि मेरे विचार मे 99प्रतिशत देशवासियों के बस में है ही नहीं कि वे अपने एडवांस पायरिया का इलाज करवा सकें ---एडवांस से भाव है कि दांत हिल रहे हैं,मसूडों से पीप आ रही है, दांतों से मसूड़ें अलग हो चुके हैं -----बस दांत निकलवाने की ही इंतज़ार में समय बीत रहा है । ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूं कि इस तरह के पायरिया का इलाज पहले तो हर जगह होता ही नहीं है ---- दूसरा यह काफी महंगा इलाज है ---बार बार जाना होता है ---बेचारा अपनी दाल-रोटी में पिसा इस देश का एक आम आदमी सुबह से लेकर शाम तक बीसियों तरह की और चिंतायें करे या अपने दांत ठीक करवाता फिरे ---- शायद उस की जेब इस की इज़ाजत भी नहीं देती ---वरना आम तौर पर इतने एडवांस पायरिया को जड़ से खत्म करने वाले पैरियोडोंटिस्ट ( periodontist) स्पैशलिस्ट भी या तो बडे शहरों में ही मिलते हैं या डैंटल कालेजों में दिखते हैं। हां, अगर कोई खुशकिस्मत मरीज़ इस तरह के पायरिये का पूरा इलाज करवा भी लेता है तो इस के लिये उसे बाद में भी अपने दांतों की साफ़ –सफाई का खास ध्यान रखना होगा। वरना यह बीमारी वापिस अपना सिर निकाल लेती है ---इसलिये हम लोग कहते हैं कि पायरिया की तकलीफ़ को जितना जल्दी हो सके ठीक करवा लेना चाहिये, वरना बहुत देर हो जाती है और ज्यादातर मामलों में ऊपर लिखे विभिन्न कारणों की वजह से दांत निकलवाने के अलावा कोई चारा बचता नहीं है।

तो आप दंत चिकित्सक से अपने नियमित चैक-अप के लिये कब मिल रहे हैं। वैसे कभी कभी दांतों से संबंधित बीमारियों के उपचार के लिये मेरा याहू आंसर्ज़ का यह पन्ना भी देख लिया करें।

रविवार, 18 जनवरी 2009

यह खतरनाक स्प्रे बिकता है धड़ल्ले से !!

कल अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की एक चेतावनी पढ़ने का मौका मिला--- चेतावनी थी कि चमड़ी सुन्न करने वाली क्रीम, जैल एवं ओंएटमैंट से क्यों बच कर रहा जाये। अभी मैंने पूरी रिपोर्ट पढ़नी शुरू ही नहीं की थी तो मेरा माथा ठनका कि क्या सैक्स-मैराथन के लिये वहां भी लोग इस का इस्तेमाल कर रहे हैं , लेकिन मैं गलत साबित हुआ।

मैं सोच रहा था कि उस में बात उस स्प्रे के इस्तेमाल की भी होगी जिस को कईं लोग विज्ञापनों के चक्कर में पड़ कर सैक्स-मैराथन में भाग लेने से पहले इस्तेमाल करते हैं। इस तरह के गुमराह करने वाले विज्ञापन अकसल कईं जगह दिख जाते हैं --- जो एक तरह से पाठकों को एक बार इसे इस्तेमाल करने का निमंत्रण दे रहे होते हैं। और बहुत से काल्पनिक शीघ्र पतन की शिकायत से जूझ रहे अपने ही भाई-बंधु इन के चक्कर में पड़ जाते हैं----शायद उन्हें भी लगता है कि चलो यही ठीक है किसी डाक्टर से अपना दुःखड़ा रोने की ज़हमत ही नहीं उठानी पड़ेगी। स्प्रे मार लेने से ही काम चल जायेगा।

अपने देश में रोना इस बात का भी है कि इस तरह के विज्ञापन अच्छी खासी जगहों पर नज़र आते रहते हैं ---- कुछ तो कईं मैगज़ीनों में और कुछ हिंदी की अखबारों में भी देख चुका हूं। कुछ साल पहले मैं इस तरह के बेबुनियाद विज्ञापनों के विरूद्ध एक शीर्ष संस्था को बहुत लिखा करता था लेकिन कुछ भी जब मुझे होता दिखा नहीं तो मैंने चुप होने में ही बेहतरी समझी। वहां पर इस तरह की शिकायत करने की इतनी औपचारिकतायें हैं कि कुछ महीनों में ही मेरा खौलता हुया खून ठंडा पड़ गया। और फिर धीरे धीरे समझ आ गई कि अगर इस तरह की गल्त भ्रांतियों का गला काटना है तो कलम से ज़्यादा ताकतवर कोई तलवार नहीं है ----बाकी सब धकौंसले बाजियां हैं, दिखावे हैं ---- असलियत कुछ नहीं । बस कलम चलाओ और आम आदमी के साथ सीधे जुड़ जायो-----यही काम पिछले आठ सालों से कर रहा हूं, और कुछ कर पाने के लिये कोई बैकिंग भी तो नहीं है। बस, सब के लिये खूब प्रार्थना ज़रूर कर लिया करता हूं कि सभी लोगों की किसी न किसी तरह से , किसी न किसी रूप में, किसी न किसी के द्वारा रक्षा होती रहे । इस समय आशीष महर्षि के ब्लाग पर लिखी कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं ----
मेरे सीने में ना सही, तेरे सीने में ही सही,
आग जहां भी हो, जलनी चाहिये।

एक आम इंसान की त्रासदी देखिये कि उसे जब यह विज्ञापन दिखा, साथ में एक कामुक सा विज्ञापन दिखा --- उस बेचारे को क्या पता वह क्या खरीद रहा है, वह झट से एक शीशी खरीद लेता है --- उस लाचार को तो बस इतनी आस है, इतनी उम्मीद है कि इस से वह थोड़ा लंबा खिंच जायेगा --- अगर ऐसा वह सोचता है तो उस में उस का कोई दोष नहीं है ----दोष है उन सब का जो इस तरह के विज्ञापन देते हैं एवं उन से भी बड़ा दोष उन का है जो इन विज्ञापनों को देख कर भी देखा-अनदेखा कर देते हैं। अच्छा आम आदमी की बेचारे की मानसिकता यही है कि चलो, क्या फर्क पड़ता है –स्प्रे ही तो मारना है, हम कौन सा कोई गोली, कैप्सूल खा रहे हैं। लेकिन उस की त्रासदी देखिये कि उसे इस तरह के स्प्रे से जब कोई भी नुकसान हो जाता है तो अव्वल तो उसे पता ही नहीं चलता कि यह स्प्रे की वजह से है और अगर पता लग भी जाये तो वह कंपनी का क्या उखाड़ लेगा ---- चुप्पी साधे रखता है, किसी डाक्टर के पास जाने से भी कतराता है क्योंकि इस तरह के स्प्रे वगैरह कोई क्वालीफाइड डाक्टर लोग तो लिखते नहीं हैं और अगर इसे लेने की सलाह किसी नीम-हकीम ने दी थी तो वे ठहरे मंजे हुये खिलाड़ी ---स्प्रे की जगह कोई लोशन थमा देंगे ---- उन के पास किस चीज़ की कमी थोड़े है !!

यह मैराथन वाली बात भी ऐसी ध्यान में आई कि मैं तो भाई अपनी मूल बात से ही भटक गया कि अमेरिका की एफडीए ने चेतावनी दी है कि अगर चमड़ी को सुन्न करने वाली वस्तुओं का गल्त इस्तेमाल किया जाये तो इस से दिल की धड़कन में गड़बड़ हो सकती है, दौरे पड़ सकते हैं , सांस लेने में तकलीफ़ हो सकती है, आदमी कोमा में जा सकता है और मौत भी हो सकती है।

These skin-numbing products in cremes, ointments or gels contain anesthetic drugs such as lidocaine, tetracaine, benzocaine, and prilocaine that are used to desensitize nerve endings near the skin's surface. If used improperly, the FDA said in an agency news release, the drugs can be absorbed into the bloodstream and cause reactions such as irregular heartbeat, seizures, breathing difficulties, coma or even death.

बार बार फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने इस के गल्त इस्तेमाल से सचेत रहने की बात की है और मैं उस चेतावनी में यही ढूंढ रहा था कि ज़रूर कहीं ना कहीं इस तरह के स्प्रे की इस तरह के गलत (मैराथन के लिये !)इस्तेमाल की भी बात की गई होगी , लेकिन शायद वहां पर लोग इतने जागरूक हैं कि यह सब इस काम के लिये इस्तेमाल नहीं करते होंगे। लेकिन सहवास से पहले इस स्प्रे का इस्तेमाल किया जाना शायद इस के गलत इस्तेमाल की सब से बड़ी उदाहरण है।

वैसे अमेरिका में तो उन्हें इस तरह की कुछ शिकायतें प्राप्त हुईँ कि जब महिलाओं ने अपनी मैमोग्राफी करवाने से पहले इसे अपने वक्ष-स्थल पर लगाया तो इस से कुछ कुप्रभाव उन में हुये और वहां पर महिलाओं ने जब लेज़र से अपने बाल उतरवाने से पहले भी इस तरह की चमड़ी सुन्न करने वाली क्रीमों आदि को इस्तेमाल किया तो भी कुछ बुरे प्रभाव देखने में आये जिस की वजह से वहां पर यह चेतावनी दी गई कि अपने फ़िज़िशियन की सलाह के बिना आप को किसी भी ऐसे प्रोडक्ट को इस्तेमाल करने के लिये मना किया जाता है।

इन क्रीमों, जैलों, ओएंटमैंटों में जिन चमड़ी सुन्न करने वाली दवाईयों की बात का उल्लेख था वे हैं --- लिडोकेन, टैट्राकेन, प्राइलोकेन, और बेनज़ोकेन – ( lidocaine, tetracaine,prilocaine and benzocaine) .

ये सब दवाईयां इस्तेमाल शरीर के किसी हिस्से को सुन्न करने के लिये इस्तेमाल की जाती हैं --- इन की अपनी अपनी अलग इंडीकेशन्ज़ हैं, ये विभिन्न ताकत में मिलती हैं( different strengths 2%, 3% आदि)--- जो दवा आंख में डाली जाती है उस की स्ट्रैंथ अलग है, मुंह में लगाई जाने वाली सुन्न करने वाली दवाई की स्ट्रैंथ अलग है । इस लिये इन के गल्त इस्तेमाल से बहुत बड़ा पंगा हो सकता है ।

मैं पिछले पच्चीस सालों से मुंह में कोई भी सर्जरी करने के लिये लिडोकेन 2% के इंजैक्शन का ही इस्तेमाल कर रहा हूं ---- ऊपर लिखी सब दवाईयां हैं तो सुन्न करने के लिये ही ना, लेकिन कभी भी लक्षमण-रेखा क्रॉस कर के किसी दूसरे साल्ट को इस्तेमाल करने का विचार भी नहीं आया ----लेकिन जो ले-मैन इन के स्प्रे के इस्तेमाल के चक्कर में पड़ जाता है उस बेचारे को ना तो किसी साल्ट की परवाह ही होती है और ना ही इस की स्ट्रैंथ की ---- कैमिस्ट चुपचाप मांगी गई वस्तु थमाने के अलावा ज़्यादा मगज़मारी करते नहीं हैं !!

अकसर मैं मुंह में इंजैक्शन लगाने से पहले एक स्प्रे का इस्तेमाल करता हूं जिस में इस सुन्न करने वाली दवा की स्ट्रैंथ 15 फीसदी ( 15% lidocaine) तक रहती है --- इस का फायदा यह होता है कि मरीज़ को जब उस के बाद हम इंजैक्शन लगाते हैं तो उसे सुईं की चुभन तक का बिल्कुल पता नहीं चलता और अपना काम आसान हो जाता है । और कईं बार बच्चों के हिलते-डुलते दांतों को एक ऐसी ही दवा वाली जैल ( लगा कर ही निकाल दिया जाता है। कहने का भाव है कि जिस का काम उसी को साजे----- डाक्टर लोग अपनी सारी सारी उम्र इन दवाईयों के साथ बिता देते हैं ---- इसलिये कोई भी काम उन की सलाह से ही किया जाये तो ठीक है, वरना आप ने तो देख ही लिया कि जब इस तरह के स्प्रे का लोग गल्त इस्तेमाल करते हैं तो आफ़त ही मोल लेते हैं। मैराथन तो गई भाड़ में, जान बची सो लाखों पाये।

मुझे ध्यान आ रहा है बंबई में एक मरीज़ था जो दो-तीन बार आया --- इलाज करवाने के बाद कहने लगता था कि इस तरह का स्प्रे हमें भी दिला दो --- मैंने पूछा क्यों, कहने तो लगा कि बस यूं ही मुंह में जब छाले वाले हों तो काम आ सकता है। अब पता नहीं उसे किस काम के लिये यह चाहिये था ---खुदा ही जाने, लेकिन मैंने उसे इतना ज़रूर समझा दिया था कि यह एक बहुत ही स्ट्रांग सी दवा है जिसे केवल डाक्टर की देख रेख में ही इस्तेमाल किया जा सकता है ।

जाते जाते बस एक छोटा सा नारा मारने की इच्छा सी हो रही है --- इस कमबख्त स्प्रे की ऐसी की तैसी !!--- बस, इतना कह कर ही लगता है काम चला लूं ---क्योंकि जो इस तरह के स्प्रे बेचने वालों के लिये मन में विचार, श्लोक आ रहे हैं वे तो लिखने के बिल्कुल भी काबिल नहीं हैं ---- जब कभी चिट्ठाजगत समारोह वगैरह में मिलेंगे तो वह भी चाय-नाश्ते के समय साझे कर ही दूंगा लेकिन यहां ---- बिल्कुल नहीं !!!

इतनी सीरियस सी पोस्ट के बाद चलिये फिक्र-नॉट की टेबलेट के रूप में एक गाना सुनते हैं।

डाक्टर-मरीज के बीच बढ़ती दूरी से चांदी कूट रहा है कौन ?

पहले हकीम, वैध जी भी कितने ग्रेट हुआ करते थे --नाड़ी देखी, जुबान देखी और बीमारी ढूंढ ली और मरीज भी जगह जगह जा कर टैस्ट करवाने के झंझट से बचा रहता था ---डाक्टर हूं, फिर भी कह रहा हूं कि आज कल तो किसी को कोई तकलीफ़ हो जाती है तो उस की आफत ही हो जाती है ---हर विशेषज्ञ अपने अपने टैस्ट तो कहता ही है , लेकिन किसी बीमारी के विभिन्न विशेषज्ञों को भी अकसर सभी टैस्ट दोबारा ही चाहिये। मरीज़ की हालत देखने लायक होती है --- मुझे ऐसे लगता है कि वह या उस के परिवार वाले शायद बीमारी से ज़्यादा इस पर खर्च होने वाले पैसे की जुगाड़ में लगे रहते होंगे।

अकसर आप सब भी सुनते ही हैं कि जैसे जैसे ये खर्चीले टैस्ट बाज़ार मे आ गये हैं , लाखों-करोड़ों की मशीनें बड़े बड़े कारपोरेट हास्पीटलों में सज गई हैं तो अब इन पर धूल तो जमने से रही --- ये मरीज़ों के टैस्ट करेंगी तो ही इन का हास्पीटल को फायदा है, वरना ये किस काम की !! वो बात अलग है कि इन मशीनों की वजह से बहुत सी बीमारियां जो पहले पकड़ में ही नहीं आती थीं उन का पता चल जाता है और कुछ बीमारियों का तो बहुत जल्द पता भी चल जाता है --- लेकिन फिर भी यह कौन देख रहा है या यह कौन कंट्रोल कर रहा है कि कहीं इन महंगे टैस्टों का प्रयोग कईं जगह पर बिना वजह भी तो नहीं हो रहा। मैं ही नहीं कहता, आम पब्लिक में भी दिलो-दिमाग में यह बात घर कर चुकी है।

आज की जनता यह भी सोच रही है कि जितने जितने ये बड़े बड़े महंगे टैस्ट आ गये हैं ----डाक्टरों और मरीज़ों के बीच की बढ़ती दूरी का एक कारण यह भी है । अब डाक्टर लोग झट से ये टैस्ट करवाने के लिये लिख देते हैं---एक बात और भी है कि एक सामान्य डाक्टर जिसे किसी बीमारी विशेष का इलाज करने के लिेये कोई अनुभव नहीं है , वह भी ये टैस्ट करवाने के लिये लिख तो देते हैं, लेकिन रिपोर्ट आने पर जब किसी स्पैशिलस्ट के पास भेजते हैं तो वह डाक्टर अकसर उन्हीं टैस्टों को दोबारा करवाने की सलाह दे देते हैं -----------मरीज़ की आफ़त हो गई कि नहीं ?

एक तो यह जब से कंज़्यूमर प्रोटैक्शन बिल आया है इस से भी मुझे तो लगता है कि मरीज़ों की परेशानियां बढ़ी ही हैं ---- हर डाक्टर अपने आप को सुरक्षित रखना चाहता है --ऐसे में महंगे टैस्ट करवाने से पहले शायद कईं बार इतना सोचा भी नहीं जाता । यहां ही क्यों, बहुत से विकसित देशों में भी तो करोड़ों अरबों रूपये इसी बात पर बर्बाद हो रहे हैं कि डाक्टर मुकद्दमेबाजी के चक्कर से बचने के लिये अनाप-शनाप टैस्ट लिखे जा रहे हैं -----इस के बारे में एक विस्तृत्त रिपोर्ट मैं दो दिन पहले ही पढ़ रहा था।

कल मैं 17-18 साल के एक लड़के के मुंह का निरीक्षण कर रहा था --- मेरी नज़र उस की जुबान पर गई तो मुझे अपनी मैडीकल की किताब में दी गई तस्वीर का ध्यान आ गया। जब मैं एमडीएस कर रहा था तो एक बहुत बड़ी किताब पढ़ी थी ----Tongue : In health and disease जुबान - सेहत में और बीमारी में !! उस लड़के के जुबान उस की परफैक्ट सेहत ब्यां कर रही थी ---मैंने पास ही खड़े आपने अटैंडैंट को कहा कि किशन, यह देखो एक स्वस्थ जुबान इस तरह की होती है !

ऐसा क्या था उस की जुबान में --- उस का रंग बिल्कुल नार्मल था , और उस का खुरदरापन उस की सेहत को ब्यां कर रहा था ---यह खुरदरापन जुबान की सतह पर मौज़ूद पैपीली (filiform papillae) की वजह से होता है और यह जुबान की अच्छी सेहत की निशानी हैं ----कुछ बीमारियां है जैसे कि कुछ तरह के अनीमिया ( खून की कमी ) जिन में यह पैपीली खत्म हो जाते हैं और जुबान बिल्कुल सपाट सी दिखने लगती है ।

यह तो एक बात हुई ---- जुबान पर जमी काई( tongue coating), जुबान का रंग, मुंह से आने वाली गंध, मुंह के अंदरूनी हिस्सों का रंग, मसूड़ों का रंग, उन की बनावट, मुंह के अंदर वाली चमड़ी कैसी दिखती है -----ये सब उन बीसियों तरह की चीज़ें हैं जिन को देखने पर मरीज़ की सेहत के बारे में काफ़ी कुछ पता चलता है । कुछ समय से यह चर्चा बहुत गर्म है कि मसूड़ों के रोग ( पायरिया ) आदि से हृदय के रोग होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है , और यह भी तो देखा है कि जिस किसी मरीज़ को बहुत ज़्यादा पायरिया है, दांत हिल रहे हैं तो कईं बार जब उस के रक्त की जांच की जाती है तो पहली बार उसे भी तभी पता चलता है कि उसे मधुमेह है।

धीरे धीरे समझ आने लगती है कि पुराने हकीम लोग, धुरंधर वैध अपने मरीज़ों में झांक कर क्या टटोला करते थे ---- वे जो टटोला करते थे उन्हें मिल भी जाता था --वे मिनट दो नहीं लगाते थे और मरीज़ की सेहत का सारा चिट्ठा खोल कर सामने रख देते थे लेकिन शायद आज कल की तेज़-तर्रार ज़िंदगी में इतना सब कुछ करने की फुर्सत ही किसे है------ अपने आप पता लग जायेगा जो भी है टैस्टों में , क्यों पड़े इन झंझटों में ---- कहीं कहीं ऐसी सोच भी बनती जा रही है।

जो काम आप बार बार करते है उस में हमें महारत भी हासिल होनी शुरू हो जाती है ---- किसी असामान्य मुंह से सामान्य मुंह का भेद करना हम जानना शुरू कर देते हैं ----ध्यान आ रहा अपने एक बहुत ही प्रिय प्रोफैसर का --- डा कपिला साहब----- क्या गजब पढ़ाते थे , बार बार कहा करते थे कि खूब पढ़ा करो --- अपना ज्ञान बढ़ाओ क्योंकि जब आप किसी मरीज़ का चैक अप कर रहे हो तो आप वहीं चीज़े देख पाते हो जिन के बारे में आप को ज्ञान है ----- You see what you know, you dont see what you dont know !! कितनी सही बात है ....वे बार बार यह बात दोहराते थे।

जब हम मुंह की ही बात करें तो हमें मुंह के अंदर झांकने मात्र से ही बहुत प्रकार की बीमारियों का पता चल जाता है और दूसरी बात यह भी है कि बहुत सी मुंह की तकलीफ़ें ऐसी भी हैं जो हमारे सामान्य स्वास्थ्य को भी काफी हद तक प्रभावित करती हैं।

यह जो फिल्मी गीत है ना मुझे बहुत अच्छा लगता था ----लगता था क्या , आज भी लगता है, इस के बोल बहुत कुछ बता रहे हैं --दो दिन पहले टीवी पर भी आ रहा था, इसलिये सोचा कि आप के साथ बैठ कर सुनता हूं -- और भी अच्छा लगेगा।

शनिवार, 17 जनवरी 2009

आखिर कैसे आ सकता है हमारा सारा सिस्टम लाइन पर

बहुत हो गई ये बातें ---- गर्भाशय के कैंसर के लिये यह टीका, प्रोस्ट्रेट के कैंसर से बचाव के लिये ये वस्तुयें लाभदायक हैं, विटामिन-डी की रोज़ाना खुराक से दिल के दौरे से होता है बचाव, इस विटामिन से एलज़िमर्ज़ की रोकथाम, उस विटामिन से यह लाभ, उस मिनरल से यह होता है, उस से फलां बीमारी का बचाव होता है--- बिल्कुल ठीक सोच रहे हैं, इस तरह की इतनी सारी बातें तो जानने मात्र से ही थक जायेंगे ---उन्हें अमल में कैसे लाया जायेगा ! पहले तो इन्हें कहीं नोट करने के लिये अच्छी खासी डायरी चाहिये।

चलिये मुख्य बातें तो कोई मान भी ले----लेकिन अधिकर बातें और इस प्रकार की अधिकतर सिफारिशें माननी बहुत ही मुश्किल हैं ----वैसे तो विभिन्न कारणों की वजह से यह सब कुछ मानना नामुमकिन सा ही जान पड़ता है।
और दूसरी तरफ़ यह भी सोच रहा हूं कि कितने समय तक हम लोग तरह तरह की बीमारियों के लिये प्रदूषण, कीटनाशकों के अंधाधुध उपयोग, मिलावटी खानपान को दोष मड़ते रहेंगे ---- चलिये, यह भी सच है कि इन सब में तो गड़बड़ है ही , लेकिन ज़रा हम लोग अपनी जीवनशैली की तरफ़ नज़र दौड़ायें।

इसी गड़बड़ जीवनशैली की वजह से ही इतनी सारी बीमारियां बढ़ती जा रही हैं----उच्च-रक्तचाप, मधुमेह आदि की तो बात अब क्या करें—इन्होंने तो अब एक महामारी का रूप धारण कर लिया है, चिंता की बात यह भी है कि दिन में कितने ही मरीज़ ऐसे मिल जाते हैं जिन में कोई थायरायड़ के लिये दवाईयां खा रहे होते हैं , और कितने ऐसे मिलते हैं जो अपने बड़े हुये यूरिक एसिड के लिये दवाईयां लिये जा रहे हैं......बात ठीक भी है कि अब किसी को तकलीफ़ होगी तो दवाई तो लेनी ही पड़ेगी क्योंकि अगर दवाई नियमित तौर पर नहीं ली जायेगी तो ये थायराइड की तकलीफ़ एवं यूरिक एसिड की प्राब्लम बहुत गड़बड़ कर देती है।

लेकिन मेरा विचार है कि ठीक है कि दवाई डाक्टरी सलाह के मुताबिक ले ली जाये, लेकिन इस के साथ साथ उस के लिये यह भी शायद बहतु ही ज़रूरी है कि क्या हम लोग खाने पीने में क्या कोई संयम भी बरत रहे हैं, क्या ऐसा कुछ कर रहे हैं जिस से कि शरीर का सारा सिस्टम ही लाइन पर आ जाये। मुमकिन है कि जब सारा सिस्टम ही लाइन पर आ जाये तो डाक्टर लोग इन तकलीफ़ों के लिये दी जाने वाली दवाईयां भी लेने के लिये हमें मना कर दें।

तो फिर सिस्टम लाइन पर आये तो आये कैसे !!---जो मैंने आज तक सीखा वह यही है कि इस सिस्टम को अंग्रेज़ी डाक्टरी के द्वारा तो लाइन पर लाना बहुत मुश्किल है --- इस के लिये केवल और केवल एक ही रास्ता है ---- कि सदियों पुरानी योग विद्या की शरण लेनी पड़ेगी ----- रोज़ाना शारीरिक परिश्रम करना होगा, योग क्रियायें करनी होंगी ---कम से कम प्राणायाम् नित्य करना होगा और सब से महत्वपूर्ण नित्य ध्यान (मैडीटेशन) करना होगी ---- और इस से साथ साथ सभी तरह के व्यसनों से बचना होगा, शुद्ध सात्विक आहार लेना होगा और मांसाहार से बचना होगा ---- ( मांसाहार से बचना मेरा नुस्खा नहीं है ---- लेकिन मैं अपनी इच्छा से इस का बिल्कुल भी सेवन नहीं करता हूं)।

सचमुच प्रवचन दे देना भी बहुत आसान है ---ये सब बातें जानता हूं लेकिन फिर भी सुबह सवेरे उठ कर सैर ना करने के नित्य प्रतिदिन नये नये बहाने ढूंढता हूं ----शायद पिछले एक-डेढ़ महीने से सैर नहीं की -----पिछले लगभग डेढ़ दो साल से प्राणायाम् करने का आलस्य करता रहता हूं ---- और ध्यान भी परसों कितने ही महीनों बाद किया है --- मैंने यह सब अच्छे से गुरू-शिष्य परंपरा के नियमों में रह कर सीखा हुआ है लेकिन पता नहीं क्यों टालता रहता हूं ----टालता ही रहता हूं ----जब सुबह नेट पर बैठ कर ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत की सैर करता रहता हूं तो बार बार यह अपराधबोध होता रहता है कि यार, यह समय यह काम करने का नहीं है , 30-40 मिनट बाहर भ्रमण कर लिया जाये...........लेकिन मैं भी पक्का ढीठ हूं -----क्या करूं ?---- मेरी समस्या ही यही है कि मैं अपने आप से इस तरह के वायदे रोज़ाना करता हूं कि कल से यह सब शुरू करूंगा लेकिन पता नहीं मैं कब लाइन पर आ पाऊंगा ----वैसे इस समय आप बिल्कुल ठीक सोच रहे हैं कि –पर उपदेश कुशल बहुतेरे !!

सोच रहा हूं कि इस वक्त इस पोस्ट को ठेल कर आधे घंटे के लिये बाहर घूम ही आता हूं ---वैसे तो एक सुपरहिट बहाना पिछले कुछ अरसे से सैर न कर पाने का यही रहा है कि बाहर ठंडी बहुत होती है ----लेकिन मुझे शत-प्रतिशत पता है कि यह मेरी कोरी बहानेबाजी है ----और भी क्या कोई काम इस मौसम में करने से रह जाता है ? नहीं ना , तो जो बातें हमें लाइन पर चलाये रखती हैं उन पर ही अमल करने में हम इतने कमज़ोर क्यों पड़ जाते हैं , पता नहीं, यह सब मेरे साथ ही होता है -----लेकिन मेरे साथ होना तो और भी ठीक नहीं है क्योंकि समाज हम डाक्टर लोगों की जीवनशैली को एक आदर्श मान कर उस का अनुसरण करना ही करना चाहते हैं ।

वैसे लाइफ को लाइन पर लाने के मैंने अभी तक के अपने सारे तजुर्बे को मैंने ऊपर दो-तीन हाइलाइटिड पंक्तियों में सहेज दिया है ---आप ने भी नोट किया होगा कि इन मे विटामिन की गोलियों की कहीं बात नहीं हो रही, किसी टानिक को पीने के लिये नहीं कहा गया है, कोई हाई-फाई बातें भी नहीं की गई हैं -------- मन तो कर रहा है कि इन पंक्तियों को फ्रेम करवा कर हमेशा अपने सामने रखा करूं --- लेकिन जब तक इन पर मैं पूरी तरह से अमल नहीं करता तब तक इस ज्ञान से क्या हासिल ---- जब ज्ञान व्यवहार में ढले तो जीवन का श्रृंगार बने !

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

आखिर बीड़ी के पैकेट पर किसी खौफ़नाक सी तस्वीर की इंतज़ार हो क्यों रही है ?

मेरी विचार में तो वह आदमी सब से ज़्यादा बदकिस्मत है जो तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन करता है अथवा शराब का आदि हो चुका है । जो लोग इन दोनों का सेवन नहीं करते हैं वे भी मरते हैं ---लेकिन मरने मरने में भी अंतर है। यह तो एक किस्म की आत्महत्या है।

आज शाम को उस समय मूड बहुत खराब हुआ जब एक परिचित से मुलाकात हुई जिस से पता चला कि उस के भाई को जो 58 वर्ष का है फेफड़े का कैंसर हो गया है जो कि आखिरी स्टेज में बताया गया है --- सभी डाक्टरों ने जवाब दे दिया है , कह रहे हैं जितनी सेवा-सुश्रुषा कर सकते हो कर लो। उस का भाई बता रहा था कि तीन महीने पहले तक इसे कुछ भी न था, बस कुछ दिन छाती में दर्द हुआ----डाक्टर के पास गया, सारी जांच हुई तो पता चला कि फेफड़े का कैंसर है। वह यह भी बता रहा था कि उस के भाई को कभी बुखार भी नहीं हुआ था -----बस, यह सिगरेट की आदत ही इसे ले डूबी। मुझे भी सुन कर बहुत बुरा लगा --- आज कल 58 साल की उम्र ही क्या होती है। और इन तीन महीनों में वह हड्डियों का ढांचा बन कर रह गया है।

और मैं रोज़ाना लगभग एक-दो मरीज़ ऐसे देख लेता हूं जिन के मुंह में मुझे तंबाकू के द्वारा किये गये विनाश की गाथा देखने को मिलती है । और अधिकांश तौर पर यह मुंह के कैंसर की पूर्व-अवस्था ही होती है। मैं हर ऐसे मरीज़ के साथ दस मिनट ज़रूर बिताता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि किसी तरह से अगर यह अभी भी तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन छोड़ दे तो बचाव हो सकता है। और मुझे पता है कि इन में से अधिकांश मरीज़ उस दिन के बाद मेरे पास आना ही छोड़ देते हैं- मुझे यह लिखते हुये बहुत अजीब सा लग रहा है। शायद उन को लगता होगा कि डाक्टर कुछ ज़्यादा ही बकवास कर रहा है !!

कुछ दिन पहले भी मेरे पास जो 17-18 साल का एक लड़का आया था , मैंने उस को भी बहुत ही समझाया था कि इस गुटखे को अभी भी त्याग दे, वरना कुछ भी हो सकता है । लेकिन मैंने उसे बार बार यह भी तो कहा था कि अभी भी बात बिगड़ी नहीं है , सब कुछ नियंत्रण में ही है । लेकिन वह लड़का भी मेरे पास वापिस लौट कर नहीं आया। अब ऐसा कोई व्यवस्था तो है नहीं कि जबरदस्ती किसी मरीज़ का मैं गुटखा छुड़वा सकूं ----कभी भी जब ऐसा मरीज़ आज कल दिखता है तो यह तो मैं समझ ही जाता हूं कि यह तो शायद ही लौट कर आयेगा, इसीलिये मैं उसी दिन उस के साथ 10-20मिनट बिताने बहुत ज़रूरी समझता हूं। मैं तो भई अपनी पूरी जी-जान लगा देता हूं कि किसी तरह से आज के बाद यह तंबाकू के सभी रूपों से दूर ही रहे , आगे उस की किस्मत, इस से ज़्यादा और क्या करें क्योंकि तब तक इस तरह का कोई दूसरा रोगी ओपीडी के कपड़े के बाहर खड़ा दस्तक दे रहा होता है !!

इस लड़के की मैंने बात विशेष रूप से इस लिये की क्योंकि इस के मुंह की जो अवस्था मैंने देखी थी ---- कैंसर की पूर्व-अवस्था जिसे मैडीकल भाषा में ओरल-ल्यूकोप्लेकिया भी कहा जाता है ----- यह मैंने इस से पहले शायद ही कभी इस 17-18 साल की उम्र में किसी के मुंह में देखी थी --- अकसर ऐसे केस 35-40 वर्ष या उस के बाद की अवस्था में ही मेरे द्वारा देखे गये थे। यह केस देख कर तो मैं भी भौचक्का रह गया था -- उम्र 18 साल और बीमारी पचास साल वाली !!

वैसे देखा जाये तो डाक्टर लोग भी क्या कर लेंगे ----अच्छी तरह से समझा-बुझा दिया और क्या करें !! लेकिन एक बात तो तय है कि जितना विनाश इस संसार में यह तंबाकू एवं शराब द्वारा किया जा रहा है शायद ही अन्य किसी दूसरे पदार्थ से इतना कोहराम मच रहा हो।

तंबाकू के मुंह के अंदर होने वाले प्रभाव की तो बात कर ली ---मरीज़ ने भी देख लिया, शायद समझ लिया लेकिन उस विनाश का क्या जो शरीर के अंदरूनी भागों में हो रहा है ---उस का तो ज्वालामुखी बस कभी भी फूट सकता है जैसे मेरे उस परिचित के भाई के साथ हुआ। गले का कैंसर, खाने की नली का कैंसर, पेट का कैंसर, आंतड़ी का कैंसर, मूत्राशय का कैंसर, दिल की बीमारी, दिमाग में रक्त-स्राव, नपुंसकता ---------आखिर कोई तकलीफ़ ऐसी भी है जो इस तंबाकू रूपी शैतान छोड़ देता होगा।

और यह भी हम लोग रोज़ देखते ही हैं कि अगर कोई खुशकिस्मत बंदा कैंसर जैसे रोग से बच भी गया तो तंबाकू एवं शराब से होन वाली तरह तरह की अन्य बीमारियों की गिरफ्त में आ जाता है। फेफड़े खराब हो जाते हैं, सांस फूलने लगती है , पेट में अल्सर हो सकता है ------बस , संक्षेप में तो यही कह दें कि ऐसी कौन सी भयानक बीमारी है जो तंबाकू और शराब के सेवन से नहीं होती !! और ऊपर से हम लोगों की कोई इतनी बढ़िया स्क्रीनिंग तो होती नहीं, जब धमाका होती है बस तभी पता चलता है ।

बात सोचने की यह भी है कि अगर तंबाकू इतना ही बड़ा विलेन है तो फिर क्या हम इसे छोड़ने के लिये क्यों बीड़ी,सिगरेट और गुटखे के बंडलों पर इस के विनाश की खौफ़नाक तस्वीरें देखने के बाद ही इसे छोड़ने का मन बनाने की सोच रहे हैं । आज ही सेहत चिट्ठाजगत के एक लेख पर पढ़ रहा था कि उस कानून को लागू करने में अभी अड़चने हैं -----चलिये, उन अड़चनों की बात छोड़े, वे तो रहेंगी ही ---------लेकिन हम स्वयं सोचें कि क्या इन विनाशकारी वस्तुओं को लात मारने के लिये हमें किसी कानून की ज़रूरत है ..................भई, यह हमारी अपनी सेहत का सवाल है, तो फैसला भी हमें ही करना है।

जो मैं इतने सारी बात कर लेता हूं तो अकसर मेरे मरीज़ यह कहते हैं कि यह कैसे हो पायेगा, यह लत आखिर छूटेगी कैसे ----तो मैं उन्हें यही कहता हूं कि होगा, ज़रूर होगा लेकिन इस के लिये बस केवल आप को 8-10 दिन धैर्य रखना होगा----- थोड़ा बहुत बदन-दर्द हो, सिर दर्द हो तो कोई दर्द निवारक टीकिया से काम चला लो, हो सके तो पांच-छः दिन की छुट्टी ले कर घर बैठ जाओ, टीवी देखो---कुछ भी करो, क्योंकि इन दिनों जब आप इस व्यसन को छोड़ने का प्रयास कर रहे हैं तो आप के पुराने संगी-साथी आप को जितना नहीं मिलेंगे ,उतना ही बेहतर है।

मुझे बहुत दिक्कत होती है जब मैं इस तंबाकू और शराब से होने वाले कोहराम को अपने इर्द-गिर्द रोज़ाना देखता हूं -----हमें उस एटम-बंब की बजाये इस तरह के अंदरूनी बंबों से डरना चाहिये ---- वह एटम-बंब तो मारेगा तो पता भी नहीं चलेगा---एक ही झटके में सब का सफाया हो जायेगा , लेकिन ये छोटे बंब हमें न ही जीने देते हैं और न ही मरने देते हैं---- मेरे ताऊ जी ने लगभग 60-65 साल की उम्र में सिगरेट पीने छोड़े लेकिन इस के बाद भी जो 18-20 साल वो जिये -----सारी सारी रात खांसते ही जिये और उन के अंत समय तक उन के पलंग के नीचे रेत से भरा हुआ एक तसला पड़ा रहता था जिसमें वो बलगम गिराते रहते थे ----- उन की खांसी की आवाज़ सुन कर डर लगता है , रोज़ ऐसे ही लगता था कि कुछ भी हो सकता है !!

आप ने सुना है कि आज कल तो सैकेंड-हैंड स्मोक के साथ साथ थर्ड-हैंड स्मोक की बातें होने लगी हैं -----अर्थात् यह तो हम सब जानते ही हैं कि धूम्रपान करने वाले आदमी के साथ बैठे व्यक्ति को भी तंबाकू के धुएं से कुछ न कुछ प्रसाद तो मिलता ही था ( सैकेंड-हैंड स्मोक) लेकिन अब तो चटाई, पर्दों , चद्दरों, सोफ़ों पर जो तंबाकू का धुआं टिका रह जाता है उस के दुष्परिणामों की चर्चा होने लगी है( जिसे थर्ड-हैंड स्मोक कहा जाने लगा है ) --- तो ऐसे में कैसे भी हो इस तंबाकू आदि से जितना बचा जा सके बच लिया जाये -----नहीं, नहीं , जितना बचा जा सके नहीं ------------------किसी भी कीमत पर बिलकुल ही बचा जाये। इस के अलावा कोई रास्ता नहीं है ।

जीवन में वैसे ही इतना प्रदूषण है ---- जीवन में वैसे ही इतनी अनिश्चिता है तो फिर ऊपर से ये तंबाकू और शराब जैसे शैतान हम क्यों पाल लेते हैं--------------------------------यह हमारी, हमारी परिवार की, हमारे समाज की और इन सब से ऊपर छोटे छोटे मासूम बच्चों की बदकिस्मती नहीं है तो और क्या है !!

बीड़ी केवल पीने की ही तो चीज़ नहीं है , इसे सुन कर भी तो काम चलाया ही जा सकता है ना ।

सोमवार, 12 जनवरी 2009

आज की चर्चा का विषय है --- मैमोग्राफी

स्वास्थ्य से संबंधित अधिकांश शीर्ष संस्थानों की इस बारे में सहमति है कि 40 साल की उम्र के बाद महिलाओं को हर साल मैमोग्राम अवश्य निकलवाना चाहिये और इस के बारे में तो सर्व-सम्मति है कि 50 वर्ष की उम्र के बाद तो महिलाओं को यह हर वर्ष करवाना ही चाहिये।

मैमोग्राफी तकनीक द्वारा लिया गया मैमोग्राम छाती (स्तनों) का एक एक्स-रे है जिस के द्वारा या तो महिलाओं में छाती( स्तन) के ऐसे कैंसर पकड़े जाते हैं जो कि अभी इतनी प्रारंभिक अवस्था में हैं कि इन का छूने से पता नहीं पाता अथवा यह देखने के लिये भी मैमोग्राम किया जाता है कि कहीं महिला की छाती में जो गांठ है वह कैंसर के कारण है अथवा किसी अन्य कारण से है।

मैमोग्राफी से 85-90 प्रतिशत छाती के कैंसर पकड़ में आ जाते हैं – यहां तक कि एक चौथाई इंच वाले कैंसर का भी इस मैमोग्राम से पता चल जाता है जब कि आम तौर पर कोई भी ऐसी वैसी गांठ का तब तक पता ही नहीं चलता जब तक कि यह बढ़ कर साइज़ में इससे दोगुनी ही नहीं हो जाती ।
जिस दिन किसी महिला ने मैमोग्राफी करवानी हो उस दिन वह अपनी बगलों में अथवा छाती पर किसी डिओडोरैंट अथवा पावडर आदि का इस्तेमाल न करें क्योंकि उस से एक्स-रे को पढ़ने में दिक्कत आती है – Avoid using deodorant or powder on your underarms or breasts on the day of mammogram because they can make the x-ray picture hard to interpret.

शायद पाठकों में यह जानने की भी उत्सुकता होगी कि इस टैस्ट के दौरान होता क्या है ----- मैमोग्राम का काम अकसर एक्स-रे विभाग में ही किया जाता है। सामान्यतयः प्रत्येक वक्ष की दो तस्वीरें ( एक्स-रे) --- एक साइड से और दूसरी ऊपर के कोण से --- ली जाती हैं। प्रत्येक एक्स-रे लेते समय प्रत्येक वक्ष( स्तन) को दो समतल प्लेटों के बीच मात्र 10 सैकेंड के लिये प्रैस किया जाता है । छाती के सभी क्षेत्रों को सफ़ाई से देखने के लिये यह आवश्यक है।

मात्र 10 से 20 मिनट के बाद आप के आप के टैस्ट की रिपोर्ट बता दी जाती है लेकिन फाइनल रिपोर्ट अकसर एक-दो दिन के बाद ही दी जाती है। इस टैस्ट को करवाने से कोई रिस्क नहीं है, इस में बहुत ही कम स्तर की एक्स-रे किरणों का इस्तेमाल होता है।

और यह टैस्ट कुछ खास महंगा भी नहीं है --- पांच या छः सौ रूपये में हो जाता है। अगर आप महिला हैं और चालीस की उम्र पार चुकी हैं तो अपना एक मैमोग्राम तो जल्दी से करवा कर निश्चिंत हो ही जाइये। वैसे, अच्छे हास्पीटलों के महिलाओं के लिये वार्षिक हैल्थ-चैकअप प्लान में यह मैमोग्राम, पैप-स्मीयर टैस्ट आदि सम्मिलित ही होते हैं।

रविवार, 11 जनवरी 2009

महिलाओं के लिये किसी वरदान से कम नहीं --- पैप स्मियर टैस्ट !!

शायद ही आपने सुना हो कि महिलाओं को नियमित तौर पर यह पैप स्मियर टैस्ट -Pap Smear Test- करवाना अत्यंत आवश्यक है --- लेकिन मैंने आज तक कम ही देखा है कि महिलाएँ स्वयं किसी महिला-रोग विशेषज्ञ के पास इस टैस्ट के लिये गई हों--- और हमारे देश में तो महिलाओं के लिये यह टैस्ट करवाना और भी ज़रूरी है --- क्योंकि यहां पर गर्भाशय के कैंसर के बहुत केस पाये जाते हैं।

पैप स्मियर टैस्ट में होता क्या है ?- गर्भाशय के मुख ( cervix – the entrance to the uterus, located at the innere end of vagina) –से कुछ कोशिकायें ( cells) ले कर उन का निरीक्षण किया जाता है कि कहीं ये गर्भाशय के कैंसर से ग्रस्त तो नहीं हैं।

गर्भाशय का कैंसर जिस वॉयरस के कारण होता है उसे ह्यूमन पैपीलोमा वायरस ( human papillomavirus or HPV) कहा जाता है।

पैप स्मियर टैस्ट में इन कोशिकाओं को सूक्ष्मदर्शी उपकरण से देख कर यह पता लगाया जाता है कि कहीं ये कोशिकायें कैंसर से ग्रसित तो नहीं हैं, कहीं ये कैंसर की पूर्व-अवस्था में तो नहीं हैं !! आज कल तो पैप-स्मियर टैस्ट के अलावा HPV test के द्वारा यह भी ढूंढ निकालते हैं कि एचपीवी ( ह्यूमन पैपीलोमा वॉयरस) संक्रमण है या नहीं !!

वैसे तो जो महिलायें एचपीव्ही ( HPV) से बाधित है उन में से बहुत कम महिलाओं में गर्भाशय का कैंसर उत्पन्न होता है लेकिन एक बात तो निश्चित है कि ह्यूमन पैपीलोमा वॉयरस के संक्रमण की वजह से यह जोखिम बढ़ जाता है।

सभी महिलाओं को यह टैस्ट करवाना ज़रूरी है जिन की आयु 21 वर्ष या उस से ज़्यादा है --- इस से कम उम्र की उन महिलाओं को भी यह टैस्ट करवाना ज़रूरी है जो कि सैक्सुयली एक्टिव हैं।

और यह पैप स्मियर टैस्ट महिलाओं को एक से लेकर तीन साल के भीतर ( जैसी भी आप की स्त्री-रोग विशेषज्ञ सलाह दे) रिपीट करवाना चाहिये --- अगर कोशिकाओं में किसी तरह के बदलाव पाये जाते हैं तो यह टैस्ट इस से पहले भी रिपीट करवाना पड़ सकता है।


महिलाओं का यह टैस्ट तभी किया जाता है जब वे मासिक-धर्म के पीरियड में न हों, इस टैस्ट को करवाने के 24 घंटे पहले संभोग नहीं किया जाना चाहिये। और टैस्ट से पहले योनि में किसी तरह की क्रीम( vaginal creams) का इस्तेमाल वर्जित है।

इस टैस्ट में किसी प्रकार की परेशानी नहीं होती --- इसे समझने के लिये एक बात सुनिये – अगर मुझे मुंह के कैंसर की जांच के लिये इस तरह का ही स्मियर टैस्ट( ओरल स्मियर) करना होता है तो मैं एक स्पैचुला ( आप यह समझ लें कि एक तरह का ऐसा औज़ार जिस से जुबान को थोड़ा नीचे दबा कर गले का निरीक्षण किया जाता है – tongue depressor की तरह से दिखने वाला एक औज़ार ) --- इस्तेमाल करता हूं --- मुंह के अंदर गाल पर इसे थोड़ा घिसने के बाद जो कोशिकाएं प्राप्त होती हैं उन्हें सूक्ष्मदर्शी उपकरण ( microscope) की सहायता से चैक किया जाता है) --- बिल्कुल उसी तरह से जो स्त्री-रोग विशेषज्ञ यह टैस्ट कर रही हैं वह एक गोलाकार स्पैचुला ( rounded spatula) को आहिस्ता से गर्भाशय की बाहरी सतह पर आहिस्ता से घिसने के बाद एकत्रित हुई कोशिकाओं को लैब में माइक्रोस्कोप के द्वारा चैक किये जाने के लिये भेज देती हैं।

माइक्रोस्कोप के द्वारा चैक-अप द्वारा यह देखा जाता है कि कहीं इन कोशिकाओं में कोई असामान्य ( abnormal) कोशिका तो नहीं है , और अगर है तो फिर स्त्री-रोग विशेषज्ञ समुचित उपचार की सलाह दे देती हैं।

एक अंग्रेज़ी कहावत है ---- a stitch in time saves nine !!---अगर समय रहते किसी फटे कपड़े को एक टांका लगा दिया जाये तो भविष्य में लगने वाले नौ टांकों से बचा जा सकता है --- और यहां भी पैप-स्मियर टैस्ट के लिये भी यह बात बिलकुल उसी तरह से लागू होती है ।

वैसे तो अच्छे प्राइवेट हास्पीटल में महिलाओं के हैल्थ-चैक अप प्लान में यह टैस्ट सम्मिलित होता ही है ------लेकिन मुझे अच्छा तब लगेगा अगर आप महिलाओं में से किसी ने अभी तक इस टैस्ट के बारे में सुना नहीं है, करवाया नहीं है तो बिना किसी तरह की स्त्री-रोग संबंधी ( without any gynaecological problem) शिकायत के भी अपनी स्त्री-रोग विशेषज्ञ से नियमित तौर पर मिलें और इस टैस्ट को करवाने के बारे में चर्चा करें। यह बहुत ही ----बहुत ही ----बहुत ही ----- बहुत ही ----- ज़रूरी है ......ज़रूरी है ।

PS……..पुरूष पाठको, आप ने यह पोस्ट पढ़ी--- बहुत बहुत धन्यवाद। लेकिन अगर आप इसे अपनी श्रीमति जी को भी पढ़वायेंगे तो आभार होगा---- और अगर इस का एक प्रिंट-आउट लेकर उन्हें थमा देंगे तो मुझे बहुत खुशी होगी --- और उन्हें यह भी संदेश दें कि इस के बारे में अपनी सखी-सहेलियों से भी चर्चा करें।

यकायक ध्यान उस विज्ञापन की तरफ़ जा रहा है ---- जो सचमुच बीवी से करते प्यार, हॉकिंग्ज़ से कैसे करें इंकार ---- तो सुविधा के लिये हॉकिंग्ज़ की जगह पैप-स्मियर लगा दें, तो कैसा रहेगा !!