बुधवार, 24 मई 2023

बिनाका गीत माला - कुछ यादें , कुछ बातें !

अभी मैं अपने रूम की थोड़ी साफ़ सफ़ाई कर रहा था तो अल्मारी के एक कोने में एक छोटी सी किताब दिख गई ...करीब ५० साल पुरानी है ...नाम है हिट फिल्मी गीत -बिनाका गीतमाला-३ (१९७०-१९७६)- मेरे पास तो यह दो तीन बरसों से ही है, यही बंबई से इसे खरीदा था ...उस दिन यह लग रहा था कि काश, इस के सभी अंक कहीं से भी मिल जाएं तो ले लूं...अमीन सयानी की जादुई आवाज़ भी याद है हम सब को ...

खैर, मुझे उन दिनों की याद करने के लिए ऐसी पुरानी चीज़ें लगती हैं...यह उन दिनों की बात है जब बिनाका गीत माला ही दिसंबर महीने की हमारी सब से बड़ी दिल्लगी हुआ करती थी ...हमें बस यही फ़िक्र रहती थी कि ईश्वर कृपा करें शाम को इस प्रोग्राम के दौरान हमारा रेडियो चलता रहे ....रेडियो भी उन दिनों बड़े नखरे करता था ....कईं पापड़ बेलने पड़ते थे उस की स्पष्ट आवाज़ सुनने के लिए...खैर, कभी आप को अपने रेडियो से जुड़े ब्लॉग का लिंक दूंगा ..जिसमें मैंने रेडियो के बारे में सभी बातें लिख डाली हैं....रेडियो लाईसैंस फीस देने वाले दिनों की बातें भी ..

खैर, मैं इस वक्त जब यह लिख रहा हूं सच में मुझे याद नहीं आ रहा कि क्या मनोरंजन के नाम पर हमारी ज़िंदगी मेे उन दिनों बिनाका गीतमाला के अलावा कुछ था ....अपने आप से पूछता हूं तो पक्का जवाब मिलता है ...नहीं, बिल्कुल नहींं। यह हमारे लिए ऐसे था जैसे आज की पीढ़ी के लिए बिग-बॉस...या कुछ और ...मुझे तो आज के टीवी के प्रोग्रामों के नाम भी नहीं आते ...आठ दस साल से देखा ही नहीं, ऑउट ऑफ टच....😂

हमारे बचपन का सच्चा साथी...मरफी का यह रेडियो ...आज भी देश के किसी कोने में यह हिफ़ाज़त से रखा हुआ है ...धरोहर है अपनी..

और जो इकलौता रेडियो घर में होता था हम उस के रहमोकरम पर रहते थे ...मेरे भाई को भी रेडियो सुनने का बड़ा शौक था...वह तो उस की आवाज़ साफ़ साफ़ सुनने के लिए थपथपाता ऱहता था उस को ...यह जो मैं तस्वीर यहां लगा रहा हूं यह हमारे घर के मरफी रेडियो की तस्वीर है जिस के साथ अनेकों यादें जुड़ी हुई हैं, दबी पड़ी हैं....उन में से कुछ लिख कर हल्कापन महसूस कर लेते हैं...


यह भी इसी किताब का ही एक पन्ना है ...

दिक्कत उन दिनों की यह भी थी कि रेडियो सुनना भी लगभग एक ऐब ही माना जाता था ....पढ़ाई के वक्त तो रेडियो डर डर के सुनते थे और हमारी कोशिश होती थी कि शाम के वक्त पिता जी के दफ्तर से लौटने से पहले सब गाने वाले सुन सना के उसे बंद कर दें और अपनी कोई कापी किताब उठा लें..(आठवीं क्लास में किताब में रख कर एक नावल भी पढ़ा था, बस एक बात ..उस के बाद पढ़ाई से ही कभी फुर्सत न मिली...लेकिन वह अपराध बोध उम्र भर के लिए साथ रह गया) ...रात के वक्त भी सुनने की इतना छूट न थी ...हमारा रेडियो पहले तो गर्म होने में वक्त लेता था ....ये सब बातें १९७० के दशक के शुरूआती बरसों की हैं...फिर तो १९७५ में हमने बुश का एक ट्रांजिस्टर ले लिया था ..बंबई आए हुए थे ...हमारे ताऊ जी का दामाद बुश कंपनी में बड़े ओहदे पर था ...उसने छूट दिलवा दी थी ....और मुझे याद है हम लोग उस ट्रांजिस्टर को शुरू शुरू में बहुत संभाल कर रखते थे ..अभी भी याद है शाम के वक्त आंगन में चारपाईयां बिछी हुई हैं, पंखे लगे हुए हैं, दो तीन अड़ोसी-पड़ोसी बैठे हुए हैं.....उस पर गीत बज रहे हैं, खबरें आ रही हैं, बीबीसी से भी...वह सैलों से भी चलता था और बिजली से भी ...जहां तक मुझे ख्याल है हम उसे बिजली पर ही चलाते थे ...

अगर पढ़ने में दिक्कत हो तो इस इमेज पर क्लिक कर के आसानी से पढ़ सकते हैं..


कहां यार मैं भी किधर निकल गया ....बिनाका गीतमाला की किताब है सामने और मैं कहां चारपाईयों पर उछल कूद करने लगा (उन दिनों हमें यह काम भी करना बहुत पसंद था, चारपाई के टूटने पर अपनी हड्डियों के टूटने की रती भर भी फिक्र न होती थी) ...डायमंड कामिक्स की इस किताब का दाम ३ रूपये लिखा हुआ है जो मुझे लगभग १०० गुणा दाम चुकाने पर मिली ....खरीदने की कोई जबरदस्ती नहीं थी...लेकिन मुझे चाहिए थी...इसे देखते ही मज़ा आ गया था ..

 आज की पीढ़ी को यकीं दिलाने के लिए कि रेडियो सुनने के लिए सालाना १५ रूपये की फीस डाकखाने में जा कर भरनी होती थी ...मैंने भी भरी हुई है ..(यह भी खरीदी हुई कॉपी है)..

ऊपर वाली रेडियो लाईसेंस बुक का एक पन्ना ....

१९७० से १९७६ के दिन अपने भी इन गीतों में डूबे रहने वाले दिन थे ...इस किताब में भी इन सात सालों की लिस्ट लंबी है ..जो बिनाका गीत माला की हिट परेड में शामिल किए गए ..इतनी लंबी लिस्ट कहां लिखता फिरूं....हर साल के पहले नंबर पर आने वाले गीत का नाम यहां लिखता हूं ...

१९७०- बिंदिया चमकेगी चूड़ी खनकेगी...

१९७१- ज़िंदगी इक सफर है सुहाना 

१९७२- दम मारो दम, मिट जाए गम 

१९७३-यारी है इमान मेरा यार, मेरी ज़िदगी 

१९७४- मेरा जीवन कोरा कागज़ कोरा ही रह गया...

१९७५- बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई ..

१९७६- कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ...

अभी मैंने यह सोचा कि अगर मुझे इस पोस्ट के नीचे इन सात बरसों में जो गीत पहले नंबर पर रहे....उन में से एक चुनना होगा तो मैं किसे चुनूंगा ....तो मेरी पसंद बिल्कुल स्पष्ट थी ....और उस वक्त १९७१ में मेरी उम्र थी महज़ ९ साल की ...इतना सुना इस गीत को रेडियो पर, मोहल्ले में लगने वाले लाउड-स्पीकरों पर, सर्कस के मैदानों में.....कि ९-१० साल की उम्र में भी इस गीत का फलसफा शोखी की वजह से हमारे दिलो-दिमाग में कैद तो हो गया, .लेकिन इस की समझ बहुत बरसों बाद आई...😎😁


एक तरफ़ देखिए हमारी पीढ़ी को इन गीतों को सुनने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती थी और दूसरी तरफ़ आज ही की मुंबई की तस्वीर देखिए...मोबाइल पर कुछ भी सुनने का जुगाड़ फुटपाथ पर बैठे बैठे भी हो जाता है....👍 

मुंबई - २४.५.२३

मंगलवार, 16 मई 2023

रिप्ड जीन्स - कुछ नेक विचार


रिप्ड जीन्स के बारे में पता तो यही कोई १०-१५ बरस पहले लग गया था ...इस पहने हुए जवान लोग दिखने लगे थे ...लेकिन एक बार मैं दंग रह गया था ...यही कोई आठ दस बरस पहले की बात है ...एक ५-६ साल का बच्चा आया अपनी मां के साथ ....बच्चों को सजने-संवरने का शौक होता ही है ...हम भी उस उम्र में अपने ज़माने में बीस पैसे की वो मोमजामे वाली ऐनक लगा कर पता नहीं खुद को क्या समझने लगते थे ..समझें भी क्यों ने ....वक्त ही ऐसा होता है वो... हां, तो उस छोटे लड़के ने बड़े गॉगल-शॉगल लगाए हुए थे, जीन और टीशर्ट , कैप भी पहनी थी और पूरी फार्म में था ...अचानक मेरी नज़र उस की जीन्स की तरफ़ गई जो मुझे एक दो जगह से फटी दिखी...

यह तुम्हारी जीन्स कैसे फट गई -मैंने उसे पूछा.

डा.साहब, यह फटी नहीं है, इस डैमेज जीन्स को खुद इस की फरमाईश पर खरीदा गया है , उस की मां ने राज़ खोल दिया। 

मुझे उस दिन बड़ी हैरानी हुई कि पांच छः साल का बच्चा भी डैमेज जीन्स पहन रहा है ...और इतने सालों में वाट्सएप पर भी बहुत से वीडियो आते जाते रहते हैं कि बुज़ुर्ग दादी अपने पोते को कुछ पैसे दे कर कहती है कि लाडले, जा, जा के अच्छी से पतलून ले ले ...यह देख कैसे फट चुकी है...। फिर वह दादी को समझाता है कि बेबे, यह फटी नहीं है, इसे पहनने का रिवाज़ है...

वक्त के साथ युवाओं के रोल-मॉडल भी बदल रहे हैं...जो तस्वीर दो दिन पहले अखबार में थी ...उसमें तो पूरी थी, लेकिन यहां इतनी ही लगाना मुनासिब जान पड़ा....

इन रिप्ड जीन्स का लफड़ा एक और भी है.....इन्हें पहन कर अमीर तो और भी रईस दिखने लगता है, लेकिन एक औसत आदमी बेचारा मांगने वाला कोई फरियादी टाइप दिखने लगता है ...अमीर, रईस लोगों का तो पहनना सब की समझ में आ जाता है कि यह कूल, हॉट, मॉड...जो भी कोई समझ ले, वह दिखने के लिए पहनते हैं..और जीन्स जितनी ज़्यादा रिप्ड होगी पहनने वाले का रूआब, रुतबा, ईज्ज़त समाज में, मीडिया में उतनी ही ज़्यादा बढ़ जाती है ..है कि नहीं...अब देखिए दो दिन पहले एक सिने-तारिका की फोटो मैंने अखबार में जब देखी तो मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा, क्योंकि अकसर मुंबई के लोकल स्टेशनों पर, और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर ऐसे फेशनेबुल कपड़े पहने मॉड लोग दिख जाते हैं.....दिख जाते हैं तो भई दिख जाते हैं, क्या करे कोई आंखों पर पट्टी थोड़े न बांध ले...

फैशन के लिए हम कुछ भी करेगा....शौक की कोई कीमत नहीं होती...

लेकिन कईं बार कुछ ऐसे लोग भी रिप्ड जीन्स पहने दिख जाते हैं जिन्हें देख कर लगता है कि इन्होंने फेशन के लिए पहनी है या मजबूरी में .....बस, लफड़ा इन केसों में ही होता है जब समझ नहीं आती, लेकिन वही बात है कुछ लोगों को बेकार में सिरदर्दी मोल लेने की आदत होती है, क्या करना बेकार के इस हिसाब-किताब के चक्कर में पड कर ...तुम्हारी राह चलो, वह उस की ज़िदगी है, उसे जी लेने दो ...

यही कोई पांच छः साल पहले की बात है, मैं एक दिन ज़ारा के शो रूम में गया बेटों के साथ...वहां मैं एक फटी-पुरानी टी-शर्ट देख कर हैरान रह गया...उसे देख कर हैरानगी की बात उस का कटा-फटा होना न था, बल्कि उस पर ३५०० रूपये को टैग लगा हुआ था...जिस तरह की वह टी-शर्ट थी अकसर उस तरह की टी-शर्ट लोग घर में फटका लगाने के लिए भी इस्तेमाल न करें....ऐसा मैं समझता हूं तो समझता फिरूं ...लेकिन शौक की कोई कीमत नहीं होती ...मैं भी तो सौ साल पुरानी विंटेज किताबे, डेढ़ सौ साल पुरानी डिक्शनरीयां, ६० साल पुराने मैगज़ीन और नावल ढूंढता रहता हूं ..कुछ तो चीथड़े हो चुके होते हैं लेकिन खरीदता हूं न मुंह मांगे दामों पर क्योंकि वे मेरे काम की चीज़े ंहैं ...इसी तरह ये चीथड़े दिखने वाले कपड़े भी किसी के कितने काम के होंगे, मैं क्यों इस सब के चक्कर में पढ़ कर अपना सिर दुःखाने का जुगाड़ कर रहा हूं ....और वह भी सुबह-सवेरे।

जान-बूझ कर अच्छी भली पतलून को फड़वा लिया बंदे ने फैशन के चक्कर में......दो दिन पहले दिखा बांदरा स्टेशन पर ...

रिप्ड जीन्स के बारे में यह टुकड़ा लिखने से पहले मैंने सोचा चलो गूगल करता हूं .....मुझे कुछ गलती लगी मैंने लिखा रिग्ड - Rigged jeans - लेकिन गूगल बहुत समझदार है, उसने बराबर मुझे रिप्ड जीन्स का पन्ना खोल कर दे दिया ..कुछ सवाल जवाब भी थे ...एक दो ही पढ़े, बाकी न पढ़ पाया, अगर वे भी पढ़ने लग जाता तो मुमकिन था यह पीस लिखने से रह जाता या फिर आज ड़यूटी पर बेटे की कोई रिप्ड जीन्स पहन कर ही निकल पड़ता ...वैसे एक बार मैंने उसे पहना था घर ही में...सच में उस दिन समझ आई कि ये सब जवानों के काम हैं, बूढ़ी टांगों और घिसे-पिटे घुटनों पर तो ये रिप्ड जीन्स बहुत भद्दी दिखती हैं, कूल-हॉट तो क्या, बंदा सदियों का बीमार दिखने लगता है, मैंने उसी वक्त उसे उतार के परे रख दिया....मैं उस दिन बच्चो ं से मज़ाक कर रहा था कि अब मैं भी यह पहन कर जाया करूंगा ....और वो जैसे हैं ..हां, हां, डैड, पहनो ज़रूर पहनो, यू लुक कूल इन दिस....😎..... i know their satire!!

क्या करें, अंकल, वक्त के साथ कदम के साथ कदम मिला कर चलना पड़ता है ...

अच्छा, गूगल पर जो दो सवाल जवाब देखे, उसमें लिखा था कि लोग इन्हें पहनते क्यों है, जवाब लिखा था, कूल दिखने के लिए और दुनिया को यह बताने के लिए कि वह कैसे दिखते हैं, उन्हें इस की परवाह नहीं है....लेकिन पता नहीं मुझे लगता है कि कुछ और दिखने के लिए भी लोग इसे पहनते होंगे ...कूल, हॉट, अल्ट्रा-मॉड, हिप दिखने के लिए ....इन सब का एक ही मतलब होगा.....आज के दौर की स्लैंग ...


फेशन, शौक से मुझे याद आया हमारे परिवार का नन्हा सा सदस्य (जिस की फोटो यह है) इन दिनों मॉडलिंग में अपनी किस्मत आजमा रहा है ....इसे देखते ही लगता है ..."इन परिदों को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन, ये हवा में खुले इन के पंख बोलते हैं..."

पोस्ट को बंद करते वक्त यह है मेरा आज का विचार ...जो मन करे पहनिए...फैशन करिए, कूल दिखिए और इस गर्मी उमस के मौसम में कूल बने भी रहिए...ज़िंदगी ने मिेलेगी दोबारा.....मुझे नहीं पता वह पंजाबी कहावत कैसे बनी ...पाईये जग भांदा ते खाईए मन भांदा....(पहनिए वह जो दुनिया को अच्छा लगे, खाइए वह जो आप को अच्छा लगे).....कोई क्यों न पहने वह सब जो उसे खुशी दे, उसे आराम दे, उस के मूड को अच्छा रखे .....खुश रहिए, मस्त रहिए ..रईसी के जलवे अलग हैं, लेकिन आम बंदे के लिए मेरी सलाह यही है कि दूसरे की रिप्ड देख कर अपनी अच्छी भली पतलून को कटवा-फड़वा लेना ठीक नहीं जान पड़ता ....इस से ईश्वर नाराज़ होता है, उस से वह समझता है हम नाशुक्रे हैं.....जैसे जिन लोगों के पास खाने को सब कुछ है, वे छरहरे दिखने के लिए क्या क्या नहीं करते ताकि भूख न लगे, उस के लिए दवाईयां तक ले लेते हैं ,  भूख अगर लगे भी तो कम ..ताकि वज़न न बढ़े......उन सब के लिए मैं इतना ही कहूंगा कि भूख लगना भी ईश्वर की सब से बड़ी नेहमत है ....जब कभी परिवार में किसी की भूख गायब हो जाती है न तो सारे कुनबे की भूख मर जाती है ...तब इस की क़ीमत पता चलती है......मैंने भी अपने परिवार में दो लोगों की भूख मरती देखी है ...तीन महीने नहीं टिक पाए थे उस के बाद  ....उन को देख हमारी भी भूख मरने लगती थी ...इसलिए हमें ज़रूरत है हर वक्त शुकराने में रहने की ......जो मिल रहा है, खाने को पहनने को ..उसे खुशी खुशी पहनें ...सब से ज़्यादा ज़रूरी सांसे हैं, टांगे हैं .....उन को कैसे ढक रहे हैं या नहीं भी ढक पा रहे हैं, यह कुछ मायने नहीं रखता ....ज़िंदगी का जश्न उन सब चीज़ों के साथ मनाना हमें सीखना होगा जो हमें वरदान के रूप में मिली हुई हैं...आंखें, दिल, चलना-फिरना ......और भूख ....

इस रिप्ड जीन्स की बातों को दिल पर मत लेना यार, जो पहनना है पहनो, मैं भी वही पहनता हूं जो मुझे खुशी देता है, आज सुबह कुछ लिखने के लिए नहीं था, इसलिए यह सब लिख दिया....बस, यूं ही ....

सोमवार, 15 मई 2023

शकरकंदी में भी कीड़े ...


हम लोग बचपन से जो खाते पीते रहते हैं हमें उन चीज़ों की आदत पड़ जाती है...है कि नहीं....इसलिए अकसर डाक्टर लोग छोटे-बच्चों के मां-बाप को यही मशविरा हमेशा देते हैं कि इन को सभी प्रकार की दालें एवं साग-सब्जियों और फलों की आदत डालो अभी से ...अगर बचपन में इन की इस तरफ़ रूचि न हुई तो ये उम्र भर इन पौष्टिक चीज़ों से बचते रहेंगे, दूर भागते रहेंगे....हम जिस दौर के हैं, उन दिनों बच्चों को अकसर एक-आध दाल या सब्जी नहीं भाती थी, लेकिन आज बच्चों को, युवाओं को कोई सी भी एक दाल या एक ही सब्जी चाहिए ...हर दिन ...अमूमन दाल मक्खनी या शाही पनीर ....स्विग्गी से या ज़ोमेटो से ....। चलिए, अब जो है सो है, यह आज एक बहुत बड़ा मसला है...मैंने भी बचपन से ही करेला कभी नहीं खाया और आज तक नहीं खा सका। बचपन में खाने-पीने की सही ट्रेनिंग की यह अहमियत है ...

शकरकंदी और सिंघाडे़ 

खैर, बात तो शकरकंदी की करने वाला था ...यह हमें बचपन से बहुत पसंद रही है...पंजाब में जिस जिले में मैं 30 बरस तक रहा -अमृतसर में- वहां हमें शकरकंदी और सिंघाड़े (water chestnut) सिर्फ ठंडी़ के मौसम में कुछ ही दिनों के लिए बाज़ार में दिखते थे ...और बस हमें इन को उन दिनों कुछ ही बार खाने का मौका मिल पाता था...लेकिन मज़ा आ जाता था उबली हुई शकरकंदी के साथ सिंघाड़े खाते वक्त जब हम लोग साथ में थोड़ा गुड़ ले लेते थे ...

एक पुरानी कहावत है ....भूख में चने बादाम....या ज़रूरत आविष्कार की जननी है ....जहां मैं काम करता हूं पास ही देखा पिछले साल कि ये बाल गोपाल इत्मीनान से शकरकंदी को भून रहे हैं... 🙏

अभी भी ये दोनों चीज़ें बहुत पसंद हैं....लेकिन अब इन चीज़ों में वह पुराने वाला स्वाद नहीं रहा, क्या करें, फिर भी खाना तो है ही ..इसलिए अब शकरकंदी को उबालते वक्त उस में गुड़ डालना पड़ता है ताकि वह खाई तो जा सके। और यहां बंबई में यह शकरकंदी लगभग सारा साल ही दिखती है ...हां, उस के रंग शायद दो तरह के होते हैं...एक तो यह है जो मैंने यहां तस्वीर लगाई है थोड़े लाल से रंग में और दूसरी होती है जो भूरे से रंग वाली ....जो अकसर हम लोग पहले खाते रहे हैं...मुझे नहीं पता इन में फ़र्क क्या है...

शकरकंदी में कीड़े 

कल मैं उबली हुई शकरकंदी से जैसे ही छिलका उतार रहा था तो मुझे कुछ सख्त सा महसूस हुआ ....मैंने थोड़ा जोर से दबाया तो अंदर से काला सड़ा हुआ हिस्सा दिखा ...और थोड़ा और ध्यान से देखा तो पता चला कि उस में तो इतने कीड़े हैं....और एक ही शकरकंदी में ही नहीं, कईं टुकडो़ं में ये कीड़े दिखे....

देखिए, शकरकंदी में कीड़े दिख रहे हैं...मैंने पहली बार देखा इन्हें शकरकंदी में 

खाने पीने की चीज़ों में कीड़े देख कर हम लोग आज भी डर जाते हैं, सहम जाते हैं....जैसे मां जब भिंडी या बेंगन काट रही होती और उसमें से कोई कीड़ा निकलता तो हमें दिखाती और समझाती कि इसलिए मैं तुम लोगों को कहती हूं कि सब्जी कच्ची मत खाया करो...हम लोगों की उन दिनों आदत सी कच्ची सब्जी जैसे भिंड़ी, फुल गोभी आदि का एक आध टुकडा़ उठा कर खाने की ....हमें उन सब्जियों में कीड़ा देख कर इतना ़डर लगता जैसे किसी आतंकवादी को देख लिया हो...

बिना काटे आम खाने वाले भी ख्याल रखें

खाने पीने की चीज़ों में मुझे कुछ भी ऐसा-वैसा नज़र आता है तो मैं ब्लॉग में ज़रूर शेयर करता हूं ताकि सभी पढ़ने वालों को इस की जानकारी हासिल हो ..ऐसे ही आज से 8-10 बरस पहले जब हमें आम को चूस कर खाने की आदत थी ...चूसने के बाद जब उस के छिलके को भी दांतों से कुरेदने लगे तो पता चला कि अंदर तो कीड़े ही कीड़े हैं ....बस उस दिन के बाद फिर कभी आम को काटे बिना खाया नहीं ....अगर कभी ऐसे ही बिना काटे खा भी लेते हैं तो वह घटना बराबर याद आ जाती है, ़डर डर खाते हैं...

लगभग दस बरस पहले मैंने जब आम का यह रूप देखा तो उसे इस ब्लॉग में दर्ज कर दिया था....और मैं अमूमन एक बार लिखने के बाद अपनी पोस्ट पढ़ता नहीं हूं, उसे एडिट करना तो दूर की बात है ....मुझे उसे फिर से पढ़ना कुछ कारण वश असहज कर देता है ....एक रवानगी में जो लिख दिया, उसे क्या बार बार देखना...जो कह दिया सो कह दिया....😎 यह रहा मेरी उस ब्लॉग-पोस्ट का लिंक, देखिएगा....कैसे उन दिनों लखनऊ मेंं आमों की ऐश किया करते थे ...

बिना काटे आम खाना बीमारी मोल लेने जैसा...

हां, तो यह पोस्ट सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि हमें अपने खाने पीने के बारे में सचेत रहना चाहिए...मुझे अभी लिखते हुए याद आ रहा था कि शकरकंदी को आज तक हम ने कभी काट कर खाया ही नहीं, छिलका उतारा और खाने लगे ...और हां, बहुत बार अंदर से कुछ सख्त महसूस होता, और कडवाहट सी भी लगती तो हम खा लेते चुपचाप ....यही सोच कर कि कईं बार बादाम भी तो होते हैं कड़वे ...लेकिन अब सोच रहा हूं कि वो सब शकरकंदी अंदर से सड़ी हुई कीडे़ वाली होती होगी ....खैर, अब चिडि़या खेत चुग चुकी है ...अब तो आगे की ही सुध ले सकते हैं....

खाने पीने की चीज़ों से जितना डर कर रहा जाए उतना ही ठीक है...अच्छे से काट कर , देख कर और उस का स्वाद भी अगर बदला दिखे तो फैंक दीजिए,मत खाईए...सेहत से बढ़ कर तो कुछ है नहीं। कड़वेपन से याद आया कि लौकी का जूस पीते वक्त भी ख्याल रखिए....हमारे एक साथी अधिकारी की पिछले बरस लौकी का कड़वा जूस पीने से जान जाती रही ....ध्यान रखिए, और इस नीचे दिए हुए लेख के लिंक को भी देखिएगा...उसमें बहुत उपयोगी जानकारी है इन कड़वी सब्जियों के बारे में ...अपना ख्याल रखिए...बाती छोटी छोटी हैं, लेकिन कईं बार बहुत महंगी साबत होती हैं....

लौकी का रस और वह भी कड़वा  (इस लेख को भी ज़रूर देखिए, कभी फुर्सत में) 

PS... ये जो आज कल हर मौसम में हर सब्जी और फल बाज़ार में दिखते हैं न, यह भी लफड़े की बात ही है ...हम लोग देखा करते थे गर्मी सर्दी की सब्जियां और फल अलग होती थीं....वे उसी मौसम में उगती थी, दिखती थीं और बिकती थीं. अब किसी भी मौसम में कुछ भी खरीद लो...यह क़ुदरत के साथ पंगे लेने वाली बात लगती है मुझे अकसर ...बिन मौसम के सब्जी फल उगाने के लिए बहुत से कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है एक बात, और उन को कोल्ड-स्टोरेज़ आदि मेंं रखने के लिए भी बहुत से प्रिज़र्वेटिव इस्तेमाल होते हैं....सब कैमीकल लोचा है, और क्या....इसलिए ताज़ा खाएं, सुथरा खाएं, मौसम के मुताबिक ही सब्जियों एवं फलो का सेवन करें। मुफ्त की एक और नसीहत....आदत से मजबूर, क्या करें।

छोटी सी सीख यही है शकरकंदी भी 😎खाइए ज़रूर, लेकिन काट कर ....अच्छे से देख कर, मैं भी आज के बाद कभी इसे काटे बिना नहीं खाऊंगा...