शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

आज से प्रातःकालीन भ्रमण फिर से शुरू किया तो है..

शायद दो तीन महीने ही हो गये होंगे सुबह की सैर पर निकले हुए...तब यह हाल है जब कि बहुत ही रमणीक बाग बगीचे हमारे घर के बिल्कुल पास हैं...इन में प्रवेश करते ही लगता है कि जैसे आप शहर में नहीं किसी जंगल में पहुंच गये हैं...खूब हरियाली, वन-संपदा.  मां कईं दिनों से कह रही हैं कि सुबह उठते ही लैपटाप पर टिक जाते हो, अपने आप के लिए भी टाइम निकाला करो थोड़ा बहुत....सुबह रोज़ टहला करो, दस पंद्रह मिनट योग किया करो....आज मां की बात मान ही ली।

प्रवेश द्वार पर ही बाबा रामदेव के चेले टाइप के लोग योग कर रहे होते हैं...बहुत अच्छा लगा इन्हें देख कर...इन का उत्साह संक्रामक और दूसरों को प्रेरणा देने वाला तो है ही निःसंदेह।


बाग में टहलते हुए नोटिस किया कि बेरी को बुर आ गया है...प्रकृति जैसे अंगड़ाई ले रही हो इस बदलते मौसम में....दो तीन दिन से मौसम भी खुशखवार सा बना हुआ है।

मुझे कुछ हिंदी के शब्दों के लिए क्षमा करेंगे...हिंदी बस मैट्रिक तक ही पढ़ी है ...बाकी तो जितनी समाचार-पत्रों ने, चैनलों ने, और लखनऊ के मेरे मरीज़ों ने मुझे सिखा दी है, बस उतनी ही याद रह जाती है और उन्ही में से कुछ शब्द जो याद रह जाते हैं लेखन में इस्तेमाल कर लिया करता हूं...कईं बार कुछ शब्द लिखते लगता है कहीं अर्थ का अनर्थ न हो जाए....फिर लगता है हो जाए तो हो जाए....मैंने अपने मन की बात कहनी है....वैसे मैंने स्कूल के दिनों में एक दो मस्त नाथ के गूढ़ ज्ञान समेटे छोटे छोटे नावल भी पढ़े थे ....समझने वालों को ईशारा ही काफी होता है...


बाग में बहुत बार देखा है कि ये लोग पत्तों को आग लगा देते हैं जिस की वजह से भयानक प्रदूषण तो फैलता ही है, आस पास के पेड़ों को भी बहुत क्षति पहुंचती है.....सैंकड़ों लोग आते हैं अपनी सुबह को खूबसूरत बनाने...लेिकन इस तरफ़ कोई ध्यान नहीं देता...चलिए, मैं ही कुछ पहल करूंगा...सोच रहा हूं।


३०मिनट टहलने के बाद बाहर आया तो कुमार विश्वास के इस प्रोग्राम के पोस्टर पर नज़र पड़ गई....यह तारीख तो निकल गई है...कुछ दिन पहले पता तो चला था....लेकिन फिर ध्यान आ गया शायद कुछ महीने पहले फेब्रुवरी में इस के एक प्रोग्राम का ...वहां हम गये तो पता चला कि कम से कम टिकट अंदर जाने की टिकट ही ५०० रूपये है...बस, मन नहीं किया, लौट आए.....इसलिए इस बात जाने की बिल्कुल भी तमन्ना ही नहीं थी....यू-ट्यूब पर सब कुछ धरा पड़ा तो है...देख ही सकते हैं...

बस, करता हूं अब......सत्संग के लिए निकलना है...लेकिन जाते जाते एक गीत सुबह सुबह आप से शेयर करना है ...दो िदन पहले की बात है... मैं पुराने लखनऊ के डालीगंज एरिया से निकल रहा था तो मेरे कानों में एक गीत पड़ गया...मुजरिम न कहना मुझे लोगो...मुजरिम तो सारा ज़माना है...उस का संगीत सुनते ही मुझे ध्यान आया कि इस गीत को तो बरसों के बाद मैंने आज सुना था...पता नहीं रेडियो वाले भी इसे क्यों नहीं बजाते।

वैसे इसे एक नट का खेल दिखाने वाले ने अपने स्पीकर पर लगाया हुआ था...एक छोटी सी बच्ची एक रस्सी के ऊपर चल रही थी। यही लगा कि गाना भी इस ने चुन कर लगाया है ...बिल्कुल सही ...पकड़ा गया वो चोर है, न पकड़ा गया वो सयाना है।