बोरीवली नेशनल पार्क के बारे में कल सुबह जब मैं लिखने बैठा ...लिख तो दिया ..लेकिन दिन भर यही लगता रहा कि बोरीवली नेशनल पार्क जैसे नैसर्गिक स्थल के बारे में बस इतना ही ...यह तो तूने रीडर्स को एक ट्रेलर दिखा दिया...जिस जगह पर जाने के लिए तुम बरसों बरस तरसते रहे - और वह भी खामखां ही ...इतना सुगम रास्ता, शहर के बीचोंबीच एक जंगल होते हुए भी तुम वहां लगभग 25 बरस बाद गए...जिस जगह पर 2-3 घंटे बिताए ...और वहां से बाहर आने की इच्छा ही नहीं हो रही थी, उस के बारे में बस इतना ही कपिल देव जैसे ब्लेड के बारे में कहता है कि पालमोलिव दा जवाब नहीं, तूने उसी तर्ज़ पर यह कह कर अपनी बात कह दी ...बोरीवली नेशनल पार्क दा जवाब नहीं..(इस लिंक पर क्लिक कर के आप पढ़ सकते हैं...)
रह रह कर मन में यह ख्याल भी आता रहा कि वैसे तो मुझे शहर के फुटपाथ नापते वक्त अगर कोई कान सफाई करने वाला कारीगर भी दिख जाता है तो मैं उस का भी पूरा तवा लगा देता हूं लेकिन बोरीवली नेशनल पार्क जैसे स्वर्ग के लिए तेरे पास बस कहने को इतना ही है! यही ख्याल आ रहा है कि लिखने वाले का मक़सद होता है कि पढ़ने वाले को इस हद तक मुतासिर करना कि वह भी वहां जाने का प्रोग्राम बना ले कम से कम अगले इतवार का - उससे पहले उसे छुट्टी लेने में दिक्कत है भी कोई अगर ...
सब कुछ तो लिख रखा है ..क्या है न बाहर से आने वाले लोगों को कुछ भी लिखा हुआ पढ़ने की बहुत उत्सुकता रहती है ...सुरेंद्र मोहन पाठक दो साल पहले मिले - 300 से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं...बता रहे थे कि उन्हें शुरू ही से पढ़ने का इतना शौक था कि जिस लिफाफे में मूंगफली खरीदते थे, मूंगफली खाने के बाद उस लिफाफे को भी पढ़ कर फैंकते थे ...
मराठी इतनी मुश्किल भी नहीं...जितना समझ में आ जाए, ठीक है, बाकी तुक्के लगा लीजिए...पेपरों में तो लगाते ही रहे हैं हम लोग ...
पार्किंग के रेट थोड़े ज़ाज़ती लगे ...और भी विदेशी सैलानियों के लिए अलग रेट ... क्या ऐसा करना ज़रूरी है....मैं तो अमेरिका के बाग-बगीचों में गया, अलग रेट की तो बात छोड़िए, कोई टिकट ही नहीं थी वहां ...
ज़रूरी बात है...फोटो पर क्लिक कर के पढ़ लीजिए...
अरे वाह...कमाल है..फिर भी हमें यहां आने की बजाए आलस की चादर ओड़े पड़े रहना क्यों इतना भाता है
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पढ़ लीजिए, डरिए नहीं...
अच्छा, तो यह बात है!!
बड़ी उम्र के लोग इस तरह के पंगों में पड़ते कम ही दिखते हैं....कल देखा तो बहुत अच्छा लगा ..इच्छा तो मेरी भी हुई ...लेकिन फिर वही ख्याल आ धमका ..लोग क्या कहेंगे!!😎
लीजिए, यह भी है अगर आप कुदरत से बिल्कुल भी वाकिफ़ नहीं है ...आप एक बार यहां पधारिए तो ...
तितलियों के बारे में जान कर तबीयत रंग-बिरंगी हो गई ...
यह वाली मराठी थोड़ी मुश्किल लगी ...कोई बात नहीं, बाद मे एक युवती को देखा को जो एसएलआर कैमरे की मदद से तस्वीरें ले रही थी ..
किस ज़ाविए से आप को लगता है कि यह तस्वीर मुंबई की होगी...इतनी हरियाली, रोशनी और सूरज देवता के साक्षात दर्शन
बाबा, मैं तो आप का मुरीद हो गया..आपको भी अपने फेफड़ों में इतनी हवा भरते देख कर मुझे पहुंचे हुए योगियों का ख्याल आ गया....इस ऑकसीजन की कमी ही तो थी कोवि़ड के दूसरे चरण में जिस ने लोगों को तड़फा तड़फा कर मौट के घाट उतार दिया....करिए, आप करते हुए, खुशी हुई आप को देख कर .. एक गीत भी याद आ गया.....चलती है लहरा के पवन कि सांस सभी की चलती रहे...
आंखों में समेट लेने के लिए इतने दिलकश नज़ारे.....लेकिन फोटोबाज़ी से मुझे जैसे को फ़ुर्सत मिले तभी तो कुछ और सहेंजें......बस, वही कुछ सहेज पाया जिसे कैमरे की आंखों ने देखा ..
घुटने वुटने का दर्द भी तो दर्द ही है ...मैं भी तब तक चलता रहा जब तक घुटनों ने इजाजत दी ..फिर जब लगा कि अब घुटनों को इस से आगे मत घसीट, लफड़ा हो जाएगा ...मैं भी वापिस हो लिया ... क्या करें, शरीर के साथ किसी तरह की जबरदस्ती कहां चलती है, वह हम लोगों से चला लेने की घोर मूर्खता कर बैठते हैं बस...
धीरे धीरे सुबह हुई...जाग उठी ज़िंदगी ........लेकिन अभी बोटिंग का वक्त नहीं हुआ था ...
नौकाविहार में बिल्कुल भी रुचि नहीं है...डर लगता है कि कहीं नौका उलट पलट गई ..बेबुनियाद डर है, इन के पास सैलानियों की सुरक्षा के पूरे जुगाड़ हैं ..बहुत साल पहले चंडीगढ़ की सुखना झील में हम लोगों ने बोटिंग की थी, जिस में अपने पैरों से उसे चलाते हैं...लाइफ जैकेट पहन तो रखी थी, लेकिन डर ही लगता रहा ...हिंदी फिल्मी के हीरो-हीरोईनों को ही बोटिंग करते देखना अच्छा लगता है ..
वाह ..क्या खूब...कुछ जगहों पर फल एवं ता़ज़े गाजर-खीरे बिकते देख कर तो मज़ा ही आ गया...
और इन जगहों पर छोटे बच्चों को ताज़े फलों एवं सब्जियों का फल पीते देख कर तो और भी अच्छा लगा...
इस मंज़र ने मुझे अमेरिका के नियाग्रा फाल्स से पास वाला एक रास्ता याद दिला दिया...
भोर भए पंछी धुन से सुनाएं...जागो रे, गयी रूत फिर नहीं आए...
शहर के बीचों बीच खूबसूरत जंगल हैं लेकिन हम जिन कंकरीट के जंगलों में रहते हैं वहां भी परदे टांगे रहते हैं ...
बस, उस दिन पार्क में इसे देख कर थोड़ी फिक्र हुई कि कहीं विकास की ब्यार यहां तो चलने नहीं आ गई ...
समझ नहीं आता इन जगहों पर जा कर ......आखिर कितनी फोटों लें, हर लम्हे की आगोश में तो दिलकश मंज़र लिपटे पड़े हैं ..
कुछ जगहों पर इस तरह के गेट लगे हैं..
ऊपर वाले गेट के अंदर ऐसे दिख रहा था ..बाहर गार्ड बैठा था, उसने बताया कि यहां पर सफारी करने जाते हैं...मेरे पूछने पर उसने बताया कि शेर रात में यहां तक आ जाते हैं..
रास्ते में यह पिकनिक स्पाट है ...जहां पर लोग ताज़े फल-सब्जियों का लुत्फ उठाते दिखे ...
चाउमीन, बर्गर, पिज़ा, मोमोज़, डोनट्स पर पल रही जेनरेशन के इस खौफ़नाक दौर में साईक्लिंग कर रहे इन स्कूल-कालेज के बच्चों को फलो-सब्जियों-जूस के स्टालों पर खडे़ देख कर ही मेरी तो थकावट ही जाती रही ...
पार्क के बीचों बीच जो लोग रहते हैं वे भी कुदरती तरीके से ही रहते दिखे...जैसे उन्होंने जंगल के पौधों एवं जीवों के साथ शाँतिपूर्ण सहअस्तित्व का एक करार कर रखा हो......
थोड़ा है, थोडे की ज़रूरत है ...जिंदगी फिर भी यहां खूबसूरत है ..
मुुझे याद नहीं कब पिछली बार मैंने बच्चों को इस तरह के खेल खेलते देखा होगा ...बरसों बरस पहले शायद कभी ...हां, बचपन में मैं कंचे का चेम्पियन ज़रूर हुआ करता था और डालड़े वाले डिब्बे में उन्हें सहेज कर रखता था...अकसर शाम के वक्त उन्हें धो भी ेलेता....बचपन के दिन भुला न देना... हा हा हा हा हा ...
कईं बोर्ड तो मेरी समझ में ही नहीं आए.....चलिए, यह ज़रूरी भी तो नहीं...थोड़ा बहुत नादानी भी तो रहनी चाहिए.. ज़मीन पर टिके रहने के लिए यह भी ज़ूरूरी है ..
यहां पहुंचते पहुंचते मेरे घुटनों ने तो कह दिया कि अपने पर नहीं भी तो हम पर तो तरस कर ...वरना तुम्हें भी पता है अगर हम अपनी पर आ गए तो क्या कर सकते हैं...तुझे कईं बार ये सबक सिखा तो चुके हैं ..हा हा हा ..मुझे लगा कि कन्हेली गुफाएं आ ही गई होंगी...गार्ड से पूछा तो उसने बताया कि यहां से अभी 4 किलोमीटर है ...आप किसी बस को हाथ दीजिए..वह रूक जाएगी..मैंने वहां से वापिस लौटना ही बेहतर समझा..
वापसी के वक्त भी इन्हें बेपरवाही से अपने खेल में मग्न देखा ...
ज़रूरी नहीं कि कुदरत की हर रमज़ को समझने की कोशिश की जाए....Many times at many places, just Being is the recipe of life! Just being a silent spectator!
Passion is a passion....lucky ones pursue their's!
माहौल, आबोहवा ऐसी कि उदास, ग़मग़ीन चेहरों पर भी फिर से जीने की तमन्ना लौट आए....
O Foolish self, don't hold on! Don't forget that beautiful message outside your neighbourhood church - When you let go, you grow !
Everything and everybody seemed to be at peace with itself!
पार्क के बीचों बीच जंगल में यह स्टेशन ...
बच्चों के लिए ट्रेन की सवारी का भी जुगाड़ ......शायद आजकल यह बंद है .
हर वह कुदरती जगह जिस के पास रह कर अपनी ख़ाकसारी का एहसास होता रहे, वह जगह मुकद्दस है ..
मुझे इन पेड़ों को देख कर मनाली की अपनी ट्रिप याद आ गई ....
यह बोर्ड मुझे भी थोड़ा कंफ्यूज़िंग ही लगा ...एक जगह लिखा था कि वाहन नहीं जा सकते ....पैदल जाने वालों के लिए कोई स्प्ष्ट हिदायत न दिखी.....इन लोगों का भी इसी मुद्दे पर मंथन चल रहा है कि आगे जाएं या नहीं...
बस, आज के लिए इतना ही ...क्योंकि यह तस्वीर लेते ही मेरे मोबाइल की बेटरी खत्म हो गई...मैं पावर-बैंक साथ लेकर गया तो था लेकिन मोबाइल चार्जिंग की वॉयर घर पर ही भूल गया था ... इसलिए वापिस लौटना ही मुनासिब था ..वैसे भी घर लौटते लौटते दोपहर बारह बज ही गए..
जाते जाते यह है मेरा आज का ख्याल.... आज जब मैं सुबह उठा तो उस देवी की आवाज़ में विविध भारती रेडियो पर उस देवी के भजन लगे हुए थे जिसे हमें लता मंगेश्कर कहते हैं...यह भजन चल रहा था ... गजानन जननी तेरी जय हो, तेरी जय हो जी जय हो .. ....(सुनने के लिए लिंक पर क्लिक करिए) ...सुबह सुबह इस कोयल की आवाज़ सुनने को मिली ......कल रात सोते वक्त सोशल मीडिया पर इस देवी के अस्पताल के प्रवास के दौरान किसी ने जो वीडियो बनाई होगी उसे देखा....बहुत बुरा लगा ...पहले तो उस बेवकूफ पर जिस ने इस देवी का वीडियो बनाया और वह भी इतनी बीमारी की हालत में ...और फिर उसे आगे शेयर भी किया ....ऐसे लगा कि हमारी मां की बीमारी का ही वीडियो किसी सिरफिरे ने सोशल मीडिया पर शेयर कर दिया हो...और जिस देवी को हम सब ने 90 साल की उम्र पार होने पर भी एक अच्छे से बेहद सलीके से कपड़े-गहने पहने देखा...और मुंह से फूल झरते हुए देखे ...सच में वह देवी ही थी ..
ऐसे फिल्मी गीत भी मेरे लिए भजन ही हैं, जिन्हें बार बार सुनना मुझे बेहद सुकून देता है ...