पहले परसों मेरे फोन पर एक टैक्स्ट मैसेज आया कि फलां फलां नंबर की एक चिट्ठी आप के लिए बुक की गई है …आप चाहें तो इसे इस लिंक पर जा कर ट्रैक कर सकते हैं….
फिर कल सुबह एक मैसेज आया कि एक डाकिया (नाम के साथ) आप तक आप की चिट्ठी पहुंचाने की ट्राई मारेगा ….जी हां, यही टैक्सट था….
उस के बाद शाम को फिर टैक्सट आता है कि आप के नाम जो चिट्ठी थी, आप को डिलिवर हो गई है ….
शुक्रिया….डाक विभाग …इस चिट्ठी के लिए और हर उस ख़त के लिए जो आप ने हमारी पीढ़ी तक वक्त पर पहुंचाया…
लेकिन ऐसे ही ख्याल आ रहा था कि जब चिट्ठीयों के बारे में इतना सब कुछ यकीनी बन गया है तो मेरी पीढ़ी को, 50-60 बरस के पार हो चुके मेरे हम-उम्र लोगों को शायद थोड़ा बहुत रोमांचक कम लगता होगा….हो सकता है किसी और को ऐसा न लगता हो लेकिन भई मुझे तो यकीनन लगता है कि इस सब ट्रैकिंग-वैकिंग से ख़तों का रोमांच कम हुआ है ….यह भी सच है कि इस तरह की वेल्यू-एडेड सुविधाएं देना अब सरकारी डाक व्यवस्था की मजबूरी भी है …क्योंकि यह पुरानी पीढ़ी तो अब रफ्ता-रफ्ता लुप्त होने की कग़ार पर है ….
पुरानी पीढ़ी की, अपनी पीढ़ी की बात करता हूं तो वह व्हाटस्एप पर वॉयरल हो चुके कई मैसेज याद आते हैं कि हमारी पीढ़ी ने बहुत कुछ देखा है …रेडियो-ट्रांज़िस्टर, टेप-रिकार्डर, वे बार बार रुक जाने वाली टेपें, वी-सी-पी, वी-सी-आर, रेलवे रिज़र्वेशन के लिए आधा दिन बरबाद करने का दौर और वह भी मेन्यूएल….आरक्षण बाबू की मर्ज़ी, ख़तो-किताबत वाले दिन, टैलीग्राम के नाम से दिलों की बढ़ती धड़कन, ब्लैक-एंड-व्हाइट टीवी जिस पर खेती-बाड़ी के प्रोग्राम शुरु होते ही हम उस के सामने बैठ जाते और सुगम-संगीत तक यह सिलसिला चलता रहता, पुरानी टाकीज़ में बेहतरीन हिंदी फिल्मों का आनंद लेना….अंदर घुसने तक पता नहीं होता था कि पंखे के नीचे वाली सीट मिलेगी या नहीं क्योंकि लोगों का एक हुजूम एक साथ छोड़ दिया जाता था…(तब कोई स्टैंमपीड न होती थी, न भगदड़).....खैर, यादों के झरोखों में ऐसे ही ताक-झांक करते रहेंगे तो बहुत कुछ नज़र आता रहेगा….लेकिन बात तो आज चिट्ठी की करनी है, ख़तों की प्यारी दुनिया को थोड़ा याद करना है ….
घर के पैसेज की एक दीवार .... |
हम से जो पिछली पीढ़ी थी, उन्होंने तो और भी बहुत कुछ ऐसा देखा जिसे देखना हमारे हिस्से में न था….उन को ख़तों के आने जाने के बारे में उंगलियों पर गिनती करते देखा….जैसे पिता जी का यह हिसाब लगाना कि भाई को चिट्ठी डाली दी शनिवार के दिन ….तीन दिन लगते हैं …मंगलवार तक तो मिल ही गई होगी….अगर डाक शनिवार न भी निकली होगी तो सोमवार निकल कर बुधवार तक तो मिल ही गई होगी….एक दो दिन के बाद ही वह जवाब देता है…चलिए अगर बुधवार तक तो जवाब आ ही जाना चाहिए था…..लेकिन अब तो 15 दिन होने को हैं, जवाब नहीं आया…..चलिए, आज फिर से एक ख़त लिखता हूं….
पैसे-धेले की किसी भी केल्कुलेशन की बजाए हम लोगों ने इस तरह का हिसाब-किताब अकसर लगते देखा है ….
ख़तों की दुनिया में कुछ भी यक़ीनी न होने से बराबर एक रोमांच बना रहता था …पता नहीं चिट्ठी कब आएगी, देर से आएगी या नहीं भी आएगी…एक उम्मीद, एक आस बनी रहती थी….
यह जो मैं लिख रहा हूं इन सब बातों से वही लोग रिलेट कर पाएंगे जिन्होंने वह वक्त जीया है ….शिखर दोपहरी के पौने तीन बजे तक डाकिया बाबू की आवाज़ या उस के साईकिल की चेन की आवाज़ का इंतज़ार किया है ….और सिर पर तौलिया रख कर बाहर दरवाजे तक जा कर देखना भी उन की आदत में शुमार था…कोई चिट्ठी अगर दरवाज़े के अंदर गिरी मिलती तो ऐसे लगता जैसे छोटी मोटी लाटरी लग गई हो ….
नानी की चिट्ठी, दादी की, मामा, मामी, मौसी, फूफा, फूफी, चाचा, चाची, ताऊ-ताई, बहन की भाई की ….मां की मौसी की, पिता जी के चचेरे भाई की, सब की चिट्ठीयां आती थीं और उन के बाकायदा जवाब लिखे जाते थे ….मुझे कईं बार बड़ा अजीब लगता है जब देखता हूं कि महानगरों के बड़े बडे नामचीन स्कूलों में लेटर-राईटिंग का एक सैशन हुआ या छोटे बच्चों को एक डाकखाने की विज़िट करवाई गई……लेकिन हम लोगों की, हमारी पीढ़ी की प्रैक्टीकल ट्रेनिंग हुआ करती थी …स्कूल में पढ़ते हुए भी किसी भी रिश्तेदार को चिट्ठी जब लिखी जाती तो थोड़ी जगह हम लोगों के लिए रख दी जाती….मुझे यह लिखते वक्त याद आ रहा है कि 50 साल पहले मैंं आठवीं कक्षा में था और मैंने अपने जीजा जी को एक ख़त लिखा था और उस की तारीफ़ में जो उन्होंने ख़त लिखा था, वह मुझे आज तक याद है ….चिट्ठीयां हम लोग संभालते नहीं थे, ऐसे ही फाड़ दिया करते थे ….बस, नानी के घर में ही देखते थे कि एक साईकिल की तार में पिरो कर वह कईं महीनों तक चिट्ठीयां संभाले रखती थीं और हमारे लिए वही कॉमिक्स का करती थीं….नाना-नानी के पास जब गए होते तो उस तार में से चिट्ठीयां निकाल निकाल पर पढ़ते रहते …..कितनी वेलापंथी है न यह सब भी ….अब याद करते हैं तो हंसी भी आती है ….
वैसे आप को भी पता तो होगा ही ….(अगर आप डाक विभाग की थोड़ी खबर रखते हैं) कि पिछली 30 सितंबर से डाक विभाग ने रजिस्टर्ड-डाक सेवा बंद कर दी है …जिसे आम भाषा में रजिस्टरी कहते रहे हैं हम ….अब स्पी़ड-पोस्ट ही होती है …30 सितंबर 2025 को मैंने एक सुनहरी याद को संजोने के लिए आखिरी बार एक रजिस्टरी की थी …जैसे 2014 या 2013 में जब टैलीग्राम का चलन बंद किया गया तो मैंने आखिरी दिन एक टैलीग्राम भी भिजवाई थी….क्योंकि हम लोगों के लिए ये अल्फ़ाज़ ही नहीं है, रजिस्टरी, यूपीसी, टैलीग्राम (तार)...हम लोगों ने इन चीज़ों के साथ ज़िदगी जी है…..और ये सब विषय ऐसे हैं जिन पर मेरी उम्र के लोग अगर एक बार लिखना शुरु करें तो लिखते ही जाएं….यादों की चर्खी ऐसे खुलती चली जाती है कि पता ही नहीं चलता कि कितने कागज़ काले कर दिए….लिखते लिखते …
हां, आज तो ख़तों की दुनिया में इतना सब कुछ यकीनी हो गया है, उस से चाहे रोमांच में कमी आई हो या मुझे ही लग रहा है, वह मेरी समस्या है लेकिन असलियत यह है कि आज कल चिट्ठीयों को स्पीड-पोस्ट से भेजना एक मजबूरी भी हो गई है ….पहले राखीयां, भैया-दूज के टिक्के, ये सब पांच रूपए के लिफाफे में भिजवा दिए जाते थे ….ग्रीटिंग कार्ड भी ऐसे ही भेजे जाते थे ….अब यह सब भेजने के लिए लगभग 60 रुपए खर्च करने पड़ते हैं…..सैंतालीस रुपए शुल्क और ऊपर आठ रुपए जीएसटी….।
मैं ऐसा महसूस करता हूं कि यकीनी अगर कुछ बनाना ही है तो पहले जैसी डाक-व्यवस्था को यकीनी बनाए जाने की ज़रूरत है …चिट्ठीयां मैं लिखता रहता हूं ….दोस्तों को लिखता हूं तो फोटो खींच कर वाटसएप पर भेज देता हूं ..लेकिन कुछ ऐसी चिट्ठीयां होती हैं, ऐसे रिश्ते होते हैं जहां पर चिट्ठी को कागज़ पर लिख कर लिफाफे में डाल कर ही भिजवाता हूं ….बहुत बार ये लिफाफे या अंतर्देशीय अपने ठिकाने तक पहुंचे ही नहीं …..लेकिन एक बैक-अप रखा हुआ काम आ जाता है ….शायद अब हमें यकीन ही नहीं होता कि यह पांच रुपए का लिफाफे में इतनी ताकत नहीं कि वह इतना लंबा जा पाएगा ….और शायद इसीलिए वह पहुंच ही नहीं पाता या उस का कुछ और हश्र हो जाता है ….क्या होता है, क्या नहीं, ईश्वर जानता है ….लेकिन उस बालपन में, युवावस्था में एक प्रबल विश्वास था कि पांच पैसे का पोस्टकार्ड दादी के हाथों तक पहुंच ही जाएगा दो दिन के बाद ….और वह पहुंच भी जाता था ….जिस की खबर दादी के कांपते हाथों से लिखे जवाबी पोस्टकार्ड से मिलती थी …जिसे बार बार पढ़़ा जाना और पिता जी का उस ख़त को अगले एक दिन तक अपने तकिये के नीचे रखे रखना…..
यह विषय ही अपने दिल के इतना करीब है कि लिखने बैठे हैं तो लिखते ही रहेंगे लेकिन इसी चक्कर में आप पढ़ने वाले के सब्र का इम्तिहान ही न ले बैठें…..
जाते जाते यह भी लिखना चाहता हूं कि हम लोग बचपन से देख रहे हैं कि हम लोग जहां जहां भी रहे, डाकिया बाबू से ऐसे खुशग़वार संबंध रहे कि उस ने कभी कोई चिट्ठी इधर उधर होने नहीं दी, यहां तक कि रजिस्टरी हो या स्पीड-पोस्ट, बिना हमारे हस्ताक्षर के हमारे बॉक्स में डाल जाते थे …बाद में पूछ भी लेते थे, मिल गई थी वह चिट्ठी, हम बॉक्स में डाल आए थे, न हमने उनसे कभी पूछा कि हस्ताक्षर किस से करवाए, न ही उन्होंने हमें कभी जताया कि यह काम रिस्क वाला था …जब कि हम जानते हैं कि यह रिस्क वाला काम तो है ही उस की नौकरी के लिए, लेकिन विश्वास, भरोसा, यकीन बहुत बड़ी बात होती है और यह कमाना पड़ता है, बाबू….
हां, डाक की ट्रैकिंग की बात हुई तो उस से पता चलता है कि कितने बजे किसने देश के किस डाकखाने से चिट्ठी बुक की है, और किस किस रास्ते से होती हुई यह चिट्ठी आप के द्वार तक पहुंच रही है ….कोई रोमांच नहीं होता यह सब जानने में जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है जब तक कि कोई बेहद ज़रूरी चिट्ठी न हो ….ट्रेकिंग से याद आई एक बात और कि हमारी तो सारी ट्रेकिंग डाकिये के चेहरे से हो जाया करती थी, जब वह तूफान, बारिश, शिखर दुपहरी,ठिठुरती ठंडी में चिट्ठी ले कर हाजिर हो जाता था ….
डाकिये के बारे में निदा फ़ाज़ली जो कहा है मुझे बहुत अच्छा लगता है …
सीधा-सादा डाकिया जादू करे महान्.
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान….
और जब डाकिये या डाक के ऊपर फिल्मी गीत याद करता हूं तो बहुत से बेहतरीन गीत याद आ जाते हैं …कईं गीत हैं, एक से बढ़ कर एक…लेकिन यह गीत तो शायद हज़ारों बार सुन चुका हूं ….यह गीत नहीं है, इस में पूरा एक संसार समाया हुआ है ….यह गीत गुदगुदा जाता है, आंखें थोड़ी नम भी कर जाता है ….बहुत पसंद है मुझे यह गीत…..डाकिया डाक लाया….शायद आम हिंदोस्तानी की ज़िंदगी में कोई ऐसा ईमोशन हो जिसे यह गीत ब्यां नहीं करता ....सब कुछ ....एक दम सटीक, परफेक्ट....
और हां, एक मज़ेदार बात और ….आज से पच्चीस साल पहले मैं यह क्रिएटिव राईटिंग के बारे में कुछ नहीं जानता था, क ख ग से भी वाकिफ न था, केवल मेडीकल विषयों के बारे में बोरिंग-बोझिल लेख लिखता था ….इतनी भारी भरकम भाषा ….फिर 2002 के आसपास एक नवलेखक शिविर में पंद्रह दिन के लिए जाने का मौका मिला और बात समझ में थोड़ी आ गई ….और उस शिविर के लिए मेरा जिस लेख के आधार पर चयन हुआ …उस का शीर्षक भी यही था ….डाकिया डाक लाया…..यह मेरा पहला लेख था जिसे मैंने एक कागज़ पर लिख कर केंद्रीय हिंदी निदेशालय को भेजा था ….
वैसे चिट्ठी पत्री वाला गीत तो मुझे यह भी बहुत पसंद है , यह रहा उस गीत का लिंक ….चिट्ठीए नी दर्द फ़िराक वालिए...….(हिना फिल्म)....कितने गीत है जिन को बीसियों सालों से सुनते आ रहे हैं लेकिन मन नहीं भरा ….खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू…चिट्ठी आई है वतन से चिट्ठी आई है ….बेहतरीन फिल्मी गीत है ख़तों पर लिखे हमारे अज़ीम गीतकारों की कलम का कमाल ….फूलों के रंग से, दिल की कलम से तुझको लिखी रोज़ पाती
कैसे बताऊँ किस-किस तरह से पल-पल मुझे तू सताती…..
अब वक्त है इस पो्स्ट को बंद करने का …..यहां से उठ जाने का …बस, एक बात याद आ गई....मेरे सामने पड़ी मेरी डायरी देख कर ....गुलज़ार साहब की एक गज़ल में भी ख़त को ज़िक्र आता है ...मुझे यह बहुत पसंद है...कुछ अरसा पहले मैंने रेडियो पर सुनी तो अपनी डॉयरी में ली कर रख ली थी...आप भी अगर उसे पढ़ना चाहें ...