मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

सुपर मार्कीट की दही से याद आया...


किसी भी सुपर मार्कीट में तरह तरह के ब्रांडों की दही, लस्सी, श्रीखंड आदि को देख कर यही लगने लगता है कि आखिर ये देश को परोस क्या रहे हैं, बड़े दिनों से मैं इस के बारे में सोच रहा था…
चलिए आप के साथ बीते दिनों की कुछ यादें ताज़ा कर लेते हैं… १९७० के दशक में यही १९७३-७४ के साल रहे होंगे..डीएवी स्कूल हाथी गेट, अमृतसर, हम लोग यही पांचवीं छठी कक्षा में पढ़ते होंगे…हमारे स्वर्गीय अजीज उस्ताद ..मास्टर हरीश चंद्र जी …आधी छुट्टी से दो चार मिनट पहले हम में से किसी को एक पोली थमाते (२५ पैसे के सिक्के को पंजाबी में पोली ही कहते हैं..अब तो बंद हो चुका है वह सिक्का ही) –मधुर, सतनाम, राकेश, भट्ट या फिर किसी की भी — ड्यूटी लगा देते कि जाओ दही लाओ… हमेशा उन के स्टील के रोटी के डिब्बे में एक डिब्बा खाली रहता था ..जिस में वह ताज़ा दही मंगवाते थे। और मेरे नाना जी भी मास्टर ही तो थे, वे भी अकसर आते वक्त अपने साथ बाज़ार से ताज़ा दही लाते थे… उन का खाना भी एक दम फिक्स..दो गर्मागर्म ताज़ा चपाती, एक कटोरी ताज़ी दाल-सब्जी, एक कटोरी दही ………बस।

पुराने दिनों की याद दिलाता यह दही का बर्तन
वैसे भी हम लोग दही अकसर बाज़ार में मिट्टी के बड़े बड़े बर्तनों में ही बिकता देखा करते थे…ज़माना बहुत ही बढ़िया था, अन्य बीमारियों की तरह यह लालच रूपी कोढ़ का भी नामोनिशान न था, लोग इतने शातिर न थे, बेईमानी के तरीके शायद न जानते होंगे… इसलिए उस बाज़ार की दही को भी कभी कभी खाना मन को भाता था।
होस्टल में रहते हुए तो कईं बार नाश्ते में आधा किलो दही में बर्फ़ चीनी डलवा के खाने का आनंद आ जाता था, सब कुछ बढ़िया तरीके से पचा भी लेते थे।
फिर कुछ साल बाद ये बातें सुनने में आने लगीं कि दूध में मिलावट होने लगी है, बाज़ार में बिकने वाली दही में  ब्लाटिंग पेपर मिला रहता है, लेकिन पता नहीं मुझे इस का कभी यकीं न हुआ… फिर भी बाज़ार में बिकने वाले दही से दूरी बढ़ने सी  लगी। और अभी कुछ साल पहले से जब से इस सिंथेटिक दूध और इस से बनने वाले विभिन्न उत्पादों के बारे में सुना तो बाज़ार में बिकने वाले दही-पनीर से नफ़रत हो गई।
ब्लिक की इस ऩफ़रत को भुनाने के लिए सुपर मार्कीट शक्तियां पहले ही से तैयार बैठी थीं…. इतनी तरह के दही के ब्रांड, पनीर आदि देख कर हैरानगी होती है। मान लेते हैं कि शायद सुपर मार्कीट से उठा कर अपने शापिंग कार्ट में इन्हें डालने वालों के लिए इन की कीमत कुछ खास मतलब न रखती होगी, लेकिन मिल तो यह सब कुछ बहुत मंहगे दामों में ही रहा है।
मैं अकसर सोचता हूं कि घर में तो अकसर हम लोग एक दिन का दही अगले दिन नहीं खाते …नहीं खाते ना.. फ्रिज़ में रखने के बावजूद वह खट्टी सी लगने लगती है। लेकिन ये सुपर मार्कीट में बिकने वाली दही में ऐसा क्या सुपर रहता होगा कि यह पंद्रह दिन तक खराब न होती होगी। ज़ाहिर सी बात है कि इन उत्पादों की इस तरह की प्रोसैसिंग होती होगी, इन में कुछ इस तरह के प्रिज़र्वेटिव डले रहते होंगे जो इन्हें १५ दिन तक ठीक ऱख सकते हों। लिखते लिखते ध्यान आ गया कि यह विषय शोध के लिए ठीक है, करते हैं इस पर कुछ। और जितना जितना ज़्यादा प्रोसैसेड फूड हमारे जीवन में आ रहा है, उस के सेहत पर प्रभाव हम देख ही रहे हैं। 
पहले तो सुपर मार्कीट में यह देख कर ही सिर चकराने लगता है कि यार दही की भी क्या एक्सपॉयरी डेट होती है क्या। दही तो बस वही है जो जमे और सभी उस का उसी दिन आनंद ले लें। लिखते लिखते ध्यान आ गया, एक रिश्तेदार का जो दही का इतना शौकीन कि दही जमने की इंतज़ार में कईं बार ऑफिस से लेट हो जाया करता था।  और हां, ये सुपर मार्कीट वाले एक्सपॉयरी डेट वाले दिन से दो तीन दिन पहले उसे आधी कीमत पर बेचने लगते हैं। इस के बारे में मैं क्या कहूं, आप समझ सकते हैं ऐसा दही किस श्रेणी में आता होगा।
अभी उस दिन की ही बात है…मैंने देखा कि मेरे साथ खड़े एक अजनबी ने जब सुपर मार्कीट से दही का डिब्बा उठाया तो मेरे से रहा नहीं गया, मैंने कह ही दिया, आप थोड़ा फ्रेश डेट का लें… मेरी बात सुन कर वह कहने लगा ….अभी तो एक्सपॉयरी को दो दिन हैं, वैसे भी आधा रेट में मिल रहा है।

इस पीढ़ी ने तो कभी जिम ने जाकर कॉर्डियो न किए………
मेरे विचार में अगर आप के पास कोई घरेलू विक्लप नहीं है तो ही आप को इस तरह के प्राड्क्ट्स इन सुपर मार्कीट में जा कर खरीदने चाहिए….जैसा कि मेरे साथ हुआ, घर से बाहर था कुछ दिन, दही वही खा नहीं पाया, पेट  कुछ ठीक सा न था, इसलिए वहां से लेकर दही कुछ दिन खाया तो ….लेकिन कमबख्त दही ऐसा जैसा कि कोई लेसदार दवाई खा रहा हूं… फिर भी पेट तो ठीक हो ही गया…….मेरा कहने का भाव यही है कि कभी कभी एमरजैंसी के लिए इस तरह का दही-पनीर लेना तो ठीक है, लेकिन निरंतर लगातार इस तरह के प्रोडक्ट्स खरीदने में और विशेषकर अगर आप के पास घरेलू विकल्प हैं तो बात मेरे तो समझ में नहीं आती…….सोचते सोचते दिमाग की ही दही होने लगती है। पंद्रह पंद्रह दिन ठीक रहने वाले दही…………यह क्या बात है, इस पर शोध होना चाहिए। मेरी समझ तो मुझे कहती है कि इसे तो बस एक दवाई की ही तरह से ले सकते हैं.
और हां ध्यान आ गया, इन सुपर मार्कीट शेल्फों पर आजकल प्रो-बॉयोटिक की छोटी छोटी शीशियां भी तो बिकने लगी हैं, दस दस रूपये की …जस्ट शार्ट-कट–जो दही खाने की तकलीफ़ न उठाना चाहते हों बस एक अदद शीशी पी लें तो हो गया उन का लैक्टोबैसीलाई का कोटा पूरा…………जिस तरह से बंबई में टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ साथ उस का एक शार्टकट संस्करण भी बिकता है ..जिस पर बीस मिनट लिखा रहता है… उन के लिए जो बेवजह के विज्ञापन को पढ़ कर सिर को दुखाना न चाहते हों..
दुनिया बहुत बदल रही है, शायद इतनी तेज़ी की तो ज़रूरत ही नहीं है, सोचने वाली बात है कि इतनी तेज़ तर्रारी में मुनाफ़ा किस का और नुकसान किसका……….मुनाफ़ा केवल सुपरमार्कीट वालों का……और नुकसान हम सब उपभोक्ताओं का —पैसे का भी, सेहत का भी……..आप क्या सोचते हैं इस के बारे में?