शुक्रवार, 29 मार्च 2024

जिन दिनों हम हिंदी फिल्मी ट्रेलरों पर ही फिदा थे ....


पिछली सदी का साठ, सत्तर, अस्सी का दशक भी हिंदी फिल्मों के नज़रिए से कमाल का था ....सब कुछ बा-कमाल का था....उस दौर की फिल्मों ने देश समाज को क्या दिया....इस पर बहुत सी पोथियां लिखी जा चुकी हैं....मेैं इस बारे में कुछ भारी भरकम लिखने के मूड में नहीं हूं....हां, भारी भरकम लिखने के लिए किसी विषय का ज्ञान भी तो उसी स्तर का चाहिए, मैं ठहरा हल्की फुल्की बातें में ही खुशी तलाशने वाला ....जो लोग सीरियस थोबडे़वाले बहुत ज्ञान बांटते हैं, मुझे उन से बहुत डर लगता है ....उन को देख कर हमेशा ऐसा क्यों लगता है जैसे वो किसी मैय्यत में आए हुए हैं....

खैर, चलिए...बात करते हैं ...आज से चालीस पचास साल पहले फिल्मी ट्रेलरों की ....मुझे बहुत याद आते हैं वे दिन जब हम लोग अपने दौर में फिल्मी ट्रेलर ज़रूर देखा करते थे ....ट्रेलर से आप समझ रहे होंगे वह विज्ञापन जो हम किसी फिल्म की मशहूरी की एक क्लिप देखते हैं जब हम लोग कोई और फिल्म देखने जाते हैं....मुझे अच्छे से याद नहीं है कि इस तरह के ट्रेलर फिल्म देखते वक्त जो हम लोग सिनेमा हाल में देखते थे, ये हम लोग कब से देखने लगे थे ....बिल्कुल याद नहीं ...

लेकिन मैं जिन फिल्मी ट्रेलरों की बात आज करूंगा वे तो कुछ अलग ही मुद्दा है ....मुझे नहीं पता कि उन को ट्रेलर कह भी सकते हैं या नहीं ...लेकिन हम तो स्कूल कालेज के दिनों में उन को ट्रेलर ही कहते थे .....और बाकायदा जब कोई फिल्म देख कर आते थे तो अगले कईं दिनों तक उस फिल्म की चर्चा के साथ साथ सिनेमा हाल के बाहर-अंदर लगे उन ट्रेलरों की बातें भी यारों दोस्तों के साथ होती थीं ...

जिन ट्रेलरों की मैं बात कर रहा हूं वे फिल्मों के कुछ दृश्य की तस्वीरें हुआ करती थीं जो हाल के बाहर और अंदर किसी कांच के फ्रेम के अंदर अच्छे से लगी रहती थीं ...उन को निहारना ही बड़ा रोमांचक था ....भगवान का शुक्रिया है तब तक ये मोबाइल-वाईल न थे, इसलिए हम लोग उन को इतने अच्छे से देख कर, निहार कर जैसे अपने दिलों में सेव कर लेते थे ....😎

किसी थियेटर में फिल्म लगने से पहले .....

जैसे ही हमें स्कूल आते जाते दीवारों पर लगे पोस्टरों से पता लगता था कि फलां फलां सिनेमा हाल में फलां तारीख से कोई फिल्म लग रही है तो हम अकसर स्कूल से लौटने का अपना रूट बदल लेते थे, साईकिल उस हाल की तरफ़ मोड़ लेते कि वहां जा कर कुछ और जानकारी हासिल होगी ...शायद बड़ा पोस्टर ही लग गया हो, अगर वह लग चुका होता तो उसे अच्छे से देखते ....एक एक किरदार को पहचानते या पहचानने की कोशिश करते... 


इस के बाद हम लोग साईकिल को किसी दीवार के किनारे टिका कर थोड़ा आगे बढ़ते और सिनेमा हाल के बाहर लगे ट्रेलर देखने की कोशिश करते ....जहां तक मुझे याद है उन दिनों हाल वाले बाहर दो चार ही ट्रेलर लगा कर रखते थे ....हमारे देखने के लिए उतने ही काफी थे.....हम पांच दस मिनट उन को अच्छे से देख कर ....मन बना लेते कि यह फिल्म तो देखनी ही है .....फिर ख्याल आता कि शुरु शुरू में तो टिकट कालाबाज़ारी में तो हम ले नहीं पाएंगे ....कोई बात नहीं, थोड़े दिन बाद देख लेंगे ....इतनी भी क्या जल्दी है ....मन को समझाते हुए साईकिल पर सवार हो कर घर पहुंच जाते ....लेकिन उस फिल्म को देखने की चाहत बराबर बनी रहती और देख भी लेते देर-सवेर......जहां चाह वहां राह...

जिस दिन फिल्म देखने जाते .....उस दिन फिर उन ट्रेलरों को तीन बार निहारा जाता ....

फिल्म शुरू होने से पहले ...... जब टिकट ले कर अंदर चले जाते ...अकसर दस पंद्रह मिनट पहले तो हम उन ट्रेलरों को देखने में ही वक्त बिता देते .....ज़ाहिर सी बात है कि कुछ खास समझ न आती ....लेकिन जल्दी जल्दी में देख लेते ....फिल्म देखने का उत्साह लोगों के सिर चढ़ कर बोल रहा होता ....


 

हां, लिखते लिखते कईं बातें याद आने लगती हैं ....जैसे ही हाल का गेट खुलता ....लोग धक्का-मुक्की कर के कैसे भी अंदर जा पहुंचते और अपने मनपसंद की सीटों पर कब्जा करने की कोशिश करते ...जिन सिनेमा हालों में एसी न होता, वहां पर पंखे के नीचे वाली सीट या दीवार पर लगे पंखे के सामने वाली सीट हथियाने को होड़ सी लग जाती .....

फिल्म के इंटर्वल के वक्त ....फिल्म के इंटर्वल वाला टाईम बड़ा कीमती होता था....वॉश-रूम में जाना ज़रूरी होता था ...पिर एक दो बढ़िया से समोसे, भटूरे-छोले, पूरी-छोले, कुलचे छोले भी रगड़ने होते थे और साथ में तली हुई (फ्राई) नमकीन मूंगफली भी लेनी होती थी ....(इन में से कोई भी एक-दो चीज़ें, सारी नहीं, यार.....इतने तो जेब में पैसे ही नहीं होते थे .... 😂😂😂😂😂😂...और यह सब करने के बाद हम लोग भाग कर सिनेमा हाल के बाहर जो वेटिंग रुम वाला हाल होता था ...जहां पर बीस तीस फिल्मी ट्रेलर लगे होते थे ....अब वह फ्राई मूंगफली को चबाते चबाते उन ट्रेलरों को फिर से निहारा जाता और जो जो दृश्य इंटर्वल से पहले हो चुके होते और जो अभी नहीं फिल्म में नहीं देखे, उन का हिसाब लगा लिया जाता ....बहुत से लोग इस तरह की मगज़मारी कर रहे होते ....उन में से मैं भी एक तो होता ही था....

फिल्म खत्म होने के बाद .....इंटर्वल खत्म होने की घँटी बजते ही सब हाल में भाग जाते ...अगर कोई एक दो मिनट लेट हो जाता तो सीट पर बैठते ही यह ज़रूर पूछता कि कितना समय हो गया है ...लेकिन लोग समझदार थे सभी उन दिनों....बंदे को किसी सदमे से बचाने के लिए उस की साथ वाला सीट उस का यह कह कर ढ़ाढ़स बढ़ा देता कि अभी, अभी एक मिनट भी नहीं हुआ.....मुझे ऐसे लगता है कि उन दिनों फिल्में देखते देखते हमें पेशाब भी बहुत आता था या फिर गब्बर सिंह के कारनामे देख कर ही थोड़ा-बहुत निकल जाता होगा ....याद नहीं वह भी ठीक से ... 😎😎😎😎😎😎😂😂 

जी हां, फिल्म खत्म हो गई ....अब हाल से बाहर निकलते ही उस वेटिंग एरिया में एक बार फिर से जाना होता ...एक क्विक अवलोकन के लिए ...झट से यह आश्वस्त होने के लिए ....कि कुछ रह तो नहीं गया....अगर कोई एक दो ट्रेलर ऐसे होते जो अंदर फिल्म में नहीं दिखे होते तो लोग उस वक्त थोड़ा नाराज़ सा हो जाते कि देखो, फिल्म काटी हुई है ...यह सीन भी न था, वह भी न था .........इतने में कोई याद दिला देता कि यार, यह तो था ही, तुझे याद नहीं .....

खैर, तभी गेट कीपर की सीटी या आवाज़ आ जाती कि खाली करो भाई हाल को ......जल्दी करो .....

फिल्में भी हमारी पीड़ी की ज़िंदगी का एक बहुत ही ज्‍यादा अहम् हिस्सा रही हैं .....हमें याद है कौन सी फिल्म हमने किस के साथ किस शहर में किस के साथ देखी थी ....अभी भी वे गीत कभी गीत बजते हैं ....तो पुरानी यादें हरी भरी हो जाती हैं....मुझे तो अपने सिरदर्द का इलाज यही ठीक लगता है कि जब भी सिर भारी होता है मैं अपने दौर के गाने सुनने लगता हूं यू-टयूब पर ....या रेडियो पर विविध भारती लगा लेता हूं ....और जब हो सके तो टहलने चला जाता हूं ...बस, सिर दर्द ठीक .....कईं बार डिस्प्रिन लेनी ही पड़ती है जैसे कि आज सुबह ...वह भी एक अजीब किस्सा है ....

थोड़ा थोड़ा सिर दर्द था कल ...कुछ ऐसा ही खा लिया था ....रात में लगा कि चलो, प्राईम-वीडियो पर कोई पुरानी फिल्म लगा लेता हूं ...दीवार फिल्म लगा तो ली ...लेिकन पांच दस मिनट से ज़्यादा नहीं देखी गई....बंद कर के सो गया....थोड़ा थोड़ा सिर दर्द था ही, सुबह उठ कर डिस्प्रिन लेकर ही तबीयत कायम हुई ......कईं बार ...कईं बार क्या, बहुत बार पुरानी फिल्में देखना भी नहीं भाता .....सुपर डुपर िहट रही हैं तो रहा करें.....दिल का क्या करें, नहीं इच्छा तो नहीं इच्छा, इस के साथ कोई ज़ोर-जबरदस्ती तो नहीं....यू-ट्यूब पर भी मैं जब अपने ज़माने के गीत सुनता हूं तो वीडियो देखने में मेरी कोई खास रूचि नहीं होती....मुझे बस गाना सुनने से ही मतलब होता है ...

लेिकन कभी कोई गीत स्पैशल होता है कुछ अलग वजह से ....तो उस का वीडियो तो बार बार देखना ही होता है ....होली के दिन मैं न तो किसी को रंग लगाता हूं ... न ही किसी को डिस्टर्ब करता हूं और न ही मैं कोई डिस्टर्बैंस चाहता हूं ....बस, होली के गीत सुन कर होली मन जाता है, पुराने दिनों की होली की यादों के खेलते खेलते ही होली हो जाती है .....इस बार भी जब मैं होली के दिन यू-ट्यूब पर गीत सुन रहा था तो होली के गीत लिख कर सर्च किया तो एक गाना आ गया ...फिल्म आपबीती का ...मुझे नहीं याद कितने सालों के बाद मैंने यह गीत सुना था ...मुझे याद आ गया कि आज से कोई पचास साल पहले ....१९७६ में अपनी मां के साथ अमृतसर के एनम थिएटर में मैंने यह फिल्म देखी थी ....बस, फिर क्या था, होली के दिन से लेकर अब तक उसे कईं बार सुन चुका हूं....नीला..पीला..हरा..गुलाबी ...कच्चा पक्का रंग .... 😂😂....इस लिंक पर क्लिक कर के आप इसे सुन सकते है ं....सुनिए आपबीती का यह गीत ...

और हां, ट्रेलर भी तो आप को दिखा दिए हैं.....ये मेरी कलेक्शन से हैं....बेशकीमती कलेक्शन ...😂😂 कुछ अरसा पहले ही हासिल हुए हैं मुझे बड़ी मु्श्किल से ....मैंने भी बहुत बहुत लंबे अरसे बाद इन का दर्शन किया जब ये मुझे ऑन-लाइन मिल गए.......(वैसे मैंने यह फिल्म नहीं देखी, जहां तक मुझे याद है ..)

शनिवार, 16 मार्च 2024

मराठी नाटकों की लोकप्रियता .....

इतना तो मैं जानता था कि यहां मुंबई में मराठी नाटक देखना लोग खूब पसंद करते हैं...और मुझे इतना ही पता था कि कुछ जगहों पर जैसे की रविन्द्रालय, व्हाई बी चव्हान, वीर सावरकर भवन इत्यादि पर मराठी नाटकों का मंचन किया जाता है ...कुछ ज़्यादा मुझे इस के बारे में पता नहीं था ..

लेकिन दो चार दिन पहले एक रिटायर बंधु आए तो उन के हाथ में महाराष्ट्र टाइम्स समाचार-पत्र था.....बात जब चली कि अब रिटायर होने पर टाइम कैसे पास होता है तो उन्होंने झटपट अपना बढ़िया रुटीन बता दिया ...साथ में यह भी बताया कि मराठी नाटक देखने भी जाता हूं ...मुझे पता था कि वह भी गुज़रे दौर में मराठी रंगमंच पर काम करते रहे हैं....मैंने पूछा तो कहने लगे कि हां, उस शौक को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश में लगा हूं...

इस के साथ ही उन्होंने मेरे सामने महाराष्ट्र टाइम्स में मराठी रंगमंच के विज्ञापनों का वह पन्ना सामने रख दिया....मैं उस पन्ने पर इतने सारे विज्ञापन देख कर हैरान था....कहने लगे कि वीकएंड पर अगर आप महाराष्ट्र टाइम्स या लोकमत खरीदेंगे तो आप को पता चलेगा कि किस तरह से दो पेज़ इन मराठी नाटकों  के विज्ञापनों से भरे रहते हैं....

महाराष्ट्र टाइम्स - मुंबई ...दिनांक 16 मार्च 2024 

आज शनिवार था, रेलवे स्टेशन के अंदर घुसने से पहले उन की बात याद आ गई ...महाराष्ट्र टाइम्स की एक कापी खरीद ली...सारे पन्ने उलटे ...थोड़ा बहुत समझ में आ भी गया....क्योंकि सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ी थी ...यह भी उन का ही मराठी पेपर है ...और विशेष तौर पर मैं मराठी नाटकों वाला पन्ना देख कर सच में दंग रह गया....


उस दिन जो साथी मराठी नाटकों के संसार की बातें कर रहे थे उन्होंने कहा कि ये जितने भी नाटकों  के विज्ञापन आप देख रहे हैं ये सब हाउस फुल होते हैं.....अगर आपने कभी चलना हो तो मुझे पहले बता देना....मैंने कहा कि मैं तो म्यूज़िक कंसर्ट्स की बुकिंग बुक-मॉय-शो पर करवा लेता हूं ...यह सुविधा भी तो होगी ...कहने लगे कि है तो लेकिन पहली कुछ चार पंक्तियों की बुकिंग उस हाल में ही होती है ....उसे बुक-मॉय- शो पर नहीं किया जाता....और जिस दिन से यह शो की बुकिंग उस हाल में शुरू होनी होती है उस के बारे में अखबार से ही पता चलता है और लोग उस दिन सुबह ही उस हाल में पहुंच जाते हैं ..बुकिंग के लिए। 

मुझे उन की यह बात सुन कर अपने बचपन-जवानी के दिन याद आ गए ...जब किसी नई पिक्चर रिलीज़ होने से कुछ दिन पहले उस की एडवांस बुकिंग शुरु हो जाती थी ...और हम लोगों को अकसर उस टिकट खरीदने के लिए सिनेमा हाल के चक्कर काटने पड़ते थे ...बहुत घपलेबाजी थी तब भी ....कुछ ही टिकटें वे लोग एडवांस बुकिंग में देते थे ...नहीं तो टिकटों की काला बाज़ारी कैसे हो पाती...

खैर, अच्छा लगा कि मराठी नाटकों की लोकप्रियता के बारे में जान कर ....और लोग टिकट खर्च कर जाते हैं मराठी नाटक देखने और इतने व्यापक स्तर पर ....यह एक बहुत सुखद जानकारी थी ...वैसे तो हिंदी के भी जो नाटक होते हैं मुंबई में ...उन की भी टिकट लेनी ही होती है ....

मुंबई के बाहर मेरा अनुभव कुछ अलग रहा ....18 साल की उम्र में अमृतसर में अपने कॉलेज में ज़िंदगी का पहला नाटक देखा ..पंजाबी भाषा में .....टोबा टेक सिंह ...इस के लेखक और निर्देशक थे पंजाब के एक बहुत बड़े लेखक, नाटककार, निर्देशक ...गुरशरण सिंह जी .....उम्र के उस पड़ाव में इस नाटक ने हम सब के एहसासों को झंकृत किया ...

फिर शायद अगले तीस साल तक छुट्टी ...कहीं कोई नाटक नहीं देखा ...न ही कुछ रूचि-रूझान था इन सब में....फिर जब पचास बरस की उम्र के आस पास लखनऊ में रहने लगे तो वहां भी हिंदी नाटकों की दुनिया बहुत निराली है ....बहुत से नाट्य-गृह भी हैं...आए दिन किसी न किसी नाटक का मंचन होता ही रहता है ....नाटकों से जुड़े हुए बहुत बड़े बड़े संस्थान हैं....अधिकतर तो ये सब हिंदी भाषा में ही होते थे, और कभी कभी अवधी भाषा में भी नाटक देखने को मिल जाते थे ....

लखनऊ में जो सात-आठ साल रहे वहां पर बहुत से नाटक देखने को मिले ...नाटकों में काम करने वाले कलाकारों को देखने और उन को अलग अलग प्रोग्रामों में सुनने का मौका मिला ....वहां यह भी जाना कि मुंबई में जो लोग हिंदी फिल्मजगत में स्थापित हैं उन में से बहुत से कलाकार लखनऊ रंग मंच द्वारा ही तैयार किए गये हैं....कलाकार ही नहीं, बॉलीवुड के बहुत से लेखक भी लखनऊ द्वारा तैयार किए गए हैं.....

लखनऊ में जितने हिंदी के नाटक देखे उन के नाम याद करना मेरे लिए बहुत मुश्किल काम है ....शायद 2013 में जब नए नए लखनऊ में गए तो वहां पर असगर वज़ाहत के नाटक - जिस लाहौर नहीं वेख्या, ओ जम्मेया ही नहीं....। यह बहुत अच्छा नाटक है, आप यू-ट्यूब पर इसे देख सकते हैं। बहुत से नाटक और भी देखे ..लेकिन वहां पर टिकट नहीं लगती थी, सब कुछ मुफ्त देखने को मिलता था ...दर्शकों के लिए तो बढ़िया है लेकिन नाटकों के लिए, नाटकों की सेहत के लिए, कलाकारों के लिए तो ठीक नहीं है ....तब भी बातें चल तो रही थीं कि नाटक देखने के लिए टिकट होनी चाहिए....

लखनऊ में रहते हुए ही नादिरा बब्बर के कुछ नाटक देखने को मिले ...जो उन्होंंने लिखे भी थे, और निर्देशन भी उन का ही था....क्या बेहतरीन नाटक लिखे थे....जूही बब्बर ने भी उन में काम किया था....मैं तो हिंदी नाटकों को देख कर दंग रह जाता था कि इतने इतने लंबे  ़डॉयलाग याद करने .....और पूरी परफेक्शन के साथ उन को निभाना ...वाह वाह .....👍

रंग मंच एक अद्भुत विधा है ...मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी के साथ साथ अपनी मातृ-भाषा में नाटक पढ़ने-देखने चाहिए...बहुत कुछ होता है इन से सीखने के लिए ....हमारे अंदर तक ये अपना प्रभाव छोड़ते हैं ....शिक्षित करते हैं.....देखने चाहिएं जब भी मौका मिले ....मराठी और हिदी के बारे में तो मैं कह सकता हूं ....इंगलिश नाटकों के बारे में मुझे कुछ इतना ज्ञान नहीं है....जिन को मैं देखने गया वह मेरी समझ से ऊपर के थे, शेक्सपियर के या गेलिलियो इत्यादि.....कुछ भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा ...और जो इंगलिश के नाटक मेरी समझ में आ जाएं, उन की देखने की मेरी कभी इच्छा हुई नहीं ..वैसे ही ....टाइम्स ऑफ इंडिया में आते हैं इन के भी विज्ञापन अकसर ...लेकिन कभी नहीं गया देखना.....शायद कभी कभी हिंदी नाटक के विज्ञापन भी मुंबई की टाइम्स आफ इंडिया में आते हैं....

मैने उन सज्जन को कहा कि इसे ज़रा पकड़िए मुझे एक फोटो खींचनी है ...

यह पोस्ट किस लिए.....सिर्फ एक सलाह देने के लिए कि अगर आप नाटक देखने नहीं जाते तो जाना चाहिए ...जिस भी भाषा में आप को पसंद हो, जाइए....और हां, नाटकों की किताबें भी पढ़िए.....और हां, किताबों से याद आया.....कल ट्रेन के जिस डिब्बे में चढ़ा उस में एक सज्जन एक किताब के पन्ने उलट पलट रहे थे ...जिज्ञासा हुई ...क्योंकि यह जो प्रजाति (मैं भी उसी एन्डेंजर्ड स्पीशिस से ही हूं)  में अखबार हाथ में लेकर चढ़ती है या अपने थैले में से कोई किताब निकाल कर पढ़ने लगती है यह भी लुप्त होने की कगार पर ही है .....और जो लिखने वाले हैं उन को तो हरेक से बात करनी होती है, बर्फ तोड़ने में कोई शर्म नहीं महसूस होती उन को ....मैंने भी उनसे ऐसे ही पूछ लिया कि क्या पढ़ रहे हैं, उस सज्जन ने बताया कि गीता प्रैस गोरखपुर की उपयोगी कहानियां पढ़ रहा हूं....कहने लगे कि मैंने तो पढ़ ली है, आप ले लीजिए, पढ़िएगा.....मैंने कहा, नहीं, आप पढ़िए....मैं भी ऐसी किताबों का संचय करता रहता हूं , पढ़ता भी हूं। फिर हम की बात गीता प्रैस गोरखपुर के बारे में होने लगीं कि किस तरह से वे सस्ते दामों पर श्रेष्ठ साहित्य उपलब्ध करवा रहे हैं....बस, दो मिनट में हमारा स्टेशन आ गया....जाते जाते बता कर गए कि प्रिंसेस स्ट्रीट पर गीता प्रैस गोरखपुर की दुकान है....मैंने भी कभी किसी ज़माने में गीता प्रैस की बीसियों किताबें खरीदी थीं, याद नहीं कितनी पढ़ी, कितनी ऐसे ही यहां वहां पड़ी अल्मारियों से झांक रही होंगी कहीं पड़ी, कितनी किताबों को तो दीमाक ही चाट गईँ....कोई बात नहीं, यह सब भी साथ साथ चलता है...

हां तो बात आज मराठी नाटकों की हो रही थी ....मराठी रंग मंच ने हमें एक से एक बेहतरीन कलाकार दिए हैं ....हिंदी सिनेजगत में ..किस किस का नाम लें, किस को ऐसे कैसे भूल जाए...इसलिए नाम किसी का भी नहीं लिख रहे हैं.....बस, इतनी गुज़ारिश है कि नाटक देखा करिए, पढ़ा करिए, अन्य भाषाएं पढ़ते हैं, अपनी मातृ-भाषा में भी लिखिए, पढ़िए, बोलिए .....और अपनी मातृ-भाषा में छपने वाले किसी अखबार को भी देखना अच्छा लगता है...ज़मीन से जुड़ी बातें और आम आदमी की खबरें उस में भी भरी पड़ी होती हैं ....वैसे मुझे मराठी में हो रही बातचीत सुनने में बड़ा मज़ा आता है ....लोगों में चल रही उस बातचीत मैं नए लफ्ज़ चुनने लगता हूं ....कुछ शब्दों के अर्थ के कयास लगा लेता हूं, कुछ के अर्थ बाद में किसी से पूछ लेता हूं ....और सब से खुशी मुझे लोगों के चेहरों को देख कर होती है जब वे अपनी मातृ-भाषा में बतिया रहे होते हैं ...

बुधवार, 13 मार्च 2024

पावडर वाले दुध दी मलाई मार गई....

आज से पचास बरस पहले जब रोटी, कपड़ा और मकान फिल्म आई तो उस का यह गीत ...महंगाई मार गई जो प्रेमनाथ पर फिल्माया गया था, हमें बहुत पसंद था, रेडियो पर बजता था, गली मोहल्ले में जब कोई जश्न या ब्याह-शादी होती तो बड़े बडे़ स्पीकरों पर बहुत से गीत बजते थे ..उनमें से यह भी बहुत बजता था...उस में एक लाइन यह भी है ..पावडर वाले दुध दी मलाई मार गई....

हमें उन दिनों पता ही नहीं था कि यह पावडर वाला दुध होता क्या है, उस के दो चार बरसों बाद जब हमारी बड़ी बहन अपनी बेटी को दूध की बोतल में पावडर घोल कर पिलाया करती थी ..लोक्टोजेन शायद ...मैंने पहली बार उस दूध वाले पावडर के दर्शन किए थे ...१५ बरस की उम्र में ....बस, मुझे यही लगता था कि यही पावडर वाला दूध है जिसे मेैं बडे़ चाव से खाता रहता था जितने दिन भी वह हमारे पास होतीं...उन्होंने कभी टोका नहीं, रोका नहीं ....अभी भी याद करता हूं तो हंसती हैं....




आज से ५०-६० बरस पहले की दूध की बात करें तो ज़ाहिर सी बात है कि मलाई का ज़िक्र होना लाज़िम है ....मुझे आज लिखने का यह ख्याल इस वक्त इसलिए आया कि मैंने अभी चाय बनाने के लिेए जैसे ही दूध का पतीला फ्रिज में से निकाला उसमें जिस मलाई के दर्शन हुए, उसे देख कर मैं डर गया...यह कोई सनसनी फैलाने वाली बात नहीं है, हो सकता है कि आज कल पैकेट का दूध इतना बढ़िया क्वालिटी का आने लगा हो कि उस एक किलो में मलाई के ऐसे अंबार लग जाते होंगे ...मुझे इस का कुछ इल्म नहीं है, बस लिख रहा हूं ....क्योंकि मैं इस तरह की मोटी मलाई के बारे में पिछले लगभग २५-३० बरसों से सोच रहा हूं ....लोगों से बात भी करता हूं लेकिन इस का राज़ नहीं जान पा रहा ......लेकिन दूध एवं दूध से बनी सभी चीज़ें मैंने कई सालों से बंद कर रखी हैं ...दूध को तो पिए शायद १० साल ही हो गए होंगे ...(यह कोई मशविरा नहीं है किसी को, ध्यान दें, यह केवल एक आपबीती है अपनी ही डॉयरी में लिखने के लिए)....चाय मुझे हरी, पीली, हर्बल, फर्बल कभी भाई नहीं, झूठी तारीफ़ होती नहीं, आखिर करें भी क्यों, लेकिन जो हिंदोस्तान की साधारण चाय है उसमें थोड़ा बहुत दूध तो जाएगा ही न ...बस, दूध से मेरा उतना ही वास्ता है....दही या रायते के दो चम्मच कईं बार किसी सब्जी के साथ मजबूरी वश लेने पड़ते  हैं.....दिली इच्छा होती है कि दूध से बनी कोई मिठाई, या देसी घी से तैयार कुछ भी न खाऊं....कोई थमा देता है तो परेशान हो जाता हूं ...क्या करूं इस का ....मजबूरी वश चख लेता हूं...लेकिन किसी पार्टी वार्टी में मूंग  के दाल के हलवे, गाजर के हलवे पर जैसे टूट पड़ता हूं ....फिर अपराध बोध से परेशान होता हूं ...इसलिए मुझे कहीं भी आना जाना भी पसंद नहीं हैं, क्योंकि उस वक्त मैं अपने खान-पान पर कंट्रोल नहीं कर पाता ...

हां, तो बात चल रही थी मलाई की .....अभी लिखते लिखते सोच रहा हूं कि इतनी मोटी मोटी मलाई का रोना रोने मैं इसलिए बैठ गया कि हम ने ५०-५५ बरस पहले मलाई को उस के सही रूप में देखा हुआ है ....बिल्कुल पतली सी मीठी मीठी मलाई को परत हुआ करती थी दूध पर ...जिसे हम लोग शक्कर के साथ खा जाते, या टोस्ट पर लगा कर खा जाते ...और वह मलाई खाने के लिए भी एक दो दिन इंतज़ार करना पड़ता था ...क्योंकि उस मीठी मलाई पर हाथ साफ करने वाले हम ही तो न थे, भाई बहन भी थे.....😂 

अब कोई इस पोस्ट को पढ़ने वाला यह कहे कि भाई मैंने मलाई का सही रूप देखा नहीं होगा....मलाई अगर तुम्हारे यहां पतली होती थी तो ज़रूर तुम लोग जहां से दूध लाते थे उन की भैंसे कमज़ोर होंगी.....इस तर्क के आगे मैं कुछ न कहूंगा...केवल नतमस्तक हो सकता हूं क्योंकि मैें तो सिर्फ और सिर्फ आंखों देखी ब्यां कर रहा हूं...

दूध लेने उन दिनों हम लोग डोलू ले कर जाते थे ...कभी पैदल कभी साईकिल पर ..साईकिल पर जाते वक्त थोड़ा ध्यान रखना पड़ता था क्योंकि साईकिल पर डोलू टांगने से वह छलक जाता था अकसर और एक हाथ में डोलू पकड़े पकड़े साईकिल चलाना कईं बार थोड़ा मुश्किल भी होता था...एक तो अचानक ब्रेक वेक लगाने का चक्कर और दूसरा छोटी छोटी कोमल उंगलियां थक जाती थीं यार 😎....

जैसे ही हम घर में दूध पहुंचाते, मां को डोलू पकड़ाते ...तो मां का कवांटिटी एवं क्वालिटी चैक शुरु हो जाता ....मां कहती कि ये लोग नहीं सुधरेंगे ...आज भी इतनी झाग डाल दी....मां कहती कि उस को कहा करो कि दूध मापने से पहले झाग तो मार लिया करे....हम सुन लेते लेकिन दूध वाले को कुछ नहीं कहते ...क्या करें हम ऐसे ही थे बचपन से ही .....चुपचाप, सहने वाले ...

अच्छा जी दूध चढ़ गया अंगीठी पर ....और कुछ ही वक्त के बाद उस की मलाई का जायजा लिया जाता ....अगर तो मलाई मोटी होती (नहीं, बि्लकुल ऐसी नहीं जैसी आप इस फोटो में देख रहे हैं.....) सब ठीक, अगर मलाई हुई पतली तो फिर मां को लगता आज फिर डेयरी वाले ने पानी ठेला लगता है ....पहले ग्राहकों की आंख चुरा के यह काम पूरे ज़ोरों पर था ...हर रोज़ डेयरी वालों के पास दो चार ग्राहकों की यही शिकायत सुनने को मिलती कि दूध पर मलाई ही नहीं आ रही .....लोग यह तो कह नहीं पाते कि दूध पतला है, या कुछ और लफड़ा है, लेकिन इतना तो कह ही देते ....एक दो दिन डेयरी वाला सुधरा रहता और मलाई मोटी आने लगती (उतनी तो कभी नहीं जो आप ऊपर फोटो में देख रहे हैं....😁...तीसरे दिन से फिर वही पतली मलाई....पतला दूध ....फिर एक वक्त वह भी आया कि लोगों ने यह तो मान लिया कि दूध में पानी तो मिलाते ही हैं ये लोग, लेकिन पानी तो कम से कम साफ मिलाया करें....) 

मलाई वलाई भी जो उन दिनों मां के प्यारे हाथों से खा ली, खा ली.....उस के बाद तो मलाई की तरफ़ कभी देखने की इच्छा नहीं हुई....इतनी इतनी मोटी मलाईयां.....क्या होगा इन में, क्या न होगा.....डर लगता है ..लखनऊ में रहते थे तो वहां पर मक्खन खूब बिकता है दुकानों पर, खोमचों पर .....देख कर डर ही लगता रहा हमेशा कि यार, क्या बेच रहे होंगे ये मक्खन के नाम पर.....किस दूध से तैयार होता होगा यह मलाई-मक्खन ...एक आध ट्राई करने के लिए खा भी लिया होगा...

आज से ५०-६० बरस पहले जो हम लोग दूध अपने सामने गाय-भैंस से दुहलवा कर लाते थे उस मलाई की तो बात ही क्या थी, जब कभी उस का मक्खन, घी तैयार होता तो जैसे सारा घर महक जाता एक बहुत अच्छी खूशबू .......और अब जब कभी इस तरह की मोटी मलाई से मक्खन और घी तैयार होता है तो पूरे घर में बास फैल जाती है ...लेकिन फिर भी हम लोग वह घी खाते हैं ....मैं भी ले लेता हूं ...जिस तरह से शहर की एक दो १००-१५० साल पुरानी मशहूर दुकानों से खरीदी हुई मिठाई भी खा लेता हूं ....अपनी मूर्खतावश यह सोच कर कि इन का देशी घी तो ठीक ही होगा........लेकिन, नहीं, अब बहुत कम हो गया है ...अब तो एक दो दुकाने हैं ....जहां पर लड्डू और दूसरी मिठाईयों में देसी घी इस्तेमाल नहीं होता, वहीं से कभी कुछ खरीद लेते हैं ....क्या करें, ये लड्डू, इमरती की आदतें कहां छूटती हैं....

मलाई से याद आया ....जैसे आज महिलाएं नेटफ्लिक और विमेन-लिब की बातें करती हैं ....उन दिनों ऐसा कुछ न था, एक साथ बैठ कर स्वैटर बुनना, गपशप करना, अखबार-मैगज़ीन पढ़ना और उस में से स्वैटर के नए नमूने ढूंढना.....और अपने घर में आने वाले दूध की गुणवत्ता की बातें करना ....यही कुछ था हमारी माताओं और बड़ी बहनों की ज़िंदगी में ....और दूध की गुणवत्ता का एक ही पैमाना....मलाई की मोटाई .....😎😂 और उस से तैयार होने वाले देशी घी की मात्रा....

मज़े तो तब मक्खन के भी थे.....बॉसी रोटी के ऊपर लगा कर ऊपर से गुड़ की शक्कर उस पर उंडेल कर मज़ा आ जाता था....और आलू के परांठे पर, दाल में वह मक्खन डालते ही तुरंत महक छोड़ कर गायब हो जाता था ...लेकिन एक बात तो फिर भी है कि उन दिनों भी गाय भैंस को पसमाने के लिए (उसे दूध देने के लिए तैयार करने के लिए) अक्सर बछड़े को उस का स्तनपान करने के लिए छोड़ना कम तो हो गया ...और लोग उसे पसमाने की बजाए उसे ऑक्सीटोसिन का टीका ठोंकने लगे थे....अजीब तो लगता था, लेकिन हमें कुछ समझ नहीं थी, लेकिन जब मां के साथ होते तो मां भी और कुछ लोग और भी टोक ही देते उस टीका लगाने वाले को कि यह मत किया करो........लेकिन उन का अपना तर्क था कि यह ...और वह .....। खैर, उस टीके पर अपना कंट्रोल नहीं था, बहुत अरसा बाद हमें पता चला पढ़ाई लिखाई करने के बाद कि इस ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन का मतलब क्या है, क्या नुकसान हैं....एक ही सूई से सभी गाय -भैंसो को टीका लगाते रहते थे ....और टीका लगाना तो गलत लफ्ज है, वे तो सिरिंज को दूध से ला कर जैसे गाय भैंस को टीका ठोक देते थे ....मोटी सी स्टील की सूई ....मुझे तो कईं बार डर भी लगता कि कहीं सूईं टूट गई तो ...वैसे भी जानवर को उस टीके की ठुकाई से कितना दर्द होता होगा....हम सोच सकते हैं ...

आज की मलाईदार बातें यही खत्म ....मुझे तैयार हो कर काम पर निकलना है ...देर हो जाएगी...लिखने का क्या है, बातें याद आती जाएंगी और लिखते चले जाएंगे. वैसे यह बात तो पक्की है कि हमारे वक्त की मलाईयां हमें लुभाती थीं, अब डराती हैं....वैसे अगर कहीं शुद्ध भी मिल जाए तो डाकटर लोग ही डरा देंगे ....इस पोस्ट को बंद करते ख्याल आया कि जब भी मक्खन मलाई की बातें करते हैं तो वह माखनचोर, यशोदा का नंदलाला का याद न आए, ऐसा कैसे हो सकता है....तो फिर इसे सुनिए.....यशोदा का नंद लाला    और इसे भी ज़रूर सुनिए ... बडा़ नटखट है ...

(Disclaimer- Obviously, these are my personal views in my blog, may be some problem with the brand that we use....may be! --- everyone is free to explore his own truth and act as per his/her doctor's advice while making decisions about their diet) 

शनिवार, 2 मार्च 2024

पनीर के बारे में हम पहले ही से थे फ़िक्रमंद

इसी फ़िक्र के चलते ही हम ने पिछले 20-25 बरसों से बाज़ार से कभी पनीर खरीदा नहीं ....2002 के आसपास की बात है हम लोग जहां रहते थे वहां दूध-दही की नदियां बहा करती थीं किस्सों में ....इसलिए हम भी वहां पहुंचते पनीर, और मिठाईयों (विशेषकर बर्फी, छैना ...) पर टूट पड़े ...फिर नकली दूध, नकली और मिलावटी पनीर, नकली दूध से बनी मिठाईयों की खबरों ने ऐसा हिला कर रख दिया कि यह सब खाना बहुत कम हो गया....और पनीर तो बाज़ार से खरीदना बंद ही हो गया...लेकिन सोचने वाली बात है कि घर में जो पनीर बनेगा वह भी दूध तो उसी से बनेगा जो बाज़ार में मिल रहा है ....अब घर में कभी एक दो अच्छी ब्रांडेड कंपनियों के पनीर के पैकेट दिख जाते हैं...(सोचने वाली बात यह है कि जिस फूड-चेन के प्रोडक्ट्स में एनॉलॉग पनीर की बात पिछले दिनों हम लोगों ने पढ़ी-देखीं, वे भी तो अच्छी ही हैं....बुरा कुछ भी तो नहीं यहां 😂

बातें ऐसी सिर दुखाने वाली हैं सच में ....लेकिन अपने अनुभव लिख देने चाहिए, शायद किसी को कोई रास्ता दिखे या हमारे रास्ते में जो गलतियां हैं कोई हमें उस के बारे में ही बता दे, लेकिन अगर लिखेंगे नहीं तो बात कैसे बनेगी....बचपन से पनीर बहुत पसंद रहा है, इस के पकोड़े, इस की भुर्जी और आलू-मनीर और मटर पनीर की सब्जी जिस के लिए पहले पनीर को अच्छे से फ्रॉई किया जाता था पहले....ज़िंदगी की उस अवस्था में किसी फ़ुर्सत होती है यह देखने की जो वह खा रहा है, वह क्या है ....बस स्वाद ही सर्वोपरि होता है ....लेकिन जैसे ही कुछ 20-25 बरसों से इस नकली और मिलावटी पनीर की खबरें पढ़ीं तो बस बाहर से पनीर खरीदना लगभग बंद ही हो गया....

हां, लिखते लिखते याद आ रहा है यह कोई 20 साल पहले की बात है ...वही दूध-दही की नदियों वाले इलाकों की ....जब अखबारों में यह आने लगा कि पनीर बनाने के लिए जो दूध फाड़ते हैं डेयरी वाले उसमें किसी एसिड का इस्तेमाल किया जाता है ....मुझे याद है कि मां की टिप्पणी यह होती थी कि अब अगर वे दूध के फाड़ने के लिए नींबू का इस्तेमाल करने लगें तो हो चुका उन का धंधा......लेकिन फिर भी ये सब पढ़ कर बाहर के पनीर से बेरुखी सी हो गई ....यहां तक कि किसी भी ब्याह-शादी-पार्टी में पनीर खाना बंद दिया...

बाहर से पनीर खरीदना ही नहींं, कहीं भी बाहर ---किसी पार्टी में, किसी शादी-ब्याह में, बड़े से बड़े रेस्ट्रां में खाते वक्त भी पनीर कभी चखते तक नहीं, कभी उस पीली दाल के साथ मजबूरी वश एक दो चम्मच शाही पनीर की ग्रेवी लेनी पड़ जाती है ....यही कारण है मुझे कहीं भी खाने वाने के लिए बाहर जाना पसंद नहीं है ...दारू पीनी नहीं, नॉन-वेज भी नहीं, पनीर भी नहीं, कोई मिल्क प्रोडक्ट भी नहीं तो फिर बाहर खाने जाना ही क्यों है.....(हां, जो बात आप के मन में आ रही है वह मैं भी सोचता हूं कि फिर जी ही क्यों रहे हैं ...😎...यह जीना भी कोई जीना है लल्लू)....दाल-रोटी में तो न तो दाल अपने स्वाद की मिलती है और रोटियां भी कच्ची पक्की ....बाहर कभी खाना मेरे लिए किसी सज़ा भुगतने जैसा है ....वही जाता हूं जहां जाने से बचा नहीं जा सकता....😎....खाने पीने के बारे में और भी बता दूं कि शायद दस साल तो कम से कम हो गए होंगे दूध नहीं पीता हूं, दही भी एक दो चम्मच मजबूरी में कभी लेने पड़ते हैं ....लेकिन यह जो मैं ब्लॉग में लिख रहा हूं यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, इस को फॉलो मत करिए, पढ़ने वाले अपनी सेहत के खुद जिम्मेदार हैं ....मेरी लिखी हुई बातों के भरोसे मत रहिए....लेखकों का काम कईं बार इशारे इशारे में अपनी बात कहनी होती है .....अपनी सेहत, अपने खान-पान के सभी फैसले खुद और अपने चिकित्सक की सलाह के मुताबिक करिए.....जहां तक मेरी बात है, मैं भी वही करता हूं जो मुझे मुनासिब जान पड़ता है, सदियों से चली आ रही खाने-पीने की धारणाओं के बहाव के विरूद्ध चलना मुश्किल होता है ....लेकिन हर इंसान के फ़ैसले अपने होते हैं ....होने भी चाहिए...क्योंकि सही गलत के लिए वह खुद जिम्मेदार होता है ...

कुछ दिन पहले उस बड़ी सी फूड-चेन में अनॉलॉग पनीर के बारे में चिंता हुई ....मैं तो वहां से एक बर्गर के अलावा कभी कुछ खाता नहीं था (वह भी साल में एक दो बार) .....लेकिन जिस तरह से आज के जवान पनीर के दीवाने हैं, बड़े ब्रांड के पनीर वाले बडे़ पकवानों के दीवाने हैं, यह चिंता का विषय़ तो है ही ...

यही साहसी पत्रकारिता है ...मुंबई वासी क्यों टाइम्स ऑफ इंडिया के दीवाने हैं, यह तो इसे पढ़ने वाले ही जानते हैं ...किसी भी तस्वीर के सभी रूख दिखाने में अव्वल है टॉइम्स, इस का पाठक कभी भी ठगा हुआ सा महसूस नहीं करता ...(टाइम्स आफ इंडिया की रिपोर्ट ...दिनांक 1 मार्च 2024) 

 इस विषय़ पर मेरा कुछ लिखने का मन तो नहीं था, क्या हर वक्त अपनी ही हांकते रहें, लेकिन जब से उस फूड-चेन की इस तरह की खबरें पढ़ी थीं, मन में बड़ी उथल-पुथल सी मची हुई है.....आज सुबह जल्दी उठ गया....पहले तो सत्यजीत रे की कहानी Fritz पढ़ी, नेट पर नहीं, किताब में .....मुझे उन को पढ़ना अच्छा लगता है, फिर सामने कल की अखबार पर नज़र पड़ गई ....कल पढ़ी तो थी, कैसे छूट गया इस रिपोर्ट को पढ़ना.....हैरानी भी हुई ...इसे आराम से पढ़ा और फिऱ अपनी बात लिखने बैठ गया.....😂

मिलावट वैसे तो हमारे बचपन के दिनों से ही खाने-पीने की चीज़ों मे शुरू हो चुकी थी .....लेकिन इस का पता हमें रोटी-कपड़ा-मकान के इस गीत से ही चला था ....पावडर वाले दूध की मलाई मार गई ....(यह फिल्म छठी सातवीं जमात के दिनों में अमृतसर में देखी थी)  फिर भी लगता है मिलावट आटे मे नमक के बराबर रही होगी उस दौर में ....अब तो दाल में कंकड़ ही कंकड़ हैं....ऐसे लगता है, हर चीज़ खाते वक्त सोच विचार करना पड़ता है ....