शनिवार, 27 जून 2009

स्लम-ड़ॉग मिलिनेयर के सवाल

स्लम-डॉग मिलिनेयर ने अब तक शायद सब लोगों ने देख ही ली होगी --फिल्म में वे प्रश्न चर्चा में रहे जिन का जवाब स्लम-डॉग मिलिनेयर का एक अभिनेता अपने जीवन की वास्तविक परिस्थितियों ( real-life situations) से ढूंढ लेता है।

मेरे को ध्यान आ रहा है कि हम सब के साथ भी ज़िंदगी की कुछ ऐसी पुरानी यादें जुड़ी होती हैं जो किसी भी स्थिति में हमारी निर्णय लेने की, हमारी प्रतिक्रिया को बहुत ज़्यादा प्रभावित करती हैं। हम कितना भी बैलेंस्ड होने का ढोंग कर लें, लेकिन अकसर कुछ पुरानी यादें, कुछ पुरानी घटनायें, किसी का यूं ही कुछ कह दिया जाना, किसी से बातचीत करते हुये उस के हाव-भाव ------दरअसल बात यह है कि ये सब यादें हम लोग किसी से भी साझी भी नहीं करते हैं लेकिन सारी उम्र वे हमारे निर्णयों को बहुत प्रभावित करती रहती हैं। शायद इसीलिये कहते होंगे कि अच्छे लोगों की संगति में उठना बैठना चाहिये --क्योंकि सत्संगी लोग केवल प्रेरणात्मक बातें ही करेंगे ( कम से कम सत्संग के दौरान !!)

अब इन यादों का जो प्रभाव है वह अच्छे के लिये होता है या बुरे के लिये , इस के ऊपर सार्वजनिक तौर पर कोई टिप्पणी कर पाना बहुत कठिन है। जब भी कोई सिचुऐशन को फेस करते हैं तो उसी समय गूगल-ईमेजज़ की तरह हमारे दिलो-दिमाग में स्टोरड कुछ पुरानी यादों की तस्वीरों हमारे सामने आ जाती हैं और हम उस तसवीर के प्रभाव में ही कभी कभी कोई निर्णय ले लेते हैं।

और हमारे जीवन को कंट्रोल करने वाली इन चंद यादों का स्पैक्ट्रम इतना लंबा-चौड़ा है कि क्या कहें ----यह किसी दशकों पुरानी फिल्म का कोई सीन या डॉयलाग भी हो सकता है जो हम ने दूसरी कक्षा में देखी थी या यह आप के किसी अपने को किसी दूसरे ने जो शब्द कहे वह भी हो सकते हैं। और मज़े की बात यह है कि इस सारी कायनात में किसी दूसरे इंसान को रती भर भी यह अंदेशा नहीं होता कि हमारे फैसलों का रिमोट किन यादों के द्वारा कंट्रोल किया जा रहा है।
दिल दरिया समुंदरों डूंघे,
कौन दिलां दीयां जाने , कौना दिलां दीयां जाने !!

यह हम सब के साथ होता है ---- कोई मानता है , कोई नहीं मानता है। इस गाने में पता नहीं यह क्यों गया है ---बातें भूल जाती हैं, यादें याद आती हैं। क्या सचमुच बातें भूल जाती हैं ?

रविवार, 21 जून 2009

आज की बात - 21 जून 2009

सपने --- सपने वो नहीं जो हम लोग सोते में देखते हैं, सपना तो दरअसल वह है जो हमारी नींद ही चुरा ले।
Dream is not what you see in sleep but it is what which does not let you sleep.

दैनिक निर्णय
हर दिन हम सब लोगों को एक ना एक फैसला करना होता है ---- यह फैसला हमारे खुद के लिये ही होता है कि क्या हम कुछ देना चाह रहे हैं या लेना चाह रहे हैं, क्या किसी से प्रेम करना है या प्रेम को सिरे से नकार देना है, क्या शांति-दूत बनना है या बिना वजह के झगड़ों में पड़ना है, और यही हर दिन लिया गया एक निर्णय होता है जो कि हमारी सारी अगली ज़िंदगी की रूप-रेखा तय करता है।
The Daily Decision
Each day there's a decision
That each of us has to make,
For each us us needs to decide for ourselves,
Whether to give or to take,
Whether to love or reject love,
Whether to bring Peace or strife,
And that is the Daily Decision,
that reflects the whole rest of our life.

एक बात जो मुझे The Hindu में एक filler के रूप में नज़र आई थी और जो मेरी स्क्रैप-बुक में चिपकी हुई है, वह यह है ---- काश मैं इस का मतलब समझ पाऊ!
हम तैराकी कैसे सीखते हैं ? हम गल्तियां करनी शुरू करते हैं, हम गल्तियां करने से सीखने की शुरूआत करते हैं, हम यही कुछ करते हैं ना ? और इस का नतीजा क्या निकलता है ? फिर हम लोग दूसरी गल्तियां करने लगते हैं, और यह सिलसिला तब तलक जारी रहता है जब तक हम लोग वे सारी गल्तियां कर डालते हैं जितनी कि बिना पानी में डूबे हुये कर पाना संभव है। और मज़े की बात तो यह कि कुछ गल्तियों को तो हम बार-बार दोहराते हैं। और देखिये इस का क्या नतीजा निकलता है ? अचानक हम तैराकी सीख कर उस का मज़ा लूटने लगते हैं।
ज़िंदगी भी तैराकी सीखने जैसी ही है। गल्तियों करने से हमें ज़रा भी डरने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि जीने की कला सीख पाने के लिये इस के अलावा कोई रास्ती ही नहीं है।
What do you first do when you learn to swim? You make mistakes, do you not? And what happens? You make other mistakes, and when you have made all the mistakes you possible can without drowning- and some of them many times over - what do you find? That you can swim ? Well -- life is just the same as learning to swim ! Do not be afraid of making mistakes, for there is no other way of learning how ot live !
---Alfred Adler.

ओह यार, मैं भी यह किस प्रवचनबाजी में पढ़ गया सुबह सुबह ---यह धंधा तो केबल टीवी पर ताबड़तोड़ पहले ही से चल रहा है। मेरा तो मन हो रहा है इस समय मैं यू-ट्यूब पर जा कर अपना एक बहुत ही ज़्यादा पसंदीदा गाना सुनूं और इस ऐतवार की एक बहुत बढ़िया शुरूआत करूं ....
पल्ले विच अग दे अंगारे नहीं लुकदे,
इश्क ते मुश्क छुपाये नहीं छुपदे,
फिर भी यह राज़ जान जाती है दुनिया,
होठों पे लगा ले चाहे ताले कोई चुप दे,
हो ---बूटा पत्थरां ते उगदा प्यार दा !!


वाह भई वाह, क्या गीत है, क्या लिरिक्स हैं, क्या पिक्चराईज़ेशन है, क्या संगीत है, मुझे तो मज़ा आ गया ---इसे मैं अनगिनत बार सुन चुका हूं।

बुधवार, 17 जून 2009

अहसास

इस समय मेरे पास मेरी स्क्रैप-बुक पड़ी है ---बहुत बड़ी है, पिछले पांच साल से इस में मन की बातें लिख कर हल्का हो लेता हूं। इस में बहुत सी बातें हैं जिन्हें मैं जीते-जी तो शेयर करने से रहा, लेकिन कुछ बातें हैं जो मुझे बहुत बढ़िया लगती हैं, और जिन्हें कभी कभी ज़रूर देखता हूं। मुझे खुद पता नहीं इस में मैंने क्या क्या लिख छोड़ा है, किसी अखबार में कुछ बढ़िया लगा वह लिख लिया, किसी भी जगह से कुछ भी ऐसा दिखे जो कुछ सोचने पर मजबूर करे, सब कुछ इस में डाल रखा है।
आज एक काम करता हूं--सब से पहले उस स्क्रैप-बुक के पहले पन्ने पर लिखी एक बात यहां लिखता हूं। दरअसल आप सब लोग साहित्यकार हो, आप साहित्यकारों के नामों से भली-भांति परिचित हैं, लेकिन क्षमा कीजिये मुझे इस का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं है।

प्रायोजित लेखन के बारे में कुछ कहता हूं --- लेखक किसी के कहने पर कुछ लिखे इसे मैं द्वितीय श्रेणी का लेखन मानता हूं। वह अपने मन से जो कुछ लिखता है, जिसे लिखे बिना नहीं रह पाता, जिसे लिखकर वह कुछ राहत और छुटकारा अनुभव करता है वही वास्तव में प्रथम कोटि का लेखन, ईमानदार लेखन होता है। अब यह ईमानदार लेखन कैसा, किसी श्रेणी का है,यह लेखक की क्षमता पर निर्भर करता है।
श्यामसुंदर घोष, व्यंग्य विमर्श ....संवेद (वाराणसी) vol1 No.2.


इन बंद कमरों में मेरी सांस घुटी जाती है,
खिड़कियां खोलता हूं तो ज़हरीली हवा आती है।


लौट कर क्यूं नहीं आते, कहां जाते हैं,
रोक कर वक्त के लम्हों को ये पूछा जाए।

विवाह के लिये एक विज्ञापन जो एक अखबार में दिखा ---
Wanted Engineer Bride for well placed software engineer 32/180 from decent religious vaishvanate family.
यह विज्ञापन देख कर ऐसा लगा था जैसे कि एक डिग्री की दूसरी डिग्री से शादी हो रही है।

क्रेडिट कार्ड को एटीएम में इस्तेमाल कर मैं कैसे बन गया पप्पू !!

चुनाव में जा कर भाग लेने या ना लेने पर लोग बन गये पप्पू, लेकिन यह पढ़ा लिखा नाचीज़ बंदा तो क्रेडिट कार्ड को एटीएम पर इस्तेमाल करने की हिमाकत कर के कैसे बन गया पप्पू---आज अपने चिट्ठाकार बंधुओं से यह साझा करना चाह रहा हूं। इस का उद्देश्य केवल इतना है कि मेरे जैसी दूसरी भी शायद कईं आत्मायें इस हिंदी चिट्ठाकारों के झुंड में न छुपी बैठी हों और उन्हें पप्पू बनने से रोकने के लिये यह सब कुछ बेझिझक होकर लिखने की हिमाकत कर रहा हूं।
इस से पहले की मैं यह आपबीती लिखनी शुरू करूं अंग्रेज़ी की एक मशहूर कहावत का ध्यान आ रहा है ---- Experience is a great teacher ---- it does not give lessons, it gives TUITION !!

हुआ यूं कि कुछ अरसा पहले किसी लेखकों की बैठक में दिल्ली जाना था --- ( एक तो कमबख्त यह शौक बार बार जा कर लेखकों में जा कर घुसने का पता नहीं पिछले दस सालों से क्यों पाल रखा है और इस पर इतना पैसा खराब कर चुका हूं कि कभी इस से संबंधित अपने अनुभव आप को बताने लग गया ना तो इन में छिपा दर्द महसूस कर के आप का तो रूमाल भीग जायेगा ----यह मेरा विश्वास है)।

हां, तो उस लेखकों की वर्कशाप में जाने के लिये उन्होंने फीस ऑन-लाइन मांगी थी -- इसलिये बेटे ( जो कि कंप्यूटर इंजीनियरिंग तो कर रहा है, लेकिन अपने संसार में ज़्यादा खोया रहता है ---- और उस के बारे में वह लाइन याद आ रहा है ---कि वक्त आने पे बता देंगे कि क्या हमारे दिल में है !! ) के साथ बैठ कर एक रात को बहुत माथा-पच्ची करी कि पे-पाल का एकाउंट बन जाये--- लेकिन उस साइट पर खूब धक्के खाने के बाद यही पता चला कि बिना कोई सा भी क्रैडिट कार्ड लिये बिना यह संभव नहीं है।

चूंकि मैं बैंक का एक डैबिट कार्ड कुछ दिन पहले ही गुम कर चुका था , इसलिये नया अप्लाई करना ही था, सोचा कि लगे हाथ क्रैडिट कार्ड के लिये भी आवेदन कर ही दूं। उस बैंक के क्रेडिट कार्ड के लिये इतनी सारी फारमैलिटीज़ थीं कि रह रह कर ध्यान आ रहा था कि छोड़ यार क्या फायदा इस पंगे में पड़ने का। शायद उस पता वैरीफाई करने वाले को मेरी बातचीत इतनी इम्प्रैसिव न लगी कि वह मेरी सैलरी के बारे में मेरे से बार बार पूछ रहा था और पक्का प्रूफ़ भी चाहिये था। इसलिये पहले यह सब कुछ उसी बैंक से कोई फोन से भी पूछ चुका था ---इसलिये मैं इरीटेट तो हुआ ही हुआ था, मैंने उस बंदे से इतना भी कहा कि यार, मुझे नहीं चाहिये, कोई क्रैडिट कार्ड, प्लीज़ मेरे आवेदन को कैंसिल कर दें।

खैर, लोगों के घर घर जा कर बेचने वाले ये लोग कैसे यह बात मान लें ? फ्रैंकली स्पीकिंग उस समय तो मैं इन के प्रश्नों की बौछार से इतना चिढ़ चुका था कि अगर वह मुझे मेरा फार्म वापिस लौटा देता तो मैं इस चक्कर में पड़ता ही ना।

अच्छा, तो पहले उस लेखकों वाली बैठक की भी एक क्लास ले लें ---हां, तो उन दुकानदारों की यह शर्त थी कि आनलाईन अगर वर्कशाप की फीस अदा कर देते हैं तो ठीक है, वरना ऑन-दा-स्पाट पेमेंट डबल ली जायेगी। तो, साहब, मैं भी पहुंच गया उस वर्कशाप में शिरकत करने के लिये --- यही सोच कर कि लिखने का क्या है, यूं ही लिख दिया होगा डराने के लिये --लेकिन मैं वहां पहुंच कर बहुत चौंका कि उन्होंने मेरे से डबल-रेट ही चार्ज किया। इन वर्कशापों में जाकर यही सीखा है कि यह भी दूसरी दुकानों की तरह दुकानदारियां सी ही हो गई हैं। इसलिये इन पर जा जा कर इतना ऊब चुका हूं कि अब इन से तौबा कर ली है।

लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि अपने अनुभव लोगों के साथ साझे नहीं करूंगा ----वह तो ज़रूर करता ही रहूंगा और भविष्य में ( मुझे खुद भी पता नहीं कब !!) यह सब अंधाधुंध बेबाकी से करने की इतनी चाह ज़्यादा चाह रखता हूं जितना मेरा छोटा बेटा बीस रूपये के कुरकुरे के पैकेट की चाह रखता है। ( जितने चटकारे ले कर वह उस के एक एक पीस को खाता है और दाल-रोटी-सब्जी खाते हुये उस के माथे के बल ऐसे लगते हैं जैसे कि ये लाइनें स्थायी ही हैं, मुझे खूब पता है कि आने वाले समय में उस के इन चेहरे की सिलवटों की वजह से क्या परेशानी होने वाली है, लेकिन अपने को तो बस छोटा सा सुकून है कि मैंने उसे किसी भी तरह का जंक-फूड बहुत ही कम बार खरीद कर दिया है---- शायद छःमहीने या एक साल में एक-आधा पैकेट लेकर दे भी दिया तो इस की क्या बात है !!

अच्छा, तो बच्चे के तरह तरह के पैकेट खाने के शौक से ध्यान आया कि इस क्रेडिट कार्ड को एटीएम पर इस्तेमाल मैंने कैसे किया । मैं बेटे के साथ जा रहा था ---क्रेडिट कार्ड आ गया, बाद में उस का पासवर्ड भी आ गया ( जिस जद्दोज़हद से वह आया, वह एक अलग स्टोरी है) ---यह सब दो एक महीने पहले की ही बात है। मैंने कभी इस को इस्तेमाल तो पहले किया नहीं था।

हां, तो बच्चों की तरफ़ से तरह तरह के पंप इस्तेमाल करने शुरू किये गये कि पापा, चलो आज उस फलां फलां रेस्टतां में चलते हैं, वे क्रैडिट कार्ड से पेमैंट लेते हैं। लेकिन उन का यह सुझाव घर में सभी को मंजूर न था क्योंकि आज तक मुझे नहीं याद कि कभी भी हम लोग किसी रेस्टरां में गये हों और फिर आग बबूला हो कर बाहर यह कहते ना बाहर निकले हों कि आगे से स्नैक्स ही ठीक हैं, ऐसा इसलिये है कि ऊपर वाले के आशीर्वाद से हमारे घर का खाना( बिल्कुल आप के घर के खाने की ही तरह !!) विश्व में सर्वोत्तम है ( थोड़ा सा झूठ बोलने के लिये क्षमा-प्रार्थी हूं ---मैं अपने जबरदस्त पसंदीदा ---अमृतसर के केसर के ढाबे को कैसे भूल गया !!) ---बाहर के खाने में तो मुझे वह सब से बढ़िया लगता था, लगता है और शायद लगता रहेगा। वरना, दूसरे जितने भी रेस्टरां वगैरा में जा कर खाया है तो आधे परिवार के सदस्यों की तबीयत तो घर आने तक खराब हो जाती है और आधे लोगों के मिजाज सुबह खराब हुये मिलते हैं कि तौबा, इतनी मिर्ची !!!!!!

हां, तो सोचा कि इस क्रैडिट कार्ड को किसी अन्य जगह पर इस्तेमाल करने से पहले इसे किसी बैंक के एटीएम पर इस्तेमाल कर के देख लूं कि यह चलता भी है कि नहीं। छोटे बेटे के साथ जा रहा था कि उस ने इशारा किया कि पापा, इधर चैक कर लो, ऐसी जगहों पर मेरे साथ उस के घुसने की फीस है ---एक सौ रूपया। वाह, मेरा क्रैडिट कार्ड तो चल रहा है, उस दिन यह जानने की खुशी इतनी थी कि बेटे द्वारा एक सो रूपये की चपत का लगना भी ज़रा महसून न हुआ।

लेकिन, अपनी बुद्दि भी तो वही है ना खोजी पत्रकार वाली। इतने हफ्तों से यह सोचे जा रहा था कि यह बात समझ में आ नहीं रही कि क्रैडिट कार्ड से भी एटीएम से पैसे निकलवा लो और डैबिट कार्ड से भी । इतने हफ्ते तक मन में यही सोचे जा रहा था कि जब यह काम क्रैडिट कार्ड के इस्तेमाल से ही संभव है तो क्या लिया मैंने नया डैबिट कार्ड। लेकिन मुझे इस का जवाब मिलने का समय नहीं था और ऊपर वाले का शुक्र है कि मैंने इन पिछले हफ्तों में दोबारा इस का इस्तेमाल एटीएम पर नहीं कर दिया।

इस का जवाब मुझे मिला परसों, लेकिन मैं इसे समझ नहीं पाया ---- चूंकि एसएमएस था कि आप के ई-मेल पर आप की क्रेडिट कार्ड स्टेटमैंट भेज दी गई है, आप भुगतान कर सकते हैं। तो मैंने रात को जब ई-मेल खोली तो लिखा था कि आप ने चार सौ उन्चालीस रूपये और तेरह पैसे भरने हैं -----यह सब समझ में नहीं आ रहा था कि यह कमबख्त तीन सौ रूपये और चालीस रूपये के तरह तरह के टैक्स किस लिये जोड़ दिये हैं। बेटा कहने लगा कि टाटा-स्काई की री-चार्ज किया था ना ---फिर ध्यान आया कि वह तो नैट-बैंकिंग के ज़रिये किया था, फिर यह तीस सौ चालीस रूपये का फटका क्यों ? लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था ।

बहरहाल, ध्यान आया कि बैंक वालों ने क्रेडिट कार्ड के साथ कुछ पैंफलेट भेजे थे --जब उन को पढ़ना शुरू किया तो अच्छी तरह से समझ आ गया कि क्रैडिट कार्ड को इस्तेमाल करते हुये रकम चाहे जितनी भी निकालें,यह तीन सौ रूपये की करारी चपत तो सहनी ही पड़ेगी। इस एटीएम विद्ड्रायल नहीं कहते, इस के लिये और भी पालिश्ड टर्म है ---कैश एडवांस। और जब यह बंदा क्रैडिट कार्ड के साथ भेजी उन शर्तों को पढ़ रहा था तो उन में एक शर्त यह भी थी ---

Cash Advance Feees ---
The cardmember can use the card to access cash in an emergency from ATMS in India or abroad. A transaction fee of 2.5%( Minimun Rs.300)would be levied on the amount withdrawn and would be billed to the cardmember in the next statement.

तो फिर कल रात को सोने से पहले ये 439 रूपये 13 पैसे नेटबैंकिग को इस्तेमाल कर के उन को लौटा कर ----मेरे द्वारा निकलवाये गये 100 रूपये पर चार-सौ गुणा दंड देने के बाद ( जब तक इस को पंजाबी में नहीं लिखूंगा, ठंड नहीं पैनी ----उन्नां दे पैसे उन्नां दे मत्थे मार के मैं मुंडे नूं जफ्फी पा के सोन दी कीती !!) ----थोड़ा डिप्रैस सा हो कर सो गया लेकिन प्यारे से बेटे की प्यार की झप्पी ने इस गम को कहां छू-मंतर कर दिया , पता ही नहीं चला। बिल्कुल थोड़ा सा डिप्रैस इसलिये हुआ कि मैं तो गलत तरीके से कोई भी पैसा अपने पास आने ही नहीं होने नहीं देता लेकिन फिर अपने को क्यों ऐसे इतने महंगे महंगे फटके लगते हैं। फिर ध्यान आया कि शायद कुछ सबक सिखाने के लिये। और सोते सोते बच्चों को भी इस के बारे में भी बता दिया ताकि वे भी भविष्य में कभी पप्पू न बनें।

सोच रहा हूं यह हुआ क्यों ? --इस का कारण है ओव्हर-कान्फीडैंस( थोडा़ थोड़ा ध्यान आया कि क्यों बसअड़्डे पर खड़ी एक बूढ़ी मां (जिसे मेरे जैसा पढ़ा लिखा तबका अनपढ़ कहने की हिमाकत करता है) बार बार मेरे जैसे कईं सो-काल्ड पढ़े-लिखों से यह पूछ कर ही बस में चढ़ती है कि यह बस क्या बराड़े जायेगी) --- क्योंकि पहले ये पैम्फलैट जो बैंक वाले भेजते हैं इन्हें हम लोग कहां ढंग से देखते हैं, हमें तो यह कुछ पता ही है और शायद यह भी एक भावना रहती है कि यार, जो कुछ भी इन्होंने काटना है ना, वह तो काट ही लेंगे चाहे हम ये निर्देश पड़े या नहीं। दरअसल बहुत बार होते भी ये इतने पेचीदा हैं कि इन्हें पढ़ कर सिरदर्दी मोल लेने की इच्छा ही नहीं होती। और दूसरी बात यह है कि हम कुछ ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही पढ़े लिखे लोग किसी से ऐसी कोई भी बात करने में या अपने साथियों के साथ ही यह सब डिस्कस करने में पता नहीं क्यों अपनी कमज़ोरी समझते हैं --और ठोकरे ठोकरें खा कर सीखने में ज़्यादा विश्वास रखते हैं। कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही है।

हां, तो विभिन्न कारणों की वजह से (जिस की चर्चा फिर कभी कर लेंगे), अब मैं इंगलिश ब्लागिंग पर भी ध्यान देने की सोच रहा हूं ---उस के लिये मैंने कुछ स्ट्रेटैजीज़ ( शेखचिल्लीज़) बनाई है, थोड़ा इंगलिश में एसटैबलिश होने के बाद शेयर करूंगा। मेरा इंगलिश ब्लाग भी सेहत से संबंधित मुद्दों पर ही होगा। मुझे पता है कि वह कर पाना मेरे लिये इतना सहज नहीं होगा जितना अपनी ही भाषा में लोगों के साथ तुरंत ही जुड़ जाना, लेकिन जो भी होगा, देखा जायेगा क्योंकि पिछले पूरे डेढ़ साल में हिंदी चिट्ठारी से खूब प्रेम किया है (और आगे भी यह प्रेम तो जारी ही रहेगा) लेकिन इंगलिश ज़्यादा न लिख पाने की वजह से मेरा उस भाषा का एक्सप्रैशन, मेरी इंगलिश की अभिव्यक्ति प्रभावित हो रही है, इसलिये आज तो ऐसा लगता है कि अब नेट पर हिंदी एवं इंगलिश की भागीदारी फिफ्टी-फिफ्टी कर दूंगा।

फिलहाल एक काम करता हूं ---टेबल पर पड़ी चाय ठंडी हो रही है और उस के साथ पडा रस मुझे बुला रहा है, इसलिये यह सोच कर कि मेरे जैसे और भी बहुत हैं इस दुनिया में --और अपना गम गलते करने के लिये यह गाना सुन कर दिल खुश कर लेता हूं। आप भी सुनने से पहले दोबारा से चाय की फरमाईश कर डालिये।
शुभकामनायें , आप भी कहीं पप्पू न बनें।

शनिवार, 13 जून 2009

फ्लू की महामारी अब, वैक्सीन सितंबर तक ----यह भी कोई बात है !

आज कल के अखबार पढ़ कर बहुत से लोगों के मन में यह प्रश्न अवश्य उठता होगा कि यार, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो एच1एन1फ्लू को एक महामारी घोषित कर दिया है लेकिन इस से बचाव के लिये टीका सितंबर तक आने की बातें हो रही है, कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि तब तक इस की विनाश लीला बेरोकटोक चलती रहेगी।

इस बात का उत्तर जानने के लिये कि इस के टीका सितंबर तक आने की बात क्या बार बार कही जा रही है, विभिन्न प्रकार के टीकों के बारे में थोडा़ ज्ञान होना ज़रूरी लगता है।

मोटे तौर पर वैक्सीन दो प्रकार के होते हैं --- लाइव वैक्सीन एवं किल्ड वैक्सीन --- अब देखते हैं कि क्यों इन वैक्सीन को जीवित वैक्सीन या मरा हुआ वैक्सीन कहा जाता है। यह अपने आप में बड़ा रोचक मुद्दा है जिसे हमें दूसरे साल में माइक्रोबॉयोलॉजी के विषय के अंतर्गत पढ़ाया जाता है।

तो सुनिये, सब से पहले तो यह कि इन वैक्सीन में रोग पैदा करने वाले विषाणु, कीटाणु अथवा वॉयरस ही होते हैं, यह क्या आप तो चौंक गये कि अब यह क्या नई मुसीबत है!! लेकिन इस में चौंकने की या भयभीत होने की रती भर भी बात नहीं है क्योंकि इन विषाणुओं, वॉयरस के पार्टिकल्ज़ के उस रूप को वैक्सीन में इस्तेमाल किया जाता है जिस के द्वारा वे किसी भी स्वस्थ व्यक्ति में रोग-प्रतिरोधक शक्ति तो पैदा कर दें लेकिन किसी भी हालत में रोग न पैदा कर सकें। ( हुन मैंनू ध्यान आ रिहै इस गल दा ---पंजाबी वीर चंगी तरह जानदे हन कि खस्सी कर देना ---बस समझ लओ मितरो कि एस वॉयरस नूं या जर्म नूं खस्सी ही कर दित्ता जांदा )।

Antigenicity- हां and Pathogenicity- ना, को समझ लें ? ---- ये दो परिभाषायें वैक्सीन के संदर्भ में वैज्ञानिक लोग अकसर इस्तेमाल करते हैं। पैथोजैनिसिटी से मतलब है कि कोई जीवाणु अथवा वॉयरस को उस रूप में इस्तेमाल किया जाये कि वैक्सीन के बाद यह मरीज़ में वह बीमारी तो किसी भी स्थिति में पैदा करने में सक्षम हो नहीं लेकिन इस में मौज़ूद एंटीजैन की वजह से इस की एंटीजैनिसिटी बरकरार रहे। एंटीजैनिसिटी बरकरार रहेगी तो ही यह वैक्सीन किसी व्यक्ति के शरीर में पहुंच कर उस रोग से टक्कर लेने के लिये अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता तैयार कर पाता है, मैडीकल भाषा में कहूं तो ऐंटीबाडीज़ तैयार कर पाता है। तो कोई भी वैक्सीन तैयार करने से पहले इन सब बातों का बेहद बारीकी से ख्याल रखा जाता है।

अब स्वाभाविक है कि आप सब को उत्सुकता होगी कि यह जीवित एवं मृत वैक्सीन का क्या फंडा है ---- इस के बारे में हमें केवल यह जानना ज़रूरी है कि लाइव वैक्सीन में तो जो जीवाणु अथवा वॉयरस पार्टिकल्ज़ इस्तेमाल होते हैं वे लाइव ही होते हैं, जी हां, जीवित होते हैं लेकिन बस उन्हें वैक्सीन में डाला उस रूप ( in medical term, we say it is used in an attenuated form ) में जाता है कि वे उस बीमारी से जंग करने के लिये सैनिक (ऐंटीबाडीज़) तो तैयार कर सकें लेकिन किसी भी हालत में बीमारी न पैदा कर पायें। और जहां तक डैड वैक्सीन ( इन्एक्टिव वैक्सीन)की बात है उस में तो मृत वायरस अथवा जीवाणु ही इस्तेमाल किये जाते हैं जो कि मरे होने के बावजूद भी अपनी ऐंटिजैनिसिटी थोड़ी बरकरार रखे होते हैं यानि कि किसी व्यक्ति के शरीर में पहुंचते ही ये उस के विरूद्ध ऐंटीबॉडीज़ तैयार करनी शुरू कर देते हैं। और हां, इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि हर वैक्सीन के लिये यह अवधि तय है कि वह शरीर में पहुंचने के कितने समय बाद अपना जलवा दिखाना ( ऐंटीबाडीज़ तैयार) शुरू करता है।

यही कारण है कि कईं बार हमें जब तुरंत ऐंटीबाडीज़ की आवश्यकता होती है तो हमें कोई ऐसा उपाय भी इस्तेमाल करना होता है जिस के द्वारा हमें ये ऐंटीबाडीज़ पहले से ही तैयार शरीर में पहुंचानी होती हैं ---ताकि वह समय भी नष्ट न हो जब कि कोई वैक्सीन ऐंटीबाडीज़ बनाने में अपना समय़ ले रहा है।

ऐंटीजन एवं ऐंटीबाडी की बात एक उदाहरण से और भी ढंग से समझ लेते हैं ( चाहे इस उदाहरण का वैक्सीन से कोई संबंध नहीं है ) --जब हमारी आंख में धूल का एक कण भी चला जाये तो यह तुरंत गुस्से में आ कर ( लाल हो जाती है) और आंख से पानी निकलना शुरू हो जाता है। आंख में धूल के कण को आप समझिये की यह एक ऐंटीजन है और आंख से निकल रहा पानी उस धूल-मिट्टी से आप को निजात दिलाने की कोशिश कर रहा होता है।

एक कीचड़ में छलांगे लगाते हुये नन्हें मुन्नों बच्चों का बहुत ही बढ़िया सा विज्ञापन आता है ना ----दाग अच्छे हैं ----तो हम कह सकते हैं कि वैक्सीन भी अच्छे हैं, ये अनगिनत लोगों का रोगों से प्रतिरक्षण करते हैं।

हां, तो महामारी अब घोषित हो गई और वैक्सीन सितंबर तक --- इस का जवाब यह है कि इतना सारा काम करने में समय तो लगता ही है ना ---- अब तो हम सब लोग मिल कर यही दुआ करें कि यह सितंबर तक भी आ जाये तो गनीमत समझिये। इस तरह की वैक्सीन की टैस्टिंग भी बहुत व्यापक होती है। एक बात और कि क्या न वैक्सीन को पहले ही से तैयार कर लिया गया ? ---इस का जवाब यह है कि जिस वॉयरस का पता चले ही कुछ अरसा हुआ है, तो पहले से कैसे इस के वैक्सीन को तैयार कर लिया जाता, आखिल वैक्सीन तैयार करने के लिये वॉयरस नामक का विलेन भी तो चाहिये।

अब मन में यह ध्यान आना कि ये वैक्सीन तैयार करने इतने ही आसान हैं तो एचआईव्ही का ही वैक्सीन क्यों नहीं अब तक बन पाया ----इस क्षेत्र में भी बहुत ही ज़ोरों-शोरों से काम जारी है लेकिन वहां पर समस्या यह आ रही है कि एचआईव्ही की वायरस बहुत ही जल्दी जल्दी अपना स्वरूप बदलती रहती है इसलिये जिस तरह की वायरस से बचाव के लिये कोई वैक्सीन तैयार कर उस का ट्रायल किया जाता है तब तक एचआईव्ही वॉयरस का रंग-रूप ही बदल चुका होता है जिस पर इस वैक्सीन का कोई प्रभाव ही नहीं होता। लेकिन चिकित्सा विज्ञानी भी कहां हार मान लेने वाली नसल हैं, बेचारे दिन रात इस की खोज़ में लगे हुये हैं। इन्हें भी हम सब की ढ़ेरों शुभकामनाओं की आवश्यकता है।

अभी जिस विषय पर लिखना जरूरी समझ रहा हूं ---वह है जैनेटिकली इंजीनियर्ज वैक्सीन ( genetically-engineered vaccines). इस पर बाद में कभी अवश्य चर्चा करेंगे।

आज जब मैं सुबह सुबह यह पोस्ट लिख रहा हूं तो मुझे अपनी गवर्नमैंट मैडीकल कालेज की अपनी एक बहुत ही आदरणीय प्रोफैसर साहिबा --- डा प्रेमलता वडेरा जी की बहुत याद आ रही है, उन्होंने हमें अपने लैक्चर्ज़ में इतने सहज ढंग से समझाया बुझाया कि आज पच्तीस साल भी आप तक अपनी बात उतनी ही सहजता से हिंदी में पहुंचा पाया। वह हमें नोट्स तो देती ही थीं लेकिन हम लोग भी उन्हें रोज़ाना दो-तीन बार पढ़ लेना अच्छा लगता था जिस से बेसिक फंडे बहुत अच्छी तरह से क्लियर होते रहते थे। वे अकसर मेरे पेपर का एक एक पन्ना सारी क्लास को दिखाया करती थीं कि यह होता है पेपर में लिखने का ढंग। थैंक यू, मैडम। मुझे बहुत गर्व है कि हम लोग बहुत ही सम्मानीय,समर्पित मैडीकल टीचरों की क्रॉप के प्रोड्क्ट्स है जिन्हें हम लोग आज भी अपना आदर्श मानते हैं।

और हां, जहां तक एच1एन1 स्वाईन फ्लू की बात है , इस के लिये हम सब का केवल इतना कर्तव्य है कि बेसिक सावधानियां बरतते रहें जिन के बारे में बार बार मीडिया में बताया जा रहा है, बाकी जैसी प्रभुइच्छा। अब हम लोगों के लालच ने भी ने भी प्रकृति का दोहन करने में, उस का शोषण करने में कहां कोई कसर छोड़ रखी है अब उस का समय है हमें समझाने का। शायद कबीर जी ने कहा है --कभी नांव पानी पर, कभी पानी नांव पर !!

आज एक खबर जो सुबह अंग्रेज़ी के पेपर में दिखी जिस ने तुरंत इस पोस्ट लिखने के लिये उठा दिया ---वह यह थी कि दिल्ली में एक छः साल की बच्ची को फ्लू है जो कि विदेश से आई है-- उसे क्वारैंटाइन में रखा गया है और उस के दादू ने उस के साथ स्वेच्छा से रहना स्वीकार किया है।(उस बच्ची के साथ साथ उस महान दादू के लिये भी हमारी सब की बहुत बहुत शुभकामनायें)। पता नहीं, इस तरह की अनूठी कुरबानियों के बावजूद इन बुजुर्गों की इतना दुर्दशा क्यों है, कभी किसी ने सुना कि जब किसी बूढे़-बूढ़ी को बोझ की एक गठड़ी समझ कर ओल्ड-एज होम में पटक के आया जाता है तो उन के पोते-पोतियां भी उन के साथ रहने चले गये ------ मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना !!

गुरुवार, 11 जून 2009

मेरा पिंड ( मेरा गांव मेरा देश)

कल समीर लाल जी की एक बहुत ही बेहतरीन पोस्ट पढ़ने का हैंग-ओव्हर अभी तक नहीं टूटा है। उन्होंने ने कितने सुंदर एवं भावुक शब्दों में अपने गांव की मिट्टी को याद किया--- कल शाम ऐसे ही उन का ब्लॉग फिर से लगाया तो साठ के करीब टिप्पणीयां देख कर दंग रह गया। समीर जी की पोस्ट का नशा उतरने का मेरे लिये एक कारण एक और था --- आज दोपहर मेरे बेटे ने ज़ी-पंजाबी पर एक बहुत प्रसिद्ध पंजाबी गायक साबर कोटी का एक प्रोग्राम लगाया हुआ था। उस प्रोग्राम के बारे में बताने से पहले साबर कोटी का एक गीत सुनना चाहेंगे ?

कंडे जिन्ने होन तिक्खे, फुल ओन्हा हुंदा सोहना,
साडे अपने नहीं होय, तां परायां कित्थों होना .....
( कांटे जितने नुकीले हों, फूल उतना ही सुंदर होता है,
अगर हमारे अपने ही अपने न हुये तो बेगानों से क्या शिकवा )



हां, तो उस प्रोग्राम का नाम था ---मेरा पिंड। यह ज़ी-टीवी का एक रैगुलर प्रोग्राम है जिस में यह किसी शख्सियत को उस के गांव में ले जाकर इंटरव्यू करते हैं। मैं इस प्रोग्राम का बुहत शौकीन हूं। मुझे नहीं पता कि यह किस दिन कितने बजे आता है लेकिन जब कभी ऐक्सीडैंटली बच्चे रिमोट के साथ पंगे लेते हुये इस लगा लेते हैं तो बस फिर तो मैं इस के दौरान दिखाये जाने वाले कमर्शियल्ज़ के दौरान भी उसी चैनल पर ही डटा रहता हूं।

पंजाबी गायक साबक कोटी बिल्कुल ठेठ पंजाबी में अपनी पिंड ( गांव) की यादें बहुत भावुक हो कर दर्शकों से साझी कर रहा था जिन्हें सुन कर बहुत ही अच्छा लग रहा था। मैं अकसर कहता रहता हूं कि जब कोई दिल से अपनी बात रख रहा होता है तो बस फिर तो बात ही निराली होती है।

मुझे अपनी मां-बोली पंजाबी से बहुत ही प्यार है --- मैं इस के प्रचार-प्रसार के लिये अपने स्तर पर काम करता रहता हूं। घर में भी हम सब लोग पंजाबी में ही बात करते हैं --- मुझे बड़ा गर्व है कि मेरे बेटे भी बहुत अच्छी पंजाबी बोलते हैं। ऐसा हम लोग जान-बूझ कर करते हैं --- इस का कारण है कि दूसरी भाषायें तो आदमी विभिन्न मजबूरियों के कारण सारी उम्र सीखता ही रहता है। लेकिन अपनी मां-बोली मां के दुलार की तरह है --- शुरूआती वर्षों में इस का जितना अभ्यास कर लिया जाये वह भी कम है।

मैं प्रोग्राम देखते हुये बेटे को यही कह रहा था कि कितनी बढ़िया पंजाबी बोल रहा है कोटी --- मैंने फिर कहा कि दरअसल इस तरह के लोग जब बोलते हैं तो इन की बोली से भी इन के गांव की मिट्टी की खुशबू आती है। आज साबर कोटी को ज़ी-पंजाबी पर बोलते देख कर ऐसे लग रहा था कि भाषा कोई भी हो, बस जब तक उस की टांग न घुमाई जाये, बार बार स्लैंग का इस्तेमाल न किया जाये ---- तो फिर सब कुछ बढ़िया ही लगता है।

साबर कोटी ने हमें अपने पिंड की गलियों की सैर कराई, वह हमें उस स्कूल ले गया जहां पर उस ने पांचवी कक्षा तक पढ़ाई की थी। अपने स्कूल में जा कर वह भावुक हो रहा था ---उसे अपने उस स्कूल मास्टर की याद आ गई थी जिस ने उसे पहली पहली बार स्कूल की स्टेज पर गीत गाने का अवसर दिया था।

उस के बाद साबर हमें गांव के एक पीर की जगह पर हम सब को ले गया ---- साबर बता रहा था कि वह हर वीरवार के दिन वहां पर अपनी हाज़िरी लगवाने ज़रूर आता है -- वह कितना भी व्यस्त क्यों न हो, वहां आने के लिये समय कैसे भी निकाल लेता है।

मैंने साबर कोटी का प्रोग्राम लगभग 10-15 मिनट देखा, मुझे तो बहुत आनंद आया। मुझे इस का मलाल है कि मैं प्रोग्राम शुरू से नहीं देख पाया। आप को पता है मुझे इतना मज़ा क्यों आया --- क्योंकि जब साबर कोटी अपने गांव की गलियां हमें दिखा रहा था तो मैं भी उस के साथ अपने बचपन की गलियों की यादों में बह गया था ---मैं भी याद कर रहा था उस नीम के पेड़ को जिसे मेरी मां ने अपने हाथों से लगाया था ---किस तरह हम लोग उस की छांव में कंचे ( गोटियां) खेलते रहते थे और फिर उस डालडे के प्लास्टिक वाले डिब्बे में जमा करते रहते थे ----फिर जब उस दिन का खेल खत्म हो जाना तो उन कंचों को पानी से धोना और बढ़िया-बढ़िया और थोड़े टूटे हुये कंचों को अलग अलग करना ----इसलिये कि कल सुबह वाले सैशन में पहले खराब कंचे लेकर ही बाहर जाना है।

और उसी पेड़ के नीचे जमीन पर गुल्ली-डंडे के खेल के लिये बनाई गई एक खुत्थी (टोया, डूंग) को भी याद कर रहा था --- जब मैं साबर कोटी के गांव की नालियां देख रहा था तो मैं भी अपने घर के बाहर नाली को याद कर रहा था जिस में से कितनी बार मैंने गेंद उठाया था ---और दो-चार बार शायद एमरजैंसी में उस नाली पर बैठा भी था ----किस लिये ? --( अब वह क्यों लिखूं जिसे लिख कर मुझे शर्म आ जाती है)--- आप समझ गये ना !!

मुझे उस घर के बाहर पड़ा एक पत्थर भी याद आ जाता है जिस पर मैं अपने पापा की इंतज़ार किया करता था कि आज उन की टोकरी में क्या पडा़ मिलेगा ---- बर्फी, पेस्टरी, केले, अंगूर, भुग्गा( पंजाब की एक मशहूर मिठाई) या फिर कईं बार केवल बेइंतहा प्यार ही प्यार।

और फिर मुझे साबर कोटी का गांव घूमते घूमते अपने मोहल्ले का वह मीठे पानी का वह हैंड-पंप भी याद आ जाता है जहां से प्री-फ्रिज के दिनों में डोल में ठंडा पानी भर कर लाया करता था। कमबख्त यादें बहुत परेशान करती हैं --- लेकिन जब इन्हें बांट लो ना तो बहुत अच्छा लगता है। मैं उस छोटी सी चारपाई को भी याद कर रहा था जिस पर बैठ क मोहल्ले की महिलायें कभी खत्म न होने वाली बातों में लगी रहती थीं --- अब ये मुंह की मैल उतारने वाले मंजे नहीं दिखते।

अब लोग बहुत बड़े हो गये हैं ----शायद मैं बहुत बड़ा हो गया हूं -----लेकिन जब गहराई से टटोलता हूं तो पाता हूं कि अब भी हम तो वहीं ही हूं ---- शायद उस निश्छलता पर बहुत से कवर डाल लिये हैं ----कितने कवर किस जगह उतारने हैं बस इतना पढ़ने लिखने के बाद वही सीख पाया हूं,और ज़्यादा कुछ नहीं। क्या यही विद्या है, यही सोच रहा हूं ------पता नहीं साबर कोटी पर लिखते लिखते किधर निकल गया कि उसी ज़माने की एक मशहूर फिल्म मेरा गांव मेरा देश फिल्म की याद आ गई ---- वह गीत याद आ रहा है ---- मार दिया जाये या छोड़ दिया जाये।
यादें तो बांटने वाली अनगिनत हैं ---बाकी फिर कभी । बाई साबर कोटी, तेरा बहुत बहुत शुक्रिया ---- तूं तां सानूं वी अपने दिन याद करा दित्ते। परमात्मा अग्गे एहो अरदास है कि तूं होर वी बुलंदियां छोहे।

बुधवार, 10 जून 2009

दांतों में ठंडा लगने से कहीं आप भी परेशान तो नहीं ?

दांतों में ठंडा पानी आदि लगने से परेशान जब कोई मरीज़ किसी क्वालीफाईड डैंटिस्ट के पास जाता है तो उसे प्रश्नों की बौछार के लिये तैयार रहना चाहिये। और आप के मुंह के अंदर झांकने से पहले ही ये प्रश्न ताबड़तोड़ उछाल दिये जाते हैं ....
क्या यह ठंडा लगने की शिकायत सभी दांतों में है ?
अगर सभी दांतों में तकलीफ़ नहीं है तो फिर मुंह की किस तरफ़ दर्द है, दर्द ऊपर वाले जबाड़े में होता है या नीचे वाले जबाड़े में ?
ऊपर या नीचे वाले जबाड़े में जब दांतों में ठंडा लगता है तो क्या सभी दांतों में लगता है या केवल एक या दो दांतों में ?
अब प्रश्नों का दूसरा दौर शुरू होता है ---
जब ठंडा पानी मुंह में लिया जाता है तो यह दर्द कितने समय तक रहता है ? क्या पानी पी लेने के बाद भी यह होता रहता है ? इस दर्द की अवधि सैकेंडों में है या मिनटों में ?

ये जो मैंने प्रश्न लिखे हैं ये हमें लगभग हर उस मरीज़ से पूछने होते हैं जो इस ठंडे-गर्म की शिकायत से परेशान होता है। अब आप समझ सकते हैं कि इस परेशानी के लिये बस यूं ही किसी भी दवाई वाली पेस्ट को लगा कर दबाने की कोशिश क्यों निर्रथक साबित होती है। जब कारण का पता ही नहीं, डायग्नोसिस हुआ ही नहीं तो फिर ये दवाई वाली पेस्टें क्या कर लेंगी ?

और जो प्रश्नों की लिस्ट आप ऊपर देख रहे हैं ---इन में एक एक प्रश्न का बहुत महत्व है। एक अच्छा डैंटिस्ट चाहे कितना भी व्यस्त क्यों न हो किसी भी दांतों पर ठंडा लगने से परेशान मरीज़ से ये प्रश्न तो पूछता ही है। हर प्रश्न का उत्तर विभिन्न दांतों की बीमारियों की तरफ़ इशारा करती है। बिना किसी डायग्नोसिस के बस यूं ही महंगी महंगी पेस्टें या मंजन लगाते रहना बिल्कुल उसी प्रकार है जिस तरह कई दिनों से बेहद पेट दर्द से परेशान कोई बंदा केवल दर्द-निवारक टीकिया ले लेकर अपना काम चलाता रहे। इस लिये डैंटिस्ट के पास जाकर ही कारण का पता लग सकता है।

और एक शिकायत मरीज़ बहुत करते हैं कि दांतों में गैप आ गया है, अभी मैं थोड़ा थका हुआ हूं ---आज दोपहर सोने का समय नहीं मिला ---इसलिये इस गैप के बारे में कल अच्छे से लिखूंगा।

तंबाकू चूसना --- पार्टी स्टाईल !!

हम लोग किसी भी क्षेत्र में काम कर रहे हों, शायद ही अपने उस्ताद को कभी भूल पाते हैं। मुझे भी अकसर अपने ओरल-सर्जरी के प्रोफैसर डा कपिला जी की याद अकसर आती है। ये हम लोगों को अकसर कहा करते थे कि मरीज़ की बात ध्यान से सुना करो, वह तुम्हें स्वयं ही अपनी बीमारी का डायग्नोसिस बतला रहा है। In his words – “ Listen to the patient carefully, he is giving you the diagnosis !”. अब यह अपने आप में आत्म-अविलोकन करने वाली बात है कि यह काम हम लोग कितनी हद तक उस भावना से कर पाते हैं।

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कल भी मेरे पास यह मरीज़ आया जिस के मुंह के अदंर दांतों की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं। यह मेरे पास ऊपर आगे के एक दांत की जड़ निकलवाने आये थे जो कि दांत की सड़न की वजह से टूट चुका था। जब मैं इन के मुंह में इंजैक्शन लगा रहा था तो मुझे लगा कि ऊपर वाले होंठ का अंदरूनी हिस्सा ( oral mucosa) थोड़ा खुरदुरा सा है।

मेरा ध्यान इंजैक्शन देने में पूरी तरह लगा हुआ था इसलिये मैंने इस खुरदरेपन तरफ़ कुछ खास ध्यान देना शायद इसलिये उचित नहीं समझा कि मुझे लगा कि ये Fordyce spots हैं और दूसरा मेरा ध्यान उस खुरदरेपन की तरफ़ उस समय था भी नहीं ---सोच रहा था कि इसे बाद में देखूंगा। ( बाद में किसी दिन इन स्पाट्स के बारे में चर्चा करेंगे )---- लेकिन इस समय केवल यही बता रहा हूं कि ये फारडाइस-स्पाट्स पसीने पैदा करने वाले ग्लैंड्स ( sebaceous glands) होते हैं जो कि सामान्यतः तो हमारी चमड़ी पर ही होते हैं लेकिन कईं बार ये मुंह के अंदर ( oral mucosa), पुरूषों के ग्लैंस-पीनस( glans penis) को कवर कर रही चमड़ी के अंदरूनी भाग ( mucous membrane आदि में भी होते हैं ---- ये बिल्कुल छोटे छोटे दाने से होते हैं और अकसर मरीज़ इन के बारे में चिंतित से हो जाते हैं जब कि चिंता करने वाली कोई बात ही नहीं होती।

हां, तो मैं अपने मरीज़ की बात कर रहा था --- मैंने मरीज़ का दांत निकलवाने से पहले ऐसे ही पूछ लिया कि यह ऊपर खरदुरा सा आप को कभी लगा नहीं ? ----तब उस ने बताया कि यह तो तंबाकू की वजह से है।
कहने लगा कि पिछले पांच साल से तंबाकू-चूने की आदत लग गई है। और मैं ऊपर वाले होंठ के अंदर की तरफ़ भी अकसर तंबाकू दबा कर रखता हूं। मुझे तुरंत सारी बात समझ में आ गई।


दरअसल शायद यह पहला केस मेरी नज़र में आया था जो कि तंबाकू-चूने का मिश्रण ऊपर वाले होंठ के अंदर दबा कर रखता था ( अकसर कभी कहीं पर कोई भद्रपुरूष इस तरह के कैंसर के मिश्रण को गाल के अंदर ऊपर वाली दाढ़ों के साथ लगती जगह पर तो रखते नज़र आ ही जाते हैं ) ...... मुझे बहुत हैरानगी हो रही थी ----उस ने आगे बताना शुरू रखा कि कईं बार उसे ऊपर वाले होंठ के अंदर ही इस तंबाकू ( कैंसर-मिश्रण !!!! ---- Cancer mixture !! --- Cancer cocktail !!!) को रखना पड़ता है क्योंकि जब मैं किसी पार्टी वगैरह में गया होता हूं तो बार बार थूकने के झंझट से निजात मिल जाती है। वह यह भी कह रहा था कि वैसे तो वह नीचे के होंठों के अंदरूनी हिस्से का ही इस काम के लिये इस्तेमाल करता है और इस की वजह से उस नीचे वाले दांतों के बाहर की जगह की क्या हालत हो चुकी है वह आप इस तस्वीर में देख सकते हैं। DSC03179

मैं एक दो मिनट उस की बातें सुनीं-----उस का टूटा दांत निकालने के बाद फिर उस की क्लास ली कि यह सब क्या है और भविष्य में यह किस तरह कैंसर में तबदील हो सकता है। वह मेरी बातें बहुत ध्यान से सुन रहा था और उस ने कल ही से तंबाकू को मुंह में दबाने से तौबा कर ली ।

उस के जाने के बाद मैं यही सोच रहा था कि मरीज़ की बात ध्यान से सुनने की आदत आज एक बार फिर काम आ गई ---वरना आज एक महत्वपूर्ण डायग्नोसिस मिस हो जाता और वह बंदा अपनी आदत को बिना परवाह के जारी रखता जो कि उसे मुंह के कैंसर की तरफ़ धकेल सकती थी।

रविवार, 7 जून 2009

जय हो ! ---बाबा रामदेव जी, तुसीं बहुत ग्रेट हो !

सुबह जब मैं नेट पर बैठ कर अपना टाइम बिता रहा होता हूं तो मेरी मां अपने कमरे में बाबा रामदेव का सम्पूर्ण कार्यक्रम देख रही होती हैं। और अकसर ऐसा बहुत बार होता है कि जब बाबा की एक-दो बातें मेरे कानों में पहुंच जाती हैं तो मैं नेट पर से उठ कर टीवी के सामने बैठ कर बाबा की बहुत बढ़िया बढ़िया बातें सुननी शुरू कर देता हूं। और मैं उन की सब बातों से सहमत हूं --- सहमत क्या हूं मैं भी अपने आप को उन का भक्त ही मानने लगा हूं। लेकिन कईं बार मेरी अंग्रेज़ी अकल अपनी टांग थोड़ी अड़ानी शुरू तो करती है लेकिन फिर मैं उसे समझा देता हूं कि ये बातें कहने वाला कोई आम इंसान नहीं है ---एक ऐसा देवता है जो कि सारे विश्व को सेहत का तोहफ़ा देने ही आया है।

आज मैं बैठा बैठा यही सोच रहा था कि क्या है इस महात्मा की बातों में कि इतने लोग इन की बातों को अपने जीवन में उतार कर अपने जीवन को पटड़ी पर ला रहे हैं। तो मुझे जो समझ आया वह यही है कि यह संत सेहत की बात करता है जब कि आज का आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान केवल एवं केवल बीमारी की ही बात करता है। यह देवता बात करता है कि कैसे घर में ही उगे बेल-बूटों से कोई अपने जीवन में खुशहाली-हरियाली ला सकता है। लेकिन माडर्न मैडीसन कहती है कि इस बीमारी से बचना है तो यह खा, उस से बचना है तो वह खा, कोलैस्ट्रोल कम करने के लिये यह कर --------यह मेरा बहुत स्ट्रांग ओपिनियन है कि इस अल्ट्रा-मार्डन सिस्टम में पुरानी (क्रानिक) बीमारियों का एक कारोबार सा ही हो रहा दिखता है। महंगे महंगे टैस्ट, और उस से भी कहीं महंगी दवाईयां और तरह तरह के आप्रेशन। इस में कोई संदेह नहीं कि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली ने डायग्नोसिस( रोगों के निदान ) के क्षेत्र में अच्छी खासी तरक्की की है, एक्यूट बीमारियों ( अल्प अवधि रोगों ) में कईं बार आधुनिक चिकित्सा प्रणाली एक वरदान सिद्ध होती है और कईं बार किसी बीमारी का इलाज केवल आप्रेशन से ही संभव होता है।

अब इस पोस्ट को पढ़ के कोई यह कहे कि यार, टैस्ट महंगे हैं, इलाज महंगे हैं तो महंगे हैं, इस से तेरा पेट क्यों दर्द हो रहा है। मेरा पेट दर्द इसलिये होता है कि यह इतना महंगा और अकसर कंफ्यूज़ कर देने वाला सिस्टम हमारे देश की ज़्यादातर गरीब जनता के लिये लगता है उपर्युक्त नहीं है। बाबा रामदेव किसी भी बीमारी की जड़ को खोद कर बाहर फैंक निकालता है जब कि आज का आधुनिक सिस्टम अकसर लक्षण दबाने में ही लगा हुआ है। बाबा हॉलिस्टिक हैल्थ की ही बात करते हैं जब कि आज का अत्याधुनिक सिस्टम शरीर को अनगिनत हिस्सों में बांट कर उस को दुरूस्त करने की बातें करता है। सोचता हूं कि ऐसे में शरीर की विभिन्न प्रणालीयों का समन्व्य केवल सांकेतिक ही तो नहीं हो कर रह गया।

अगर यह सच नहीं है तो फिर क्यों लोगों का ब्लड-प्रैशर (उच्च रक्तचाप ) कंट्रोल क्यों नहीं हो रहा, क्यों लोग मधुमेह ( डायबिटीज़) की जटिलताओं से परेशान हैं। कारण वही जो मैं समझ पाया हूं कि लोग अपनी जीवन-शैली बदलने की बजाये एक टेबलेट पर ज़्य़ादा भरोसा करने लग पड़े हैं। लेकिन बाबा उन को जीवनशैली बदलने की प्रेरणा देता है जिस से उन के शरीर के सैल्युलर लेवल पर पाज़िटिव चेंज आ जाते हैं।

मैं तो भई बाबा की बातों का इतना कायल हूं कि अकसर सोचता हूं कि इस जैसे देव-पुरूष को संसार की किसी शीर्ष स्वास्थ्य संस्था जैसे की विश्व स्वास्थ्य संगठन का मुखिया होना चाहिये --- क्योंकि सारी दुनिया को सेहत का उपहार देना केवल इस तरह के स्वामी के ही बश की बात है।

बाबा की बातों में इतनी कशिश है कि जब से टीवी पर बात कर रहे होते हैं तो बीच में उठने की बिल्कुल इच्छा नहीं होती। सब कुछ अकसर वे अपनी बातों में कवर कर रहे होते हैं। मैं अकसर यह भी सोचता हूं कि ये रोज़ाना इतनी बातें खुले दिल से सारे संसार के साथ साझा कर रहे होते हैं कि अगर कोई व्यक्ति उन की रोज़ाना एक बात भी पकड़ ले तो जीवन में बहार आ जाये।

अब हर जगह हम किसी भी बात का प्रूफ़ नहीं मांग सकते --- स्वामी रामदेव जी जैसे लोग प्रकृति के साथ बिल्कुल रल-मिल कर रह रहे हैं ---इसलिये प्रकृति भी ऐसे लोगों से फिर कुछ भी छिपा कर नहीं रखती। अब मेरी मां मुझे अकसर कहा करती हैं कि रात को दही मत खाया करो क्योंकि बाबा रामदेव बार-बार इस के बारे में कहते हैं। अब अगर मैं अपनी अंग्रेज़ी अकल को इस में भी घुसा दूंगा तो फिर मैं यही कहूंगा कि इस से क्या होगा, हमारी किताबों में तो ऐसा कहीं नहीं लिखा। लेकिन जैसा कि मैंने समझा है कि हर बात में तर्क-वितर्क की कोई गुंजाईश होती कहां है, कुछ बातें जब संत-महात्माओं के मुख से निकलती हैं तो उन्हें ब्रह्म-वाक्य जान कर मान लेने में ही बेहतरी होती है। जी हां, मैंने रात को दही खाना पिछले कुछ महीनों से छोड़ रखा है।

आज भी बाबा सुबह बता रहे थे कि खाने-पीने की जितनी मिलावट यहां होती है वह शायद ही किसी दूसरी जगह होती हो। मुझे पूरा विश्वास सा होने लगा है कि जैसे हमारे आयुर्वेद डाक्टर कहते हैं कि खाने-पीने की वस्तुओ का सेवन अपने शरीर की प्रवृत्ति के अनुसार ही किया जाये --- ऐसा है ना कि अकसर हमें कईं खाध्य पदार्थ सूट नहीं करते और हम उन्हें खा कर बीमार सा हो जाते हैं ---कोई कोई दाल ऐसी है जो रात में हज़्म नहीं होती हैं लेकिन इस के बारे में मेरे ख्याल में आज का सिस्टम कम ही कुछ कहता है जब कि आयुर्वैदिक प्रणाली में इन सब के बारे में खूब चर्चा होती है।

हां, एक ध्यान आ रहा है कि यह जो हम लोग ई.टी.जी( इलैक्ट्रोत्रिदोषोग्राम) के बारे में इतना सुनते हैं इस के बारे में भी हमें जानकारी हासिल करने की ज़रूरत है। इस के बारे में मेरे मन में भी बहुत से प्रश्न हैं ---लेकिन मैंने शायद अभी तक इस के बारे में कभी गंभीरता से जानने की ही कोशिश ही नहीं की। लेकिन सोचता हूं अब मैं इस के बारे में जान ही लूं।

आज कितने ही लोग प्राणायाम् एवं प्राकृतिक जीवन-शैली की ओर प्रेरित हो रहे हैं-- इस सब का श्रेय परमश्र्देय़ बाबा को ही जाता है ---कितने उत्साह से वह अपना काम कर रहे हैं यह देख कर मैं अकसर दंग रह जाता हूं। निःसंदेह वह आज के मानव को एक संपूर्ण इंसान बना रहे हैं।

बस,आज बाबा रामदेव स्पैशल इस पोस्ट पर इतना ही लिख कर विराम ले रहा हूं।

शनिवार, 6 जून 2009

कटे एवं घिसे दांत कैसे हों दुरूस्त ?

दांतों का कट जाना एवं बुरी तरह से घिस जाना एक बहुत ही आम समस्या है। आज मैं आप के लिये कुछ तस्वीरें ले कर आया हूं। ये सब तस्वीरें मेरे मरीज़ों की ही हैं ---इन में से किसी का भी विवरण पढ़ने के लिये इस पर क्लिक करें।

इस मोहतरमा ने तो दांतों को छील ही दिया है
इस
महिला के दांतों को आप देखिये---यह किसी चालू से खुरदरे मंजन का इस्तेमाल करती रही हैं और पान खाने की खूब शौकीन रही हैं—देखिये इन दोनों आदतों ने इस के दांतों की क्या हालत कर दी है। इन घिसे हुये दांतों का पूरा इलाज करने के बाद इन पर एक दांतों के कलर से मिलती-जुलती एक फिलिंग ---लाइट-क्योर कंपोज़िट ( light-cure composite) से इन को दुरूस्त किया जायेगा।

वैसे तो इस तरह के दांतों में ठंडा-गर्म अकसर लगने लगता है लेकिन इन्हें इस तरह की कोई शिकायत नहीं है। इन्होंने तो यह भी नहीं कहा कि ये दांत भद्दे दिखते हैं ---शायद यह मानती होंगी कि इन का कोई इलाज ही नहीं है। लेकिन जब मैंने इन पर फिलिंग करवा लेने की बात कही तो तुरंत मान गई हैं।

अब इस मरीज़ का दांत देखिये --- देखिये किस तरह से एक दांत पर कट लगा हुया है और दूसरे पर फिलिंग हुई है। इस घिसे हुये दांत का क्या होगा ?

इस तरह से दांत के कटने का सब से आम कारण है कि टुथब्रुश को जूता पालिश करने वाले ब्रुश की तरह इस्तेमाल किया जाना। अगर कोई व्यक्ति अपनी इस आदत को नहीं सुधारता तो एक दांत में फिलिंग करवा लेने से फिर दूसरे दांत इस कटाई-घिसाई का शिकार हो जाते हैं जैसा कि इस केस में हुआ है। आप देख सकते हैं कि इस कटे हुये दांत के पीछे जो दांत है उस को मैंने लगभग दो-एक साल पहले दांत के कलर से मेल खाती एक फिलिंग ---ग्लॉस-ऑयोनोमर से भरा था और ताकीद तो यह भी की थी कि अब ब्रुश को सही ढंग से इस्तेमाल किया जाये।

और हां, केवल ब्रुश का स्टाईल ही विलेन नहीं है ----बल्कि ब्रुश की हालत भी इस के लिये बहुत हद तक जिम्मेवार है। DSC02955
अब जिस तरह के ब्रुश आप इस बाथरूम में पड़े देख रहे हैं ये दांतों की घिसाई ज़्यादा और सफ़ाई कम करेंगे। ( एक राज़ की बात ---यह फोटो हमारे ही घर के एक बाथरूम की है ----फोटो खींचते मेरे छोटे बेटे ने देख लिया था लेकिन अगर उस को पता चल गया कि इसे पोस्ट पर डाल दिया गया है तो भई मेरी खैर नहीं --- मुझे तो बार बार बेटों से वैसे ही यह धमकी मिलती रहती है कि पापा, देख लेना किसी दिन आप का ब्लॉग ही उड़ा देंगे – इस का कारण यह है कि पीक समय पर नेट पर काम करने के तीन उम्मीदवार होते हैं !!वैसे मेरे घर के ही एक बाथरूम में अगर ब्रुश इस हालत में मौज़ूद हैं तो मैं इस की नैतिक जिम्मेदारी लेता हूं ।।

DSC03161
इस तस्वीर में भी आप देख रहे हैं कि किस तरह से दांत कट चुके हैं ---इन का इलाज भी वही है कि फिलिंग तो करवा ही ली जाये और साथ ही ब्रुश इस्तेमाल करने का ढंग भी सही किया जाये।

दरअसल , इस तरह के कटाव-घिसाव का इलाज करवाना इसलिये ज़रूरी है क्योंकि यह आगे ही बढ़ता चला जाता है और फिर धीरे धीरे अगर यह दांत की नस ( dental pulp) तक पहुंच जाता है तो बखेड़ा खड़ा हो जाता है---- फिर तो रूट-क्नाल ट्रीटमैंट एवं कैप का लंबा चौड़ा चक्कर पड़ जाता है। इसलिये इलाज का सब से महत्वपूर्ण पहलू है कि कारण को पकड़ा जाये और फिर बाद में फिलिंग कर देने से सब कुछ ठीक ठाक हो जाता है।

अकसर मैं देखता हूं कि लोग इस तरह के कटाव-घिसाव के लिये दंत-चिकित्सक के पास न जाकर ठंडे–गर्म के इलाज के लिये तरह तरह की दवाईयों वाली खूब चर्चित पेस्टें ले लेकर इस्तेमाल करनी शुरू कर देते हैं ----यह किसी भी तरह से इस तकलीफ़ का इलाज नहीं है, इस से केवल आप तकलीफ़ को दबा ही सकते हैं। इसलिये दंत-चिकित्सक के पास जाने से ही बात बन पाती है।

और फिर आप मटका कुल्फी का पूरा लुत्फ़ भी उठा पायेंगे।

गुरुवार, 4 जून 2009

वज़न कम करने वाली दवाईयों के बारे में आई है फिर से चेतावनी

अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन में एक बार फिर से मोटापा कम करने वाली कुछ ऐसी दवाईयों की एक लंबी-चौड़ी लिस्ट जारी की है जिन में कुछ ऐसे तत्व मौजूद हैं जो कि हमारी सेहत को बहुत बुरी तरह खराब कर सकते हैं।
मैं भी जब कभी बाज़ार वगैरा जाता हूं तो अकसर पेट कम करने वाले, वज़न कम करने वाले विज्ञापन स्कूटरों की स्टपनी के कवर पर प्रिंट हुये देखता ही रहता हूं और अकसर मेरा सुबह का हिंदी का अखबार भी मुझे इस तरह के करिश्माई नुस्खों की खबर देता ही रहता है। लेकिन मैं यह सोच कर, देख कर सकते में हूं कि चलो, हमारे यहां की तो बात क्या करें, हम लोगों की जान की तो कीमत ही क्या है, लोगों को उल्लू बनाना किसे के भी बायें हाथ का खेल है लेकिन अमेरिका जैसे विकसित देश में भी अगर ये सब चीज़ें बिक रही हैं तो निःसंदेह यह एक बहुत संगीन मामला है।
मैं शायद पहले भी बता चुका हूं कि हमारी दूर की रिश्तेदारी में एक 35 वर्ष की महिला थी --- सेहत एवं सुंदरता की मूर्ति थी --- हम लोग छोटे छोटे से थे तो हमें उसे देख कर लगता था कि हमारी उस आंटी में और हेमा मालिनी में कोई फ़र्क ही नहीं है। लेकिन परिवार वाले बताते हैं कि उन्होंने मोटापा कम ( पता नहीं, उन की क्या परिभाषा थी मोटापे की ---हमें तो वह कभी भी मोटी नहीं लगीं) करने के लिये कुछ ऐसी ही दवाईयां खाईं थी जिस से वह अपनी भूख मार लिया करती थीं। बस, कुछ ही महीनों में उन्हें लिवर-कैंसर हो गया और देखते ही देखते वह चल बसीं।
हमारे देश में एक समस्या हो तो बतायें --- चलो, इस आंटी का तो हमें पता था कि इस ने कुछ दवाईयां खाईं थीं लेकिन अधिकतर तौर पर तो परिवार वालों तक को यह पता नहीं होता कि परिवार के सदस्य किस किस मर्ज़ के लिये किस किस सयाने के चक्करों में हैं। परेशानी की बात भी तो यही है कि ये झोलाछाप नीम-हकीम ( बिना किसी क्वालीफिकेशन के ही ) मरीज़ों को अपनी बातों में इस कद्र उलझा कर रखते हैं कि उन्हें उस के आगे कोई और दिखता ही नहीं है।
अब मेरा वह जुबान की कैंसर वाला मरीज़ जिस चमत्कारी इलाज का वायदा करने वाले शख्स के चंगुल में है वह उस से इतना ज़्यादा प्रभावित है कि कोई भी बात सुनने के लिये राज़ी ही नहीं है। वह तो उस झोलाछाप की इस अदा का ही कायल है कि बंदा हर समय मुंह में पान रखे रखता है और बार बार थूकता जाता है ----और साथ में कहता है कि वह भी बंदा क्या बंदा है, कोई टैस्ट ही नहीं करवाता , बस दो बातें करता है और अपने पैन को अपने नुस्खे पर घिसट देता है। इस बार तो मैंने उस मरीज़ को थोड़ा सख्ती से कह ही दिया था कि आप अपना समय नष्ट कर रहे हैं।
हां, तो बात हो रही थी --- वज़न कम करने वाली दवाईयों की जिन्होंने अमेरिका जैसे देश में हड़कंप मचा रखा है। समस्या इस तरह की दवाईयों में जो अमेरिका में भी दिखी वह यही थी कि इन दवाईयों की पैकिंग या लेबल पर अकसर यह ही नहीं बताया गया था कि इन में क्या क्या साल्ट मौजूद हैं. और इन तथाकथित दवाईयों का जब अमेरिका की सरकारी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने परीक्षण करवाया तो इन में कुछ इस तरह की दवाईयां मिलीं जिन के बारे में सुन कर आप भी परेशान हो जायेंगे।
इन तथाकथित मोटापा दूर भगाने वाली दवाईयों में कुछ गैर-कानूनी दवाईयां भी मौज़ूद थीं।
सिबूट्रामीन ( sibutramine) – इस दवा से भूख को दबाया जाता है और इसे केवल डाक्टर के नुस्खे द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। ये जो चालू किस्म की दवाईयों की लिस्ट अमेरिका में जारी की गई है इन में से कुछ में यह दवा बहुत ही ज़्यादा मात्रा ( much higher doses than maximum daily doses) में पाई गई।
फैनप्रोपोरैक्स ( Fenproporex) – एक ऐसा साल्ट है जिस की मार्केटिंग अमेरिका में हो ही नहीं सकती।
फ्लूयोएक्सटीन ( Fluoxetine) – इस दवाई को वैसे तो डिप्रेशन के मरीज़ों को ही दिया जाता है लेकिन अगर मोटापा कम करने वाली दवाईयों में भी यह मिला दिया जाये तो इस के क्या परिणाम हो सकते हैं, शायद इस की आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
ब्यूमीटैनाईड ( Bumetanide) – यह एक जबरदस्त डाययूरैटिक – potent diuretic- है जिसे केवल डाक्टर का नुस्खा दिखा कर ही प्राप्त किया जा सकता है। डाययूरैटिक वह दवाई होती है जिसे डाक्टर लोग विभिन्न प्रकार की जांच-वांच करने के बाद ब्लड-प्रैशर के रोगी को, दिल के मरीज़ को देते हैं ----अब अगर इस तरह की दवाई बिना वजह बिना किसी डाक्टरी सलाह के केवल मोटापा घटाने के लिये इस्तेमाल की जायेंगी तो इस के परिणाम कितने खौफ़नाक निकलेंगे, इस के बारे में कोई नॉन-मैडीकल बंदा क्या सोचेगा !!
रिमोनाबैंट ( rimonabant) – इस दवा की भी अमेरिका में मार्केटिंग नहीं हो सकती।
सैटिलिस्टैट ( cetilistat) – यह मोटापा कम करने वाली एक ऐसी दवा है जिस पर अभी भी प्रयोग ही हो रहे हैं और जिस की मार्केटिंग अमेरिका में हो नहीं सकती।
फैनीटॉयन ( phenytoin) – इस दवाई को मिर्गी के इलाज के लिये दिया जाता है लेकिन लालच के अंधे सिरफिरों ने इसे मोटापा कम करने वाली दवाईयों में ही झोंक दिया।
फिनोलथलीन ( phenolphthalein) – इस को कैमिस्ट्री के एक्सपैरीमैंट्स में इस्तेमाल किया जाता है और कैंसर उत्पन्न करने में इस की संदेहास्पद भूमिका है। इस की मिलावट भी वज़न कम करने वाली तथाकथित दवाईयों में पाई गई है।
अब अमेरिका की सरकारी संस्था ने तो सारे अमेरिका को तो सचेत कर दिया लेकिन मुझे कौन बतायेगा कि मोटापा कम करने वाले जिन इश्तहारों को मैं स्कूटरों की स्टपनी पर या हिंदी के अखबारों में रोज़ाना देखता हूं आखिर इन में क्या है ------ और मुझे पूरा यकीन है कि अगर अमेरिका में इन चालू किस्म की दवाईयों में खतरनाक किस्म की मिलावट है तो फिर हमारे यहां मिलने वाली दवाईयों में क्या क्या नहीं होगा। बेशक हमारे यहां तो स्थिति अमेरिका से तो बहुत ही बदतर होगी।
तो, फिर आज के पाठ से यही शिक्षा ले ली जाये कि कभी भी इन मोटापा कम करने वाली दवाईयों के चक्कर में न ही पड़ें तो ही ठीक है। लेकिन अगर किसी ने ठान ही ली है कि मोटापा कम करने के लिये दवाईयां लेनी ही हैं तो शहर के किसी topmost specialist ( फिज़िशियन) से मिल कर ही कोई भी फैसला करें।
और एक गुज़ारिश ---अगर किसी ने पहले इस तरह की दवाईयां खाई हुई हैं तो भी किसी फिज़िशियन से अपनी पूरी जांच अवश्य करवा लें।
जाते जाते अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन का बहुत बहुत धन्यवाद तो अदा कर लें कि उन की इस तरह की कार्यवाई से सारे विश्व को सचेत हो जाने का एक अवसर तो मिल जाता है ----आगे सब लोग अपनी मरजी के मालिक हैं, अपना तो काम है बस एक सीटी बजा देना।

बुधवार, 3 जून 2009

मिलावटी दूध का गोरख-धंधा

चंद मिनट पहले आजतक न्यूज़-चैनल पर मिलावटी दूध पर एक विशेष रिपोर्ट देख रहा था। डा राम मनोहर लोहिया से एक विशेषज्ञ भी अच्छी तरह से सब कुछ बता रहे थे। रिपोर्ट में ऐसे फोटो भी दिखे जिस में मिलावटी दूध तैयार करने के लिये उस में शैंपू, यूरिया मिलाया जा रहा था और इस को तैयार करने के लिये तरह तरह के ऊल-जलूल कामों का खुलासा भी किया गया।

मुझे अच्छा लगता है जब कोई लोकप्रिय चैनल इस तरह का कार्यक्रम पेश करता है ---क्योंकि मैं समझता हूं कि इस तरह के पाठों को बार बार दोहराने में ही हम लोगों की भलाई है क्योंकि हम लोगों की यादाश्त में ज़रूर कुछ न कुछ गड़बड़ है। हम लोग सब कुछ जानते हुये भी इस तरह के दूध का इस्तेमाल करने से ज़रा भी गुरेज़ क्यों नहीं करते। अब अगर कोई यह कहे कि कोई विकल्प भी तो नहीं है ना -----लेकिन इस का मतलब यह भी तो नहीं कि हम लोग ऐसे दुध का इस्तेमाल करने लगें जो केवल सेहत बिगाड़ने का ही काम करता हो।

मैंने तो इस मिलावटी दूध के बारे में ----- चलिये, इस वाक्य को बाद में पूरा करता हूं । पहले तो मेरी इच्छा यह जानने की हो रही है कि इस मिलावटी दूध के कारण कितने लोगों पर आज तक मुकद्मा चला है और कितनों की सज़ा हुई है। अब मेरे पास प्रश्नों का तो अंबार है ..... लेकिन समय की कमी है। सारा दिन हास्पीटल की ड्यूटी करने के बाद ये प्रश्न केवल प्रश्न ही बने रहते हैं। लेकिन कभी न कभी इन सब सवालों का जवाब तो ढूंढ ही लूंगा और इस से भी बहुत बड़े बड़े प्रश्न हैं जिन्हें मैं अभी तो इक्ट्ठे ही किये जा रहा हूं। उपर्युक्त समय आने पर ही इन का झड़ी लगाऊंगा, इस के बिना मुझे भी चैन आने वाला नहीं है।

हां, तो मैं पिछले पैरे में कह रहा था कि इस मिलावटी दूध के बारे में इतना कुछ पढ़ लिया है कि अब तो मुझे दूध से बनी कोई भी चीज़ बाहर खाने से एक ज़बरद्स्त फोबिया सा ही हो गया है । और मैं जहां तक हो सके खाता भी नहीं हूं। मैंने बहुत सोच विचार कर यह फैसला किया हुया है।

ड्यूटी के दौरान अपने हास्पीटल में चाय पीना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है --शायद साल में एक दो बार फार्मैलिटी के तौर पर यह दिखावा करना ही पड़ता है।

घर के बाहर मैं कहीं भी चाय पीना पसंद नहीं करता हूं लेकिन कईं बार दो-चार महीने में यह कसम टूट ही जाती है। लेकिन इस समय मैं उन लोगों का ध्यान कर रहा हूं जो अपने काम पर बार बार चाय पीने के शौकीन हैं---अब कैसे दूध की क्वालिटी का पता लगे। हर चाय भेजने वाला कहता तो यही है कि वह तो बिल्कुल शुद्ध दूध ही इस्तेमाल करता है।

आज जब मैं उस आजतक का यह विशेष कार्यक्रम देख रहा था तो सुन रहा था कि विशेषज्ञ बता रहे थे कि मिलावटी दूध खालिस दूध से कैसे भिन्न होता है। बता तो वह रहे थे कि उस की महक अलग होगी, जब दही जमेगा तो भी पता चल जायेगा कि दुध कितना शुद्ध है और एक बात और भी बता रहे थे कि अगर दूध बार बार फटता है तो समझ लीजिये मामला गड़बड़ है।

जैसा कि आप जानते हैं कि मैं दंत-चिकित्सक हूं और मूलतः पिछले 25 वर्षों से यही काम कर रहा हूं और किसी तरह का आत्मा पर बोझ नहीं है ---- बिल्कुल सच बात ही करता हूं और कोई भी मेरे से मेरे प्रोफैशनल अनुभव पूछे तो शत-प्रतिशत इमानदारी से साझे भी कर दूंगा ----बिना किसी परवाह के जैसा कि मैं अपनी दांतों के सेहत वाले लेखों में करता ही रहता हूं।

हम लोग 100 करोड़ से भी ऊपर हैं लेकिन क्यों हमारे डेयरी विशेषज्ञ दूध की शुद्धता के बारे में अपना मुंह क्यों नहीं खोलते ----मुझे इस से बहुत ज़्यादा आपत्ति है । कईं बार सोचता हूं कि शायद दूध के धंधे में इतना ज़्यादा गोरख-धंधा है कि कुछ चंद लोग चाहते हुये भी मुंह नहीं खोल पाते ----सोचने की बात है कि हम लोगों ने इतनी तरक्की हर क्षेत्र में कर ली है लेकिन हम लोगों को दो-चार साधारण टैस्ट घर में ही करने क्यों नहीं सिखा पाये जिस से कि वे पूरे विश्वास से अपने दूधवाले से कह सकें कि कल से यह गोरख-धंधा बंद करो --- बहुत हो गया।

अब आप से समझ सकते हैं कि अगर कोई ग्राहक दूध वाले से यह सब कहेगा कि दूध की महक ठीक नहीं लगती, दूध पिछले कुछ दिनों से कुछ ज़्यादा ही पीला सा लग रहा है, दही सही नहीं जम रही और पिछले हफ्ते में दो बार दूध फट गया ----- तो ग्राहक यह सब कह कर अपनी ही खिल्ली उड़वाता है क्योंकि हर बात का उस शातिर दूध वाले के पास रैडी-मेड जवाब पहले ही से तैयार होता है।

ऐसे में ज़रूरत है किसी वैज्ञानिक टैस्ट की जो कि लोग घर पर ही दूध में कुछ मिला कर थोड़ा जांच कर के देख लें कि कहीं वे दूध के भेष में यूरिया तो नहीं पीये जा रहे , कहीं दूध में पड़ा शैंपू ही तो नहीं आंतों को खराब किये जा रहा और भी तरह तरह के कैमीकल्स जिन की आप कल्पना भी नहीं कर सकते। बेहतरी होगी कि ये डेयरी विशेषज्ञ कुछ इस तरह के टैस्टों के बारे में लोगों को बतायें जिस से कि लोग अपने आप ये टैस्ट कर सकें और मिलावटी दूध को तुरंत बॉय-बॉय कह सकें।

बहरहाल, मिलावटी दूध से बच कर रहने में ही समझदारी है । लेकिन अफसोस इसी बात का है कि जब हम लोग बैठे आजतक चैनल पर दिखाई जा रही कोई ऐसी विशेष रिपोर्ट देखते हैं तो हम सब यही सोचते हैं कि यह समस्या कम से कम हमारे दूध वाले के साथ तो नहीं है ------यह तो किसी दूसरे शहर की, दूसरे लोगों की समस्या है ----अगर आप भी ऐसा ही सोचते हैं तो शायद आप भी मेरी तरह कुछ ज़्यादा ही खुशफहमी का शिकार हैं।

और क्या लिखूं ? ----बस बार बार यही लिखना चाहता हूं कि दूध के बारे में पूरे सचेत रहा करें ------मिलावटी दूध पीने या इस से बने प्रोडक्टस खाने से हज़ारों गुणा बेहतर है कि इस से बच कर रहा जाये। सिर दुखता है इस विषय पर लिखते हुये, लेकिन लालच की आंधी में ये दूध बेचने वाले अंधे हुये जा रहे हैं।