शनिवार, 16 फ़रवरी 2008

टिप्पणीयों पर टिप्पणी...

बहुत अच्छा, ठीक है, बहुत बढ़िया,..........हिंदी ब्लोगर्स पार्क में घूमते घूमते पिछले कुछ हफ्तों से कुछ ब्लोग्स देखें हैं और बहुत सी टिप्पणीयां देखी हैं। इन सब को देखने के बाद मेरे मन में कुछ विचार आ रहे है। पता नहीं ये विचार कितने सिल्ली हों, लेकिन मैंने तो अपनी स्लेट पर इन्हें लिखने का फैसला कर लिया है। जो कुछ भी इन टिप्पणीयों के बारे में मेरे मन में है, वह इस तरह से है......
मार्ग-दर्शक टिप्पणीयां....मुझे याद है जब मैंने हिंदी ब्लोगरी में नया नया पांव रखा था, तो मुझे शास्त्री जी की कुछ इस तरह की ही टिप्पणीयां मिलीं......जिन्होंने मेरा मार्ग-दर्शन किया—जैसे कि उन्होंने मुझे फोंट और टेंप्लेट के बारे में बताया। और मैंने उन्हें माना भी, इसलिए मैं चाहे कभी भी कितना भी इस हिंदी ब्लोगरी में पुराना हो जाऊं, मैं हमेशा इन्हें याद रखूंगा कि जब मैं इस पार्क में चलना सीख रहा था तो किसी ने मेरी उंगली पकड़ी थी।
उत्साह-वर्धक टिप्पणीयां.....इस प्रकार की टिप्पणीयां मुझे बहुत से लोगों से मिलीं...विशेषकर ज्ञानचंद पांडेय जी, रेडियोवाणी के यूनुस जी की टिप्पणीयां शुरू शुरू में ब्लोगर्स का हौंसला बहुत बुलंद करती हैं।


.........................................मैं तो फिर एक बार लिखना शुरू करता हूं तो फिर यह भी ध्यान में नहीं रखता कि पढ़ने वालों पर भी थोड़ा रहम करना चाहिए। सो, अब इस तरह की श्रेणीयां लिखना लिखना बंद कर रहा हूं और सीधा अपनी बात पर आता हूं।
भई, मै तो टिप्पणी उस को ही समझता हूं कि जिसे लिखे बिना आप भई बस रह ही न सको । जिस लिखने में हमें कभी आलस्य न आए, .....न इस तरह का बोझ महसूस हो कि यार अब कौन इस टिप्पणी को लिखने के लिए उस फार्म पर अपना यूज़र नेम भरे, कौन यूआरएल भरे.......बस, जब इस तरह का आलस्य मन में आये तो समझना चाहिए कि हम दिल से उस ब्लोगर को कुछ कहना चाह ही नहीं रहे हैं। हम तो बस यही बताना चाह रहे हैं कि भई हमने तो तुम्हारी पोस्ट पढ़ ली है, तुम भी हमारी पढ़ा करो और टिप्पणी दिया करो। वैसे ऐसा करना अपने आप को किसी बंधन में कैद करने जैसा लगता है। मुझे कुछ कुछ याद आ रहा है कि कुछ दिन पहले ही श्री सुरेश चिपलूणकर जी के ब्लोग पर एक बहुत ही बढ़िया पोस्ट थी जिस पर कुछ बातें कहीं गईं थीं कि अपनी ब्लोग को कैसे पापुलर बनाया जाये...उस में कुछ इस तरह की भी बहुत सुंदर सी बात कही गई थी कि आप चाहे किसी की पोस्ट पढ़ो या नहीं, सीधा पेज खुलने पर टिप्पणी पर क्लिक मारो, और दिन में ऐसी कईं टिप्पणीयां दे मारो । वैसे कईं एक-दो या कुछ शब्दों की टिप्पणीयों से कईं बार कुछ ऐसा ही लगता है।
वैसे मैं तो सोचता हूं कि टिप्पणी वह हो , जो या तो बलोगर की किसी ताकत को निकाल कर बाहर लाये, उसे बताए कि तुम्हारी ब्लोग की या पोस्ट में मुझे ये ये बातें बहुत पसंद हैं, ये ये बातें हमारे मन को छू जाती हैं। या टिप्पणी वह भी है जो कि ब्लोगर को गाइड करें कि वह अपनी कमियों को किस तरह से दूर करे या उस के मन में कुछ शंकाएं हैं तो टिप्पणीकार उन का निवारण ही कर डाले।
मुझे शुरू शुरू में इस कमैंट्स माडरेशन के बारे में कुछ शंकाएं थीं, एक दो पोस्टें भी लिखीं...लेकिन एक बार तरूण जी( निठल्ला चिंतन बलोग ) ने ऐसी एक टिप्पणी भेज कर ऐसी तसल्ली करवा दी कि दोबारा फिर कभी ऐसी शंका उत्पन्न ही नहीं हुई । लेकिन मुझे वह अपराध-बोध हमेशा सताता रहेगा कि जब मेरी तो तसल्ली हो गई, लेकिन मैंने तुरंत उस पोस्ट को और टिप्पणी को डिलीट कर दिया.....यह गिल्टी-कांशिय्सनैस तब और भी बढ़ गई जब मेरा पांचवी कक्षा में पढ़ रहे बेटे ने अगले दिन मुझे यह कहा कि पापा , आप को ऐसा तो नहीं करना चाहिए था। ( हां, वह अपना हमराज़ ही है, नैट पर कुछ भी करते हुए सारा समय साथ ही बंध कर जो बैठा रहता है) मेरे पास उस की बात का कोई जवाब नहीं था, लेकिन मैंने उसे इतना एश्यूर कर दिया कि बेटा, सॉरी, अब कभी आगे से ऐसा नहीं करूंगा।
पिछले कुछ दिनों पहले संजय तिवारी की विस्फोट ब्लोग पर उन की (तरूण )एक और टिप्पणी देख कर मन बहुत खुश हुया जिस में उन्होंने लिखा था कि आप लोग अपनी बलोग को एक डॉयरी की तरह ही क्यों नहीं लिखते हो, वैसे तो ब्लोग का सही मतलब भी तो यह है।
तो, मेरा इतना ही अनुग्रह है कि जब किसी को भी टिप्पणी हम दें तो शब्दों को दिल खोल कर इस्तेमाल करें....न टाइम की परवाह करें, और ना ही किसी और चीज़ की.....बस उस समय तो केवल अपनी बात उस बलोगर तक पहुंचाने की ही हमें फिक्र हो। पता नहीं हमारी उस टिप्पणी ने क्या काम करना होता है। यह तो भई एक वार्तालाप है ,अगर हम दिल से नहीं करेंगे, तो कैसे कुछ असर होगा। नहीं होगा ना, तो फिर आज से टिप्पणी भी पूरे दिल से दिया करेंगे। अच्छा पता सब को बहुत ही जल्दी लग जाता है कि यह टिप्पणी सुपरफिशियल है या मन से निकली आवाज़ है......देखो, भई, कोई भी मांइड तो करे नहीं , लेकिन बहुत ही ब्रीफ सी टिप्पणी पढ़ कर मज़ा नहीं आता। अगर किसी बात की तारीफ करनी है तो खोल कर करें ,ताकि ब्लोगर को अच्छा लगे, और अगर उस को किसी कमियों , खामियों से अवगत करवाना है तो भी पूरे विस्तार से करें ताकि उस को यह आभास भी न हो कि बिना जगह टांग ही खींची जा रही है,......उस को कुछ यूज़फुल टिप्स बताये जायें। मैंने जो कुछ हफ्तों में देखा है वह यही है कि हिंदी बलोग्री में ज्ञान का भरपूर भंडार है....एक से एक विद्वान हैं...इसलिए हमें एक दूसरे से बहुत कुछ सीखना है.......यह कोई अंग्रेजी भाषा की तरह कोई ठंडा सा माध्यम नहीं है, यहां पर सब लोग बहुत गर्मजोशी से मिलते हैं, बाते करते हैं और टिप्पणीयां देते हैं।
लेकिन मुझे समझ नहीं आता कि हम लोग एक दूसरे को कोई संबोधन करते हुए क्यों झिझकते हैं, डरते हैं या ऐसे ही अंग्रेज़ी बलोगरी की परंपराओं का पालन करना ही अपना धर्म समझ बैठे हैं।यह बात सोचने की है। मैं भी शुरू शुरू में बहुत इस्तेमाल किया करता था...दोस्तो, ..लेकिन अब मैंने भी अपने आप पर कंट्रोल कर लिया है कि मैं ही क्यों यह दोस्तो , दोस्तो पुकारता रहता हूं... मैं इस के द्वारा हिंदी ब्लोगरी की तैयार हो रही नींवों को सारे विश्व में कमज़ोर तो नहीं कर रहा, सो मैंने अब यह दोस्तो, वोस्तो लिखना बंद कर दिया है। वैसे मैं तो भई आप की तरह ही ...वसुधैव कुटुंबकम् ..का ही पक्षधर हूं।
तो चलिए हिंदी बलोगरी की नींवों को बिना किसी तरह की कन्वैंशन्ज़ को फॉलो करते हुए अपने नये ढंग से रखें।