मंगलवार, 29 जनवरी 2008
जब मैंने पहली बार बीड़ी पी...
इस से पहले कि आप इस पोस्ट का शीर्षक पढ़ कर ही मेरी डाक्टरी के ऊपर शक करने लगें, प्लीज़ मेरी पूरी बात सुनिए। हुआ यूं कि नई दिल्ली के प्रगति मैदान में हुई एक कांफ्रैंस में शिरकत करने का अवसर मिला। रजिस्ट्रेशन के दौरान जो कांफ्रैंस बैग मिला उस में एक पैकेट बीड़ी का भी था और साथ में एक सी.डी भी थी। मेरा माथा ठनका- यही सोचने लगा कि आयोजकों से जरूर कोई भूल ही हो गई होगी- आप में से जो लोग प्रगति मैदान घूम आए हैं, वे जानते होंगे कि वहां बने विभिन्न हालों में तरह -तरह की प्रदर्शनियां चलती रहती हैं। इसलिए मझे भी यही लगा कि हो न हो,पास ही के किसी हाल में ज़रूर किसी तंबाकू कंपनी का कोई सैमीनार चल रहा होगा, तभी तो यह सौगात गलती से हमारे बैगों में आ पड़ी है। खैर, वहां चार दिन कांफ्रैंस में इतने व्यस्त रहे कि दोबारा उस पैकेट को देखने का अवसर ही न मिला।
घर आने के बाद जब उस बैग को खोल कर उस सी.डी को देखा तो सारा माजरा समझ में आ गया -- यह थी तो बीड़ी ही , लेकिन तंबाकू एवं निकोटीन रहित। उस बीड़ी में केवल पौधों की सूखी पत्तियां ही थीं। कहने का भाव यह कि जोश वही पर दोष नहीं।।
वैसे तो मैं बचपन से ही हमेशा फर्स्ट हैंड तजुर्बे का कायल रहा हूं , इसलिए मैंने उस दिन एक बीड़ी पीने का फैसला कर ही लिया। दोनों बेटों को अपने आसपास बैठा लिया। वे अपनी जगह परेशान कि पापा को आज हुया क्या है, खैर वे तो तब तक इसे एक मज़ाक ही समझते रहे जब तक कि मैंने एक बीड़ी का सुलगा कर मुंह पर लगा ही न लिया। उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें लगा कर अपनी मम्मी को बुला लिया। श्रीमति जी भी परेशान...खैर, सब के देखते ही देखते मैंने कश पे कश खींचने शुरू कर दिए--- और हर कश एक अलग स्टाईल में....बचपन में दिखते विलेन के.एन .सिंह , जयंत, देवानंद, मेरे नाना जी, ताऊजी, शाहरूख खां , प्रेम चोपडा़.....इन सब के कश खींचने के स्टाईल मेरे को कॉपी करते देख बच्चे तो लोटपोट हुए जा रहे थे।
मुझे यह अहसास तो था ही कि मेरी तो पहली भी और आखिरी भी बीड़ी यही है, इसलिए इस का भरपूर मज़ा लूटने से मैं ज़रा भी चूकना नहीं चाहता था। बस मैं केवल अपने नाक से धुआं निकालने की ही अपनी हसरत पूरी न कर पाया, जैसा कि मैं अपने पापा जी को अकसर कभी कभी करते देखा करता था। वे मुझे कहा करते थे कि बीड़ी पीना कम नुकसानदायक है, इसलिए इसे पीता हूं। मुझे नहीं पता कि वे सच कहते थे या झूठ, लेकिन आज मुझे यह ज़रूर लगता है कि सिगरेट उन के बजट में कभी बैठा ही नहीं होगा। आज जब मैं उन्हें 555ब्रांडपिलाने के काबिल हूं , तो अफसोस वह नहीं हैं। लेकिन आप सुनिए तो, यह डाक्टर का मशविरा कतई नहीं है, बाप-बेटे की मौन बात है.....इस डाक्टरी-वाक्टरी से बहुत परे की बात।
तो चलिए , एक बात चिकित्सा विज्ञान की भी करें....हम सब जानते हैं कि बीड़ी भी कम से कम सिगरेट के जितनी हानिकारक तो है ही। इस को सिगरेट की तुलना में चार से पांच गुणा ज्यादालोग पीते हैं। एक ग्राम तंबाकू से औसतन एक सिगरेट तैयार होती है, लेकिन तीन या चार बीड़ीयों के लिए यह तम्बाकू पर्याप्त होता है। इतनी कम मात्रा में तम्बाकू होते हुए भी और अपना छोटा आकार होते हुए भी एक बीडी़ कम से कम भारत में बने एक सिगरेट जितनी टॉर तथा निकोटीन उगल देती है, जब कि कार्बनमोनोआक्साईड तथा अन्य विषैले रसायनों की मात्रा तो बीड़ी में सिगरेट की अपेक्षा काफी ज्यादा होती है।
अच्छा तो मैं कहां था....हां, मैंने तंबाकू रहित बीडी़ पी ली और बीडी़ पीने के बाद सब को बता दिया कि यह तो वास्तव में तंबाकू रहित बीड़ी थी।
अब प्रश्न यही उठता है कि अगर यह तंबाकू रहित बीड़ी है तो क्या सारा हिंदोस्तान ही इसे पीना शुरू कर दे। बिल्कुल नहीं....यह तो केवल उन लोगों के लिए है जो बहुत ही इमानदारी से बीड़ी की आदत छोड़ना चाहते हैं लेकिन छोड़ नही पा रहे हैं, वे इसे थोडा़ समय इस्तेमाल कर अपनी आदत से निजात पाने की कोशिश कर सकते हैं। जो लोग कहते हैं कि बीड़ी की लत छोड़ने को तो आज छोड़ दें, लेकिन सुबह सुबह कश खींचे बिना तो यह कमबख्त हाजत ही नहीं होती, प्रैशर ही नहीं पड़ता-- उन के लिए भी इस तंबाकू रहित बीड़ी का सेक मेरी दुआ से वांछित फल ले कर आए।
कॉलेज के छात्र जो यह कहते हैं कि फ्रैंड-सर्कल की वजह से स्मोकिंग करनी पड़ती है, वे भी इस नकली बीड़ी का ही दामन क्यों नहीं थाम लेते?... हिंदी फिल्म के निर्देशकों को भी एक मशविरा भेजना चाहता हूं कि जो कलाकार रियल लाइफ में नान-स्मोकर हैं , रील लाईफ में शूटिंग के दौरान भी यह काम इस तंबाकू रहित बीड़ी से ही ले लिया करें। कहीं मेरा यह सुझाव सुन कर निर्देशक भड़क ही न जाएं कि क्या कह रहे हो डाक्टर, तुम अपनी डाक्टरी रखो अपने पास, मेरी फिल्म के हीरो के हाथ में बीडी़। मैंने फिल्म बेचनी है---विदेश के फिल्म समारोहों में नहीं भेजनी” - चलिए , फिर तो यही दुआ करनी पड़ेगी कि तम्बाकू रहित सिगरेट भी जल्द से जल्द मार्कीट में आएं, इतना ही क्यों...दुआ मांगने में भी भला काहे की कंजूसी ....कुछ ऐसा करिश्मा हो जाए अल्कोहल रहित दारू भी बाज़ार में आ जाए जिस में केवल नारियल पानी भरा हो, और लगे हाथनशे रहित नशे की गोलियां भी मार्कीट में आ ही जाएं जिन में बूरा चीनी के इलावा कुछ न हो।
तंबाकू रहित बीड़ी आए या सिगरेट, जो लोग अभी तक तंबाकू के किसी भी रूप के व्यसन से दूर हैं, वे इन से हमेशा दूरी बनाये ही रखें--किसे पता आप कब इस नकली तंबाकूरहित बीडी़ का साथ छोड़ कर खालिस तंबाकू वाली बीड़ी का दामन थाम लें। प्रकृति के नियमों के विरूद्ध आखिर जाया ही क्यों जाए, बिना वजह मुंह और फेफड़ों की सिंकाई करने का प्रावधान हमारी पुरातन संस्कृति में भी तो कहीं पर भी है ही नहीं!!!
बीमार बंदे की जगह अगर डाक्टर खुद को खड़ा कर के देख ले.....
वह महिला डाक्टर सुशिक्षित है , अनुभवी है व मरीज़ों से बहुत ढंग से बात भी करती है। और हां, उसी रिसेप्शनएरिया में उस ने अपने काफी सारे ( कम से कम बीस तो होंगे ही) सर्टिफिकेट फ्रेम कर के टांग रखे थे.....सभीअंग्रेज़ी में ही थे। इस के बारे में दोस्तो मेरा विचार यह है कि जो भी मरीज़ किसी डाक्टर के पास जा रहा है तो वहकहीं न कहीं उस की चर्चा सुन कर ही गया है.....अब इन सर्टिफिकेटों में क्या लिखा है, मैंने देखा है कि 2-4फीसदीलोगों से ज्यादा इस में किसी को कोई रूचि होती नहीं, और जिन को होती भी है, वे इन्हें पढ़ नहीं पाते क्योंकि येअकसर इतनी ऊंचाई पर लगाए होते हैं या इतनी बारीक फांट्स में होते हैं कि अब इन्हें पढ़ने के भी झंझट में कौनपड़े !! और इन सब के साथ-साथ काफी ऊंचाई पर लगे टीवी पर मार-धाड़ वाली कोई एक्शन फिल्म चल रही थी।
इस के विपरित मुझे मुंबई के एक पुरूष गायनोकॉलोजिस्ट के यहां जाने का मौका जब मिला था, तो उस ने अपनेकक्ष के बाहर कुछ बढ़िया से पोस्टर लगवा रखे थे ...उन में से एक पर यह पंक्तियां भी लिखी हुईं थीं..... Seek the will of God .....Nothing more, nothing less, nothing else…. अर्थात्.....भगवान की रज़ा मे ही राज़ी रहनासीख ले बंदे, उस से न तो कुछ ज्यादा, न ही कुछ कम एवं न ही उस से कुछ इलावा की ख्वाहिश कर। यह पढ़ करहमें बहुत अच्छा लगा....ये छोटी छोटी बातें हमें कुछ नाज़ुक लम्हों में बड़ा हौंसला सा दे जाती हैं, आपको क्यालगता है। जब मरीज़ हस्पताल में पहुंचता है या डाक्टर से मिलने से पहले जब अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा हैतो उस समय हमें उसे ऐसा वातावरण उपलब्ध करवाना चाहिए जिस से वह सहज अनुभव करे, उसे कुछ तोअपनापन लगे। अब कोई अपनी मां को दिखाने गया हुया ,अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए क्या उस समय इसगाने में किसी तरह से भी उस का मन लगता होगा......मेरी मम्मी ने तुम्हें चाय पे बुलाया है !!! न ही उस समयरेडियो की आवाज़ ही अच्छी लगती है। वह भी मरीज़ एवं उन के अभिभावकों को चुभती हैं। उस समय ज़रूरत होतीहै .....म्यूज़िक फॉर हीलिंग की.....ढ़ेरों सी.डीयां एवं कैसेट्स इस तरह की बाज़ार में उपलब्ध हैं.....साथ ही अच्छीअच्छी प्राकृतिक नज़ारों की तस्वीरें लगी हों, कोई प्रेरक-प्रसंग दिख जाएं तो मन को अच्छा सा लगता है।
अच्छा तो दोस्तो,यह रसोलियों एवं टयूमरों की डाक्टर के वेटिंग हाल में पड़े होने की चर्चा तो हम ने कर ली, लेकिनक्या इस से पहले ये हमें समाचार-पत्रों में न दिखते होंगे.......क्यों नहीं, अब किसी ने 16किलो का ट्यूमर किसी केपेट से निकाला है तो यह हिंदी अखबार वाले या क्षेत्रीय भाषा की अखबार वाले ना छापे.....यह कभी हो सकता हैक्या। मरीज की गोपनीयता को मारो गोली.....मरीज की लाचारी गई तेल लेने----हमें तो बस अपनी पब्लिसिटी सेमतलब है, जब तक दो-तीन अखबारों के स्थानीय संस्करणों में आप्रेशन-थियेटर के कपड़े पहन कर किसी ऐसी हीपीड़ित महिला के बिस्तर के सिर पर खड़े होकर अच्छी सी रंगीन फोटो न लगेगी तो आसपीस के चालीस-पचासगांवों के लोगों पर अपनी धाक आखिर कैसे जमेगी( गब्बर सिंह का वह डॉयलाग पता नहीं क्यों बार-बार याद आरहा है...यहां से पचास पचास कोस दूर जब बच्चा रोता है, तो मां कहती है.......) । वह मरीज़ लाचार दिख रही है तोदिखा करे....उस से हमें इतना सरोकार नहीं, वैसे भी तो हम ने उस पर पहले कम एहसान किया है वह 16किलो काट्यूमर निकाल कर। बस, दोस्तो, यही बात आज डाक्टरों को एवं प्रिंट मीडिया को गहराई से सोचने की ज़रूरत हैकि क्या उस जगह हमारे ही घर की कोई महिला हो तो हम उस की उस हालत में तस्वीर किसी समाचार-पत्र केस्थानीय संस्करण में देखना पसंद करेंगे....................तो फिर उस सीधी सादी, लगभग बेजुबान( कम से कम इसमामले में) सी बीमार महिला से हमने इतनी लिबर्टी लेने की आखिर सोच ही कैसे ली।...और वह भी केवल इस लिएकि हमें एवं हमारे हास्पीटल को इस से पब्लिसिटी मिल जाएगी। वैसे भी मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि वर्नैकुलरप्रेस में तो मरीज़ की प्राइवेसी का कुछ ज्यादा ख्याल नहीं रखा जाता....कहा है न , उन्हें तो केवल गर्मा-गर्म खबरपरोसने में ही मज़ा आता है।
दोस्तो, आपने भी कितनी बार देखा होगा कि किसी नशा-मुक्ति केन्द्र पर जब कोई बड़ा आदमी (काहे का , यह मतपूछिए ???) जाता है तो उस की वह इलाज करवा रहे रोगियों के साथ तस्वीरें भी मीडिया में सुर्खियों के साथ छपजाती हैं। अब अगर किसी ऐसी तस्वीर की वजह से किसी मरीज़ के बच्चे को अथवा बीवी को किसी प्रकार के तानेसहने पड़ें भी तो उस से अखबार छापने वालों को क्या मतलब......क्योंकि वह तो कोई खबर है ही नहीं--- इस कीन्यूज़-वैल्यू खाक है।
बस, अब विराम लेना चाह रहा हूं...कल रात को किसी पार्टी में स्वाद स्वाद के चक्कर में मूंग की दाल का हलवाकुछ( कुछ नहीं, बहुत ही कहूं तो ठीक है) ज्यादा ही खा-फूट लेने से अभी तक एसिडिटी से परेशान हो रहाहूं...लेकिन क्या करूं....बिल्कुल आप ही की तरह आदत से मज़बूर हूं कि बस जो चीज़ पसंद हो, बस उसे खाते हुएफिर कोई डाक्टरी-वाक्टरी का ध्यान नहीं रहता। ठीक है, ठीक है , दोस्तो, कभी कभी चलता है।
बस, एक मिनट में अपनी बात समाप्त कर रहा हूं.....हैल्थ बीट कवर करने वाले पत्रकार बंधुओं से भी यह अनुरोध हैकि हैल्थ-रिपोर्टिंग करते समय थोड़ा इन बातों का ध्यान रखना ही होगा। क्या है न, सिने तारिकाओं के द्वारा अपनीकाया को छरहरी रखने के लिए करवाये जा रहे लाईपोसक्शन( शरीर में जमी चर्बी को निकलवाने का आप्रेशन), उन के द्वारा बोटॉक्स इंजैक्शन लगवाने अथवा हालीवुड की लेटेस्ट हार्ट-थ्रोब्स के द्वारा अपनी छाती को और भीज्यादा सुडौल बनाए रखने के उन के प्रयासों के ब्यौरे देने से कहीं ज्यादा ज़रूरी है कि हम इस देश की उस आममहिला की सेहत के बारे में भी लिखें कि वह बच्चेदानी के कैंसर से अथवा स्तन-कैंसर से कैसे बच सकती है...क्योंउस का स्त्री-रोग विशेषज्ञ से किसी छोटी सी छोटी दिखने वाली महिला-शिकायत के लिए मिलना ज़रूरी है।
दोस्तो, शायद बात हास्पीटलों के सुकून देने वाले वातावरण के बारे में शुरू हुई थी.......वैसे मेरा तो एक सुखदअनुभव है, जब दो साल पहले मेरा जयपुर के एक हास्पीटल में आप्रेशन में होना था, तो एनसथीसिया देने से पहलेमैं भी बहुत खौफ़ज़दा था.....लेकिन तभी मुझे ओ.टी के अंदर ही एफ-एम पर चल रहे मेरे उस फेवरिट गाने के बोलसुनाई दिए........आंखें भी.. होती हैं दिल की ज़ुबां, पल भर में कर देती हैं हालत ये दिल की ब्यां....!! बस, कुछ लाइनेंही सुनीं थीं कि मुझे पता नहीं कब एनसथिसीया के लिए दिए गये उस टीके ने मेरी आंखें चंद क्षणों में ही बंद करदीं......फिर मुझे कुछ पता नहीं........लेकिन उस आप्रेशन थिय़ेटर के स्टाफ का मैं आज भी ऋणी हूं क्योंकि वे भीमेरी तरह के ही बिगड़े हुए रेडियो-फैन रहे होंगे क्योंकि उन के एफ-एम के सैट से बज रहे उस गीत के खूबसूरतशब्दों ने उन बेहद डरावने से दिखने वाले लम्हों में भी मेरा हाथ थामे रखा।
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