आज जब अखबार पकड़ा तो पहले ही पन्ने पर यह खबर देख कर बहुत खुशी हुई कि यूजीसी ने कालेजों में जीव-जंतुओं की चीड़-फाड़ पर प्रतिबंध लगा दिया है।
खबर तो कुछ वर्ष पहले भी इस तरह की छपी थी लेकिन अब यह खबर....अखबार पढ़ने पर पता चल गया कि पहले यूजीसी ने प्रतिबंध लगाया था कि विद्यार्थी कालेजों में ऐसी चीड़-फाड़ नहीं कर सकेंगे, लेकिन उन के प्रोफैसर लोग छात्रों को सिखाने के लिए यह चीड़-फाड़ कर सकते हैं।
लेकिन आज की खबर ने तो कमाल ही कर दिया कि अब तो प्रोफैसर लोग भी यह सब नहीं कर सकेंगे।
यह यूजीसी का एक प्रशंसनीय निर्णय है। आज कल के छात्र तकनीकी तौर पर इतने एडवांस हो चुके हैं कि नेट पर दुनिया जहान की चीज़ें सीखते रहते हैं....सब कुछ तो नेट पर पड़ा है। इसलिए बस इतने से काम के लिए इतने सारे जीव-जंतुओं की बलि दे दी जाए ... बात गलत तो बिल्कुल है ही।
लेकिन अफसोस मेरे जैसे लोगों को भी अब यह बात गलत दिखने लगी जब जानवरों के हितों के लिए सक्रिय संस्थाओं ने इस मुद्दे पर हाय-तौबा मचाई शुरू की। और वे बिल्कुल ठीक हैं .. उन के प्रयासों से लाखों-करोड़ों जीव-जंतु लगता है आजकल जश्न के मूड में होंगे।
मुझे याद है मैंने कालेज में प्री-यूनिवर्सिटी मैडीकल और प्री-मैडीकल के दौरान-- काकरोच, अर्थवर्म (केंचुआ), मेंढक, छिपकली---इन की चीड़फाड की थी। प्री-यूनीवर्सिटी में काकरोच और अर्थवर्म ... और अगले साल मेंढक और छिपकली की चीड़फाड़ की थी। हमें लैब में एक ट्रे दे दी जाती थी जिस में इन में से किसी भी जीव-जंतु को रख दिया जाता था....मुझे अभी ध्यान नहीं आ रहा कि क्या वे सब मरे हुए ही हुआ करते थे.... जहां तक याद है कईं बार मेंढक आदि के कुछ अंग उसकी चीड़फाड़ करने पर फड़फड़ाते से दिखते थे। अब कुछ ठीक से याद नहीं आ रहा।
जो भी हो, इस निर्णय से बड़ी राहत मिली है। जीव-जंतुओं के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्थाओं को बड़ी आपत्ति थी कि इन जीव-जंतुओं को चीर-फाड़ के लिए उन के प्राकृतिक वातावरण (natural habitat) से ही पकड़ा जाता है और इस सब की वजह से वातावरण मंडल का संतुलन गड़बड़ हुआ जा रहा है।
एक धुंधली सी याद यह भी आ रही है कि उस जमाने में जिस छात्र के हाथ में एक डाईसैक्शन बाक्स होता था, जिस में एक छोटी कैंची और दो-तीन और औजार हुया करते थे.. तो जिस ने इस बाक्स को अपने हाथ में पकड़ा होता या फिर साईकिल के अगले हैंडल पर लगे कैरियर पर कसा होता, उस की ठसक मोहल्ले में और कालेज में पूरी होती थी क्योंकि आर्ट्स वाले छात्र इतना तो समझ ही लेते थे कि ये चीड़फाड़ वाले हैं........और इसी चक्कर में मेरे जैसा अनाड़ी भी बाक्स को पकड़े हुआ अपने आप को आधा डाक्टर तो समझने ही लगता था।
वे भी क्या दिन थे, हमारी डेयरी वाला एक बार किसी अन्य प्रदेश में गया, वहां से खरीद कर एक बीवी लेकर आया, जो अपने आप को डाक्टर कहा करती थी और अकसर पूरे विश्वास के साथ कहा करती थी कि हमारे यहां तो बंदर के दिल को आदमी के दिल में आसानी से लगा दिया जाता है......और हम छोटे छोटे बच्चे उस की बातें सुन कर हैरान हुआ करते थे।
जब हम लोग कालेज में थे तो एक लकड़ी की जाली वाली अलमारी में खरगोश भी देखा करते थे....हमें बताया जाता था कि जो बीएससी मैडीकल करते हैं उन्हें खरगोश की चीर-फाड़ करनी होती है। मैं भी दो दिन बीएससी मैडीकल की क्लास में गया था ... लेिकन फिर बीडीएस का बुलावा आ गया और हम अगले आठ साल के लिए सरकारी डैंटल कालेज अस्पताल के सुपुर्द कर दिए गये।
UGC finally gives in, bans animal dissections in colleges
खबर तो कुछ वर्ष पहले भी इस तरह की छपी थी लेकिन अब यह खबर....अखबार पढ़ने पर पता चल गया कि पहले यूजीसी ने प्रतिबंध लगाया था कि विद्यार्थी कालेजों में ऐसी चीड़-फाड़ नहीं कर सकेंगे, लेकिन उन के प्रोफैसर लोग छात्रों को सिखाने के लिए यह चीड़-फाड़ कर सकते हैं।
लेकिन आज की खबर ने तो कमाल ही कर दिया कि अब तो प्रोफैसर लोग भी यह सब नहीं कर सकेंगे।
यह यूजीसी का एक प्रशंसनीय निर्णय है। आज कल के छात्र तकनीकी तौर पर इतने एडवांस हो चुके हैं कि नेट पर दुनिया जहान की चीज़ें सीखते रहते हैं....सब कुछ तो नेट पर पड़ा है। इसलिए बस इतने से काम के लिए इतने सारे जीव-जंतुओं की बलि दे दी जाए ... बात गलत तो बिल्कुल है ही।
लेकिन अफसोस मेरे जैसे लोगों को भी अब यह बात गलत दिखने लगी जब जानवरों के हितों के लिए सक्रिय संस्थाओं ने इस मुद्दे पर हाय-तौबा मचाई शुरू की। और वे बिल्कुल ठीक हैं .. उन के प्रयासों से लाखों-करोड़ों जीव-जंतु लगता है आजकल जश्न के मूड में होंगे।
मुझे याद है मैंने कालेज में प्री-यूनिवर्सिटी मैडीकल और प्री-मैडीकल के दौरान-- काकरोच, अर्थवर्म (केंचुआ), मेंढक, छिपकली---इन की चीड़फाड की थी। प्री-यूनीवर्सिटी में काकरोच और अर्थवर्म ... और अगले साल मेंढक और छिपकली की चीड़फाड़ की थी। हमें लैब में एक ट्रे दे दी जाती थी जिस में इन में से किसी भी जीव-जंतु को रख दिया जाता था....मुझे अभी ध्यान नहीं आ रहा कि क्या वे सब मरे हुए ही हुआ करते थे.... जहां तक याद है कईं बार मेंढक आदि के कुछ अंग उसकी चीड़फाड़ करने पर फड़फड़ाते से दिखते थे। अब कुछ ठीक से याद नहीं आ रहा।
जो भी हो, इस निर्णय से बड़ी राहत मिली है। जीव-जंतुओं के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्थाओं को बड़ी आपत्ति थी कि इन जीव-जंतुओं को चीर-फाड़ के लिए उन के प्राकृतिक वातावरण (natural habitat) से ही पकड़ा जाता है और इस सब की वजह से वातावरण मंडल का संतुलन गड़बड़ हुआ जा रहा है।
एक धुंधली सी याद यह भी आ रही है कि उस जमाने में जिस छात्र के हाथ में एक डाईसैक्शन बाक्स होता था, जिस में एक छोटी कैंची और दो-तीन और औजार हुया करते थे.. तो जिस ने इस बाक्स को अपने हाथ में पकड़ा होता या फिर साईकिल के अगले हैंडल पर लगे कैरियर पर कसा होता, उस की ठसक मोहल्ले में और कालेज में पूरी होती थी क्योंकि आर्ट्स वाले छात्र इतना तो समझ ही लेते थे कि ये चीड़फाड़ वाले हैं........और इसी चक्कर में मेरे जैसा अनाड़ी भी बाक्स को पकड़े हुआ अपने आप को आधा डाक्टर तो समझने ही लगता था।
वे भी क्या दिन थे, हमारी डेयरी वाला एक बार किसी अन्य प्रदेश में गया, वहां से खरीद कर एक बीवी लेकर आया, जो अपने आप को डाक्टर कहा करती थी और अकसर पूरे विश्वास के साथ कहा करती थी कि हमारे यहां तो बंदर के दिल को आदमी के दिल में आसानी से लगा दिया जाता है......और हम छोटे छोटे बच्चे उस की बातें सुन कर हैरान हुआ करते थे।
जब हम लोग कालेज में थे तो एक लकड़ी की जाली वाली अलमारी में खरगोश भी देखा करते थे....हमें बताया जाता था कि जो बीएससी मैडीकल करते हैं उन्हें खरगोश की चीर-फाड़ करनी होती है। मैं भी दो दिन बीएससी मैडीकल की क्लास में गया था ... लेिकन फिर बीडीएस का बुलावा आ गया और हम अगले आठ साल के लिए सरकारी डैंटल कालेज अस्पताल के सुपुर्द कर दिए गये।
UGC finally gives in, bans animal dissections in colleges