गुरुवार, 7 अगस्त 2014

मेंढक, कॉकरोच, केंचुआ, खरगोश, छिपकली बच गये जी बच गये..

आज जब अखबार पकड़ा तो पहले ही पन्ने पर यह खबर देख कर बहुत खुशी हुई कि यूजीसी ने कालेजों में जीव-जंतुओं की चीड़-फाड़ पर प्रतिबंध लगा दिया है।

खबर तो कुछ वर्ष पहले भी इस तरह की छपी थी लेकिन अब यह खबर....अखबार पढ़ने पर पता चल गया कि पहले यूजीसी ने प्रतिबंध लगाया था कि विद्यार्थी कालेजों में ऐसी चीड़-फाड़ नहीं कर सकेंगे, लेकिन उन के प्रोफैसर लोग छात्रों को सिखाने के लिए यह चीड़-फाड़ कर सकते हैं।

लेकिन आज की खबर ने तो कमाल ही कर दिया कि अब तो प्रोफैसर लोग भी यह सब नहीं कर सकेंगे।

यह यूजीसी का एक प्रशंसनीय निर्णय है। आज कल के छात्र तकनीकी तौर पर इतने एडवांस हो चुके हैं कि नेट पर दुनिया जहान की चीज़ें सीखते रहते हैं....सब कुछ तो नेट पर पड़ा है। इसलिए बस इतने से काम के लिए इतने सारे जीव-जंतुओं की बलि दे दी जाए ... बात गलत तो बिल्कुल है ही।

लेकिन अफसोस मेरे जैसे लोगों को भी अब यह बात गलत दिखने लगी जब जानवरों के हितों के लिए सक्रिय संस्थाओं ने इस मुद्दे पर हाय-तौबा मचाई शुरू की। और वे बिल्कुल ठीक हैं .. उन के प्रयासों से लाखों-करोड़ों जीव-जंतु लगता है आजकल जश्न के मूड में होंगे।

मुझे याद है मैंने कालेज में प्री-यूनिवर्सिटी मैडीकल और प्री-मैडीकल के दौरान-- काकरोच, अर्थवर्म (केंचुआ), मेंढक, छिपकली---इन की चीड़फाड की थी। प्री-यूनीवर्सिटी में काकरोच और अर्थवर्म ... और अगले साल मेंढक और छिपकली की चीड़फाड़ की थी। हमें लैब में एक ट्रे दे दी जाती थी जिस में इन में से किसी भी जीव-जंतु को रख दिया जाता था....मुझे अभी ध्यान नहीं आ रहा कि क्या वे सब मरे हुए ही हुआ करते थे.... जहां तक याद है कईं बार मेंढक आदि के कुछ अंग उसकी चीड़फाड़ करने पर फड़फड़ाते से दिखते थे। अब कुछ ठीक से याद नहीं आ रहा।

जो भी हो, इस निर्णय से बड़ी राहत मिली है। जीव-जंतुओं के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्थाओं को बड़ी आपत्ति थी कि इन जीव-जंतुओं को चीर-फाड़ के लिए उन के प्राकृतिक वातावरण (natural habitat) से ही पकड़ा जाता है और इस सब की वजह से वातावरण मंडल का संतुलन गड़बड़ हुआ जा रहा है।

एक धुंधली सी याद यह भी आ रही है कि उस जमाने में जिस छात्र के हाथ में एक डाईसैक्शन बाक्स होता था, जिस में एक छोटी कैंची और दो-तीन और औजार हुया करते थे.. तो जिस ने इस बाक्स को अपने हाथ में पकड़ा होता या फिर साईकिल के अगले हैंडल पर लगे कैरियर पर कसा होता, उस की ठसक मोहल्ले में और कालेज में पूरी होती थी क्योंकि आर्ट्स वाले छात्र इतना तो समझ ही लेते थे कि ये चीड़फाड़ वाले हैं........और इसी चक्कर में मेरे जैसा अनाड़ी भी बाक्स को पकड़े हुआ अपने आप को आधा डाक्टर तो समझने ही लगता था।

वे भी क्या दिन थे, हमारी डेयरी वाला एक बार किसी अन्य प्रदेश में गया, वहां से खरीद कर एक बीवी लेकर आया, जो अपने आप को डाक्टर कहा करती थी और अकसर पूरे विश्वास के साथ कहा करती थी कि हमारे यहां तो बंदर के दिल को आदमी के दिल में आसानी से लगा दिया जाता है......और हम छोटे छोटे बच्चे उस की बातें सुन कर हैरान हुआ करते थे।

जब हम लोग कालेज में थे तो एक लकड़ी की जाली वाली अलमारी में खरगोश भी देखा करते थे....हमें बताया जाता था कि जो बीएससी मैडीकल करते हैं उन्हें खरगोश की चीर-फाड़ करनी होती है। मैं भी दो दिन बीएससी मैडीकल की क्लास में गया था ... लेिकन फिर बीडीएस का बुलावा आ गया और हम अगले आठ साल के लिए सरकारी डैंटल कालेज अस्पताल के सुपुर्द कर दिए गये।
UGC finally gives in, bans animal dissections in colleges





अगली बार कोई खुला मेनहोल दिखे तो इस का ध्यान रखिएगा

इस पोस्ट का हीरो नं१.. सुरेश कुमार
पांच छः दिन पहले की बात है मैं अपनी ड्यूटी पर जा रहा था.. उस िदन मैं अपने टू-व्‌हिलर पर था। अस्पताल के अंदर जा रहा था, आगे एक बिल्कुल नुकीला सा मोड़ है जिसे क्रॉस करने पर मैंने पाया कि यह क्या कुछ तो खुला हुआ था
मेनहोल की चौड़ई और लंबाई का अंदाज़ा आप इस से लगा सकते हैं
मैंने आगे चल कर अपना स्कूटर रोक दिया...और फिर देखा कि वहां तो एक बहुत बड़ा मेनहोन खुला पड़ा है...तीन चार फुट गहरा और चौड़ाई तो आप इस इन तस्वीरों में देख ही रहे हैं।

एक बार तो मैं हिल गया.....मुझे लगा कि आज तो जान बाल बाल बच गई... ईश्वर का शुक्र अदा किया...लेकिन इतना बड़ा मेनहोल खुला देख कर वहां से हटने की इच्छा नहीं हुई।

सब से पहले तो मुझे पास ही कुछ ईंटे पड़ी हुईं मिली तो मैंने झट से उन पांच सात ईंटों को उस के किनारे पर रख दिया..इस उम्मीद के साथ कि आने वाले को दूर से ही कुछ तो दिखेगा कि यहां कुछ तो गड़बड़ है।

खुले मेनहोल की लोकेशन को आप यहां देख सकते हैं
इतने में मैंने अपने सहायक सुरेश कुमार को फोन किया....वह बाहर आया ..मैंने कहा कि देखो, इस का क्या हो सकता है।

बहरहाल उसे वहीं खड़ा कर के मैं अंदर आ गया और अंदर आने पर वह सब कुछ किया.....लिख कर, फोन पर, सूचित किया, इंफार्म किया......और इस एमरजैंसी के बारे में बताया। एक शख्स ने तो इतना कह दिया की ये लोग इतनी जल्दी सुनते नहीं हैं।

जो भी हो, मुझे पता चल गया कि अभी कुछ दिन तो होने वाला है नहीं.... मैं जानता हूं ना जहां हम लोग काम करते हैं। इसलिए मेरी चिंता यही थी कि अस्पताल में आने वाला कोई कर्मचारी, मरीज या कोई रिश्तेदार अगर उस में गिर विर कर चोटिल हो गया तो अगर उस की जान पर ना भी बन आई तो बेचारा कुछ हड्डियां तो टुड़वा ही बैठेगा और अगर सिर पर चोट लग गई तो और मुसीबत।

इतने में मेरा अटैंडेंट वापिस लौट आया...और मुझे खबर देने लगा कि सर, ऐसा जुगाड़ कर आया हूं कि दूर ही से किसी भी वाहन चालक को पता चल जायेगा कि यहां लफड़ा है, इस से बच कर निकलना है। बताने लगा कि एक पेड़ की टहनी उन ईंटों के बीचो बीच खड़ी कर के आ गया है। 

चलिए मुझे इत्मीनान पहले से थोड़ा ज़्यादा तो हुआ कि चलिए, ईंटों की बजाए यह तो एक बेहतर तरीका है दूर से ही आने वालों को सचेत करने का।

लेकिन उस दिन अपनी ओपीडी में मन बिल्कुल भी लगा नहीं.....शायद अगले दिन ईद की छुट्टी थी और यही चिंता सता रही थी कि पेड़ की टहनी कितना समय ऐसा ही टिकी रहेगी....अंधेरी से, पानी बरसने से िगर विर जायेगी और विशेषकर रात में आने वालों की तो भयंकर आफ़त हो जायेगी।

शायद प्रार्थना ही काम कर गई.....मेरे अटैंडेंट ने भी इस समस्या का हल खोजने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उस दिन वह भी उस काम ही में लगा रहा.....अपने पांच छः साथियों को, सफ़ाई वालों को इक्ट्ठा कर के अस्पताल के किसी दूर कोने में पड़े एक बहुत बड़े पत्थर को धक्का देता हुआ वहां तक पहुंच गया और उस खुले मेनहोल पर टिका दिया। बनियानें इन लोगों की पसीने से लथपथ हो रही थीं।

 ऐसे  जुगाड़ से जनता को बचाने की कोशिश की गई
मुझे भी बुलाने आया बाद में कि आप देखो सर, कैसा है यह इंतजाम। मैं भी उस के साथ वहां देखने गया.... वह भारी भरकम पत्थर देख कर इतना हैरान हुआ कि ये लोग कैसे धक्का मारते हुए इसे यहां तक लाए होंगे। Where there is will, there is a way!

उस मेनहोल से जिस लोहे के कवर को चुराया गया था, उस का वजन ही ५०-६० किलो का बताया जाता है, पुराने जमाने के तैयार ये कवर......किसी चिंदीचोर की नज़र पड़ गई होगी, उसे काट कर उठा ले गया।

स्टॉफ के कुछ लोगों ने जिस तरह से इस एमरजैंसी को संभाल लिया ...मैं उस दिन यही सोचता रहा कि हर संस्था में कुछ न कुछ ऐसे लोग ज़रूर होते ही हैं जिन के लिए हर काम उन का अपना काम है, वे कभी किसी काम को ना करना तो जैसे सीखे ही नहीं, बल्कि स्वयं आगे आ कर इस तरह की सेवा में लग जाते हैं। 

सही बात है, विभिन्न तरह के ईनामों के सही पात्र इसी तरह के लोग होते हैं........लेकिन मजे की बात है कि इन लोगों की इन सब दिखावटी चीज़ों की कोई भी तमन्ना नहीं होती। जब मैंने अपने अटैंडेंट से ऐसा कहा तो उस ने हंसी में बात टाल दी और अपने साथियों के साथ चाय-पार्टी करने चला गया।

यह बात तो थी आज से शायद पांच-सात दिन पुरानी लेकिन आज भी यह पत्थर ही उधर पड़ा लोगों को बचा रहा है, देखते हैं कब तक उस का कवर तैयार हो कर आता है।

इस पोस्ट को लिखते का उद्देश्य केवल यही था कि हम लोग िजस रास्ते पर भी चल रहे हैं, वहां पर इस तरह के खुले मेनहोलों के बारे में सजग रहें और कुछ इस तरह का इंतजाम कर दें कि आने वाला बिना किसी पूर्वाभास के अपने जान माल का नुकसान न करवा बैठे..... चलिए माल तो फिर इक्ट्ठा हो भी जाएगा लेकिन हर बंदे की जान बेशकीमती है, अनमोल है, उस की हर कीमत पर रक्षा होनी चाहिए। पिछले महीने मैं अंधेरी क्षेत्र में एक फुटपाथ पर चल रहा था तो अचानक देखा उस फुटपाथ के बीचो बीच एक बहुत बड़ा मेनहोल खुला पड़ा है...... ऐसा दिखना ही संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है।

अाज कल हम सोशल मीडिया को इतना इस्तेमाल करते हैं....तो उस की फोटू निकाल कर व्हस्ट-एप, फेसबुक, ट्विटर पर संबंधित अधिकारियों तक पहुंचाने में देखिए तो क्या होता है। कुछ अरसा पहले एक फेसबुक पेज के बारे में इलैक्ट्रोिनक मीडिया से जाना कि उन्होंने उस पेज पर देश में कहीं भी मिलने वाले खुले मेनहोलों, गड्ढ़ों की तस्वीरें अपलोड की हुई हैं...... और फिर उन के ही कुछ वालेंटियर्ज़ उस गड्ढे को भरने निकल भी जाते हैं। इन के काम को सलाम। यही सच्ची इबादत है....जैसा कि इस गीत में भी कहा जा रहा है। 

मेरा बेटा बता रहा था कि कुछ दिन पहले बंबई में एक फ्लाईओव्हर पर एक गड्‍ढा होने से एक बाईक चालक की जान चली गई।