मंगलवार, 26 नवंबर 2024

वह बहुरूपिया ....

उस दिन दिल्ली-मुंबई फ्लाईट के लिए जैसे ही उसने प्लेन के अंदर प्रवेश किया तो मुझे पहली नज़र में तो यही लगा कि यह कोई कव्वाल है जो अपने साथियों के साथ मुंबई में कोई प्रोग्राम करने जा रहा है….यही कोई 35-40 वर्ष का युवक, एक दम सफेद, कल्फ लगा, इस्तरी किया हुआ कुर्ता-पायजामा, पैरों में सफेद गुरगाबी (बेली) और कड़क वेशभूषा के साथ उससे मेल खाती उस की ऐंठन। साथ में तीन-चार चेले-चपाटे से दिखने वाले युवक बहुत सारा सामान सेट करने में लग गए..

उस की आइल सीट थी - पहले नंबर वाली बाईं तरफ की…और मेरी थी तीन नंबर सीट आइल सीट दाईं तरफ़ वाली….प्रीमियम सीट थी…इस के लिए भी एयरलाईन वाले एक हज़ार रूपया अलग से वसूलते हैं, अब यह एक नई सिरदर्दी है….मुझे तो अपने घुटनों की सलामती के लिए इस तरह की कोई न कोई सीट लेने की मजबूरी है…


खैर, किताब पढ़ते पढ़ते मेरा ध्यान बीच बीच में उस बाबा की तरफ़ चला जाता…बाबा मैंने इसलिए कहा कि अचानक उस के किसी चेले ने उस के लिए कुछ ऐसा ही संबोधन किया था….इसलिए, इन को कव्वाल एंड पार्टी समझने वाला मेरा अंदाज़ा गलत निकला….ठीक है, बाल तो उस के बहुत लंबे थे …और जैसे महिलाएं बालों की स्ट्रेटनिंग करवाया करती हैं, ठीक उसी तरह से लगता है उसने भी करवाए हुए थे….बार बार उन को संभाल रहा था ….और एक बात जो उस के बाबा या कथा-वाचक होने की तरफ़ इशारा कर रही थी वह उस की वेश-भूषा …आज कल टीवी आदि पर कथा-वाचक इसी वेश-भूषा में दिखाई देते हैं…खैर, मुझे अब वह कथा-वाचक ही लग रहा था…


खाना आया…पेमेंट पर था ..शायद टिकट लेते वक्त ही आर्डर किया गया होगा…जैसे ही उस के आगे वह ट्रे रखी गई, कहने लगा कि मैं यह नहीं खाता, मैं वो नहीं खाता….उस का एक विशेष सहायक दिखने वाला उस के पास खड़ा चीज़ों को समेटने में लगा हुआ था ….और उस के बाद भी लगभग आधा घंटे तक हाथ बांधे उस की सीट के पास ही खड़ा रहा …एक दम समर्पण भाव…पता नहीं बातें क्या कर रहे थे, मैं भी एक बडी रोचक किताब में गढ़ा पड़ा था….


हां, बीच बीच में उस कथा-वाचक टाइप बंदे की तरफ नज़रे जातीं तो पहले तो मैं यही सोचने लगा कि इस शक्ल का कोई बाबा या कथा-वाचक अभी तक न तो कभी टीवी पर दिखा है और न ही वाट्सएप विश्वविद्यालय ने ही ऐसी कोई सूचना दी है …खैर, मैंने देखा कि उसने दाएं पैर के टखने पर एक कड़ा पहना हुआ था…मैं बेकार में अपने दिमाग पर यह लोड लेने लगा कि यह इसने पहना कैसे होगा…जैसे गांव-देहात की महिलाों में विशेषकर जनजाति इलाकों में यह प्रथा प्रचलित है…


इतने में उसने आंखों पर वह काली सी पट्टी लगा ली….जो रोशनी में सोने के लिए आज कल कईं लोग लगाने लगे हैं…लेकिन यह क्या, वह तो पट्टी लगाने के बाद भी नीचे से जो थोड़ी जगह रह जाती है, उस की मदद से निरंतर अपने मोबाइल पर लगा हुआ था…


खैर, हम लोग मुंबई पहुंच गए…और हां, एक बात तो मैं बतानी भूल ही गया कि उस के साथ एक आधुनिक वेश-भूषा में एक 30-35 की उम्र के करीब एक मॉड दिखने वाली महिला भी थीं…उस की साथ वाली सीट पर ही वह बिराजमान थीं…बस, इतना ही…क्योंकि उन्होंने रास्ते में कोई बातचीत नहीं की …वह तो जब प्लेन से नीचे उतरने लगा तो उन को पास खड़े देख कर मुझे यह पता चला कि वह भी इन के साथ ही हैं…विचार यही आया कि प्रोग्राम की ओ-आर्डीनेटर, इवेंट मेनेजर होंगी ….क्योंकि इस तरह के प्रोग्रामों के लिए ये सब लोग भी लगते हैं, भाईं….आज कल वह नाई वाला ज़माना नहीं रहा कि सारी पब्लिसिटी का जिम्मा नाई के पास होता था …


जिस जगह खड़ा मैं अपने सामान के आने की इंतज़ार कर रहा था, वहीं से दिखा कि वह बंदा आ रहा है….उसने वहां पहुंचते ही अपने चेले को एक हैंड-बैगेज (अभी चैक्ड-इन सामान नहीं आया था) खोलने को कहा ….उस के बाद मेरा उधर ध्यान नहीं गया….वैसे भी सामान आने में वक्त थोड़ा ज़्यादा ही लग रहा था …उस के चार पांच चेले भी वहीं थे….बस, मैंने इतना नोटिस किया कि वह बंदा वहां नहीं है, यही सोचा कि वह बाहर निकल गया होगा, अब इतने सारे लोग हैं सेवा के लिए तो उस का वहां पर क्या काम….


तभी पांच मिनट में वही इंसान सामने वाले एक वॉश-रूम से निकल कर चला आ रहा था ….उस का मेक-ओवर, पूरा काया कल्प …उसने जगह जगह से फटी जीन (जिस का आज कल रिवाज़ है) पहनी हुई थी, साथ में कोई महंगी सी टी-शर्ट और नीचे महंगे से कोई स्पोर्ट्स-शूज़….बालों को चोटी कर के रबड-बैंड लगा हुआ था ...उस के चेले तो पहले ही से तैयार थे, उस की बाट जोह रहे थे …सब का सामान अलग हो चुका था ….इतने में एक चेले ने मिठाईयों वाला थैला जब उस के सामान के साथ रखना चाहा तो उस ने उस कहा …ये सब आप ले जाओ….मैं तो वैसे भी इन्हें खाता नहीं…। 



मैं यह सोचने लगा कि न वह बंदा खाना खाता है, न यह सब …….तो आखिर खाता क्या है। चलिए, उस से हमें क्या लेना देना …पता नहीं बंदा अपने ज्ञान से, अपनी कथा से कितने लोगों का मार्ग-दर्शन कर के वापिस लौट रहा था…जो भी हो, मैंने कल पहली बार इतनी जल्दी किसी का मेक-ओवर होते देखा था....मैं भी क्या मेक-ओवर, मेक-ओवर की रट लगाए जा रहा हूं...सीधी सपाट बात करूं तो भेष-बदलना....या और भी देसी ज़ुबान में कहूं तो बहु-रुपिया....। वैसे मुझे बाद में उस बंदे के बारे में सोच कर जो फिल्मी गीत याद आ रहा था, यह रहा उस का यू-ट्यूब लिंक ... दरबार में ऊपर वाले के ....अंधेेर नहीं पर देरी है।


निदा फ़ाज़ली की बात याद आ गई….


हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी…


जिसे भी देखना हो कईं बार देखना …

हां, मैं जिस किताब को पढ़ रहा था वह भी कम रोचक न थी….उसमें बड़ा ज्ञान है, गौहर रज़ा जो एक बहुत बड़े वैज्ञानिक हैं उन की किताब है यह….कुछ दिन पहले उन को सुनने का मौका मिला …एक दम वैज्ञानिक सोच, वैज्ञानिक बातें …न किसी को अंधविश्वास की गर्त में फैंकने वाला कोई काम ..सब कुछ सच लिखा है….



पहले तो मैं सत्संग में सुनता था कि मेरा वजूद एक रेत के कण के बराबर भी नहीं है लेकिन उस महान वैज्ञानिक ने यह अच्छे से समझा दिया कि सारी की सारी धरती का ही जो वजूद है वह सारे ब्रह्मांड की तुलना में एक रेत के कण के बराबर है…क्या कह रहे थे ….पानी का एक बुलबुला या उस से भी कम ……….और हम हैं कि हमारी ऐंठन कम होने का नाम ही नहीं लेती, हम बंदे को बंदा ही नहीं समझते……अगर यह किताब कहीं ऑन-लाइन दिखे तो इसे ज़रूरी पढ़िए….ऐंठन की, अकड़ की निरर्थकता समझ आ जाएगी…..