मुझे १५ साल पहले एक नवलेखक शिविर में एक विद्वान की यह बात सुनने का मौका मिला था ..कि हमें अपनी मातृ-भाषा में भी ज़रूर लिखना चाहिए....सोचा उस समय इस के बारे में लेकिन कभी इस बात को गंभीरता से लिया नहीं शायद..
वहां से लौटने के बाद मैं अखबारों के लिए लेख लिखता रहा ...अधिकतर हिंदी में और यदा कदा पंजाबी में....इस के पीछे मेरी यही सोच थी कि पंजाबी अखबारों की रीडरशिप कम है...
२००७ से केवल ब्लॉगिंग कर रहा हूं....अधिकतर हिंदी में ...१० साल हो गये ...१५०० के करीब लेख हो गये...इसी दौरान २०१० के आसपास इंगलिश में भी ब्लॉगिंग शुरू की ...यही कोई तीन चार साल तक की ( चार सौ के करीब लेख) ... अभी भी कभी कभी कोई टैक्नीकल बात कहनी हो तो इंगलिश में ही लिखता हूं...उस के बहुत से कारण हैं...अभी उस में नहीं जाते।
हिंदी और पंजाबी वाली बात तक ही अपनी बात को सीमित रखता हूं...एक है राष्ट्र भाषा और दूसरी मातृ-भाषा...दोनों का अपना अपना महत्व है..
कल मैं टीवी में प्रधानमंत्री मोदी का नीदरलैंड के हैग में हिंदुवंशियों के समूह में दिये गये भाषण को सुन रहा था...सही बात कही कि कुछ लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि उन के बच्चों को भारतीय भाषाएं आती ही नहीं हैं.. ऐसे में १५० साल पहले गये सुरीनाम जा बसे भारतीयों ने तीन चार पीढ़ियों के बाद भी जैसे अपने देश का सभ्यता, संस्कृति को संजो कर रखा है, उस की मोदी तारीफ़ कर रहे थे...
कुछ सप्ताह पहले एक बुक-फेयर में मुझे बलराज साहनी साहब की एक छोटी सी किताब मिल गई थी ...साहित्यकारों के नाम संदेश...उसमें भी यही संदेश था कि हमें अपनी मातृ-भाषा में भी ज़रूर लिखना चाहिए... अच्छा लगा था उस किताब के शुरूआती आठ दस पेज़ पढ़ कर ..अभी पूरी नहीं पढ़ी लेकिन बात पल्ले पड़ गई।
कुछ सप्ताह पहले एक बुक-फेयर में मुझे बलराज साहनी साहब की एक छोटी सी किताब मिल गई थी ...साहित्यकारों के नाम संदेश...उसमें भी यही संदेश था कि हमें अपनी मातृ-भाषा में भी ज़रूर लिखना चाहिए... अच्छा लगा था उस किताब के शुरूआती आठ दस पेज़ पढ़ कर ..अभी पूरी नहीं पढ़ी लेकिन बात पल्ले पड़ गई।
इस में कोई शक नहीं कि बहुत से लोग बच्चों को अपनी मातृ-भाषा में बात करते समय टोकते हैं...इस के बारे में क्या लिखूं, इस के बारे में हम सब लोग अच्छे से जानते हैं कि पंजाबी जैसी भाषायें धीरे धीरे लोग आज की युवा पीढ़ी कम बोलती है...मुझे यह बड़ा अजीब लगता है ...ऐसा नहीं होता कि आप १५-२० साल की उम्र में बच्चों को कहना शुरू करें कि भई, पंजाबी में बात किया करो...और वे ऐसा कर पायेंगे....मुश्किल काम होता उन के लिए भी।
यह तो है बोलने वाली बात ...लिखने की तो बात ही क्या करें!
ज़्यादा बात को खींचने की बजाए, मैं सीधा बात पर आता हूं कि मुझे लगता है कि मैंने पंजाबी में बहुत कम लिखा ...शायद इस का एक कारण यह था कि जब मैं हाथ से लिख कर अखबार में लिख कर भेजता था तो ठीक था, लेेकिन जब से मैंने कंप्यूटर पर काम करना शुरू किया तो मैंने नोटिस किया कि पंजाबी के कुछ शब्द मेरे से लिखे नहीं जा रहे थे क्योंकि मेरे को बिंदी-टिप्पी-अध्धक कंप्यूटर में इस्तेमाल करने मुश्किल लग रहे थे.....बस, ऐसे में धीरे धीरे पंजाबी लिखना कम से कम ब्लॉगिंग में छूट गया....लेकिन मुझे इस का बहुत मलाल है...
जो हमारी मातृभाषा होती है उस में हम सोचते हैं....और अगर उसी में लिखते-पढ़ते हैं तो यह सब बहुत नेचुरल होता है ... जद्दो-जहद नहीं करनी पड़ती।
सही में अगर मौलिकता की, सर्जनात्मकता की बात करें तो वह मातृ-भाषा में लिखते समय स्वतः आयेगी...और अगर अच्छा लिखा होगा तो उसका अपने आप बीसियों भाषाओं में अनुवाद भी हो जायेगा... लिखते समय कभी इस सिरदर्दी की चिंता मत करिए, यह दूसरों के लिए छोड़ दीजिए..बस, आप तो अपनी कह के मुक्त हो जाइए....
सही में अगर मौलिकता की, सर्जनात्मकता की बात करें तो वह मातृ-भाषा में लिखते समय स्वतः आयेगी...और अगर अच्छा लिखा होगा तो उसका अपने आप बीसियों भाषाओं में अनुवाद भी हो जायेगा... लिखते समय कभी इस सिरदर्दी की चिंता मत करिए, यह दूसरों के लिए छोड़ दीजिए..बस, आप तो अपनी कह के मुक्त हो जाइए....
हिंदी में लिख तो लेता हूं ...कईं बार शब्दों की वजह से अटक जाता हूं... अपनी बात कहने के लिए वह शब्द नहीं मिल पाता जो मेरे मन के भाव प्रकट कर सके..और अगर मैं जबरदस्ती वहां कोई शब्द हिंदी का फिट कर भी देता हूं तो वह बात बनती नहीं.
मुझे शुरू शुरू में यही लगता था कि हिंदी बड़ी शुद्ध लिखनी चाहिए.. लेकिन ऐसा शायद हो नहीं पाता...हम वही हिंदी लिख पाते हैं जो हमें आती है ...हम वही शब्द इस्तेमाल कर सकते हैं जिन के इस्तेमाल के बारे में हमें पता है ...ऐसे ही धक्के से कुछ शब्द इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं तो फिर गड़बड़ हो जाती है....
मैं अकसर देखता हूं कि हिंदी लेखकों की कहानियां या हिंदी का कोई भी साहित्य पढ़़ते समय मैं कईं शब्दों पर अटक जाता हूं....फिर अनुमान लगाने लगता हूं...यह कहना आसान है कि उसी समय शब्दकोष देख लेना चाहिए, ऐसा नहीं हो पाता मेरे साथ..बस, इसी चक्कर में कुछ ही पन्ने पढ़ कर वह किताब अलमारी में वापिस सरका दी जाती है ...
लेकिन अगर मैं उन लेखकों की हिंदी कहानियां पढ़ता हूं जिन की मातृ-भाषा पंजाबी है तो मैं उन्हें बेहतर तरीके से पढ़ पाता हूं...कुछ शब्दों पर अटकता हूं क्योंकि लेखक जिस भी परिवेश में पले-बढ़े हैं, कुछ शब्द वहां से भी साथ जुड़ ही जाते हैं...लेकिन फिर भी ऐसे लेखकों को पढ़ कर मेरी कमज़ोर हिंदी की हीन-भावना समाप्त होती दिखती है क्योंकि मुझे लगता है कि यह तो मेरी हिंदी से मिलती-जुलती हिंदी ही है ...
कुछ हिंदी के लेखकों को पढ़ता हूं तो ज़्यादा समझ ही नहीं पाता...भारी भरकम शब्द ....मुझे कईं बार लगता है कि ये भारी भरकम शब्द कहीं जानबूझ तो इस्तेमाल नहीं किया जाते होंगे...अपनी अच्छी हिंदी को दिखाने के लिए...लेकिन जो भी हो इस से पढ़ने समझने में मुश्किल होती है ....इसी चक्कर में मैं हिंदी की कविताएं तो बिल्कुल भी समझ ही नहीं पाता....वही समझ में आईं जो स्कूल में मास्टरों ने डंडे के ज़ोर पर समझा दी, बाकी सब गोल।
तकनीकी शब्दावलियों को देखता हूं तो डर जाता हूं ...इतने भारी भरकम शब्द ...कोई कैसे इन शब्दों को समझेगा...इसीलिए हम लोग अपनी मातृ-भाषा में तो दूर अपनी राष्ट्र-भाषा में तकनीकी विषयों को पढ़ा नहीं पा रहे हैं.....और जो देश ऐसा कर रहे हैं वे तारीफ़ के काबिल हैं..
मैं भाषा विज्ञानी नहीं हूं ..जो समझा हूं वही लिखने की कोशिश कर रहा हूं....हां, कठिन शब्दों से याद आया कि लेखक के परिवेश का और उसने किस दौर में लेखन किया, इन सब बातों का भी असर तो साहित्य पर पड़ता ही है ..मैं कल मुंशी प्रेमचंद की कुछ कहानियां पढ़ रहा था ...कुछ शब्द मेरे सिर के ऊपर से ही निकले जा रहे थे।
ऐसा भी नहीं है कि हिंदी में ही यह समस्या है ...अकसर ऐसा भी होता है कि पंजाबी में भी किसी लेखक को पढ़ते हुए कुछ शब्दों पर अटक जाता हूं लेकिन वहां पर वह फ्लो खंडित नहीं होता क्योंकि वहां पर मैं आराम से कयास लगा लेता हूं...
अब ये सब बातें लिख कर ऊबने लगा हूं....लेकिन एक मशविरा तो है कि हमें अपनी मातृ-भाषा में लिखना-पढ़ना हमेशा जारी रखना चाहिए....हम सोशल मीडिया पर आडियो मैसेज तो दूर टैक्स्ट मैसेज भी मातृ-भाषा में नहीं करते ....बात भी मातृ-भाषा में नहीं करते ...और बात करते हुए भी अपने स्कूल कालेज के साथियों को भी "जी..जी " मिमियाने लगते हैं....मुझे इस से बड़ी नफ़रत है .....अगर हम स्कूल कालेज के दौर के ही अपने साथियों को व्हीआईपी ट्रीटमैंट देने लगते हैं तो इसके कईं मतलब हैं...उन के बारे में आप स्वयं सोचिए.......लेेकिन मुझे किसी भी स्कूल कालेज वाले दौर के साथी को जी लगा कर बुलाना बड़ा अजीब लगता है और मैं ऐसा अकसर नही ंकरता ....जहां मुझ से ऐसी एक्सपैक्टेशन भी होती है ...मैं वहां से गोल ही हो जाता हूं..
अपनी मातृ-भाषा में लिखने-पढ़ने का मजा ही कुछ और है ...जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है कि वहां पर भी कुछ शब्दों में मैं अटक जाता हूं....इस का कारण वही है कि उस लेखक का अपने समय का परिवेश अलग होता है ....कल मैं डा महिन्द्र सिंह रंधावा की आपबीती पढ़ रहा था ..किसी पंजाबी की किसी स्कूल की किताब में प्रकाशित हुई है....पढ़ कर ऐसा लगा कि मैं उन से बातचीत कर रहा हूं...मेरे विचार में यह एक महान् लेखन के लक्षण हैं....और उन्होंने लिखा भी इतनी बेबाकी से था ....डा रंधावा साहब के बारे में अगर आपने नहीं सुना तो यह आप के सामान्य ज्ञान पर ही प्रश्न चिंह लगाती है ....यह देश की एक महान हस्ती हुई हैं ...विकिपीडिया पर इन के बारे में यहां जानिए... डा महेन्द्र सिंह रंधावा
डा रंधावा साहब की पंजाबी भाषा में लिखी उस आपबीती से चंद पंक्तियां हिंदी में अनुवाद कर के लिख रहा हूं..
बात तो लंबी हो गई पता नहीं अपनी बात ठीक से कह पाया हूं कि नहीं......शायद थोड़ी बहुत तो हो ही गई बात ....और एक बात कि अपनी मातृ-भाषा में लिटरेचर पढ़ने की शुरूआत ऐसे करें कि स्कूल की पंजाबी की पाठ्य-पुस्तकें पढ़ते रहा करें...नेट पर भी पीडीएफ फोर्मेट पर पड़ी हुई हैं.....लेेकिन मेरी तरह इन्हें स्लीपिंग पिल की तरह मत इस्तेमाल करिए...थोड़ा समय रोज़ाना ऐसे साहित्य के साथ बिताइए.....यकीन मानिए यह हमारी मानिसक सेहत के लिए भी बहुत फायदेमंद है...
एक छोटी सा बात जाते जाते कि हम लिखते इसलिए हैं कि जो कोई भी पढ़े उसे समझ में आ जाए...फिर अपनी बात किसी भी भाषा में इतनी घुमावदार ढंग से क्यों कही जाए...बस, इतना सा ध्यान रहे ...और लिखते समय भी यही ध्यान रखा जाए कि पढ़ने वाला कहीं भी अटके नही...हम क्यों नहीं बातचीत वाली भाषा में लिख पाते! लिखने वाले सोचिएगा...मातृ-भाषा की बात ही अलग होती है...उसे सुप्त मत होने दीजिए....जहां तक हो सके। फैशन के लिए कभी कभी एक दो जुमल मातृ-भाषा में बोल कर इसे उपहास का माध्यम न बनाएं, दिक्कत हमें और आने वाली पीढ़ियों को ही होगी।
मैं अकसर देखता हूं कि हिंदी लेखकों की कहानियां या हिंदी का कोई भी साहित्य पढ़़ते समय मैं कईं शब्दों पर अटक जाता हूं....फिर अनुमान लगाने लगता हूं...यह कहना आसान है कि उसी समय शब्दकोष देख लेना चाहिए, ऐसा नहीं हो पाता मेरे साथ..बस, इसी चक्कर में कुछ ही पन्ने पढ़ कर वह किताब अलमारी में वापिस सरका दी जाती है ...
लेकिन अगर मैं उन लेखकों की हिंदी कहानियां पढ़ता हूं जिन की मातृ-भाषा पंजाबी है तो मैं उन्हें बेहतर तरीके से पढ़ पाता हूं...कुछ शब्दों पर अटकता हूं क्योंकि लेखक जिस भी परिवेश में पले-बढ़े हैं, कुछ शब्द वहां से भी साथ जुड़ ही जाते हैं...लेकिन फिर भी ऐसे लेखकों को पढ़ कर मेरी कमज़ोर हिंदी की हीन-भावना समाप्त होती दिखती है क्योंकि मुझे लगता है कि यह तो मेरी हिंदी से मिलती-जुलती हिंदी ही है ...
कुछ हिंदी के लेखकों को पढ़ता हूं तो ज़्यादा समझ ही नहीं पाता...भारी भरकम शब्द ....मुझे कईं बार लगता है कि ये भारी भरकम शब्द कहीं जानबूझ तो इस्तेमाल नहीं किया जाते होंगे...अपनी अच्छी हिंदी को दिखाने के लिए...लेकिन जो भी हो इस से पढ़ने समझने में मुश्किल होती है ....इसी चक्कर में मैं हिंदी की कविताएं तो बिल्कुल भी समझ ही नहीं पाता....वही समझ में आईं जो स्कूल में मास्टरों ने डंडे के ज़ोर पर समझा दी, बाकी सब गोल।
तकनीकी शब्दावलियों को देखता हूं तो डर जाता हूं ...इतने भारी भरकम शब्द ...कोई कैसे इन शब्दों को समझेगा...इसीलिए हम लोग अपनी मातृ-भाषा में तो दूर अपनी राष्ट्र-भाषा में तकनीकी विषयों को पढ़ा नहीं पा रहे हैं.....और जो देश ऐसा कर रहे हैं वे तारीफ़ के काबिल हैं..
मैं भाषा विज्ञानी नहीं हूं ..जो समझा हूं वही लिखने की कोशिश कर रहा हूं....हां, कठिन शब्दों से याद आया कि लेखक के परिवेश का और उसने किस दौर में लेखन किया, इन सब बातों का भी असर तो साहित्य पर पड़ता ही है ..मैं कल मुंशी प्रेमचंद की कुछ कहानियां पढ़ रहा था ...कुछ शब्द मेरे सिर के ऊपर से ही निकले जा रहे थे।
ऐसा भी नहीं है कि हिंदी में ही यह समस्या है ...अकसर ऐसा भी होता है कि पंजाबी में भी किसी लेखक को पढ़ते हुए कुछ शब्दों पर अटक जाता हूं लेकिन वहां पर वह फ्लो खंडित नहीं होता क्योंकि वहां पर मैं आराम से कयास लगा लेता हूं...
अब ये सब बातें लिख कर ऊबने लगा हूं....लेकिन एक मशविरा तो है कि हमें अपनी मातृ-भाषा में लिखना-पढ़ना हमेशा जारी रखना चाहिए....हम सोशल मीडिया पर आडियो मैसेज तो दूर टैक्स्ट मैसेज भी मातृ-भाषा में नहीं करते ....बात भी मातृ-भाषा में नहीं करते ...और बात करते हुए भी अपने स्कूल कालेज के साथियों को भी "जी..जी " मिमियाने लगते हैं....मुझे इस से बड़ी नफ़रत है .....अगर हम स्कूल कालेज के दौर के ही अपने साथियों को व्हीआईपी ट्रीटमैंट देने लगते हैं तो इसके कईं मतलब हैं...उन के बारे में आप स्वयं सोचिए.......लेेकिन मुझे किसी भी स्कूल कालेज वाले दौर के साथी को जी लगा कर बुलाना बड़ा अजीब लगता है और मैं ऐसा अकसर नही ंकरता ....जहां मुझ से ऐसी एक्सपैक्टेशन भी होती है ...मैं वहां से गोल ही हो जाता हूं..
अपनी मातृ-भाषा में लिखने-पढ़ने का मजा ही कुछ और है ...जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है कि वहां पर भी कुछ शब्दों में मैं अटक जाता हूं....इस का कारण वही है कि उस लेखक का अपने समय का परिवेश अलग होता है ....कल मैं डा महिन्द्र सिंह रंधावा की आपबीती पढ़ रहा था ..किसी पंजाबी की किसी स्कूल की किताब में प्रकाशित हुई है....पढ़ कर ऐसा लगा कि मैं उन से बातचीत कर रहा हूं...मेरे विचार में यह एक महान् लेखन के लक्षण हैं....और उन्होंने लिखा भी इतनी बेबाकी से था ....डा रंधावा साहब के बारे में अगर आपने नहीं सुना तो यह आप के सामान्य ज्ञान पर ही प्रश्न चिंह लगाती है ....यह देश की एक महान हस्ती हुई हैं ...विकिपीडिया पर इन के बारे में यहां जानिए... डा महेन्द्र सिंह रंधावा
डा रंधावा साहब की पंजाबी भाषा में लिखी उस आपबीती से चंद पंक्तियां हिंदी में अनुवाद कर के लिख रहा हूं..
'जून १९३० में मैंने एमएससी आनर्जड बॉटनी पहली श्रेणी में पास की। अब गांव आने के बाद यह सूझ ही नहीं रहा था कि कौन सा काम किया जाए जिस से कि गुज़ारा हो पाए। खेती बाड़ी में बड़ी डिप्रेशन थी और गेहूं डेढ़ रूपये में चालीस किलो के भाव से बिक रही थी।शहरों के लोग तो खुश थे कि गेहूं सस्ती है लेकिन किसानों का बहुत बुरा हाल था। तंग आ कर खेती-बाड़ी में उनका रूझान कम हो रहा था क्योंकि उन्हें उन की मेहनत का सिला नहीं मिल रहा था। फ़ालतू अन्न लोग पशुओं और कुत्तों को खिला रहे थे। गांवों के कुत्ते रोटियां खा खा के तगड़े होते जा रहे थे और दिन-दिहाड़े लोगों पर हमला कर देते थे। इस डिप्रेशन का बाकी काम-धंधों पर भी बड़ा बुरा असर पड़ा और कहीं कोई नौकरी नज़र नहीं आ रही थी।'लेख बंद करते समय बस यही कहना है कि हिंदी भी पढ़िए, इंगलिश भी पढ़िए...लिखिए....इस के आधार पर विश्व मार्कीट में अपनी विशिष्टता दिखाईए.....लेकिन अपनी मातृ-भाषा को नज़र-अंदाज़ मत करिए....यह मैं किसी भी कट्टरवाद से प्रेरित हो कर नहीं कह रहा ..वह मेरा विषय कभी था ही नहीं और ना ही होगा....लेकिन मातृ-भाषा के अधिक उपयोग से हम अपनी बात को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर पाते हैं....हमें मन की बातें कहने के लिए शब्द ढूंढने नहीं पड़ते ...मैंने भी सोचा है कि अब पहले से अधिक पंजाबी साहित्य और पंजाबी साहित्यकारों को तवज्जो दूंगा...सोशल मीडिया पर भी मैं पंजाबी जानने वाले अपने साथियों और परिवार के सदस्यों के साथ पंजाबी लिख कर ही बात कहना पसंद करता हूं...पंजाबी गुरमुखी लिपि में लिखी हुई..
बात तो लंबी हो गई पता नहीं अपनी बात ठीक से कह पाया हूं कि नहीं......शायद थोड़ी बहुत तो हो ही गई बात ....और एक बात कि अपनी मातृ-भाषा में लिटरेचर पढ़ने की शुरूआत ऐसे करें कि स्कूल की पंजाबी की पाठ्य-पुस्तकें पढ़ते रहा करें...नेट पर भी पीडीएफ फोर्मेट पर पड़ी हुई हैं.....लेेकिन मेरी तरह इन्हें स्लीपिंग पिल की तरह मत इस्तेमाल करिए...थोड़ा समय रोज़ाना ऐसे साहित्य के साथ बिताइए.....यकीन मानिए यह हमारी मानिसक सेहत के लिए भी बहुत फायदेमंद है...
एक छोटी सा बात जाते जाते कि हम लिखते इसलिए हैं कि जो कोई भी पढ़े उसे समझ में आ जाए...फिर अपनी बात किसी भी भाषा में इतनी घुमावदार ढंग से क्यों कही जाए...बस, इतना सा ध्यान रहे ...और लिखते समय भी यही ध्यान रखा जाए कि पढ़ने वाला कहीं भी अटके नही...हम क्यों नहीं बातचीत वाली भाषा में लिख पाते! लिखने वाले सोचिएगा...मातृ-भाषा की बात ही अलग होती है...उसे सुप्त मत होने दीजिए....जहां तक हो सके। फैशन के लिए कभी कभी एक दो जुमल मातृ-भाषा में बोल कर इसे उपहास का माध्यम न बनाएं, दिक्कत हमें और आने वाली पीढ़ियों को ही होगी।