शायद आप में से कुछ सोच रहे होंगे कि यह हजामत का बरफी से क्या संबंध.....शायद कुछ को तो हजामत का मतलब ही न पता हो, या जिस हमाजत के बारे में वे सोच रहे हैं यह वह हजामत नहीं है।
सब से पहले तो हजामत का मतलब ही समझ लें.....वैसे मुझे यह भी नहीं पता कि सही शब्द हज़ामत है या हजामत, क्योंकि जब से होश संभाला पंजाब में अमृतसर की धरती पर हमेशा यही सुना कि बाल वध गये ने, जामत नहीं करवानी हल्ले... (बाल बढ़ गये हैं, अभी बाल नहीं कटवाने जाना).... जी हां, आपने ठीक समझा पंजाब में ठेठ भाषा में बाल कटवाने को जामत करवाना ही कहते रहे हैं....यह १९६० के दशक के आखिरी और १९७० के दशक के पहले वर्षों की बातें आपसे साझी कर रहा हूं...हजामत समझ हमें लंबा लगता है, इसलिए शायद हम उसे आसानी से छोटा कह कर उस की भी जामत कर देते हैं।
फ्लैशबैक...
मैं पांच-सात-आठ वर्ष का बालक......अपने पिता जी की साईकिल के अगले डंडे पर बैठा हूं...पता नहीं उन्होंने उस पर बच्चों वाली काठी कभी क्यों नहीं लगवाई, लेकिन मुझे उस पर बैठने में दिक्कत बहुत हुआ करती थी....सब कुछ दुःखने लगता था.....क्योंकि मैं डंडे के दोनों तरफ़ एक एक टांग कर के बैठता और बार बार हिलता रहता कि नीचे चुभने वाला दर्द कम तो हो.......लेकिन जो भी वे भी बहुत अच्छे दिन थे, अपने पिता जी का साईकिल पर आगे बैठ कर किसे उम्र की उस अवस्था में बादशाह जैसे फील नहीं हुआ होगा.......मजे की बात तब बादशाह का पता ही कहां होता है!!
लो जी हम पहुंच गये...अमृतसर के हरीपुरा एरिया के एक नाई के यहां.......आज हेयर-ड्रैसर कहते हैं, तब तो नाई ही कहते थे.....वह माहौल अभी भी याद है...... उस की दुकान पर एक लकड़ी की कुर्सी हुआ करती थी, अब वह एडजस्ट तो हो नहीं पाती थी, इसलिए मेरे जैसे छोटे बच्चों के लिए एक लड़की का फट्टा रख कर उस पर मुझे बैठा दिया जाता था.. फिर एक कपड़ा बांध कर वह अपना काम शुरू कर दिया करता था।
एक बात का और भी ध्यान आ रहा है कि उस नाई की दुकान पर बहुत सी तस्वीरें ये हीरो-हारोईनों की मायापुरी और लोकल हिंदी के अखबार --पंजाब केसरी से काट कर आटे की लेवी से चिपकाई हुई होती थीं..विशेषकर हीरोईनों के विभिन्न मन-लुभावने पोज़ों को तरजीह दी जाती थी...... दो दिन से एक अभिनेत्री के क्लीवेज को लेकर इतनी चर्चा हो रही है, तब नाई की दुकान पर भी यह सब दीवारों पर चिपका पड़ा मिलता था।
मुझे याद है मुझे उस नाई की मशीन से बड़ा डर लगता था......इतनी आवाज़ करती थी, और बार बार उस का बालों में अटक जाना......कईं जगह से चमड़ी काट दिया करती थी वह मशीन...इसलिए मुझे जामत करवाने जाना कभी अच्छा नहीं लगता था, फिर भी मैं राजी हो जाया करता था, कारण अभी बताऊंगा।
जिस उस्तरे से वह कलमें बनाया करता था, वह भी मल्टी-पर्पज़ ही हुआ करता था.....हर पांच मिनट के बाद वह एक पुरानी चमड़े की बेल्ट पर रगड़ कर उस की धार लगाया करता था......फिर उस से किसी ग्राहक की शेव, किसी की बगलों के बाल, किसी के नाखून और किसी की जामत को फाईनल टच उसी उस्तरे से ही दिया जाता था।
कोई चूं चां नहीं किया करता था......बस, उस समय थोड़ी कोफ्त हुआ करती थी कि कोई जब जामत करवा रहा होता और एक दूसरा बंदा आकर अपना कुर्ता ऊपर उठा कर उसे बगलें साफ़ करने को कह देता.......नाई बड़ा सहनशील हुआ करता था, वह किसी को नाराज़ न करता।
मेरी जामत के दौरान मेरे पिता जी उस दुकान के बाहर अपने एक डेरी वाले दोस्त से गप्पबाजी किया करते...
जामत करवाने के बाद जब मैं थोड़ा थोड़ा सा परेशान उस कुर्सी से नीचे उतरता से मेरे पिता जी मुझे साथ वाली हलवाई की दुकान पर बरफी दिलवाने ले जाते।
उस दुकान की क्या तारीफ़ करूं.......मैंने इतनी बढ़िया बरफी कभी नहीं खाई..मुझे मेरे पिता जी मुझे पचास पैसे की या एक रूपये की बरफी दिला देते......मैं उस की खुशबू पर ही मुग्ध हो जाता ..और जामत के समय हुए अत्याचार को भूलते देर न लगती.....इतनी नरम और ताज़ी बरफी ...कि उस कागज़ के लिफ़ाफे में वे टुकड़ियां आपस में जुड़ जाया करती थीं....क्या कहूं कि इतना मज़ा तो आज तक किसी मिठाई में नहीं आया........
जैसे थोड़े बड़े हुए तो पता चला कि वह बुज़ुर्ग मिठाईवाला सुबह से लेकर शाम तक उस कोयले वाली बड़ी सी अंगीठी में दूध को हिलाता रहता था और शाम को जो दो-तीन ट्रे बरफी की तैयार होती थी, वह हाथों हाथ बिक जाया करती थी। ओ माई गॉड---- इतना सबर।
पहले तो नहीं कहते थे कि बरफी खरीदने के दो दिन के अंदर ही खा लें.....नहीं तो खराब हो जायेगी। अब पता ही नहीं चलता कि ये लोग क्या क्या मिला कर देते हैं.....दूध का कुछ भरोसा नहीं........अब बरफी खाते तो हैं, लेकिन कईं कईं महीने बीत जाने के बाद दो-चार टुकड़े.......और यह जानते हुए कि ये सेहत खराब ही करेंगे.....फिर भी दिल तो बच्चा है जी.......।।
मेरा बेटा मुझे कईं बार कहता है कि बाज़ार जाते वक्त बरफी ले कर आना........लेकिन मैं जानबूझ कर उस की फरमाईश पूरी नहीं करता......और कुछ ले आता हूं लेकिन अकसर बरफी नहीं लाता।
अच्छा, अगर आप के बचपन की भी कुछ यादें हैं इस तरह की ईमानदारी की बीमारी से ग्रस्त हलवाईयों से जुड़ी हैं, तो आप साझा क्यों नहीं करते.......लिखिएगा। अच्छा लगेगा।
सब से पहले तो हजामत का मतलब ही समझ लें.....वैसे मुझे यह भी नहीं पता कि सही शब्द हज़ामत है या हजामत, क्योंकि जब से होश संभाला पंजाब में अमृतसर की धरती पर हमेशा यही सुना कि बाल वध गये ने, जामत नहीं करवानी हल्ले... (बाल बढ़ गये हैं, अभी बाल नहीं कटवाने जाना).... जी हां, आपने ठीक समझा पंजाब में ठेठ भाषा में बाल कटवाने को जामत करवाना ही कहते रहे हैं....यह १९६० के दशक के आखिरी और १९७० के दशक के पहले वर्षों की बातें आपसे साझी कर रहा हूं...हजामत समझ हमें लंबा लगता है, इसलिए शायद हम उसे आसानी से छोटा कह कर उस की भी जामत कर देते हैं।
फ्लैशबैक...
मैं पांच-सात-आठ वर्ष का बालक......अपने पिता जी की साईकिल के अगले डंडे पर बैठा हूं...पता नहीं उन्होंने उस पर बच्चों वाली काठी कभी क्यों नहीं लगवाई, लेकिन मुझे उस पर बैठने में दिक्कत बहुत हुआ करती थी....सब कुछ दुःखने लगता था.....क्योंकि मैं डंडे के दोनों तरफ़ एक एक टांग कर के बैठता और बार बार हिलता रहता कि नीचे चुभने वाला दर्द कम तो हो.......लेकिन जो भी वे भी बहुत अच्छे दिन थे, अपने पिता जी का साईकिल पर आगे बैठ कर किसे उम्र की उस अवस्था में बादशाह जैसे फील नहीं हुआ होगा.......मजे की बात तब बादशाह का पता ही कहां होता है!!
नहीं यार यह मैं नहीं हूं..गूगल से |
एक बात का और भी ध्यान आ रहा है कि उस नाई की दुकान पर बहुत सी तस्वीरें ये हीरो-हारोईनों की मायापुरी और लोकल हिंदी के अखबार --पंजाब केसरी से काट कर आटे की लेवी से चिपकाई हुई होती थीं..विशेषकर हीरोईनों के विभिन्न मन-लुभावने पोज़ों को तरजीह दी जाती थी...... दो दिन से एक अभिनेत्री के क्लीवेज को लेकर इतनी चर्चा हो रही है, तब नाई की दुकान पर भी यह सब दीवारों पर चिपका पड़ा मिलता था।
मुझे याद है मुझे उस नाई की मशीन से बड़ा डर लगता था......इतनी आवाज़ करती थी, और बार बार उस का बालों में अटक जाना......कईं जगह से चमड़ी काट दिया करती थी वह मशीन...इसलिए मुझे जामत करवाने जाना कभी अच्छा नहीं लगता था, फिर भी मैं राजी हो जाया करता था, कारण अभी बताऊंगा।
जिस उस्तरे से वह कलमें बनाया करता था, वह भी मल्टी-पर्पज़ ही हुआ करता था.....हर पांच मिनट के बाद वह एक पुरानी चमड़े की बेल्ट पर रगड़ कर उस की धार लगाया करता था......फिर उस से किसी ग्राहक की शेव, किसी की बगलों के बाल, किसी के नाखून और किसी की जामत को फाईनल टच उसी उस्तरे से ही दिया जाता था।
कोई चूं चां नहीं किया करता था......बस, उस समय थोड़ी कोफ्त हुआ करती थी कि कोई जब जामत करवा रहा होता और एक दूसरा बंदा आकर अपना कुर्ता ऊपर उठा कर उसे बगलें साफ़ करने को कह देता.......नाई बड़ा सहनशील हुआ करता था, वह किसी को नाराज़ न करता।
मेरी जामत के दौरान मेरे पिता जी उस दुकान के बाहर अपने एक डेरी वाले दोस्त से गप्पबाजी किया करते...
जामत करवाने के बाद जब मैं थोड़ा थोड़ा सा परेशान उस कुर्सी से नीचे उतरता से मेरे पिता जी मुझे साथ वाली हलवाई की दुकान पर बरफी दिलवाने ले जाते।
उस दुकान की क्या तारीफ़ करूं.......मैंने इतनी बढ़िया बरफी कभी नहीं खाई..मुझे मेरे पिता जी मुझे पचास पैसे की या एक रूपये की बरफी दिला देते......मैं उस की खुशबू पर ही मुग्ध हो जाता ..और जामत के समय हुए अत्याचार को भूलते देर न लगती.....इतनी नरम और ताज़ी बरफी ...कि उस कागज़ के लिफ़ाफे में वे टुकड़ियां आपस में जुड़ जाया करती थीं....क्या कहूं कि इतना मज़ा तो आज तक किसी मिठाई में नहीं आया........
जैसे थोड़े बड़े हुए तो पता चला कि वह बुज़ुर्ग मिठाईवाला सुबह से लेकर शाम तक उस कोयले वाली बड़ी सी अंगीठी में दूध को हिलाता रहता था और शाम को जो दो-तीन ट्रे बरफी की तैयार होती थी, वह हाथों हाथ बिक जाया करती थी। ओ माई गॉड---- इतना सबर।
पहले तो नहीं कहते थे कि बरफी खरीदने के दो दिन के अंदर ही खा लें.....नहीं तो खराब हो जायेगी। अब पता ही नहीं चलता कि ये लोग क्या क्या मिला कर देते हैं.....दूध का कुछ भरोसा नहीं........अब बरफी खाते तो हैं, लेकिन कईं कईं महीने बीत जाने के बाद दो-चार टुकड़े.......और यह जानते हुए कि ये सेहत खराब ही करेंगे.....फिर भी दिल तो बच्चा है जी.......।।
मेरा बेटा मुझे कईं बार कहता है कि बाज़ार जाते वक्त बरफी ले कर आना........लेकिन मैं जानबूझ कर उस की फरमाईश पूरी नहीं करता......और कुछ ले आता हूं लेकिन अकसर बरफी नहीं लाता।
अच्छा, अगर आप के बचपन की भी कुछ यादें हैं इस तरह की ईमानदारी की बीमारी से ग्रस्त हलवाईयों से जुड़ी हैं, तो आप साझा क्यों नहीं करते.......लिखिएगा। अच्छा लगेगा।