मेरा एक मित्र जो विश्वविद्यालय में जर्नलिज़्म का प्रोफैसर है उसे इस बात से बहुत चिढ़ है कि हिंदोस्तान के भिखारियों का चेहरा सारे संसार में जाना जाता है ---उस का कहना है कि भिखारी तो दूसरे देशों में भी हैं, कुछ लोगों का हाल-बेहाल है लेकिन उन का चेहरा दुनिया के सामने नज़र नहीं आता। इसलिये वह हमें बता रहा था कि जब वह पिछली बार विदेश गया --- देश का मेरे को ध्यान नहीं आ रहा ---- वहां पर उस ने जब एक भिखारी को पांच डालर की भीख दी तो उस ने उस भिखारी की तस्वीर भी खींच ली ----कह रहा था कि केवल इस बात के प्रमाण के तौर पर कि भिखमंगे उन देशों में भी हैं।
कल रविवार की अखबार की वह वाली खबर देख कर मन बहुत बेचैन हुआ जिस का शीर्षक था कि ऑस्कर अवार्ड समारोह से लौटने पर स्लम-डॉग मिलिनेयर के एक नन्हे कलाकार की उस के बाप ने की जम कर पिटाई --- कारण यह था कि वह उसे घर से बाहर आकर टीवी पत्रकारों को इंटरव्यू देने के लिये राज़ी कर रहा था। स्लम-डॉग मिलिनेयर में हिंदोस्तानियों की गरीब बस्ती के हालात सारे संसार ने देखे क्योंकि एक विदेशी ने इस कंसैप्ट पर यह हिट फिल्म बना डाली। हिंदोस्तानी फिल्मकारों को विदेशों के कुछ ऐसे ही मुद्दे पकड़ कर फिल्में बनाने से भला कौन रोक रहा है ---- आइडिया तो यह भी बुरा नहीं कि वहां पर कुछ महिलायें अपने निर्वाह के लिये अपने डिम्ब बेचने को इतनी आतुर हैं।
फिल्म से ध्यान आया कि रयूटर्ज़ की साइट पर इस न्यूज़-आइटम ( यह रहा इस का वेबलिंक) से पता चला है कि आर्थिक मंदी से बेहाल होकर ऐसी महिलायों की संख्या बढ़ रही है जो कि अमेरिकी फर्टिलिटि क्लीनिकों पर जा कर अपने अंडे (डिम्ब) बेचने को तैयार हैं जिस के लिये उन्हें दस हज़ार पौंड तक का मुआवजा दिया जा सकता है।
न्यूज़-रिपोर्ट में एक एक्ट्रैस के बारे में लिखा गया है कि नवंबर के महीने से उसके पास कोई काम नहीं है, इसलिये उस ने कुछ पैसे कमाने के लिये अपने एग्ज़ बेचने का निर्णय किया है। इस रकम से वह अपने क्रैडिट कार्ड बिल और अपने फ्लैट का किराया भर पायेगी। औसतन लगभग पांच हज़ार पौंड इस काम के लिये मिल जाते हैं।
लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह भी तो है कि केवल किसी महिला की इच्छा ही काफ़ी नहीं है कि वह अपने डिम्ब बेचना चाहती है --- उसे इस काम के लिये योग्य भी होना पड़ता है। जो संस्था इस काम में कार्यरत है उस के अनुसार जितने प्रार्थना-पत्र उसे प्राप्त होते हैं उस में से पांच से सात फीसदी केसों को ही डिम्ब-दान के योग्य पाया जाता है। इस के लिये योग्यता यही है कि डिम्ब-दान करनी वाली महिला बीस से तीस साल की उम्र की हो, सेहतमंद , आकर्षक व्यक्तित्व वाली हो और अच्छी पढ़ी लिखी होनी चाहिये।
जो महिलायें ये डिम्ब-दान करना चाहती हैं उन का मैडीकल, मनोवैज्ञानिक एवं जैनेटिक टैस्ट किया जाता है और साथ ही उन की पृष्ठभूमि की भी जांच की जाती है। अगर किसी महिला का चयन कर लिया जाता है तो उसे तब तक कुछ हारमोन इंजैक्शन लगवाने होते हैं जब तक कि उस के डिम्ब उस के शरीर से निकाले जाने के लिये तैयार नहीं हो जाते।
और ऐसा कहा जा रहा है कि यह काम किसी दूसरी महिला की मदद के लिये किया जा रहा है --- ये किसी दूसरी महिला को एक महान उपहार देने का एक ढंग है जो कि सामान्य तरीके से मां बन पाने में सक्षम नहीं होती। काम बहुत महान है, इस में तो कोई शक नहीं ---- लेकिन यह कहना कि यह उपहार है , किसी ज़रूरतमंद विवाहित जोड़े की मदद करना मात्र है, क्या ये बातें आसानी से आप के गले के नीचे सरक रही हैं ?---- खैर, कोई बात नहीं ---- मैं तो केवल यही सोच रहा हूं कि अगर यह इतना ही नोबल मिशन है, अगर किसी उपहार से इस की तुलना की जा रही है तो यह पांच से दस हज़ार पौंड बीच में पड़े क्या कर रहे हैं। चलिये, हम कुछ नहीं कहेंगे ----- डिम्ब बेचने वाली महिला का भी काम हो गया और उस डिम्ब को कृत्तिम-फर्टिलाईज़ेशन ( इन-विट्रो-फर्टिलाइज़ेशन) के माध्यम से गृहण करने वाली किसी भावी मां का भी काम चल गया ----- बहुत खुशी की बात है।
एक विचार है ----विदेशी फिल्मकार ने आकर हमारी धारावी झोंपड़-पट्टी का चेहरा सारी दुनिया के सामने रखा और कईं ऑस्कर उस की झोली में आ पड़े ----यार, कोई अपने देश का फिल्मकार भी उन अमीर देशों की कोई ऐसी ही बात लेकर सारी दुनिया के सामने रख कर क्यों नहीं ऑस्कर लाता ? ---एक आइडिया तो मैंने दे ही दिया है ----डिम्ब-दान ( दान ??) करने वाली महिलायों के इर्द-गिर्द घूमती और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देने वाली ऐसी ही किसी थीम को लेकर भी कभी कोई फिल्म बननी चाहिये।
लेकिन जो पुरूष अपने शुक्राणु दान (??) करना चाहते हैं उन्हें इतना ज़्यादा उत्साहित होने की कोई खास वजह नहीं है ----उन्हें हर बार शुक्राणु दान करने के लिये 60 डालर ही मिलते हैं ----------यहां तो मर्द लोग मात खा गये !! …..क्या पता आने वाले समय में इस देश के बेरोज़गार, लाचार, बेहाल युवकों को भी इसी काम से ही कभी कभी अपना काम चलाना होगा !!
स्लम-डॉग मिलिनेयर देख ली है ---- सब से ज़्यादा उन सब बाल कलाकारों की अदाकारी मुझे पसंद आई ----क्योंकि वे सब नन्हे शैतान तो जन्मजात अभिनेता ही हैं , उन सब नन्हे कलाकारों के उजले भविष्य की कामना के साथ और उन के लिये बहुत बहुत शुभकामनाओं के साथ यही विराम ले रहा हूं।
सोमवार, 2 मार्च 2009
मरीज़ की प्राईवेसी नाम की चीज़ भी तो होती है ----1.
अकसर मैं अपने कॉलेज के जमाने से देख रहा हूं कि मैडीकल फील्ड में अकसर किसी मरीज़ की प्राइवेसी की तरफ़ इतना ध्यान नहीं दिया जाता। बिल्कुल नये नये तैयार हुये बहुत से डाक्टर तो इस के बारे में रती भर सचेत नहीं हैं ----यह नहीं कि मरीज़ की प्राइवेसी की तहज़ीब आती ही नहीं है ---आती तो शायद कुछ लोगों को ज़रूर है लेकिन साठ-पैंसठ साल की उम्र यूं ही बिताने के बाद ।
यार, मैं अगर अपना ब्लड-प्रैशर भी किसी फ़िजिशियन से चैक करवाने जाऊं तो मुझे महसूस होता है कि उस समय उस के चैंबर में कोई और मरीज़ न ही हो, अगर मैं अपनी श्रीमति जी के चैंबर में भी अपने स्वास्थ्य से संबंधित कोई परामर्श उन से लेने जाता हूं तो मेरी इच्छा होती है कि उस समय कमरे में वार्ड-ब्वॉय भी न हो ---- दोस्तो, यह एक स्वाभाविक चेष्ठा है। इस में कोई बुराई तो नहीं है भई। लेकिन अकसर मैं जगह जगह घूमता रहता हूं और यही देखता हूं कि हमें मरीज़ की प्राइवेसी का आदर करने की तरफ़ भी बहुत ही ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है ।
मुझे लगता है कि इस का मुख्य कारण यह है कि कॉलेज स्तर पर चिकित्सकों को कम्यूनिकेशन स्किल्ज़ नाम का कोई विषय नहीं है ---- मैं समझता हूं कि इस की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है क्योंकि जब कोई व्यक्ति किसी विषय के बारे में जानता है तो ही वह उसे प्रैक्टिस भी कर सकता है। पता नहीं डाक्टर लोग मेरे इस लेख को किस भाव से लेंगे, लेकिन मेरा तो भई दृढ़ विश्वास है कि मरीज़ों की प्राइवेसी की धज्जियां जगह जगह उड़ रही हैं। यह इतना महत्वपूर्ण एरिया है और किसी भी मरीज़ के इलाज का परिणाम इस से भी बहुत हद तक जुड़ा हुआ है।
मैं भी कभी इस तरफ़ ज़्यादा दिमाग लगाया नहीं करता था ---कभी इस के बारे में सोचा ही नहीं था – 1992 तक ---- उस साल मैंने बंबई के टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेज़ से एक वर्ष के डिप्लोमा इन हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन में एडमिशन लिया था। वहां पर हमारा एक विषय था –कम्यूनिकेशन । उसे पढ़ कर मुझे बहुत अच्छा लगा ----मेरी सोच कर नज़रिया बहुत फैला। और उस कोर्स के बाद मैंने मरीज़ की प्राइवेसी का लगभग पूरा पूरा ध्यान रखा है।
वैसे आप इस प्राइवेसी से क्या समझ रहे हैं ----- इस से मतलब यह है कि जब मरीज़ हमारे सामने अपनी बात रख रहा है तो उस समय किसी तीसरे का उस कक्ष में होने का कोई मतलब है ही नहीं। लेकिन किसी सार्वजनिक क्षेत्र के हास्पीटल में काम करते वक्त इस को पूरा पूरा निभा पाना शायद नामुमकिन सा लगता है--- लेकिन इस में भी मुझे लगता है कि हमारी इच्छा शक्ति की ही कमी होती है कि हम लोग चंद प्रभावशाली लोगों तक अपना यह संदेश पहुंचा ही नहीं सकते कि यार, सारे मरीज़ों की प्राइवेसी एक जैसी ही है। अकसर डाक्टर लोग ऐसी परिस्थितियों में ज़्यादा पंगा मोल लेना के इच्छुक नहीं होते और यूं ही बिना बारी के अंदर घुस चुके ( इन्हे गेट-क्रेशर्ज़ कह दें तो कैसा रहेगा !!) इन चंद so-called “व्ही-आई-पी” (manytimes - "self-styled" as well !!) की वजह से बहुत से आम मरीज़ों के इलाज में व्यवधान ही पैदा होता ही दिखता है।
ज़रा इस तरफ़ ध्यान करें कि ये लोग बिना किसी दूसरे की प्राइवेसी का ध्यान किये हुये अंदर क्यों घुस आते हैं --- सरकारी सैट-अप की बात करें तो शायद इस का कारण यह है कि किसी भी डाक्टर का जो अटैंडैंट हैं वह इतनी कड़ाई से इस नियम का पालन कर ही नहीं पाता क्योंकि शायद वह इस का पालन करना ही नहीं चाहता क्योंकि वह भी सिस्टम से डरता है। उस का डाक्टर उसे चाहे कितनी बार ही क्यों न कह दे कि एक मरीज़ के अंदर होते हुये दूसरा अंदर नहीं आयेगा तो भी इन "व्ही-आई-पी " की बॉडी-लैंगवेज़ ही कुछ इस तरह की होती है कि उस की उस कर्मचारी की कमज़ोर सी इच्छा शक्ति उसी समय उसे बाहर ही रूक कर इंतज़ार करने के लिेये कहने वक्त और भी कमज़ोर पड़ जाती है। यह काम वो करता है लेकिन आम आदमी के साथ ----उस के साथ इतनी कड़की बरती जाती है जितनी कि शायद ज़रूरी भी नहीं होती --- मैंने देखा कि आम आदमी को तो कोई एक बार हल्के से भी कह दे कि आप को अपनी बारी की शांति से प्रतीक्षा करनी होगी और वे दो घंटे टस से मस नहीं होते और न ही किसी तरह का व्यवधान किसी दूसरे के इलाज में डालते हैं ------ मैडीकल फील्ड इन की सहनशीलता को सैल्यूट करती है !!
किसी किसी हास्पीटल में तो डाक्टर के कमरे में घुस कर ऐसा लगता है जैसे कि वह उस का हास्पीटल कक्ष न होकर उस के घर का ड्राईंग-रूम हो ---- वहां पर मरीज़ों का चैक-अप चल रहा होता है ---और साथ ही कुर्सीयों पर वे लोग सजे होते हैं जो लोग मैटर करते हैं ( people who really matter !!) – पास ही कंपनियों के मैडीकल-रैप अपनी नईं दवाईयों की तारीफ़ के पुल बांधने में लगे होते हैं, चाय का दौर चल रहा है ----- और डाक्टर साहब की मल्टी-स्किलिंग देखिये कि वह इस के साथ साथ मरीज़ की छाती को स्टैथोस्कोप से जांच भी रहे हैं और उसे गहरे सांस दूसरी तरफ़ छोड़ने के लिये कह भी रहे हैं।
मैंने तो देखा है कुछ प्राईवेट क्लीनिकों में मरीज़ों की इस प्राइवेसी का सम्मान ज़्यादा होता है --- आप का क्या ख्याल है ?---बहुत से सरकारी हास्पीटलों के डाक्टरों द्वारा भी शायद इस का ध्यान रखा जाता है ----लेकिन जो मेरी आब्जर्वेशन थी वह मैंने आप से साझी की है। जो भी डाक्टर –सरकारी या प्राइवेट प्रैक्टिस में – किसी मरीज़ को यह पर्सनल स्पेस उपलब्ध करवाता है इस से उस का भी काम आसान हो जाता है ---मरीज़ उस में अपने एक सहानुभूति से भरे मित्र की छवि देखने लगता है जो उस की बात सुनने के लिये आतुर है और उस बातचीत के वक्त उस के लिये कोई भी अन्य काम महत्वपूर्ण नहीं है ।
बाकी बातें अगली पोस्ट में करते हैं !!
यार, मैं अगर अपना ब्लड-प्रैशर भी किसी फ़िजिशियन से चैक करवाने जाऊं तो मुझे महसूस होता है कि उस समय उस के चैंबर में कोई और मरीज़ न ही हो, अगर मैं अपनी श्रीमति जी के चैंबर में भी अपने स्वास्थ्य से संबंधित कोई परामर्श उन से लेने जाता हूं तो मेरी इच्छा होती है कि उस समय कमरे में वार्ड-ब्वॉय भी न हो ---- दोस्तो, यह एक स्वाभाविक चेष्ठा है। इस में कोई बुराई तो नहीं है भई। लेकिन अकसर मैं जगह जगह घूमता रहता हूं और यही देखता हूं कि हमें मरीज़ की प्राइवेसी का आदर करने की तरफ़ भी बहुत ही ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है ।
मुझे लगता है कि इस का मुख्य कारण यह है कि कॉलेज स्तर पर चिकित्सकों को कम्यूनिकेशन स्किल्ज़ नाम का कोई विषय नहीं है ---- मैं समझता हूं कि इस की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है क्योंकि जब कोई व्यक्ति किसी विषय के बारे में जानता है तो ही वह उसे प्रैक्टिस भी कर सकता है। पता नहीं डाक्टर लोग मेरे इस लेख को किस भाव से लेंगे, लेकिन मेरा तो भई दृढ़ विश्वास है कि मरीज़ों की प्राइवेसी की धज्जियां जगह जगह उड़ रही हैं। यह इतना महत्वपूर्ण एरिया है और किसी भी मरीज़ के इलाज का परिणाम इस से भी बहुत हद तक जुड़ा हुआ है।
मैं भी कभी इस तरफ़ ज़्यादा दिमाग लगाया नहीं करता था ---कभी इस के बारे में सोचा ही नहीं था – 1992 तक ---- उस साल मैंने बंबई के टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेज़ से एक वर्ष के डिप्लोमा इन हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन में एडमिशन लिया था। वहां पर हमारा एक विषय था –कम्यूनिकेशन । उसे पढ़ कर मुझे बहुत अच्छा लगा ----मेरी सोच कर नज़रिया बहुत फैला। और उस कोर्स के बाद मैंने मरीज़ की प्राइवेसी का लगभग पूरा पूरा ध्यान रखा है।
वैसे आप इस प्राइवेसी से क्या समझ रहे हैं ----- इस से मतलब यह है कि जब मरीज़ हमारे सामने अपनी बात रख रहा है तो उस समय किसी तीसरे का उस कक्ष में होने का कोई मतलब है ही नहीं। लेकिन किसी सार्वजनिक क्षेत्र के हास्पीटल में काम करते वक्त इस को पूरा पूरा निभा पाना शायद नामुमकिन सा लगता है--- लेकिन इस में भी मुझे लगता है कि हमारी इच्छा शक्ति की ही कमी होती है कि हम लोग चंद प्रभावशाली लोगों तक अपना यह संदेश पहुंचा ही नहीं सकते कि यार, सारे मरीज़ों की प्राइवेसी एक जैसी ही है। अकसर डाक्टर लोग ऐसी परिस्थितियों में ज़्यादा पंगा मोल लेना के इच्छुक नहीं होते और यूं ही बिना बारी के अंदर घुस चुके ( इन्हे गेट-क्रेशर्ज़ कह दें तो कैसा रहेगा !!) इन चंद so-called “व्ही-आई-पी” (manytimes - "self-styled" as well !!) की वजह से बहुत से आम मरीज़ों के इलाज में व्यवधान ही पैदा होता ही दिखता है।
ज़रा इस तरफ़ ध्यान करें कि ये लोग बिना किसी दूसरे की प्राइवेसी का ध्यान किये हुये अंदर क्यों घुस आते हैं --- सरकारी सैट-अप की बात करें तो शायद इस का कारण यह है कि किसी भी डाक्टर का जो अटैंडैंट हैं वह इतनी कड़ाई से इस नियम का पालन कर ही नहीं पाता क्योंकि शायद वह इस का पालन करना ही नहीं चाहता क्योंकि वह भी सिस्टम से डरता है। उस का डाक्टर उसे चाहे कितनी बार ही क्यों न कह दे कि एक मरीज़ के अंदर होते हुये दूसरा अंदर नहीं आयेगा तो भी इन "व्ही-आई-पी " की बॉडी-लैंगवेज़ ही कुछ इस तरह की होती है कि उस की उस कर्मचारी की कमज़ोर सी इच्छा शक्ति उसी समय उसे बाहर ही रूक कर इंतज़ार करने के लिेये कहने वक्त और भी कमज़ोर पड़ जाती है। यह काम वो करता है लेकिन आम आदमी के साथ ----उस के साथ इतनी कड़की बरती जाती है जितनी कि शायद ज़रूरी भी नहीं होती --- मैंने देखा कि आम आदमी को तो कोई एक बार हल्के से भी कह दे कि आप को अपनी बारी की शांति से प्रतीक्षा करनी होगी और वे दो घंटे टस से मस नहीं होते और न ही किसी तरह का व्यवधान किसी दूसरे के इलाज में डालते हैं ------ मैडीकल फील्ड इन की सहनशीलता को सैल्यूट करती है !!
किसी किसी हास्पीटल में तो डाक्टर के कमरे में घुस कर ऐसा लगता है जैसे कि वह उस का हास्पीटल कक्ष न होकर उस के घर का ड्राईंग-रूम हो ---- वहां पर मरीज़ों का चैक-अप चल रहा होता है ---और साथ ही कुर्सीयों पर वे लोग सजे होते हैं जो लोग मैटर करते हैं ( people who really matter !!) – पास ही कंपनियों के मैडीकल-रैप अपनी नईं दवाईयों की तारीफ़ के पुल बांधने में लगे होते हैं, चाय का दौर चल रहा है ----- और डाक्टर साहब की मल्टी-स्किलिंग देखिये कि वह इस के साथ साथ मरीज़ की छाती को स्टैथोस्कोप से जांच भी रहे हैं और उसे गहरे सांस दूसरी तरफ़ छोड़ने के लिये कह भी रहे हैं।
मैंने तो देखा है कुछ प्राईवेट क्लीनिकों में मरीज़ों की इस प्राइवेसी का सम्मान ज़्यादा होता है --- आप का क्या ख्याल है ?---बहुत से सरकारी हास्पीटलों के डाक्टरों द्वारा भी शायद इस का ध्यान रखा जाता है ----लेकिन जो मेरी आब्जर्वेशन थी वह मैंने आप से साझी की है। जो भी डाक्टर –सरकारी या प्राइवेट प्रैक्टिस में – किसी मरीज़ को यह पर्सनल स्पेस उपलब्ध करवाता है इस से उस का भी काम आसान हो जाता है ---मरीज़ उस में अपने एक सहानुभूति से भरे मित्र की छवि देखने लगता है जो उस की बात सुनने के लिये आतुर है और उस बातचीत के वक्त उस के लिये कोई भी अन्य काम महत्वपूर्ण नहीं है ।
बाकी बातें अगली पोस्ट में करते हैं !!
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