मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

उठ जाग मुसाफिर भोर भई..३

लो जी लौट आए हैं आज भी सुबह की साईकिल यात्रा करने के बाद...और आप को इस का वर्णन पहुंचाने बैठ गये हैं...अभी ताज़ा ताज़ा तो लिख रहा हूं ...क्योंकि दोपहर में फिर लिखने की इच्छा नहीं होती और एक बार ऐसा कुछ लिखना टलता है तो फिर टल ही जाता है....कितना कुछ ऐसा ही लेपटाप पर पड़ा हुआ है।

आज जब मैं अपने साईकिल पर निकला तो एक आठ-दस साल के बच्चे को एक जेंट्स साईकिल को कैंची चलाते देख अपनी उम्र की वह अवस्था याद आ गई। अफसोस यह हुआ कि यह मंज़र आज बरसों बाद दिखा था...और मुझे मोबाइल जेब से निकालते और कैमरा ऑन करते इतना समय लग गया कि वह कैंची साईकिल चलाने वाला तो आगे निकल गया और मेरी हिस्से में यह फोटो आई।

आज कल अकसर ऐसे कैंची साईकिल चलाने वाले बच्चों के नज़ारे इसलिए भी कम दिखते हैं क्योंकि शुरू ही से तो बच्चों को साईकिल मिलने शुरू हो जाते हैं....हम लोगों के दिन और थे...हमारी नज़रें टिकी रहती थीं पहले तो बड़ी बहन की साईकिल पर कि कब हम थोड़े बड़े हों (मतलब साईकिल की सीट पर बैठ कर पैर नीचे लगने लगें!) और इस पर सवारी करनी शुरू करें। लेकिन ऐसा हुआ नहीं...क्योंकि सीखने के लिए घर में दूसरे बंदों की जेंट्स साईकिल ही काम आया करती थी....कैंची साईकिल चलाने के लिए... जब कोई कैंची साईकिल चला ले न तो समझना चाहिए कि अब मंज़िल दूर नहीं है। वह शेयर है न...

इन परिंदों को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन ..
ये हवा में खुले इन के पंख बोलते हैं !

कैंची साईकिल चलाने वाला रोमांच भी ब्यां कर पाना मुश्किल है ... लेिकन मुझे वह लम्हा कभी नहीं भूलेगा जब एक दिन मैं ग्राउंड में कैंची साईकिल चला रहा था तो पड़ोस की चंचल दीदी ने मेरे कैरियर को पीछे से पकड़ कर कहा कि चल, बैठ जा काठी पे, मैं संभाल लूंगी। एक मिनट डर लगा.. चंचल दीदी पर अपनी बड़ी बहन जितना भरोसा था ही...बस ..एक ..दो ..तीन बार हैंडल थोड़ा सा हिला-डुला और संभाल कर तो उस दीदी ने रखा ही हुआ था.......देखते ही देखते हम भी लगे हवा से बातें करने ....लेकिन ग्राउंड में ही। स्कूल में साईकिल ले कर जाने की परमिशन तो आठवीं कक्षा में मिली....एक रवायत यह भी थी उस जमाने की कि जैसे ही घर में कोई नया साईकिल खऱीदता तो उस का पुराने वाला साईकिल घर को सब से छोटे प्राणी (जैसे मैं) के सुपुर्द कर दिया जाता....और हम लोग की खुशी का कोई ठिकाना न होता..कि चलो अपनी इंडिपेन्डेंट सवारी मिली......और जो कभी कभी दुकान से एक घंटे के लिए किराये पर साईकिल लानी पड़ती थी (२५ -५० पैसे खर्च कर) उस सिरदर्दी से पीछा छूटा।


दोस्तो, गूगल भी है अद्भुत ....मेरी इच्छा थी कि इस पोस्ट में एक कैंची साईकिल चलाने वाले की फोटो तो चस्पां कर ही दूं...जैसे ही मिली गूगल इमेज़ेस से..यहां लगी दी।

अभी थोड़ा आगे गया था कि शोलेफिल्मनुमा पानी की बड़ी सी टैंकी दिखी और उस पर साफ साफ लिखा भी दिख गया...मोदी लाओ..देश बचाओ...मुझे लगा कि अब तो मोदी आ गये ..देश भी बच गया....अब तो यारो इधर कोई दूसरा संदेश पेन्ट करो....तंबाकू, गुटखे से अपनी जान मत गंवाओ....सड़क सुरक्षा के कुछ संदेश ....कुछ भी सामाजिक सरोकार का संदेश लिखवा दो।

मैं इस टैंकी की फोटो खींचने में मशगूल था कि दूर किसी के गिरने की आवाज़ आई...एक महिला और पुरूष मोटरसाईकिल पर जा रहे थे....महिला नीचे गिर गई थी...शुक्र है भगवान का कोई चोट नहीं आई..वैसे वह लुड़की बुरी तरह से थी....मैंने भी अपनी मां को १९८५ में अपनी यैज्दी मोटरसाईकिल से गिराया था...वह पहली दूसरी बार ही मेरे पीछे बैठ रही थीं...तब वे जापानी कपड़े की साड़ियां चला करती थीं...मोटरसाईकिल पर बैठे बैठे जैसे ही अपनी साड़ी के पल्लू को थोड़ा ठीक करने लगीं तो धड़ाम से नीचे...सब ठीक ठाक रहा। और बीस साल पहले जब मैं बेटे को बंबई में उस के स्कूल छोड़ने जा रहा था तो एक रेडलाइट पर वह मेरे स्कूटर से गिर गया....सब ठीक था...इसलिए ऐसे किसी हादसे के बाद सब कुछ ठीक ठाक होने का जो सुकून चलाने वाले को मिलता है, वह मैं उस मोटरसाईकिल चलाने वाले के चेहरे पर भी देख रहा था। ईश्वर सब को तंदरूस्त एवं सुरक्षित रखें।

आगे थोड़ा चल कर मुड़ा ही था कि आज फिर सूरज देवता के बहुत बढ़िया दर्शन हो गये।


अभी मोटरसाईकिल का हादसा तो मैं देख कर थोड़ा ही सा आगे आया था कि एक और खतरों का खिलाड़ी मिल गया....इस के बारे में क्या कहूं ..आप देख ही रहे हैं...बस इतना बताना चाहूंगा कि यह ऊपर से एक सड़क से नीचे वाली सड़क तक पहुंचने के लिए शॉर्टकट का इस्तेमाल कर रहा है।



आप को याद होगा कि दो दिन पहले मैंने आप को रमाबाई रैली स्थल के बारे में बताया था...आज भी देखा कि इस वृक्ष के ठीक सामने एक और गेट है...उस रैली स्थल के अंदर जाने का। लेिकन उस का बोर्ड पढ़ कर अजीब सा लगा...उस का लिखा था ..वीआईपी गेट... अजीब सा इसलिए लगा कि जिन महान विभूतियों के नाम पर ये स्मारक, ये स्थल बनते हैं ...उन्होंने सारी उम्र सामाजिक एकता के प्रतीक होने का सबूत दिया...और अब ऐसी जगहों पर भी वी-आई-पी क्लचर को रेखांकित करता यह गेट......ठीक है, वीआईपी लोगों को अलग से आना जाना होता है, लेकिन गेट पर यह खुदा हुआ अटपटा सा लगा। यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं....हरेक को इससे मतभेद रखने का अधिकार है।




हिंदोस्तान में सुबह के समय सैर-सपाटा करते समय आप को लोग फूल तोड़ते न दिखें...ऐसा कैसे हो सकता है। आज तो कुछ पुरूषों को भी इस काम में लगे देखा। लेकिन कुछ औरतें तो हमेशा की भांति धड़ाधड़ फूल इक्ट्ठा किए ही जा रही थीं...आप तक एक सबूत के तौर पर यह तस्वीर ले कर आया हूं। किसी को इस तरह से फूल तोड़ते देख कर मेरा सिर दुःखता है। ईश्वर इन्हें इतनी समझ दे और इन्हें स्वपन में दर्शन देकर ही चाहे तो बता दे कि मैं आप की भक्ति से प्रसन्न हूं....मुझे फूल मत अर्पण किया करें।



मैंने यह आज भी नोटिस किया कि सुबह का समय ड्राईविंग सीखने का समय है तो एक दम बढ़िया...खुली खुली सड़कें, बढ़िया फिज़ाएं, ठंड़ी हवाएं..........लेकिन फिर भी ड्राईविंग ठीक साइड पर चलते हुए ही सिखाई जाए तो ठीक है, वरना यह जेंटलमेन तो महिला को गलत रास्ते पर (रांग साइड) एक्टिवा सिखाते हुए नींव ही गल्त डाल रहा है..

यार बातें काफी हो गईं, अब एक गीत......आज का यह मौसम कल बन जायेगा कल...पीछे मुड़ के न देख, प्यारे आगे चल!