संवाद की बात चलते ही चालीस-पचास सालों से दिख रही चिट्ठी पत्री की याद आती है ...और इस के साथ अगर यह गीत याद आ आए... फिर तो बात ही क्या है!
मुझे यह गीत बहुत पसंद है..रेडवे पे तो अब यह बजता नहीं, जिस दिन इच्छी होती है यू-ट्यूब पर सुन लेता हूं...वैसे तो इस फिल्म की सी.डी भी है लेिकन उस ढूंढने का सब्र कहां रह गया है!
मुझे यह गीत इसलिए भी अच्छा लगता है क्योंकि इस में उस दौर की सारी कहानी दर्ज कर दी है...हम लोग इस के प्रत्यक्ष गवाह रह चुके हैं। मुझे यह भी याद आया अभी कि गैर-मेडीकल विषय पर मैंने सब से पहले जो लेख लिख कर केन्द्रीय हिंदी निदेशालय को भेजा था ..उस का नाम भी संयोगवश ...डाकिया डाक लाया ही था। यह २०००-०१ की बात होगी...फिर मुझे आसाम के जोरहाट में एक नवलेखक शिविर में जाने का मौका मिला.
बात डाकिये की हो रही थी...हम लोगों ने वह दौर देखा है कि जब कोई भाई-बंधु कहीं गया है तो उस के कुशल-क्षेम पहुंचने का समाचार भी ख़त से आता था....मैंने अपने पिता जी को इस तरह से कैलकुलेट करते देखा .....अच्छा मंगल को यहां से निकला है, बुध को शाम को पहुंचा होगा....गुरू को भी अगर चिट्ठी डाल दी हो तो भी तीन चार दिन तो यहां आने में लगेंगे ही ...इसलिए जब तक एक दिन चिट्ठी पहुंच नहीं जाती थी ऐसे ही मन ही मन में जोड़-तोड़ कर के जैसे तैसे बहला लिया जाता था...हां, आठ दस दिन बाद चिंता सताने लगती थी।
एक बात और यहां दर्ज कर दूं...चिंता करना करवाना भी जैसे रेसिपरोकल ही था....उस जमाने में लोग किसी को खत लिखते थे ..एक...दो ...तीन ...अगर कोई रिस्पांस नहीं आया तो वे भी बिना कुछ कहे किनारा कर लेते थे.....उस बंदे की चिंता खत्म कर के उसे राम भरोसे छोड़ दिया करते थे।
डाक...डाकिया...चिट्ठी-पत्री...खत...बैरंग चिट्ठी ...इतने इतने संस्मरण है कि छोटी मोटी किताब तैयार हो जायेगी.....हां, एक का ध्यान आया...मुझे अच्छे से याद है कि तीसरी चौथी कक्षा में जब मैंने नया नया लिखना सीखा तो मुझे पता चल गया कि बिना टिकट के भी चिट्ठी दूसरे तक पहुंच जाती है....मैं कुछ बार ऐसा भी किया...कापी का पन्ना फाड़ा...उस पर ख़त लिखा और दूसरे पन्ने में उसे लपेट कर उस पर पता लिख कर डाक पेटी के हवाले कर दिया.....मौसी के पास पहुंच जाता था....उसे डबल टिकट के पैसे देने पड़ते थे.......एक बार उन्होंने उलाहना किया तो .यह सिलसिला बंद हो गया।
पिछले ज़माने की बातों को यहीं विराम लगाते हैं...आज का युग देखिए....इंस्टेंट मैसेंजर, स्कापई, व्हाट्सएप ......और भी पता नहीं क्या क्या.....नब्बे के दशक में जब पेजर आया था, हमें तो तब ही इतनी हैरानगी हुई थी।
सोचने वाली बात यह है कि क्या इतने सारे अत्य-आधुनिक यंत्रों से हमारा आपसी संवाद बेहतर हो गया है......मुझे कभी ऐसा नहीं लगा।
बल्कि मैं तो यह समझता हूं कि हम पहले से कहीं अधिक अधीर, उतावले, चिंतातुर....परेशान से होते जा रहे हैं....जैसा कि हमारे बचपन का दौर कि महीने में एक चिट्ठी आ गई और एक चली गई......बस मन शांत हो गया। फिर लैंड-लाइन से रोज़ रोज़ फिजूल की बातें होने लगीं.......मोबाइल ने तो और भी आसान कर दिया ....मिनट मिनट की खबरें इधऱ से उधर होने लगीं....इन सब यंत्रों के बहुत से फायदे तो हैं ही, ये मेरे कहने से ही तो माना जायेगा नहीं लेकिन ये बहुत से फ़साद के कारण भी बनते गये......सहनशीलता ने सब से पिछली सीट ले ली, बस उसी क्षण फैसला हो जाना चाहिए......आर या पार की बात अभी हो जाए!
एसएमएस का दौर भी उसी दौरान चल निकला था.....ठीक है, अपनी बात लिख दी ....और दूसरी तरफ़ से उस का जवाब आ भी गया।
लेकिन जिस तरह से आज के इंस्टेंट मैसेजिंग, व्हाट्सएप का फार्मेट हो गया है, यह कहीं सिर दुःखाने का कारण तो नहीं बन रहा। आप ने मैसेज लिखा...ठीक है लिख दिया....भेज दिया.....एक टिक-मार्क आ गया......लेकिन उसी समय दूसरे तक वह संदेश पहुंच गया तो ठीक है, क्योंकि दूसरा टिक-मार्क आ गया.........वाह जी वाह, इत्मीनान हो गया कि मेरा संदेश पहुंच गया....लेकिन अगर किसी कारण वह दूसरी टिक नहीं दिख रही तो टेंशन कि यार, अभी तक उस के पास पहुंचा क्यों नहीं.....और अगर पहुंच गया और उस टिक का रंग बदला नहीं ..जो यह बताता है कि आप का मैसेज पढ़ लिया गया है...हां, अगर यह रंग बदला नहीं ......तो दूसरी टेंशन कि क्या सब कुछ ठीक ठाक तो होगा, उसने अभी तक मेरे मैसेज को पढ़ा क्यों नहीं......हम कितनी बेवकूफ़ी करने लगे हैं यह सोच कर कि दूसरे बंदे का तो जैसे कोई अपना पर्सनल स्पेस है नहीं.....क्यों नहीं वह स्मार्ट-फोन की तरह इतना स्मार्ट बन जाता कि टॉयलेट में भी इसे साथ ही लेकर जाए! मैं बहुत बार सोचता हूं कि ये हमारी सुविधा के लिए है या फिर हम इस के गुलाम बन चुके हैं।
एक बात और भी तो है...प्राईव्हेसी पर इतना अतिक्रमण कि दूसरे को यह भी दिखता है कि आप पिछली बार कब व्हाट्सएप पर सक्रिय थे ..पूरा टाइम आ जाता है....और अगर किसी व्हाट्सएप ग्रुप में हैं तो और भी सुविधाएं हैं...आप का संदेश किस किस के पास पहुंच गया है और किस किस ने इसे पढ़ लिया है, और अगर आपने कोई वीडियो क्लिप भेजा है तो किन मित्रों ने उसे खोल कर देख लिया है......बाकी, रह क्या जाता है!
हां, तो बात चल रही थी आप ने किसी प्रिय को भेजा वाट्सएप मैसेज (आज कल तो वही है सब से ज़्यादा चलन में)..आप के पास दो टिक के निशान आ गये...लेकिन एक टिक का निशान बदला नहीं ..जो यह इंगित करता है कि उसने आपका लिखा पढ़ लिया है...हां, अगर यह बदला नहीं तो बहुत बार दिमाग़ सटक जाने के लिए काफ़ी है। ओह माई गॉड, क्या हो गया, आखिर हुआ क्या होगा, क्यों नहीं पढ़ा उसने अभी तक यह मैसेज....सब ठीक तो होगा.......कुछ हो तो नहीं गया होगा.......इस तरह के ऊल-जलूल विचार ......फिर तैश में आकर फेसबुक पर देखना कि आखिरी बार वह कब फेसबुक पर देखा गया था......फेसबुक मैसेंजर पर भी कोई ऐसी वैसी स्माईल भेज देते हैं.....वह भी पहुंच गई ....लेिकन उस ने जवाब दिया क्यों नहीं...दिल की धड़कन बढ़ जाती है कि यार, कुछ तो गड़बड़ है।
मतलब हम इतने अधीर हो चुके हैं ...इतना निगेटिव सोच लेते हैं कि हम दूसरे बंदे को बाथरूम में जाते समय भी फोनवा अंदर न ले जाने की आज़ादी देने के लिए राज़ी नहीं हैं...
फिर आगे क्या करें...व्हाट्सएप पर कोई जवाब नहीं, फेसबुक पर नहीं, फिर एक दो एसएमएस भी भेजे जाते हैं....और वहां भी पता चल जाता है कि मेसेज पहुंच गये हैं......तो, ठीक है, थोड़ी जान में जान आई तो कि चलो फोन तो चल रहा है....कहीं न कहीं आशा की किरण दिखती है कि फोनवा ठीक है तो बबुआ भी ठीक ही होगा........लेकिन आप देखिए कि अगर इन में से कोई भी मैसेज उस बंदे के फोन तक पहुंचा नहीं तो क्या हालत होती होगी!
हां जी, कर लिया इंतज़ार लगभग एक घंटा .....कोई रिप्लाई नहीं.......अब तो फोन करना बनता है .......लेिकन यह क्या फोन की घंटी बजती रही .......तीन चार बार......उठा ही नहीं रहा........बस, अब रहा नहीं जाता, भयंकर से ख्याल छोड़ ही नहीं रहे (थैंक्स तो सीआईडी सीरियल ....और उस बंदे का भी जो रोज़ हमें कहता है....चैन से सोना है तो जाग जाइए) ......तब पड़ोस में फोन, काम करने वाली बाई को फोन, सोसायटी के गोरखे को फोन, होस्टल के दूसरे साथियों को फोन, होस्टल के केयर-टेकर को फोन.........बिल्कुल बावलों जैसी हालत....दिमाग की दही तब तक हो चुकी होती है, पसीने से चेहरा तर-बतर.... और भी बहुत कुछ ... इसी बहाने पेट अच्छे से साफ भी हो जाता है... हा हा हा हा .....!
लेकिन तभी एक घंटी बजती है .......सुस्त सी आवाज़ में दूसरी तरफ़ से आवाज़ आती है........ "है...लो........यार, इतनी मिस्ड काल, फोन साईलेंट पर था......आप लोग भी ना....."
इसलिए अब हम लोग स्मार्ट-फोन इस्तेमाल करने वाले इतने स्मार्ट हो गये हैं कि बैटरी पांच परसेंट होते ही किसी पनवाड़ी से फोन लेकर सूचना दे देते हैं कि मेरी बैटरी कम है .....बस, मैं आधे घंटे तक पहुंच रहा हूं।
वैसे तो आज के युवा यह नौबत भी आने ही नहीं देते वे एक्सट्रा चार्जर भी साथ ही लेकर चलते हैं....चार्जर की चिंता है, लेकिन सोचने वाले बात है कि हम अपनी ज़िंदादिली को कब चार्ज कर पाएंगे, कर भी पाएंगे या नहीं...
अब आप ने इतनी लंबी कथा पढ़ ली ......आप ही फैसला करें कि क्या हम लोग ठीक रास्ते पर चल रहे हैं या मेरी तरह बार बार इन मैसेजों के चक्कर में पड़ कर अपना सिर भारी करवा लिया करते हैं!
हां, एक बात और जिसे मैंने ज़रूर लिखना था ...दुःख तब बहुत ज़्यादा होता है जब आप अपने किसी मित्र को कोई संदेश भेजें, वह उसे तुरंत पढ़ भी ले, लेकिन उस का जवाब न दे........यह बात मन को बहुत कचोटती है, और मेरे जैसा भावुक इंसान तो मन ही मन तो कह भी उठता है.......क्या हासिल इस सोशल मीडिया से ......हम लोग बस अपना उजला पक्ष ही दूसरों के सामने रख पाते हैं......निःसंदेह हम सोशल मीडिया के तो बेताज होते जा रहे हैं लेकिन भावनात्मक स्तर पर हमारा जुड़ाव दिनप्रतिदिन कम होता जा रहा है......निरंतर गिरावट आ रही है......चलिए, अभी से थोड़ा संभलने का प्रयाय करिए........कैसे?......मैं अधिकतर व्हाट्सएप मैसेज पढ़ता ही नहीं, यार कौन सैंकड़ों मैसेजों में सिर गढ़ाए रखे, कौन सिर दुःखाए, कौन किस रूठे को मनाए........बेकार में ये सब झंझट हैं, जहां तक हो सके अपनी ज़िंदगी को जितना सहज और साधारण बनाए रखेंगे, उतना ही बेहतर है........ज्ञान की चिंता मत करिए जनाब, जितना मुझे और आप को चाहिए, वह हमारे तक यह सर्वव्यापी ईश्वरीय सत्ता हमारे तक पहुंचा ही देगी।
आप ने पिछली बार कब किसी बंदे से पूछा कि आप को मोबाइल नंबर क्या है तो उसने कहा कि साहब, हम नहीं रखते यह मोबाइल ........ठीक है, वह मोबाइल नहीं रखता होगा, लेकिन अगली बार उस की सहजता, उस की सादगी और चेहरे के शांत के भाव भी अपने मन में कहीं दर्ज कर लीजिएगा..........ओ हो, ड्यूटी पर जाने का समय आ गया, लेिकन एक विषय तो छुआ ही नहीं, व्टाह्सएप और फेसबुक पर होने वाले तर्क-वितर्क, वाद विवाद ........पता नहीं ज़िंदगी में इन में से किसी को कभी हासिल भी हुआ है या नहीं, लेकिन फिर भी रूस्वाईयां....गिले शिकवे....मैं तो इस से बहुत दूर भागता हूं.....कभी भी किसी बहस में पड़ा ही नहीं, यह मेरा बड़प्पन नहीं है, शायद कायरता होगी या समझी जाती होगी, लेकिन मैं खुश हूं...क्योंकि मुझे लगता है कि किसी से भी बहस करने से सिर तो मेरा ही दुःखेगा.......और मुझे मेरे सिर दर्द से बहुत डर लगता है......आज के लिए इतना ही ज्ञान काफी है, जल्दी से एक गीत ध्यान में आ रहा है, लगाए दे रहा हूं.....
मुझे यह गीत बहुत पसंद है..रेडवे पे तो अब यह बजता नहीं, जिस दिन इच्छी होती है यू-ट्यूब पर सुन लेता हूं...वैसे तो इस फिल्म की सी.डी भी है लेिकन उस ढूंढने का सब्र कहां रह गया है!
मुझे यह गीत इसलिए भी अच्छा लगता है क्योंकि इस में उस दौर की सारी कहानी दर्ज कर दी है...हम लोग इस के प्रत्यक्ष गवाह रह चुके हैं। मुझे यह भी याद आया अभी कि गैर-मेडीकल विषय पर मैंने सब से पहले जो लेख लिख कर केन्द्रीय हिंदी निदेशालय को भेजा था ..उस का नाम भी संयोगवश ...डाकिया डाक लाया ही था। यह २०००-०१ की बात होगी...फिर मुझे आसाम के जोरहाट में एक नवलेखक शिविर में जाने का मौका मिला.
बात डाकिये की हो रही थी...हम लोगों ने वह दौर देखा है कि जब कोई भाई-बंधु कहीं गया है तो उस के कुशल-क्षेम पहुंचने का समाचार भी ख़त से आता था....मैंने अपने पिता जी को इस तरह से कैलकुलेट करते देखा .....अच्छा मंगल को यहां से निकला है, बुध को शाम को पहुंचा होगा....गुरू को भी अगर चिट्ठी डाल दी हो तो भी तीन चार दिन तो यहां आने में लगेंगे ही ...इसलिए जब तक एक दिन चिट्ठी पहुंच नहीं जाती थी ऐसे ही मन ही मन में जोड़-तोड़ कर के जैसे तैसे बहला लिया जाता था...हां, आठ दस दिन बाद चिंता सताने लगती थी।
एक बात और यहां दर्ज कर दूं...चिंता करना करवाना भी जैसे रेसिपरोकल ही था....उस जमाने में लोग किसी को खत लिखते थे ..एक...दो ...तीन ...अगर कोई रिस्पांस नहीं आया तो वे भी बिना कुछ कहे किनारा कर लेते थे.....उस बंदे की चिंता खत्म कर के उसे राम भरोसे छोड़ दिया करते थे।
डाक...डाकिया...चिट्ठी-पत्री...खत...बैरंग चिट्ठी ...इतने इतने संस्मरण है कि छोटी मोटी किताब तैयार हो जायेगी.....हां, एक का ध्यान आया...मुझे अच्छे से याद है कि तीसरी चौथी कक्षा में जब मैंने नया नया लिखना सीखा तो मुझे पता चल गया कि बिना टिकट के भी चिट्ठी दूसरे तक पहुंच जाती है....मैं कुछ बार ऐसा भी किया...कापी का पन्ना फाड़ा...उस पर ख़त लिखा और दूसरे पन्ने में उसे लपेट कर उस पर पता लिख कर डाक पेटी के हवाले कर दिया.....मौसी के पास पहुंच जाता था....उसे डबल टिकट के पैसे देने पड़ते थे.......एक बार उन्होंने उलाहना किया तो .यह सिलसिला बंद हो गया।
पिछले ज़माने की बातों को यहीं विराम लगाते हैं...आज का युग देखिए....इंस्टेंट मैसेंजर, स्कापई, व्हाट्सएप ......और भी पता नहीं क्या क्या.....नब्बे के दशक में जब पेजर आया था, हमें तो तब ही इतनी हैरानगी हुई थी।
सोचने वाली बात यह है कि क्या इतने सारे अत्य-आधुनिक यंत्रों से हमारा आपसी संवाद बेहतर हो गया है......मुझे कभी ऐसा नहीं लगा।
बल्कि मैं तो यह समझता हूं कि हम पहले से कहीं अधिक अधीर, उतावले, चिंतातुर....परेशान से होते जा रहे हैं....जैसा कि हमारे बचपन का दौर कि महीने में एक चिट्ठी आ गई और एक चली गई......बस मन शांत हो गया। फिर लैंड-लाइन से रोज़ रोज़ फिजूल की बातें होने लगीं.......मोबाइल ने तो और भी आसान कर दिया ....मिनट मिनट की खबरें इधऱ से उधर होने लगीं....इन सब यंत्रों के बहुत से फायदे तो हैं ही, ये मेरे कहने से ही तो माना जायेगा नहीं लेकिन ये बहुत से फ़साद के कारण भी बनते गये......सहनशीलता ने सब से पिछली सीट ले ली, बस उसी क्षण फैसला हो जाना चाहिए......आर या पार की बात अभी हो जाए!
एसएमएस का दौर भी उसी दौरान चल निकला था.....ठीक है, अपनी बात लिख दी ....और दूसरी तरफ़ से उस का जवाब आ भी गया।
लेकिन जिस तरह से आज के इंस्टेंट मैसेजिंग, व्हाट्सएप का फार्मेट हो गया है, यह कहीं सिर दुःखाने का कारण तो नहीं बन रहा। आप ने मैसेज लिखा...ठीक है लिख दिया....भेज दिया.....एक टिक-मार्क आ गया......लेकिन उसी समय दूसरे तक वह संदेश पहुंच गया तो ठीक है, क्योंकि दूसरा टिक-मार्क आ गया.........वाह जी वाह, इत्मीनान हो गया कि मेरा संदेश पहुंच गया....लेकिन अगर किसी कारण वह दूसरी टिक नहीं दिख रही तो टेंशन कि यार, अभी तक उस के पास पहुंचा क्यों नहीं.....और अगर पहुंच गया और उस टिक का रंग बदला नहीं ..जो यह बताता है कि आप का मैसेज पढ़ लिया गया है...हां, अगर यह रंग बदला नहीं ......तो दूसरी टेंशन कि क्या सब कुछ ठीक ठाक तो होगा, उसने अभी तक मेरे मैसेज को पढ़ा क्यों नहीं......हम कितनी बेवकूफ़ी करने लगे हैं यह सोच कर कि दूसरे बंदे का तो जैसे कोई अपना पर्सनल स्पेस है नहीं.....क्यों नहीं वह स्मार्ट-फोन की तरह इतना स्मार्ट बन जाता कि टॉयलेट में भी इसे साथ ही लेकर जाए! मैं बहुत बार सोचता हूं कि ये हमारी सुविधा के लिए है या फिर हम इस के गुलाम बन चुके हैं।
एक बात और भी तो है...प्राईव्हेसी पर इतना अतिक्रमण कि दूसरे को यह भी दिखता है कि आप पिछली बार कब व्हाट्सएप पर सक्रिय थे ..पूरा टाइम आ जाता है....और अगर किसी व्हाट्सएप ग्रुप में हैं तो और भी सुविधाएं हैं...आप का संदेश किस किस के पास पहुंच गया है और किस किस ने इसे पढ़ लिया है, और अगर आपने कोई वीडियो क्लिप भेजा है तो किन मित्रों ने उसे खोल कर देख लिया है......बाकी, रह क्या जाता है!
हां, तो बात चल रही थी आप ने किसी प्रिय को भेजा वाट्सएप मैसेज (आज कल तो वही है सब से ज़्यादा चलन में)..आप के पास दो टिक के निशान आ गये...लेकिन एक टिक का निशान बदला नहीं ..जो यह इंगित करता है कि उसने आपका लिखा पढ़ लिया है...हां, अगर यह बदला नहीं तो बहुत बार दिमाग़ सटक जाने के लिए काफ़ी है। ओह माई गॉड, क्या हो गया, आखिर हुआ क्या होगा, क्यों नहीं पढ़ा उसने अभी तक यह मैसेज....सब ठीक तो होगा.......कुछ हो तो नहीं गया होगा.......इस तरह के ऊल-जलूल विचार ......फिर तैश में आकर फेसबुक पर देखना कि आखिरी बार वह कब फेसबुक पर देखा गया था......फेसबुक मैसेंजर पर भी कोई ऐसी वैसी स्माईल भेज देते हैं.....वह भी पहुंच गई ....लेिकन उस ने जवाब दिया क्यों नहीं...दिल की धड़कन बढ़ जाती है कि यार, कुछ तो गड़बड़ है।
मतलब हम इतने अधीर हो चुके हैं ...इतना निगेटिव सोच लेते हैं कि हम दूसरे बंदे को बाथरूम में जाते समय भी फोनवा अंदर न ले जाने की आज़ादी देने के लिए राज़ी नहीं हैं...
फिर आगे क्या करें...व्हाट्सएप पर कोई जवाब नहीं, फेसबुक पर नहीं, फिर एक दो एसएमएस भी भेजे जाते हैं....और वहां भी पता चल जाता है कि मेसेज पहुंच गये हैं......तो, ठीक है, थोड़ी जान में जान आई तो कि चलो फोन तो चल रहा है....कहीं न कहीं आशा की किरण दिखती है कि फोनवा ठीक है तो बबुआ भी ठीक ही होगा........लेकिन आप देखिए कि अगर इन में से कोई भी मैसेज उस बंदे के फोन तक पहुंचा नहीं तो क्या हालत होती होगी!
हां जी, कर लिया इंतज़ार लगभग एक घंटा .....कोई रिप्लाई नहीं.......अब तो फोन करना बनता है .......लेिकन यह क्या फोन की घंटी बजती रही .......तीन चार बार......उठा ही नहीं रहा........बस, अब रहा नहीं जाता, भयंकर से ख्याल छोड़ ही नहीं रहे (थैंक्स तो सीआईडी सीरियल ....और उस बंदे का भी जो रोज़ हमें कहता है....चैन से सोना है तो जाग जाइए) ......तब पड़ोस में फोन, काम करने वाली बाई को फोन, सोसायटी के गोरखे को फोन, होस्टल के दूसरे साथियों को फोन, होस्टल के केयर-टेकर को फोन.........बिल्कुल बावलों जैसी हालत....दिमाग की दही तब तक हो चुकी होती है, पसीने से चेहरा तर-बतर.... और भी बहुत कुछ ... इसी बहाने पेट अच्छे से साफ भी हो जाता है... हा हा हा हा .....!
लेकिन तभी एक घंटी बजती है .......सुस्त सी आवाज़ में दूसरी तरफ़ से आवाज़ आती है........ "है...लो........यार, इतनी मिस्ड काल, फोन साईलेंट पर था......आप लोग भी ना....."
इसलिए अब हम लोग स्मार्ट-फोन इस्तेमाल करने वाले इतने स्मार्ट हो गये हैं कि बैटरी पांच परसेंट होते ही किसी पनवाड़ी से फोन लेकर सूचना दे देते हैं कि मेरी बैटरी कम है .....बस, मैं आधे घंटे तक पहुंच रहा हूं।
वैसे तो आज के युवा यह नौबत भी आने ही नहीं देते वे एक्सट्रा चार्जर भी साथ ही लेकर चलते हैं....चार्जर की चिंता है, लेकिन सोचने वाले बात है कि हम अपनी ज़िंदादिली को कब चार्ज कर पाएंगे, कर भी पाएंगे या नहीं...
अब आप ने इतनी लंबी कथा पढ़ ली ......आप ही फैसला करें कि क्या हम लोग ठीक रास्ते पर चल रहे हैं या मेरी तरह बार बार इन मैसेजों के चक्कर में पड़ कर अपना सिर भारी करवा लिया करते हैं!
हां, एक बात और जिसे मैंने ज़रूर लिखना था ...दुःख तब बहुत ज़्यादा होता है जब आप अपने किसी मित्र को कोई संदेश भेजें, वह उसे तुरंत पढ़ भी ले, लेकिन उस का जवाब न दे........यह बात मन को बहुत कचोटती है, और मेरे जैसा भावुक इंसान तो मन ही मन तो कह भी उठता है.......क्या हासिल इस सोशल मीडिया से ......हम लोग बस अपना उजला पक्ष ही दूसरों के सामने रख पाते हैं......निःसंदेह हम सोशल मीडिया के तो बेताज होते जा रहे हैं लेकिन भावनात्मक स्तर पर हमारा जुड़ाव दिनप्रतिदिन कम होता जा रहा है......निरंतर गिरावट आ रही है......चलिए, अभी से थोड़ा संभलने का प्रयाय करिए........कैसे?......मैं अधिकतर व्हाट्सएप मैसेज पढ़ता ही नहीं, यार कौन सैंकड़ों मैसेजों में सिर गढ़ाए रखे, कौन सिर दुःखाए, कौन किस रूठे को मनाए........बेकार में ये सब झंझट हैं, जहां तक हो सके अपनी ज़िंदगी को जितना सहज और साधारण बनाए रखेंगे, उतना ही बेहतर है........ज्ञान की चिंता मत करिए जनाब, जितना मुझे और आप को चाहिए, वह हमारे तक यह सर्वव्यापी ईश्वरीय सत्ता हमारे तक पहुंचा ही देगी।
आप ने पिछली बार कब किसी बंदे से पूछा कि आप को मोबाइल नंबर क्या है तो उसने कहा कि साहब, हम नहीं रखते यह मोबाइल ........ठीक है, वह मोबाइल नहीं रखता होगा, लेकिन अगली बार उस की सहजता, उस की सादगी और चेहरे के शांत के भाव भी अपने मन में कहीं दर्ज कर लीजिएगा..........ओ हो, ड्यूटी पर जाने का समय आ गया, लेिकन एक विषय तो छुआ ही नहीं, व्टाह्सएप और फेसबुक पर होने वाले तर्क-वितर्क, वाद विवाद ........पता नहीं ज़िंदगी में इन में से किसी को कभी हासिल भी हुआ है या नहीं, लेकिन फिर भी रूस्वाईयां....गिले शिकवे....मैं तो इस से बहुत दूर भागता हूं.....कभी भी किसी बहस में पड़ा ही नहीं, यह मेरा बड़प्पन नहीं है, शायद कायरता होगी या समझी जाती होगी, लेकिन मैं खुश हूं...क्योंकि मुझे लगता है कि किसी से भी बहस करने से सिर तो मेरा ही दुःखेगा.......और मुझे मेरे सिर दर्द से बहुत डर लगता है......आज के लिए इतना ही ज्ञान काफी है, जल्दी से एक गीत ध्यान में आ रहा है, लगाए दे रहा हूं.....