बुधवार, 30 अप्रैल 2008

बिल्कुल चंदू के चाचा और चाची वाली बात की ही तरह ....(व्यंग्य-बाण)

वैसे तो मैं टीवी देखता नहीं.....अपना प्रोफैशन ही ऐसा है कि फुर्सत ही कहां है...बचा खुचा टाइम लिखने-पढ़ने में निकल जाता है। लेकिन कल ही कुछ घंटे पहले ही उस सैटेलाइट टीवी का रिचार्ज कूपन डलवाया था। दोपहर में खाना खाते वकत उस सैटेलाइट टीवी सर्विस के सर्विस सैंटर से फोन भी आ गया था कि आप का कार्ड खत्म हुया हुया है, क्या दिक्कत है......मैंने तो फोन पर बात ही ना करना चाहता था लेकिन जब श्रीमति जी ने फोन मेरी तरफ़ सरका ही दिया तो मैंने सोचा कि इस दाल-चावल का क्या है....कहां भाग जायेगी.....पहले ज़रा इस की क्लास ले लूं। मैंने उस से कहा कि भई, तुम्हारी यह क्या सर्विस है कि बाज़ार में चार-पांच चक्कर लगाने के बाद भी रिचार्ज कूपन नहीं मिल पाता। और भी जो मैंने अपनी तरफ़ से उसे फीड-बैक देनी थी, दे दी। संक्षेप में कहूं तो कल शाम को आखिर घूम घूम कर रिचार्ज-कूपन मिल ही गया और टीवी चलना शुरू हो गया।

वैसे दूसरे टीवी तो चल ही रहे थे .....हमारे यहां वैसे तो बिजली की सप्लाई अच्छी ही है...बहुत ही कम जाती है..कोई ब्रेक-डाउन ही हो तभी ......लेकिन केबल वाले के यहां जब भी बिजली गुल होती थी, केबल टीवी चलना बंद हो जाता था। इसी परेशानी से बचने के लिये एक टीवी पर सैटेलाइट टीवी वाली डिश की व्यवस्था पिछले साल की थी।
अच्छा तो मैं कह रहा था कि मुझे टीवी देखने से एक तरह की एलर्जी है.....लेकिन शायद नये नये रिचार्ज कूपन के चाव में मैंने अपने बेटे से रिमोट लिया और शायद चार-पांच महीने बाद टीवी देखने का मूड बना लिया था। रात के नौ-साढ़े नौ बज रहे थे। बेटे राघव ने भी बेहद आसानी से रिमोट मेरी तरफ थमा दिया....वह बड़ा सेंसेटिव किस्म का है......शायद वह भी सोच रहा होगा कि बापू वैसे तो टीवी देखता नहीं, पता नहीं आज तो इस की कुछ ज़्यादा ही इच्छा लगती है।

मैं बस ऐसे ही चैनल-सर्फिंग करने लगा.....लेकिन मेरी किस्मत ही खराब थी....इतने लंबे समय बाद टीवी देखने के लिये बैठा और एक अच्छे-खासे हिंदी न्यूज़-चैनल पर अटक गया.....वहां पर जो दिखाया जा रहा था, बताया जा रहा था.......रोचक लगा.....एक उभरते नेता के बारे में बताया जा रहा था कि कैसे उस ने एक छोटी सी चाय की दुकान में जाकर कर चाय की चुस्कीयां लीं....किस तरह वह गांव वालों से घुल-मिल गया....किस तरह से उस ने एक गांव-वाले के कंधे पर हाथ रखा, किस तरह से वह भी गांव वालों के साथ धरने पर बैठ गया, किस तरह से उस ने अपने सुरक्षा घेरे की परवाह ना की....किस तरह से जाते जाते वह उस चाय की दुकान वाले के बच्चे की कापी में धन्यवाद के 12 शब्द हिंदी में लिख कर लौट गया। और, फिर जिस तरह से ये चैनलों वाले विश्लेषण करते हैं....उन हिंदी में लिखे 12 शब्दों का विश्लेषण होने लगा....पहले तो स्पैलिंग चैक किये इन चैनल वालों ने, फिर इन 12 शब्दों वाले धन्यवाद-नोट पर पूरा विश्लेषण हुया कि उस नोट के एक एक शब्द के पीछे क्या उद्देश्य हो सकता है। शायद इतना सब कुछ दो-तीन मिनटों तक चलता तो मैं पचा लेता......क्या करें, अब आदत सी ही हो गई है। लेकिन यह क्या यह कार्यक्रम तो भई लगभग आधे-पौन घंटे से चला ही जा रहा था.......बार-बार वही रिकार्डिंग देख कर मेरा तो सिर भारी हो गया.....मुझे तो मलाल इसी बात हो रहा था कि वहां तो हिंदी के 12 शब्दों की इतनी पूछ है और यहां हम ब्लागिये हैं जिन्हें एक-एक लाख शब्द हिंदी में लिखने पर भी कोई नहीं पूछता......किसी और से क्या गिला-शिकवा....हमारे अपने ही टिपियाने से भी कन्नी कतराते हैं।

ओ..हो....हो गया ना यह सब कुछ .....लेकिन यह क्या... यह तो कोई तगड़ी पब्लिक-रिलेशन एक्सर-साइज़ चलती लग रही थी....किसी झोंपड़े में जाने से पहले उस युवा-नेता को बूट खोलते हुये भी बार-बार दिखाया जा रहा था....( जैसा कि मैं और आप ही क्या, हमारे देश का जन-मानस करता है!) ..और साथ में किसी निर्धन के बच्चे को कंधे पर उठाये हुये भी बार बार दिखाया जा रहा था......और बैकग्राउंड में चैनल वालों ने वह गीत भी तो चला रखा था......धरती सुनहरी अंबर नीला.....हर मौसम रंगीला.......ऐसा देश है मेरा...........( वीर-ज़ारा फिल्म से )। मैं सब कुछ ठीक से समझ रहा था लेकिन अब मेरी तबीयत जवाब दे रही थी और जैसे ही उस चुस्त-सी एंकर ने कहा कि बाकी देखते हैं ...थोड़े से ब्रेक के बाद.......बस उस का इतना कहना था कि मैंने भी रिमोट पर स्टॉप बटन दबा कर टीवी किया बंद और खाट पकड़ पर मच्छरों से जूझने की तरकीब लड़ाने में मसरूफ हो गया।

लेकिन मुझे तब ध्यान आया कि जब इस नेता ने कुछ दिन ही पहले किसी आदिवासी महिला के झोंपड़े में जाकर दाल-रोटी-चटनी खाई थी तो भी चैनल वालों को अपनी टीआरपी बढ़ाने का बढ़िया मसाला मिल गया था। लेकिन यह उस दिन की चटनी वाली बात और आज की ये क्लिपिंग्ज़ जो पता नहीं मैं कितनी बार ही आधे-पौन घंटे में देख चुका था.......ये सब देख कर रह रह मुझे अपनी पांचवी कक्षा के वे दिन याद आने लगे जब हम दोस्त आपस में वह वाली गेम खेला करते थे जिस में हमें ये टंग-ट्विस्टर तेज़ी तेज़ी से बिल्कुल रूके बिना बोलने होते थे.......चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को चांद की चांदनी में चांदी के चम्मच से चटनी चटाई.............मुझे भी कल वह हिंदी न्यूज़-चैनल बार बार वह क्लिपिंग दिखाता हुया ऐसा ही लग रहा था जैसे कि कोई यही कहे जा रहा है....चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को..........। खैर, जो भी हो, कल का यह प्रोग्राम देख कर मेरे मन में उस चैनल के बारे में एक पक्का इंप्रेशन बन गया है........नो, नो, वह मैं आप से शेयर नहीं करना चाहूंगा। क मच्छरों से मुकाबला करते करते कब नींद हावी हो गई पता ही नहीं चला।

सोमवार, 28 अप्रैल 2008

मेरी अस्थियों की वसीयत...

आज मैं अपनी अस्थियों की वसीयत करने जा रहा हूं....नहीं..नहीं..बिल्कुल किसी प्रकार के भी दबाव में नहीं....बल्कि स्वयं अपनी मर्जी से होशो-हवास में यह सब कुछ कर रहा हूं.....नहीं, नहीं, मेरे सारे परिवार वाले, मेरे बीवी-बच्चों को भी इस में रती भर भी आपत्ति नहीं होगी.....इस का कारण यही है कि उन सभी के विचार मुझ से भी कहीं ज़्यादा क्रांतिकारी किस्म के हैं, प्रगतिशील हैं, रूढ़िपन से कोसों दूर हैं........किसी भी कर्म-कांड से कोसों दूर....इन ढकोंसलों को सिरे से नकारने वाले विचार रखते हैं मेरे घर के सारे बाशिंदे। वैसे पहले तो मेरा विचार था कि अपने पार्थिव शरीर को किसी मैडीकल कॉलेज को दान दे दूंगा.....ताकि कम से कम मैडीकल छात्रों के कुछ तो काम आये.....( वैसा ऐसा मेरे मरहूम नानाससुर ने दो-एक साल पहले किया था, उन के ये भाव जान कर मेरा मन बहुत उद्वेलित हुया था...).....लेकिन आज की अखबार पढ़ कर मुझे लगने लगा है कि यार, इन अस्थियों की तो अभी कुछ लोगों को विशेष ज़रूरत है.......चलिये अब मैं पूरी बात पर आता हूं।

आज हिंदी के तीन अखबारों के पहले पन्नों पर छपी तीन खबरों ने बहुत परेशान किया। एक अखबार के पहले पन्ने पर खबर दिखी कि कुछ बेटों ने किसी तांत्रिक के प्रभाव में आकर अपनी मां की ही बलि दे दी । अब इस के बारे में क्या कहूं.......खबर पूरी पढ़ ही क्या , सुन कर ही बोलती बंद हो जाती है ना !!

दूसरी अखबार के पहले पेज़ पर खबर थी कि महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी, रोहतक द्वारा आयोजित एमडी-एमएस प्रवेश परीक्षा का पेपर एक दिन पूर्व लीक हुआ था। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि चयनित स्टूडेंट्स को अलग अलग स्थानों पर प्रश्न रटवाए गये थे। अब कुछ छात्र समूह इस की एंक्वायरी की मांग कर रहे हैं..........छोटी मोटी एंक्वायरी ही क्यों, मेरे विचार में तो इस तरह के घोटाले में सीबीआई जांच होनी चाहिये। समझ नहीं आता कि किस तरह के स्पैशलिस्ट तैयार होंगे इस तरह की चयन परीक्षा के द्वारा........जो सीरियस किस्म के छात्र बेचारे कईं कईं साल तैयारी कर के इन कोर्सों में प्रवेश प्राप्त करने के सपने बुनते हैं.........वे तो बेचारे बेवकूफ़ हो गये....और जो लोग अपने कंटैक्ट एवं पैसे के ज़ोर पर इस तरह की प्रवेश-परीक्षा पर ही धावा बोल देते हैं........एक तरह से इन परीक्षाओं को सैबोटॉज कर लेते हैं.......वे अकलमंद हो गये। शायद ही आप इस बात का अंदाज़ा लगा सकें कि इस तरह की धांधली की वजह से किसी भी प्रतिभावान डाक्टर को कितनी घुटन, कुंठा, कितना आक्रोश, कितनी फ्रस्ट्रेशन, कितनी आग लगती होती......मेरे पास तो ये सब लिखने के शब्द भी नहीं हैं.....लेकिन ये बातें लिखने-पढ़ने की बात भी है नहीं.....अनुभव करने की बातें हैं।

तीसरी खबर.....यह भी एक अखबार के पहले पन्ने पर ही थी....इसे देख कर तो मेरा दिमाग 360 डिग्री ही घूम गया.....और मैंने अपने अस्थियों की वसीहत करने का फैसला कर लिया । हुया यूं कि अंबाला में गांव की किसी महिला की अस्थियां जेब में डालकर ले जाने वाले एक दिहाड़ी मज़दूर को ग्रामवासियों ने न केवल मुंह काला करने घुमाया बल्कि गांव से निकाल दिया। हां, हां, अस्थियां तो उस की जेब से निकाल ही लीं। पुलिस को भी फोन भी हो गया , तुरंत पंचायत भी बैठ गई....और उस मज़दूर को गांव-निकाला भी दे दिया और उस से यह भी कह दिया गया कि आज के बाद वह गांव में नज़र नहीं आना चाहिये। लेकिन मजदूर की बात तो सुनिये.....सुन कर आप भी पिघल जायेंगे.....उस ने कहा कि उस को किसी ने कहा था अस्थि बच्चे के गले में डाल दो तो बीमारी नहीं लगती है, इसलिये वह अस्थि ले कर जा रहा था।

तो, क्या आप को इन खबरों से आज के समाज की भयानक तसवीर की एक झलक नहीं दिखी......मुझे तो अच्छी खासी दिखी.....इसीलिये मैंने झट से अपनी अस्थियों की वसीयत कर देने में ही समझदारी समझी। वैसे भी मैं तो यह बिल्कुल नहीं समझता हूं कि इन अस्थियों के द्वारा ही मुझे मुक्ति मिलने वाली है.....नहीं, नहीं, मैं नहीं पड़ना चाहता इस तरह के मिथ्या आडंबरों में.....वैसे भी मुझे मुक्ति नहीं चाहिये.......मैं तो बस यूं ही पाखंडियों के आस-पास मंडराता रहना चाहता हूं.....मर कर भी उन की नींद हराम किये रखना चाहता हूं...........और वैसे भी इस न्यूज़-रिपोर्ट जैसे पता नहीं अभी कितने हज़ारों-लाखों लोग होंगे जिन्हें अब बच्चों के गले में डालने के लिये अस्थियां चाहिये होंगी........चलो, कुछ के तो काम आ ही जायेंगी....और इसी बहाने मुझे अपनी इस हार को मानने का एक अवसर तो मिलेगा कि ये वे महान आत्मायें हैं जिन को मैं अपनी ज़िंदगी के दौरान भ्रमजाल से मुक्त नहीं कर सका, इसलिये ये अब जो भी मेरी अस्थियों के साथ करना चाहें, इन्हें मनमानी कर लेने दो।

वैसे जब मैं ये अस्थियां चुराने वाली खबर पढ़ रहा था तो मेरा ध्यान हमेशा की तरह रोटी फिल्म के उस बेहद सुंदर गीत की तरफ एक बार फिर चला गया..........यार, हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो....जिस ने पाप ना किया हो.......जो पापी न हो...........सचमुच आप पूरे मन से वह वाला गीत सुनेंगे तो आप की आंखें भर आयेंगी... दोस्तो, यह रोटी फिल्म भी कमबख्त ऐसी है कि पता नहीं लाइफ में किस घड़ी में देखी है कि ये मेरे लिये कईं अहम् फैसले लेने के लिये भी एक बैंच-मार्क का काम करती हैं......मुझे अकसर रोज़ाना कईं महत्वपूर्ण फैसले करने होते हैं.....तो अकसर मैं अपने इस बैंच-मार्क को ज़रूर कंसल्ट कर लेता हूं.......। धिक्कार है इस समाज पर, इस समाज के ठेकेदारों पर, इन धर्म के सौदागरों पर जिन्होंने एक मजलूम से इंसान को इतनी छोटी सी भूल के लिये इतनी बड़ी सज़ा देकर पता नहीं किस इलाही धर्म का पालन कर डाला। मैं मज़बूर बंदों पर इस तरह से अत्याचार करने की खुल कर, बिल्कुल खुल कर, ओपनी....घोर निंदा करता हूं।.........समाज से और कौन से अपराध नहीं हो रहे....घूसखोरी, भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, जालसाजी, फरेब, बलात्कार, हत्यायें, आतंकवाद की घटनायें......इन का फैसला कभी इतनी तुंरत नहीं ( पता नहीं कब आता है...!!) आया जितना कि इस बेसहारा मज़दूर का आ गय़ा।

बस, अभी आप से क्षमा चाहता हूं....क्योंकि मैं ये तीनों खबरें पढ़ कर बहुत शर्मसार हूं.........मुझे सैटल होने के लिये थोड़ा एकांत चाहिये।

रविवार, 27 अप्रैल 2008

पावडर वाले दूध की मलाई मार गई !!

कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात एक मिठाई-विक्रेता से हुई। मैंने उस से निवेदन किया कि तुम मुझे ईमानदारी से यह बताओ कि ये जो इतनी बर्फी -इतना पनीर बाज़ार में बिक रहा है, यह सब आखिर है क्या !...उस ने बताया कि ज्यादातर मिठाईयां वगैरा तो पावडर-वाले दूध से ही तैयार हो रही हैं..........


शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

क्यो ले ली इस खसरे के टीके ने नन्हे-मुन्नों की जान ?

आज के अखबार में एक खबर तो बेहद दुःखदायी दिखी कि तमिलनाडू के थिरूवल्लूर ज़िले में चार शिशु खसरे(मीज़ल्स) का इंजैक्शन लगवाने के बाद अचानक चल बसे। अब इस की जांच तो होगी....लेकिन इस जांच का फायदा तभी ही होगा अगर हम इन जांच-रिपोर्टों से कम से इतना तो सीख ही लें कि भविष्य में ऐसा हादसा फिर कभी भी न होने पाये। हम ज़रा उन चार परिवार वालों की हालत की कल्पना करें कि वे अपने हंसते-खेलते शिशु लेकर बड़े चाव से उन्हें खसरे से बचाव का टीका लगवाने जाते हैं और कुछ समय बाद ही कुछ भी शेष नहीं रहता। रही बात, उस हर परिवार को तीन-तीन लाख देने वाली बात.....जिस तरह से इस राशि के बारे में अखबारों में आ जाता है, मुझे बेहद ओछापन लगता है जैसे कि उन शोकग्रस्त परिवारों को मुंह बंद रखने का मुआवजा दिया जा रहा हो......कि देखो, अब जो गया सो गया, वह तो वापिस आने से रहा, लेकिन अब तुम लोग अपनी जुबान पर ताला लगाये रखने का यह मोल रख लो।.... खैर, अपना अपना नज़रिया है.....शायद इस काम का ढिंढोरा पिटवाना भी उन की मजबूरी रहती होगी.......क्योंकि यह एक अच्छी खासी पब्लिक-रिलेशन एक्सर-साइज़ भी तो है। खैर, इस बात को इधर ही समाप्त करते हैं क्योंकि मेरा तो इस तरह की मदद-वदद की बातें देख-सुन-पढ़ कर सिर दुःखता है। जिस मां की गोद ही उजड़ गई, उस की आखिर क्या मदद हो सकती है!!.

ध्यान रहे कि मीज़ल्स का टीका बच्चों को केवल एक ही बार 9महीने की उम्र पर लगाया जाता है और यह टीका उसे मीज़ल्स से 95प्रतिशत सुरक्षा प्रदान करता है। सुनने में तो लगता है कि क्या है खसरा ही तो है.....बच्चों में अकसर हो ही जाता है और फिर ठीक भी हो जाता है। लेकिन ऐसी बात नहीं है....क्योंकि खसरा विकासशील देशों में हर साल लाखों बच्चों की जान ले लेता है। होता यूं है कि खसरा रोग से पैदा होने वाली जटिलतायों( कम्पलीकेशन्ज़).. जैसे कि डायरिया(दस्त रोग), निमोनिया, और एनसैफेलाइटिस ( दिमाग की सूजन)....की वजह से बहुत सी मौतें हो जाती हैं। पांच साल से कम उम्र के बच्चे तो इस के बहुत ज़्यादा शिकार हो जाते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि मीजल्ज़ का टीका तैयार होने के बाद तीन घंटे के बाद इस्तेमाल हो जाना चाहिये। तैयार करने से यहां मतलब है ....रिकंस्टीच्यूशन ....( Reconstitution)….इस का मतलब यह है कि मीजल्ज़ का टीका फ्रीज़-ड्राइड फार्म ( freeze-dried form) अर्थात् एक पावडर जैसे रूप में हमें मिलता है और इसे इस्तेमाल करने से पहले लिक्विड-फार्म में लाया जाता है। और एक बार जब यह लिक्विड-फार्म में आ जाये तो तीन-घंटे के अंदर अंदर इस का इस्तेमाल किया जाना लाज़मी है.....जो बच जाये उसे फैंकना होता है।

टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में आल-इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ मैडीकल साईंस के कम्यूनिटी मैडीसन विभाग के एक प्रोफैसर का यह स्टैटमैंट भी दिया है कि ऐसी रिपोर्टें कभी नहीं आई कि मीज़ल्स के टीके लगने से बच्चों की मौत हो गई क्योंकि इंजैक्शन खराब था। लेकिन उन्होंने यह भी बताया कि इस तरह के इंजैक्शन जिन्हें रिकंस्टीच्यूट करने के बाद गर्म-वातावरण में अथवा सीधी धूप( exposed to heat or direct sunlight) में ऱखा जाता है.....इस तरह का इंजैक्शन लगने से शिशुओं में एनाफाईलैक्टिक शॉक ( एक तरह का वैसा ही रिएक्शन जो पैनेसिलिन टीके के तुरंत बाद कभी कभी हो जाता है) ...हो जाता है जिस से ह्दय काम करना बंद कर देता है और सांस लेने में दिक्कत हो जाती है।

रोग-प्रतिरक्षण के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले टीकों के बारे में इतना जानना भी बहुत ज़रूरी है कि हर स्टेज पर इन्हें एक खास तापमान ( 2 से 8 डिग्री-सैंटीग्रेड) मुहैया करवाया जाता है। हर स्टेज पर इस तापमान को कायम रखने के लिये जो कड़ी है , जो सुदृढ़ ढांचा विकसित है उसे कोल्ड-चेन कहा जाता है.....एक तरह से यह समझ लें कि यह कोल्ड-चेन किसी भी टीकाकरण कार्यक्रम की सफलता की रीढ़ की हड्डी है......इस के साथ किसी भी स्टेज पर थोड़ा भी समझौता हुया नहीं कि यह सारा प्रोग्राम फेल हुया समझो। हमेशा से ही चिकित्सा विभाग के आगे यह चैलेंज रहा है कि इस कोल्ड-चेन को किसी भी तरह से कैसे टूटने से बचाया जाये.......क्योंकि जैसे ही यह कोल्ड-चेन टूटती है, टीके में खराबी ( contamination) के चांस बहुत बढ़ जाते हैं।

अब इस सारे एपीसोड की जांच तो होगी ही ....और यह भी पता लगाने की कोशिश की जायेगी कि क्या यह दुर्घटना कोल्ड-चेन में किसी किस्म की ब्रेक होने की वजह से हुई या इंजैक्शन के खराब ( contaminated) होने की वजह से चार शिशुओं ने अपनी जानें गंवा दीं।

जिस तरह से इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की कवरेज समाचार-पत्रों में आज मैंने देखी है उस से एक बार फिर मुझे यह लगा है कि अंग्रेज़ी प्रिंट मीडिया में इस तरह की कवरेज का स्तर बहुत ज़्यादा अच्छा है....इस रिपोर्ट ने पाठक को अच्छी तरह से समझाने की और उस के मन में उठ रहे कईं प्रश्नों का जवाब देने की अच्छी कोशिश की है। दा हिंदु अंग्रेज़ी अखबार ने तो पहले पेज़ पर यह रिपोर्ट छापने के साथ साथ इस दुर्घटना पर पहला सम्पादकीय लेख छाप कर सारे पाठकों का ध्यान इस तरह आकर्षित किया है। मैं उस सम्पादकीय लेख में से कुछ लाइनें यहां दे रहा हूं......काफी बातें इन लाइनों से ही स्पष्ट होती दिखती हैं..........

..... The involvement of the vaccine belonging to the same batch in different health centres seems to indicate problems with quality, which could have occurred at the point of manufacture, during transfer or storage. Laboratory investigations can determine whether the vaccine produced by the Human Biologicals Institute, Hyderabad, was contaminated, but the death of the infants is bound to shake public confidence in the immunization programme. The priority must now be to restore faith in the system in order to maintain wide vaccination coverage. The benefits of good quality vaccines for diseases such as measles, mumps, diphtheria, polio, and tetanus are universally acknowledged and heavily outweigh the very rare adverse reactions.

जाते जाते, हिंदी समाचार-पत्र की इस न्यूज़-रिपोर्ट पर भी एक नज़र मार ही लें......आप को भी ऐसा लगेगा कि जैसे किसी सरकारी प्रैस-विज्ञप्ति को पढ़ रहे हैं। शायद हिंदी मीडिया ने सिर्फ़ एक सरकारी फरमान के रूप में ही इतनी अहम खबर को छापना सही समझा होगा लेकिन इतनी भी क्या जल्दी कि खसरे की दवा के टीके की जगह इस अखबार ने तो खसरे की दवा को पीने वाली बतला दिया। बात छोटी सी है......कवरेज हिंदी अखबारों का ज़्यादा है....ऐसे में इस तरह की आधी-अधूरी खबर का असर दो-दिन बाद होने वाले पल्स-पोलियो रविवार पर भी पड़ सकता है कि नहीं ?....आप का क्या ख्याल है.......इसीलिये तो कहता हूं कि अब समय आ गया है कि हिंदी अखबारों को भी हैल्थ-कवरेज को ऊंचा उठाने के यत्न करने चाहिये......क्या है..बात केवल इतनी सी है कि किसी क्वालीफाइड डाक्टर से बेसिक बातें तो चैक करवाई ही जा सकती हैं........ताकि खसरे का टीका टीका ही रहे.....पीने वाली दवा तो ना बने।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

डिस्पोज़ेबल सिरिंजों एवं सूईंयों के बारे में इसे जरूर पढ़ें...

दो-चार दिन पहले मैं जब एक पारिवारिक समारोह में जयपुर गया हुया था तो वहां मुझे अपने मामा को टैटनस का टीका लगाना था। टीका लगाने के बाद मेरी वही उलझन कि उस डिस्पोज़ेबल सिरिंज एवं सूईं को कहां फैंकूं.....यानि कि इन डिस्पोज़ेबल्स को कैसे डिस्पोज़ ऑफ करूं!!....खैर, आप अगर मेरी जगह होते तो क्या करते ?....शायद आप दिमाग पर इतना ज़्यादा ज़ोर दिये बिना उस सूईं पर टोपी लगाकर किसी कूड़ेदान में फैंक देते। लेकिन मैं एक डाक्टर होने के नाते ऐसा न कर सका !
मैंने उस दिन भी वही किया जो मुझे थोड़ा सा ठीक लगा ( पूरा ठीक तो यह भी नहीं था ! )….मैं कुछ समय बाद बाज़ार जाते समय उस सिरिंज एवं नीडल को साथ ले गया और घर के पास ही एक कैमिस्ट की दुकान के सामने जहां इस तरह का कूड़ा पड़ा हुया था वहां मैंने इसे भी फैंक कर थोड़ी राहत महसूस की। वहां फैंकने का कारण यही था कि वहां से जो भी रैगुरर्ली इस तरह का कचरा उठाता होगा, वह तो सावधानी पूर्वक ही यह सब करता होगा। लेकिन गहराई से सोचता हूं तो यही पाता हूं कि यह सब एक खुशफहमी ही है......कहां ये सफाई वाले इतनी बातों का ध्यान रख पाते होंगे.....इन में कहां इतनी अवेयरनैस कि ये सब समझ पाते होंगे।
मैं अकसर सोचता हूं कि हम मैडीकल प्रोफैशन वाले अकसर मीडिया में ढींगे तो बहुत लंबी लंबी मारते हैं कि हम ने लिवर ट्रांस्पलांट कर दिया, रक्त की नाड़ी की रुकावट समाप्त कर दी..........लेकिन अकसर हम छोटी-छोटी बातों के ( जो वास्तव में बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं) बारे में लोगों की जागरुकता का स्तर बढ़ा नहीं पाये......इस के कारण तो बहुत से हैं....लेकिन एक उदाहरण यह ही लीजिये......कि बड़े हस्पतालों में तो बॉयोमैडीकल वेस्ट मैनेजमेंट के बड़े लंबे चोड़े कानून तैयार हो गये....अब इन पर कितना चला जा रहा है, यह एक अलग मुद्दा है.......लेकिन घर में एक डिस्पोज़ेबल सीरिंज एवं सूईं का डिस्पोज़ल ही एक सिरदर्दी बन जाता है....हां, हां, सिरदर्दी उस के लिये जो सोचते हैं.....अन्यथा, कूड़ेदान में फैंक कर ही फारिग !!
अब जब हम तो इस नीडल-सीरिंज को कूड़ेदान में फैंक कर फारिग हो लिये लेकिन सब से पहले तो इस से हमारे यहां काम करने वाले सफाई कर्मचारी को यह चुभेगी.....फिर जहां पर बाहर बड़े डस्ट-बिन में इसे फैंका जायेगा ....वहां से भी इसे उठाते हुये कोई न कोई इस से चोट खायेगा......फिर आगे चल कर जहां पर सारे शहर का कूड़ा डाला जाता है वहां पर ये सूईंयां रैग-पिकर्जं की सेहत के साथ खिलवाड़ करेंगी। उस के बाद इन का क्या अंजाम होता है .....अब उस के बारे में क्या लिखूं...इन सीरिंजों एवं सूईंयों की रीसाईक्लिंग की खबरें अकसर चैनलों वाले दिखाते ही रहते हैं जहां पर एक टब में इस तरह डिस्पोज़ेबल मैडीकल वस्तुयें एक बड़े से टब में उबलती हुई दिखाई जाती हैं ...जिस के बाद इन्हें पैक कर के वापिस मार्कीट में बेचा जाता है....यह तो हुई इस रीसाईक्लिंग के गोरख-धंधे की बातें।
इसी तरह की क्रॉस-इंफैक्शन पर लगाम कसने के लिये ही और इस तरह की लोगों की सेहत को बर्बाद करने वाली री-साईक्लिंग को रोकने के लिये ही हर एक अच्छे क्लीनिक, दवाखाने या ओपीडी में जहां भी इंजैक्शन लगते हैं उन के पास एक नीडल एंड सिरिंज कटर होता ही है या होना ही चाहिये....ऐसे ही एक नीडल कटर एवं सिरिंज कटर की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं।
इस तस्वीरों में आप देखिये कि एक इस्तेमाल की गई सूईं को नीडल-बर्नर में डाल कर जलाया जा रहा है और अंत में वह नीडल पूरी तरह जल जाती है जिस की आप तस्वीर भी आप यहां पर देख रहे हैं।
यह तो हो गया इस्तेमाल की गई नीडल का काम तमाम, अब बारी आती है सिरिंज की.......ध्यान रहे कि इन सीरिंजों की भी बहुत ज़्यादा री-साईक्लिंग होती है । ऐसे में हम लोग इसी मशीन के द्वारा ही इस सिरिंज की नोज़ल ही काट देते हैं.............कितनी बढ़िया बात है ना कि ना रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी। इस सिरिंज की नोज़ल कटने की तस्वीरें भी आप इधर देख सकते हैं।
अब, आप शायद यह सोच रहे होंगे कि बस यह सब करके काम खत्म हो गया। नहीं, फिर इस तरह के इकट्ठे हुये प्लास्टिक को डिस्पोज़ ऑफ करना होता है। या तो इस तरह के प्लास्टिक को एक हाट-एयर ओवन में डाल कर कुछ इस तरह से पिघला सा दिया जाता है कि यह एक प्लास्टिक का छोटा मोटा गोला सा ही बन जाता है ...फिर इसे या तो हास्पीटल के आस पास खुदे किसी गड्ढे में डाल दिया जाता है या बड़े-बड़े हास्पीटलों में इंसीनेरेटर में इसे डाल कर राख बना दिया जाता है। यह तो मैंने सिर्फ़ सीरिंज और नीडल की ही बात की है ....पर अस्पतालों में तो रोज़ाना ही सैंकड़ो तरह के इस तरह के डिस्पोज़ेबल्ज़ इस्तेमाल होते हैं......अब आप भी सोचिये कि इन का सेफ़- डिस्पोज़ेबल कितना बड़ा चैलेंज है।
अब आप का यह सोचना भी मुनासिब है कि इतना सारा मैडीकल ज्ञान आखिर हमें क्यों परोसा जा रहा है। इस का केवल इतना उद्देश्य है कि एक तो आप को इस बॉयो-मैडीकल वेस्ट मैनेजमैंट के दहकते मुद्दे के बारे में सैंसेटाइज़ किया जा सके और दूसरा जब हम लोग घर में सीरिंज और सूईं इस्तेमाल करते हैं तो उस के डिस्पोज़ल के बारे में भी सोचें। अब आप स्वयं ही बतायेंगे कि आप क्या सोचते हैं कि आप इस इस्तेमाल की हुई सूईं को कैसे डिस्पोज़ ऑफ कर सकते हैं....हां, हां, मैं आप की इस बात से सहमत हूं कि अब घर में कभी-कभार इस्तेमाल होने वाली सिरिंजो-सूईंयों के लिये हम तो नहीं इस नीडल-सिरिंज कटर को खरीद सकते !!!......तो फिर आप भी कोई रास्ता निकालिये और मुझ से भी साझा करिये। वैसे, प्लास्टिक सिरिंज के बारे में मैं इतना कहना चाहूंगा कि अब कुछ हास्पीटलों में इस की जगह कांच की सिरिंजें इस्तेमाल हो रही हैं जिन्हें अगली बार इस्तेमाल करने से पहले अच्छी तरह स्टैरीलाइज़ कर लिया जाता है। कम से कम इन सीरिंजों के कारण इक्ट्ठा हो रहे प्लास्टिक के ढ़ेरों पर तो अंकुश लगेगा ........और इन की री-साईक्लिंग के दुष्परिणामों से भी जनता बची रहेगी।
मैंने इस विषय पर इतना लंबा चौड़ा इसलिये भी लिख दिया है कि अकसर घरों में कभी कभार सिरिंजे-सूईंयां दिख ही जाती हैं......चाहे तो किसी को कोई टीका वगैरह लगना हो या किसी का कोई ब्लड-सैंपल लेने के लिये ही........और हां, एक बहुत ही ज़रूरी बात का यह तो खास ध्यान रखें कि इस्तेमाल की गई सूईं पर उस की टोपी चढ़ाने से गुरेज करें( जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं) ......क्योंकि मैडीकल सैटिंग्स में देखा गया है कि चिकित्साकर्मीयों को ज़्यादातर इन सूईंयों से नीडल-प्रिक इंजरी इन को वापिस कैप चढ़ाते समय ही होती हैं। और अभी एक बात का ध्यान आ रहा है कि जब किसी चिकित्सा कर्मी को किसी मरीज़ पर इस्तेमाल की गई सूईं अचानक चुभ जाती है तो वह उस चिकित्सा कर्मी एवं उस के परिवार की ज़िंदगी में किस तरह से खलबली मचा देती है.....इस का खुलासा कभी मूड में हुया तो करूंगा...जिस से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। मैंने तो एक राष्ट्रीय संस्था के साथ भी ये बेहद खौफ़नाक अनुभव बांटने चाहे थे ताकि सभी तरह के चिकित्साकर्मी इस से कुछ सीख ले सकें...........लेकिन उन्होंने कोई खास रूचि नहीं दिखाई........अब किसी के पीछे पड़ने वाले तो हम भी नहीं.......लेकिन ये सारे अनुभव किसी न किसी प्लेटफार्म पर साझे जरूर करने हैं.....देखते हैं ये सब कुछ कब संभव हो पाता है।
मैं भी कहां का कहां पहुंच गया.....और जाते जाते एक बात यह भी करनी है कि अब डिमांड कर के इंजैक्शन लगवाने वाले दिन लद गये हैं......ऐसी डिमांड कभी नहीं करनी चाहिये। और हां, मेरे मामा के टैटनस के टीके वाली बात तो कहीं पीछे ही छूट गई.........क्योंकि यह जो हर छोटी-मोटी चोट के बाद टैटनस का टीका लगवाने का एक क्रेज़ सा है......यह भी कितनी उचित है , कितना अनुचित.........इस की चर्चा भी शीघ्र ही करूंगा।
जाते जाते यह भी ज़रूर कहना चाहूंगा कि जब भी कभी डिस्पोज़ेबल सिरिंज एवं नीडल की ज़रूरत पड़े तो बढ़िया क्वालिटी की ही सिरिंज एवं नीडल खरीदें.......पहले मैं सोचता था कि इस का नाम मुझे नहीं लेना चाहिये....लेकिन अब लगने लगा है कि अगर मैं किसी आइटम को ज़रूरत पड़ने पर अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिये इस्तेमाल कर रहा हूं और उस स संतुष्ट हूं तो इस को आखिर आप लोगों के साथ शेयर करने में दिक्कत क्या है.........ओबवियस्ली कोई नहीं.....तो, फिर मैं आप को यह बताना चाहता हूं कि मैं कभी भी अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिये DISPOVAN नामक सीरिंजों एवं सूईंयों का ही इस्तेमाल करता हूं......और भी बहुत ही अच्छी कंपनियां होंगी, लेकिन मैं तो इस प्रोडक्ट को ही इस्तेमाल करता हूं और मेरा इस में पूर्ण विश्वास है। मुझे यह लगने लग गया है कि मैंने क्या लेना देना है इन कंपनियों से .....जो भी मेरे अनुभव हैं मुझे बिल्कुल बेपरवाह होकर पूरी इमानदारी से आप से बांटने चाहिये क्योंकि आप लोग अकसर मेरी बातों को बहुत सीरियस्ली लेते हो............Thank you, so very much !!

गुरुवार, 17 अप्रैल 2008

क्या आप को भी कभी ग्राहक राजा लगा है ?

अगर ग्राहक राजा है तो उस का यह हाल क्यों ?
वैसे तो शायद आजकल एक फैशन सा ही हो गया है या बदलते समय की मांग के कारण यहां वहां कईं संस्थाओं में कस्टमर किंग है.....अर्थात् ग्राहक राजा है....के बहुत बड़े बड़े पोस्टर लगे हुये दिख जाते हैं। मैं अकसर अपने आप से ही पूछता रहता हूं कि क्या यह एक तरह की फार्मैलिटी सी है या इस में कुछ ठोस बात भी है।
जनता का जिस तरह का हाल मैं विभिन्न जगहों पर देखता हूं ...वह देख कर मुझे तो कुछ और ही लगता हू। अगर मेरी बात पर ज़रा सा भी शक हो तो देश में कहीं भी उस पंक्ति की तरफ़ नज़र दौड़ा के देख लीजियेगा....सारी बात समझते देर न लगेगी। मैं एक ऐसी खिड़की पर जा कर बिजली का बिल जमा करता रहा हूं....( करता रहा हूं क्या, अभी भी करता हूं) जिस को खिड़की कहना ही बेवकूफ़ी होगी......वह तो सिर्फ़ आधे फुट के करीब का एक झरोखा सा है.....जो लगभग साढ़े-चार या पांच फीट की ऊंचाई पर है, उसी झरोखे के रास्ते से ही हमें अपना बिल उचित राशि के हाथ अंदर पकड़ाना होता है। यह जो सुरंगनुमा तंग सा रास्ता जिस से होकर हाथ उस सर्वेसर्वा बाबू तक पहुंचता है....यह रास्ता बहुत ही संकरा है....एक बार थमा देने पर आप आप अपने द्वारा जमा की गई राशि की काउंटिंग होती भी नहीं देख पाते। हां, कभी कभार जब बाबू कुछ पूछता है तो आप को उस झरोखे के लैवल पर झुकना पड़ता है.......अब सदियों से इतना झुकते आये हैं कि हमें तो इस तरह से बिना वजह ऐसी किसी भी ऐरी-गैरी जगह पर झुकना एकदम नागवारा है..........पता नहीं मुझे तो इस तरह से बिल जमा करवाने में बड़ी ज़िल्लत का सा अहसास होता है। पैदाइश तो चाहे आज़ाद हिंदोस्तान की है, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों मैं इस तरह की लाइनों में लगे लोगों को देख कर गुलामी के अंधेरे दिनों की कल्पना ज़रूर कर लेता हूं।
कुछ दिन पहले बीमे की किश्त जमा करने गया......वहां पर भी एक तंग सी खिड़की....और बाकी सारी जगह पर कांच और उस के बाहर एक ग्रिल सी लगी हुई थी......सीधी सीधी बात करूं तो इन जगहों पर जाकर मेरा सिर दुःखने लगता है.........नहीं, नहीं, इसलिये तो बिलकुल नहीं कि मुझे लाइन में लगना पड़ता है। वैसे मैं तो इस सामाजिक बराबरी का इस हद तक पक्षधर हूं कि ऐसी किसी जगह पर लोग अगर मुझे पहचान कर लाइन में आने के लिये कहते हैं तो मैं ऐसा सोचना भी पाप मानता हूं.....और मैं इस नियम का अपनी ओपीडी में भी सख्ती से पालन करता हूं.......इस नियम के साथ अपने सारे कैरियर के दौरान न तो कभी समझोता किया और न ही कभी करूंगा।
इन पब्लिक जगहों पर जहां बिल वगैरह भरे जाते हैं .....क्या इन्हें डाका डलने का खौफ़ बना रहता है....लेकिन मैं तो ऐसी जगहों की भी बात कर रहा हूं जहां पर ये कलैक्शन-सैंटर किसी इमारत के अंदर होते हैं और आसपास सैक्यूरिटी गार्ड भी तैनात होते हैं।
अकसर आप ने भी पब्लिक जगहों पर देखा होगा कि जहां पब्लिक का किसी तरह का इंट्रेक्शन सा होता है वहां खिड़की के बाहर खड़े लोगों को एक खुशामदीद का अहसास नहीं हो पाता.......हां, हां, उन ग्राहक राजा है वाले नारों की बात अभी थोडा भूल ही जाइये.......बाहर, देखता हूं कि कुछ लोग विभिन्न कारणों से लाइन जंप कर ही लेते हैं। कहने को तो कईं जगह पर स्त्रियों की लाइन अलग से होती है लेकिन इन जगहों पर भी मैंने देखा है कि खिड़की अलग नहीं होती.................आप समझ गये ना, तो फिर कुछ अवसरवादी लुच्चे किस्म के शोहदों को अपने मन की थोड़ी सी मनमानी करने से इस से बेहतर मौका कहां मिलता है।
शायद एक नियम और जिस के अंतर्गत बैंक के गेट पर ज़ंजीरें सी बांधी जाती हैं....मुझे तो वह भी बेहद अजीब सा नियम लगता है .....न तो किसी की उम्र का ध्यान करो और न ही करो किसी की सेहत का ....बस कोरे नियमों की पालना करो। मैं ऐसा इसलिये भी लिख रहा हूं क्योंकि मैंने बहुत बार बुजुर्ग लोगों को इन संगलियों से उलझकर गिरते गिरते बचते देखा है....लेकिन क्या करे......उस की सुनने वाला है कौन !! आना है तो आ बैंक में, वरना घर बैठ.....तू नहीं तो और सही, आज के दौर में बैंकों में ग्राहकों की भला कोई कमी है।
चलिये, मैं तो कईं दिनों से मन में दबी बात को लिख कर हल्का सा हो गया हूं ....लेकिन फिर सोचता हूं कि इस से क्या फर्क पड़ेगा ......लेकिन उसी समय फिर उसी चीनी कहावत की तरफ़ ध्यान चला जाता है जो कहती है ......तीन हज़ार किलोमीटर के सफर की शुरूआत भी तो पहले कदम से ही होती है !!


सोमवार, 14 अप्रैल 2008

क्या इस फ्लेवर्ड कॉन्डोम को बाज़ार में उतारना कोई नैशनल एमरजैंसी थी !


पिछले पांच-छः वर्षों में मेरे पढ़ने की आदतों में बहुत बदलाव आया है। कुछ साल पहले जब मैं समझता था कि मैं सारे प्रिंट मीडिया में हैल्थ-कवरेज को बदल के रख दूंगा तब मैं लगभग 10 अखबारें रोज़ाना पढ़ता था। 3-4 अंग्रेज़ी की, 3-4हिंदी की और दो-एक पंजाबी की। फिर धीरे धीरे मुझे इन से कईं कारणों से इरीटेशन सी होने लगी। मैं यह महसूस किया कि इन में से अधिकांश ने समाज-वाज सुधारने का ठेका नहीं ले रखा....सुधार तो दूर, ये तो ढंग से किसी को समझाते तक नहीं। तो, मैंने धीरे धीरे अखबारें पढ़नी कम कर दीं। अब रोज़ाना तीन अखबारें ही पढ़ता हूं...दो अंग्रेज़ी की और एक हिंदी की।
अब मेरी च्वाइस व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित है....अंग्रेज़ी का एक पेपर तो ऐसा है जिस से मैं कुछ सीखने के लिये पढ़ता हूं, दूसरे को सूचना एवं एंटरटेनमैंट के लिये पढ़ता हूं और हिंदी की अखबार को इसलिये पढ़ता हूं कि कुछ नये शब्द सीखने को मिलते हैं और साथ में यह भी जान पाता हूं कि आम आदमी को क्या क्या परोसा जा रहा है !
जिन जिन हिंदी की अखबारों को मैंने इतने वर्षों तक पढ़ा है उन से मेरा गिला यही है कि वे आम इंसान की जुबान नहीं बन पाये हैं। मुझे दूसरे इलाकों का तो पता नहीं लेकिन पंजाब हरियाणा के बारे में तो मेरी आब्जर्वेशन यही है कि जिसे अंग्रेज़ी नहीं आती वो हिंदी अखबार पढ़ते हैं ....ऐसे में हिंदी वे इस से किसी मोहपाश की वजह से नहीं पढ़ते....इसे पढ़ना उन की मजबूरी है और सच्चाई तो यही है कि हिंदी पेपर पढ़ने वालों की मात्रा अंग्रेज़ी पढ़ने वालों की तुलना में बहुत बहुत ज़्यादा है। तो, फिर इसे प्रिंट मीडिया आखिर क्यों नहीं भुनायेगा.......लोगों की जागरूकता, लोगों के सरोकार, लोगों की प्राथमिकतायें गईं तेल लेने......उसका तो अपना उल्लू सीधा होना चाहिये।
मुझे नहीं पता पंजाब-हरियाणा के बाहर क्या हो रहा है.....लेकिन यहां तो ऐसे ऐसे हिंदी के अखबार आते हैं जिन के पेज तरह तरह के इश्तिहारों से ठसाठस भरे पड़े होते हैं। मुझे पता है कि कुछ पत्रकार लोग इस पर यह टिप्पणी भी देंगे कि अखबार ने अपनी आर्थिक हालत भी तो ठीक करनी है...........ये सब बातें मेरे से छुपी नहीं हैं क्योंकि मैं भी जर्नलिज़्म एवं मॉस कम्यूनिकेशन पढ़ चुका हूं। आर्थिक हालात तो इन अखबारों के अच्छे खासे अच्छे हैं ही .....लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों ये लेखकों को एक फूटी कौड़ी भी देकर राज़ी नहीं हैं।
मैं भी पांच वर्षों तक इन अखबारों को बिना किसी पैसे के खूब लेख भेजता रहा .....लेकिन कुछ समय बाद अपने अपने से ही यही पूछने लगा कि यार, ये लोग तो कमाई करें लेकिन हम क्यों लिखें........दूसरी बात यह भी तो है कि मैं तो प्रोफैशनल हूं, चलो दाल-रोटी की खास चिंता है नहीं , इसलिये कलम से साथ धडल्ले से खेल लेता हूं लेकिन मुझे मेरे उन लेखक/पत्रकार भाइयों से बेहद सहानुभूति है जिन्होंने इस लेखन के ज़रिये ही अपना भरन-पोषण करना है। समझ में नहीं आती कि इस देश में लेखन ही इतना सस्ता क्यों है..........और ऊपर से जले पर नमक छिड़कने के लिये इसी लेखक को अब क्रीमी-लेयर की पदवी से नवाज़ा गया है। कितने गर्व की बात है.....आखिर यह तो माना गया कि लेखन भी एक मलाईदार कला है।
हां, तो मैं जिन हिंदी अखबारों की बात कर रहा था , उन में से तो कुछ एक में इस इस तरह की फोटो छपती हैं कि मैं इन को इधर लिख भी नहीं पा रहा हूं। अगर इन के बारे में लिखने लग गया तो ऐसा लगने लगेगा कि यह पेज मीडिया डाक्टर का ना होकर, छोटी मोटी पोर्नो-साइट ही है।
तरह तरह के अश्लील इश्तिहार.....नामर्द को मर्द बनाने का दावा करने वाले, किसी चमत्कारी तेल से विवाह को तोड़ने से बचाने वाले, कद को लंबा करने वाले, पतले बंदे को मोटा करने वाले, बिस्तर पर ही लेटे लेटे सैर करवाने वाले, औरतें के वक्ष-स्थल उन्नत करने वाले और टेढ़ेपन( खुदा जाने ये यह प्राबल्म कहां से ढूंढ लाये हैं !) को सीधा करने वाले विज्ञापन ....और रहती हुई कसर उस एमरजैंसी गर्भ-निरोधक गोली के रोज़ाना दिखने वाले विज्ञापन ने पूरी कर दी है......आने वाले समय में इस गोली को भी लोग इतना मिस-यूज़ करने लगेंगे कि सोच कर डरता हूं । हां, एक कसर तो अभी बाकी थी ही कि................अकसर अखबारों में फ्लेवरर्ज कंडोम्स के भी विज्ञापन पहले पन्ने पर आने लगे हैं....आज का ही विज्ञापन सारे हिंदोस्तान से पूछ रहा है कि बब्बलगम फलेवर ट्राई किया क्या .....इस तरह के विज्ञापनों को देख कर जो भाव मन में उठते हैं, वे यहां लिख पाने में असमर्थ हूं.................अब इन की मैं क्या व्याख्या करूं, आप को सब कुछ अपने आप समझना होगा, ऐसी बातें हिंदी में लिखना भी कितना बेकार लगता है।
ये जो दो खबरें भी आप इस फोटो में देख रहे हैं ...ये आइसक्रीम वाली खबर भी कोई खबर है.....चिढ़ होती है , इस तरह की खबरें देख के......पढ़ कर तो हाल और भी खराब हो जाती है। दूसरी खबर किसी स्वास्थ्य-वर्धक आटे की बात कह रही है.........अब इस के बारे में क्या लिखूं, क्या न लिखूं.....बहुत कुछ पिछली पोस्टों में लिख ही चुका हूं।
पोस्ट पूरी लिख दी है लेकिन यही समझ में नहीं आ रहा है कि इसे लिखने का मकसद क्या है.......तो, आप प्लीज़ यही समझ लीजियेगा कि आपने मेरी डायरी का एक पन्ना ही पढ़ लिया है, और कुछ खास नहीं !!

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

शोक समाचार ..


अश्लील फिल्मों की रोज़ाना खुराक में बाधा बनती दादी का पोते के हाथों खेल खत्म --
इस खबर का शीर्षक पढ़ कर आप भी मेरी तरह कहीं यह तो नहीं ना सोच रहे कि यह अमेरिका या यूरोप की किसी जगह की बात होगी। वैसे तो ऐसी खबर कहीं से भी आये...अफसोसजनक ही है, लेकिन यह बात और भी दुःखदायी इसलिये भी है क्योंकि यह सब कुछ अपने ही यहां के कोल्हापुर में घटा।
अकसर लोग कह तो देते हैं कि मीडिया आज कल बहुत ही ऐसी वैसी खबरें छापता है। लेकिन एक बात यह भी तो है कि मीडिया मनघडंत खबरें भी तो नहीं छाप रहा.....जो आज समाज में घट रहा है, उसी को हमारे सामने पेश करता है। अर्थात् मीडिया तो किसी भी समाज का आइना है।
हुया यूं कि 67वर्षीय शांताबाई पाटिल अपने बड़े बेटे ( जो डाक्टर हैं) के घर रहने के लिये आईं.....इसलिये उस के 21 वर्षीय पोते को अपने दूसरे भाई के साथ रूम शेयर करने को कहा गया। लेकिन दादी के द्वारा उस के कमरे में डेरा जमाये रखने के कारण पोते को बहुत ही ज़्यादा तकलीफ होने लगी.......कैसी तकलीफ़?....उस की तकलीफ़ यह थी कि दादी के कमरे में होने की वजह से वह अपने कमरे में रखे कंप्यूटर पर रोज़ाना अश्लील फिल्में देख नहीं पा रहा था। इसलिये उस ने दादी को खत्म करने की ही प्लानिंग कर डाली और उस के सिर पर पत्थर दे मारा जिस के कारण दादी के उसी समय प्राण पखेरू उड़ गये।
खबर तो पढ़ ली.......लेकिन सोच रहा हूं कि क्या इस वारदात के बाद आज के समाज को कहीं से चुल्लू भर पानी भी मिल पायेगा कि नहीं !!
मेरे पास एक स्क्रैप बुक है जिस में मैं मीडिया में छपी कुछ इस तरह की फोटो/खबरें पेस्ट करता रहता हूं जिन्होंने मुझे हिला दिया। अभी दो दिन पहले ही मैं सोच रहा था कि उस ठीक चार साल पुरानी बासी खबर को निकाल दूं जिस में छपा था कि ऊना(हिमाचल प्रदेश) की एक 75 साल की वृद्ध महिला का गांव के ही 30-35 साल के तीन लड़कों ने सामूहिक बलात्कार कर डाला था। बासी केवल इसलिये कह रहा हूं क्योंकि उस से भी ज़्यादा घृणित ( अपने आप से पूछ रहूं कि क्या ऐसी तुलना करना किसी भी दृष्टि से ठीक है ?...जवाब मिलता है....बिल्कुल गलत है और बेवकूफी है !) काम की खबर तीन-चार दिन पहले यह पढ़ ली कि उत्तरांचल में कहीं पर 80 वर्षीय वृद्धा का बलात्कार हो गया। अभी मैं इस खबर के सदमे से उभरा ही ना था कि आज सुबह सवेरे पोते के हाथों दादी के मारे जाने की खबर पढ़ कर हिल गया हूं।
ऐसा लगने लगा है कि इस तरह की वारदातें जब हों तब तो राष्ट्रीय शोक घोषित कर दिया जाना चाहिये.....क्योंकि इस तरह की खबर ने उस वृद्धा के कत्ल की खबर तो सुना दी लेकिन क्या यह खबर इस के साथ ही साथ यह घोषणा भी नहीं कर रही कि आज की पीढ़ी के मानवीय मूल्य पूरी तरह से तबाह हो चुके हैं। और जब शोक इतना गहरा हो तो अखबारों को इस जैसी खबर को बड़े-बड़े काले हाशिये के साथ छापना चाहिये।
लेकिन सोच रहा हूं कि उस डाक्टर की परिस्थिति देखिये....बेचारी मां तो गई ही लेकिन बेटा भी शायद कानून की गिरफ्त में ही होगा .....अब रोये तो किस को रोये.....मां को, बेटे को या सारे परिवार के दुर्भाग्य को। रह रह कर ध्यान सारथी ब्लोग में शास्त्री जी की कल की पोस्ट की तरफ ही जा रहा है कि जिस में उन्होंने भावी पीढ़ी को सही संस्कार देने की बात की है और उन के पल्लवित-पुष्पित होने की भी बहुत सुंदर बातें की हैं।
ध्यान तो इस समय पराया देश ब्लोगवाले राज भाटिया जी की तरफ़ भी जा रहा है कि वे भी कितने प्रेरणात्मक प्रसंग हम सब के साथ साझे करते रहते हैं ....अगर इन प्रसंगों को हम लोग रोज़ाना पढ़ें और इन्हें आत्मसात् करने की कोशिश करें तो फिर देखिये कैसे समाज की तस्वीर ही बदल जायेगी।
जो भी हो, मुझे इस खबर का इतना अफसोस है कि मैं ब्यां नहीं कर पा रहा हूं। परमात्मा उस महान आत्मा को स्वर्ग में स्थान दे और मुक्ति प्रदान करे। मेरी और मेरे सारे परिवार की यही श्रद्धांजलि है.....सारे ही इस खबर के बारे में पढ़ कर बहुत दुःखी हैं।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

राजू अजीब सी मुसीबत में है !!


राजू इस समय बहुत मुसीबत में है...किसी मित्र के रेफरेंस के साथ मेरे से बातचीत कर के मार्ग-दर्शन के लिये कुछ दिन पहले आया था। वह 30-35 साल का एक स्वस्थ नौजवान है....शादीशुदा है, बाल-बच्चे हैं। उसे चार वर्ष से एक ही समस्या है कि पेशाब करने के बाद भी कुछ कुछ पेशाब की बूंदे टपकने की वजह से उस की पैंट गीली हो जाती है। चार वर्ष पहले उस ने इस के लिये किसी डाक्टर के कहने पर एक अल्ट्रा-साऊंड करवाया था.....उस में बाकी सब कुछ तो नार्मल था, लेकिन प्रोस्टेट ग्लैंड ( इस एरिया में तो इसे गदूद ही कहते हैं) में सूजन आई थी। तब, उसे इस के लिये कुछ दवाईयां किसी डाक्टर ने दे दी। उस डाक्टर ने उसे यह भी समझा दिया कि ज़्यादा मिर्च-मसाले मत खाया करो, सादा आहार लिया करो........खैर, इन चार सालों में वह कईं तरह तरह के डाक्टरों के पास चक्कर काट काट कर परेशान हो चुका है.....इन सब पर खूब खर्चा कर चुका है। जिस दिन वह मेरे से बात करने आया था तो उस से पहले भी वह किसी डाक्टर से मिल कर ही आ रहा था, सो उस के हाथ में केवल एक दवाईयों का नुस्खा और वही चार साल पुरानी अल्ट्रा-साउंड की रिपोर्ट थी।

मैंने उस की पूरी पर्सनल हिस्ट्री लेने के बाद जब यह जानना चाहा कि तकलीफ़ जो चार साल से चल रही है, उस में इन दिनों क्या कुछ बदला-बदला सा लग रहा है। तब उस ने मन खोल कर बात की कि उसे शायद पेशाब करने के बाद भी बूंद-बूंद टपकने से कोई परेशानी नहीं है। लेकिन पिछले चार-महीनों से उसे सैक्स में थोड़ी कठिनाई होने लगी है। उस समय मेरा उस से यह पूछना ज़रूरी था कि किस किस्म की कठिनाई.....मैं जानना चाह रहा था कि किसी तरह का डिस्चार्ज तो नहीं होता, कहीं से कोई रक्त तो नहीं बहता...........लेकिन उस ने झट से बतला ही दिया कि मुझे यह सब कुछ नहीं है ....लेकिन उसे अपनी पत्नी के पास जाने में हिचकिचाहट सी होने लगी है.....और वह भी इरैक्शन में तकलीफ़ की वजह से !....मैंने उस से यह पूछा कि तुम अभी जिस डाक्टर से दवा लेकर आ रहे हो,उसे इस के बारे में बताया था.....तो उसने कहा कि उन के पास उस समय बहुत से मरीज़ खड़े थे और उन्होंने उस बूंद-बूंद वाली शिकायत सुनने के बाद आगे कोई सवाल पूछा ही नहीं था।

राजू नाम के शख्स को मिलने के बाद मैं काफी समय यही सोचता रहा कि जिन मरीज़ों को सही समय पर सही विशेषज्ञ के पास रैफर कर दिया जाता है ...वे बहुत भाग्यवान होते हैं....नहीं तो अकसर देखते हैं कि छोटे छोटे रोग यूं ही विकराल रूप धारण कर लेते हैं जिन की वजह से सेहत की , रूपये-पैसे की बर्बादी तो होती ही है और साथ ही साथ जो परेशानी होती है उस का तो कोई हिसाब ही नहीं । राजू यह भी बता रहा था कि जिस डाक्टर को भी मिला है उन सब ने यही कहा है कि कुछ नहीं है....बस, तुम खाना-पीना हल्का खाया करो। लेकिन राजू की आदतें जानने से नहीं लगता कि इस तरह की बातों में कोई गड़बड़ है...उसे न तो कोई व्यसन है और न ही वह दूसरी औरतों वगैरा के चक्कर में है। मैं भी यही सोच रहा था कि जिन जिन चिकित्सकों को यह बंदा मिला है उन्होंने बस दवाईयां देकर ही उसका इलाज करना चाहा....अभी जो उसकी मौजूदा शिकायत है( इरैक्टाइल डिस्फंक्शन वाली ) उस के लिये भी उसे यही कहा गया कि देखो, ऐसा कुछ नहीं हो सकता, यह तो तुम्हारे मन की ही उपज है। लेकिन मरीज कितना इंटैलीजैंट है ...उस से बात कर के पता चल जाता है.....राजू को अपनी नौकरी के सिलसिले में दो-तीन महीने किसी दूर जगह पर तैनात रहना पड़ता है....उसे इस दौरान कभी कभार स्वपन-दोष( night-fall) भी होता है जिसकी उसे कोई टैंशन नहीं है क्योंकि किसी चिकित्सक ने उसे यह बतला दिया हुया है कि वह सब नार्मल है। जागरूकता के इतने स्तर के बारे में जान कर तसल्ली भी हुई ।

बात सोचने की है कि एक 30-35 साल का स्वस्थ नौजवान दिन में कईं बार रैज़िडूयल यूरीन की वजह से पैंट गीली होने की बात कर रहा है और अब चार महीने से उस की सैक्सुयल लाइफ भी डिस्टर्ब हो रही है............ऐसे में क्या कुछ कैप्सूल-गोलियां थमा देने से सब कुछ ठीक ठाक हो जायेगा। बिना किसी तरह की प्रोस्टैट की ढंग से जांच किये बगैर कैसे आप किसी को यह कह सकते हो कि सब कुछ तुम्हारे मन में ही है....हां, अगर किसी विशेषज्ञ ने सारे टैस्ट कर लिये होते, सब कुछ दुरूस्त मिलता तो बहुत माइल्डली समझाया जा सकता है कि सब कुछ ठीक हो जायेगा.....तुम इस की बिल्कुल भी चिंता न किया करो।

तो, मैंने तो उसे यही सलाह दी कि उसे किसी अच्छे यूरोलॉजिस्ट से मिल लेना चाहिये.......वह प्रोस्ट्रेट-ग्लैंड को क्लीनिकली चैक करेगा, उस का नया अल्ट्रा-साउंड करवायेगा, शायद कुछ ब्लड-यूरिन टैस्ट वगैरा भी होंगे........यह सब कुछ करने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि आखिर प्रोस्ट्रेट ग्लैंड इतने सालों से क्यों प्राबल्म कर रहा है, क्यों हो रही है इस तरह की सैक्सुयल समस्या ....क्या इस का प्रोस्ट्रेट की सूजन से कोई संबंध है, इस पुरानी प्रोस्ट्रेट की तकलीफ के कारण किसी तरह की इंफैक्शन किसी दूसरी तरफ तो नहीं फैल चुकी, क्या इस तकलीफ का समाधान आप्रेशन से होगा.....क्या वह लैपरोस्कोपी(दूरबीन) से संभव है......इसी तरह के ढ़ेरों सवालों के जवाब उस विशेषज्ञ के पास ही हैं......बाकी लोग तो तुक्के मारते रहेंगे, टोटके बताते रहेंगे।

उम्मीद है कि मेरी इस पोस्ट के पीछे छिपी स्पिरिट को आप समझ गये होंगे कि आज कल हमें अगर सही समय पर सही सलाह मिल जाती है तो वह अनमोल है.........इसलिये कभी भी सैकेंड ओपिनियन लेने में भी नहीं झिझकना चाहिये। मानव की शरीर, उस की फिज़ियॉलॉजी, साईकॉलॉजी .....बहुत ही कंप्लैक्स बात है..........इसे हम लोग विशेषकर जब कोई किसी अंग की ऑरगैनिक व्याधि ( organic disease) से ग्रस्त हो तो ऐसे ही नीम-हकीमों के चक्कर में न पड़ते हुये किसी विशेषज्ञ चिकित्सक का रूख करने में ही बेहतरी है।

मैंने तो पूरी कोशिश की है कि अपनी बात प्रभावपूर्ण तरीके से आप के सामने रख सकूं,.....वैसे जाते जाते यह ज़रूर बतलाना चाहूंगा कि यह राजू वाला किस्सा शत-प्रतिशत सच्चाई पर आधारित है लेकिन उस का नाम मैंने ज़रूर बदला है-- Simply because of the fact there can never ever be any compromise with the confidentiality clause of doctor-patient relationship.


बुधवार, 9 अप्रैल 2008

एक सौ आठ हैं चैनल, पर दिल बहलते क्यों नहीं !





लिखने वाले ने भी क्या जबरदस्त लिख दिया है !...लेकिन इस बात का ध्यान मुझे बहुत समय बाद कल तब आया जब मेरी पहली कलम चिट्ठाकारी पोस्ट के बारे में एक मित्र ने कहा कि दोस्त, दुनिया तो बहुत आगे निकली जा रही है.....आज कल तो कंप्यूटर, इंटरनेट, ब्लागिंग का दौर है......तब अचानक मुझे मुन्नाभाई लगे रहो से यह मेरा बेहद पसंदीदा डायलाग याद आ गया और सोचा कि इसे कलम के द्वारा ही आप के सामने प्रस्तुत करूंगा.......प्रस्तुत तो ज़रूर कर रहा हूं...लेकिन यह सब मेरे लिये ही है, किसी और की तो मैं जानता नहीं, लेकिन अपने आप से ही इतने सारे सवाल ज़रूर पूछ रहा हूं.........इसलिये फिर से कलम उठाने पर मज़बूर हो गया।

कितने हिस्सों में बंटेगी हमारी सेहत ?



मुझे शुरू से ही सेहत के विषय को छिन्न-छिन्न कर के देखने से बड़ी आपत्ति रही है। एक मजाक सा भी तो आपने सुना ही होगा कि एक आंख के लिये एक चिकित्सक और दूसरी के लिये दूसरा।
बात शुरू करते हैं इस हैल्थ-कैप्सूल में जिस में छपा है कि कोलेस्ट्रोल के स्तर को दवाईयों से कम करने की बजाय बहुत से प्राकृतिक विकल्प हैं –इन में से एक बहुत ही उत्तम है नायॉसिन। साथ में यह भी लिखा है कि यह नायॉसिन हानिकारक कोलेस्ट्रोल को घटाता है और फायदेमंद कोलेस्ट्रोल को बढ़ाता है।
यह पढ़ कर मेरे मन में यही विचार आया कि यह नायॉसिन किस बला का नाम है यह इस अंग्रेज़ी अखबार के कितने पाठक जानते होंगे। यह सोच कर कि अकसर स्वास्थ्य से संबंधित इतनी अहम् जानकारी पढ़ कर कोई भी इंसान डिक्शनरी की तरफ़ लपकेगा.....मैंने भी अपनी टेबल पर पड़ी Longman Dictionary of Contemporary English को खोल कर इस का अर्थ आप के लिये ढूंढना चाहा (क्योंकि मुझे तो मालूम था ही !)..an important chemical ( a type of Vitamin B) found in foods like milk and eggs)……तो शब्दकोष में इसके बारे में यह लिखा हुया है कि यह एक महत्त्वपूर्ण रसायन है जो कि विटामिन बी की एक किस्म है जो दूध एवं अंड़ों जैसे खाद्य पदार्थों में पाया जाता है।
अब किसी पाठक का यह सोच कर थोड़ा दुविधा में पड़ जाना कि यार, मेरे डाक्टर ने तो मुझे मेरे बड़े हुये कोलेस्ट्रोल के कारण अंडे के सेवन से मना किया हुया है लेकिन यहां तो बात ही कुछ और है। तो, इस आधा-अधूरी जानकारी से पाठक को सिर दुःखना स्वाभाविक है कि नहीं !!
तो, क्या स्वास्थ्य की तरफ़ इस तरह की फ्रैग्मैंटिड अप्रोच के लिये क्या हम सारा दोष मीडिया के ऊपर ही मढ़ कर बेपरवाही की चादर ओढ़ लें......अफसोस ऐसा संभव न होगा। क्योंकि स्वास्थ्य को ज़्यादा ही छिन्न-छिन्न कर देखने की प्रवृत्ति मैडीकल प्रोफैशल की भी बनती जा रही है....इस के कारणों के पीछे न ही जायें तो बेहतर होगा। कल मिसिज़ भी कह रही थीं कि इस स्पैशलाइज़ेशन, सुपर स्पैशलाइज़ेशन ने बहुत कुछ आसान कर दिया है लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि हर विशेषज्ञ ने अपना ध्यान अपने ही एरिया में इतना ज़्यादा केंद्रित कर दिया है कि इन हालात में कुछ बीमारियों के कई बार मिस हो जाने के किस्से नोटिस में आते रहते हैं। तो, ऐसे में मेरा केवल एक प्रश्न है कि हम किसी भी मरीज़ को टोटैलिटी में---होलिस्टिक अप्रोच से— देखना कब शुरू करेंगे !! ..लेकिन यह ब्यूटी हमें अपनी पुरातन चिकित्सा पद्धतियों में खूब देखने को मिलती है.....अकसर सोच कर अचंभित होता हूं कि वे पुराने वैद्य भी इस शरीर विज्ञान के कितने मंजे खिलाड़ी रहे होंगे जिन का काम ही केवल नाड़ी टटोल कर और मुंह के अंदर झांक कर बीमारी का निदान करना होता था !!
अब तो इतने इतने महंगे महंगे टैस्ट करवा लेने के बाद भी कईं बार किसी निष्कर्ष पर पहुंचना दुर्गम सा हो जाता है। और अकसर ये टैस्ट आम आदमी की पहुंच से दूर ही नहीं – बहुत दूर होते हैं। ऐसे में यह विचार आना स्वाभाविक ही है कि पुरानी चिकित्सा प्रणाली ज्यादा विकसित थी ( या है?????.....अब इस पर भी मार्केट शक्तियां हावी होती दिख रही हैं!!)…..या हमारी यह आधुनिक चिकित्सा प्रणाली। लेकिन लगता है कि यह बहस तो लंबी चल पड़ेगी, इसलिये फिर कभी !!
अकसर मीडिया में ही देखने, पढ़ने और सुनने को मिलता है कि बालों की सेहत के लिये यह सप्लीमेंट्स लें, प्रोस्ट्रेट के कैंसर से बचने के लिये यह खाया करें, स्वस्थ बच्चे को जन्म देने के लिये गर्भवती महिलायें ये खायें...वो खायें, दिल के दौरे से बचने के लिये यह लिया करें..वो ना लिया करें....इस समय तो मेरे ध्यान में ही नहीं आ रहे ये सब.....लेकिन उन की भाषा कुछ इस तरह की रहती है कि गर्भाशय के कैंसर से बचने के लिये फलां फलां वस्तु का प्रयोग करें और एक अध्ययन में पाया गया कि इस का सेवन इतने वर्षों तक करने से इस कैंसर के रोगियों की संख्या में इतने फीसदी की कमी हो गई।
मुझे तो भई यह किसी मज़ाक से ज़्यादा नहीं लगता....कारण ??......विशेषकर इस देश में जहां अधिकांश लोगों की खाने पीने की असलियत केवल उस मिट्टी के चूल्हे पर पक रही खिचड़ी तक ही सीमित है .....और कुछ नहीं....ऐसे में उसे तरह तरह के संप्लीमैंट्स की सलाह देना भी क्या किसी मजाक से कम है। वैसे तो जिसे खिचड़ी/ दाल-भात भी नसीब हो रहा है वह खुशकिस्मत है.....उसे इस तरह की फ्रैग्मैंटिड अप्रोच के क्या लेना देना.......पता नहीं हम लोग कब होलिस्टिक हैल्थ के बारे में सोचेंगे.....खुद नहीं सोच सकते तो बाबा रामदेव जी की बातों का अनुसरण करने में ही आखिर दिक्कत क्या है ?....समझ में नहीं आता।
हमें लोगों को एक संतुलित आहार लेने के लिये( सस्ते ढंग से) प्रेरित करना ही होगा.......यह देखना होगा कि कैसे कोई परिवार खिचड़ी के साथ थोड़ी साग-सब्जी-फल का सेवन कर सकता है.................ना कि उसे बीसियों तरह के सप्लीमेंट्स गिना गिना कर परेशान करने के साथ साथ हीन-भावना का शिकार करते रहें।
सीधी सी बात है जब हम लोग मौसम के अनुसार संतुलित आहार लेते हैं तो हमें वह सब कुछ मिल जाता है जिस की हमारे शरीर को ज़रूरत होती है.......चाहे हमें उन तत्त्वों के भारी-भरकम अंग्रेज़ी नाम पता हों या नहीं, इन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा !!!..............और हां, साथ ही साथ एक बहुत ही ज़रूरी शर्त है कि हमें हर तरह के व्यसनों के दूर तो रहना ही होगा....इस के इलावा कोई चारा है ही नहीं !!!.....No excuses, please!!

मंगलवार, 8 अप्रैल 2008

कलम चिट्ठाकारी का असली रूप---हिंदी ब्लोगिंग में पहली बार !





आज सुबह से घर में ही बैठा हुया हूं....पता नहीं क्रियएटिव ज्यूस कुछ ज़्यादा बह रहे हैं...पहले तो इस ब्लाग का यह टेंपलेट बनाने के लिये एक स्लेट पर इस का शीर्षक लिखा....लेकिन फिर ध्यान आया कि इंक-ब्लागिंग की तो बात हो गई...तो चलिये आज मूल रूप से कलम चिट्ठाकारी का ध्यान कर के कुछ लिखा जाये। बस, यह तुच्छ सा प्रयास है। अपने उन महान मास्टरों के नाम जिन्होंने ऐसा लिखने की ट्रेनिंग दी....सब कुछ उन्हीं महान आत्माओं की ही देन है, दोस्तो। अपना तो बस यही है कि अब बड़े होने की वजह से दिमाग चलाना आ गया है, और कुछ नहीं, फ्रैंकली स्पीकिंग !!

जब मैं यह एजवेंचर कर रहा था तो मेरा छठी कक्षा में पढ़ रहा बेटा बहुत रोमांचित हो रहा था....उस ने यह रोशनाई, यह दवात, यह कलम आज पहली बार देखी थी। उस ने भी लिखने की थोड़ी ट्राई की तो है। बस, और क्या लिखूं....कुछ खास नहीं है। बस, उन दिनों की तरफ ही ध्यान जा रहा है जब तख्ती के ऊपर तो इस कलम से लिखना ही पड़ता था...और रोज़ाना नोटबुक पर सुलेख का एक पन्ना भी इसी कलम से ही लिखना होता था...लेकिन समस्या तब एक ही लगती थी कि झटपट लिख कर भी निजात कहां मिलती थी.....जब तक सूखे नहीं कापी को बंद भी कहां कर सकते थे।
बच्चों को अकसर कहता हूं कि उन दिनों की हुई मेहनत रूपी फसल के ही फल आज तक चख रहे हैं। वैसे आप का इस कलम चिट्ठाकारी के बारे में क्या ख्याल है, लिखियेगा। अच्छा लगेगा।

अगर सुबह सुबह कुछ इस तरह का सुन लिया जाये............दिन की शुरूआत अच्छी होती है !

अच्छा तो , ब्लॉगर बंधुओ, अपने चिंतन को दो-तीन मिनट विश्राम देकर इन बेहद खूबसूरत पंक्तियों को सुनिये और लौट जाइये तीस साल पहले दिनों की तरफ.....जब छःदिन पहले यह पता चलने पर कि अगले रविवार को टीवी पर गुड्डी फिल्म आ रही है .....यह सब जानना कितना थ्रीलिंग लगता था........लेकिन आज जब ये सब कुछ हम से अदद एक क्लिक की दूरी पर ही है, लेकिन अफसोस अब हम लोगों के पास अपने ही झमेलों से फुर्सत ही नहीं है।

पंजाब में कैंसर से ज़्यादा औरतें मरती हैं.....और सुईं अटक गई !!



एक अंग्रेज़ी अखबार में दो-अढ़ाई सौ कॉलम सैंटीमी.को घेरे हुये किसी स्पैशल कारसपोंडैंट की यह रिपोर्ट केवल इतना कह रही है कि पंजाब में कैंसर से ज़्यादा महिलायें मरती हैं। बस इतना कह कर ही सुईं अटक गई लगती है। कईं बार कुछ इस तरह की रिपोर्टज़ देख कर ही पत्रकारों के होम-वर्क की तरफ़ जाता है ....जिसे अगर नहीं किया या ढंग से नहीं किया तो वह ऐसी रिपोर्टों के रूप में सामने आता है, ऐसा मेरा व्यक्तिगत विचार है।
इस रिपोर्ट को देख कर रह रह कर मन में बहुत से प्रश्न उठ रहे हैं जैसे कि
- पंजाब के तीस गांवों से जो सैंपल इस अध्ययन के लिये लिया गया,क्या वह ट्रयूली रिप्रसैंटेटिव सैंपल रहा होगा और क्या इस से होने वाले परिणाम स्टैटीक्ली सिग्नीफिकेंट भी हैं क्या ?
- इतनी लंबी रिपोर्ट पढ़ कर यह कुछ पता नहीं चलता कि आखिर ऐसे कौन से कैंसर हैं जो कि पंजाबी महिलाओं में ही ज़्यादा होते हैं.....क्या ये उन के फीमेल बॉडी पार्ट्स से संबंधित कैंसर हैं या अन्य अंगों से संबंधित......इस महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया जाना भी लाज़मी था।
- Age profile की बात नहीं की गई है.....जिन महिलाओं के ऊपर यह अध्ययन किया गया वह किस उम्र से संबंध रखती थीं......इस के बारे में भी यह रिपोर्ट चुप है।
- इस संबंध में अगर किसी मैडीकल कालेज के प्रोफैसर इत्यादि से कोई बातचीत भी इस में साथ दी गई होती तो बेहतर होता।
- देश में कैंसर रजिस्टरी नाम की एक संस्था है....वह क्या कहती है पंजाब के बारे में ....इस का भी अगर उल्लेख होता तो पाठक की सोच को एक दिशा मिलती ।
मैं तो बस इतना ही कहूंगा कि मुझे यह रिपोर्ट पढ़ कर कुछ ज़्यादा जानकारी हासिल नहीं हुई। कारण आप के सामने हैं...अगर इन बातों का भी ध्यान रखा जाता है तो शायद इस रिपोर्ट से हम कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाल लेते। लेकिन जो भी हो, इतना आज एक बार फिर से समझ में आ गया कि होम-वर्क लगन के साथ करना स्कूली बच्चों के लिये ही नहीं, पत्रकारों के लिये भी बेहद लाज़मी है। आप का इस न्यूज़-रिपोर्ट के बारे में क्या ख्याल है ?

रविवार, 6 अप्रैल 2008

अब मछली-भात को भी लगी नज़र !



आप की तरह मैं भी यह नहीं सोचता कि यह खबर पढ़ने के बाद रातों-रात उन सब लोगों के खाने की आदतें बदल जायेंगी जो युगों-युगों से इस का सेवन करते आ रहे हैं। लेकिन मैं इस समय वैसे भी बात इस खबर की प्रामाणिकता की कर रहा हूं....कितनी बढ़िया तरह से सब कुछ कवर किया है। सोचता हूं कि जिस न्यूज़-रिपोर्ट से प्रामाणिकता की महक आती है वो तो अपने काम में सफल ही है। लोग चाहे दाल-भात आज से खाना बंद नहीं कर देंगे.....लेकिन एक पत्रकार ने एक मंजे हुये शोधकर्त्ता के अनुभव पब्लिक के समक्ष रख कर एक बीज रोप दिया .....जो धीरे धीरे पनपता रहेगा.....और जब भी वह बंदा दाल-भात खा रहा होगा, दिल के किसी ना किसी कौने में कहीं तो इस खबर की याद बनी रहेगी।

इन ढाबे वालों से ऐसी उम्मीद न थी !



वैसे तो इस समय सुबह के पांच भी नहीं बजे और किसी भी लिहाज से खाने का समय नहीं है। लेकिन यह ढाबे वाली खबर देख कर मुझे पूरा विश्वास है कि आप की तो भूख ही छू-मंतर हो जायेगी। ले-देकर इन देश की जनता जनार्दन के पास पेट में दो-रोटी डालने के लिये एक ही तो ताज़ा, सस्ता और साफ़-सुथरा विकल्प था.....ढाबे का खाना।


अकसर हम लोग जब भी कहीं बाहर हुया करते हैं तो कहते ही हैं ना कि चलो, ढाबे में ही चलते हैं क्योंकि यह बात हम लोगों के मन में विश्वास कर चुकी है कि इन ढाबों पर तो सब कुछ विशेषकर वहां मिलने वाली बढ़िया सी दाल( तड़का मार के !)….तो ताज़ी मिल ही जायेगी............लेकिन इस रिपोर्ट ने तो उस दाल का ज़ायका ही खराब कर दिया है ...........आप ने भी कभी सोचा न होगा कि इस तरह के रासायन ढाबों में भी इस्तेमाल होते हैं ताकि शोरबा स्वादिष्ट बन जाये।


वो अलग बात है कि मुझे यह पढ़ कर बेहद दुःख हुया क्योंकि मेरे विश्वास को ठेस लगी है.....मुझे ही क्या, सोच रहा हूं कि इस देश की आम जनता की पीठ में किसी ने छुरा घोंपा है.......लेकिन इस हैल्थ-रिपोर्ट को देख कर खुशी इसलिये हुई कि इस में सब कुछ बहुत बैलेंस्ड तरीके से कवर किया गया है। बात सीधे सादे ढंग से कहने के कारण सीधी दिल में उतरती है। शायद इसीलिये मैंने भी आज से एक फैसला किया है....आज से ढाबे से लाई गई सब्जी/भाजी जहां तक हो सके नहीं खाऊंगा....हां, कहीं बाहर गये हुये एमरजैंसी हुई तो बात और है, लेकिन वो ढाबे के खाने का शौकिया लुत्फ लूटना आज से बंद, वैसे मैं तो पहले ही से इन की मैदे की बनी कच्ची-कच्ची रोटियां खा-खा कर अपनी तबीयत खराब होने से परेशान रहता था, लेकिन इन के द्वारा तैयार इस दाल-सब्जी के बारे में छपी खबर ने तो मुंह का सारा स्वाद ही खराब कर दिया है.....सोचता हूं कि उठ कर ब्रुश कर ही लूं !

इन ढाबे वालों से ऐसी उम्मीद न थी !




वैसे तो इस समय सुबह के पांच भी नहीं बजे और किसी भी लिहाज से खाने का समय नहीं है। लेकिन यह ढाबे वाली खबर देख कर मुझे पूरा विश्वास है कि आप की तो भूख ही छू-मंतर हो जायेगी। ले-देकर इन देश की जनता जनार्दन के पास पेट में दो-रोटी डालने के लिये एक ही तो ताज़ा, सस्ता और साफ़-सुथरा विकल्प था.....ढाबे का खाना।


अकसर हम लोग जब भी कहीं बाहर हुया करते हैं तो कहते ही हैं ना कि चलो, ढाबे में ही चलते हैं क्योंकि यह बात हम लोगों के मन में विश्वास कर चुकी है कि इन ढाबों पर तो सब कुछ विशेषकर वहां मिलने वाली बढ़िया सी दाल( तड़का मार के !)….तो ताज़ी मिल ही जायेगी............लेकिन इस रिपोर्ट ने तो उस दाल का ज़ायका ही खराब कर दिया है ...........आप ने भी कभी सोचा न होगा कि इस तरह के रासायन ढाबों में भी इस्तेमाल होते हैं ताकि शोरबा स्वादिष्ट बन जाये।


वो अलग बात है कि मुझे यह पढ़ कर बेहद दुःख हुया क्योंकि मेरे विश्वास को ठेस लगी है.....मुझे ही क्या, सोच रहा हूं कि इस देश की आम जनता की पीठ में किसी ने छुरा घोंपा है.......लेकिन इस हैल्थ-रिपोर्ट को देख कर खुशी इसलिये हुई कि इस में सब कुछ बहुत बैलेंस्ड तरीके से कवर किया गया है। बात सीधे सादे ढंग से कहने के कारण सीधी दिल में उतरती है। शायद इसीलिये मैंने भी आज से एक फैसला किया है....आज से ढाबे से लाई गई सब्जी/भाजी जहां तक हो सके नहीं खाऊंगा....हां, कहीं बाहर गये हुये एमरजैंसी हुई तो बात और है, लेकिन वो ढाबे के खाने का शौकिया लुत्फ लूटना आज से बंद, वैसे मैं तो पहले ही से इन की मैदे की बनी कच्ची-कच्ची रोटियां खा-खा कर अपनी तबीयत खराब होने से परेशान रहता था, लेकिन इन के द्वारा तैयार इस दाल-सब्जी के बारे में छपी खबर ने तो मुंह का सारा स्वाद ही खराब कर दिया है.....सोचता हूं कि उठ कर ब्रुश कर ही लूं !

6 comments:

Gyandutt Pandey said...

खाना तो घर का ही अच्छा जी। सूडान पढ़ कर लगता है - कहां जा रहे या क्या खा रहे हैं।

दिनेशराय द्विवेदी said...

जब जब भी बाहर खाया पछताया, लौट कर बुद्धू घर को आया।

DR.ANURAG ARYA said...

डाक्टर साहेब ,आपके यमुनानगर तक पहुँचते पहुँचते G. T रोड पे इतने ढाबे है ...पर आपकी बात पढ़के यकीनन उस तड़का दाल को भूलना पड़ेगा.......

अमिताभ फौजदार said...

ghar ke kahne se behatar kuch nahi hota ....yahi param satya hai !!

राज भाटिय़ा said...

चोपडा जी हम तो वेसे ही नही खाते बाहर का खाना मां ओर पिता जी ने शुरु से ऎसी आदते डाल रखी हे,वही आदते मेने बच्चो मे भी डाली हे,जी कभी छुट्टियो पर हो तो मज्बुरी मे जाना पडता हे, बाकी तो घर की दाल ही मुर्गी बराबर हे,

Dr Prabhat Tandon said...

घर का खाना सबसे अच्छा , जब-२ बाहर खाये तब झेले ।