रविवार, 12 अप्रैल 2015

हर सुबह कुछ नया लेकर आती है..

कुछ अरसा पहले हमारे यहां एक पोस्टर लगा हुआ था...Welcome every day with open arms!
Every new day comes with a bunch of opportunities and hopes!


बात है तो बिल्कुल सच....मैंने हमेशा यही नोटिस किया है कि मैं जब भी प्रातःकाल के भ्रमण के लिए जाता हूं तो हर बार कोई ऐसा प्राकृतिक नज़ारा देखता हूं ..कोई नया पौधा, कोई अनूठा फल, अचंभित कर देने वाला कोई पत्ता, कोई नया फूल ......कुछ भी नया ज़रूर दिख जाता है जिस का मैं नाम तो नहीं जानता, एक बात है लेकिन मैंने उसे पहले कभी देखा भी नहीं होता। और एक खास बात, हर सुबह का मूड बिल्कुल नया होता है।


आज भी जब मैं घर के पास एक बाग में घूमने गया तो वहां का नज़ारा बिल्कुल अलग था। उद्यान के बाहर ही गीता का ज्ञान बंट रहा था...सुंदर सी आवाज़ में एक सीडी के द्वारा गीता के श्लोकों के साथ साथ उन के अर्थ भी बताए जा रहे थे...अच्छा लगा...वे लोग गीता बेच भी रहे थे।

और इस बाग के बिल्कुल गेट के पास ही कुछ पुरूष-महिलाएं योगाभ्यास कर रहे थे....उन की तस्वीर खींचना उचित नहीं समझा।

इस बाग का नाम है ...स्मृति उपवन.......इस बाग के अंदर जाते ही लगता है जैसे आप किसी छोटे मोटे जंगल में आ गये हैं....ऐसा नहीं है कि सुनसान है...बहुत से लोग आते हैं प्रातःकाल के भ्रमण के लिए.......लेकिन अकसर देखता हूं आते जाते कि शायद दोपहर के समय इस का इस्तेमाल बदल जाता है....अंदर से निकलते हुए जोड़ों के हाव-भाव बहुत कुछ ब्यां कर जाते हैं।

आज मेरे मोबाइल की बैटरी ने दस मिनट बाद ही जवाब दे दिया...वरना मैंने बहुत सी तस्वीरें लेनी थीं।


इस के एक कोने में माली का आवास है... आज वहां ताला लगा हुआ था ... और अकसर आते जाते देखते हैं कि वह यहां रहते हुए पूरे फार्म-हाउस का आनंद लेता है... आज उस तरफ सन्नाटा था तो ये दो तस्वीरें लेने की गुस्ताखी कर ली...देखिए, वह कैसी साधारण ज़िंदगी जी रहा है...सिलवट्टा ...मिट्टी का चूल्हा...


आगे चल रहे थे तो मैंने बेटे को बाग की सब से फेवरिट जगह के बारे में बताया.....इस का कारण यह है कि मैं जिस भी मौसम में गया हूं ...वहां पर हमेशा इतनी ही हरियाली और और इतने ही बड़े बड़े पत्ते बिखरे देखता हूं....पता नहीं मुझे इस स्पॉट से क्यों इतना लगाव है....वहां से हटने की इच्छा ही नहीं होती......वहां खड़े होकर यही लगता है कि कहीं उत्तरांखंड की वादियों में पहुंच गये हैं.

अच्छा एक बात और है इस बाग की.....यहां पर जगह जगह सीमेंट के लगभग १०x१० फीट के लगभग --इस से भी बड़े सीमेंट के प्लेटफार्म बने हुए हैं.....वहां पर सभी आयुवर्ग के लोग बैठ कर योगाभ्यास करते हैं।

इस बाग में बहुत से लोहे के बैंच जगह जगह रखे हुए हैं...जहां पर लोग थोड़ा सुस्ता भी लेते हैं।

मेडीटेशन के लिए भी इस बाग में कुछ छतरीनुमा स्थान बनाए गये हैं....ताकि लोग एकांत में अपने आप के साथ कुछ लम्हें बिता पाएं।

एक कार्नर में बच्चों के झूले लगे हैं...और भी कुछ सी-सा टाइप के खेल....वे वहां मस्त रहते हैं।

एक महिला को अकसर मैं फूल ही तोड़ते देखता हूं ..एक पन्नी में इक्ट्ठा करती रहती है....सोचता हूं कि इसे किसी दिन कह ही दूं कि यह मत किया करे, लेकिन रूक जाता हूं।

आज इस बाग का राउंड लगाते लगाते कुछ चीज़े नई दिखीं ...मुझे नहीं पता ये क्या हैं, मैंने इन्हें उठा लिया........और प्रकृति की रहस्यमयी परतों का एक बार फिर से ध्यान आ गया....आप भी देखिए ये तस्वीरें...और पहचानिए ये फूल-फलियां हैं क्या! फली तो मैंने पहले भी देखी है लेिकन नहीं जानता कि यह है क्या। लेकिन हर बात को समझने को कह कौन रहा है!... बस ये सब निहारने से रूह खुश हो गई....



जाते जाते एक गीत हो जाए......मैं अकसर पुराने गीत शेयर करता हूं....लेकिन आज कर यश चोपड़ा की फिल्म दम लगा के हईशा के इस गीत ने हर तरफ़ धूम मचा रखी है.....लिरिक्स, म्यूजिक, फिल्मांकन.......मैं बेटा को कह रहा था कि इस ने १९९० में रिलीज़ हुई आशिकी की यादें तरोताज़ा कर दीं ..

"क्या मैं अभी भी सैक्स कर सकता हूं?"

क्या मैं अभी भी सैक्स कर सकता हूं?...यह प्रश्न मुझे एक बुज़ु्र्ग ने पिछले महीने पूछा था...मैं अचानक इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था।

मुझे अच्छे से याद है मैं उस ७०-७१ वर्ष के बुज़ुर्ग के दांतों का निरीक्षण करने के बाद जैसे ही वॉश-बेसिन की तरफ़ बढ़ा, उसने यह प्रश्न दाग दिया। थोड़ी सी बैक-ग्राउंड इस प्रश्न की बताना चाहूंगा...दरअसल इस बुज़ुर्ग के सामने ही एक ८०-८२ वर्ष का दूसरा बुज़ुर्ग आया था...वह बातें कर रहा था...बिल्कुल तंदरूस्त था वह..बातों बातों में जब इस ७० वर्ष के बुज़ुर्ग को उस की उम्र के बारे में और उन की सेहत के बारे में पता चला तो इन के झट से कह दिया.....यह लंबी उम्र की बात मेरी समझ में तो कभी आई नहीं। सब काम कर लिए. ..धर्म-शास्त्र पढ़ लिए, कर्म भी कर लिए...दुनियावी कामों से निवृत्त भी हो लिए...इस के बाद जीने का आखिर है क्या मकसद?...मैं तो चुप रहा ...लेकिन वह गांव वाला ८२ वर्षीय बुज़ुर्ग हंसने लगा.....इतनी गूढ़ ज्ञान की बात उस के पल्ले नहीं पड़ रही थी शायद। लेिकन इसे समझने की कोई खास ज़रूरत भी नहीं थी। 

मैंने इन से पूछा कि क्या आप दुनियादारी के सभी कामों से फारिग हो गए?..कहने लगे..हां, जो भी पैसा जमा था, लड़के लड़कियों में बांट दिया है..पैंशन इतनी आती है कि वह भी पूरी नहीं खाई जाती। 

इतनी बातें हुई थीं कि उस गांव वाले ८२ वर्षीय बुज़ुर्ग ने सोचा होगा िक इन की बातें कुछ ज़्यादा हाई -लेवल की हैं, वह तो अपना काम करवा कर चले गये। 

लेकिन इस ७० साल के बुज़ुर्ग को लगा कि चलो, अभी मौका है, यह प्रश्न ही दाग देते हैं। 

शायद उन्हें उन का जवाब कचोट रहा होगा कि मैंने दुनियादारी की सारी बातों से फारिग होने की बात कबूल तो ली है, अब इस सैक्स वाली बात को भी साफ कर ही लूं।

अब मैं सैक्स स्पैशलिस्ट तो हूं नहीं, और उन से बीस बरस छोटा भी हूं...उस का क्या जवाब देता ...एक पल के लिए तो मैं चुप हो गया। फिर मुझे अचानक वह वाली कहावत याद आ गई ..घोड़ा और मर्द कभी बूढ़े नहीं होते ....ऐसा ही कहते हैं ना कुछ ...अगर खुराक सही हो......यही है ना!

उन्होंने मुझ से पूछा था कि शास्त्रों के अनुसार तो मुझे सैक्स वैक्स से मुक्त हो जाना चाहिए। मैंने उसी क्षण उन्हें कहा ... ऐसा कुछ नहीं है, आप जो सहज भाव से किए जा रहे हैं करते रहिए.......किसी तरह का अपराधबोध मत पालिए। 
मुझे लगा उन्हें तसल्ली सी हो गई। 

फिर तुरंत कहने लगे कि डाक्टर साहब,  मैंने अपनी बीवी से अलग बरामदे में भी एक साल तक सोने का अभ्यास किया....इन्होंने उसे यहां तक कहा कि ६० की उम्र के बाद शास्त्र यह सब काम करने के लिए मना भी करते हैं, वह भी बीवी को नागवार गुजरा, बीवी कहने लगी यह ठीक थोड़ा लगता है, अगर हम दोनों में से किसी को कोई एमरजेंसी हो जाए तो पता कैसे लगेगा! 

अपनी मजबूरी ब्यां करते वह आगे कहने लगे कि इसी चक्कर में मैंने फिर से बीवी के साथ एक कमरे में ही सोना शुरू किया और जब मैं बीवी के साथ होता हूं तो कुछ शरारत.....तब बीवी कहती है..चुपचाप लेटे रहो, इन चक्करों में मत पड़ो। सुनाते सुनाते परेशान सा दिखाई दिया यह बंदा....बताने लगे कि बीवी बड़ी पूजा पाठ वाली धार्मिक प्रवृत्ति की है।  

मेरे बिना पूछे ही बताने लगे कि छःमहीने एक साल में ...फिर कहने लगे कि यही दो चार छः महीने में जब मेरा कंट्रोल नहीं होता तो सहवास हो जाता है। और कहने लगे कि इसे भी मैं संगति का असर ही कहूंगा ...जब मेरी संगति या खानपान ऐसा वैसा होता है, तभी यह कुछ होता है। मैं चुप था......उन्हें शायद इस बात का जवाब चाहिए था कि क्या यह सब गलत है या ठीक।

मैंने उन से एक भी बात पूछनी उचित नहीं समझी ...जितना उन्होंने मेरे से शेयर किया ..उसी के आधार पर उन से यही कहा कि आप बिल्कुल सहज हो कर रहिए....ऐसा कहीं नहीं लिखा ...कि यह गलत है यह ठीक है...शास्त्रों के चक्कर में पड़िएगा तो उलझ जाएंगे.....आप और आप की पत्नी सहज भाव से जो कर रहे हैं या कर पा रहे हैं, करना चाहते हैं, बिना किसी अपराधबोध में फंसे करते रहिए..

दोस्तो, इन बुज़ुर्ग की आपबीती यहां ब्यां करने का मकसद इस बात को रेखांकित करना था कि किसी भी उम्र में देश में लोगों में सैक्स के प्रति अजीबोगरीब भ्रांतियां व्याप्त हैं, किशोरो की अपनी समस्याएं (नाइट-फाल), युवाओं की अपनी (शीघ्र स्खलन आदि)..और एक बडे़-बुज़ुर्ग की भी आपने सुन लीं। हर आयुवर्ग के ज़हन में कितने ही सवाल बिना जवाब के सुलगते रहते हैं.......लेिकन ये अधिकतर काल्पनिक समस्याएं होती हैं, ठीक है, कईं बार परीक्षण करवा लेने से मन को तसल्ली मिल जाती है....लेकिन इस तरह की काल्पनिक समस्याएं अधिकतर नीम-हकीम जन साधारण के मन में बैठा कर ही दम लेते हैं और फिर कईं वर्षों तक उन का आर्थिक शोषण करते रहते हैं.

दूसरी बात यह है कि हर आदमी अपने प्रश्न पूछना चाहता है लेकिन उसे गोपनीयता भी चाहिए......जैसे ही उसे कोई भी मौका मिलता है वह मन से बोझ उतारना चाहता है। जैसा कि इस ७० वर्षीय बुज़ुर्ग के साथ हो रहा था ... मैं इस विषय का विशेषज्ञ भी नहीं हूं लेकिन उसे लगा होगा कि चलो एक जायजा तो ले लिया जाए। 

सरकारी अस्पतालों की बात और है...लेकिन कुछ कारपोरेट अस्पतालों में वातावरण बिल्कुल अलग सा ही है ......अगर ये इस तरह की बातें वहां जाकर करते तो पहले तो इन्हें पोटेन्सी टेस्ट के चक्कर में डाल दिया जाता, फिर और भी तरह तरह के टेस्ट ...बड़ी बात नहीं कि इन की श्रीमति जी को चैक-अप के लिए कह दिया जाता। 

नेट पर सारी जानकारी पड़ी तो है लेकिन हर बंदा कहां यह सब ढूंढ पाता है। वैसे एक ९० वर्ष के सैक्स एक्सपर्ट का लिंक मैं यहां दे रहा हूं......चलिए, मिलते हैं आज एक ९० वर्षीय सैक्सपर्ट से...डा महेन्द्र वत्स..

एक बार मुझे ध्यान है ऐसे ही मैंने कुछ लिखा था कि हार्ट अटैक के मरीज़ कितने समय बाद संभोग कर सकते हैं.....दोस्तो, मुझे बिल्कुल नहीं पता कि मैंने उस में क्या लिखा था.....हां, मेन आइडिया तो ध्यान में रहता ही है...लेकिन उस के कंटेंट मुझे बिल्कुल भी याद नहीं है.......मैं अपने लेख लिखने के बाद कभी इन्हें पढ़ना नहीं चाहता, बिल्कुल उसी हलवाई की तरह जो अपनी बनाई मिठाई स्वयं नहीं खाता। वैसे शुद्धता की जहां तक बात है, मैं हलवाई के बारे में तो कुछ नहीं कह सकता, लेकिन इस ब्लॉग के एक एक लेख में मैंने केवल और केवल प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक सत्यों पर आधारित जानकारियां ही शेयर की हैं। ...हार्ट अटैक के बाद संभोग से इतने खौफ़ज़दा क्यों?

इस पोस्ट से संबंधित बात तो नहीं है लेकिन फिर भी ध्यान आ गया.......हम लोग फिरोजपुर में पोस्टेड थे...१२-१३ वर्ष पहले की बात है...हमारे अस्पताल में एक एनेसथेटिस्ट आया (जो डाक्टर आप्रेशन के दौरान मरीज को बेहोश करते हैं)...अब उस डाक्टर को सामान्य मरीज़ भी ओपीडी में लिखने होते थे....उन दिनों वियाग्रा नईं नईं चली थी, उस ने पता नहीं किसी यूनियन के दबाव में या कैसे एक मरीज़ को वे गोलियां लिख दीं.....अब जो दवाई हमारे अस्पताल में नहीं होती, मरीज़ को बाज़ार से खरीद कर दिलाई जाती है.....पहले चिकित्सा अधीक्षक की अनुमति ली जाती है......उस ने उसे बुला कर कहा कि यार, तू सैक्स-स्पेशलिस्ट कब से बन गया? ...कुछ लोग बड़ी जल्दी बुरा मान लेते हैं......वह कुछ दिनों के बाद सर्विस छोड़ कर दिल्ली चला गया। 

इस समय यह गीत ध्यान में आ रहा है....

पेड़ हैं तो हम हैं...

जिस तरह से एक नारा है कि जल है तो हम हैं, ठीक उसी तरह से पेड़ हैं तो हम हैं। दो तीन दिन से पेड़ों के बारे में अपने भाव कलमबंद करने की फिराक में था..मुझे पेड़ों के बारे में लिखना बेहद पसंद है...बस लगता है पेड़ों की महिमा का वर्णन करता ही जाऊं..जब से ये कैमरे में फोन आया और डिजिटल कैमरा आया...मैंने लाखों नहीं तो हज़ारों पेड़ों की तस्वीरें ले रखी हैं....जहां पर भी मैं पेड़ देखता हूं मुझे लगता है कि इस की तस्वीर खींच लूं।

इंटर में मैं बॉटनी (वनस्पति विज्ञान) में बहुत अच्छा था...कहते हैं ना किसी विषय को दिल से पढ़ना...बस, मैं बॉटनी को दिल ही से पढ़ता था....आगे भी चल कर उसे ही पढ़ता तो शायद डेंटिस्ट्री पढ़ने से भी ज़्यादा मज़ा आता। डीएवी कालेज अमृतसर में बीएससी मैडीकल  में दाखिला भी ले लिया था....लेकिन तभी डेंटल कालेज से बुलावा आ गया कि आओ, हम तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं, हमारा क्या था....बस हम उधर हो लिए।

लेिकन जो भी हो मेरा प्रकृति प्रेम हमेशा कायम रहा..जितना बड़ा पेड़ देखता हूं मुझे उतना ही अपने बौनेपन का अहसास होता है..इस से ज़मीन पर टिके रहने में मदद मिलती है।

मैं अकसर सोचता हूं कि पेड़ों की हम सब को जोड़ कर रखने में बहुत बड़ी भूमिका है। हम गांव की ही बात करें तो जहां कहीं भी बड़े-बुज़ुर्ग पेड़ हम देखते हैं, उन के इर्द-गिर्द रौनक और खूब धूमधमाका देखने को मिलता है....कितना सुदर नज़ारा लगता है, वहां से हटने की इच्छा ही नहीं होती। नीचे बीसियों लोग बैठ कर गपशप में मशगूल रहते हैं, पास की कोई पानी के दो चार मटके रख देता है, पास ही कोई खाने पीने की चीज़ ला कर बेचने लगता है, किसी का रेडियो बजता है, किसी को अखबार दस लोगों में बंट जाती है..वाह!!


कल शाम मैं लखनऊ के अमीनाबाद एरिया में जा रहा था...यहां बिना किसी कारण के घूमना मुझे बहुत पसंद है। कल शाम अमीनाबाद जाते हुए मुझे यह पेड़ दिख गया....आप देखिए इस एक पेड़ से यह जगह कितनी जीवंत हो गई दिखती है...बीसियों लोग पनाह लेते हैं , कुछ के धंधे चल निकलते हैं......इतने भयंकर प्रदूषण की वजह से जलते-सड़ते वातावरण में इतनी घनी छाया वाला पेड़ एक तरह के उस एरिया का विशालकाय फेफड़ा दिखाई जान पड़ता है।

हम लोग जब पांचवी-छठी-सातवीं कक्षा में स्कूल से घर वापिस लौटते तो हमें उसी एरिया का इंतज़ार रहता जिस में घने छायादार पेड़ लगे होते थे....उन के नीचे पहुंचते ही ठंडक का एहसास एक देवीय अनुकंपा लगती। पास ही में एक प्याऊ भी हुआ करता। वहां पर हम ज़रूर रूका करते।


अमीनाबाद पहुंच कर भी इतने भीड़े भड़क्के वाली जगह में भी आप को अगर इस तरह का पेड़ दिख जाए जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं तो आदमी बाकी सब कुछ भूल जाता है। देखिए, किस तरह से एक पेड़ ने उस एरिया में जैसे जान फूंक दी हो...उस पेड़ के नीचे सभी धर्मों के, सभी समुदायों के लोग मिल जुल कर अपने अपने काम धंधे चलाते हैं... यह कहने में कोई अतिशयोक्ति न होगी कि पेड़ हमें अलग अलग तोहफों के साथ साथ जोड़ कर भी रखते हैं....Peaceful co-existence!...लखनऊ जब तक देखा नहीं था इस के बारे में यही सुना करते थे कि यहां विभिन्न धर्मों के लोग आपस में टकराव की स्थिति में रहते हैं.....अब समझ आने लगा है कि यह सब बिल्कुल बकवास है, सब राजनीतिक रोटियां सेंकने की बातें हैं, फिरकापस्ती का ज़हर घोलने का सरफिरा जुनून है केवल.......सब लोग हर जगह प्रेम-प्यार से रहते हैं....यहां पर मैं दर्जनों लेखकों को सुन चुका हैं......वे बार बार लखनऊ की जिस गंगा-जमुनी तहजीब की बात दोहराते हैं, वह मैं भी समझने लगा हूं।

हां, तो पेड़ों की बात हो रही थी...बिना पेड़ों के किसी एरिया में कितनी मुर्दानगी छाई रहती है, हम अकसर अनुभव करते हैं......घरों में भी देखते हैं...जिन घरों में सब कुछ सी सीमेंट और महंगा संगेमरमर लगा होता है लेकिन हरियाली बिल्कुल नहीं रहती, वहां भी हर दम मातम का गमगीन माहोल ही दिखा करता है... लेकिन छोटे से कच्चे घरों में भी अगर एक दो पेड़ लगे हैं तो इन की भव्य सुदंरता निहारते ही बनती है।

पेड़ हमें खुश रखते हैं...बेशक ....मेरे जो मरीज मेरी बात सुनने की परवाह करते हैं मैं उन्हें हमेशा प्रकृति के साये में रहने की प्रेरणा दिया करता हूं... कल एक महिला आई...बड़ी ज़हीन थी...६०-६५ की होगी...कोई बात हुई तो कहने लगी कि मेरे को डिप्रेशन है ना, इसलिए फलां फलां दवाईयां खा रही हूं.....मैंने कहा कि ठीक है दवाईयां ले रहे हैं, लेकिन इस के साथ साथ डिप्रेशन दूर भगाने का अचूक फार्मूला सुबह की सैर और पेड़ों के साथ समय बिताने की भी आदत डालें....

 हमारी सोसायटी में टहलना अच्छा लगता है..

मुझे लगता है कि अब यही विराम लूं......कल सुबह टहलते हुए अपनी सोसायटी में सैर करते भी दीवार के साथ लगे पेड़ों की तस्वीरें लीं तो आप से शेयर करने की इच्छा हुई...चार पांच तरह के मनमोहक रंगों के बोगेनविलिया की बेलें देख कर मन झूम उठा........उधर से मेरे एफएम पर वह हमारे दिनों वाला वह सुपरहिट गीत बज रहा था... हाल क्या है दिलों का ना पूछो सनम.....इतनी हरियाली और मनमोहक नज़ारे देखते हुए अपना हाल भी एक दम टनाटन है।

अभी विराम लेता हूं ...टहलने निकल रहा हूं......कुछ ही समय में तेज़ धूप निकल आती है...