सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

सेब जैसा मोटापा पहुंचाता है ज़्यादा नुकसान

आम तौर पर किसे के मोटापे के बारे में जानने के लिये बी.एम.आई इंडैक्स (BMI Index) जान लिया जाता है और उसे के मुताबिक उसे मोटापा या पतला लेबल कर दिया जाता है।

अपना बीएमआई इंडैक्स जानने के लिये यहां पर क्लिक करिये .. देखिये इस साइट पर बताया गया है कि भारतीयों का बीएमआई इंडैक्स 23 से ज़्यादा नहीं होना चाहिए। सोच रहा हूं कि जो लोग यहां से बाहर जा कर बस गये हैं, वे भी कहीं यह तो नहीं सोच रहे कि उन के लिये कोई छूट नहीं है, यह वैल्यू उन पर भी उतनी ही लागू होती है।

आखिर यह बीएमआई इंडैक्स है क्या बला ? –अगर हम लोग अपने वज़न (किलोग्राम में) को अपनी लंबाई (हाइट—मीटरों में) के स्क्वेयर से डिवाईड  कर दें तो जो वैल्यू आती है, उसे बीएमआई इंडैक्स कहते हैं।

एक उदाहरण मेरी ही –मेरी लंबाई 5फुट 10इंच अर्थात् 175 सैंटीमीटर और वज़न 91 किलो तो मैंने जब ये वैल्यू साइट पर भरे तो मेरा बीएमआई इंडैक्स 30 आया है.....औरों को नसीहत .... वही वाली बात लगती है। और यह तब है जब मैं जंक लगभग नहीं के बराबर लेता हूं, देसी-घी मक्खन आदि को कोई चक्कर ही नहीं, धूम्रपान नहीं, ड्रिंक्स नहीं.....सब से बड़ी कमी है नियमित शारीरिक सक्रिय न रखने की।

कोशिश तो रहती है कि रोज़ाना 40-50मिनट साईक्लिंग कर आऊं लेकिन कईं बार मौसम का बहाना बना कर कईं कईं दिन छुट्टी मना लिया करता हूं लेकिन अब लगता है कि इस मामले में सुधरना पड़ेगा।

चलो फिर आप भी तब तक अपना बीएमआई इंडैक्स की वेल्यु देख लें... लेकिन एक बात जो मैंने पहले भी लिखी थी वह यह कि जो मोटापा हमारे पेट के आस पास है जिसे हम लोग सेब जैसा मोटापा (मुझे यही है !) कहते हैं वह ज़्यादा खतरनाक होता है ...इस की तुलना में जो मोटापा जांघों पर एवं नितंबों पर वसा के जमा होने से होता है यह उतना नुकसानदायक नहीं होता।

यही कारण है कि किसी को केवल बीएमआई इंडैक्स के आधार पर ही किसी की मोटा या पतला होने की लेबलिंग करने में पेच है – कारण बता दिया गया है। इसलिये लाखों लोगों की कमर का माप लिया गया और यह पाया गया कि बीएमआई इंडैक्स सामान्य होते हुये भी अगर कमर का घेरा बढ़ा है तो भी गड़बड़ ही है.. वैसे माशाल्लाह अपना तो इस “कमरे”  का घेरा भी 40-41 इंच है ही। इस के बारे में अच्छी तरह से समझने के लिये आप मेरा यह लेख अवश्य देखें --- साढ़े तीन लाख लोगों की कमर नापने के बाद।

और अब तो और भी आसानी से पता लगाया जा सकता है कि किस तरह से यह मोटापा हमारी सेहत पर कहर बरपा रहा है... बीबीसी की यह हैल्थ-स्टोरी देखें ...BMI misses obesity risks. कितना साधारण या पैमाना निकाल लिया गया है कि हमारी कमर का साइज हमारी लंबाई के आधे से ज्यादा नहीं होना चाहिये – अभी भी मुझे अपनी उदाहरण ही देनी पड़ेगी क्या ? – लंबाई 175 सैंटीमीटर –इस के हिसाब से मेरी कमर का साइज 88-90 सैंटीमीटर से ज़्यादा नहीं होना चाहिये लेकिन वास्तव में यह है 40 इंच के आसपास अर्थात् 100सैंटीमीटर ---इसलिये अब मुझे चिंता होने लगी है कि ये 10सैंटीमीटर कैसे कम होंगे?  सब से ज़्यादा ज़रूरी है एक्टिविटी बढ़ाई जाए।

वैसे क्या आप को भी लगता है हम लोग वही पुराना रिकार्ड क्यों लगा देते हैं –मोटापा, मोटापे का माप-तोल, मोटापे की श्रेणीयां----- ये सब कुछ बार बार पढ़ना उबाऊ सा ही लगता होगा न.... लेकिन मैं सोचता हूं कि इस तरह के रिमांईडर बार बार दिखते रहने चाहिये ---इस से पाठकों के साथ साथ लिखने वाले को भी बहुत फ़ायदा होता है, उसे कम से कम अपने बारे में भी सोचने का अवसर तो मिलता है।

सत्संग में हम सब लोग कहीं न कहीं जाते हैं, वहां पर भी अकसर वही बातें बार बार दोहराई जाती हैं ...एक बार किसी ने ऐसी बात आगे रखी तो महांपुरूषों ने उस की शंका का समाधान यह कहते हुये किया कि ठीक है, वही बातें हैं, साधारण बातें हैं लेकिन क्या इन्हें आपने अपने जीवन में उतारना शुरू कर दिया है.... इस का जवाब हम स्वयं दे सकते हैं कि हम कितना इन सतवचनों पर पूरा उतरते हैं, इसलिये इन की नियमित पुनरावृत्ति होती ही रहनी चाहिए।

उसी प्रकार ही ये मोटापे-वापे की बातें हैं... हम जब तक ये सब बातें मानते नहीं, खान-पान में बदलाव नहीं लाते, जीवनशैली बदलते नहीं, रोज़ाना शारीरिक व्यायाम करते नहीं तब तक तो इस तरह के लेखों के रूप में बार बार रिमांइडर भेजने का सिलसिला तो मेरे ख्याल में चलता ही रहना चाहिए ....पता नहीं कब कौन सी बात निशाने पर लग जाए।

बातें तो ये छोटी छोटी हैं, लगभग हम सब को पहले ही से पता हैं, लेकिन थोड़ा बहुत असर तो होता ही है, परसों मैंने जब यह बीबीसी स्टोरी पढ़ी तो तुरंत लैपटॉप बंद कर के आईक्लिंग करने निकल गया ---हमारे यहां आसपास हरे भरे खेत हैं, अगर फिर भी मेरे जैसे लोग घर पर ही पढ़े रहें तो कोई क्या करे! लगभग तीन साल पहले मैंने जब एक ऐसा ही लेख लिखा है – धूल चाटते वाकिंग शूज़ के बारे  तो भी मैं लंबे अरसे तक नियमित टहलने निकल जाया करता था। लगता है अभी बस इसे पोस्ट करूं और इस ‘कमरे’ की सलामती के लिये बाहर निकल ही जाऊं ---- कितना सही कहा भी तो गया है ... पहला सुख निरोगी काया !!


इतनी सीरियस से बातें सुनने के बाद चलिये मन को थोड़ा हल्का करते हैं ... तेरे गिरने में भी तेरी हार नहीं कि तूं आदमी है अवतार नहीं ..... मुझे यह गीत बहुत ही पसंद है।

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

एनर्जी ड्रिंक्स से बचे रहने में ही है बचाव

इस तरह की चीज़ों के बारे में हम लोगों को पता भी बच्चों से ही चलता है ..इन लोगों की स्कूल आदि में बातें चलती होंगी। एनर्जी ड्रिंक्स के बुरे प्रभाव तो समाचार पत्रों में आते ही रहते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि आज के युवा वर्ग को इन कोल्ड-ड्रिंक्स की लत लगा देने के बाद अब अगली बारी है इन एनर्जी ड्रिंक्स को पापुलर करने की।

कुछ दिन पहले मैं भी एक डिपार्टमैंटल स्टोर गया हुआ था ... मैंने उस से पूछा कि क्या यहां पर भी एनर्जी ड्रिंक्स मिलती हैं, तो मुझे उस शेल्फ की तरफ़ ले गया जहां पर इस तरह की ड्रिंक्स सजी हुई थीं। एक कैन की कीमत थी अस्सी रूपये और चार कैनों का एक पैक था...डिस्काउंट रेट पर।

उस के ऊपर लिखी इंफरमेशन पढ़ी .. वही सब जो मैडीकल न्यूज़ में दिख रहा था पिछले कुछ दिनों से कि ये सब ड्रिंक्स कैफ़ीन (caffeine) जैसे तत्वों से लैस होते हैं जिन से बहुत से नुकसान होते हैं ....और इन पर लिखा तो रहता है कि इन में कॉफी के एक कप चाय के बराबर कैफीन है लेकिन इस में इस से कहीं ज़्यादा मात्रा में कैफ़ीन होती है। कारण ? – इस में कंपनियों ने कईं तरह के हर्बल इनग्रिडीऐंट भी डाले होते हैं जिन की वजह से कैफ़ीन की मात्रा खूब बढ़ जाती है।

आज कल जिस तरह से ये ड्रिंक्स पापुलर हो रही हैं, इस से तो यही लगता है कि जब कोई भी वस्तु विकसित देशों से निकाले जाने के कगार पर होती है तो उसे हमारे यहां पापुलर करना शुरू कर दिया जाता है। आप इस लिंक पर जा कर इस के बारे में देखिये .... Energy drinks dangers.

कईं विकसित देशों में तो 12 से 17 साल के वर्ग के एक तिहाई युवा इस तरह की ड्रिंक्स नियमित रूप से लेने लगे हैं... और इन ड्रिंक्स के युवाओं के स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों का भी उन देशों में पिछले कईं वर्षों से अध्ययन किया जा रहा है और विशेषज्ञों के अनुसार इन ड्रिंक्स की वजह से बच्चों एवं युवाओं को दौरे (seizures) पड़ सकते हैं, उन के हृदय की धड़कन में अनियमितताएं(irregular heart rhythm) आ सकती हैं, उच्च रक्तचाप(high blood pressure) हो सकता है, और यहां तक की इस रिपोर्ट में (जिस का लिंक मैंने ऊपर दिया है) तो यह भी कहा गया है कि इस से मौत तक हो सकती है।

सोचने की बात तो यही है कि अगर कोई खाध्य वस्तु इतने पंगे कर सकती है तो उसे ट्राई ही क्यों किया जाए। और कोई इतनी सस्ती भी नहीं है ये ड्रिंक्स। अपनी देसी पेय पदार्थों में ऐसा क्या है कि वे एनर्जी न दे सकेंगे। सभी खिलाड़ी उन देसी चीज़ों को ही इस्तेमाल कर के पले-बड़े हैं।

ध्यान आ रहा है बाबा रामदेव की दो चार दिन पहले सुनी बात का --- एक सभा को संबोधित करते हुये वे कोल्ड-ड्रिक्स की पोल खोल रहे थे कि किस तरह से ये हमें केवल नुकसान ही पहुंचाती हैं। एक खिलाड़ी का नाम लेकर बच्चों को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि यह जो आप लोग विज्ञापन में उस खिलाड़ी को कोल्ड-ड्रिंक के समर्थन में बोलते सुनते हो ना, यह ड्रिंक्स ये खिलाड़ी लोग स्वयं नहीं पीते, ग्रामीण पृष्टभूमि से आने वाले ये स्टार देसी पेयों को पी-पीकर ही इतने बड़े हो गये कि इन कंपनियों की इन की नज़र पड़ सके।

सोचता हूं कि हर तरफ़ इतना गोरखधंधा चल रहा है कि मैडीकल विषयों के बारे में कंटैंट डिवेल्पमैंट का यही मतलब दिखने लगा है कि आमजन को किस तरह से नईं नईं हानिकारक वस्तुओं के बारे में लगातार जागृत रखा जाए...................मेरे विचार में तो एक बात तो है कि इस तरह की वस्तुएं बनाने वालों के पास इतना अथाह पैसा है कि वे इन की मार्केटिंग के लिये किसी भी हद तक जा सकते है।

लेकिन अगर आम आदमी ने कांटों से अपने आप को बचाना है तो सारी दुनिया पर कारपेट बिछाने की बजाए अगर अपने पैरों में ही चप्पल डाल ली जाए तो बात बन जाती है... है कि नहीं ? केवल जागरूक रहना ही एक हथियार है – यह देखना कि हम क्या खा रहे हैं, क्यों खा रहे हैं, और इस के हमारे शरीर में क्या प्रभाव हो सकते हैं।




तंबाकू कंपनियां पचास वर्षों तक बेचती रहीं सफ़ेद झूठ

मुझे याद है कि सत्तर के दशक में मेरे जो रिश्तेदार उन दिनों 35-40 रूपये का सिगरेट का पैकेट पिया करते थे, सारे परिवार में उन का अच्छा खासा दबदबा हुआ करता था कि इन की इतनी हैसियत है कि ये अपनी सेहत के प्रति जागरूक होते हुये “फोरेन ब्रांड” के सिगरेट पीते हैं... और आज से चालीस साल पहले चालीस रूपये की बहुत कीमत हुआ करती थी।

और मुझे याद है कि कभी कभी इस तरह के पैकेट लाने की अपनी ड्यूटी भी लगा करती थी और अमृतसर में तो ये केवल तब एक-दो महंगे पनवाड़ियों से ही मिला करते थे.. और मैं इन्हें खरीदते वक्त पता नहीं बिना वजह क्यों इतना “व्हीआईपी-सा” महसूस कर लिया करता था।

कल्पना करिये 1970 के दशक की ...रईस लोगों की एक तरह से ब्रेन-वाशिंग हो चुकी थी कि पैसे के बलबूते वे अपनी सेहत की भी रक्षा कर सकते हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है कि आम आदमी—बीड़ीबाज या फिर एक रूपये का लोकल ब्रांड  इस तरह के “बहुत कम नुकसानदायक” सिगरेट पीने वालों को हसरत भरी निगाहों से देखा करता था।

आप ने भी पढ़ा –मैंने लिखा है ...बहुत कम नुकसानदायक सिगरेट... क्योंकि उन दिनों इस तरह के विदेशी ब्रांड़ों के सिगरेटों के बारे में ऐसा ही सोचा जाया करता था। और यह बात लोगों के मन में घर कर चुकी थी कि महंगा है तो बिना नुकसान के ही होगा।

किसी की भी बढ़ती संपन्नता का प्रतीक सा माने जाना लगा था इन सिगरेटों को --- मेरे बड़े भाई ने और कज़िन्स ने भी 1980 तक ये सिगरेट ही इस्तेमाल करना शुरू कर दिये थे। कुछ वर्षों बाद जब चर्चा होती थी कि यही सुनने को मिलता था कि हम तो भई चालू, घटिया किस्म के सिगरेट नहीं पीते, अपना तो यही ब्रांड है। और उस समय मैं भी यही समझने लगा था कि इतना महंगा है (उन दिनों शायद यह 50-60 रूपये का पैकेट मिला करता था) तो ठीक ही होगा।

फिर लगभग बीस वर्ष पहले यह सुनने में आया कि यह जो भ्रम फैलाया जा रहा है कि महंगे विदेशी ब्रांड वाले फिल्टर सिगरेट तरह तरह के विषैले तत्वों को फिल्टर करने के नाकामयाब हैं.... लेकिन तब भी बात लोगों की समझ में कहां आ रही थी?

लेकिन आज मैं यह खबर देख कर दंग रह गया हूं कि पिछले पचास वर्षों के दौरान तंबाकू कंपनियां झूठ ही बोलती रहीं। न्यू-यार्क टाइम्स में आज दिखी इस खबर से यह पता चला कि अमेरिका में एक अदालत ने यह कहा है कि कंपनियों को इस तरह के विज्ञापन समाचार पत्रों में देने होंगे कि वे पचास वर्षों तक यह झूठ बोल कर आमजन की सेहत के साथ खिलवाड ही करती रहीं कि कम टॉर वाला एवं कम निकोटिन वाले सिगरेट(लाइट सिगरेट –light cigarette) कम नुकसानदायक होते हैं और आदमी इन का आदि (addicted) भी नहीं होता।

कोर्ट ने यह भी कहा है कि इन कंपनियों को इस तरह के विज्ञापन भी खरीदने होंगे जिन में यह लिखा गया हो कि यह सब वे इस लिये करते रहे कि धूम्रपान करने वाले लोग इसे छोड़ने के बारे में सोचने की बजाए इस तरह के लाइट-सिगरेटों को अपना लें ताकि कंपनियों की अपनी सेहत, उनका मुनाफ़ा फलता फूलता रहे।

कंपनियों को यह भी कहा गया है कि वे ये भी घोषणा करें कि वे गलत प्रचार करती रहीं कि निकोटिन एडिक्टिव नहीं है ... वास्तविकता यह है कि इस की लत लग जाती है और चौंकने वाली बात यह भी है कि कंपनियां को यह भी घोषणा करनी होगी कि उन्होंने सिगरेटों के साथ कुछ इस तरह से छेड़छाड़ की कि जिससे इन्हें पीने वाले पक्के तौर पर इस व्ययसन का शिकार हो जाएं।

सोच रहा हूं कि आज के बाद स्कूली बच्चों को वह मुहावरा समझाने के लिये इसी उदाहरण को ले लेना चाहिए --- अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत--- लेकिन अगर केवल खेत ही चुग गया होता तो बात और थी, यहां तो कईं कईं सालों तक स्वस्थ शरीर रूपी पकी फसलों को इस झूठ से आग ही लगती रही... लाखों, करोड़ों, शायद अरबों (हिसाब कमज़ोर है मेरा) लोग खा लिये इस ज़हर ने पिछले पचास वर्षों ने ---- तो क्या उन की कब्रों पर भी एक Sorry note रखा जाएगा कि ...We are sorry to hide the truth.

तो आज के बाद किसी भी पाठक को यह नहीं लगना चाहिये कि यह सिगरेट महंगा है, विदेशी है, कम टॉर वाला है , लाइट सिगरेट है... तो यह ठीक ही होगा, नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है, प्रूफ आप के सामने है.. अदालत ने कंपनियों को ही स्वीकार करने को ही कह दिया है। और हां, यह तो आप पहले ही से जानते ही हैं कि बीड़ी भी किसी तरह से भी सिगरेट से कम नुकसानदायक नहीं है, ज़्यादा तो हो सकती है ... .....ओ हो, यार, यह मैं भी किस रेटिंग में पड़ गया कि कम नुकसानदायक, ज़्यादा नुकसानदायक ..... ज़हर तो ज़हर ही है, विदेशों में बने, देश के महानगरों में बने या आदिवासी क्षेत्रों में तैयार हो .......इस का स्वभाव ही है कि इस ने जाने लेने ही लेनी हैं।

Anyway, Choice is yours --- Tobacco or Health……………..you can’t have both!

Source : 
U.S Presses Tobacco Firms to Admit to Falsehoods About Light Cigarettes and Nicotine Addiction. 

किसी भी फ़िक्र को कैसे धुएं में उड़ाया जा सकता है, गाने की बात और है .....लेकिन क्या आप को लगता है कि अगर रियल लाइफ में भी देवानंद ने इस धुएं का ही सहारा लिया होता तो क्या वह अभी 90 वर्ष की आयु में भी इतने एक्टिव दिखते .... 


शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

परमानैंट मेक-अप तकलीफ़ों का पिटारा लेकर आता है

कोई शारीरिक तकलीफ़ हो जाना एक बात है, और अपनी जीवनशैली अथवा तंबाकू, शराब, ड्रग्स को लेकर रोगों को बुलावा देना भी समझ में आता है लेकिन इस से भी आगे की स्थिति है कि रोगों को बुलावा ही नहीं, उन्हें खींच कर, घसीट कर  तरह तरह के परमानैंट मेक-अप के द्वारा अपने अच्छे-भले स्वस्थ शरीर में प्रवेश करवा के आफ़त मोल ली जाए।

कुछ दिन पहले ही मैं बात कर रहा था –टैटू के बारे में ..किस तरह से ये तरह तरह की बीमारियां फैलाने का काम कर रहे हैं और हाल ही में जर्मनी में इस के उपयोग में लाई जाने वाली स्याही के बारे में प्रकाश में आया कि यह कैंसर तक का कारण बन सकती है।

एक आफ़त का आज और पता चला – आज से पहले मुझे इस परमानैंट मेक-अप नाम की बीमारी का नहीं पता था, अचानक आज मुझे यह समाचार दिख गया ...Tattoos as makeup? Read the fine print.  यह एक बहुत ही विश्वसनीय एवं लोकप्रिय न्यूज़-पेपर –न्यू-यार्क टाईम्स – में छपी है। मुझे कुछ कुछ आभास सा तो था कि कुछ कुछ गड़बड़ सी हो तो रही है परमानैंट मेक को लेकर लेकिन उम्मीद है कि यह न्यूज़ पढ़ने के बाद किसी की भी आंखें खुली की खुली रह जाएंगी.

मुझे डर जिस बात का लगता है वह यह है कि जब किसी विकसित एवं सम्पन्न दूर देश में ये सब खतरनाक किस्म के मेकअप पनप रहे हैं तो इसे भारत में आते देर नहीं लगेगी... मैंने पहले ही कहा है कि भारत में इन के चलन के बारे में मेरा ज्ञान ऐसा ही है, इसलिए यह बड़ी बात न होगी अगर बड़े महानगरीय शहरों में इस तरह के धंधे पहले ही से न चल रहे हों।

मैं यह पढ़ कर हैरान परेशान हूं कि किस तरह से लोग आंखों के परमानैंट मेकअप के लिये आई-लाईनर की जगह टैटू ही गुदवा लेते हैं, अपनी भौहों (eye brows) को बार बार शेप देने से झंझट से छुटकारा दिलाने के लिये भी टैटू की मदद ली जा रही है, होठों तक पर यह परमानैंट मेक-अप करवा लिया जाता है।

इस तरह के प्रसाधनों (cosmetic procedures) के कितने कितने भयंकर प्रभाव हैं यह जानने के लिये आप को न्यू-यार्क टाइम्स की स्टोरी पढ़नी होगी जिस का लिंक मैंने ऊपर दिया है। एचआईव्ही, हैपेटाइटिस, टीबी, कैंसर, भय़ंकर एलर्जिक रिएक्शन ..... अनेकों भयंकर रोग इस तरह का काम करवाने से हो सकते हैं।

और जब इस तरह के परमानैंट मेकअप को उतरवाने की बात आती है तो और भी बड़ा पंगा ... रिपोर्ट में एक ऐसे ही विशेषज्ञ के बारे में बताया गया है जो लेज़र-ट्रीटमैंट से इन्हें उतार तो देता है लेकिन एक मरीज़ में इस तरह के मेकअप को उतारने में एक वर्ष लग गया –छः बार उसे वहां जाना पड़ा और दस हज़ार यू-एस डालर उसे फीस देनी पड़ी।

यह पोस्ट केवल इस लिये है कि अगर कभी इस तरह के मेकअप भारत में प्रवेश कर भी जाएं ---यकीन मानिए ये अवश्य आएंगे – तो हम पहले ही से स्वयं भी सचेत रहें और दूसरों को भी सचेत करते रहें ताकि गलती से भी यह गलती न हो जाए।

वैसे भी जो रियल ब्यूटी है वह कहां इन सब धकोंसलों की मोहताज है ....अगर मन अच्छा है, विचार अच्छे हैं तो वह चेहरे पर झलक ही जाती है, इसलिये बाहरी रंग रूप बिल्कुल ही बेमानी है, रियल ब्यूटी अंदरूनी है, जो बाहर परिलक्षित होती है ....एक ईमानदार मुस्कान के रूप में, सब के साथ एक जैसे मृदु-स्वभाव के रूप में, प्यार-आदर-सत्कार से सभी के साथ पेश आने से, हर किसी के मर्म को समझने से.......लेकिन यह क्या मैं तो सुबह सुबह फलसफ़ा झाड़ने लगा, इसलिये समय है कलम को यहीं विराम दे दूं।

यहां उस गीत का लिंक देना चाहता था ...कागज़ के फूल... खुशबू कहां से आयेगी... लेकिन आधा घंटा यू-ट्यूब पर ढूंढने पर भी जब वह नहीं दिखा तो बचपन में सैंकड़ों बार सुना वह गीत दिख गया ... बात वह भी यही कह रहा है ... सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से, खुशबू आ नहीं सकती कागज़ के फूलों से .... बात कितनी सही है...वैसे यह पुरानी फिल्म दुश्मन का गीत है .. यह फिल्म मुझे बहुत पसंद है... वह सुपर डुपर गीत भी इसी का ही है ....एक दुश्मन जो दोस्तों से भी प्यारा है... अगर अभी तो नहीं देखी, तो ज़रूर देखियेगा... मानवीय संवेदनाओं को झकझोड़ने वाली फिल्म है !



शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

दूषित ग्लूकोज़ ने ली कईं जानें

आज दोपहर मैं जब लोकसभा टीवी पर प्रश्न-काल के दौरान एक प्रश्न को सुन रहा था तो मुझे उस समय तो समझ नहीं आया कि यह किस संदर्भ में है .. प्रश्न यही था कि अगर ग्लूकोज़ चढ़ाए जाने से ही जान चली जाए तो यह एक गंभीर मामला है ... संसद सदस्य ने यह भी कहा कि अगर किसी की जान किसी दवाई से होने वाले रिएक्शन की वजह से जाती है तो वह बात तो समझ में आती है लेकिन अगर ग्लूकोज़ चढ़ाये जाने से मौतें हो जाती हैं तो यह एक गंभीर मसला है। स्वास्थ्य राज्य मंत्री ने प्रश्न रखने वाले सदस्य को विस्तृत जानकारी देने को कहा।

मैं तब से यही सोच रहा था कि आखिर यह मामला है क्या ....लेकिन सारा मामला मेरी समझ में तब आया जब मैंने अभी अभी बीबीसी की यह न्यूज़ स्टोरी देखी...Tainted IV Fluid kills 13 pregnant women in India. राजस्थान के जोधपुर में पिछले दस दिनों में तेरह गर्भवती महिलायें दूषित ग्लूकोज़ ड्रिप की बलि चढ़ गईं।

इस तरह का केस तो मैंने भी पहली बार ही सुना है कि दूषित ग्लूकोज़ चढ़ने से इतने लोगों की मौत हो गई। यह एक बेहद दुःखद घटना तो है ही लेकिन इस दुर्घटना से सबक इस तरह के सीखने की ज़रूरत है कि इस तरह की घटना फिर से न घटे।

इतना तो आप सब भी सुनते ही होंगे कि ग्लूकोज़ या कोई भी इंट्रा-विनस फ्लूयड़ (intravenous fluid) लगने से किसी को कोई रिएक्शन-सा हो गया ...कंपकंपी छिड़ गई लेकिन उस तरह के केसों पर डाक्टर तुरंत काबू पा लेते हैं।

मौतें तो हो गईं ... अब कारण का पता भी लगा ही लिया जाएगा कि ऐसा क्या था उस “लोकल” ग्लूकोज़ की बोतलों में जिस से कि बहुत ज़्यादा रक्त बह जाने से इतनी महिलाओं की मौत हो गई ...लेकिन मुझे लगता है कि इस दुर्घटना से उस तबके को भी सीख लेने की ज़रूरत है जो समझते हैं अपनी मरजी से कभी भी किसी तरह की शारीरिक दुर्बलता दूर करने के लिये ग्लूकोज़ चढ़ाने से सब कुछ ठीक हो जायेगा।

और आम आदमी के इस भ्रम को गांवों, कसबों के झोलाछाप डाक्टर भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। पहले तो खबरे देखते-सुनते थे कि ग्लूकोज़ आदि आई-व्ही फ्लूयड़ लगाने के लिये इस्तेमाल की जाने वाले आई-व्ही सैट (कैनुला आदि) की बढ़े स्तर पर री-साईक्लिंग होती है, कोई पता नहीं नीम-हकीम इस तरह की दवाईयां चढ़ाने के नाम पर कौन कौन सी लाइलाज बीमारियां भोली भाली जनता को चढ़ा देते हैं।

आमजन के इस बात पर विचार करना चाहिये कि अगर एक बड़े अस्पताल में इस तरह की दूषित ग्लूकोज़ की बोतलें पहुंच गईं तो इस तरह की क्वालिटी वाली बोतलों अथवा अन्य दवाईयों को अन्य छोटी जगहों पर पहुंचते कहां देर लगती होगी !

इस बात का बेहद दुःख है कि इतनी महिलाएं जो अपने नवजात शिशुओं को लेकर खुशी खुशी घर आतीं वे कहीं और हमेशा के लिये चली गईं.... आखिर किसी का तो दोष है, देखियेगा अगले कितने दिन यही दोषारोपण- प्रत्यारोपण चलता रहेगा, कुछ ही दिनों में मामला ठंडा भी पड़ ही जायेगा लेकिन दिवंगत  महिलाएं जिन परिवारों से जुड़ी हुई थीं उन का यह घाव हमेशा हरा रहेगा।

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

पीने वालों को पीने का बहाना चाहिये ..

अभी अभी बीबीसी की यह न्यूज़-स्टोरी दिख गई ...Alcohol in moderation can help prevent heart disease. अब इस तरह की रिपोर्टें नियमित दिखनी शुरू हो गई हैं .. इन्हें देख-पढ़ कर मुझे बहुत चिढ़ सी होती है क्योंकि इस तरह की खबरें देख-सुन कर फिर हमें मरीज़ों की कुछ ऐसी बातों का जवाब देने के लिये खासी माथापच्ची करनी पड़ती है।

इसी तरह की ख़बरें देखने के बाद ही लोग अकसर चिकित्सकों को कहना शुरू कर देते हैं ... डाक्टर साहब, आप लोग ही तो कहते हो कि थोड़ी बहुत ड्रिंक्स दिल की सेहत के लिये अच्छी होती है, फिर पीने में बुराई कहां है?


मुझे तो ऐसा लगने लगता है कि ये जो इस तरह की ख़बरें हमें दिखती हैं न ये सब के हाथ में (महिलाओं समेत) जाम थमाने की स़ाजिश है। आज जिस तरह से मीडिया ऐसी ख़बरों को उछालता है, ऐसे में ये बातें आम आदमी से छुपी नहीं रहतीं और वह समझता है कि उसे जैसे रोज़ाना जॉम छलकाने का  एक लाइसैंस ही मिल गया हो।

आप इस तरह की रिपोर्ट ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि कितनी कम मात्रा की की बात की जा रही है...और शायद दूर-देशों में शुद्धता आदि का इतना इश्यू होता नहीं होगा।

भारत में विषम समस्याएं हैं—देसी दारू, नकली शराब, ठर्रा ...आए दिन इन से होने वाली मौतों के बारे में देखते सुनते रहते हैं, इसलिये इस तरह की खबर किसे के हाथ पड़ने का क्या अंजाम हो सकता है, वह हम समझ ही सकते हैं।

रोज़ाना हम शराब से तबाह हुई ज़िदगींयां एवं परिवार देखते रहते हैं ... घटिया किस्म की दारू और साथ में नमक या प्याज़ या फिर आम के आचार के मसाले के साथ तो दारू पी जाती है, वहां पर तो दारू के शरीर पर होने वाले प्रभाव उजागर होते कहां देर लगती है, छोटी छोटी उम्र में लोगों को अपनी ज़िंदगी से हाथ धोना पड़ता है।

लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं कि अंग्रेज़ी दारू सुरक्षित है--उस के भी नुकसान तो हैं ही, और माफ़ कीजियेगा लिखने के लिये सभी तरह की दारू--देसी हो या अंग्रेज़ी --  ज़िंदगींयां तो खा ही रही  है--गरीब आदमी की देसी ठेकों के बाहर नाली के किनारे गिरे हुये और रईस लोगों की बड़े बड़े अस्पतालों के बिस्तरों पर...लिवर खराब होने पर कईं कईं वर्ष लंबा, महंगा इलाज चलता है ....लेकिन अफ़सोस... !!  और एक लिवर ही तो नहीं जो दारू से खराब होता है !!

लेकिन एक बात जो इस तरह की रिसर्च के साथ विशेष तौर पर लिखी रहती है वह प्रशंसनीय है .... इस में लिखा है कि इस रिपोर्ट का यह मतलब नहीं कि जो दारू नहीं पीते, वे इसे थोड़ा थोड़ा लेना शुरू कर दें...नहीं नहीं ऐसा नहीं है, क्योंकि रोज़ाना दारू से होने वाले दिल के रोग से जिस बचाव की बात हो रही है, वह तो रोज़ाना शारीरिक श्रम करने से और संतुलित आहार लेने से भी संभव है.

तो फिर इस तरह की रिपोर्ट की हमारे देश के लिये क्या उपयोगिता है ... इस की केवल यही उपयोगिता है कि जो लोग सभी तरह की जुगाड़बाज़ी के बावजूद भी रोज़ाना बहुत मात्रा में अल्कोहल गटक जाते हैं वे शायद इस तरह की खबर से लाभ उठा पाएं। लेकिन मुझे ऐसा कुछ खास लगता नहीं ...क्योंकि पुरानी पी हुई दारू भी तो शरीर के अंदर अपना रंग दिखा ही चुकी होगी!

लेकिन फिर भी एक शुरूआत करने में क्या बुराई है ... अगर कोई एक बोतल से एक पैग पर आ जाए तो यह एक खुशख़वार बात तो है ही ....लेकिन सोचता हूं कि क्या यह कर पाना इतना आसान है ?  नहीं न, आप को लगता है कि यह इतना आसान नहीं है तो फिर क्यों न हमेशा के लिये इस ज़हर से दूर ही रहा जाए........ हां, अगर कोई इस रिपोर्ट को पढ़ कर डेली-ड्रिंकिंग को जस्टीफाई करे तो करे, कोई फिर क्या करे  ?
इसे भी देखियेगा ...
थोड़ी थोड़ी पिया करो ? 
Alcohol in moderation 'can help prevent heart disease' (BBC Story)




रविवार, 20 फ़रवरी 2011

हैपेटाइटिस-सी के बारे में सब को जानना आखिर क्यों ज़रूरी है?

आज कल अकसर हैपेटाइटिस-सी के बारे में सुनते रहते हैं .. पहले जितना हैरतअंगेज़ हैपेटाइटिस बी के बारे में सुन कर लगता था, अब वही स्थिति हैपेटाइटिस-सी की है।

बड़ी समस्या यही है कि आज से कुछ साल पहले तक रक्त ट्रांसफ्यूज़न से पहले रक्त दान से प्राप्त रक्त की हैपेटाइटिस-सी संक्रमण के लिये रक्त की जांच होती नहीं थी। यह जांच तो अमेरिका में ही नवंबर 1990 में शुरू हुई थी.... जहां तक मुझे ध्यान आ रहा है सन् 2000 तक इस के बारे में भारत चर्चा तो गर्म हो चुकी थी कि रक्त दान से प्राप्त रक्त की हैपेटाइटिस सी के लिये भी जांच होनी चाहिये।

मैंने आज सुबह यह जानकारी नेट पर सर्च करनी चाही कि वास्तव में भारत में यह टैस्टिंग कब से शुरू हुई लेकिन मुझे कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं मिली... इस के बारे में ठीक पता कर के लिखूंगा। मेरा एक बिल्कुल अनुमान सा है कि शायद पांच-सात पहले यह टैस्टिंग नहीं हुआ करती थी.... लेकिन फिर भी कंफर्म कर के बताऊंगा।

इतना तो है कि जो रक्त जनता को ब्लड-बैंक से पांच सौ रूपये में मिलता है उस की तरह तरह की टैस्टिंग के ऊपर सरकार का लगभग 1400 रूपये तो टैस्टिंग का ही खर्च आ जाता है ... एचआईव्ही, हैपेटाइटिस बी, सी , मलेरिया, व्ही.डी.आर.एल टैस्ट आदि ये सब टैस्ट किये जाते हैं।

हां, तो भारत में भी आज से कुछ साल पहले तक जो रक्त लोगों को चढ़ता रहा है उस की हैपेटाइटिस सी जांच तो होती नहीं थी... और प्रोफैशनल रक्त दाताओं की भी समस्या तो पहले ही रही है जिन में से कुछ नशों के लिये सूईंयां बांट लिया करते थे। गांवो-शहरों के नीम हकीम बिना वजह संक्रमित सूईंयों से दनादन इंजैक्शन बिना किसी रोक-टोक के लगाये जा रहे हैं, झोलाछाप डाक्टर सीधे सादे आम आदमी की सेहत के साथ खिलवाड़ किये जा रहे हैं... देश में जगह जगह संक्रमित औज़ारों से टैटू गुदवाने का शौक बढ़ता जा रहा है.... ऐसे में कोई शक नहीं कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हें यह नहीं पता कि वे अन्य रोगों के साथ हैपेटाइटिस सी से संक्रमित हो सकते हैं।

हैपेटाइटिस सी ऐसी बीमारी है जिसके 20-30वर्ष तक कोई भी लक्षण नहीं हो सकते ...लेकिन लक्षण नहीं तो इस का यह मतलब नहीं कि यह वॉयरस शरीर में गड़बड़ नहीं कर रही। अब जिन लोगों को बहुत वर्षों पहले रक्त चढ़ा था या ऐसे ही कहीं किसी भी जगह से कोई टीका आदि लगवाया था या टैटू आदि गुदवाया था, मेरे विचार में ऐसे सभी लोगों को चाहे कोई तकलीफ़ है या नहीं, अपना हैपेटाइटिस सी टैस्ट तो करवा ही लेना चाहिये ... लेकिन अपने फ़िज़िशियन से बात करने के बाद.. शायद वह आप को कोई अन्य भी करवाने के लिये कहें, इसलिये सब एक साथ ही हो जाए तो बेहतर होगा।

और अगर टैस्ट पॉज़िटिव है भी तो हौंसला हारने की तो कोई बात है नहीं .... नईं नईं रिसर्च रिपोर्टे आ रही हैं कि इस पर भी कैसे कंट्रोल पाया जा सकता है। लेकिन सब से ज़रूरी बात है कि अगर हैपेटाइटिस सी का टैस्ट पाज़िटिव भी आया है तो उस से संबंधित सभी टैस्ट किसी कुशल फ़िज़िशियन अथवा गैस्ट्रोएंट्रोलॉजिस्ट ( पेट की बीमारियों के विशेषज्ञ) की सलाह अनुसार करवा कर उन की सलाह अनुसार (अगर वे कहें तो) दवाई का पूरा कोर्स भी ज़रूर कर लेना चाहिये। अभी अभी मैं एक रिपोर्ट पढ़ रहा था कि किस तरह इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है।
संबंधित जानकारी ....
New Hope for Hepatitis C






शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

टैटू गुदवाने से हो सकती हैं भय़ंकर बीमारियां

सुनते हैं कि पुराने ज़माने में टैटू गुदवाने का बड़ा शौक हुआ करता था.. और ये अपना नाम, अपने धर्म चिन्ह अथवा देवी-देवताओं की आकृतियां टैटू के रूप में गुदवाने का काम मेलों आदि में खूब ज़ोरों शोरों से हुआ करता था।

लगभग छः साल पहले हम लोग भी मुक्तसर में माघी का मेला देखने गये .. मुक्तसर शहर फिरोज़पुर से लगभग 50किलोमीटर दूर है और वहां का माघी का मेला बहुत प्रसिद्ध है। अन्य नज़ारों के इलावा वहां ज़मीन पर बैठे एक टैटू बनाने वाले को भी देखा.. वह 20-20, 30-30 रूपये में टैटू बनाये जा रहा था... जिसे जो भी आकृति चाहिये होती वह पांच मिनट में बनती जा रही थी।

कोई मशीन की साफ़ सफ़ाई का ध्यान नहीं, और यह संभव भी नहीं था। लेकिन लोग जो इस तरह का खतरनाक गुदवाने का काम करवाते हैं वे इस के संभावित दुष्परिणामों से अनभिज्ञ होते हैं ... यह उन्हें एचआईव्ही, हैपेटाइटिस बी एवं सी जैसी बीमारियां दे सकता है। मैं अकसर ऐसे मौकों पर सोचता हूं कि इस तरह के धंधे कब तक चलते रहेंगे .. या तो लोग ही इतने जागरूक हो जाएं कि इस सब के चक्कर में न पड़ें, वरना सरकारी तंत्र को मेलों आदि से इस तरह की “कलाओं” को दूर रखना चाहिये।

मुझे आज इस का ध्यान इसलिये आया क्योंकि सुबह मैं msnbc की साइट पर एक न्यूज़-स्टोरी देख रहा था जिस में बताया गया था कि जर्मनी में टैटू बनाने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली स्याही में विषैले तत्व पाये गये जिस से चमड़ी का कैंसर तक होने का खतरा मंडराने लगता है। मैंने भी आज तक टैटू के अन्य नुकसान दायक पहलूओं के बारे में ही सोचा था ...और आज उस में एक बात और जमा हो गई है ...इस में इस्तेमाल की जाने वाली स्याही।

और एक बात ...अगर जर्मनी जैसे देश में ऐसी बात सामने आई तो आप स्वयं सोच सकते हैं कि हमारे देश में फुटपाथ पर बैठ कर इस तरह का धंधा करने वाले कैसी स्याही इस्तेमाल करते होंगे।

एक तो हिंदी प्रिंट मीडिया भी लोगों को बहुत उकसाता है... कुछ दिन पहले मैंने एक दूध की डेयरी पर पड़ी एक हिंदी की अखबार देखी.. उस में होठों के अंदर की तरफ़ विभिन्न आकर्षक आकृतियां गुदवाने के बारे में बताया गया था। और साथ में एक रंगीन तस्वीर भी छपी थी ... मैंने उस लेख को इसलिये पढ़ा क्योंकि मैं यह जानना चाहता था कि क्या इस से भयंकर बीमारियां होने के खतरे के बारे में कुछ लिखा गया है ...नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं लिखा गया था।

बात वही है, अब लोगों को स्वयं जागरूक होना होगा.. ये सब मुद्दे बेहद अहम् हैं .. लेकिन अखबारों के अपने मुद्दे हैं, उन की अपनी प्राथमिकताएं हैं.... क्योंकि उस लिप-टैटू के नुकसान बताए जाने से कहीं ज़्यादा उस अखबार ने एक लंबी-चौड़ी खबर के द्वारा पाठकों को यह बताना ज्यादा ज़रूरी समझा कि किस तरह से दस साल से बिना शादी के रहने वाले दो फिल्मी कलाकार अब अलग हो गये हैं.... अब हो गये हैं तो हो गये हैं, इस से आमजन को क्या लेना देना, यार, आम आदमी के सरोकारों की बात कौन करेगा ?

वैसे एक बात है कि ये जो बच्चे धुल जाने वाले टैटू को कभी कभी लगा कर अपना शौक पूरा कर लेते हैं, वही ठीक है। पता नहीं ना कि अब इस में कंपनियां किस तरह का कैमिकल इस्तेमाल करती होंगी, लगता है कि इस तरह के सभी शौंकों से दूर ही रहने में समझदारी है।



शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

तंबाकू उत्पादों के प्लास्टिक पाउचों में बिकने पर प्रतिबंध

आज मुझे दा हिंदु में यह खबर पढ़ कर बहुत खुशी हुई .. Plea for postponing ban on tobacco products in plastic pouches rejected. वैसे तो आज छुट्टी का दिन था, बिल्कुल आलसी सी सुबह ...लेकिन यह खबर पढ़ कर इतनी ताज़गी महसूस हुई कि सोच में पढ़ कर अगर खबर से ही इतनी खुशी मिली है तो 1 मार्च से जब यह प्रतिबंध लागू हो जायेगा तब मैं अपनी खुशी को कैसे संभालूंगा !

नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक हैल्थ ने एक विस्त्तृत रिपोर्ट में कहा है कि भारत में मुंह के कैंसर के लगभग 90 प्रतिशत केस तंबाकू के विभिन्न उत्पादों की वजह से होते हैं और खौफ़नाक बात यह भी है कि अब स्कूली बच्चे भी इस लत की चपेट में आ चुके हैं।

अच्छा एक बात है कि आप शायद सोच रहे होंगे कि अब ये सब उत्पाद प्लास्टिक पाउच में नहीं बिकेंगे, इस से भला मैं क्या इतना खुश हूं ... तो जानिए ......

  • -- सब से पहले तो यह है कि जब इतना प्लास्टिक इस तरह के उत्पादों की पैकिंग के लिेये इस्तेमाल नहीं होगा तो अपने आप में यह एक पर्यावरण के संरक्षण के लिये अनुकूल कदम है। इस तरह का नियम बनाने वालों को हार्दिक बधाई। 
  • -- ऐसा मैंने कहीं पढ़ा था कि प्लास्टिक पाउच की वजह से कुछ ऐसे तत्व भी इन उत्पादों में जुड़ जाते हैं जो कि इन के हानिकारक प्रभाव और भी बढ़ा देते हैं। ( अगर पैकेट पर पहले ही से लिखा है कि इस के इस्तेमाल से कैंसर होता है तो फिर किसी तरह के अन्य विष के जोड़ने की  कोई गुंजाइश रहती है क्या? ) 
  • -- इस खबर से खुशी मुझे इसलिये भी हुई है कि मुझे ऐसा लगता है कि अब इस तरह के "ज़हर" ( जो किसी की जान लेने की क्षमता रखते हैं, वे ज़हर नहीं तो और क्या हैं !) ..बड़े पैकेटों में नहीं बिकेंगे... और अगर बिकेंगे तो रोज़ाना क्लेश होंगे क्योंकि कागज के पाउच की वजह से रोज़ाना नईं नईं कमीज़ें खराब हुआ करेंगी और रोज़ाना बहन, मां, बीवी की फटकार कौन सहेगा? शायद इस की वजह से ही यह आदत कुछ कम हो जाए...
  • -- मेरे बहुत से मरीज़ अपनी ओपीडी स्लिप जब तंबाकू के किसी खाली पाउच में से निकाल कर मुझे थमाते हैं तो मुझे लगता था कि वे मुझे चिढ़ा रहे हों कि देखो भाई, हम तो इस तंबाकू ब्रांड के ब्रांड अम्बैसेडर हैं.... अब कहां से वे अपने कागज़, नोट आदि इस तरह के प्लास्टिक के पाउचों में रख पाएंगे.... एक तरह से यह भी एक विज्ञापनबाजी थी जो पब्लिक स्थानों पर बंद हो जायेगी, इसलिये भी मैं बहुत खुश हूं। 
वैसे मैं उन्हें अकसर कह ही दिया करता हूं कि यार, अपने एक फटे पुराने कागज़ की इतनी फिक्र करते हो और जो शरीर रोज़ाना धीरे धीरे तंबाकू की बलि चढ़ता जा रहा है, इस के बारे में कभी सोचा है?

एक समस्या है अभी अभी... रोज़ाना देखता हूं कि कुछ कालजिएट मोटरसाईकिल सवार युवक जो किसी पनवाड़ी की दुकान पर रूकते हैं और बिंदास अंदाज़ में एक नहीं, गुटखे के दो दो पाउच बड़े टशन के अंदाज़ में मुंह में उंडेलते ही बाइक पर किक मारते ही उड़ने लगते हैं, इन को शायद पैकिंग से कोई फर्क नहीं पड़ेगा... प्लास्टिक में हो या कागज़ में, इन्हें तो बस "किक" से मतलब है।

मैं तंबाकू के कोहराम पर कुछ लेख लिख चुका हूं , कभी फुर्सत हो तो एक नज़र मार लीजिए।

वैसे इस खबर से खुशी इस बात की भी है कि इस तंबाकू रूपी कोहराम के तालाब में किसी ने पत्थर मार के रिपल्ज़ (ripples...तरंगे) तो पैदा कीं .... अब देखते हैं इस उथल-पुथल से, इस झनझनाहट से कितना फ़र्क पड़ता है ... कुछ भी हो, एक अच्छी शुरूआत है , एक सराहनीय पहल है... After all, a journey of three thousand miles starts with the first step ! काश, किसी दिन ऐसी ही सुस्ताई सुबह को यह खबर भी मिले कि तंबाकू के सभी उत्पादों पर प्रतिबंध लग गया है... न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी .... क्यों नहीं हो सकता? सारी दुनिया आस पर ही तो टिकी हुई है !!

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

पान से भी होता है पायरिया

इस 26वर्षीय युवक के मुंह की तस्वीर से यह दिख रहा है कि इसे पायरिया रोग है— डाक्टरी भाषा में इसे Chronic gingivitis कहते हैं.. इस की परेशानी यह है कि वह जब भी ब्रुश करता है तो उस के मसूड़ों से रक्त निकलने लगता है। पायरिया रोग का यह एक अहम् लक्षण है, अन्य लक्षण जो इस फोटो में देखे जा सकते हैं ..

सूजे हुये मसूड़े जिन का रंग लाल हो चुका है
दांतों पर टॉरटर जमा हुआ है
नार्मल मसूड़ों में एक फीचर – stippling – इस के मसूड़ों से गायब है, इस का मतलब यह है कि सामान्य मसूड़े को देखने पर उनका टैक्श्चर बिल्कुल संतरे के छिलके जैसा लगता है, जो कि पायरिया में गायब हो जाता है..


यह युवक पहले तो कह रहा था कि वह रोज़ाना एक तंबाकू वाला पान पिछले छःमहीने से खा रहा है ..लेकिन मेरे बार बार पूछने पर फिर कहने लगा कि शायद एक साल ही हो गया होगा। लेकिन मुझे लगता नहीं कि पान केवल एक साल में ही इतनी गड़बड़ कर सकता है, मैं जजमैंटल नहीं हो रहा हूं लेकिन मेरा अनुभव बता रहा है कि यह लंबे समय से यह तंबाकू वाला पान खा रहा होगा।

वैसे उस ने पिछले एक सप्ताह से पान खाना छोड़ दिया है ... मुझे कईं बार लगता है कि जैसे रेल का टी टी दिन में कईं बार सुनता है कि ओह...ओह ...मेरी टिकट कहां गई?  किसी ने पर्स उड़ा लिया है ... टिकट तो मेरे पास ही थी.....उसी तरह हम लोग भी यह तंबाकू, गुटखा, पान, ज़र्दा के बारे में यह सुन सुन कर पक चुके हैं ..पहले खाता था, अब तो छोड़ चुके हैं! 

लेकिन हमारी यही कोशिश होती है कि कोई बात नहीं, आज के बाद तुम्हारे  मन में इन ज़हरीले पदार्थों के प्रति इतनी नफ़रत पैदा हो जाएगी कि तुम इन्हें देखोगे भी नहीं ... और अकसर मैं तो इस मिशन में कामयाब हो ही जाता हूं ..क्योंकि मुझे लगता है कि अगर मेरी हार होगी तो तंबाकू लॉबी की जीत हो जायेगी .....एक इंसान या यूं कह लें कि एक परिवार बरबाद हो जायेगा क्योंकि देर-सवेर कब यह आदत मुंह के कैंसर की खाई में धकेल देगी पता भी नहीं चलेगा और जब पता चलेगा भी तो बहुत देर हो चुकी होगी !!

दूसरी तस्वीर में आप देख सकते हैं कि उस के नीचे के अंदर वाले दांतों के अंदर भी कितना टॉरटर जमा हुआ है। इस का इलाज तो आसान है ही.. लेकिन उस के साथ साथ यह भी बेहद ज़रूरी है कि उस लत को हमेशा के लिये लात मार दी जाए जिस की वजह से यह सब हुआ। कह तो वह युवक भी रहा था कि अब तो पान को हाथ नहीं लगाऊंगा.और कह रहा था कि पिछले चार पांच वर्ष से वह रोज़ाना एक सिगरेट पीता है आज से वह भी छोड़ देगा।

जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि जितनी भयानक यह तकलीफ़ दिखती है उतनी है नहीं, इस उम्र में इस अवस्था का इलाज बिल्कुल आसान है लेकिन आगे से उसे सुधर जाना होगा।

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर-ट्रीटमैंट का कुचक्र.. 3.(concluded)

अगर बीते ज़माने के चिकित्सकों के पास ऐसा हुनर था कि वे नब्ज़ पर हाथ रख कर किसी की शारीरिक एवं मानसिक हालत का पता लगा लिया करते थे तो क्या आज के चिकित्सक के पास यह क्षमता ही नहीं है ?

चिकित्सा क्षेत्र भी बाज़ारवाद से अनछुआ नहीं रह पाया और यह संभव भी नहीं था। जब महिलाओं के लिये बोन-स्कैन (हड्डी स्कैन) आदि के लिये कैंप आदि लगते हैं तो मुझे यह सब देख कर बड़ा अजीब सा लगता है कि जहां पर अधिकांश महिलायें ढंग का खाना तो खा नहीं पातीं, ऐसे में इन की हड्डीयों का स्कैन करने से क्या हो जाएगा?  महिलाओं में रक्त की कमी तो सालों-साल दूर होती नहीं और ये बोन-स्कैन .....।

बात क्लोरोक्विन से भी कड़वी है लेकिन अब है तो है ... इस से कैसे मुंह फेर लें .. चिकित्सा क्षेत्र में बड़ी बड़ी मशीनें आ गई हैं तो उन पर जंग तो कोई लगने नहीं देगा, खूब पैसा लगा है उन पर, इसलिये टैस्ट तो होंगे ही ... अब कौन सा टैस्ट ज़रूरी है और कौन सा नहीं, इस प्रश्न का उत्तर अगर पश्चिमी देशों में निरंतर ढूंढा जा रहा है तो हमारी तो बात ही छोड़ दें....यह एक विकराल समस्या तो है ही जैसा कि इस से पहली दोनों पोस्टों में यह डिस्कस किया जा चुका है।

आज आम आदमी भी ऐसा ही सोचने लगा है कि पांच-सितारा होटलों जैसी सुविधाओं से लैस टनाटन हास्पीटल खुल तो गये हैं ... खैरात बांटने के लिये तो खुले नहीं, इन के बिस्तरों पर सड़कछाप आम  आदमी तो सुस्ताने से रहा ... अब इन अस्पतालों में महंगे महंगे आप्रेशन होंगे, भारी भरकम पर्स वाले इन के बैडों पर कुछ दिन स्वास्थ्य लाभ पाएंगे, भारी भरकम बिल आएंगे तो बात बनेगी ......वरना, ये तो बंद पड़ जाएंगे।

हां, तो बात हो रही थी चिकित्सक के हुनर की ... अब चर्चा होने लगी है कि लगातार प्रगति करती तकनीकों की वजह से चिकित्सक एवं मरीज़ के संबंध पहले जैसे नहीं रहे, काफ़ी कमज़ोर पड़ गये हैं। ताली एक हाथ से नहीं बजती ...उसी तरह न तो मरीज़ के पास टाइम है, उस के अपने फंडे हैं, वह सोचता है कि धन के बलबूते पर वह सब कुछ खरीद लेगा ..महंगे से महंगा इलाज करवा लेगा ...लेकिन ज़रूरी नहीं कि महंगा इलाज ही उस के लिये उपर्युक्त हो और उस से सब कुछ ठीक भी हो जाए..।

सारा सिस्टम इस तरह का हो गया है कि कईं बार लगता है कि चिकित्सकों के पास भी पहले ज़माने के चिकित्सकों की तरह समय नहीं है, और इस में केवल उन का दोष नहीं है ... एक एक दो दो मिनट में मरीज़ “निपटाएं जाएंगें” तो फिर न तो मरीज़ की ही संतुष्टि होती है और न ही डाक्टर की प्रोफैशनल संतुष्टि... अकसर देखने में आता ही है कि अब मरीज़ के साथ पंद्रह मिनट बिताने की फुर्सत कहां? …..क्या कहा, फुर्सत ही फुर्सत है, डाक्टर लोग इतना समय आराम से दे देते हैं, तब तो बहुत बढ़िया बात है।

कहने को तो हम कह देते हैं कि पहले चिकित्सक बहुत लायक हुआ करते थे .. हों भी क्यों न? उन्हें अपने मरीज़ों की शारीरिक अवस्था के साथ साथ पारिवारिक, सामाजिक, मानसिक, आर्थिक, पारस्परिक संबंधों, और भी जितनी अवस्थायें हो सकती हैं, उन सब का ज्ञान होता था। ऐसे में वे मरीज़ का होलिस्टिक इलाज (holistic health care)  कर पाते थे क्योंकि वे अंदर की भी सभी बातें जानते थे, अब सब कुछ हो गया.... छिन्न छिन्न, ऐसे में किसी भी चिकित्सक से कहां वैसे हुनर की अपेक्षा की जा सकती है। ज़रूर होंगे ऐसे भी चिकित्सक कहीं तो लेकिन सुना है उन की संख्या नित-प्रतिदिन घटती जा रही है।

यह पोस्ट लिखते मुझे ध्यान आ रहा है कि आखिर दोष किस का है? मरीज़ का, डाक्टर का, समाज का, सामाजिक व्यवस्था का, बाज़ारवाद का, आधुनिकता की बेतहाशा अंधी दौड़ का, हमारे लगातार बिगड़ते सामाजिक संबंधों का, धार्मिक असहिष्णुता का ........ यकीनन दोष इन सब का ही है, केवल यह कहना कि डाक्टर अपनी जगह पर ठीक हैं, मरीज़ अपनी जगह पर ठीक हैं......इतना कह देना ही काफ़ी नहीं है...क्योंकि किसी भी समाज का स्वास्थ्य ऐसी अनेकों बातों पर भी निर्भर करता है जिन का मैडीकल क्षेत्र से कुछ लेना देना होता ही नहीं है। यह एक जटिल एवं विषम मुद्दा है ...जो भी है, एक अभिलाषा है कि कम से कम यह क्षेत्र बाज़ारवाद की मार से बच पाए....।

पोस्ट समाप्त करते करते ध्यान आ रहा है हमारे एक महान् प्रोफैसर का जो अकसर हमें कहा करते थे ... Listen to the patient, he is giving you the diagnosis ! (मरीज़ को ध्यान से सुना करो, वह अपना डॉयग्नोसिस स्वयं तुम्हें बता रहा होता है) ……और आज भी चिकित्सक पूर्णतयः सक्षम है ....क्या आप को पता है कि चिकित्सक किसी भी मरीज़ की बीमारी का पता यह देख कर लगाना शुरू कर देता है कि मरीज़ किस ढंग से चल कर उस के कमरे में आया है, मरीज़ का चेहरा, उस की सांसों की महक, उस की चमड़ी की हालत, उस के हाथों का तापमान.......अनेकों अनेकों तरीके हैं मंजे हुये चिकित्सक के पास उस की तकलीफ़ ढूंढने निकालने के लिये .....लेकिन इस सब के लिये उस के हाथों को छूना भी पड़ेगा, उस के कंधे पर हाथ भी रखना होगा, ज़रूरत पड़ने पर उस का पेट को हाथ भी तो लगाना होगा......इस का जवाब मैं आप के ऊपर छोड़ता हूं कि क्या यह सब उतने अच्छे ढंग से हो पाता है जहां बीसियों मरीज़ों लाइन में अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे होते हैं और साथ में उन की टिप्पणी बार बार चिकित्सक के कान में पड़ती रहती है ... यह डाक्टर नया है क्या ? इतना समय लगता है क्या दवाई लिखने में ?

सच्चा कौन है –डाक्टर या मरीज़? --इस पोस्ट का उद्देश्य केवल एक बात को रेखांकित करना है कि ताली दोनों हाथों से बजती है, ज़रूरत है समाज के सभी अंगों को अपने आप को टटोलने की....... बस, मुझे अभी इतना ही कहना है, अगर आप के मन में भी कुछ बातें हैं तो टिप्पणी में लिखियेगा।

ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर-ट्रीटमैंट का कुचक्र.. 2.

हां तो बात चल रही थी बिना वजह होने वाले सी.टी स्कैन एवं एम आर आई की .. यह सब जो हो रहा है हम पब्लिक को जागरूक कर के इसे केवल कुछ हद तक ही कम कर सकते हैं। मार्कीट शक्तियां कितनी प्रबल हैं यह आप मेरे से ज़्यादा अच्छी तरह से जानते हैं।

नितप्रतिदिन नये नये टैस्ट आ रहे हैं, महंगे से महंगे, फेशुनेबल से फेशुनेबल ... अभी दो दिन पहले ही अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने एक थ्री-डी मैमोग्राफी को हरी झंडी दिखाई है। वैसे तो अब मैमोग्राफी की सिफारिशें भी संशोधित की जा रही हैं ... वैसे भारत में तो यह समस्या (बार बार मैमोग्राफी करवाने वाली ) भारत में देखने को बहुत कम मिलती है ... क्योंकि विभिन्न कारणों की वजह से यहां महिलायें ये टैस्ट करवा ही नहीं पातीं... और विशेषकर वह महिलायें जिन्हें इन की बहुत ज़्यादा ज़रूरत होती है..... इन दिनों विदेशों में इस टैस्ट के बारे में भी गर्म चर्चा हो रही है ...और जिस उम्र में यह टैस्ट किया जाना शुरू किया जाना चाहिए अब उसे आगे बढ़ा दिया गया है ...

भारत में तो महिलायें अगर वक्ष-स्थल के नियमित स्वतः निरीक्षण (regular self-examination of breasts) के लिये भी जागरूक हो जाएं तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी ...ताकि समय रहते वे किसी भी गांठ को अपनी डाक्टर को दिखा कर शंका का निवारण कर सकें।

अब थोड़ी बात करते हैं ..पौरूष-ग्रंथी (prostate gland) के लिये किये जाने वाले टैस्टों के बारे में ...एक उम्र के बाद पुरूषों के नियमित चैक-अप में प्रोस्टेट ग्लैंड की सेहत पता करने के लिये भी एक टैस्ट होता है .. Prostate specific antigen. यह एक तरह की रक्त की जांच है और इस की वेल्यू नार्मल से बढ़ी होने पर कईं बार अन्य टैस्टों को साथ रख कर देखते हुये प्रोस्टेट ग्रंथी के कैंसर से ग्रस्त होने की आशंका हो जाती है और पिछले कुछ महीनों में यह इसलिये चर्चा में है क्योंकि इस टैस्ट के अबनार्मल होने की वजह से प्रोस्टेट के इतने ज़्यादा आप्रेशन कर दिये गये और बहुत से लोगों को तो कैंसर का इलाज भी दे दिया गया  ...लेकिन चिकित्सा वैज्ञानिकों ने बाद में यह निष्कर्ष निकाला कि केवल इस टैस्ट की वेल्यू बढ़ी होने से ही इस ग्रंथी के इलाज के बारे में कुछ भी निर्णय लेना उचित नहीं है। इसलिये अब प्रोस्टेट ग्लैंड की बीमारी जानने के लिेये दूसरे पैरामीटर्ज़ पर भी ज़ोरों-शोरों से काम चल रहा है।

अमेरिका में हर साल 10 लाख बच्चों के टोंसिल का आप्रेशन कर के उन के टौंसिल निकाल दिये जाते हैं...और इन की उम्र 15 वर्ष से कम की होती है...लेकिन अब ताज़ा-तरीन सिफारिश कह रही है कि नहीं, नहीं, मॉडरेट केसों के लिये यह टौंसिल निकालने का आप्रेशन बंद किया जाए ....

तो, ये तो थी केवल कुछ उदाहरणें ... बातें केवल यही रेखांकित करती हैं कि हम लोग कभी भी शैल्फ-डॉयग्नोसिस के चक्कर में न ही पड़ें तो ठीक है, वरना तो रिस्क ही रिस्क है। और आप देखिये कि मैडीकल साईंस में रोज़ाना बदलाव हो रहे हैं.... विभिन्न तरह के टैस्टों की, दवाईयों की, आप्रेशनों की सिफारिशें नये शोध के मद्देनज़र अकसर बदलती रहती हैं, ऐसे में अगर कोई समझ ले कि नेट पर सेहत के बारे में दो बातें पढ़ कर वह स्वयं कोई टैस्ट करवा लेगा और स्वयं भी अपनी तकलीफ़ का निदान और शायद चिकित्सीय उपचार भी ढूंढ ही लेगा, तो ऐसा सोचना एकदम फ़िजूल की बात है.... इस जटिल शरीर-प्रणाली को समझते जब डाक्टरों की उम्र बीत जाती है तो फिर आम जन कहां ....!! लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं कि सामान्य बीमारियों, जीवनशैली से संबंधित रोगों के बारे में अपना ज्ञान ही न बढ़ाया जाए .....यह बहुत ज़रूरी है, इस से हमें होलिस्टिक जीवनशैली (holistic lifestyle) अपनाने के बारे में सोचने का कम से कम अवसर तो मिलता ही है।
शेष ...अगली पोस्ट में..



ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर-ट्रीटमैंट का कुचक्र.. 1.

अभी पिछले कुछ दिनों में ओव्हर-डॉयग्नोसिस और उस के बाद बिना वजह इलाज के बारे में बहुत कुछ देखने को मिला। कुछ ही दिन पहले की बात है कि एक स्टडी का यह परिणाम सामने आया कि अमेरिका में हज़ारों लोगों के हृदय के ऐसे आप्रेशन ( heart devices) कर दिये गये जिन की उन्हें ज़रूरत ही नहीं थी।

एक अंग्रेज़ी की कहावत है...little knowledge is a dangerous thing! लोगबाग भी बस टीवी पर एक कार्यक्रम देख कर या अखबार में एक "एड्वर्टोरियल"(जिस विज्ञापन को एक खबर का रूप दे कर आप के सामने पेश किया जाता है) पढ़ कर तय कर लेते हैं कि हो न हो, यह जो सिरदर्द कईं दिनों से हो रहा है, यह किसी ब्रेन-ट्यूमर की वजह से हो सकता है।

डाक्टर के पास जाकर सीधा यह कहने वालों की गिनती में कोई कमी नहीं है कि वे सी.टी स्कैन अथवा एम.आर.आई करवाना चाहते हैं...डाक्टर लोग अपनी जगह अलग परेशान हो जाते हैं कि यह क्या माजरा है। और अगर कोई ऐसा न करवाने का मशविरा देता है तो क्या फर्क पड़ता है, कोई दूसरा तो लिख देगा। और शायद जिस मरीज़ ने पैसे स्वयं भरने हैं उन का वैसे ही स्वागत है ...किसी भी सेंटर में जाकर कुछ भी करवा के आ जाएं। और जिन संस्थाओं में यह खर्च सरकार द्वारा वहन किया जाता है, वहां पर भी विभिन्न कारणों की वजह से इस तरह के टैस्ट खूब हो ही रहे हैं। कईं बार सोचता हूं कि इस तरह की एक स्टड़ी होनी चाहिये जिस से यह पता चल सके कि जितने भी ये सीटी स्कैन, एम आर आई टैस्ट हुये इन में से कितनों की रिपोर्ट में कुछ गड़बड़ी आई .... और कितने केसों का आगे इलाज इन की रिपोर्ट के आधार पर हो पाया।

अब खूब लिटरेचर आ चुका है कि बिना वजह किये गये सी टी स्कैन आदि से किरणें हमारे शरीर में कितना नुकसान पहुंचा सकती हैं.... वैसे मैं यह भी सोचता हूं कि मरीज़ के स्वयं डाक्टर को सीटी स्कैन के लिये न कहने ही से क्या सब कुछ ठीक हो जायेगा......इस का जवाब तो आप जानते ही हैं। लेकिन मरीज़ों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे कभी भी डाक्टर को स्वयं इस तरह के टैस्टों के बारे में न कहें.... they are the best judge ...they know inside out of our systems!

चौंकने वाली बात तो यह है कि एमआरआई जैसे महंगे टैस्ट हो तो गये और बहुत बार इन में कोई unrelated changes (अनरिलेटेड बदलाव) दिख जाते हैं जिन का न तो वैसे पता ही चलता, और न ही इन की वजह से कभी तकलीफ़ ही होती और इसलिये इन का न ही कोई इलाज ही किया जाता ....लेकिन देख कर तो मक्खी कैसे निगली जाए...अब जब रिपोर्ट में आ जाए कि यह यह बदलाव अनयुयुल हैं तो फिर उन के इलाज के चक्कर में अकसर लोग पड़ जाते हैं या यूं भी कह लें कि इस तरह के चक्कर में डाल दिये जाते हैं। कल ही एक स्टडी देख रहा था कि यह जो लो-बैक के दर्द (low back pain) के लिये भी इतने एमआरआई हो रहे हैं इन की ज़रूरत ही नहीं होती।
बाकी अगली पोस्ट में ....




सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

दवा की पुड़िया लेना खतरनाक तो है ही !

हर रोज़ मेरी मुलाकात ऐसे मरीज़ों से होती है जो पुरानी बीमारियों से जूझ रहे होते हैं और देसी दवाईयां ले रहे होते हैं.. और देसी दवाईयां कौन सी ? जो कोई भी नीम हकीम पुड़िया बना कर इन लोगों को थमा देता है और यह लेना भी शुरू कर देते हैं।

मैं किसी भी मरीज़ द्वारा इन पुडि़यों के इस्तेमाल किये जाने के विरूद्ध हूं। उस के कारण हैं ...मैं सोचता हूं कि नामी गिरामी कंपनियों की दवाईयां तो कईं बार क्वालिटी कंट्रोल टैस्ट पास कर नहीं पाती, ऐसे में इन देसी दवाईयों का क्या भरोसा? आज कल तो अमेरिका जैसे देशों में भी कुछ तरह की ये देसी दवाईयां खूब चर्चा में हैं .... यहां जैसा तो है नहीं वहां पर, टैस्टिंग होती है और फिर पोल खुल जाती है।

दूसरा कारण यह भी है कि अकसर सुनने में आता है कि नीम-हकीमों को यह पता लग चुका है कि ये जो स्टीरॉयड नाम की दवाईयां हैं, ये राम बाण का काम कर सकती हैं ....बस इन लालची किस्म के लोगों ने इन दवाईयों को पीस कर इन पुड़ियों में मिला कर आमजन की सेहत से खिलवाड़ करना शुरू किया हुआ है। यह आज की बात नहीं है, यह सब कईं दशकों से चल रहा है।

दो दिन पहले एक महिला आईं ... उस का पति बताने लगा कि यह गठिया से ग्रस्त है ..मैंने कहा कि कोई दवाई आदि ? ...उस ने बताया कि इसे तो केवल एक देसी दवाई से ही आराम आता है ...उस से यह झट खड़ी हो जाती है .. मेरे पूछने पर उस ने बताया कि यह दवाई पुड़िया में मिलती है। मैंने उसे समझाया तो बहुत कि इस तरह की दवाई खाने के नुकसान ही नुकसान है , इस तो कईं गुणा बेहतर यही है कि आप इस के लिये कोई इलाज न ही करवाएं ...कम से कम बाकी के अंग तो बचे रहेंगे (कृपया इसे अन्यथा न लें)..

उस महिला का पति बता रहा था कि इसे न ही तो ऐलीपैथिक और न ही होमोपैथिक, आयुर्वैदिक दवा ही काम करती है .. और यह पुड़िया पिछले कईं सालों से खा रही है। अब जिस पुड़िया में स्टीरॉयड मिले हों, उस के आगे दूसरी दवाईयां क्या काम करेंगी .... लेकिन ये देसी दवाईयां स्टीरॉयड युक्त सारे शरीर को तहस-नहस कर देती हैं ... जोड़ों का दर्द तो दूर इन से कुछ भी ठीक नहीं होता, ये तो केवल क्वालीफाइड डाक्टरों के द्वारा इस्तेमाल करने वाली दवाईयां हैं।

और प्रशिक्षित डाक्टर भी इन दवाईयों को मरीज़ों को देते समय बहुत सावधानी बरतते हैं। इन दवाईयों को लेने की एक विशेष विधि होती है ...जो केवल प्रशिक्षित एवं अनुभवी डाक्टर ही जानते हैं।

मैं अकसर मरीज़ों को कहता हूं कि अगर आप को देसी इलाज ही करवाना है तो करवाएं लेकिन उस के लिये प्रशिक्षित डाक्टर हैं --होम्योपैथी में , आयुर्वेद प्रणाली के चिकित्सक हैं , वे आप को ब्रांडेड दवाईयां लिखते हैं ...अच्छी कंपनियों की दवाई लें और अपनी सेहत को दुरूस्त करें।

नीम हकीमों द्वारा पुड़िया में स्टीरायड नामक दवाईयां मिलाने की बात के इलावा मैंने बहुत बार ऐसा देखा है कि कुछ कैमिस्ट मरीज़ को तीन-चार तरह की जो खुली दवाईयां थमाते हैं उन में भी एक छोटी सी टेबलेट स्टीरायड की ही होती है ...मरीज़ का बुखार जाते ही टूट गया और कैमिस्ट हो गया सुपरहिट ....चाहे वह उसे स्टीरायड खिला खिला कर बिल्कुल खोखला ही क्यों न कर दे।

कुछ चिकित्सक अपने मरीज़ों को खुली टेबलेट्स, खुले कैप्सूल देते हैं, मुझे इस में भी आपत्ति है, जब स्ट्रिप में, बोतल में बिकने वाली दवाईयां नकली आ रही हैं, रोज़ाना मीडिया में देखते पढ़ते हैं न, तो फिर इस तरह से खुले में बिकने वाली दवाईयों की गुणवत्ता पर सवालिया निशान क्यों नहीं लगता ?

बस ध्यान केवल इतना रहे कि पुड़िया थमाने वालों से और इस तरह की पुड़िया से दूर ही रहने में समझदारी है ... वरना तो बस गोलमाल ही है। लेकिन क्या मेरे लिखने से आज से पुड़िया खानी बंद कर देंगे .. देश की अपनी समस्याएं हैं ..गरीबी, अनपढ़ता, जनसंख्या का सुनामी.....अनगिनत समस्याएं हैं, मैंने भी यह लिखते समय  एक ऐसे कमरे में जहां घुप अंधेरा है, वहां पर एक सीली हुई दियासिलाई सुलगाने का जुगाड़ कर रहा हूं.... कभी तो इस गीली तीली में भी आग लगेगी.. जागरूकता का अलख जग के रहेगा , कोई बात नहीं, मैं इंतज़ार करूंगा।