यह माला मेरी बहन द्वारा हर 31 मार्च को तैयार कर के एक कागज के लिफाफे में डाल कर मुझे थमा देती थीं.....क्योंकि मुझे यह माला अपने प्राइमरी स्कूल के हैड-मास्टर के गले में डालनी होती थी। जिस स्कूल में मैं पढ़ता था वहां पर फिक्स था कि रिजल्ट 31मार्च को ही आता था और मैं वहां पर चौथी कक्षा तक पढ़ा हूं। इसलिये मुझे यह भी अच्छी तरह से याद है कि मेरी बड़ी बहन किस तरह चाव से सुबह सुबह माला तैयार किया करती थीं। जिस प्यार से, जिस भावना से वह सूईं धागे में एक एक फूल पिरो कर माला बनाती थीं वह मुझे सारी उम्र याद रहेगी....और मुझे उस के कंपैरीज़न में ये बुके वुके के स्टाल कितने नकली, भद्दे, कितने औछे, कितने मतलबी, कितने आर्टीफिशियल , कितने मतलबी से, कितने सैल्फिश से, कितने बेकार से लगते हैं.......उस बहन की पिरोई हुई माला की बात ही कुछ और थी। इसलिये शायद मैंने कभी भी ये बुके-वुके खरीदे नहीं हैं....क्योंकि मुझे इन सब में इतना नकलीपन लगता है कि मैं लिख नहीं सकता। मेरा पक्का विश्वास है कि ये हम लोग एक दूसरे को नहीं देते....एक दूसरे के औहदे को, एक दूसरे की पोजीशन को, एक दूसरे से हमें कितना काम पड़ सकता है ...इन सब को तराजू में रख कर ही यह तय करते हैं कि हम कौन सा बुके किस के लिये ले कर जायेंगे। आप के विचार इससे जुदा हो सकते हैं !
अच्छा तो मैं उस फूलों वाली माला की बात कर रहा था। इस समय भी हमारे घर में गुलाब के फूलों की बहार आई हुई है, लगभग 20-25 पौधे हैं जिन पर ढेरों गुलाब के फूल हर आने-जाने वाले को हर्षोल्लास से भर देते हैं।
हुया यूं कि इस साल बसंत के कुछ दो-चार दिन पहले ही हम ने माली को कहा कि ये जो गुलाब के फूल हैं ये बहुत ऊंचे हो गये हैं, इन की थोड़ा कटिंग कर देना। कह कर हम अपने अपने काम में बिज़ी हो गये....लेकिन कुछ समय बाद क्या देखते हैं कि ये चार-चार पांच पांच फुट की ऊंचाई वाले पौधे उस ने काट कर बिल्कुल ही छोटे छोटे काट दिये हैं .....इन्हें देख कर मेरा मन बहुत दुःखी हुया ...यही लगा कि क्यों नहीं माली के सामने खड़े रहे। लेकिन माली ने कहा कि कटिंग तो इसी तरह की ही बढ़िया होती है ...आप देखना ये अब कितना फैलेंगे। लेकिन मन ही मन कुछ दिन बुरा सा लगता रहा।
लेकिन यह क्या....कुदरत का करिश्मा देखिये....काटने के कुछ ही दिनों बाद ही ...शायद बसंत पंचमी के दो-चार दिन बाद ही इन गंजे पौधे पर छोटी छोटी पत्ते दिखने लग गये...जिन्हें देख कर मेरी तो बांछे खिल गईं क्योंकि मुझे तो इन गुलाब के फूलों से बेहद प्यार है। कुछ ही दिनों में ये इतने तेज़ी से फैल गये कि अब ये गुलाब के फूलों से भरे पड़े हैं.........जिन्हें देख कर मन बहुत खुश होता है।
जाते जाते यही सोच रहा हूं कि हम लोग जब बच्चे थे तो हम लोगों के मन में अपने टीचर्ज़ के प्रति बहुत सम्मान हुया करता था....किसी भी तरह से हम इन गुमनाम हस्तियों को अपने मां-बाप से कम नहीं मानते थे.....और इस समय सोचता हूं कि इस प्रकार के संस्कार मेरे जैसे नटखट बालकों के मन में भरने के लिये शायद जैसे मेरी बहन जैसी इस देश की करोड़ों बहनों ने पता नहीं कितनी गुलाब की मालायें तैयार की होंगी। आज भी जब अपने टीचरों के चेहरे मन की आंखों के सामने घूमते हैं तो अपने आप को इन हस्तियों के अहसानों तले इतना दबा पाता हूं कि कह नहीं सकता....यह सोच कर आंखें नम हो जाती हैं कि मुझ जैसे गीली मिट्टी को भी इन टीचर रूपी फरिश्तों ने कहां का कहां पहुंच दिया......साथ में आज का माहौल देख कर एक अभिलाषा भी मन में उठती है कि काश ! आज का शागिर्द भी अपने गुरू को भी उतना ही सम्मान देने लग जाये।
2 comments:
डॉ. साहब, आप की पोस्ट से पूरी सहमति है। मैं पेशे से वकील हूँ। मगर परिवार में आयुर्वेदिक चिकित्सक होने के कारण मुझे आयुर्वेदिक चिकित्सक बनाने की कवायद हुई थी। उसी दौर में अध्ययन हुआ जो शौकिया तौर पर आज तक जारी है। बाद में परिवार को होमियोपैथी रास आयी, और आयुर्वेद के मेरे गुरूजी ने उसे बढ़ावा भी दिया,यहाँ तक कि खुद को कोई रोग होने की स्थिति में मुझ से दवा सुझाने और ला कर देने को कहते। उसे लेते और फिर उस का असर भी बताते।
आप का यह सुझाव बहुत सही है कि आयुर्वेदिक मंजन या पेस्ट के नाम पर बहुत धोखाधड़ी हो रही है। इस कारण से किसी विश्वसनीय निर्माता द्वारा निर्मित ही काम में लिया जाए या स्वयं का बना हुआ ही, इस से भी सहमत हैं। एक बात और, लोगों की जीवन चर्या ऐसी हो गयी है कि वे तुरत फुरत सब काम निपटा लेना चाहते हैं खाने से लेकर दाँत साफ करने तक के। एक औषध युक्त मंजन/पेस्ट भी यदि मुंह में केवल एक-दो मिनट ही रहा तो उस का कोई अर्थ नहीं। यदि इसे हल्के से एक मिनट रगड़ा जा कर कम से कम दो मिनट और मुंह में रखा जाय और पुनः रगड़ कर मुँह साफ कर लिया जाए तो अच्छे परिणाम देता है। इस के अलावा नित्य एक बार शीशे में मुंह देखते हुए यह तसल्ली कर लेना भी आवश्यक है कि कोई असामान्यता तो वहाँ नजर नहीं आ रही है। यदि है और दो-चार दिन बनी रहती है तो तुरंत चिकित्सक को दिखाना ही चाहिए।
तम्बाकूयुक्त मंजनों का तो बुरा हाल है। इधर एक-दो निर्माता करोड़ पति हो गए हैं अरबपति की ओर बढ़ रहे है। उन के मंजन से एडिक्शन उत्पन्न होता है। और कस्बों में छतें मंजन से लाल हो गयी हैं। लोग पाँच-पाँच बार मंजन करने लगे हैं उसके बिना चैन कहाँ।
डॉक्टर साहब, मैंने तो सुना था कि फ़्लोराइड युक्त पेस्ट खतरनाक होते हैं, और उन्हें तभी प्रयोग करना चाहिए जब कोई डॉक्टर बताए, वह भी केवल सीमित समय के लिए। इस बात में कहाँ तक सचाई है? कृपया बताएँ। एक बात और, कि दातुन करने से चबाने की क्रिया के द्वारा दाँतों का व्यायाम हो जाता है, शहरों में दातुन दुर्लभ होता है। क्या यह व्यायाम ज़रूरी है ? यदि हाँ तो दातुन की अनुपस्थिति में दूसरा क्या जरिया हो सकता है। तीसरी बात, कि डॉक्टर को दिखाने पर वह पूरे दाँत की सफ़ाई करवाने की सलाह देता है। मैंने कहीं पढ़ रखा है कि सफ़ाई कराने से दाँतों की ऊपरी रक्षात्मक परत कमज़ोर हो जाती है जिससे बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए डर भी लगता है कि कहीं डॉक्टर अपनी कमाई के जुगाड़ में हमारा नुकसान न कर दे। बुरा न मानें लेकिन डॉक्टरों की इमेज इन दिनों वकीलों जैसी बन गई है जो मुकदमा जानबूझकर लटकाते जाते हैं। ऐसा अच्छा और विश्वसनीय डॉक्टर जिसकी प्राथमिकता मरीज़ को कम से कम चूना लगाए ठीक करने की हो, वह कहाँ मिलेगा?
खैर, शरीर की बीमारियों के मामले में हम सभी के मन में कई बुनियादी सवाल हैं जिनका जवाब हमें नहीं मिलता है। बीमारी शुरू होने के क्या लक्षण हैं?उन्हें बढ़ने से पहले अपने स्तर पर कैसे रोका जा सकता है? सिर दर्द, कंधा दर्द, खाँसी से लेकर पथरी से लेकर एपेंडिक्स ऑपरेशन, दिल की बीमारी, घुटना फेल होने से लेकर बवासीर तक बहुत सारी रोग हैं, उनके संभावित कारण क्या हैं ? सरल भाषा में बताने वाला कोई नहीं है। आपसे बड़ी उम्मीदें हैं, आपने जो श्रृंखला प्रारंभ की है उसे जारी रखें। धन्यवाद
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