रविवार, 22 मार्च 2015

मरीज की प्राइव्हेसी एक बड़ा मुद्दा तो है ही..

दोस्तो, अगर मुझे किसी चिकित्सक से अपने बारे में बात करनी होती है तो मैं चाहता हूं कि वह अकेले में मेरे से बात करे...दरवाजा मुड़ा हुआ हो...बेहतर हो कि उस का अटेंडेंट या नर्स पास नहीं हों।

सामान्यतयः डाक्टर के पास जाते समय हर कोई इस तरह के वातावरण की चाह रखता है। हर एक को लगता है कि यार, जो बात मैंने अपने चिकित्सक से शेयर करनी है, वह दूसरा कोई क्यों सुने!

मुझे सरकारी अस्पतालों की यह बात बहुत ही ज़्यादा अखरती है कि वहां की ओपीडी में आम तौर पर लोगों की प्राईव्हेसी की तरफ़ ध्यान नहीं दिया जाता..

किसी किसी ओपीडी के कमरे में चार डाक्टर बैठे होते हैं और हर डाक्टर को चार छः मरीज़ों ने घेर रखा होता है...यह बड़ी गलत व्यवस्था है। अधिकतर मैंने यही देखा है...अब अगर कोई यह समझे कि कम पढ़े लिखे लोगों को या आर्थिक तौर पर कमज़ोर तबके को इस बात से कोई खास फर्क पड़ता नहीं कि उन की प्राइव्हेसी का ध्यान रखा गया कि नहीं, उन्हें तो दवाई से मतलब है। नहीं, ऐसा नहीं है, हर आदमी चाहता है कि उसे अकेले में सुना जाए।

एक बात मैंने और नोटिस की है...चलो यह तो हो गई ओपीडी की बात...अगर चिकित्सकों के चेंबर भी हैं तो उन में जो चिकित्सक बैठा है, उन के सामने भी उन को मिलने आने वाले कुर्सीयों पर डटे रहते हैं जब कोई मरीज़ चिकित्सक से बात करने आया है।

कईं बार तो देखने में आता है कि उस चेंबर में दो तीन डाक्टर आपस में बातचीत में मशगूल होते हैं..अब अगर कामकाज के संबंध में यह मेलजोल हो रहा है तो कोई बात नहीं...लेकिन अकसर कभी कभी ऐसे ही चाय-काफी के लिए यह मीटिंग शुरू होती है और कुछ ज़्यादा ही लंबी खिंच जाती है...थोड़ा अजीब सा लगता है, विशेषकर जो जनता बाहर इंतज़ार कर रही होती है, उन के लिए एक एक मिनट बिताना पहाड़ जैसा होता है।

मैं हर एक मरीज़ की निजता की पूरी कद्र करने की कोशिश करता हूं...फिर भी १० प्रतिशत केसों में यह पूरी तरह से हो नहीं पाता.....आप किसी मरीज़ से बात कर रहे हैं और किसी भी कारणवश कोई आपके चेंबर के दरवाजे को धक्का देकर अंदर घुसे तो कैसा लगता है......मुझे बहुत बुरा लगता है। मेरे लिए जो मरीज़ मेरे सामने स्टूल पर बैठा है वही व्ही-आई.पी है...

मैंने ऐसे धक्के से आने वालों के लिए एक उपाय का आविष्कार किया है... मैं पहले वाले मरीज़ से बातचीत बीच में ही छोड़ कर, पहले उनसे बात करने लगता हूं...एक दिन मिनट में बात खत्म कर के उन्हें सलाह देकर भेज देता हूं...इन में से कुछ ऐसे भी होते हैं कि जो इस तरह की हिदायत भी देने की अकलमंदी करते हैं ..कोई बात नहीं, डाक्टर साहब, आप इन से (पहले वाले मरीज से) फारिग हो लें, हम बैठे हैं।

इस का भी मैंने इलाज ढूंढ लिया है... मैं उन्हें कह देता हूं कि इन्हें तो टाइम लगेगा, आप को जल्दी है, आप पहले दिखा लें......कुछ तो समझ जाते हैं, अगली बार इत्मीनान से अपने नंबर से ही आते हैं।

मेरा यह मानना है कि डाक्टर मरीज़ का रिश्ता बिल्कुल मां-बाप और बच्चों जैसा है....वह कोई भी हो...महिला हो, बच्चा हो, बच्ची हो, बुजुर्ग हो, युवा हो......यकीन मानिए दोस्तो हमारे सामने बैठने के दौरान वह हमें अपने बच्चे जैसा ही दिखता है......अब मां-बाप और बच्चे की बातें चल रही हों, बच्चे को अपना दिल खोल कर बातें शेयर करनी हैं तो उसे उस तरह का वातावरण देना किस की जिम्मेदारी है?

मुझे पता है कि यहां पर ऐसी व्यवस्था कभी बन ही नहीं सकती कि मरीज़ ही चिकित्सक को कहें कि हमें अकेले में आप से बात करनी है, कभी नहीं होगा, मरीज़ों को लगता है यह कहने से अगर डाक्टर भड़क गया तो बेकार में एक नया लफड़ा..

जो भी हो, जो भी मरीज़ हमारे पास ५-१०-१५ मिनट है, उस की हर बात को अच्छे से सुनना.....और उसे अपने तक ही रखना...क्या यह कोई बड़ी बात है, विश्वास की बात है... और वे बातें हमारे अंदर दफन हो जाती हैं, हम किसी से उन्हंें शेयर करने की सोच ही नहीं सकते।

किसी भी मैडीकल समस्या के केवल सेहत से संबंधित पहलू ही तो होते नहीं, उस के सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक पहलू भी तो उस में गुंथे रहते हैं.....वह क्यों किसी तीसरे के सामने अपनी निजी समस्याओं का पिटारा खोलने बैठेगा!

यह टॉपिक तो बहुत बड़ा है, ऐसे ही लिखने लग गया ........इस पर तो जितना लिखते जाऊं कम है। बात केवल इतनी है मरीज अपने दिल की बात तभी शेयर करता है अगर उसे उस तरह का माहौल भी दिया जाए...वरना आधी दिल में, आधी बाहर ...ऐसे में इलाज में भी कमी रह सकती है...।

ऐसे हालात में मरीज की हालत तो वही बात ब्यां करती है......क्या कहूं कुछ कहा नहीं जाए, बिन कहे भी रहा नहीं जाए..