गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

लखनऊ के रेल इंजन कारखाने में आयोजित हुआ मल्टी-स्पैशलिटी हैल्थ चैक-अप कैंप


भारतीय रेल केवल अपने रोलिंग-स्टॉक (रेल इंजन और गाड़ियों के डिब्बे जो रेल पटड़ी पर सरपट भागते हैं) की अच्छी सेहत की ही चिंता नहीं करती ...इसे रेल परिवार के 14 लाख सदस्यों की सेहत की भी पूरी चिंता रहती है ... क्योंकि यही वे लोग हैं जिन के भरोसे हम सब लोग कंबल ओढ़ कर लंबी तान कर रात को सो जाते हैं .... एक एक रेलकर्मी की भूमिका अगर आप जान लेंगें तो उस को नमन करने लगेंगे।

रेलवे के चिकित्सा विभाग का लक्ष्य रहता है कि हर कर्मचारी की एक साल में एक बार तो पूरी जांच हो ही जाए. इस के अलावा वह अनिवार्य जांच तो होती ही है जो रेल के चालकों, गार्डों और सैंकड़ों तरह के कर्मचारीयों की एक निश्चित अवधि के बाद होती है ...जिस में पास होने पर ही वे लोग गाड़ी के परिचालन से संबंधी कोई काम कर सकते हैं ...ऐसे में कुछ श्रेणीयां ऐसी भी हैं जिन के लिए इतनी गहन जांच अनिवार्य नहीं है ...इसलिए रेलवे वर्ष में विभिन्न कार्यालयों, रेल के कारखानों, रेल की उत्पादन इकाईयों, बड़े-छोटे स्टेशनों पर, रेलवे की कालोनियों, स्कूलों, सैंकड़ों अस्पतालों एवं स्वास्थ्य इकाईयों में हैल्थ-चैक-अप कैंप आयोजित करती ही रहती है ....जिस में हमेशा रेल कर्मी और उन के परिवारीजन बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं.




आज भी यहां लखनऊ मंडल के चिकित्सा विभाग की मुख्य चिकित्सा अधीक्षक, डा वी.एम.सिन्हा  की प्रेरणा से एवं उन के मार्गदर्शन में लखनऊ के चारबाग में रेलवे लोकोमोटिव वर्कशाप में एक मल्टी-स्पैशलिटी हैल्थ चैक-अप कैंप का आयोजन किया गया --आप को इस कारखाने के बारे में बताते चलें कि यह भारतीय रेल का एक अहम् इंजन कारखाना है जहां पर रेल के इंजनों का पूरा इलाज होता है ..और यहां से टनाटन डिक्लेयर होने के बाद ही ये रेल की लाइनों पर सरपट दौड़ते हैं...



सेहत के मामले में हम सब एक जैसे ही हैं ---चाहे डाक्टर हो या फिर आम आदमी --- बस, जब तक चलता है चलाते रहते हैं ...लेकिन इस मानसिकता से रोगों को बढ़ावा मिलता है ...इसलिेए जब ऐसे कारखानों में इस तरह के शिविर लगते हैं तो कर्मियों का उत्साह देखने लायक होता है ... वरना हम आलस्य करते हैं ...कभी कभी डरते भी हैं, झिझकते भी हैं कि पता नहीं डाक्टर लोग कौन सी बीमारी निकाल दें ....लेकिन जब ऐसी जगह पर कैंप लगते हैं तो कर्मचारी एक दूसरे की देखा देखी और खेल-खेल में अपनी सभी जांच करवाने के लिए प्रेरित हो जाते हैं ....



आज भी यह जो कैंप था इस में फिज़िशियन, आरथोपैडिक, डैंटल, ईएनटी, नेत्र रोग एवं महिला रोग विशेषज्ञ मौजूद थे - इस में डेढ़ सौ से ऊपर कर्मचारीयों की जांच हुई ...कुछ हाई-ब्लड शूगर और कुछ उच्च रक्तचाप के नये केस सामने आये ---इसी तरह से दूसरे विशेषज्ञों का भी यही अनुभव रहा. दांतों और मुंह के रोगों के बारे में तो कहूं तो एक भी कर्मचारी ऐसा नहीं था जिसे कोई न कोई दंत रोग न हो ...उन सब का उचित मार्गदर्शन किया गया कि उन्हें पास ही स्थित रेल के अस्पताल में आकर उचित इलाज करवाना चाहिए।

इस तरह के कैंप के कईं फायदें हैं ---जिन लोगों को अपने रोगों के बारे में पता होता है उन्हें अपनी बीमारी से संबंधित डाक्टर से मिल कर तसल्ली हो जाती है ... उन के लिए ज़रूरी हिदायतों को समय समय पर उन्हें याद दिलाना भी ज़रूरी होता है ... यह ख़बर भी लेनी ज़रूरी होती है कि वे नियमित दवाईयां ले भी रहे हैं या नहीं, बदपरहेज़ी तो नहीं कर रहे ... और नियमित जांच करवा भी रहे हैं या नहीं.... दूसरे लोग वे होते हैं जिन्हें कैंप वाले दिन ही किसी नईं बीमारी का पता चलता है ... और यह देखिए  कि अगर इस तरह के कैंप नियमित लगते रहते हैं तो अकसर किसी भी बीमारी को प्रारंभिक अवस्था में ही पकड़ा जा सकता है...



अच्छा एक कैटेगरी और भी है थोड़ी अलग सी --ये वो लोग हैं जो सोचते हैं कि तंबाकू, सिगरेट पीते बरसों बीत गये ... ड्रिंक करते भी कईं साल हो गये --अब पता नहीं शरीर में कितने पंगे हो चुके होंगे, अब इन व्यसनों को छोड़ कर क्या हो जाएगा ...इसलिए इन में एक झिझक, डर होता है ...लेकिन जब जांच करवाने पर चिकित्सक इन के कंधे पर मुस्कुराते हुए कहता है कि अभी भी हालत ऐसी गंभीर नहीं है, आज ही से यह सब छोड़ दीजिए.... इस का फ़ायदा आज ही से होना शुरू हो जायेगा ..  मैंने अनुभव किया है कि ऐसे लोगों को भी ये सब व्यसन छोड़ने की बहुत बड़ी प्रेरणा मिलती है ..

नियमित जांच के फायदे ही फायदे हैं ... क्योंकि बहुत सी चीज़ें चिकित्सक की अनुभवी आंखें ही पकड़ पाती हैं...और एक बात, कईं बार आदमी छोटी मोटी तकलीफ़ों को नज़रअंदाज़ इसलिए कर देता है कि यह अपने आप ठीक हो जायेगी ...लेकिन चिकित्सक जब देखता है तो उसे वे किसी जटिल बीमारी के लक्षण लगते हैं ...और दूसरी तरफ़ कोई इंसान बिना वजह किसी तकलीफ़ की वजह से इसलिए खौफ़ज़दा रहता है कि पता नहीं यह कितनी बड़ी बीमारी हो ...लेकिन चिकित्सक जब उसे देखता है तो चंद दिनों की दवाई से ही वह निरोगी हो जाता है .... तो बात तो वही हुई ....जिस का काम उसी को साजे ....अपनी सेहत से संबंधित फ़ैसले ज़्यादा गूगल-वूगल के हवाले नहीं करने चाहिए....सीधे डाक्टर से बात करने से ही आप को चैन आ सकता है....

एक बात और कि कैंप में सभी पैरा मैडीकल कर्मियों ने भी बड़ा सराहनीय कार्य किया ---होता तो टीम-वर्क ही है ...सभी की ब्लड-शूगर जांच की गई, उन का बीएमआई इंडेक्स निकाल कर उन्हें इस के बारे में सचेत किया गया।

बातें और और भी बहुत ही लिखने वाली हैं ...लेकिन कोई कितना लिखे ....वैसे भी यह तो करने वाला काम है कि आप अपने चिकित्सक से पास जाकर नियमित जांच करवाते रहा करिए...और विशेषकर जब कभी ऐसे चैक-अप कैंप लगें तो इन का भरपूर फायदा लिया करें ....जिन चिकित्सकों तक आप को पहुंचने में अस्पताल में घंटों लग जाते हैं .......वे इक्ट्ठा हो कर आप के पास ही पहुंचे होते हैं ....अगर कोई इस मौके का भी फायदा न उठा पाए तो कोई उसे क्या कहे!!

पोस्ट को बंद मैं एक फिल्मी गीत से ही करना चाहता हूं क्योंकि इतनी भारी भरकम बोझिल बातों की काट भी अपने हिंदी फिल्मी गीत ही होते हैं ....मैं ऐसा मानता हूं ...तो आज कौन सा गीत लगा दें ....अच्छा, रेल इंजन कारखाने की बात चल रही है और उन महान इंसानों की सेहत की बात हो रही है जो अपनी मेहनत और लगन से इन इंजनों को सेहतमंद रखते हैं ... इसलिए विधाता फिल्म का रेल के इंजन में फिल्माया गया मेरा पसंदीदा गीत ही सुनते हैं... मेरे पास जो पुराने ज़माने के ड्राईवर आते हैं उन्हें मैं कभी जब पूछता हूं कि ड्राईवर साहब, विधाता तो देखी होगी आपने !! .....जिन्होंने देख रखी है वे हंस देते हैं और जिन्होंने अभी नहीं देखी होती वे कह देते हैं ...ज़रूर देखेंगे, डाक्टर साहब 😄


गुरुवार, 14 नवंबर 2019

विश्व मधुमेह दिवस पर उत्तर रेलवे मंडल चिकित्सालय लखनऊ में आयोजित हुआ जागरूकता कार्यक्रम


आज 14 नवंबर को विश्व मधुमेह दिवस के अवसर पर उत्तर रेलवे मंडल चिकित्सालय लखनऊ में समस्त स्टॉफ एवं मरीज़ों के लिए इस रोग से संबंधित जागरूकता बढ़ाने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया जिस की अध्यक्षता मुख्य चिकित्सा अधीक्षिका डा विश्वमोहिनी सिन्हा ने की और डा अमरेन्द्र कुमार एवं डा संदीप कुमार ने इस रोग से संबंधित बहुत सी जानकारी साझा करी।


डा संदीप कुमार, फ़िज़िशयन

डा संदीप कुमार ने इस रोग की उत्पति के बारे में, इस के इतिहास के बारे में और इस के इलाज में इस्तेमाल होने वाली इंसुलिन दवाई के विकास के बारे में बताया ... और डा अमरेन्द्र ने भी इस रोग के लक्षणों, बचाव एवं उपचार के बारे में बहुत अच्छे से आम बोलचाल की भाषा में बताया जिस से सभी लाभान्वित हुए।

एक बात हम सोच लेते हैं कि आज के युग में ऐसे जागरूकता कार्यक्रमों का औचित्य क्या है, सब कुछ तो सोशल मीडिया पर हमें मिलता ही रहता है ... लेकिन जो जानकारी हमें सोशल मीडिया पर हासिल हो रही है उस की विश्वसनीयता के बारे में आप सब जानते ही हैं ....किस तरह से वे कुछ भी चमत्कारी इलाज को प्रोत्साहन देने लगते हैं ...आप ने भी तो कईं बार देखा होगा कि फलां फलां बीज पीस कर इतने दिन खा लीजिए, बस पुरानी से पुरानी डायबीटीज़ हमेशा के लिए ख़त्म....वास्तविकता यह है कि इन सब टोटकों से कुछ नहीं होता....बस, नीम हकीमों और झोलाछाप डाक्टर अपना उल्लू सीधा करते हैं और मरीज़ की हालत बद से बदतर हो जाती है ...इस लिए इस तरह के जागरूकता कार्यक्रमों की बहुत ज़रूरत होती है ...जहां पर ऐसे वरिष्ठ चिकित्सक जिन का बीसियों सालों का तजुर्बा रहता है ऐसे मरीज़ों के इलाज का ...जब वे एक घंटे के लिए अपने अनुभव साझा कर रहे होते हैं तो उन की हर बात को ध्यान से सुन कर गांठ बांध की ज़रूरत होती है।

डा अमरेन्द्र कुमार, चीफ़ फ़िज़िशियन 

इस जागरूकता कार्यक्रम में बहुत कुछ सुनने-समझने का मौका मिला ...उन सब को इस ब्लॉग पर समेटना संभव नहीं है ..लेकिन कुछ बहुत अहम् बिंदुओं की बात करते हैं जिन पर विशेष ज़ोर दिया गया ...

पंद्रह दिन में मधुमेह ख़त्म
अकसर इस तरह की बातें आपने सुनी होंगी कि फलां फलां बंदे को मधुमेह था, उसने पंद्रह दिन कोई देशी दवाई खाई - पता उसे भी नहीं होता कि उसने दवाई के नाम पर क्या खाया, लेकिन फिर उस की शूगर की बीमारी सदा के लिए ख़त्म हो गई। यह सब निराधार बाते हैं ...ऐसा कुछ नहीं होता ...यह असंभव है ... यह भोली भाली जनता को अपने जान में फांसने के तरीके हैं, और कुछ नहीं ...जहां पर इस तरह की बातें सुनें, उन का खंड़न करें और उन्हें प्रशिक्षित चिकित्सक से ही संपर्क करने को कहें।

अंग्रेज़ी दवाई एक बार ली तो सारी उम्र लेनी पड़ेगी
अकसर लोग को यह भी कहते हैं कि शूगर के इलाज के लिए अंग्रेज़ी दवाई एक बार लेनी शुरू कर दी तो फिर सारी उम्र लेनी पड़ेगी ...इसलिए कुछ लोग देशी टोटकों और नीम हकीमों के चक्कर में पड़ कर अपनी सेहत बिगाड़ लेते हैं। इन सब से कुछ नहीं होता, ऐसी कोई दवाई अभी तक नहीं बनी है जो इस रोग को जड़ से ख़त्म कर दे, लेकिन, हां, समुचित प्रशिक्षित चिकित्सक की देखरेख में होने वाले इलाज से इस रोग को कंट्रोल ज़रूर किया जा सकता है और इस के लिए मरीज़ को अपनी जीवनशैली को भी सुधारना होगा ....चाहे वे खाने पीने की आदते हैं या शारीरिक परिश्रम करने की आदतें हों।

                                             
शूगर का लेवल 500 से 200 आ गया तो चलता है
अकसर हम लोग देखते सुनते हैं कि जिन मरीज़ों का शूगर का स्तर पहले बहुत बड़ा हो जैसे की 400, 500 (मि.ग्रा %) और इलाज करने के बाद जब वह दो-ढ़ाई सौ तक आ जाए तो उन्हें लगता है कि इतना तो चलता है, कहां 500 थी पहले और अब तो नीचे आ ही गई है . ..ऐसे में वे अपनी दवाई की लापरवाही करने लगते हैं , बदपरहेजी होने लगती है ...लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि नहीं, 200 भी ज़्यादा है ....शूगर के इतने स्तर से भी इस रोग के टारगेट अंगों पर होने वाले बुरे असर निरंतर होते रहते हैं .... इस का मतलब यह है कि लक्ष्य पूरे कंट्रोल का होना चाहिए - जैसा कि इस कार्यक्रम में भी बताया गया।

इंसुलिन का टीका लगवाना तो झंझट है 
लोगों में यह भ्रांति घर कर चुकी है कि शूगर के रोग के इलाज के लिए पहले तो खाने वाली गोलियों से काम चलाया जायेगा लेकिन अगर वे काम नहीं करेंगी तो ही इंसुलिन का टीका लेना होगा ...ऐसा नहीं है, ये सब फ़ैसले प्रशिक्षित चिकित्सक ने करने होते हैं ...यह काम उन का है, उन पर छोड़िए... हो सकता है कि मधुमेह के इलाज की शुरूआत ही इंसुलिन से हो और हो सकता है कि इसे बाद में इस्तेमाल किए जाने वाले विकल्प की तरह इस्तेमाल किया जाए। और एक बात यह कि अब तो इंसुलिन की दवाई के लिए लगने वाले टीके पेन की शेप में आने लगे हैं जिन को लगाते समय पता ही नहीं लगता।

रेलवे अस्पताल लखनऊ में सभी दवाईयां उपलब्ध
डा अमरेन्द्र ने कहा कि लोगों के मन में एक भ्रांति यह भी घर कर चुकी है कि सरकारी अस्पतालों में इस रोग की दवाईयां पता नहीं कैसी मिलती हों, कैसी न मिलती हों...लेकिन ऐसी बात नहीं है, उत्तर रेलवे के अस्पताल में वे सभी दवाईयां जो आज विश्व भर में इस रोग के लिए इस्तेमाल हो रही हैं, उपलब्ध है, श्रेष्ठ गुणवत्ता की हैं और पूर्णतयः कारगर हैं।

नियमित जांच जरूरी है 
मधमेह की नियमित जांच के साथ साथ तीन महीने के अंतराल पर गलाईकोसेटिड हीमोग्लोबिन टेस्ट करवाना चाहिए ... हर छः महीने पर ईसीजी और हर साल इको-टेस्ट होना चाहिए, छःमहीने के बाद अपनी आंखों की जांच करवानी चाहिए, और गुर्दे की कार्य-प्रणाली की जांच हेतु भी ब्लड-यूरिया एवं सिरम क्रिएटिनिन जैसी जांचें करवानी ज़रूरी हैं। अपने पैरों की नियमित जांच करते रहें, आरामदेय जूता पहनें और नाखुन काटते वक्त ध्यान दें कि ज्यादा गहरे न काट दें...

डा अमरेन्द्र ने अपने व्यक्तव्य में इस बात पर जो़र दिया कि शूगर के रोगी का इलाज करना केवल डाक्टर के हाथ ही में नहीं होता ... उस के लिए पैरामैडीकल स्टॉफ, रोगी के परिवारीजन और उसे स्वयं इस में एक सक्रिय भूमिका निभाने की ज़रूरत है ....इस रोग की तरह लेकर मायूस न हुआ जाए ..बस, इस के लिए सहज रूप में अपनी जीवनशैली में बदलाव किए जाएं, दवाई को समय पर लिया जाए और समय समय पर विभिन्न जांचें करवाई जाएं।

मधुमेह नामक इस महामारी की व्यापकता का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जितने मरीज़ों को यह तकलीफ़ है, उतने ही लोगों को यह पता नहीं है कि उन्हें यह रोग नहीं है,..कहने का भाव यह है कि दो में से एक मरीज़ को ही पता है कि उसे यह रोग है। इसलिए इस तरह के जागरूकता कार्यक्रमों को नियमित आयोजित किया जाना नितांत ज़रूरी है ...और वैसे भी रेलवे में थोड़े थोड़े अंतराल के बाद चिकित्सा शिविर लगते रहते हैं जिस में लोगों की ब्लड-शूगर जांच भी की जाती है।

जागरूकता कार्यक्रम के समापन सत्र में मुख्य चिकित्सा अधीक्षिका डा. विश्व मोहिनी सिन्हा ने भी इंसुलिन की उत्पति के बारे में और इस के बारे में व्याप्त भ्रांतियों की तरफ़ इशारा किया.... उन्होंने कहा कि मीठा खाना मना है .......लेकिन मीठा बोलना बहुत ज़रूरी है ...उन्होंने सभी चिकित्साकर्मियों को प्रेरित किया कि वे अपने बोलचाल का लहज़ा नरम रखें, मृदुभाषी बनें जिस से की मरीज़ों का मनोबल बढ़े।


मुख्य चिकित्सा अधि. डा विश्व मोहिनी सिन्हा -समापन-सत्र के दौरान 

मैं वैसे अपने ब्लॉग में इतनी भारी भरकम बातें कम ही करता हूं ...आज मौका था, ऐसा करना ज़रूरी था.... चलिए, माहौल को थोड़ा हल्का करते हैं ...कुछ दिन पहले मैं एक पंजाबी विरासती मेले में था वहां पर मुझे मेरे गृह-नगर अमृतसर से आईं गुरमीत बावा और उन की बेटियों को सुनने का मौका मिला .... लो जी सुनते हैं उन के द्वारा पेश की गईं पंजाबी बोलियां .... गुरमीत बावा अब 75 साल की हैं, 53 साल से पंजाबी लोकगीत गा रही हैं ....और 50 साल से मैं इन्हें सुन रहा हूं, और इन की गायकी का मुरीद हूं ....बचपन में रेडियो पर, फिर टीवी पर ...उस के बाद जहां भी इन का कार्यक्रम होता, वहीं पहुंच जाता ....आप भी सुनिए....



शुक्रवार, 10 मई 2019

दादी, तुम अच्छी नहीं दिखती !

अभी खाली बैठे बैठे रेडियो सुनते हुए मन में ख़्याल आया कि हम लोग सब कुछ किताबों से और स्कूल से ही नहीं सीखते, बहुत कुछ हमें हमारे पेरेन्ट्स बिना कुछ कहे सिखा के चले जाते हैं...जैसा हम उन का बर्ताव दूसरे लोगों के साथ देखते हैं, हम भी कहीं न कहीं उसी सांचे में ढलने लगते हैं, आप का क्या ख़्याल है...हमने अपने पेरेन्ट्स को हमेशा देखा कि उन का व्यवहार हर एक इंसान से एक जैसा होता था...घर में काम करने वाले लोगों से लेकर, रिक्शा वाले के साथ, सब्जी वाले के साथ ....हम ने बचपन में ही बड़े ही अच्छे से सीख लिया कि जात-पात, धर्म, चमड़ी के रंग या पढ़ाई लिखाई के आधार पर किसी से अपना बर्ताव नहीं बदलना होता... सब बराबर हैं...और यह सीखने का ज़िंदगी में बहुत फ़ायदा हुआ ...ज़िंदगी आसान सी लगने लगी ... किसी को भी बुलाते वक्त 'जी' लगाने से कौन सा जान निकल जाती है...

हमारे बच्चे भी जब हरेक के साथ बेहद इज़्ज़त से पेश आते हैं तो रूह ख़ुश हो जाती है बॉय-गाड....

सच में बात कितनी सही है कि जिस चीज़ पर हम लोगों का अख्तियार ही नहीं है, उस के आधार पर किसी तरह का भेद-भाव या दुर्भावना पाल लेना कितनी बड़ी बेवकूफी है ...है कि नहीं..

बीजी जब कभी अपनी ठोढी पर उग रहे बाल चिमटी से साफ कर रही होती तो हमें कहा करतीं कि एक बार ट्रेन में एक औरत पर उगे हुए चेहरे के बाल देख कर उन्हें बड़ी क्रीच सी महसूस हुई (क्रीच का मतलब होता है कि मन ख़राब होना)...बस, कुछ समय के बाद उन की ठोढी पर भी बाल उगने लगे...मां को बहुत मलाल रहा कि उस के मन में यह भावना आई क्यों....हम जानते हैं कि हारमोन्ज़ की वजह से यह सब किसी भी महिला में हो सकता है ...बस, एक बात शेयर करनी थी बीजी की ...

आज मेरे पास एक दंपति आए ...पुरूष 80 के ऊपर हैं और महिला दो चार साल कम (महिला को फुलबहरी है, चेहरे पर भी) ...मरीज़ महिला थीं...दोनों बड़े ख़ुश-मिज़ाज हैं...हंसते हंसते बात करते हैं...और हम लोग पंजाबी में ही बात करते हैं...मुझे उन का मेडीकल-आइडेंटिटी कार्ड का नंबर देखना था...मैंने जैसे ही उसे खोला ...और उस महिला की तस्वीर देखी ...यही कोई दो-चार साल पहले की तस्वीर होगी ...बड़े सलीके से सफेद बाल बंधे हुए ..मैं भी कहां अपने आप को रोक पाता हूं...जो मन में होता है, उसे बोल कर ही दम लेता हूं....मैंने उन्हें ऐसे ही कह दिया कि आप की फोटो बहुत अच्छी आई है ...आप तो किसी स्कूल की प्रिंसीपल लग रही हैं....मेरी यह बात सुन कर वे दोनों हंसने लगे और पास खड़े दो-तीन मरीज़ और ठहाके लगाने लगे ..

ठहाके जैसे ही बंद हुए ...उस बुज़ुर्ग महिला की एक बात से माहौल थोड़ा गंभीर हो गया...उन्होंने कहा - " डाक्टर साहब, मेरा पोता तो मुझे कहता है कि आप अच्छी नहीं दिखती हो..।" मैंने पूछा...क्यों, ऐसा क्यों कहता है वह। उन्होंने बताया कि बस, इसी की वजह से (अपनी फुलबहरी की तरफ़ इशारा किया)....मैंने तुरंत कहा कि ऐसा कुछ नहीं है, हमें तो आप किसी स्कूल की हैड-मिस्ट्रेस लगती हैं...यह सुन कर माहौल फिर से हल्का-फुल्का हो गया..

हर बात का रुख बदलना भी तो हमारे हाथ में ही होता है ...जिधर चाहे मोड़ कर मूड ख़ुशनुमा कर लेना चाहिए ...

वह औरत तो चली गई लेकिन मुझे अफसोस इस बात का बड़ा रहा कि उस पोते की परवरिश करने में इस दादी ने भी कुछ तो किया ही होगा, कितनी रातें जागी होगी, दुःख सुख में उस का साथ निभाया होगा ...लेकिन बड़ा होेने पर अगर पोते ने दादी को यही तमगा देना था तो ...

फुलबहरी है तो क्या है ....अंदर उस दादी की रूह कितनी सुंदर है ...और वैसे भी वह अब भी प्रिंसीपल से कम नहीं लग रही थीं...यह तो मैं पहले ही लिख चुका हूं...

उस दंपति के जाने के एक घंटे बाद एक युवक अपनी मां को लेकर आया....यह महिला भी मेरी पुरानी मरीज़ हैं...65 साल के करीब होंगी ...आज उस महिला के दोनों हाथों पर पट्टियां बंधी हुई थीं...मैंने पूछा तो बेटे ने बताया कि एसिड गिर गया मां के हाथों पर ...मैंने पूछा - कैसे ..तो उसने बताया कि कार की बैटरी फट गई ... मैंने कहा कि कार की बैटरी के पास मां क्या कर रही थीं...उसने बताया कि वे तीन लोग...वह, उस की बहन और मां मोटरसाईकिल पर जा रहे थे ...एक रेड-लाइट पर रुके थे ...इतने में एक तेज़ आवाज़ करती हुई कार आई .. उसे रोक कर उस के मालिक ने जैसे ही उस का बोनट खोला, उस की बैटरी फट गई और एसिड पास ही खड़ी मोटरसाईकिल पर बैठे इन तीन लोगों पर पड़ गया....बेटे के तो कपड़ों पर एसिड गिरा ...कपड़े जल गये...बहन के चेहरे पर गिरा ..आंखों के आस पास...(लेकिन वह भी अब ठीक है) और मां के दोनों हाथ एसिड की चपेट में आ गये ...

मैंने भी यही कहा कि चलिए, आप लोग बच गये ....आंखें आप सब की बच गईं....वह भी यही कह रहा था ..

उन के बारे में सोच कर यही लग रहा है कि लोग अपनी सुंदरता के लिए कितने कितने जतन करते हैं...लेकिन खेल चंद लम्हों का है .... सुंदर होना, सुंदरता बढ़ाना यह सब रब्बी बातें हैं... बुटीक में हज़ारों रुपये बहा देने से भी कुछ नहीं होता ...बाहरी सुंदरता से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है रूह की सुंदरता ...और यह भी रब्बी मामला है ..

बेहद खूबसूरत चेहरों के पीछे बदसूरत रूहें दिख जाती हैं ...और सामान्य चेहरे के पीछे छुपी खूबसूरत रूह का पता उन की प्यारी मुस्कान और हंसी बता देती है अकसर ...कुछ लोगों का हंसना भी कितना डरावना सा होता है ..जैसे किसी की खिल्ली उडा़ने के लिए वह अपनी बतीसी को जेहमत दे रहे हों ...और कुछ सामान्य चेहरों की हंसी कितनी बेबाक होती है और अपने आस पास खुशियां बिखेर देती है....एक सत्संग में मैंने यह बात सुनी थी कि मौला, दुनिया में हंस वही सकता है ....या तो वह दीवाना हो ...या फिर जिसे तू हंसने की तौफ़ीक बख्शता है....

मुझे यह बात बड़ी अच्छी लगी ...

चलिए, इस पोस्ट की थीम से मेल खाता एक फिल्मी गीत सुनते हैं ...दिल को देखो, चेहरा न देखा...चेहरों ने लाखों को लूटा...मेरा एक पसंदीदा गीत ...

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

3 दिसंबर 1971 का दिन याद आ रहा है आज ..

कुछ दिन पहले हम लोग झांसी की रानी लक्ष्मी बाई पर बनी एक फ़िल्म देखने का प्रोग्राम बना रहे थे ..उसी दौरान वाट्सएप पर एक वीडियो दिख गई जिस में उस फिल्म में लक्ष्मी बाई का किरदार अदा करने वाली नायिका एक नकली घोड़े पर सवारी करते हुए दिखी ...अजीब तो लगा ही ... लेकिन उस फिल्म को कभी न देखने का फ़ैसला भी कर लिया। इस से बेहतर होगा कि उस साहस और वीरता की बेमिसाल रानी - लक्ष्मी बाई की किताब पढूंगा ...और सोच रहा हूं कि किसी रोज़ झांसी हो कर आया जाए और वहां का किला देखा जाए...

और यह जो हम सुपरहीरो लोगों की फिल्में देखते हैं ...इन सब के ऊपर आज एक हीरो भारी पड़ता लग रहा है ...भारी ही नहीं बहुत भारी ...या यूं कहूं कि कोई तुलना ही नहीं ...हमारे सुपर हीरो लोगों का सब कुछ फ़ेक --लेकिन विंग कमांडर को आज पाकिस्तान की कस्टडी में देखा ...एक वाट्सएप वीडियो में...उस समय से ध्यान उधर ही लगा हुआ है .. लेकिन उस जांबाज का खड़े होने का अंदाज़, बात करने का सलीका...उस परिस्थिति में भी मैं क्या, कोई भी दंग रह जाए....इतनी मानसिक शक्ति, इतना रफ-टफ होना ....यह भारतीय सेना का कमाल तो है ही, उस शेरनीयों का भी कमाल है जो ऐसे वीर-बांकुरों को जन्म देती हैं...इन देवियों को कोटि-कोटि नमन ..

पहले वीडियो आई जिसमें दिखाया गया कि उस की पूछताछ चल रही है ...फिर दो चार घंटे में आई जब उसे पकड़ा गया, जीप में बिठाया गया....और फिर कुछ समय पहले एक क्लिप वाट्सएप पर आई जिस में वह भारतीय वायु सेना का पॉयलेट चाय पी रहा दिखाया जा रहा है ...

आज तो उसी वक्त से ही ३ दिसंबर १९७१ का दिन याद आ रहा है ...उस दिन शाम को पांच बजे मैं अपने घर के आंगन के एक किनारे पर बने टायलेट की तरफ़ जा रहा था कि हवाईजहाज़ों की ऐसी तेज़ हवाई सुनाई दी जैसी पहले कभी नहीं सुनी थी ...चंद लम्हों के बाद ही पता चल गया कि हिंदोस्तान और पाकिस्तान का युद्ध छिड़ गया है ...

अभी हम लोग अपने स्कूल वाले ग्रुप में यही बात कर रहे थे तो कुछ दूसरे दोस्तों को भी लगभग पचास साल पहले वो दिन याद आ गये ..उन दिनों हम लोग ८-९ साल के थे ...एक दोस्त राकेश बताने लगा कि वह भी हमारे घर के पास ही स्थित एक ग्राउंड में क्रिकेट खेल रहा था ...और उड़ते हुए जहाज़ों का इतना शोर और उन को इतना नीचे उड़ते देख, इतनी स्पीड से ...वह और उस के दूसरे साथी रोते रोते घर की तरफ़ भाग गये।

१६ दिन चला था यह युद्ध- कुछ यादें बिल्कुल दिल पर छपी हुई हैं....हमारी कॉलोनी में ( जो अमृतसर के गोबिंद गढ़ किले के बिल्कुल पास ही थी ....उसके साथ ही लगती थी) अगले ही दिन से खाईयां खोदी जाने लगीं ... शायद दो तीन दिन में खाईयों को खोद भी दिया गया ...ये  L (ऐल) शेप में अधिकतर होती थीं ...कुछ U (यू) की शेप में भी तैयार की गई थीं.. एक साइड की लंबाई ६-८ फीट रही होगी ..३-४ फीट गहरी और लगभग दो -अढ़ाई फीट चौड़ी...

मुझे कभी समझ में नहीं आया उन दिनों में भी यह खोदी क्यों गई हैं....उन के ऊपर कुछ नहीं होता था, बस उस के ऊपर कुछ सूखे पत्ते और टहनियां रख दी जाती थीं...और शाम के वक्त कुछ लोग या बच्चे उस में घुस जाते थे ...

अब अपने उस दौर के साथी राकेश गु्प्ता से बात हो रही थी तो उसने याद दिलाया कि कैसे उन दिनों बीच बीच में 'घुग्गू' बजने लगते थे (सायरन को पंजाबी में घुग्गू कहते हैं) ...हां, अब मुझे भी याद आ गया और उस ने भी बताया कि हवाई-हमले के दौरान या शायद उस से पहले घुग्गू बजता था ...लोगों को आने वाले ख़तरे से आगाह करने के लिए...और फ़ौरन बंकर (खाईयों) के अंदर घुस जाने की हिदायत होती थी यह ...

जहां तक मुझे याद है कि कम ही लोग उस बात को मानते थे ...बस बच्चे और कुछ बड़े ही उस में घुस जाते थे कभी कभी ...शायद मैंने महिलाओं को तो उन बंकरों के अंदर जाते कभी देखा ही नहीं ...एक औरत थी मुसद्दी की बीवी ...शायद वह कभी जा कर बैठ जाती थी ....अरे हां, याद आ गया....वह बहुत बीड़ी पिया करती थीं...और उस बंकर के अंदर जा कर बीड़ी पीते होंगे मियां -बीबी दोनों ....पीते क्या होंगे, मैंने भी उन दोनों को पीते देखा था ....ख़ैर, कोई बात नहीं ...बंकर बच्चों के लिए तो जैसे खेलने की एक जगह बन गई थी...जंग ख़्त्म होने के बहुत वक्त बाद भी ये ऐसे ही रहे ...फिर पता नहीं कब और कैसे इन्हें मिट्टी से भर दिया गया ...

उन सोलह दिनों के बारे में एक बात और याद है कि अंधेरा पड़ते ही ब्लैक-आउट हो जाती थी ...और बाकायदा इस को चैक किया जाता था ..ब्लैक-आउट का मतलब की बिजली तो गुल हो ही जाती थी ...और आप को आग या टार्च ....कुछ भी जलाने की मनाही थी ...जो कि हवाई हमले के दौरान बड़ा जोखिम होता होगा! मुझे याद है यहां तक कि अगर कोई सिगरेट बीड़ी भी सुलगाता था तो उस को लोगों से और शायद सिविल डिफैंस वालों से बड़ी फटकार पड़ती थी ...

अभी मैं लिखते हुए यह याद करने की कोशिश कर रहा था उन दिनों स्कूल चलते रहे थे या छुट्टियां हो गईं थीं...लेकिन याद नहीं आया...देखता हूं अपने स्कूल के जमाने के साथी ही कुछ बताएंगे ...उन सब की यादाश्त बहुत अच्छी है ....

सोचने वाली बात यह है कि यह मार-धाड़, लड़ाई झगड़े कब ख़त्म होंगे ...हमारे से पहले वाली पीढ़ी ने यह सब देखा ...इस से भी ज़्यादा ...सरेआम ट्रेनों, बसों, रास्तों में मार काट देखी ...हमारे जन्म के समय भी जंग (१९६२) ...फिर थोडे़ बड़े हुए तो जंग (१९७१), जब हमारे बच्चे स्कूल जाने लगे तो भी जंग (१९९९) ....अब हम पचपन पार हो चुके हैं तो फिर से ऐसा माहौल ....काश! अब अमन हो जाए ....

साहिर लुधियानवी साहब ने जो बात कह दी है ,उस के बाद कहने को कुछ बचता ही नहीं है ...


शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

सूरज कुंड मेले में बिताया कुछ वक्त

दिन १७ फरवरी, २०१८ (इतवार)

१७ फरवरी इतवार के दिन हम लोग गु़ड़गांव में थे ...यह सूरज कुंड मेले का आखिरी दिन भी था...यह बहुत बड़ा मेला है उस एरिये का ...पिछले ३० बरसों से तमन्ना थी कि सूरज कुंड मेला देखने जाना है ...

उस दिन भी हमें गुड़गांव से निकलते निकलते दोपहर के एक बज गये ... मेट्रो रूट बडा़ आड़ा-तिरछा था ...इसलिए ऊबर कैब से सूरज कुंड के लिए निकले- पूरा एक घंटा लगा, और किराया? - 450 रूपये।

रास्ते में एक जगह कूडे़-कर्कट का इतना बडा़ पहाड़ था कि हैरानी हुई कि यह क्या है...यकीन मानिए  कूड़े का इतना बड़ा पहाड़ मैंने पहली बार देखा था ...

पत्थर पहाड़ों से काट कर ...दीवारों पर लगाये जा रहे हैं...
और यह क्या...रास्ते में जगह जगह पहाड़ों के पत्थर कटे दिखे ..माइनिंग ... और पहाड़ों से पत्थर काट के कंकरीट के जंगल भी आस पास बनते दिखे जिन्हें देख कर ज़रा भी ख़ुशी नहीं हुई...और बहुत से पत्थर दीवारों में लगे दिखे ...ज़ाती तौर पर मुझे यह सब अजीब लगता है ....वही बात है, अगर मुझे ऐसा लगता है तो यह मेरा मसला है ... और क्या!

जैसे हम लोग सूरज कुंड मेले के एक गेट से अंदर गए, टिकट काउंटर की तरफ़ बढ़े ... टिकट के जो रेट लिखे हुए थे उन्हें देख कर ख़ासी हैरानी हुई हमें .. एक टिकट के १८० रूपये ...और सीनियर सिटिज़न के ९० रूपये ...कुछ लोगों के लिए मुफ्‍त थी एंट्री - जैसे कि युद्ध में शहीद हुई जवानों की बेवाओं के लिए....यह बात तो ठीक थी, लेकिन वैसे टिकट का रेट इतना ज़्यादा होने की बात अजीब सी लगी .... टिकट का इतना रेट होने के बावजूद भी काफी भीड़ थी वहां पर ...लेकिन मुझे लगता है कि शायद इतना रेट भी भीड़ कम करने के लिए ही रखा होगा ...मेरा ख्‍याल है ... लेकिन टिकट इतनी होनी चाहिए कि हर कोई आसानी से सहन कर सके ....और हां, जो लोग अपने मोबाइल पर आनलाईन टिकट खरीद रहे थे, उन्हें एक टिकट पर २० रूपये की छूट मिल रही थी ...और एंट्री में क्यू-ऑर कोड़ को स्कैन कर के ही एंट्री हो रही थी ...




सहन करने से बात याद आ गई ...कुछ दिन पहले मैं ट्रेन से यात्रा कर रहा था ..पास की सीट से एक समाज सेवक टाइप शख्‍स की बातें कानों में पड़ रही थी ...बड़ी लंबी लंबी हांक रहा था .... अपने साथी को कह रहा था कि फलां फलां लोगों का यह काम करवाता है, वह मदद करता है ...और इस के लिए कह रहा था कि मैं किसी के कुछ मांगता नहीं हूं....बस, जब काम हो जाए तो उस बंदे को कहता हूं कि मुझे तुम इतना दो कि तुम्हें भी न पता चले। मैं समझ गया कि यह भी कोई पहुंचा हुआ खिलाड़ी है ...

हां, तो सूरज कुंड मेले के अंदर जाने से पहले अच्छे से सिक्योरिटी जांच होती है ...लेड़ीज़ के पर्स तक खोल कर चैक किये जाते हैं...ज़रूरी है यह सब ....अंदर बिल्कुल गांव जैसा माहौल ....बिल्कुल वैसी दुकानें ...देश से और कुछ परदेस से भी आये लोगों ने दुकानें लगाई हुई थीं...सब कुछ बिक रहा था ...हैंडीक्राफ्टस, साडियां, सूट, कुरते....फर्नीचर ...कालीन-गलीचे ....सब कुछ जो हम लोग अकसर हम अपने अपने शहरों में मेलों में देखते हैं ..लेकिन यहां बहुत व्यापक स्तर पर ...

इस से पहले कि मैं भूल जाऊं ...यह भी दर्ज कर दूं कि मेले में पर्याप्त मात्रा में साफ़-सुथरे वॉश-रूम थे ....अच्छी लगी यह व्यवस्था ...और जो अपने से बिछुड़ गए थे उन के बारे में भी सूचना लाउड-स्पीकर पर सुनाई दे रही थी...

खाने-पीने की चीज़ें भी देश के अलग अलग हिस्सों से बिक रही थीं ..कुछ मॉड चीज़ें भी ...ज्यादा तो अपने पास वक्त नहीं था ..दो बजे तो पहुंचे ही थे और अंधेरा पड़ते ही निकलना ही था ...एक जगह पर एक अजीबोगरीब स्टाल दिख गया ... पोटैटो-टॉरनेडो (Potato Tornado) ....स्टाल वाला एक आलू के बारीक स्लाईस काट कर एक लकड़ी की डंडी (तीले) पर पिरो कर उन्हें आग पर सेंक कर (एक मॉड मशीन पर ), चटनी लगा कर १०० रूपये में बेच रहा था ...एक पूरे खानदान को इस पोटैटो-टॉरनेडो के ज़ायके से लुत्फ़ अंदोज़ होते देखा ...

और यह क्या, बड़ी अच्छी बीट्स आ रही थी ....  बचपन के ज़माने से एक फेवरेट गीत जो अकसर गली-मोहल्लों पर लाउड-स्पीकरों पर, राम लीला के दिनों में राम लीला से पहले और अकसर रेडियो पर भी खूब बजा करता था ...दुनिया का मेला, मेले में लड़की...लड़की अकेली...शन्नो नाम उसका .....😆


इन लोक-कलाकारों की प्रस्तुति लोगों को बहुत आकर्षित कर रही थी ..और लोग अपनी खुशी से कुछ रूपये दे कर इन कलाकारों की हौंसलाफ़जाई भी कर रहे थे ...मैंने भी एक मिनट की वीडियो बनाई जिसे ऊपर एम्बेड किया है ...

दिल्ली का कुतुब मीनार देखो...

और क्या क्या गिनाएं ....मेले में बहुत कुछ चल रहा था ... एक जगह पर बाइस्कोप वाला भी खड़ा था ...और साथ में एक गाना भी बज रहा था ...गाना उस से मेल नहीं खा रहा था...उस देखते ही हमें तो वही अपने ज़माने का सुपरहिट गाना ही याद आ गया ...देखो ..देखो ....देखो ..बाईस्कोप देखो, पुराने बहुत से गीतों की तरह यह गीत भी हमें बहुत पसंद है ...


अरे वाह, यह क्या ...बहुत से कट-आउट लगे हुए थे ...भारतीय नृत्य करने वाली महिलाओं की मुद्रा में ...लकड़ी के कट-आउट में से चेहरे वाली जगह काट रखी थी ..वहां पर महिलाएं बारी बारी से खड़ी होकर अपनी फोटू खिंचवा कर खुश हो रही थीं...

और हां, एक बात कि कईं जगह पर भारत की लोक-कलाओं का प्रदर्शन चल रहा था ...बहुत से स्टेज थे ...एक जगह मराठी नृत्य होने लगा तो शायद दिल्ली की ही रहने वाली एक मॉड-दिखने वाली लड़की ने अपने साथी को इशारा किया कि हो जाओ शुरू और रिकार्डिंग करें ....उसने भी उन लोक-नृत्य में उन कलाकारों के साथ जम कर डांस किया ...

मेला तो इतना फैला हुआ था कि हम लोग शायद १०-२० फ़ीसदी ही देख पाए होंगे ...आखिरी दिन था, इसलिए कोई रंगारंग कार्यक्रम नहीं था उस दिन ....लिस्ट देखी तो पता चला कि मेरा फेवरेट पंजाबी प्रोग्राम और रफ़ी साहब, किशोर और मुकेश के गीतों पर आधारित प्रोग्राम तो १३ तारीख को हो चुका है ....थोड़ा फ़ील हुआ ...

मैंने सोचा कि एक फोटू तो मैं भी खिंचवा ही लूं...
वैसे मैंने एक बात देखी मेले में कि ठीक है जश्न का माहौल होता है ...खाने पीने की मौज, खरीदारी के मौके ....लेकिन अकसर हम लोग किसी मेले में ऐसे जाते हैं जैसे मेले में जश्न मनाने नहीं आए ....बस, खरीदारी करना ही जैसे ध्येय हो ...वैसे यह तो ज़ाती मामला है ...लेकिन मैं अपनी बात कह रहा था कि मैं तो चाहूंगा कि इस तरह के मेले में पूरा दिन बिताऊं ...जहां मन करे बैठ जाऊं...जब मन करूं फिर से चल दूं...और मुझे ऐसे लगता है कि पंद्रह दिन चलने वाले इस मेले में कम से कम दो दिन तो ज़रूर आना ही चाहिए ..

इस तरह के मेले में आकर पता चलता है कि हमारे मुल्क में भी कितनी विविधता है ....इस के एक छोटे से अंश से ही हम वाक़िफ़ हैं ...बैंकाक, नियाग्रा, दुबई जाने से पहले काश हम अपने लोगों और उन के हुनर के बारे में जान कर मंत्रमुग्ध तो हो लें...

अब साढ़े छः बज रहे थे ...वापिस लौटने का वक्त हो चला था ...मेले का आखिरी दिन ...और साथ में इतवार ...खूब ट्रैफ़िक-जाम, और टैक्सी मिलना भी बहुत मुश्किल था ... किसी ने कहा कि वह देखिए बस गुड़गांव जा रही है ..हम लोग उस में बैठ गये, सीटें थीं. वह दिल्ली के रास्ते गुड़गांव के लिए चल पड़ी ...डेढ़ घंटे लगे उसे भी गुड़गांव पहुंचने में .... उस बस का दरवाजा नहीं था, इसलिए खूब़ ठंड़ी हवा लग रही थी ....एक यात्री की टिकट ३० रूपये !

पोस्ट को बंद करते वक्त एक गाना तो लगाना ही है ...उस को ही लगा देते हैं जिस की टयून पर वे लोक कलाकार नाच रहे थे ...दुनिया का मेला, मेले में लड़की .....लड़की अकेली...शन्नो नाम उस का!!


रविवार, 3 फ़रवरी 2019

इतनी साईंस तो स्कूल में भी न सीखी होगी

अभी मैं आज का अख़बार देख रहा था जिसमें लिखा है कि कल लखनऊ एयरपोर्ट से कुछ लोगों की गिरफ्तारी हुई जो सवा करोड़ रूपये की कीमत का सोना बाहर से लेकर आ रहे थे ...

उस ख़बर को पढ़ते हुए हंसी भी आ रही थी कि जितनी साईंस इस छोटे से लेख से कोई सीख सकता है, उतनी तो शायद कुछ मास्टर अपने स्टूडेंट्स को भी नहीं सिखाते होंगे ...

सोचने वाली बात है कि जिन के मन में इस तरह के आईडिया अभी तक नहीं आए होंगे....उन को भी एक आइडिया तो मिल गया...

लेकिन यह तस्करी के मामले में ही तो नहीं है, जिस के हम अजीबोगरीब तरीके देखते-पढ़ते रहते हैं ...और हैरान होते रहते हैं कि किन किन जगहों में छुपा कर --बहुत बार शरीर के अंगों में भी ...कईं बार सर्जरी करवा कर भी ...लोग तस्करी कर रहे हैं...

मिलावटखोरी की कोई लिमिट नहीं है ....दो दिन पहले जांच एजैंसी ने पता लगाया है कि लखनऊ में एक छापे के दौरान जब्त किये गये कत्थे में (जो पान में इस्तेमाल होता है) वह कैमीकल डाला हुआ था जिसे बडे़ बड़े टायरों को गलाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है ...उस कैमीकल का नाम भी लिखा हुआ था ...

मिलावटखोरी की बातें करें तो क्या क्या गिनाएं....किस किस चीज़ में नहीं हो रही यह धांधली ...जो पकड़ा गया वह मिलावटखोर, जो बच गया वह साध!!

एटीएम से कैसे लोग रूपये उड़ा लेते हैं...ऑनलाइन फ्रॉड्स ....और परीक्षाओं में नकल के नये नये तरीके ... और इन की पूरा विवरण पढ़ कर हम हैरतअंगेज़ हो जाते हैं .... सच में इस तरह के विवरण पढ़ते हुए यही लगता है कि ये लोग कितने शातिर तो हैं ही, लेकिन ये कितने इंटेलिजेंट भी हैं....पकड़ने वालों से शायद ज़्यादा दिमाग लगा लेते हैं हर बार ....आप सब जानते ही हैं कि कैसे पेपर लीक हो रहे हैं, पेपरों में धांधलीयां हो रही हैं....अख़बार भरा पड़ा होता है इन ख़बरों से ...(अख़बार पढ़ना मेरी मजबूरी है ...वरना मैं टीवी की तरह अख़बार पढ़ना भी छोड़ सकता हूं....टीवी देखना कईं महीनों से बंद है ....बिल्कुल इच्छा ही नहीं होती!!)

मैंने यह सोने की तस्करी वाली ख़बर पढ़ी तो मेरा ध्यान कालिया फिल्म के एक डॉयलाग की तरफ़ चला गया जिस में के.एन.सिंह एक बात कहता है जब अमिताभ बच्चन को निर्दोष होते हुए भी सज़ा हो जाती है ...तब वह कहता है कि अब जेल में इस की मुलाकात मुख्तलिफ़ जराइम के उस्तादों से होगी ...चोरी, डकैती, जालसाज़ी, पेशेवर हत्यारे.....सारे अपने अपने फ़न में उस्ताद ...जब यह इन के साथ कुछ महीने बिता कर बाहर आयेगा तो यह भी बदला हुआ होगा!!

रही बात कि मीडिया में यह सब इतनी डिलेट्स के साथ क्यों दिखाया जाता है?..सोचिए... यह मीडिया का काम है... प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रोनिक ...उसे भी सरवाइव करना है .... और वैसे भी आज के इंटरनेट वाले जमाने में हम किस बात को छिपा कर रख सकते हैं .... जानकारी मिल रही है सब जगह से ...अब उसे कोई कैसे इस्तेमाल करेगा, यह उस पर निर्भर है !

 हाथ की सफ़ाई में माहिर लोगों को ही ले लीजिए....उन के पास भी ऐसे ऐसे तरीके हैं ....दो चार दिन पहले दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास ही रहने वाले एक दोस्त के घर में चाबी तैयार करने वाले एक कांड कर के चले गये...उस के सामने बैठे बैठे अलमारी में चाबी लगाते लगाते अलमारी में रखे तीन-चार लाख के सोने पर हाथ साफ़ कर गये ...वह भी उसी कमरे में बैठा हुआ था...कह रहा था कि उन की फोटो तक नहीं ली जब कि मोबाइल हाथ में था ...चाय नाश्ता करवाया और जाते वक्त उन्हें अपना स्वेटर भी दे दिया कि ठंड से बच कर रहा करो ....वह भी जाते जाते उसे हिदायत दे गये कि सरसों के तेल में डुबो कर जो रूई अलमारी के चाबी के होल में रखी है, उसे दो घंटे के बाहर ही निकालना है ....तेल को अंदर रमने देना ज़रूरी है ...
अभी तक बंदा धक्के खा रहा है ...कालोनी के कैमरे में उन की फोटो भी दिखी है ..लेकिन अभी तक कुछ अता पता ठिकाना मालूम नहीं ....

काश ! हम लोग एक दूसरे के तजुर्बे से भी सीख ले लिया करें....सारे तजुर्बे अपने आप ही करने-करवाने के लिए हमें कम से दो-अढ़ाई सौ साल जीना होगा!

  

शनिवार, 26 जनवरी 2019

विटामिन 'डी' की कमी को दूर करना - कितना आसान, कितना मुश्किल!

उस दिन भी सुबह पार्क में टहलते हुए मज़ा आ गया...उस पार्क में ओपन-एयर जिम वाले उपकरण नये नये लगे थे ...बहुत अच्छा लगा..

यह मंज़र अच्छा इसलिए भी लगा क्योंकि वहां उस समय बड़े-बुज़ुर्ग पूरे मज़े कर रहे थे...६०-७० साल की महिलाएं...७०-८० बरस वाले पुरूष ..सब उन नईं मशीनों को टेस्ट करने में लगे हुए थे...और सब के चेहरों पर इतनी ख़ुशी कि जो भी उन्हें देखता वह भी ख़ुश हो जाता.. सब के खिले हुए चेहरे देख कर अपना भी मन खिल गया...

मुझे उन उपकरणों के नाम नहीं आते ...एक ऐसा था जिस पर लेट कर नीचे जाना होता था, फिर पीछे से उठ कर आगे होता था...एक ५०साल के करीब दिखने वाले शख़्स को अपने पप्पा की चिंता हो रही थी कि क्यों ये सब कर रहे हैं...वह उन्हें कह रहा था कि इस से चक्कर भी आ जाता है कभी कभी ..लेकिन पप्पा ने भी एक न सुनी,  वे अपनी क्षमता अनुसार उस मशीन पर आगे-पीछे हो कर ही उठे ..अच्छा लगा... हम लोग भी कितने फिल्मी हैं एक दम, उस समय मुन्ना भाई एमबीबीएस याद आ गया...
जीने के लिए ख़ुशी कितनी ज़रूरी है, इस का पाठ तो मुन्ना भाई एमबीबीएस ने भी अच्छा पढ़ाया था...

एक और मशीन थी जिस पर चार महिलाएं चढ़ी हुई थीं और ट्विस्ट कर रही थीं...और आने जाने वाली अपनी सखियों को भी न्यौता दे रही थीं...बहुत अच्छा...

यह सब सुबह सवेरे वाली गुनगुनी गुलाबी धुप में चल रहा था .... मैं भी टहल कर एक बेंच पर बैठ गया...पास ही किसी का अखबार पड़ा हुआ था ...जिस की पहली ख़बर ही यह थी कि विटामिन डी को दवाईओं में न ढूंढे...बिल्कुल सही बात लिखी थी...मैंने उस की फोटो खींची और उस लेख को यहां पेस्ट कर रहा हूं..आप भी पढ़ लीजिए...


मुझे भी बहुत से मरीज़ों की याद आ गई ...जो हर हफ़्ते दूध में डाल कर वह विटामिन डी वाला पाउच तो पी लेते हैं...लेकिन जब उन से सुबह थोडा़ टहलने की, थोड़ा धूप सेंकने की बात की जाती है तो वह बात को यह कह कर टाल देते हैं कि सुबह सुबह टाइम नहीं होता ...करेंगे, करेंगे...बस ऐसे ही टाल जाते हैं।

विटामिन डी लेने के लिए सुबह की धूप सब से ज़्यादा मुफ़ीद होती है... और क़ुदरत के कानून भी ऐसे हैं कि उस समय टहलने से विटामिन डी ही नहीं मिलता, बहुत से और फ़ायदे भी तो मिलते हैं...क्या क्या गिनाएं! ...क्या यही कम है कि हम जिस दिन गुनगुनी धूप में टहल कर आते हैं कितना फ्रेश और ख़ुश महसूस करते हैं !

विटामिन डी खाने से भी मिलता है ...दूध और दूध के प्रोड्क्ट्स में, कईं तरह की मछली में, अंडे में ....लेकिन बहुत से लोग न मछली खाते हैं और न ही अंडा ही लेते हैं....और दूध तो जैसा बाज़ार में मिल रहा है, वही तो लेना पड़ेगा....ऐसे में क़ुदरती तरीके से भी विटामिन डी को हासिल करना बहुत ज़रूरी है...ध्यान रखिए...केवल उस दूध में डाल कर विटामिन डी वाले सैशे को ले लेने पर कोई कैसे भरोसा कर सकता है ....लेकिन कभी उसे लेना भी पड़ता है जब विटामिन डी की कमी ख़तरनाक स्तर तक कम हो जाती है ....लेकिन यह सब डाक्टर की सलाह ही से होता है।

विटामिन डी भी गजब चीज़ है...कमी को दूर रखना इतना अासान भी और इतना मुश्किल भी ...मुश्किल उन लोगों के लिए जो घरों से बाहर धूप में बिल्कुल भी नहीं निकलते और निकलने से पहले सन-स्क्रीन लोशन लगा लेते हैं...

विटामिन डी का शरीर में होना क्यों ज़रूरी है ...यह बहुत बड़ा टॉपिक है ...बस, अगर इतना ही याद रखें कि हमारे शरीर में कैल्शियम को जज़्ब होने के लिए भी विटामिन डी की ज़रूरत होती है ...वरना, कोई कितनी भी कैल्शियम से लैस ख़ुराक खा ले, वह शरीर में ढंग से जज़्ब ही नहीं होगा...और शरीर में कैल्शियम की कमी, विटामिन डी की कमी ....एक तरह से आफ़त....हड़्डियों की कमज़ोरी, बार बार हड्डी टूटने का रिस्क, यहां तक की हृदय रोग होने की भी आशंका....मानव शरीर में सब कुछ एक दूसरे के साथ जुड़ा हुआ है ....और अगर शरीर में एक भी चीज़ की कमी होती है तो वह बहुत से अंगों और उन की कार्य-प्रणाली को प्रभावित करती है ...

लिखते लिखते मुझे याद आ रहा है कि विटामिन डी को सनशाइन-विटामिन भी कहते हैं...क्योंकि जैसे ही हम लोग सूरज की रोशनी में थोडा़ नहा लेते हैं ...हमारा मूड भी चकाचक हो जाता है ...कुछ ठंडे मुल्कों में जहां कईं कईं दिन सूरज के दर्शन नहीं होते, वहां पर लोग अकसर उन दिनों अवसाद (डिप्रेशन) का शिकार हो जाते हैं.....क्या कहते हैं, जी हां, इसे विंटर-ब्लूयज़ कहते हैं ...और डिप्रेशन को भगाने के लिए उन्हें तरह तरह की दवाईयां लेनी पड़ती हैं जिन के अपने फ़ायदे-नुकसान तो होते ही हैं.....

मैं भी क्या अवसाद-वाद की बातें ले कर बैठ गया...हम तो ख़ुश रहने और दूसरों को ख़ुश रखने की बातें कर रहे थे ...ऊपर आपने अख़बार की कटिंग में विटामिन वाली ख़बर के नीचे यह भी लिखा हुआ पढ़ लिया होगा कि किस तरह से गुनगुनी धूप से फूल भी मुस्कराने लगते हैं....अगर फूल ऐसा कर सकते हैं तो हमें कौन रोक रहा है!!

जाते जाते एक गीत सुन लेते हैं ... धीरे धीरे सुबह हुई, जाग उठी ज़िंदगी ...इसे मैं आज सुबह अपने पसंदीदा विविध भारती पर सुन रहा था...मुझे इस के लिरिक्स और इस का म्यूज़िक बहुत पसंद है...

शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

सुबह टहलने वाले इस शख़्स के जज़्बे को सलाम

मैं अच्छे से जानता हूं कि सुबह का वक़्त अपने लिए ही होता है ... खु़द के साथ रहने के लिए, क़ुदरत के साथ रहने के लिए...रोज़ाना टहलने के लिए भी ...लेकिन पिछले कुछ हफ़्तों से मेरा टहलना छूटा हुआ था ...कुछ नहीं, बस बहानेबाजी, आज देर से उठा हूं तो टाइम नहीं है, आज जल्दी उठ गया हूं तो कैसे जाऊं...अभी तो कुहासा है ... कभी ठंड बड़ी है तो कभी कुछ लिखना है ...लेकिन ये सब कोरे बहाने हैं मुझे पता है ... मुझे सुबह जल्दी उठ कर टहलना बहुत भाता है ... क़ुदरत का वह रूप बस उस वक्त ही दिखता है, हमारी चार्जिंग भी उसी वक़्त ही हो सकती है ...जैसे ही इंसान पूरी तरह से जाग जाता है ...फिर तो वह क़ुदरत से ख़िलवाड़ शुरू कर देता है ...

पिछले कुछ दिनों से पता नहीं क्यो, बुढ़ापे के एक और लक्षण ने घेर रखा है ...रात तीन बजे के करीब जाग आ जाती है ...हिज्जे लगा लगा कर उर्दू की कोई क़िताब पढ़ने की कोशिश करते करते १-२ घंटे बीत जाते हैं, फिर सो जाता हूं ...फिर उठने में देर हो जाती है ...ऐसे में टहलना नहीं हो पाता।

जितने वक्त भी घर होते हैं, सर्दी की वजह से घर के दरवाज़े खिड़कियां बंद ही रहते हैं... ऐसे में माहौल बड़ा डिप्रेसिंग सा बन जाता है ... अगर सुबह टहलने भी न निकलें तो सारा दिन अजीब सी सुस्ती घेरे रखती है ...

आज भी एक ऐसी ही सुबह थी ... लेकिन आज ठान लिया कि टहलने तो जाना ही है ..और कुछ काम हो चाहे न हो...देखा जायेगा। मैंने बेटे को कहा कि चलो, चलते हैं..वह भी उठ गया।

घर के पास ही एक पार्क में टहल रहे थे तो एक बुज़ुर्ग दिखे ...एक तो मुझे यह बुज़ुर्ग लफ़्ज भी अब अजीब लगने लगा है ...मैं भी ५५ पार कर चुका हूं ...मैं भी तो छोटा-मोटा बुज़ुर्ग ही तो हूं... किसी को बुज़ुर्ग कहना मुझे ऐसा लगता है जैसे अपने आप को ऐसे दिखाना कि अभी तो मैं जवान हूं!!


ख़ैर, इस बुज़ुर्ग के बारे में मैंने कुछ महीने पहले भी लिखा था जब इन्हें पहली बार देखा था, आज भी जब इन को देखा तो मुझे बड़ी खुशी हुई...मैंने बेटे से कहा, यार, इस बुज़ुर्ग को इस तरह साक्षत टहलते देखना, क्या इस से भी बड़ी कोई प्रेरणा या इंस्पिरेशन हो सकती है...उसने भी हामी भरी। अगर यह शख़्श इस हालत में टहल सकता है तो लिहाफ़ में दुबके पडे़ वे तमाम लोग क्यों नहीं!!


एक तो होता है टहलना एक होता है दस हज़ार कदम चलने का कोटा पूरा करना ..एप पर देख कर ... चलिए, उम्र दराज़ होने की वजह से आहिस्ता तो चल ही रहे थे लेकिन वह इस का लुत्फ़ उठा रहे थे .. सुबह सुबह इन के दर्शन कर के, इन का जज़्बा देख कर रुह खुश हो गई ...इन के साथ शेल्फ़ी लेने की इच्छा हुई, लेकिन वह भी ग़ुस्ताखी हो जाती ...लेकिन एक ख़्याल यह आया कि शहरों में जिन पांच दस लोगों की तस्वीरें-मूर्तियां टंगी रहती हैं, सिर्फ़ वे ही तो हमारे प्रेरणा-स्रोत नहीं होते, ऐसे आमजन भी तो हमें अपनी जीवन-शैली से, अपने जज़्बे से सिखा ही रहे होते हैं...अगर मेरे हाथ में हो तो मैं तो इस तरह के लोगों की तस्वीरें पार्क के गेट पर लगवा दूं कि देखिए, अगर कोहरे के दिनों में यह टहलने निकल सकते हैं तो आप क्यों नहीं!! ईश्वर इन्हें शतायु प्रदान करे और ये स्वस्थ रहें, यही कामना है।

 कईं बार मैं अपनी कॉलोनी में कुछ लोगों के बारे में लिखता हूं जो वॉकर की मदद से टहलते दिखते हैं ...उन का जज़्बा भी क़ाबिले-तारीफ़ तो होता ही है ....और मैं यह भी देखता हूं कि उन की हालत में निरंतर सुधार ही होता है ...यहां तक कि बहुत से लोगों को कुछ हफ़्तों-महीनों बाद बिना वॉकर के चलते भी देखता हूं। अच्छा लगता है ..

कुछ भी कहें वाट्सएप कॉलेज भी है कमाल की चीज़, उस दिन जनाब मिलखा सिंह जी की एक वीडियो किसी ने भेजी, इतने प्यार से इतने अपनेपन से वह शरीर को हिलाने-ढुलाने की बात कह रहे थे कि ऐसे लगा कि मेरा ही कोई बुज़ुर्ग कुछ समझ रहा है...उन की बात मन को ऐसी छुई कि इस वीडियो को वाट्सएप पर कहीं गुम होने के डर से ख़ुद के यू-ट्यूब चैनल पर ही अपलोड कर लिया ... ताकि बार-बार इन की इस बात को सुन सकूं और आगे दूसरों तक भी पहुंचा सकूं। लीजिए, आप भी इन से सीख लीजिए...


ब्लॉग तो यह ११ साल पुराना है ...पहले सैंकड़ों लेखों में बीमारियों के बारे में लिख लिख कर इतना ऊब गया कि फिर लगा कि बेकार है यह सब कुछ लिखना ...लोग सब कुछ गूगल चच्चा से पूछ लेते हैं, बेकार में दिमाग़ पर बोझ नहीं डालना चाहिए, हां, अगर कुछ कहना है, कुछ लिखना ही है तो ज़िंदगी की बात की जाए, ज़िंदादिली की बात की जाए...अगर कोई मंज़र दिल को छू गया तो उसे शेयर किया जाए...ताकि पढ़ने वाले भी लुत्फ़ उठाएं और शायद थोड़ी इंस्पिरेशन लें या कम से कम उस के बारे में सोचें तो ....

एक बात जाते जाते और कह दूं...आज की पीढ़ी समझती है कि सब कुछ पिज़ा-बर्गर की तरह की तरह फॉस्ट हो सकता है ..जब चाहो हीरो की तरह सिक्स-एब्स बना लो, चब चाहो जिम जा कर हीरोइन की तरह ज़ीरो-फ़िगर ह़ासिल कर ली जाए....लेकिन ऐसा हो नहीं सकता, अगर होता भी है तो वह लंब समय तक बना नहीं रह सकता ...और इन लोगों के तो पर्सनल-ट्रेनर होते हैं, आम लोग देख-सुन कर ही कुछ भी सप्लीमेंट खाना शुरू कर लेते हैं.. ..लंबी बात को छोटी यह कह कर किया जा सकता है कि किसी भी शख्स की जब तक बॉडी-क्लॉक सही नहीं है, जब तक वह समय पर खाता-पीता और सोता नहीं, कुछ नहीं हो सकता.....बीस, तीस, चालीस लाख के पैकेज के लिए नई पीढ़ी अपनी सेहत को दांव पर लगा रही है, लेकिन सच्चाई यही है कि  दुनिया का सब से बड़ा रईस भी कोई बन जाए, सब बेकार है ...अगर हमें बॉडी-क्लॉक ही नहीं सेट कर पा रहे...

शायद मेरा व्यक्तिगत विचार हो लेकिन है तो पक्का ...सुबह का टहलना, क़ुदरत के साथ वक़्त बिताना ...जिन में आस पास के मनाज़िर --पेढ़, पौधे, पंक्षी सब शामिल होते हैं....यह किसी के भी शरीर को चार्ज तो कर ही देता है उस की रुह को ख़ुराक भी मुहैय्या करवा देता है .......मेरी समझ यही कहती है कि अगर कैलेरीज़ को जलाना ही मक़सद हो तो ए.सी जिम में यह काम हो सकता है, इस के आगे कुछ नहीं!! मैं मानता हूं कि मेरी यह सोच ग़लत भी तो हो सकती है!






मंगलवार, 1 जनवरी 2019

नये साल की दुआ....साहिब नज़र रखना

२००७ से यह ब्लॉग लिखना शुरू किया था...वे दिन भी क्या दिन थे..लगभग रोज़ाना कुछ न कुछ इस ब्लॉग पर छाप दिया करता था...फिर पता नहीं यह क्या फेसबुक और बाद में यह व्हाट्सएप पर कुछ कुछ लिखते-पढ़ते रहने से शायद फुर्सत ही नहीं मिलती थी...शायद ग्यारह-बारह सौ पोस्ट हैं इस ब्लॉग पर ....लेकिन अभी देखा कि २०१८ में मैंने इस ब्लॉग पर केवल १८ बार लिखा...

इसलिए अब मन बनाया है कि निरंतर कुछ न कुछ जिसे लिख कर मन हल्का हो जाए, उसे लिखते रहना चाहिए...मुझे ऐसा लगता है। बाकी, रही बात नये साल के रेज़ोल्यूशन-वूशन की ...यह सब बड़े लोगों की बड़ी बातें हैं, मेरी समझ में कभी नहीं आतीं....रेज़ोल्यूशन भी ऐसे की पहले ढ़िंढोरा पीटा जाए ...फिर कुछ किया जाए या न किया जाए...लेकिन पब्लिसिटि ज़रूरी है....नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता हूं...रेज़ोल्यूशन अपने लिए होते हैं....मन में रखने के लिए ...और शायद (!!) अपने आस पास के चुनिंदा लोगों के लिए ...बाकी, किसी को किसी से क्या मतलब, मुझे नहीं लगता कि किसी को कुछ फ़र्क भी पड़ता है ...
मेरे भी रेज़ोल्यूशन मेरे मन में ही हैं...सब को पता होता है ..कहां ख़ामियां हैं, उन्हें कैसे दूर करना है!!

हां, एक बात और ....मुझे यह ख़ास दिनों में लोगों को चुन चुन कर बधाई संदेश देना बहुत खलता है ....मैं ऐसा नहीं करता बिल्कुल, लेकिन जिस का मुझे आ जाए उसे जवाब तो देना ही होता है ...वरना ठीक नहीं लगता ...बधाई संदेश बोरिंग लगता है यह भी कोई बात हुई! नहीं, मुझे लगता है कि अगर सारी क़ायनात के लिए ही एक साथ दुआ मांग ली जाए तो काफ़ी है ना...क्या बार बार दूसरों को डिस्टर्ब करना .... नानी भी कहती थीं, फिर मां भी समझाया करती थीं कि सरबत का भला मांगने में ही समझदारी है ...बस, वही बातें मन के किसी कोने में बैठ गईं...

एक फिल्मी गीत मैं यहां एम्बैड करूंगा ...भूतनाथ फिल्म का है ...साहिब नज़र रखना, मौला खबर रखना ....यह गीत मेरे दिल के बहुत पास है ...मुझे ऐसा लगता है कि इस से बढ़ कर और क्या प्रार्थना होगी...लिखने वाले को, गाने वाले को और म्यूज़िक देने वाले को मेरा सलाम ...

और एक बात मुझे अब पता चली है अपने बारे में कि मैं उन मायनों में बिल्कुल भी धार्मिक नहीं हूं जिस में अपने धर्म का दिखावा करना ज़रूरी होता है ... मुझे इस बात से भी बहुत चिढ़ है ...मैं भी ऐसा ही मानता हूं कि धर्म एक बिल्कुल व्यक्तिगत मामला है ..है कि नहीं!

चलिए, इस पोस्ट को यहीं बंद करता हूं अपने हिसाब से एक बहुत उम्दा प्रेयर के साथ ....