मंगलवार, 29 सितंबर 2015

पॉलिथीन हटाओ...देश बचाओ

आज शाम घर लौटते मैं सोच रहा था कि स्वच्छता मिशन अभियान बहुत बढ़िया है...लोगों ने एक मिशन की तरह इस के बारे में सोचना और इस पर काम करने का सोचना शुरू तो किया।

लेिकन जिस मात्रा में हर तरफ़ पॉलीथीन बिखरा पड़ा रहता है, उसे देख कर मन बेहद दुःखी होता है...कोई जानवर उसे चबाए जा रहा है, कहीं पर पॉलीथीन के ढेर सड़क किनारे पड़े हुए हैं...हर जगह पॉलीथीन ने गंद मचा रखा है।

मैं सोच रहा हूं पिछले शायद १५-२० सालों में बड़े कानून बने, कितनी कोर्ट कचहरियों ने इस के विरूद्ध फैसले दिये, कितनी जगहों पर इस पर बैन भी लगा.....कितनी बार हम लोग टीवी रेडियो एवं अन्य कार्यक्रमों में इस के बारे में सुनते हैं...लेकिन असर कितना है, आप को कितना लगता है, मुझे तो भाई कुछ भी असर दिखता नहीं कहीं भी....बिल्कुल नहीं..

हम वैसे ही पॉलीथीन की थैलियों में सब्जियां उठाते हैं, दूध की थैलियां लाते हैं, ढाबे से दाल, सब्जी, दही...जलेबी, समोसे....क्या कुछ नहीं मिलता इन घटिया किस्म की पॉलीथीन की थैलियों में......और फिर हम लोग रोज़ देखते हैं कि जगह जगह पर सफाई कर्मियों ने इन्हें इक्ट्ठा कर के आग लगाई होती है....जो बच जाती हैं, वे या तो सीवर को बंद कर देती हैं या जानवरों के पेट में जा कर उन के लिए आफ़त बन जाती है।

बड़ा अफ़सोस होता है जब मैं इस के बारे में िवचार करता हूं कि हम भी कितने ढीठ प्राणी हैं... इस में मैं भी शामिल हूं...कितनी बार सामान लाने के लिए घर से कपड़े या जूट का थैला लेकर ही नहीं जाता। बेकार में हम लोग प्रवचन झाड़ने में बहुत आगे हैं....लेिकन उस का फायदा क्या, बेकार में कईं बार लगता है अपना समय खराब किया करते हैं।

मुझे कभी यह नहीं समझ आता कि जब ये कमबख्त पॉलीथीन की थैलियां नहीं थी तो हम लोग कैसे काम चलाते थे....(जिस तरह से फोटोस्टैट के दिनों से पहले हम कैसे काम चलाया करते थे) करिए कि किस तरह से हमारे परिवार के लोग घर से कपड़े के थैले, प्लास्टिक की टोकरियां ले कर चला करते  थे..जाते अभी भी हैं, लेकिन फर्क इतना है कि अब उन थैलों में यही प्लॉस्टिक की दर्जनों पन्नियां डाल दी जाती हैं। पता नहीं यह कपड़े का थैला लेकर चलना और फांटां वाला पायजामा पहनना कब से अपमानजनक समझा जाने लगा!

याद आ रहा है फ्रिज से पहले का दौर....बर्फ लेने अगर बाज़ार में साईकिल पर जाना होता तो घर से एक छोटा तोलिया लेकर जाना....वरना अगर साईकिल में कैरियर न होता तो हाथ में पकड़ कर वह २५-५० पैसे का बर्फ़ का टुकड़ा लाना पड़ता....जितना मरजी एक हाथ से दूसरे हाथ में बर्फ शिफ्ट करते रहना, लेकिन फिर भी घर पहुंचते पहुंचते हाथ सुन्न हो जाया करता। 

आप भी याद करें कि किस तरह से कितने राज्यों ने पॉलीथीन की पन्नियों को बैन किया ...कुछ था ना कि इतने माइक्रोन वाली तो चलेंगी, इस से कम मौटाई वाली न चल पाएंगी.....लेकिन कानून बने, हम लोग उस का तोड़ पहले निकालने में एक्सपर्ट हैं। वैसे भी मुझे नहीं लगता इस तरह के बैन का कहीं ज़्यादा कड़ाई से पालन हुआ हो।

यह पोस्ट इसलिए लिखी कि आज ध्यान आ रहा था कि बहुत ही सख्ती से इस का विरोध किया जाए......कुछ ऐसा कानून हो कि ये पन्नियां रखने वालों को भी तुरंत ऑन-दा-स्पाट जुर्माना देना पड़े और जिस ग्राहक के हाथ में थैली हो उसे भी जुर्माना देना पड़े.....कितना बढ़िया ख्याली पुलाव है...क्योंिक मुझे पक्का यकीन है यहां पर यह कभी नहीं हो पाएगा...जहां पर हम लोगों से तंबाकू, गुटखा, पानमसाला, तंबाकू वाले मंजन, पेस्ट, खैनी, ज़र्दा ही नहीं छुड़वा पाए, ये पॉलीथीन की थैलियां कहां हमारे कहने से कोई छोड़ देगा!!

जो भी हो, लेिकन मुझे यह पोस्ट लिखने का यह फायदा हुआ है कि मैं बीते हुए कल की तुलना में आज पॉलीथीन के बारे में ज्यादा सजग हो गया हूं और कोशिश करूंगा कि कपड़े का थैला ही लेकर निकला करूं..किसी और कानून की इंतज़ार किए बगैर क्या ही अच्छा हो हम लोग चुपचाप बिना किसी तर्क-वितर्क के कपड़े के थैले लेकर चलना शुरू कर दें, जिन समारोहों में जाते हैं वहां अगर प्लास्टिक के कप-गिलासों या डोनों में कुछ दिया जा रहा है तो उस के बारे में थोड़ी जन चेतना पैदा करें...ज्योत से ज्योत जलाते चलिए !!

जाते जाते मुझे आज अपने कालेज के दिनों के साथी डा मनोज गोयल द्वारा भेजे एक व्हाट्सएप संदेश का ध्यान आ गया...बड़ी सुंदर बात थी उस संदेश में .....दुनिया में हर बंदा अपने आप में हीरो है, बस बात केवल इतनी सी है कि कुछ की फिल्म रिलीज़ नहीं हुई!...यह बात मन को छू गई।




शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

आज से प्रातःकालीन भ्रमण फिर से शुरू किया तो है..

शायद दो तीन महीने ही हो गये होंगे सुबह की सैर पर निकले हुए...तब यह हाल है जब कि बहुत ही रमणीक बाग बगीचे हमारे घर के बिल्कुल पास हैं...इन में प्रवेश करते ही लगता है कि जैसे आप शहर में नहीं किसी जंगल में पहुंच गये हैं...खूब हरियाली, वन-संपदा.  मां कईं दिनों से कह रही हैं कि सुबह उठते ही लैपटाप पर टिक जाते हो, अपने आप के लिए भी टाइम निकाला करो थोड़ा बहुत....सुबह रोज़ टहला करो, दस पंद्रह मिनट योग किया करो....आज मां की बात मान ही ली।

प्रवेश द्वार पर ही बाबा रामदेव के चेले टाइप के लोग योग कर रहे होते हैं...बहुत अच्छा लगा इन्हें देख कर...इन का उत्साह संक्रामक और दूसरों को प्रेरणा देने वाला तो है ही निःसंदेह।


बाग में टहलते हुए नोटिस किया कि बेरी को बुर आ गया है...प्रकृति जैसे अंगड़ाई ले रही हो इस बदलते मौसम में....दो तीन दिन से मौसम भी खुशखवार सा बना हुआ है।

मुझे कुछ हिंदी के शब्दों के लिए क्षमा करेंगे...हिंदी बस मैट्रिक तक ही पढ़ी है ...बाकी तो जितनी समाचार-पत्रों ने, चैनलों ने, और लखनऊ के मेरे मरीज़ों ने मुझे सिखा दी है, बस उतनी ही याद रह जाती है और उन्ही में से कुछ शब्द जो याद रह जाते हैं लेखन में इस्तेमाल कर लिया करता हूं...कईं बार कुछ शब्द लिखते लगता है कहीं अर्थ का अनर्थ न हो जाए....फिर लगता है हो जाए तो हो जाए....मैंने अपने मन की बात कहनी है....वैसे मैंने स्कूल के दिनों में एक दो मस्त नाथ के गूढ़ ज्ञान समेटे छोटे छोटे नावल भी पढ़े थे ....समझने वालों को ईशारा ही काफी होता है...


बाग में बहुत बार देखा है कि ये लोग पत्तों को आग लगा देते हैं जिस की वजह से भयानक प्रदूषण तो फैलता ही है, आस पास के पेड़ों को भी बहुत क्षति पहुंचती है.....सैंकड़ों लोग आते हैं अपनी सुबह को खूबसूरत बनाने...लेिकन इस तरफ़ कोई ध्यान नहीं देता...चलिए, मैं ही कुछ पहल करूंगा...सोच रहा हूं।


३०मिनट टहलने के बाद बाहर आया तो कुमार विश्वास के इस प्रोग्राम के पोस्टर पर नज़र पड़ गई....यह तारीख तो निकल गई है...कुछ दिन पहले पता तो चला था....लेकिन फिर ध्यान आ गया शायद कुछ महीने पहले फेब्रुवरी में इस के एक प्रोग्राम का ...वहां हम गये तो पता चला कि कम से कम टिकट अंदर जाने की टिकट ही ५०० रूपये है...बस, मन नहीं किया, लौट आए.....इसलिए इस बात जाने की बिल्कुल भी तमन्ना ही नहीं थी....यू-ट्यूब पर सब कुछ धरा पड़ा तो है...देख ही सकते हैं...

बस, करता हूं अब......सत्संग के लिए निकलना है...लेकिन जाते जाते एक गीत सुबह सुबह आप से शेयर करना है ...दो िदन पहले की बात है... मैं पुराने लखनऊ के डालीगंज एरिया से निकल रहा था तो मेरे कानों में एक गीत पड़ गया...मुजरिम न कहना मुझे लोगो...मुजरिम तो सारा ज़माना है...उस का संगीत सुनते ही मुझे ध्यान आया कि इस गीत को तो बरसों के बाद मैंने आज सुना था...पता नहीं रेडियो वाले भी इसे क्यों नहीं बजाते।

वैसे इसे एक नट का खेल दिखाने वाले ने अपने स्पीकर पर लगाया हुआ था...एक छोटी सी बच्ची एक रस्सी के ऊपर चल रही थी। यही लगा कि गाना भी इस ने चुन कर लगाया है ...बिल्कुल सही ...पकड़ा गया वो चोर है, न पकड़ा गया वो सयाना है।


गुरुवार, 24 सितंबर 2015

मैंने पांच दस प्रतिशत हिंदोस्तान ही देखा होगा...आपने?

आज कालेज के दोस्तों के साथ गोवा जाने की बात छिड़ी तो तुरंत एक हसरत जगी मन में कि गोवा तो देखना ही है यार...मैं कईं बार सोचता हूं कि हम लोगों ने अपने देश को ही कितना देखा है, इसलिए मुझे हमेशा लगता है पहले हिंदोस्तान तो देख लें, फिर दूर देशों को देखने का मन बनाना चाहिए...

मैंने बीस साल पहले बड़ी मशक्कत कर के ...बंबई में रहते थे तब...लंबी कतार में खड़े होकर, बड़े चाव से पासपोर्ट की अर्जी जमा की थी.....शायद दस साल में पहली बार मैं अपनी ड्यूटी पर जाने से एक-दो घंटे लेट हो गया था...लेिकन चाव बड़ा था...फिर पुलिस वाले की पुलिस वेरीफिकेशन भी उसे चाय-नाश्ता करवा कर पूरी करवाई.....चाय नाश्ता की तो क्या बात है, कुछ नहीं, लेिकन ये लोग जब वेरीफिकेशन करने आते हैं ना तो इन का अंदाज़ ऐसा होता है कि जैसे यह किसी दाऊद के अड्डे पर आए हों...और आम बंदे को यह एक तरह से ऐसा अहसास करवा देते हैं कि जैसे तेरा करेक्टर अब हमारे हाथ ही में है!...मुझे ऐसी व्यवस्था से बड़ी चिढ़ है.......खैर, बन गया जी पासपोर्ट १९९३-९४ के आस पास और जाना तो कहीं था नहीं....बस कमबख्त बातों में आकर बनवा लिया.....एक अल्मारी से दूसरी अल्मारी, एक संदूक से दूसरे संदूक में घूमते-घामते कब वह एक्सपायर हो गया पता ही नहीं चला.......अब बीवी कईं बार कह चुकी हैं कि नया ही बनवा लो, या पहले वाले को ही रिन्यू करवा लो......लेकिन मैं आलस्यी और ढीढ प्राणी....मुझे लगता है कि जाना वाना कहीं है नहीं, फिर खाली-पीली काहे ही मगजमारी..........लेिकन अभी यह मामला शांत पड़ा हुआ है .....क्योंकि श्रीमति जी ने अपने मंत्रालय को लिखा था एनओसी के लिए.....ताकि पासपोर्ट बनवाया जा सके....लेिकन कुछ महीनों के बाद भी वह एप्लीकेशन ऑफिस से नदारद है.......चलो, यार, जितना समय बिना पासपोर्ट के निकल जाए, अच्छा ही है। पासपोर्ट बनवाने की कमबख्त १९९० के दशक में ऐसी जल्दी थी जैसे हार्वल्ड वाले बुला रहे हों..कि तेरे बिना हम से यह यूनिवर्सिटी चल नहीं पा रही!!

मैं अभी हिसाब लगाना चाहता हूं िक मैंने कौन कौन से शहर देखे हैं....२६ साल शुरूआती अमृतसर में बीते....पढ़ाई में इतने लगे रहे कि भारत पाक वाघा बार्डर भी नहीं देखा...बस, बार बार बंबई, दिल्ली, अंबाला, यमुनानगर, जयपुर और एक दो बार रोहतक जाते रहे...फिर रोहतक के मेडीकल कालेज में चाकरी कर ली। 

वहां से बंबई...१० साल ...१९९१ से २०००तक......वहां से सीधा पंजाब के फिरोज़ुपर में २००० से २००५ तक ....और अगले ८ साल याने २०१३ तक यमुनानगर तक रहे ....और वहां से सीधा लखनऊ पहुंच गये...अब देखते हैं यहां का दाना-पानी कब तक लिखा है। 

चाहे ट्रांसफर हुए लेिकन फिर भी मैं अपने आप को लक्की मानता हूं कि सेन्ट्रल सर्विस में होने की वजह से मैंने इतने शहर देखे और इन के आस पास की जगहें भी देखीं...फिरोजपुर में रहते हुए पटियाला, मोगा, लुधियाना, जालंधर हो कर आने का मौका मिला...हां, मुक्तसर का माघी मेला भी देखा...फिरोजपुर के हुसैनीवाला हिंद-पाक बार्डर पर पंद्रह बीस बार तो गया ही होऊंगा। 

हरिद्वार गया, वैष्णोदेवी, जगन्नाथ पुरी भी हो कर आया.....कन्याकुमारी, त्रिवेन्द्रम, कोची, कटक, भुवनेश्वर, नागपुर, मद्रास, कोलकाता, लोनावला, खंडाला, शिमला, कुल्लू..मनाली, अजमेर, हिमाचल में पालमपुर, बैजनाथ पपरोला, पुणे...असाम में जोरहाट....शायद इतना कुछ ही देखा...

बहुत सी जगहों को देखने की तमन्ना है, गोवा, सिक्कम, नार्थ-इस्ट....मेघालय, नागालैंड, कश्मीर, लेह-लद्दाख, खजुराहो, एजन्ता-एलोरा...

कईं बार ऐसी तमन्ना होती है कि इन सब प्राकृतिक जगहों पर साल में एक एक महीना रहा जाए....बस, कोई काम धंधा करने के लिए न हो....बस, बिना किसी मकसद से घूमता रहूं, प्राकृतिक नज़ारों का आनंद लूं, और फिर इन के बारें में अपने अनुभव लिखूं। इतना कम हिंदोस्तान देख पाया हूं इस के बावजूद िक हर जगह जाने और ठहरने की सुविधा बहुत अच्छी उपलब्ध है....लेिकन फिर भी हम लोग जीवन की आपा-धापी में इतने मसरूफ हो जाते हैं कि शायद जीना ही भूलने लगते हैं। आप को क्या लगता है?

एक बात और भी शेयर करता हूं......अमृतसर शहर मुझे सब से अच्छा लगता है......सैंकड़ों-हज़ारों मीठी यादें मेरी इस

शहर से जुड़ी हुई हैं....मुझे अमृतसर का सब कुछ बहुत पसंद है, वहां के लोग, खान पान, ज़िंदादिली, खुशमिजाज लोग....ध्यान आ रहा मैंने अमृतसर शहर के ऊपर लगभग ३५-३७ साल पहले जब मैं मैट्रिक में पढ़ता था तो एक दो लेख भी लिखे थे.....अभी ढूंढता हूं ......अगर मिलते हैं तो उन्हें यहां पेस्ट करता हूं.......ताकि आप को यह भी पता चल जाए कि यह लिखने का कीड़ा स्कूल के दिनों से ही काट रहा था.......हा हा हा हा ....
 अमृतसर के केसर के ढाबे का मेरा फेवरेट खाना
एक बात और शेयर करूं......मुझे बाहर के खाने से सख्त नफरत है, मेरी तबीयत तुरंत खराब हो जाती है....लेकिन केवल अमृतसर के केसर के ढाबे का खाना है जो मुझे अभी तक सब से श्रेष्ठ लगता है.....I am very fond of Kesar da Dhaba.....उस ढाबे की तारीफ़ करने के लिए भी मेरे पास शब्द नहीं है......so many sweet memories of that place too! 

इतना लिखने के बाद लग रहा है कि यह जो हिंदोस्तान को ५-१० प्रतिशत देखने की मैंने बात की है, यह भी एक तरह से गप ही हांक दी है.....असलियत में केवल एक प्रतिशत भारत ही देखा-घूमा होगा......शायद

अब पोस्ट को समाप्त करते हुए पता नहीं अचानक यह गीत कैसे याद आ रहा है....आज फिर जीने की तमन्ना है....आज फिर...


रविवार, 20 सितंबर 2015

विज्ञान से मिलता है ज्ञान, साहित्य से समझ-बूझ

बाबू गुलाब राय जी के सुपुत्र श्री विनोद शंकर गुप्त संबोधन करते हुए
परसों मुझे साहित्यकार बाबू गुलाब राय जी की याद में एक कार्यक्रम में सम्मिलित होने का अवसर मिला...हिंदी भवन में आयोजित संगोष्ठी का विषय था...हिन्दी के निबन्ध लेखकों का वर्तमान परिदृश्य में दायित्व। इस कार्यक्रम में बाबू गुलाब राय जी के बेटे एवं बेटी भी उपस्थित थे।

बाबू गुलाब राय जी के महान् व्यक्तित्व एवं कृतित्व को जानने-समझने का अवसर मिला। उपस्थित बुद्धिजीवियों ने बाबू जी से जुड़े अपने संस्मरण साझा किए।

डा दाऊ जी गुप्त की अध्यक्षता में यह कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। उन्होंने कहा कि उन की गुलाब राय जी से एक ही मुलाकात हुई थी इलाहाबाद में...कौन सा साल बता रहे थे ...१९५९ में शायद...बता रहे थे कि उन्होंने गुलाब राय जी से पूछा कि आप इतने महान लेखक कैसे बने। जवाब में उन्होंने कहा कि मैं रोज़ाना सुबह चार से छः बजे लिखने-पढ़ने का काम करता हूं और इस में मैंने कभी खलल नहीं पड़ने दिया। दाऊ जी ने बताया कि उन्हें इस बात से इतनी प्रेरणा मिली कि उन्होंने भी इस बात पर अमल करना शुरू कर दिया....स्मरण रहे कि डा दाऊ जी  विश्व हिन्दी समिति के अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और लखनऊ के पूर्व महापौर हैं। उन्होंने एक बात और भी कही कि हम लोग आत्मकथा में कुछ चीज़ बताते नहीं और बाहर के देशों के लोग कुछ छिपाते नहीं।

डा दाऊ जी ने यह भी कहा कि गद्य हमें विचारशक्ति देता है....वैचारिक चिंतन की प्रेरणा प्राप्त होती है  और पद्य हमें अतीत और भविष्य की कल्पनाओं में डाल देता है। गुलाब राय जी पहली-दूसरी कक्षा से पीएचडी तक पढ़ाए जाने वाले साहित्यकार थे..विश्व की जिन १२८ विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है,  वहां बाबू गुलाब राय जी की कृतियां भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं।

यह बाबू गुलाब राय जी की सुपुत्री हैं
जो चंद बातें मुझे इस कार्यक्रम की याद रह गई हैं यहां लिखने का प्रयास कर रहा हूं...डा कालीचरण स्नेही जो की लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं...उन्होंने कहा कि पत्रविधा मर गई है...पत्रों में हृदय छलकता है, अपनी बात छलकती है। अब तो हम सब कुछ व्हाट्सएप, ट्विटर और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर ही सिमट गये हैं।

कार्यक्रम के दौरान मुख्य अतिथि राकेश कुमार मित्तल जो की सेवानिवृत्त चीफ सैक्रेटरी हैं यू पी के और कबीर शांति मिशन के संस्थापक एवं मुख्य संयोजक भी हैं....उन्होंने एक बात यह कही जो कि मेरे भी मन को छू गई ...और मुझे लगा कि यह मेरे ही मन की बात कह रहे हैं....उन्होंने कहा कि मैं साईंस का विद्यार्थी हूं और उस दौरान हम लोग यही समझा करते थे कि जिसने साईंस नहीं पढ़ी वह पढ़ा लिखा है ही नहीं, लेकिन बाद में समझ आई कि विज्ञान आदमी को ज्ञान तो दे देता है लेकिन हयूमैनिटीज़ विषय जो हैं वे मानव को बुद्धिमान...समझदार..विवेकशील बनाते हैं...और इस के लिए साहित्य का अध्ययन करना भी नितांत आवश्यक है। 

उन्होंने कहा कि आज सूचना का भंडार है ...नेट से किसी भी विषय पर सूचना हासिल की जा सकती है....but the big question is how to convert that information into knowledge and subsequently that knowledge into wisdom!

मैं मित्तल साहब की बात से पूरी तरह से इत्तेफाक रखता हूं...उन्होंने कहा कि महांपुरूषों की जीवनियां छोटी छोटी पुस्तिकाओं के रूप में उपलब्ध होना चाहिए...गांधी जी का ज़िक्र करते हुए कह रहे थे कि अकसर लोग कह देते हैं मजबूरी का नाम महात्मा गांधी ...जब कि इस को कहना चाहिए.....मजबूती का नाम महात्मा गांधी। उन्होंने बताया कि वे यूपी हाउसिंग के कमीशनर थे ..जो कि महात्मा गांधी मार्ग पर स्थित है....वे अकसर कहा करते थे कि गांधी मार्ग के ऊपर स्थिर न रहिए, उस पर चलिए।

आधुनिक संभ्रांत समाज की वास्तविकता ब्यां करते हुए मित्तल जी ने कहा कि कईं कईं मकान तो हैं लेिकन घर एक भी नहीं.... और बुज़ुर्ग परेशान हैं ...क्योंकि बच्चे सेटल नहीं हैं, अगर सेटल हैं तो ब्याह हो नहीं रहे या वे कर नहीं रहे, अगर ब्याह कर रहे हैं तो टिक नहीं रहे, अगर टिक रहे हैं तो बच्चे हो नहीं रहे, और अगर हो रहे हैं तो वे पल नहीं रहे..

बाबू गुलाब राय को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि बाबू जी कहा करते थे ...If you want to be remembered, write something worth reading or do something worth writing!



शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

बड़ी बड़ी खुशियां हैं छोटी छोटी बातों में

यकीनन बात तो बिल्कुल सही है...छोटी मोटी बातों में ही बड़ी तूफ़ानी खुशियां छुपी रहती हैं।

आप को ही कल ही की बात सुनाता हूं...मैंने सड़क पर देखा कि दो छोटे बच्चे एक साईकिल पर बड़ी मस्ती से जा रहे थे...अब इस में वैसे तो कोई बड़ी बात नहीं लगती अकसर बच्चे मस्ती में साईकिलों आदि पर चलते ही हैं...

लेकिन दोस्तो पता नहीं इन दोनों बच्चों की मस्ती में क्या बात थी और इन के साईकिल की गजब की डेकोरेशन थी कि मैं क्या, बहुत से लोग इन्हें देख रहे थे..मैंने कुछ तस्वीरें भी खींची ...यहां शेयर कर रहा हूं...दरअसल मैंने नोटिस किया कि ये बच्चे एक पतंग को कहीं से ला रहे थे (कटी हुई को लूट कर या खरीद कर, क्या फर्क पड़ता है)..साईकिल के पीछे बैठा हुआ तो उसे संभालने में पूरा व्यस्त था और चलाने वाला फुल मस्ती में हांक रहा था....लेकिन जो बात शायद को लोगों को आकर्षित कर रही थी वे थे ये लाल रंग के फुम्मन (पंजाबी शब्द)...पता नहीं इसे हिंदी में क्या कहते हैं...जो इस साईकिल के टायरों पर टंगे हुए थे।

ये फुम्मन देखने में कितने सुंदर लगते हैं....बस, एक तरह से टोटल इफैक्ट था..इन लाल, चमकीले, सुंदर फुम्मनों का, बच्चों के हर्षोल्लास, इन की मस्ती का, बेफिक्री का......ऐसे में किसे जगजीत सिंह की वह गजल याद ना आती होगी....दौलत भी ले लो, वो शोहरत भी ले लो...मगल मुझ को दिलवा दो, मेरे बचपन के वो दिन....वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।

सच में इस तरह की खुशियां होती हैं जो देखने में शायद किसी को तुच्छ लगें लेकिन आपने भी नोटिस किया ये कितनी संक्रामक निकली ...जी हां, खुशियां तो संक्रामक ही होनी चाहिए।

ये बच्चे पीछे छूट गये तो मुझे भी बीते दिनों की बातें याद आने लगीं कि हम भी बचपन में अकसर देखा करते थे कि लोग साईकिल के हैंडल की मुट्ठ (जहां से हम साईकिल को पकड़ते हैं-- Hand grip)पर रंग बिरंगे कवर और टायरों के एक्सल के साथ लाल पीले फुम्मन बंधवा लिया करते थे ... और कुछ ऐसे ही फुम्मन, परांदे, लाल पीले रंग के कपड़े के टुकड़े रिक्शे वाले भी अपने नये खरीदे रिक्शे पर बांधे रखते थे ...और मेरे जैसे लोग हंसी हंसी में कहां मसखरी करने से बाज़ आते थे....यह मैं अमृतसर की बातें सुना रहा हूं ...रिक्शा पर बैठते बैठते हंसते हंसते रिक्शावाले से ज़रूर कह देना...यार, रिक्शा बहुत सुंदर सजा रखी है.....यह सुन कर वह भी खुश हो कर हंस देता था।

कल मैंने इन दोनों बच्चों को इतनी मस्ती में देखा तो मुझे अपने दिन भी याद आ गये कि कितना रोमांच होता था अपने पापा के साईकिल पर बैठने का ....और कुछ मांग नहीं...बर्फी तो वे दिला ही देते थे ...लेिकन बस उन के साथ साईकिल के अगले डंडे पर बैठ कर ऐसे लगता था जैसे ..........जैसे क्या, उम्र के उस दौर में हमें तुलना भी कहां आता है, बस खुशी होती थी .......शुद्ध खालिस १०० प्रतिशत खुशी।

मुझे याद है जब मैं छोटा था तो मुझे साईकिल के डंडे पर बैठने में थोड़ी दिक्कत तो होती थी...लेकिन मैं कहता नहीं था...एक तो मुझे वह डंडा चुभता रहता था और दूसरा, मेरे पांव रखने की जगह नहीं हुआ करती थी...शायद १९६० के दशक में छोटी काठी या फुट-होल्ड मिलते भी न हों, anyway, no regrets.....passed wonderful moments with my lovely and caring, doting father.

अपनी तकलीफ़ का ध्यान था, इसलिए जब आज से १४-१५ साल पहले मेरा छोटा बेटा साईकिल पर बैठने लगा तो मैंने इन दोनों बातों की तरफ़ विशेष ध्यान दिया....बेटों को भी साईकिल पर मेरे साथ बैठ कर उतना ही अच्छा लगता था जितना मुझे ......यह एक तरह से यूनिवर्सल सच्चाई ही है कि दुनिया के सभी बच्चों को अपने बापू के या मां के साईकिल पर सवारी करना बहुत भाता है...लेिकन समय के तो जैसे पंख लगे हुए हैं। परसों बेटा राघव यह तस्वीर देख रहा था तो अचानक कहने लगा......पापा, समय बहुत जल्दी बीत जाता है!...... सो तो है, यार, इसे कौन बांध पाया है।

राघव और पापा २००१-०२ के आस पास
हां, एक बात और ध्यान में आ गई....जब हम लोगों के साईकिल सीखने का ज़माना था ..तो पहले हम लोग कितने कितने दिन या शायद महीनों तक बाज़ार से छोटा साईकिल किराये पर ला कर चलाया करते थे....फिर उसके बाद हमें बड़े साईकिल को कैंची चलाने की छूट मिलती थी....कईं सालों बाद मैंने कुछ दिन पहले एक लड़के के उसी कैंची अंदाज़ में साईकिल चलाते देखा था....फिर उस के बाद घर में पड़े बहन के लेडी साईकिल को चलाना शुरू किया जाता था.....कारण सिर्फ इतना ही कि गिरने का चांस कम होगा, और गिर भी गये तो चोट कम आयेगी......जब इतनी प्रैक्टिस हो जाती थी तो एक दिन वह आता था जब सच में टेक-ऑफ का दिन होता था...उस दिन जो आप की मदद कर दिया करता था, बस उसे ही श्रेष्य जाता था कि उसने ही साईकिल चलाई....हमारे पड़ोस में एक हमारी चंचल दीदी हुआ करती थीं......मुझे बिल्कुल साफ याद है, एक दिन में ऐसे ही साईकिल चला रहा था तो उसने पीछे से कैरियर को पकड़ कर मुझे साईकिल चलाने की िहदायत दी......दो तीन बार लड़खड़ाया तो ....लेिकन पांच दस पंद्रह मिनटों में मैं अपने आप साईकिल चला रहा था....यह ही एक छोटी सी बात जिस की मुझे बहुत बड़ी खुशी मिली.....जैसे संसार ही बदल गया उस दिन के बाद.....साईकिल पर पैर रखो और ले आओ बाज़ार से बर्फ़, समोसे, जलेबियां, बर्फी ....कुछ भी।

लेिकन यह मैं कहां से कहां निकल गया....दोस्तो, आप को ध्यान होगा, मैंने इस ब्लॉग में पहले भी लिखा है कि यहां लखनऊ में साईकिल ट्रैक कुछ तो बन चुके हैं...कुछ बन रहे हैं....किसी को कहते सुना एक दिन पहले कि चुनावी मौसम में इन ट्रैकों को भी क्या कवर कर दिया जायेगा (क्यों कि ये समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह है) जैसे लखनऊ के दर्जनों बागों में पत्थर के सैंकड़ों हाथियों को चुनाव के मौसम में कपड़े पहना दिये गये थे....राजनीति पर लिखना मेरा काम नहीं है ...बस, मेरी सलाह यही है कि यार, जब ट्रैक के ऊपर टॉट डाला जायेगा, उस को तो अभी टाइम है....शुक्र है कि इस प्रदेश में किसी ने साईकिल पर यात्रा करने वाले के बारे में सोचा तो .....चलिए, आज से एक और प्रण करते हैं कि हर काम के सकारात्मक पहलू पर ही ध्यान केंद्रित किया करेंगे और कल से अपने साईकिलों को इन ट्रैकों पर दोड़ाना शुरू करते हैं........याद आया, मैंने भी दो तीन महीने से साईकिल को नहीं देखा......आज उसे मैं भी दुरूस्त करवाता हूं....वैसे मुझे यह विज्ञापन भी बहुत पसंद हैं.....बहुत ज़्यादा......दादी की ज़िंदादिली को शत-शत नमन् जिस में उस का पोता अपनी साईिकल दादी के हाथ में देने से बहुत ही ज़्यादा डर रहा है, लेकिन दादी अपने शाल को पोते को थमा कर, खुद उस के साईकिल पर सवार हो कर हवा से बातें करने लगती है..Wonderful Ad..but i dont remember the product for which this wonderful Ad has been prepared! I wonder if the Advertising has passed of FAILED!

बुधवार, 16 सितंबर 2015

मोबाइल का सही सटीक उपयोग करने वाले

मुझे इस किस्से को लिखने की प्रेरणा मिली आज शाम लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला से...वह अपने पति और परिवार के साथ पालीथीन की शीट पर बैठ कर लईया-चना का लुत्फ उठा रही थी कि अचानक उस के पति ने मोबाइल पर फोन करते करते फोन उसे थमा दिया...मैं दूर से देख रहा था..यार, मैं उस की खुशी और चेहरे के भाव ब्यां नहीं कर सकता....लेकिन मुझे भी बड़ी खुशी हुई...मुझे एक घटिया विचार आया कि इस खुशी को अपने मोबाईल में कैद कर लूं...फोटू ले लूं.....लेकिन उसी समय उस ख्याल को निकाल परे किया.

दो मिनट बाद मैं वहां से लौट आया लेकिन आज उस अधेड़ महिला ने मुझे बहुत सोचने पर मजबूर कर दिया....मुझे यही लगा कि फोन का असली लुत्फ़ वही लोग उठा पाते हैं जिन के पास बिल्कुल एक बेसिक...पुराना, रबड़ बैंड से कसा हुआ, पन्नी में डाला हुआ या चाय पत्ती के चमकीले पाउच में छुपाया हुआ और स्टील की चेन से बंधा हुआ ...मोबाईल फोन होता है...जो २५-३० हज़ार के फोन हम लेकर चलते हैं....ये हमारे खिलौने हैं, ठीक है...ज़रूरत है, लेकिन खिलौने ज़्यादा हैं....हम लोग खाली समय में एक तरह से सोशल मीडिया पर बैठे बैठे मसखरी करते हैं....अधिकतर सब बकवास है, मुझे तो ऐसा लगता है...ठीक है, संतुलित इस्तेमाल किया जाए तो ठीक है, लेकिन हम लोग कहां संतुलित इस्तेमाल कर पाते हैं....व्हाट्सएप, ट्विटर एवं फेसबुक पर मुंडी झुकाए और आंखें गड़ाए सिर दुःखा लेते हैं......पल पल की खबर जानने की अफरातफरी, हर तरफ़ अपने ज्ञान को दूसरे के ज्ञान से श्रेष्ठ दिखाने की होड़......पता ही नहीं चलता कि हम कर क्या रहे हैं!

हम लोगों के घर एक तरह से मोबाइल म्यूजियम बने हुए हैं......कोई भी अलमारी, कोई भी ड्राअर खोलें, कोई न कोई पुराना कंडम मोबाइल वहां पड़ा मिल जाता है....यह लिखते लिखते ध्यान आ रहा है हम लोगों के लगभग १५ साल पुराने एक फोन कर जिसे मैंने कल एक कोने में पड़े देखा था.....अभी आप को उस का फोटू दिखाता हूं।

मुझे सरकारी सिम मिला हुआ है...इसलिए उसे हर समय पास रखना मेरी मजबूरी है...लेकिन मैंने सोच रखा है कि वीआरएस लेने के बाद मैं पहला काम यही करूंगा कि अपने पास मोबाइल फोन रखना बंद करूंगा...अगर रखना भी होगा तो वही सब से सस्ता सा जिस पर फोन आ जाए, फोन किया जा सके और एसएमएस की सुविधा है....इस के आगे क्या करना है......कईं बार ऐसे लगता है कि मेरे पुराने सिरदर्द की जड़ ही यही है।

वापिस फोन के सही सटीक इस्तेमाल की बात करते हैं......हां, तो मैं बात कर रहा था उस अनजान अधेड़ महिला की खुशी....जिसने मुझे यह लिखने पर मजबूर किया है...वैसे आप भी देखिए कहीं भी आसपास, रिक्शा वाले के पास भी फोन होगा..बिल्कुल बेसिक सा लेकिन वे बात तभी करते हैं आप ध्यान दीजिएगा जब वास्तव में ही कोई बात करने वाली होगी...वे लोग इस का सटीक इस्तेमाल करते हैं हम लोगों से कहीं ज़्यादा...

गाड़ी में भी हम अकसर देखते हैं कि कुछ लोग बिल्कुल खस्ता हाल फोन जेब में लोहे की चेन के साथ बांध कर रखते हैं...थोड़ा बहुत हिला डुला कर उसे फोन के लिए तैयार करते हैं...फिर जेब से बाबा आदम के जमाने की एक डायरी निकालते हैं और बगल में बैठे किसी पैंट-शर्ट पहने बंदे को उसे थमाते हुए कहते हैं कि ज़रा सुरेश का नंबर देखिए तो.....फिर वह जेंटलमेन अगले चंद मिनटों में सुरेश का फोन ढूंढता है, नंबर मिला कर भी देता है और दद्दू की बात भी इत्मीनान से हो जाती है....पूरा हाल चाल...सब कुछ......

और भी नोटिस करिएगा ....जिन लोगों के पास इस तरह के पुराने माडल खस्ता हाल फोन हैं, वे इस पर मनोरंजन भी भरपूर करते हैं.....चुपचाप दस बीस रूपये में अपने मरजी के फिल्मी गीत और अपनी पसंद के वीडियो क्लिप्स भरवा लेते हैं और कईं महीनों तक फिर कोई चाहत नहीं, वो बात अलग है कि इन फोनों पर कईं बार नंबर घुमाने के लिए विभिन्न अंकों को इतने ज़ोर से दबाना पड़ता है मानो मोबाईल की जान ही ले डालेंगे........और हमारे फोनों पर भी तो कईं तरह के लफड़े एप्स के, ब्लूटुथ, ट्रू-कॉलर का झमेला, नेट पेक और पता नहीं क्या क्या, और वे लोग उतना ही चार्ज करवाते हैं जितना निहायत ही ज़रूरी होता है.....

मुझे उस महिला को इतना खुश देख कर एक गीत की वह लाइन याद आ गई......बड़ी बड़ी खुशियां हैं छोटी छोटी बातों में.......निःसंदेह हैं, बिल्कुल हैं यार, लेिकन फिर भी हम लोग आई-फोन के अगले वर्ज़न की इंतज़ार में किस कद्र घुलते रहते हैं.....बात सोचने लायक तो है..तकनीक के जानकार होते हुए भी असलियत यह है कि एक डेढ़ साल से सोच रहा हूं कि फोन में किशोर दा के पचास सौ गीत डाल लूं......लेकिन आलस्य ...कौन इस झंझट में पड़े, ब्लू-टुथ से या डैटा केबल से, मैकबुक से या फिर सी.डी ....बस इतनी च्वाईसिस में ही गुम हो के रह जाता हूं.....और हमारी कॉलोनी का माली सुबह सुबह मोबाइल पर पूरी आवाज़ में यह भोजपुरी गीत बार बार सुन रहा होता है......ओ राजा जी, बाजा बाजई के ना बाजई....



जल्दी हो जाना चाहिए पायरिया का इलाज

पायरिया के बारे में मैं पहले भी कईं बार लिख चुका हूं..लेकिन कभी कभी कोई ऐसा मरीज़ आ जाता है कि फिर से उसी विषय पर लिखने की इच्छा होती है।

 आज मेरे पास यह ३० वर्ष का युवक आया था...मसूड़े आप इस के देख रहे हैं किस तरह से फूले हुए हैं...ब्रुश करते समय और ज़रा सा भी हाथ लगाते ही इन से रक्त बहने लगता है। घबरा रहा था कि पता नहीं क्या हो गया है!

यही समझाया उसे कि पायरिया है ...लेकिन यह पूरी तरह से ठीक हो जायेगा..तीन चार बार बुलाएंगे....और इस के साथ ही साथ इसे दांतों पर ब्रुश करने का सही ढंग बता दिया ताकि फिर से इतना टारटर दांतों पे इक्ट्ठा न होने पाए। जीभछिलनी के नियमित इस्तेमाल की सलाह भी दी...

आज इस के आगे के दांतों के मसूड़ों का प्रारम्भिक इलाज करने के तुरंत बाद उस का फोटो लिया ...यहां पेस्ट कर रहा हूं...एक बात आप देख रहे हैं कि बहुत से मसूड़े दांतों से नीचे सरक रहे हैं....देखते हैं इस इलाज से कितना फर्क पड़ता है...छोटी उम्र है, इसलिए मसूड़े थोड़ा बहुत तो अपनी जगह पर वापिस लौट ही आएंगे....मसूड़ों की मालिश करने की भी इसे सलाह दी है।
अभी पूरे इलाज के लिए इसे तीन चार बार और आना पड़ेगा...यह पोस्ट बस इसलिए लिखी है कि आप तक यह संदेश पहुंच सके कि यार, अगर मसूड़ों वूड़ों में कोई इस तरह का लफड़ा है या कुछ भी दिक्कत है तो अपने दंत चिकित्सक की शरण में चले चाहिए...ताकि तकलीफ़ का निवारण समय पर हो सके।


अभी मुझे अपने मोबाइल पर सुबह पार्क में खींची यह तस्वीर भी दिख गई....इस तरह की मिट्टी का ढेर इतना बड़ा छोटी चींटींयों द्वारा तैयार किया गया शायद मैंने आज पहली बार देखा था.....कितना प्रेरणात्मक है इस तरह के अथक प्रयास को भी निहारना !


शनिवार, 12 सितंबर 2015

आज यह लिख कर ही हिंदी दिवस मना लूं!!

कल हिंदी की खूब बातें होंगी...मैंने सोचा दो चार बातें मैं भी हिंदी की कर लूं आज।

सन २००० में मैं बंबई से पंजाब आया...मुझे याद है तब मुझे हिंदी लिखने का भी इतना अभ्यास नहीं था..और बस गुज़ारे लायक ही इसे बोल पाता था। 

कहा जाता है कि हिंदी फिल्मों ने देश को जोड़ कर रखा ..यह बात भी सही होगी लेकिन मैं सोचता हूं कि हिंदी भाषा को बढ़ावा देने में खबरिया हिंदी चैनलों ने भी बड़ा योगदान दिया। याद आता है २००० के आसपास आजतक चैनल शुरू हुआ था...उसे रोज़ाना सुनना हमारी दिनचर्या में शुमार था...इसी तरह से फिर और भी हिंदी के खबरिया चैनल आ गए...निःसंदेह मानना पड़ेगा कि इन हिंदी चैनलों में जो लोग काम करते थे उन की हिंदी पर बड़ी ही अच्छी पकड़ थी..उच्चारण आदि एकदम परफेक्ट...इन्हें सुन सुन कर लोगों को हिंदी समझने-बोलने में बड़ी मदद मिली। 

उन्हीं दिनों की बात है सन् २००० के बाद पंजाब जैसे प्रदेशों में भी हिंदी के बड़े अखबारों के स्थानीय संस्करण आने लगे ..दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर ...ये सब अखबार धीरे धीरे अहिंदी भाषी प्रांतों में लोकप्रिय होने लगे...इन की भी बड़ी अहम् भूमिका रही..धीरे धीरे हिन्दुस्तान और नवभारत टाइम्स जैसे समाचार पत्र भी छोटे शहरों कस्बों में भी मिलने लगे...लोगों को इस का भी भरपूर लाभ हुआ। 

मैंने भी उन दिनों हिंदी में लिखने लगा..अखबारों में छपने भी लगा...असम में जोरहाट में पहले हिंदी लेखक शिविर में जाने का अवसर मिला...वहां पर लिखने की थोड़ी बहुत बारीकियां पता चलीं और यह भी पता चला कि हमें हिंदी की डिक्शनरी रखनी कितनी ज़रूरी है। वहां से लौटने के बाद ये सब शब्दकोष जो रिक्मैंड किये गये थे, खरीद लिए। 



लेकिन मुझे डिक्शनरी के बारे में एक बात कहनी है कि अकसर मैं देखता हूं जिन घरों में एक पुरानी खस्ता हालत डिक्शनरी होती है, जगह जगह से फटेहाल, सब से बेहतर वे ही उसे इस्तेमाल करते हैं...अब जैसे जैसे घरों में डिक्शनरीयों की संख्या बढ़ गई है, जब ज़रूरत पड़ती है तो हमें पता ही नहीं चलता कि ये कहां पड़ी हैं। किसी शब्द का अर्थ देखने, समझने के लिए बस वे १-२ मिनट ही बड़े क्रूशियल होते हैं....अगर डिक्शनरी नहीं दिखती तो बस वह शब्द भी कम से कम उस दिन के लिए तो हाथ से निकल जाता है। आप में से बहुत से पाठक ऐसे होंगे जो कहेंगे कि अब तो स्मार्टफोन पर तुरंत कुछ भी पता कर सकते हैं......लेकिन पता नहीं मुझे क्यों लगता है कि किसी शब्द से तारूफ डिक्शनरी के चंद पन्नों के साथ जद्दोजहद किए बिना हो जाए तो शायद उस में उतना लुत्फ नहीं हो सकता....जब कोई शब्द एक पुरानी पुश्तैनी फटी पुरानी डिक्शनरी में मिलता है तो उस के रोमांच को कौन ब्यां करे, दोस्तो.. यह मेरा पर्सनल ओपिनियन हो सकता है क्योंकि मैं इस तरह की बातों का गवाह रहा हूं। 



हम लोग देखते हैं आज कल बुक फेयर्ज़ में जा कर लोग महंगी से महंगी लेटेस्ट डिक्शनरीयां खरीदते हैं लेकिन शायद इस की इतनी ज़रूरत होती नहीं ....कोई भी ठीक ठाक डिक्शनरी से काम चल जाता है...मेरे पास इंगलिश की डिक्शनरी ३७ साल पुरानी है और दो तीन और भी हैं, लेकिन मैं हमेशा कालेज के दिनों से ही इस पुरानी वाली डिक्शनरी को ही देखता हूं ...लेिकन शर्त यही है कि डिक्शनरी बिल्कुल सामने होनी चाहिए ...शायद हमें फिक्र होती है हम शो-पीस या एन्टीक या महंगे फूलदान तो सामने रख लें ...लेकिन डिक्शनरी किसी ऐसी जगह पर छिपी रहती है कि उसे निकालने का आलस ही रहता है। 

दूसरी बात मैं यह शेयर करना चाह रहा हूं कि हमारे पास हिंदी का भरपूर लिटरेचर है ...हम हिंदी साहित्य तो क्या, किसी भी साहित्य को पढ़ने के इतने उत्सुक नहीं दिखते....लेकिन मैं सब के लिए ऐसा क्यों कह रहा हूं, मैं अपने बारे में कह सकता हूं कि मैं साहित्य अध्ययन नहीं कर पाता....दो तीन पन्ने भी नहीं पढ़ पाता कि झपकी आ जाती है। लेिकन अब सोच रहा हूं कि फिजूल की बातों में समय बर्बाद करने की बजाए दिन में एक दो घंटे तो साहित्य के लिए रख दिए जाने चाहिए। आज भी मैंने जावेद अख्तर साहब की किताब तरकश के शुरूआती २०-२२ पन्ने पढ़े....यह किताब मैंने १० साल पहले खरीदी थी, उन दिनों इसे थोड़ा देखा था, कल बुक-शेल्फ में इस पर नज़र पड़ गई तो सोचा कि इसे फिर से पढ़ा जाए....मुझे गद्य तो समझ में आ जाता है ..लेकिन ये कविताएं और भारी भरकम भाषा मेरे पल्ले नहीं पड़ती ...नहीं तो न सही, उस का कोई मलाल नहीं, जो पल्ले पड़ता उसे ही पढ़ लूं तो अपने आज को बीते हुए कल से बेहतर बना लूं..अख्तर साहब की तरकश के कुछ अंश दो दिन में आप के समक्ष रखूंगा। 

थोड़ा किताबों की उपलब्धता की बात भी कर लेते हैं...मुझे याद है कुछ महीने पहले किसी मीटिंग में बैठा हुआ था ...एक अधिकारी ने कहा कि उस का मुंशी प्रेमचंद का फलां फलां नावल पढ़ने की बड़ी तमन्ना है ..लेकिन लाइब्रेरी में नहीं है...मैंने बताया कि हिंदी भाषा का बहुत सा साहित्य ऑनलाइन अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा की वेबसाइट पर मुफ्त में हम लोग पढ़ सकते हैं......किसी भी लेखक को, किसी भी विधा को, कहानी, निबंध, कविता, नावल......कुछ भी हमें इस साइट पर मिल जाता है...

www.hindivishwa.org >>>>>इस साइट के होमपेज पर जा कर ...हिंदी समय लिंक पर क्लिक करिए....
 >>>>> www.hindisamay.com भरपूर हिंदी साहित्य आप के समक्ष खुल जाएगा....अपनी पसंद अनुसार कुछ भी पढ़िए..कुछ भी सहेज कर रखिए या प्रिंट करना चाहें तो प्रिंट भी कर लें। यह रहा इस का लिंक ... हिंदी समय 

आज शाम लुधियाना से मित्र का मैसेज आया था कि हम लोग लुधियाना में हिंदी दिवस मना रहे हैं, लखनऊ में क्या प्रोग्राम है ....लखनऊ के बारे में तो क्या बताएं दोस्त, लखनऊ में तो हर दिवस ही हिंदी दिवस है...यहां बहुत अच्छा साहित्यिक वातावरण है.....और जहां तक मेरी बात है नाचीज़ ने अपने चंद अनुभव शेयर कर के हिंदी दिवस मना लिया...जाते जाते एक मशविरा और देता चलूं.......रोज़ कुछ न कुछ हिंदी में लिखने की आदत डालिए....शुरूआती झिझक चंद दिनों से आगे टिक नहीं पायेगी..यकीनन। 

जाते जाते यह ध्यान भी आ गया कि किस तरह के हिंदी फिल्म के गीतकारों ने भी बेहतरीन से बेहतरीन गीत हमें तोहफे में दिये हैं....ये हमें गुदगुदातें हैं, हंसाते हैं, सोचने पर मजबूर करते हैं और बहुत बार आंखें भी भिगो देते हैं...वैसे इस समय मुझे दोपहर में रेडियो पर बज रहा यह गीत याद आ गया....


शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

स्मार्ट फोन,स्मार्ट मरीज लेकिन जेब में गुल मंजन की डिब्बी ...

उस दिन मेरे पास एक ७० वर्ष के करीब बुज़ुर्ग आए...बातें हो रही थीं कि कहने लगे कि मुझे प्लान्टर फेश्आईटिस् है...मुझे उत्सुकता हुई कि एड़ी में दर्द की बात कर रहे हैं और बार बार इतना भारी भरकम मेडीकल शब्द बोल रहे हैं...मैंने ऐसे ही पूछा कि क्या आपने किसी हड्डी के डाक्टर या सर्जन को दिखाया है तो कहने लगे ..नहीं, मुझे पता है यह वही है प्लान्टर फेश्आईटिस...उन्होंने इस का राज़ खोला कि मैंने अपने लक्षण गूगल सर्च पर डाल दिए और मुझे पता चल गया कि मेरी बीमारी का नाम क्या है और मैंने इस के इलाज के बारे में जान लिया।

मैं सोच रहा था कि गूगल सर्च ईंजन वरदान तो है ही ...लेकिन कभी कभी यह बिना वजह किसी को परेशान भी कर सकता है। लेकिन इस में गूगल का कोई दोष नहीं है। मैं इस बात में बिल्कुल भी विश्वास नहीं रखता कि हम चिकित्सकों को बाई-पास कर इसी तरह से अपने लक्षणों के आधार पर अपनी बीमारी को स्वयं ही लेबल करें और फिर उस के इलाज को जानने का दावा करें...

डाक्टर लोग १५-२० साल पढ़ते लिखते हैं.. जब घिसने लगते हैं जब उन्हें यह सब समझ आने लगता है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि हम लोग खुद ही इस तरह की डाक्टरी करने लगें ...इस में मरीज़ का ही नुकसान है।

हां, थोड़ी बहुत सेहतमंद रहने की जानकारी गूगल बाबा से ले लेना...शरीर विज्ञान के बारे में कुछ हल्की फुल्की जानकारी (बिना दिमाग पर बोझ डाले हुए) आसानी से हासिल कर सकते हैं तो कर लेनी चाहिए...वरना, सेहतमंद रहने के जितने फंडे हम पहले ही से जानते हैं उन्हें ही मान लें तो पर्याप्त है। 

अभी एक बात का और ध्यान आ गया....दो दिन पहले मेरे पास एक अच्छा पढ़ा लिखा मरीज आया....मैंने उस के दांत देखे...उसे बताया कि नीचे वाले दांत में तकलीफ है...टूटा हुआ है....लेकिन वह बार बार कहे जा रहा था कि नीचे तो है ही ऊपर वाले में भी यही तकलीफ है। मैंने देखा, मुझे ऊपर वाले जबड़े में कुछ गड़बड़ी लगी नहीं....लेकिन वह कहने लगा कि नहीं, ऊपर भी है। मैं हैरान कि यह इतने विश्वास से कैसे कह रहा है, तभी उसने अपना सैम्संग ग्लैक्सी २ निकाल कर मुझे फोटू दिखाई अपने दांतों की ....मैं हैरान था कि इतनी क्लियर फोटू तो मैं नहीं खींच पाता किसी मरीज़ के मुंह के अंदर की......हां, तो वे तस्वीरें देखने पर पता चला कि वह जिस फोटो को ऊपर वाले दांतों की समझ के परेशान था, वह तो थी ही उस के नीचे वाले दांतों की। मैंने उसे समझाया तो बात उस की समझ में आई। आप समझ ही सकते हैं कि इस तरह से अपनी बीमारी के बारे में निर्णय करने के क्या परिणाम हो सकते हैं!

स्मार्ट फोन आ गये, मरीज भी स्मार्ट हो गये, गूगल बाबा की कृपादृष्टि भी बरसने लगी लेकिन एक परेशानी ने हमारा साथ नहीं छोड़ा....तंबाकू, जर्दा, पानमसाला, सुरती, खैनी...दो दिन पहले वाला एक मरीज़ याद आ गया...मुंह की हालत तंबाकू की वजह से बहुत खराब थी, बहुत ही ज़्यादा। मैंने पूछा कि तंबाकू-गुटखा कितना और कब से?...जवाब मिला एक हफ्ते से सब कुछ बंद है, बस एक पान की लत है वह नहीं छूटती......लेकिन एक पान मात्र....मैंने समझाया कि उसमें भी तो सुपारी है, तंबाकू है, उस से कुछ भी भयंकर रोग हो सकता है। मान गये कि उसे भी छोड़ देंगे....मैंने कहा ...निडर हो कर छोड़िए दो चार दिक्कत होगी, सिर विर थोड़ा भारी लगेगा, शायद थोड़ा दुःख भी सकता है लेकिन बाद में सुख ही सुख है, अगर तलब लगे तो मुंह में छोटी इलायची या सौंफ रख लिया करिए। झट से उन्होंने अपनी जेब से तीन चार इलायचियां निकालीं ...मेरे समेत सब को एक एक थमा दी....मुझे अच्छा लगा कि चलो, यह तो समझ गये लगते हैं ..लेिकन जाते जाते जैसे ही पेस्ट मंजन की बात हुई तो उन्होंने जेब से यह वाली डिबिया निकाल मेरी मेज पर रख दी ...इस में गुल मंजन है ...इस मंजन को यह बंदा कईं बरसों से दिन में कईं बार मुंह में रगड़ लेता है....गुल मंजन के बारे में तो आप जानते ही होंगे कि इस में तंबाकू होता है और यह मुंह का कैंसर का एक बहुत बड़ा कारण है। 
चांदी की डिब्बी में गुल मंजन ....नफ़ासत और नज़ाकत का नमूना!
आप देख ही रहे हैं कि यह डिब्बी भी चांदी की है जिस में इन्होंने इतनी हिफ़ाज़त से गुल मंजन संभाल कर रखा हुआ है...उन के साथ आए हुए शख्स ने इतना ज़रूर कहा कि आप देखिए...किस नफ़ासत और नज़ाकत के साथ....

मैंने इस  नफ़ासत नज़ाकत पर कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन मुझे गुल मंजन के बारे में बात करनी पड़ी ....कह कर तो गये हैं कि इसे भी छोड़ देंगे....देखते हैं...

आज कौन सा गाना लगाऊं.....सोच रहा हूं ...आज पंजाबी की एक सुपरहिट गायिका जसविंदर बराड़ का गीत बजा दिया जाए.....किसी ज़माने में मैं इन्हें बहुत सुना करता था....ग्रेट आर्टिस्ट ...ग्रेट गीत....इस गीत में यह अपने भाईयों को यह हिदायत दे रही है कि घर का सामान चाहे तो सारा कुछ बांट लेना, लेकिन मां-बापू को इक्ट्ठे रहने देना, उन को भी न कहीं बांट लेना कि बेबे एक के पास और बापू दूसरे के पास...निःशब्द........

डेढ़ महीने बाद ब्लॉग पर वापिसी ...

पूरे डेढ़ महीने के बाद आज ब्लॉग पर वापिस लौटा हूं...बस ऐसे ही कुछ लिखने की इच्छा ही नहीं हुई...जब भी लिखने लगूं यही लगे कि आखिर मैं लिखना चाहता ही क्यों हूं...बस, इसी तरह के विचार आते रहे और इतना समय निकल गया..लेकिन मैंने इन डेढ़ महीनों को व्यर्थ नही गंवाया।

पिछले दिनों मैंने शेयरो-शायरी खूब पढ़ी ...और फिर जो कुछ मुझे पसंद आया उसे फेसबुक, ट्विटर और गूगल-प्लस पर शेयर भी किया। और रेडियो भी खूब सुना...खूब। 

शायरों को पढ़ना सुनना बहुत अच्छा लगता है...खास कर के जो बातें इंस्पायर करें उन बातों को। मैं अकसर सोचता हूं कि हमारे पास इतना भरपूर लिचरेचर है लेकिन शायद हम लोग उस का उतना फायदा उठा ही नहीं पाते। पढ़ते पढ़ते कोई शब्द समझ नहीं आए तो मैं उसे डिक्शनरी में देखने की ज़हमत तक नहीं उठाता...इसीलिए मेरे जैसे लोगों की वोकेबलरी का स्तर २० साल पहले जैसा ही रहता है। 

पढ़ने का इतना आलस्य कि पिछले दो तीन वर्षों से फणीश्वरनाथ रेणु जी द्वारा रचित मैला आंचल और श्री लाल शुक्ल जी का राग दरबारी पढ़ने की तमन्ना है...कुछ महीनों बाद उठाता हूं ...दो चार पन्ने पढ़ता हूं ...बस। 

लिखने का मन इसलिए भी नहीं किया कि कभी कभी ऐसा भी लगता है कि अपने प्रोफैशन से संबंधित जितना लिखना था, वह हो चुका है...अगर कोई इसे पढ़ कर के फायदा उठाना चाहे तो उस के लिए सामग्री पर्याप्त है...और इन लेखों में एक एक शब्द को मैंने पूरी इमानदारी से लिखा है। 

जहां तक अन्य विषयों पर लिखने की बात है ..मैं ऐसा सोचने लगा हूं कि पढ़ने वाले को तो लगता होगा कि अच्छा लिखा है ..बात सही भी लिखी गई होती होगी, सच भी होती होगी ...लेकिन यही लगने लगा है कि अगर कोई भी बात दिल की गहराई से शेयर न की जाए तो फिर लिखने का क्या फायदा....लेखन में पैसा-वैसा तो है नहीं, अगर सतह पर रह कर ही अपनी बात शेयर करनी है जिसे पढ़ कर चार लोग कमैंट कर दें, दो टिप्पणी कर दें ...तो फिर इस तरह से लिखने का फायदा क्या, कुछ भी तो नहीं।

जब तक अपने लेखन में पूरी ईमानदारी न होगी तब तक लिखना किसी के लिए भी हितकारी न होगा...न लिखने वाले के लिए न ही पढ़ने वाले के लिए....इसलिए जो लोग पूरी ईमानदारी से लिखते हैं उन्हें पढ़ना, सुनना, बार बार पढ़ना बहुत भाता है....पता झट से लग जाता है कि लिखने वाला मेरी तरह का सुपरफिशियल लेखक है या फिर दिल से गहराईयों से लिखता है। 

मुझे कभी समझ नहीं आई कि आखिर मेरे जैसे लोग लिखते हुए डरते क्यों हैं...क्यों खुलापन नहीं आ पाता अपने लेखन में....अकसर सोचता हूं इस बारे में।

मैं अकसर सरकारी टीवी चैनलों की भरपूर तारीफ़ करता रहता हूं ....मेरी पिछली पोस्टों में आपने शायद इसे नोटिस किया होगा। 

कुछ प्राईव्हेट टी वी चैनलों पर तो जिस तरह से अकसर हम लोग जनप्रतिनिधियों को अपनी बात कहते देखते हैं, मेरा तो झट से सिर भारी हो जाता है...पांच सात मिनट के बाद ही ...जिस तरह से वे उछल उछल कर एक दूसरे की बात काट रहे होते हैं, उस से पता चल ही जाता है कि सच क्या है और झूठ क्या!

इस के विपरीत सरकारी चैनलों के कुछ प्रोग्राम हैं जिन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। कल मुझे ध्यान आया कि अरसा हो गया मैंने राज्य सभा टीवी चैनल पर गुफ्तगू प्रोग्राम नहीं देखा....मैंने यू-ट्यूब पर उसी समय लेख टंडन जी से मुलाकात सुनी ...कल रात की ही बात है....


जब मैं इस प्रोग्राम को देख रहा था तो मैं सोच रहा था इसे देखते हुए एक प्रतिशत या एक रती भर भी कहीं नहीं लगा कि यह महान् शख्स लेख लंडन जी कहीं कुछ छिपा रहे हैं या अपने शब्दों पर कोई मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं....ऐसे लोगों के संघर्ष को हमारा नमन......सच्चाई से टपकते इस तरह के इंटरव्यू हमें केवल इन्हीं सरकारी चैनलों पर ही दिखाई पड़ते हैं।

इन्हें सुनने के बाद ...मैंने इसी यू-ट्यूब चैनल पर शख्शियत श्रृंखला में चित्रा मुदगल जी को सुना.....एक दम रूह खुश हो गई...उन्हें भी सुनते हुए लगा कि जैसे शब्द नहीं, उन के मुंह से मोती किर रहे हों, इतना सच्चाई, बेबाकी और ईमानदारी से अपनी बात रखना ....जितनी तारीफ़ की जाए उतनी कम है....


मुझे बस इतना ही कहना है कि हमें इस तरह के महान लोगों को सुनने का भी टाइम निकाल लेना चाहिए...मैं अपने बारे में तो कह सकता हूं कि कईं बार बेकार में सोशल मीडिया में उलझे रहते हैं ....न कुछ कढ़ना न कुछ पाना....बेकार में मुंड़ी गडाए सिर दुःखा लेते हैं......अगर सच में कुछ प्रेरणा चाहिए, कुछ सोचने पर मजबूर करने वाली बातें सुनने का मन हो तो इस तरह के कार्यक्रम देखने चाहिए....रोज़ाना......भरपूर खजाना है इन सरकारी टीवी चैनलों के यू-ट्यूब चैनलों पर .....बस, हमारे में इन से कुछ ग्रहण करने की इच्छा होनी चाहिए। क्या पता इन महान् शख्शियतों को सुनते सुनते हम भी अपनी बात दिल की गहराईयों से कहने लगें....

और कल क्या किया?....दोपहर में शायद ज़ी क्लासिक पर जीवन-मृत्यु फिल्म आ रही थी...एक दो घंटे उसे देखा ...शाम को आप की कसम किसी चैनल पर आ रही थी तो उसे बीच बीच में देखता रहा ...रात में लेख टंडन साहब और चित्रा मुद्गल जी को सुना.......बहुत सुकून मिला ....

जीवन-मृत्यु फिल्म का यह गीत अभी ध्यान में आ गया....