आज की यात्रा के दौरान सब से पहले यही लड़का दिखा जो अपनी साईकिल यात्रा में पूरी तरह से मस्त दिखा। मुझे ध्यान आया कि सारे बच्चे ही जब साईकिल चलाना सीखते हैं तो लगभग इसी तरह का नज़ारा ही मिलता है। यह तस्वीर लगभग १२-१३ साल पुरानी है ..फिरोज़पुर की ...जब बड़े बेटे ने नया नया साईकिल चलाना सीखा था, आगे बैठे छोटे भाई को उस से भी ज़्यादा मज़ा आ रहा है। सब लोग सही कहते हैं तस्वीरें बोलती हैं।
लेकिन यह क्या जावेद पान वाला ९ दिन में दांतों के दाग धब्बे साफ करने के झूठे सपने भी बेच लेता है!! इस तरह के प्रोड्क्ट्स का विज्ञापन चस्पां करने के लिए इस से बढ़िया जगह हो ही नहीं सकती। एक तो कोई भी ग्राहक पानमसाला-गुटखा लेने से ज़रा भी डरे नहीं, और साथ में इसे भी खरीद ले इस झूठे वायदे के साथ कि दांत चमक जाएंगे। सारा दिन मेरे जैसे लोग पानमसाला-गुटखे की ही बातें करते हैं, लेकिन इस समय इस टॉपिक पर इससे ज़्यादा कुछ कहने की तमन्ना नहीं हो रही!
हां, यह बढ़िया करा है पुलिस स्टेशन वालों ने....उन्होंने अपनी दीवार पर यह पेन्ट करवा दिया है...
अमौसी हवाई अड्डा अब केवल विमानों हेतु..
हवाई स्पीड पर चलने वाले २ व ४ पहिया वाहन कृपया बैकुण्ठ धाम हवाई अड्डे का इस्तेमाल करें...
आज मेरी इच्छा हुई कि लखनऊ के मल्टीएक्टिविटी सेंटर हो कर आया जाए...लेकिन यह क्या वहां पर ये तंबू गढ़े हुए थे। फिर ध्यान आया कि अब लखनऊ के पार्क एवं अन्य ग्राउंड आदि जो मायावती के शासनकाल के दौरान भी बने हैं ...वे सब अब व्यक्तिगत समारोहों के लिए भी किराये पर मिलते हैं। इस के बारे में कुछ महीने पहले समाचार पत्रों में भी आया था और इन सार्वजनिक स्थलों के बाहर भी नोटिस लगा हुआ है कि आप लखनऊ डिवेलप्मेंट अथारिटी की वेबसाइट पर जा कर यह बुकिंग कर सकते हैं। अच्छा लगा ...सरकार की कुछ कमाई ही हो जाएगी। शायद यहां कोई शादी वादी कल रही होगी, अब तो इन्हें उतारा जा रहा था...लेकिन लोग अंदर अपने प्रातःकाल के भ्रमण का आनंद तो ले ही रहे थे।
अभी थोड़ा सा आगे निकला था कि एक सुनसान सी लंबी सड़क पर यह इकलौता पेड़ किसी घर के सामने देख कर मन खुश हुआ...और इस के थोड़ा आगे ही एक दूसरे घर के बाहर छाया और पानी एक साथ दिखने पर मन ही मन उस घर में रहने वाले की प्रशंसा अपने आप हो गई...अगर एक दो पानी के मटके भी रख देते तो क्या बात थी!! पंजाबी में एक पुरानी कहावत है जिस का अर्थ यही है कि किसी भी घर के भाग्य का पता उस की डियोढ़ी से ही लग जाता है...(घर दे भाग उस दी डियोढी तो ही पता चल जांदे ने) ..
लेिकन थोड़ा ही आगे निकला था तो यह पेड़ देख कर यही मन में आया कि ठीक हैं, जड़े मजबूत होनी चाहिएं, हम लोग इन का महत्व जानते हैं...लेकिन इन ज़ड़ों की भी निरंतर देखभाल ज़रूरी है....वरना आज का मानस इस तरह की जड़ों पर भी वार करने से गुरेज नहीं करता....अकसर, तभी तो इस तरह की नंगी हो रही जड़ों को मिट्टी से ढक दिया जाता है।
अब आता हूं इस पोस्ट के मुद्दे पर.......जिस सड़क पर मैं चल रहा था उस के डिवाईडर पर इतने सारे पेड़, हरियाली और गहमागहमी देख कर मन प्रफुल्लित हो गया और अचानक ध्यान आया कि कुछ सड़के इस तरह की हरियाली की वजह से कितनी ज़िंदादिली का परिचय देती हैं।
हर शहर में ही होता है, कुछ सड़कों पर इस तरह से डिवाईडर पर पेड़ लगने से वहां पर जैसे ज़िंदगी बसेरा कर लेती है...हम लोग संकीर्ण मानसिकता वाले हैं..हर बात के निगेटिव पहलू पहले गिनाने लगते हैं..लेकिन मां प्रकृति सब को प्यार-दुलार से अपनी आंचल का साया दे देती है।
इस तरह की ज़िंदादिल सड़कों के जितने भी मुद्दे हों, बीच का रास्ता ऊबड़-साबड़ है, लोग रेहड़ी लगा लेते हैं, छोटा मोटा कोई बाल काटने वाला वहां आ जाता है, दिहाड़ी करने वाले अपने खिचड़ी बनाने लगते हैं, फूल बेचने वाले आ धमकते हैं... कोई वैसे ही वहां बैठ कर पनाह ले लेता है.....यह सब बड़े छोटे मुद्दे हैं....बिल्कुल छोटे ...उस घनी छाया और ठंड़क के बदले जो इस तरह के पेड़ों के झुरमुट इस तपिश भरी गर्मी में बिना किसी भेदभाव के बांटते चले जाते हैं...और हम से बिना किसी किस्म की मांग किए हुए...केवल कुल्हाड़ी के वार से डरे-सहमे हुए कि पता नहीं कब किसी लालची मानस की कुल्हाडी रूपी हवस का शिकार होना पड़े।
अरे वाह!.... अचानक मुझे वह घर दिख गया जिसे हम लोग लखनऊ आने पर घर की तलाश करते वक्त ज़रूर निहारा करते थे....दोस्तो, इस घर में इतनी हरियाली है जितनी मैंने किसी घर में नहीं देखी...हमें ऐसा ही घर चाहिए था...लेकिन पता करने पर मालूम हुआ कि यह घर तो है ..लेकिन अब यह विवाह-शादियों के सीज़न के दौरान एक दो चार दिन के लिए किराये पर दिया जाता है...उस से मोटी कमाई होती है! हरियाली तो इस घर में भरपूर है...इन्होंने घर के आगे ज़मीन भी ऐसे ही कच्ची छोड़ी हुई है जो इस की सुंदरता में चार चांद लगाती है....
जिंदादिली वाली सड़कों की बात के बाद निर्जीव सड़क का भी एक सेंपल देख लें...बहुत ही ऐसी भी सड़के हैं लखनऊ में ..लेिकन जिन सड़कों पर मेरा अकसर आना जाना होता है ...जेल रोड और व्ही आई पी रोड़.......बस कहने को ही व्ही आई पी रोड़ ..बत्तियां तुरंत दुरूस्त हो जाती हैं.....मखमली सतह है ...बेशक ...क्योंकि इस रास्ते से व्ही आई पी लोग हवाई अड्डे पर आते जाते हैं ...और उस दौरान ट्रैफिक इस तरह से दस दस मिनट के लिए दिन में पता नहीं कितनी बार रोक दिया जाता है।
निर्जीव सड़कें क्यों बनीं......मैंने इस के बारे में सोचा तो मुझे लगा कि किसी ने तो यह निर्णय लिया ही होगा कि इन सड़कों के बीचों बीच डिवाईडर पर पेड़ नहीं लगेंगे ....और यह निर्णय शायद इस कारण से भी हो कि अगर इतने बड़े एरिया में पत्थर लगेंगे तो ..........बाकी, आप समझदार हैं। मिट्टी से क्या मिलना है.! लेकिन मिट्टी कुछ कह रही है, बेहतर होगा सुन लें....
मुझे कहने में कोई हिचक नहीं कि इस तरह के निर्जीव सड़कों के फैसले आने वाली पीढ़ियों की भी बदकिस्मती होती है... अगर कहीं पेड़ दिख भी जाती है इन रास्तों पर तो बिना छाया वाला और कंटीला........चलिए, माटी कुम्हार से क्या कह रही है, इसे ही कभी सुन लें.......शायद इसी से ही हम कुछ सीख ले लें!
फिलहाल तो यह गीत ध्यान में आ रहा है....