शनिवार, 5 मार्च 2022

बस यूं ही ....यादें, किताबें, शिकार की बातें

लिखना भी एक अजीब शौक है ...शुरूआती बरसों में जब लिखना शुरू करते हैं तो ऐसे लगता है कि 30-40 लेखों के अलावा तो कोई मजमून ही नहीं जिस पर लिख पाएंगे...मेरे साथ भी ऐसा ही था ...जब बीस साल पहले मेरे लेख हिंदी की अख़बारों में छपने लगे तो मुझे यही चिंता अकसर सताए रहती कि चालीस पचास लेखों के बाद लिखूंगा क्या...

लेकिन फिर जैसे जैसे आप अपने दिलोदिमाग मे बनने वाली तस्वीरों को  कागज़ पर उकेरने लगते हैं तो फिर यह समझ आने लगती है कि जिन विषयों पर आप लिखना चाह रहे हैं ...वे तो ताउम्र खत्म न होंगे ...बस, उस के लिए निरंतर लिखते-पढ़ते रहना होगा...और इस तरह की रुचि लिखने वाले के साथ मिलते जुलते रहना चाहिए...बातें छोटी सी होती हैं, लेकिन कभी किसी दूसरे के मुंह से निकलती है तो एक बार तो यही अहसास होता है कि यार, इतनी सी बात का हमें ख्याल नहीं आया..

खैर, कुछ दिन पहले की बात है मैं एक लेखक से बात कर रहा था कि मुझे रिटायर होने के बाद अपनी यादें एक किताब में समेटनी हैं...मेरे पास बिंदास लिखने को बहुत कुछ है ...पिछले 30-35 बरसों में नौकरी के दौरान जो महंगे सबक सीखे...सब कुछ लिख देना है मुझे ...नाम वाम तो मैंने क्या लेने हैं किसी के ..लेकिन लिखूंगा मैं पूरी इमानदारी के साथ ...वरना फायदा ही क्या...। नौकरी करते करते कुछ रब्बी लोग भी मिले, कुछ विलेन भी मिले ... कुछ के लिए हम रब थे, कुछ के लिए हम विलेन...लेकिन यह सब अब दिल के किसी कोने में दबा के रखा हुआ है ...जब उस कोठरी को खोलेंगे तो आप को भी बताएंगे ... हा हा हा हा हा ...

हां, तो जब मैं ये बातें कर रहा था तो उसने इतना ही कहा कि लिखना तो अभी शुरु कर दो. छपवा रिटायरमेंट के बाद लीजिएगा...मुझे यह ख्याल पहले कभी क्यों न आया, मैं हैरान हूं...मेरे दिमाग की बत्ती जल गई...

किताबें ..किताबें ...किताबें ...बहुत अच्छी दोस्त होती हैं...मैं इतनी किताबें खरीदता हूं कि क्या कहूं....मेरी मां सब को बड़े चाव से बताया करती थीं कि प्रवीण को पढ़ने का बहुत शौक है और इसके पास ढ़ेरों किताबें हैं...मां को यही लगता कि किताबों पर इतना पैसा खर्च करने के लिए बडा़ दिल होना चाहिए...लेकिन मैं बहुत बार यही कहता कि मैं अपने मन को यह कह कर समझा लेता हूं कि बच्चे तो जितना एक-दो-तीन पिज़्ज़ा मंगवाने पर खर्च करते हैं ...उतना ही तो खर्च आता है किसी किताब को खरीदने में। आज भी कोई भी किताब खरीदते वक्त मेरा ध्यान उस की पांच छः सौ रूपये की कीमत पर नहीं जाता ...बल्कि मैं यही सोच लेता हूं कि मैं किसी बढ़िया सी दुकान से पिज़्ज़ा मंगवा रहा हूं ...या बाहर कहीं जाकर नॉन-दाल मखनी मंगवा रहा हूं ..जो कि मैं अकसर मंगवाता नहीं हूं ...इसलिए किताबों पर किया गया खर्च मुझे कभी भी नहीं चुभता...

मेरे कमरे में हर तरफ़ किताबें बिखरी पड़ी होती हैं...क्योंकि कभी मैं कोई उठा कर पढऩे लगता हूं तो कभी कोई और...कुछ दिन पहले तो मेरे बेड़ पर इतनी किताबें थीं कि मुझ से करवट ही नहीं लेते बन पा रहा था ... खैर, जो भी है...बड़ा बेटा क्रिएटिव फील्ड से है, डाक्यूमैंटरीज़ बनाता है .. वह समझता है, फाउंटेन पैनों की, मेरी किताबों की कलेक्शन को देख कर खूब हंसता है ..डैड, यू आर के क्यूरेटर...। 

मैं आज सोच रहा था कि किताबें दोस्त होती हैं ..बेशक होती हैं दोस्त...इन के साथ रहना अच्छा लगता है ...सुबह-शाम थोड़ा वक्त इन के बीच बिताने से मन हल्का हो जाता है ...मुझे भी वक्त तो थोड़ा ही मिलता है पढ़ने का ...लेकिन सोच मैं यह भी रहा था कि लोग कहते हैं न कि उन्होंने फलां फलां किताब पढ़ी, जिसे पढ़ कर उन का ज़िंदगी बदल गई...मुझे यही मलाल है कि यार, मुझे क्यों नहीं कैसे कोई किताब मिली अब तक जिसे पढ़ कर मेरी ज़िंदगी भी बदल जाए...बेहतर हो जाए..लेकिन असलियत यह है कि शायद ही कोई किताब ऐसी होगी जिसे मैंने शुरू से अंत तक पढ़ा हो ...हां, बचपन की बात करता हूं तो याद आती है ..आठवीं जमात में पढ़ी एक किताब ...शायद उस का नाम था ...आगे बढ़ो - यह किताब मुझे मेरे जीजा जी ने भिजवाई थी ...नेशनल बुक ट्रस्ट से छपी थी...उसमें प्रेरणात्मक प्रसंग थे, जिन्हें मैं बार बार पढ़ता रहता और मेरी मन में भी वैसा ही बनने की हसरत होती...और हां, स्कूल में भी जब वार्षिक समारोह होता तो हर साल मुझे भी कुछ ईनाम मिलते ....और वे किताबों की शक्ल में ही होते ...भगत सिंह, लाला लाजपत राय, यशपाल का उपन्यास-अधूरा सच....मैं उन्हें भी बड़े चाव से पढ़ता ..लेकिन याद नहीं, पूरा पढ़ा हो ..बीच बीच में से पढ़ता था...

अभी मैं हिंदोस्तान की किसी राजकुमारी की यादें (मिमॉयर्ज़) पढ़ रहा था ...अचानक मुझे लगा कि हमें जितना हो सके पुराने नामचीन लोगों की जीवनियां, मिमायर्ज़ (यादें), ज़रूर पढ़नी चाहिए...बहुत कुछ सिखा देती हैं ये किताबें ....आदमी एक अलग संसार ही में पहुंच जाता है ...हां, तो उस राजकुमारी की यादों से भरी किताबें के पन्ने उलट रहा था तो दो तस्वीरों पर निगाह रूक गई ...पहली में तो उसके पति की 12 बरस की तस्वीर है जिसमें वह एक शिकार किए हुए शेर के साथ बंदूक लेकर खड़ा है...और कुछ सफ़ों के बाद उस के बेटे की फोटो है जो 11 साल की उम्र में अपने पहले शेर के शिकार के साथ बंदूक लिए खड़ा है...लगभग पचास साल पहले यह किताब पहली बार प्रकाशित हुई थी ...जो भी हो, अभी राजकुमारी की बातें तो आराम से, इत्मीनान से पढूंगा ...लेकिन वे तस्वीरें मुझे भद्दी लगीं...तुम ताकतवर हो गए ..ताकत इतनी बढ़ गई कि शेर को ही मार गिराया...उस बेचारे का क्या कसूर....उसे भी जीने देते ....यह भी खौफ़नाक क्रूरता नहीं तो क्या है...। पहले हम लोग फिल्मों में भी देखा करता थे कि कुछ लोग शिकार पर जा रहे हैं...शायद उस बालपन में इतना सोचते नहीं थे ..लेकिन आज सोचते हैं तो घिन्न आती है ..पहले आप जंगल में शिकार करते हैं, फिर उन जीवों को आग कर भून कर खा जाते हैं...यह तो कोई मर्दानगी न हुई...

शुक्र है कि धीरे धीरे कानून इतने सख्त हो गए कि ये शिकारियों विकारियों की बातें कम से कम हम तक पहुंचनी तो कम हुई ..लेकिन शिकार तो होते ही हैं अभी भी ...हां, कभी कोई बड़ा बंदा जब शिकार करते पकड़ा जाता है तो उसे कानून के पंजे से छूटने में बरसों लग जाते हैं ...छूट तो लोग जाते ही हैं ..

आज मैं ड्यूटी पर जा रहा था तो मैंने बांद्रा में एक जगह एक युवक को स्कूटर पर दोनों तरफ़ रस्सी से बांध कर उल्टे टंगे हुए मुर्गे देखे ...मेरा मुूड बहुत खराब हुआ...बड़ी बड़ी गाडियों में तो छोटे छोटे पिजन-होल्स में दुबके, डरे-सहमे पड़े मुर्गे-मुर्गियां तो हम रोज़ देखते ही हैं...कृपया इसे बिना किसी मज़हब का चश्मा लगाए पढ़िए...वैसे भी यह मेरा काम नहीं है, यह जिन लोगों का काम वे अच्छे से करना जानते हैं....और न ही यह किसी को कुछ खाने या ना खाने की नसीहत है ...लेकिन जो बात मुझे कचोटती है नित दिन वही लिख रहा हूं...हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं...बस तस्वीर बदलनी चाहिए...😎....एक साल पहले मैंने बांद्रा इलाके में ही एक युवक को सुबह सुबह अपने दोनों कंधों पर 10-10-20-20 मुर्गे उल्टा लटकाए देखा ...मुझे बेहद दुःख हुआ....मैंने फोटो खींच तो ली...लेकिन वह तस्वीर ऐसी थी कि लोग उसे देख लें तो एनिमल एक्टिविस्ट सड़कों पर उतर आते ...जानवरों के साथ इतनी दरिंदगी... इसलिए उसे अपने इंस्टाग्राम अकाउंट से फ़ौरन डिलीट कर दिया...क्या है ना, यहां कुछ पता नहीं लगता, आप का लिखा या आप की शेयर की हुई तस्वीरें लोग कौन सा चश्मा लगा कर देख-पढ़ रहे हैं....हंगामा खड़ा करने का बहाना चाहिए होता है जैसे...

बाकी खाने-पीने की आदते हैं सब की अपनी अपनी ..पर्सनल च्वाईस..लेकिन जिस तरह से इन मुर्गे मुर्गियोंक एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाया जाता है वह बेहद दर्दनाक दृश्य होता है ...अच्छा, एक बात और ...जिस ट्रक में भी ये मुर्गे लदे होते हैं..डरे, सहमे, सिमटे, दुबके ...किसी मुर्गे बेचने वाले की दुकान पर खड़ा करते ही उस पर एक तराजू लटका दी जाती है ...बस, फिर चार पांच ज़िंदा (कहने को ही ज़िंदा...) मुर्गे उस तराजू पर झूल जाते हैं...और फिर उन्हें वहां से उतार कर दुकान के दड़बे में कैद कर दिया जाता है ...जब तक कोई ताकतवार ग़िज़ा ढूंढते हुए ग्राहक वहां तक नहीं पहुंचता...सोच रहा हूं कि कितने खौफ़ में जीते होंगे ये मुर्गे लोग भी ...और ये क्या ताकत दे देते होंगे खाने वालों को ...अपने आप ही से सवाल कर लेता हूं अकसर...!!

फिल्मों में दिखाते हैंं न कि अपराधियों से भरी गाड़ियों को बीच राह में रोक कर उन्हें उन के गिरोह के लोग छुड़वा ले जाते हैं ..वे रिहा हो जाते हैं...मैं सोचता हूं कि इन मुर्गों से भरे ट्रकों में से इन मुर्गों को आज़ाद करवाने कोई नहीं आता ... ये बातें निरर्थक हैं, सोचना भी ..मुझे पता है ..लेकिन मेरा दिल इन मुर्गे-मुर्गियों को इस हालात में देख कर दुःख बेहद होता है ....काश! .........................(Censored!) 😠😠

अच्छा, मुझे अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि मैंने ऊपर लिखा कि मैंने शायद ही कोई किताब हो जो शुरू से लेकर अंत तक पूरी पड़ी हो ..लेकिन दो साल पहले जब सुरेंद्र मोहन पाठक ने अपनी जीवनी लिखी- दो किताबों की शक्ल में ...वह मैंने ऐसे पढ़ी चार पांच दिन में पढ़ डाली...मुझे याद है उन दिनों मुझे रोटी खाने की भी सुध न थी......कौन है ये सुरेंद्र मोहन पाठक....जनाब, ये देश के एक बहुत बड़े नावलकार हैं...300 से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं...इसलिए मुझे बहुत जिज्ञासा थी कि यार, जिस बंदे ने इतने नावल लिख दिए...उस की खुद की ज़िंदगी का नावल भी पढूं तो सही ...इसलिए जब वह मुझे दो साल पहले ..लाकडाउन से दो तीन महीने पहले दिल्ली में एक साहित्यिक सम्मेलन पर मिले तो मैंने उन्हें यह सब बताया...वे खूब हंसे...उन की लिखी.एक और किताब वहां से लेेकर उस पर उन के आटोग्राफ भी लिए....मज़ा आया उन से मिल कर ...उन को सुन कर वहां उस दिन...पढने का उन्हें इतना शौक रहा है कि वे जिस लिफाफे में मूंगफली खरीदते, मूंगफली खत्म होने पर उसे फैंकने से पहले फाड़ कर पढ़ ज़रूर लेते ..

सुरेन्द्र मोहन पाठक के साथ लेखक ..नवंबर 2019

और हां, मैंने नावल कभी नहीं पढ़े, इतना सब्र ही नहीं है मुझ में ....शायद बच्चों के नावल ज़रूर पढ़े थे जो किराए पर मिलते थे हमारे दौर में ...जिस में कोई सिक्रेट एजैंट किसी चोर-डाकू-तस्कर के पीछे पड़ जाता है ...मज़ा आता था उन्हें भी पढ़ कर ...वैसे भी जिस लिखावट को पढ़ने में दिमाग पर ज़ोर लगे, मुझे वह पढ़ना नहीं भाता... अपनी अपनी पसंद है...मुझे तो  हल्का-फुल्का लिखा ही पसंद है... जिस पर दिमाग पर ज़ोर भी न पड़े और लिखने वाला हम तक अपनी बात भी पहुंचा दे ...

सुरेन्द्र मोहक पाठक साहब की स्वःजीवनी 

लिखता क्यों है कोई बंदा..........किसी लेखक से यह पूछने बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई यह पूछे कि भूख लगने पर हम रोटी क्यों खाते हैं...कोई मक़सद नहीं होता, कोई पढ़े न पढ़े, कोई फ़र्क नहीं पड़ता...तालियां बजें न बजें...लिखने वाले परवाह नहीं करते ..बस उन्हें लिख कर एक अजीब सा सुकून मिलता है, राहत का एहसास होता है ...और जिन चंद लोगों को हम बहुत चाहते हैं उन्हें जब अपना कुछ लिखा भेजते हैं तो ऐसे लगता है जैसे आज की चिट्ठी विहीन दुनिया में उन्हें चिट्ठी ही लिख रहे हैं....अभी इस पोस्ट को लिखते लिखते देखा कि बड़ी बहन का मैसेज आया है ..तुम्हारी पोस्ट की इंतज़ार हो रही है..मैंने जवाब लिख दिया...लिख रहा हूं, भेजता हूं अभी .. 😃😃


क्या आप को लगता है कि इस फिल्मी नगमे से बड़ी भी कोई इबादत हो सकती है...मुझे तो कभी नहीं लगता...न आदमी की आदमी झेले गुलामियां....न आदमी से आदमी मांगे सलामीयां ......🙏