रविवार, 21 दिसंबर 2014

जनगणना करने वाले की आपबीती..

यहां मैं एक वीडियो अपलोड कर रहा हूं ...मेरे सहपाठी मित्र कैप्टन (डा) पी सी चावला ने इसे आज सुबह भेजा था, इसे सुना तो दिल को छू गया। मैंने सोचा कि इसे अपने पाठकों तक कैसे पहुंचाऊं......शायद बहुत से पंजाबी भाषा जानते न हों, इसलिए मैंने इसे पहले पंजाबी भाषा में लिखा....अब इसे हिंदी भाषा में लिख कर आप तक पहुंचाने का एक अदना सा प्रयास करने लगा हूं........वैसे तो शुक्र है कि मानवता की कोई भाषा नहीं होती..



जनगणना करता जब मैं एक गली से गुजरा,
छोटे सी कोठरी से किसे के खांसने की आवाज़ आई, 
मैंने झांक कर अंदर देखा और अंदर चला गया, 
उस बंदे ने मेरे से पानी मांगा, 
एक छोटी सी सुराही, गिलास, बालटी और टोकरी पड़ी थी, 
खस्ताहाल चारपाई पर एक ८० साल का बाबा पड़ा हुआ था...

सुराही से पानी मैंने गिलास में डाल लिया, 
बाबे ने गिलास पकड़ कर मुंह से लगा लिया, 
मैंने पहचाना नहीं तुम कौन हो भाई, 
कहां रहते हो, किस गांव से हो, 
मैंने कहा मैं आप के गांव का सरकारी मास्टर हूं..
मेरी जनगणना पर लगाई गई ड्यूटी है। 
आपके सारे घर परिवार के बारे में मैंने लिखना है, 
आप कितने मैंबर हो सारा परिवार मैंने लिखना, 
यह सुन कर बाबे की आंखें भर आईं, 
उस की आंख से अश्रु गिरता हुआ उसे रूला गया। 

हौसला रखते हुए बाबा फिर बोला, 
जिंदगी का फिर उसने राज़ खोला, 
चार पुत्तर पांच पोते बड़ा परिवार था, 
किसी समय शेरा मैं नत्था सिंह सरदार था। 
मिट्टी के साथ मिट्टी होकर मैंने कमाईयां कीं, 
मेरे पैरों में फटी बिवाईयां देख, 
काम कर कर के हाथों की लकीरें ही मिट गईं, 
पुत्र और पौतों के लिए जागीरें बना दी हैं लेकिन। 

फिर मेरे घुटने और कंधे जवाब दे गए, 
तब मेरे बेटे करने लग पड़े हिसाब ओए, 
खेत, घर, बाहर सब का हिस्सा तो पड़ गया, 
लेकिन तेरा यह बाबा बिन-बंटा ही रह गया, 
मेरी जीवनसाथी भी मुझे बीच में छोड़ गई, 
कुछ समय पहले स्वर्ग-सिधार गई। 

अगर मैंने गड्डे जोड़े तो ये गाडियों में बैठते हैं, 
हमारे बुड्ढे ने क्या किया आज यह लोगों से कहते हैं,
कोठियों से निकल कर खटिया बाहर कोठे में आ गई, 
नत्था सिंह सरदार अब नत्था बुड़ा बन के रह गया। 

लोकलाज के मारे एक दूसरे की बात मान ली, 
महीना महीना मुझे रखने की चारों ने बारी बांध ली, 
३० और ३१ दिनों का फिर पंगा पड़ गया, 
मार्च मई वाले कहते कि बुड़ा इक दिन ज्यादा रह गया। 
एक बात जा कर अपनी सरकार के कानों तक पहुंचा देना, 
हर बाजी जो जीतते वे औलाद के हाथों हारते,
आप कहते हो कि आज तरक्की कर ली, 
पर क्यों एक बात भूल जाते हो, 
वो तरक्कीयां कैसी हैं जहां बागबान ही खाए ठोकरें, 
मेरे बेटे मुझे माफ़ करना, मैं तो भावुक हो गया...
तुमने तो फार्म के खाने भरने थे और मैं अपना ही दुःखड़ा रोने लग पड़ा। 

मैं बेबस हो कर उठ खडा हुआ, मेरी आंखों से बह निकली अश्रुधारा, 
मेरे हाथों से पेन गिर गया, फार्म भी खाली रह गया। 
बुज़ुर्ग होते हैं घरों की रौनकें, इन रौनकों को कम मत करना सोहनेयो, 
ये पनीरी तैयार करने वाले माली हैं, इन्हें धूप में न बैठाना सोहनेयो।। 
धूप में न बैठाना सोहनेयो।  

इतना कुछ लिखने के बाद कुछ और कहने को क्या कुछ रह जाता है, जैसे इस पंजाबी कवि ने इशारे इशारे में सारे समाज को एक आइना दिखा दिया है। 


अच्छा है नींद की गोलियां खुले में नहीं बिकतीं...

आज मैं अमेरिका में नींद की गोलियों के अंधाधुंध इस्तेमाल की बात पढ़ रहा था तो मुझे यही ध्यान आया कि पिछले तीस सालों में एक अच्छी बात जो मैंने इस देश के कैमिस्टों में नोटिस की है ...वह यह कि ये लोग नींद की गोलियां बिना डाक्टर के नुस्खे के किसी आदमी को नहीं बेचते।

वैसे तो कुछ कैमिस्ट किस किस तरह के गोरखधंधे कर रहे हैं यह जगजाहिर है.....अपने लाइसेंस को पांच हज़ार के मासिक किराये पर किसी को आगे कैमिस्ट की दुकान चलाने के लिए दे देना, या फिर कुछ तो नशे के टीके बेचते ही नहीं, ये छोटे मोटे कैमिस्ट अपनी ही दुकान में या कहीं उस के पिछवाड़े में जनता की नज़रों से दूर नशा करने वालों की इंजेक्शन लगाने तक की ज़रूरतें पूरी करते हैं।

यह नींद की गोलियां भी ये बिना नुस्खा के इसीलिए नहीं बेचते कि ये किसी तरह के पुलिस के लफड़े में पड़ना नहीं चाहते। इन नींद की गोलियां का बहुत से आत्महत्या करने वाले युवक एवं युवतियां इस्तेमाल करने लगी थीं.....अभी भी यह सब चल ही रहा है। फिर भी नींद की गोलियां उतनी आसानी से मिलती नहीं हैं।

नींद की गोलियां......कहते तो हैं, लेकिन इन के लेने से व्यक्ति थोड़ा सुकून सा महसूस करता है, आगे बात करते हैं यह कैसा सुकून है। इस में एलप्रैक्स, कामपोज़ और लोराज़िपाम जैसी दवाईयां शामिल हैं।

नींद की दवाईयां भी अगर प्रशिक्षित डाक्टर ही लिखे तो ठीक होता है क्योंकि उसे पता रहता है कि किस मरीज़ में किस तरह की गोलियां चाहिए....आप को शायद पता नहीं होगा कि नींद की दवाईयां इस हिसाब त से बनी हुई हैं कि क्या नींद आने में दिक्कत है, या फिर कोई सो तो ठीक जाता है लेकिन बीच बीच में उठने लगता है ..नींद ठीक से आती ही नहीं, या फिर सुबह कोई जल्दी उठ जाता है, इन सब के लिए अलग अलग दवाईयां तो हैं।

एक बात जो मैंने नोटिस की है कि यह नींद वींद की समस्या उन लोगों में ज्यादा होती है जो निष्क्रिय रहते हैं ..कोई काम नहीं करते सारा दिन लेटे रहते हैं, आराम फरमाते रहते हैं......जो मैंने अनुभव किया है यह नींद की समस्या उन लोगों में बहुत कम होती है जो अपने मन की खुशी के लिए किसी न किसी काम में व्यस्त रहते हैं, घूमते टहलते हैं, किसी न किसी तरह के - अपने मन की खुशी के लिए -- आध्यात्मिक समूहों के साथ मिल बैठ कर थोडा समय बिताते हैं..

और मैंने देखा है कि कुछ लोग इतने पॉजिटिव से होते हैं कि नींद कम भी आती है तो इसे बड़ा एक्टिवली एक्सेप्ट करते हैं कि ठीक है, उम्र के साथ नींद कम तो होनी ही है... चुपचाप सुबह उठ कर अपने किसी काम में व्यस्त हो जाएंगे, कुछ पढ़ने में , टीवी पर अपना मनपसंद कार्यक्रम देखने में ...कहने का मतलब है कि अधिकतर लोगों ने इस देश में अपना कोई न कोई सुपोर्ट सिस्टम बना रखा होता है ......जिस के कंधे पर अपना हाथ या सिर रख कर अपने दिल का गुबार निकाल सकते हैं।

लेकिन आज मैंने यह खबर देखी कि अमेरिका में कितनी ज़्यादा संख्या में लोग इस तरह की नींद वाली गोलियों के आदि हो चुके हैं.....वैसे इन्हें नींद वाली गोलियां तो आम तौर पर कहते हैं ......इन्हें सिडेटिव (Sedatives) भी कहा जाता है। कोई भी दवाई है तो उस के कुछ न कुछ तो साइड-इफैक्ट्स तो होते ही हैं, जैसे कि इस रिपोर्ट में भी आप पढ़ेंगे कि इन दवाईयों के इस्तेमाल से बुजुर्गों में तरह तरह की समस्याएं भी आ जाती हैं ...वह चलते चलते गिर सकते हैं, ड्राईविंग में दिक्कत आ जाती है, किसी बात को समझने में तकलीफ़ हो सकती है ...

मेरा तो यही विचार है कि अगर आप को या आप के आसपास किसी निकट संबंधी को इस तरह की तकलीफ़ है कि वे ज़्यादा टेंशन में रहते हैं, हर समय चिंता में डूबे रहते रहते हैं, नींद कम हो गई है तो इस के लिए सदियों से टेस्टेड जो फार्मूले हैं वे बेहद आसान हैं.........अपने आहार को सात्विक करें, रात को हल्का लें, योग-प्राणायाम् और ध्यान से बढ़ कर कोई औषधि इस तरह की तकलीफ़ों को दूर रखने के लिए सब से ज़्यादा कारगर हैं, बाकी तो बाजारवाद है......दवाईयां बनती हैं तो बिकेंगी भी .......बिकेंगी तभी जब कोई लिखेगा।

मैं यह नहीं कहता कि ये दवाईयां न खाएं या डाक्टर की बात न मानें.......मेरा कहने का भाव यही है कि पहले अपने खान-पान, जीवनशैली को थोड़ा पटड़ी पर लाने की कोशिश करें तो ही डाक्टर का रूख करें......शायद अपने रहन सहन, खान-पान में परिवर्तन करने से और योग-प्राणायाम् और ध्यान को अपने जीवन में लाने पर आप की ये सब समस्याएं अपने आप ही छू-मंतर हो जाएं.......और यकीनन ऐसा ही होगा।

वरना डाक्टर तो हैं ही......अगर ऐसा कुछ लग रहा है कि नींद आ ही नहीं रही, सोने का कुछ बड़ा लफड़ा है तो भई फिजिशियन के पास तो जाना ही पड़ेगा.........इस रिपोर्ट में यह भी बड़ी आपत्ति की गई है कि इस तरह की नींद की दवाईयां अधिकतर मनोरोग विशेषज्ञों द्वारा लिखी भी नहीं होती......कोई भी डाक्टर लिख देता है और लोग लेना शुरू कर देते हैं.....यह अमेरिका की बात है..........आप इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं कि अमेरिकी जनता किस कद्र इन दवाओं की अभ्यस्त हो चुकी है..........Despite risks, benzodiazepine use highest in older people. 

नींद की बातें बहुत हो गईं, अब ज़रा उठने के लिए कुछ फड़कती सी खुराक हो जाए..........


रेहडी ब्रांड टुथब्रुश और फुटपाथ छाप टंग-क्लीनर

आपने भी बहुत बार देखा होगा कि रेहडियों पर टुथ-ब्रशों का ढेर बिक रहा होता है.....पहले मुझे अजीब लगता था....अब बिल्कुल नहीं लगता। हर तरह के ब्रांड वाले टुथब्रुश पांच पाच रूपये (बिना पैकिंग के) में बिकते अकसर दिख जाते हैं.....यही हैरानगी होती है कि ये इधर रेहड़ी पर कैसे पहुंच गये। पांच रूपये के लिए डुप्लीकेट तैयार करने के लिए कौन इतनी मगजमारी करता होगा!

अब इसलिए नहीं बुरा लगता कि उन ब्रुशों में भी कभी कुछ बिगड़ा मैंने देखा नहीं......सैकेंड हैंड तो कभी वे लगे नहीं....इसी बहाने पच्चीस तीस रूपये वाले ब्रुश पांच रूपये में खरीद कर अगर इन्हें कोई इस्तेमाल करना शुरू कर दे तो ..क्या पता इसी बहाने उस की दांतों पर खुरदरे मंजन और जला हुआ तंबाकू घिसने की आदत ही छूट जाए।

आज दोपहर मैंने एक गुरद्वारे के बाहर देखा ..वहां पर कीर्तन दरबार चल रहा था और आसपास मेले जैसा वातावरण बना हुआ था...वैसे भी जहां पर सिख-धर्म के कोई भी प्रोग्राम चल रहे होते हैं वहां पर बड़ा खुला सा वातावरण ही होता है.....यहां पर लंगर आदि सब खुले दिल से बांटा जाता है, यह आपने भी तो नोटिस किया होगा। दूसरे को खिला कर बाद में स्वयं खाने में सिख संगत दा जवाब नहीं।

हां तो उस के आसपास फुटपाथ पर भी बहुत से लोग कुछ बेच रहे थे ....मैं जहां पर खड़ा होकर इंतज़ार कर रहा था, वहां उस दुकानदार ने भी दुनिया भर के टूने-टोटके, तावीज़, नग, अंगूठियां, रंग-बिरंगे धागे, मूंगे, रूद्राक्ष, सीप......पता नहीं और भी क्या क्या, मुझे तो नाम भी नहीं आते। लेकिन फुटपाथ पर सजे उस के रंग बिरंगे स्टाल को देखना अच्छा लग रहा था। उसने भी लगता है सारे ग्रहों को वश में करने का जुगाड़ कर रखा था।

अचानक मेरी नज़र तांबे के टंग-क्लीनर पर पड़ी ......मैं बहुत सालों से इस तरह के ही टंग-क्लीनर इस्तेमाल कर रहा था.. लेकिन अब बाज़ार में ज्यादा मिलते नहीं। मैंने भी एक टंग क्लीनर खरीदा ... कॉपर वाला (तांबे का) ...कितने का?... पच्चीस रूपये का। मुझे यह अच्छा लगा। बेचने वाला कह रहा था कि यह कानपुर में बनता है।

इस के साथ ही आप देख सकते हैं कि मेटल के कुछ अन्य उपकरण से भी बिक रहे थे ....इन में एक ऐसा उपकरण भी होता है जिस से आप कान की सफाई भी कर सकते हैं और साथ ही लगी एक पत्ती से आप दांत में फंसे खाने को भी निकाल सकते हैं।

वैसे ये दोनों काम गलत हैं......जिस तरह के कान में सरसों का तेल डालना बिल्कुल गलत काम है, उसी तरह से कानों की सफाई के लिए इस तरह के धातु के यंत्र इस्तेमाल करना भी खतरनाक है क्योंकि इससे कान का परदा क्षतिग्रस्त हो सकता है। और दांतों में तो हम लोग टुथ-पिक मारने को ही मना करते हैं, और यह तो धातु का एक उपकरण था उस से भी मसूड़ों को नुकसान पहुंच सकता है।

मुझे पता है कि बुद्धिजीवियों की तरह यह सब इस पोस्ट में लिखने से हज़ारों-लाखों लोगों को मैं दांतों में तरह तरह के टुथ-पिक मारने से रोक नहीं सकता, लेकिन जिस ने इसे पढ़ लिया.......कम से कम वह तो बच गया!! इतनी ही काफ़ी है।

सांस की दुर्गंध से बचने के लिए टंग-क्लीनर से बढ़िया कोई भी चीज़ नहीं है.....आप ये लेख भी देख सकते हैं.....

सांस की दुर्गंध परेशानी 
जुबान साफ़ रखना माउथवाश से भी ज्यादा फायदेमंद 

हां, तो उस फुटपाथ से खरीदे टंग-क्लीनर का क्या किया.......पता नहीं क्यों उसे धोकर भी मुंह में डालने की इच्छा ही नहीं हो रही थी, एक बार गैस पर थोड़ा गर्म किया और उस से जुबान को साफ़ किया।

जाते जाते एक बात, फुटपाथ की बातें हों और मुझे अपने जमाने का वह गीत न याद आए........हो ही नहीं सकता!!

सिगरेट छोड़ने का एक प्राकृतिक उपाय

मुझे अभी अभी पता चला कि सिगरेट छुड़वाने के लिए यूरोप में एक प्राकृतिक कंपाउंड भी है जिस का नाम है साईटीसीन जो वहां पर उगने वाले एक गोल्डन-रेन नामक पौधे में पाए जाता है।

वैज्ञानिकों ने अध्ययन में यह पाया है कि इस का इस्तेमाल सिगरेट छुड़वाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाले निकोटीन पैच, गम आदि से भी ज़्यादा कारगर है....अगर इस तरह के इलाज के बारे में ज़्यादा जानकारी चाहिए तो आप इसे स्वयं इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं...... Cheap Natural Product May Help Smokers Quit. 

 मैंने भी इस अच्छे से पढ़ तो लिया...लेकिन जब पता चला कि यह नेचुरल कंपाउंड तो वहां योरूप में भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है तो फिर यहां तक कैसे पहुंच पाएगा, यही सोच कर मैंने इस के बारे में और जानकारी हासिल करना ज़रूरी न समझा....और अगर कहीं यहां आ भी पहुंचा तो कितना महंगा मिलेगा, कौन जाने। लेकिन एक बात तो है इस कंपाउंड का विवरण पढ़ कर अच्छा तो लगा कि ऐसा भी कोई कुदरती जुगाड़ है।

मेरे अनुभव कैसे रहे हैं.......मैंने तो दो-तीन दशकों में देखा है जिसने भी धूम्रपान छोड़ा है, अपनी विल-पावर के बलबूत ही छोड़ा, उन लोगों की इच्छाशक्ति ही इतनी प्रबल थी कि उन्होंने इस जानलेवा लत को लत मार दी।
वैसे मैंने कब किसी को देखा जिस ने निकोटीन च्यूईंग गम या फिर पैच आदि का इस्तेमाल कर के धूम्रपान छोडा हो, मुझे तो याद भी नहीं। मैंने कभी इस तरफ़ इतना ध्यान भी नहीं दिया....

ध्यान इसलिए नहीं दिया क्योंिक यहां पर रोना सिर्फ़ सिगरेट पीने वालों का ही तो नहीं है, बीड़ी, चिलम, हुक्का, ज़र्दा-पानमसाला, गुटखा, खैनी, तंबाकू वाले मंजन, तंबाकू वाले पान........सारा िदन इन्हीं के चक्कर में गायब हो जाता है कि सिगरेट वालों तक तो पहुंचने को मिलता ही नहीं....अब बीड़ी वाले को कहूं कि निकोटीन च्यूईंग गम चबाया कर, तो इस के परिणाम आप जानते ही हैं...इसलिए दस पंद्रह मिनट तक हर ऐसे आदमी में इन चीज़ों के प्रति नफ़रत पैदा करना ज़्यादा मुनासिब लगता है, वही करता हूं......बाकी इन का मुकद्दर, मानें ना मानें।

वैसे मैंने इस तरह के जानलेवा उत्पादों को लोगों को छोड़ते देखा है, जानना चाहेंगे कब........जब कोई गले के कैंसर का मरीज़ मिलता है तो अकसर बताता है पिछले दो महीने से तंबाकू बंद कर दिया है, मुंह के कैंसर का मरीज़ कहता है कि पिछले १५ दिनों से तंबाकू छुआ नहीं....मुझे गुस्से और रहम की बड़ी मिक्स सी फीलिंग आती है।

सीधी सीधी बात है.....चाहे चिकित्सक कितनी भी मीठी मीठी बातें कर लें.....मरीज़ का हौंसला रखने के लिए, उस के परिवारजनों का दिल रखने के लिए...गले के, फेफड़े और मुंह के कैंसर के मरीज़ के हश्र के बारे में क्या उसे पता नहीं होता.........मेरा तो कईं बार ऐसे मरीज़ की इस बात की तरफ़ गौर करने की भी इच्छा नहीं होती कि तूने क्या छोड़ दिया, क्या नहीं छोड़ा..........लेकिन नाटकीय अंदाज़ में कहना तो पड़ता है ...बहुत अच्छा किया।

मैंने तो हिंदोस्तान में तंबाकू छोड़ते लोग तभी देखे हैं जब एक ज़ोर का झटका लग जाए......चाहे तो दिल पर जब कोई आंच जा जाए और अचानक जान बच जाए, या फिर कोई भयंकर बीमारी लगने के बाद ही समझ ठिकाने आती है.....मुंह के कैंसर से पहले भी कुछ लोगों की होश ठिकाने तब आती है जब मुंह खुलना ही बंद हो जाता है और वे एक कौर तक मुंह में नहीं डाल पाते........मुंह के कैंसर की इस पूर्वावस्था (ओरल-सबम्यूकोसिस नामक बीमारी) का इलाज ही कितना पेचीदा, सिरदुखाऊ, महंगा है, इसकी आप कल्पना न ही करें तो बेहतर होगा। हर जगह यह हो भी नहीं पाता।

अब मुझे जगह जगह मुंह में गुटखे के पैकेट मुंह में उंडेलते लोगों से कोई विशेष सहानुभूति नहीं रही.......क्या करें, मानने का नाम ही नहीं लेते, जब पैकेट पर उसे बनाने वाली कंपनी ने ही ज़ाहिर कर दिया कि इस से कैंसर हो सकता है तो फिर इस से बड़ा क्या प्रूफ़ चाहिए भाई। अब यह किसे होगा किसे नहीं होगा, यह तो जुआ है, फैसला केवल आपका है कि आप क्या जिंदगी को एक जुअे की तरह दाव पर लगा दोगे?

मुझे मुन्नाभाई का वह गीत अकसर ध्यान में आ जाता है जब एक मृत्यु-शैया पर मरीज़ की फरमाईश पर डा मुन्नाभाई एक नाचने वाली का इंतज़ाम करता है........सीख ले, आंखों में आंख डाल, सीख ले, हर पल में जीना यार सीख ले.......
मरने से पहले जीना सीख ले...




दूध के दांतों को भी क्या दुरूस्त करवाना चाहिए?

यह जो मैंने प्रश्न किया है, उस का जवाब जानने के लिए आप इस पोस्ट को देखिए.......बच्चों के दांतों को क्यों लेते हैं इतना लाइटली.....

संक्षेप में यही कहेंगे कि बच्चों के दांतों को दुरूस्त करवाना बहुत ज़रूरी होता है।



यह जो तस्वीर आप जिस बच्ची के मुंह की देख रहे हैं ये तीन साल की है.....और लगभग एक वर्ष पहले आई थी...और कल भी आई थी अपने पेरेन्ट्स के साथ।

आप देख रहे हैं कि इस के ऊपर वाले आगे के अधिकतर दांत भर रखे हैं......इन सभी में दांत का कीड़ा (दंत क्षय) लगा हुआ था....जिस की वजह से इन्हें भरना पड़ा था।


मैं इस पोस्ट में यह बताना चाहता हूं कि जब यह पिछले साल आई थी तो इतनी छोटी थी कि इस के दांतों में फिलिंग करना तो दूर इस के मुंह के अंदर देखना भी मुश्किल लग रहा था लेकिन इस के बापू ने इसे मां की गोद में पकड़ कर रखा और यह काम हो गया था ..दो तीन विजिट में।

आज मुझे अच्छा लगा कि यह मां की गोद में चुपचाप बैठी रही और इस ने काम करवा लिया.

बच्चों के दांतों को एक बार ठीक करवा लिया तो इस का मतलब यह नहीं कि इन के बड़े होने तक छुट्टी हो गई......नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है.......आप को बच्चों को भी हर छःमहीने बाद दंत चिकित्सक को दिखाना ही होगा...एक तो यह कि हम बच्चों की खाने पीने की आदतों का जायजा लेते रहते हैं, उन के दांतों की साफ़-सफ़ाई की खबर लेते हैं ... जैसे कि इस बच्ची के ऊपर वाले आगे के सभी दांत रात के समय मुंह में दूध की बोतल लगा कर सोने से सड़ गये थे......मेरे कहने पर इस के मां-बाप ने इस की यह आदत छुड़वा दी।

छः महीने बाद बच्चों को इसलिए भी दिखाना ज़रूरी है क्योंकि हमें पता चलता है कि जो इलाज पहले किया गया था उस की कैसी हालत है, कुछ और तो करने की ज़रूरत नहीं है, या फिर किसी नये दांत में भी तो सड़न नहीं हो रही.....बच्चा मुंह में अंगूठा तो नहीं डाल रहा, नाखुन तो नहीं चबा रहा.......उस के पक्के दांत ठीक से अपनी जगह आ रहे हैं या कुछ करने की अभी से ज़रूरत है ताकि वे अपनी जगह पर ही आएं।

बहुत सी बातें हैं.........लेकिन एक बात है कि हमारे देश में बच्चों को बेहोश कर के उन के दांत उखाड़ने का ट्रेंड बिल्कुल भी नहीं है, होता होगा डैंटल कालेजों में कभी कभी ......लेकिन अकसर हमें इस की ज़रूरत नहीं पड़ती.......प्यार से समझा बुझा कर बच्चे अकसर मान ही जाते हैं.........थोड़ा बहुत रो भी लेते हैं...........दर्द के लिए नहीं, अपने डर की वजह से.......यह मैं दांत उखड़वाने की बातें क्यों करने लगा, इस का कारण है .....एक खबर जो मैंने कुछ अरसा पहले देखी थी कि इंगलैंड में हर सप्ताह दांत उखड़वाने के लिए ५०० बच्चों को अस्पताल में भर्ती किया जाता है।

मसूड़े अचानक ही बहुत ज़्यादा सूज सकते हैं





यह जो तस्वीरें आप यहां देख रहे हैं ये एक २०वर्ष की युवती के मुंह के अंदर की हैं....यह तीन चार  दिन पहले आई थी...परेशानी यह कि बुखार टूट नहीं रहा था और फिर अचानक मुंह में मसूड़े इतने सूज गये, मुंह में इतने छाले हो गये और यह परेशानी गले तक पहुंच गई कि कुछ भी खाना इस के लिए दुश्वार हो गया था।

इस के रक्त भी सभी जांचें सामान्य थीं.....इसे ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां दी जाने लगीं....यह युवती अपनी इस तकलीफ़ से इतनी परेशान थी कि कैप्सूल-गोली तक भी निगल न पा रही थी। इसलिए इसे ऐंटीबॉयोटिक भी आई-व्ही लाइन से ही शुरू किए गये। जिसे कहते हैं बहुत बीमार और परेशान.....यही इस की अवस्था थी।

इसे कुल्ला करने के लिए बीटाडीन नामक माउथवॉश दिया गया, मुंह के अंदर छालों पर लगाने के लिए कोई दर्दनिवारक-ऐंटीसेप्टिक जैल, और चूंकि यह कुछ दिन ब्रुश नहीं कर पाएगी, इसलिए दांतों आदि को प्लॉक से बचाए रखने के लिए हैक्सीडीन नामक माउथवॉश करने की सलाह दी....इस के साथ ही इसे जो कुछ भी यह आसानी से खा या पी सके, बिना मिर्च-मसाले का.....उसे लेने को कहा गया।

हां, एक बात उस की जुबान पर कुछ परेशानी नहीं थी, इसलिए उसे आहिस्ता से जुबान रोज़ साफ़ करने की सलाह दी गई थी.....यह भी बहुत ही ज़रूरी होता ...बुखार में या निरोगी हालात में रोज़ाना जुबान साफ़ करना .....इससे भी मुंह में कीटाणु कम करने में बहुत ही ज़्यादा महत्वपूर्ण मदद मिलती है।

दो दिन बाद कल फिर दिखाने आई थी.....काफ़ी ठीक लग रही थी, बुखार भी उतरा हुआ था और उस से ठीक से बोला भी जा रहा था।

यह अगले दो दिन में बिल्कुल ठीक हो जाएगी.

अब सोचने की बात यह है कि आखिर इसे यह सब हुआ कैसा ?... कईं तकलीफ़ों का बिल्कुल एग्जेक्ट कारण पता नहीं लग पाता, यह केस भी उन में से ही एक था। आते हैं ऐसे मरीज़ --बहुत काम......अगर साल में छःसात हज़ार मरीज़ देखता हूं तो शायद दो-चार मरीज़ ऐसे आ जाते होंगे, इतना कम दिखता है यह सब.....इतनी तकलीफ़ और अचानक..लेकिन इतना पता तो रहता है जो भी है, जब रक्त की जांच सामान्य है तो जल्द ही ३-४ दिन में ठीक हो जाएंगे, खाने लगेंगे .

मैंने ऊपर कहा कि यह दो दिन में ठीक हो जाएगी........कहीं आप को भी नहीं लगता कि इस के मसूड़े आदि भी बिल्कुल ठीक हो जाएंगे.......नहीं, नहीं, ये अपने आप ठीक नहीं होंगे, इस का उपचार करेंगे तो दुरूस्त होंगे।

आम तौर पर लोगों को जब बुखार के दौरान या बाद में मुंह या होंठ पर कोई छाले वाले होते हैं तो वे अकसर यही कह कर टाल देते हैं कि बुखार से मुंह आ गया....और यह दो तीन में अपने आप ठीक भी हो जाता है।

लेकिन इस युवती में ऐसा नहीं था.........जो मुझे लगा कि बुखार की वजह से इस की रोग-प्रतिरोधक क्षमता में कमी आई ... और इस के पहले ही से रोगग्रस्त मसूड़ें अचानक यह सब झेल नहीं पाए.....और १-२ दिन में ही इस के मुंह का यह हाल हो गया। इसे लग रहा था कि इस ने एक दिन बाज़ार से लाए गए नूडल्स खाए थे, शायद इसलिए ऐसा हो गया होगा। लेकिन मुझे ऐसा लगता नहीं, यह तो सच है कि नूडल्स खाना सेहत के लिए खराब तो है ही और बाज़ार में िबकने वाले नूडल्स किस किस तरह के हानिकारक तेल और मसाले (अजीनोमोटो उन में से एक होता है..जिसे चीनी मसाला भी कह देते हैं...यह सेहत के लिए खराब होता है) डाल देते हैं कि इस तरह के एलर्जिक रिएक्शन भी उस की वजह से हो सकते हैं।

दुर्भाग्य है कि भारत में फूड-एलर्जी के बारे में लोग अभी उतने जागरूक हैं नहीं........वह एक अलग मुद्दा है।

बहरहाल इस लड़की बात कर रहे थे, इस में ध्यान रखने योग्य बात यही है ..जैसा मैंने पहले भी लिखा है कि इस के मसूड़े पहले ही से खराब थे.....मुंह में गंदगी तो पहले ही से थी......और तब अचानक एक दिन इस ने उग्र रूप धारण कर लिया...अब यह फूड एलर्जी थी, बुखार की वजह से था, बैक्टीरिया की इंफेक्शन की वजह से था या वॉयरस ने हल्ला बोला था, कुछ भी नहीं कहा जा सकता, सिवाए इस के कि इसे ठीक होने के बाद अपने मसूड़ों को दुरूस्त करवाना होगा.......और ये मसूड़े देखने में जितने भी खराब से लग रहे हैं, इस छोटी आयु में ये कुछ ही दिनों में इलाज से बिल्कुल ठीक हो जाएंगे और साथ में इसे अपने दांतों की सही देखभाल भी करनी होगी, ताकि यह परेशानी फिर से न घेर ले।

मसूड़ों में अचानक कभी कभी कुछ हो जाता है .....जो लोग खून पतला करने वाली दवाईयां लेते हैं जिन्हें ओरल-ऐंटीकोएग्यूलेंट कहते हैं ...दिल की कुछ बीमारियों के लिए .... इन में कभी अचानक डोज़ इधर-उधर होने पर पेशाब से और मसूड़ों से अपने आप खून आने लगता है, फिजिशियन द्वारा डोज़ ठीक किए जाने पर ठीक हो जाता है....
ब्लड-प्रेशर बहुत ज़्यादा बढ़ जाने पर भी कईं बार ऐसा देखा गया है कि मसूड़ों से खून आने लगे.......और डेंगू के मरीज़ों में भी प्लेटलेट्स कम होने की वजह से कईं बार मसूड़ों से खून अपने आप निकलने लगता है.....कारण की तरफ़ ध्यान देने से यह ठीक भी हो जाता है।

मेरे विचार में इस पोस्ट के लिए इतना ही काफ़ी है, कहीं मैं कुछ ज़्यादा ही डाक्टरी झाड़ने लगूं तो मुझे प्लीज़ रोक दिया करें।