शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

बुज़ुर्गों का असली रोग है अकेलापन

ऐसा नहीं है कि सभी बुज़ुर्गों का ऐसा हाल है ..लेकिन अधिकतर के बारे में यह बात कही जा सकती है।

मैं तो जितना जितना अपने प्रोफैशन में घिस रहा हूं, मुझे यही लगने लगा है कि बहुत बार तो किसी बुज़ुर्ग की सभी बातें अच्छे से सुनना ही उन का इलाज होता है...क्योंकि वे भी जानते हैं कि सभी अंग बदले नहीं जा सकते, सभी अंग अब जवान आदमी की तरह काम नहीं कर सकते, वे सब कुछ अच्छे से समझते हैं...लेकिन उन्हें बस डाक्टर से एक आश्वासन चाहिए होता है कि सब कुछ ठीक ठाक है।

मैं अपनी ओपीडी में जितना भी व्यस्त रहूं लेकिन मैं किसी भी बुज़ुर्ग की बात कभी नहीं काटता, मैंने कभी किसी को नहीं कहा कि अच्छा, अब आप चलिए...मुझे यही लगता है कि ये जितनी बातें करते हैं, कर लेने दें इन्हें...इन की घर पर अकसर कोई सुनता नहीं, बाहर कोई विशेष सर्कल अधिकतर लोगों का होता नहीं, ऐसे में अपने दिल का गुब्बार कहां जाकर ये लोग बाहर निकालें।

मसला सारा पांच सात दस मिनट का होता है...बस इतनी सी बातें होती हैं, वे अपने दिल को खोल कर हल्का महसूस करते हैं, उन के चेहरे से झलकता है।

जब ढंग से की दो बातें ही इलाज होता है.. (इस लेख को पढ़ने के लिए क्लिक करिए)

आज से तीस साल पहले जब हम लोगों ने नईं नईं डाक्टरी सीखी तो क्या देखते हैं कि हमारे कुछ साथी बुज़ुर्गों से उतने सम्मान से पेश नहीं आते थे जितना किसी चिकित्सक से अपेक्षित होता है...कईं बार यह भी देखा कि जैसे ही किसी बुज़ुर्ग ने अपनी एक ही बात दो तीन बार कही तो हमारे साथ पढ़ने वाली कन्याएं अकसर कह दिया करती थीं कि ....ये तो साईकिक लगता है...(इंगलिश में शायद इतना बुरा नहीं लगता ..लेकिन हिंदी में इस का मतलब बहुत खराब है...यह थोड़ा सटका हुआ लगता या लगती है). ..

लेिकन इतने बरस घिसते घिसते सारा कुछ समझ में आने लगता है ...जब वह कोई छोटा सा घाव भी हमें दिखाने आता है तो उस के दिमाग में भयंकर से भयंकर बीमारी का नाम घूम रहा होता है, हम जैसे ही नज़र मार के उसे आश्वासन देते हैं कि कुछ नहीं है, चिंता न करिए, दो चार दिन में एक दम ठीक हो जाएगा......यह सुनते ही उस के चेहरे पर चमक लौट आती है। सच कह रहा हूं दोस्तो रोज़ चेहरों पर दो मिनट में ही चमक आते देखता हूं।

जैसे जैसे हम अपने काम में घिसते चले जाते हैं यह बात हमारे मन में अच्छे से घर कर जाती है कि मरीज़ की परिस्थिति बदलने के लिए हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है, उस की सारी की सारी परिस्थितियां हमारी पहुंच से बहुत दूर हैं...हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते लेकिन एक बहुत अहम् बात तो फिर भी है कि हम उस से अच्छे से बात तो कर सकते हैं.... यह भी उस की सेहत के लिए इलाज जितना ही ज़रूरी है..क्योंकि मरीज़ किसी किसी डाक्टर के पास जा कर बोलते हैं कि उस से तो बात कर के ही आधा दुःख छू-मंतर हो जाता है, कुछ तो जादू होगा ऐसी रूहों में....कुछ तो करिश्मा होगा....कुछ तो शफा होगा उन नेक आत्माओं में।

इसी बात से संबंधित यह पोस्ट भी देखिएगा..... मरीज से ढंग से बात करने की बात (क्लिक करिए)

मेरा भुलक्कड़पन देखिए....लिख मैं बुज़ुर्गों पर रहा हूं लेकिन पता नहीं कहां से कहां निकल गया....हां, एक बुज़ुर्ग की बात करता हूं ...दोस्तो, एक ७०-७५ साल का बुज़ुर्ग मुझे कहीं मिला.

अपनी सेहत की बात कर के वह दो चार मिनट के लिए अपनी व्यक्तिगत बातें करने लगा कि किस तरह से घर के सभी लोग उसे कहते हैं कि मकान को बांट दो, पैसा भी बांट दो.....मुझे कहने लगा कि मेरे पास पैसा इतना है कि अगर सोना खाया जा सकता तो मैं सोना ही खाता... मकान ८० लाख का है, लेकिन सोच रहा हूं बेच दूंगा लेकिन किसी को एक टका नहीं दूंगा... कह रहा था कि मेरा कोई ध्यान ही नहीं करता...सब को मेरे पैसे की पड़ी है। मेरे खाने-पीने का कोई टाइम नहीं है...बताने लगा कि वह तीन चार महीने के लिए हरिद्वार में स्थित एक आश्रम में रहने चला गया था...सात दिन बाद इन लोगों का फोन आया, पहले तो मैंने उठाया नहीं, फिर उस के बाद कभी कभी इन का फोन आता तो बात कर लिया करता।

हरिद्वार वाले आश्रम की बात याद कर के बहुत खुश था...हर महीने का चार हज़ार रूपया लेते हैं...सब कुछ सुविधाएं...चालीस लोगों के लिए मैस की सुविधा...सुबह साढ़े छः बजे चाय, फिर आप नाश्ता स्वयं अपना करिए, दोपहर में साग-सब्जी, दाल, चावल ...और उस ने ज़ोर देकर कहा कि गाढ़ी दाल......और फिर रात में भी बढ़िया खाना..लेकिन मेन्यू बदल कर........सब चीज़ की सुविधा है... मैंने इतना कहा कि वहां जिन लोगों के साथ इतना समय रहे उन से बात करते हैं ?...बताने लगा कि हां, उन के नंबर हैं, कल ही बात हो रही थी मुरादाबाद........कहने लगा कि वहां पर ८०-८५ और ९० साल तक के बुज़ुर्ग रहते हैं....मस्ती से रहते हैं, अगर कोई बुज़ुर्ग बाहर के देश से आता है तो अपनी मरजी से चार हज़ार की बजाए ११ हज़ार रूपये एक महीने के दे देता है.....वहां पर एक डाक्टर भी रोज़ आता है... बात का सार यह कि वह खुश था वहां.......अब भी कह रहा था कि वहां कुछ महीने के लिए चला जाऊंगा।

मुझे आज इस बुज़ुर्ग की याद इसलिए आ गई कि आज की अखबार में पढ़ा है कि सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दर्ज हुई जिस में कहा गया है कि हर शहर में एक वृद्ध आश्रम खोला जाना चाहिए.......ठीक है, वृद्ध आश्रम खुल जाएंगे या खुले भी हुए हैं, लेकिन फिर भी वहां ये लोग खुशी से नहीं, मजबूरी में ही रहते हैं.....हर कोई अपने घर ही में रहना चाहता है।

सरकारें क्या करें, कर रही है सरकार अपना काम...कितनी कितनी स्कीम बनाती हैं. पीछे एक स्कीम बनी थी रिवर्स-मॉटगेज की ...कि कोई बुज़ुर्ग अपने जीते जी अपने घर को बैंक के पास गिरवी रख दे और उसे उस के जीते जी ब्याज मिलता रहे ....मुझे पूरी स्कीम का तो पता नहीं लेकिन था कुछ ऐसा ही.......मैं गणित में थोड़ा कमजोर ही हूं। फिर वह भी एक स्कीम आई जिस में कानून था कि बुज़ुर्गों के ऊपर अत्याचार होने पर फलां फलां धारा लागू हो जाएगी।

कौन सा बुज़ुर्ग अपने बच्चों के साथ पंगा लेना चाहता हैं ...उस समय में किस के पास इतनी ताकत होती है, और वैसे भी ये लोग कहां बच्चों पर केस दर्ज करवाने जाते हैं.......सब कुछ चुपचाप सहते रहते हैं, खामोशी की चादर ओढ़ कर चुपचाप अकेले में आंसू पीते रहते हैं......लेकिन बुज़ुर्गों का शोषण जितना हमें सामने दिखता है, उस से कहीं बहुत ज़्यादा व्यापक स्तर पर होता है.........लेकिन बाहर उजागर नहीं होता.......और कभी हो भी नहीं सकता.........There are so many subtle ways to exploit and torture the senior citizens..........इन का हर तरह का शोषण किया जाता है ...आर्थिक शोषण भी जितना हो सके.....समय पर खाना न देना, ढंग से बात तो करना तो दूर बात ही न करना, उन की हर बात या ज़रूरत तो नज़रअंदाज़ करना......यह सब घोर शोषण का ही हिस्सा है........लेकिन वे सब चुपचाप सहते रहते हैं..

और ऊपर से मैडीकल विज्ञान की बड़ी भूतियापंथी यह कि वह इन के बुझे हुए मन के रोगों को भी उन के शरीरों में तलाशता ही नहीं फिरता, अंग्रेज़ी दवाईयों से उन्हें दुरूस्त करने का दावा भी ठोंकने से नहीं हिचकता।

सच में क्या हम लोग चांद पर जाने के लिए तैयार हो चुके हैं?........मुझे तो कभी नहीं लगा, पहले ज़मीन पर तो हम सब मानस बन कर रहना सीख लें। क्या ख्याल है?

एक लेख यह भी ठीक ठाक लगता है... सफल डाक्टर का फंडा (क्लिक करिए)




शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

शहर की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है!

सुबह का सुंदर समय है...खुशनुमा माहौल है....मुझे लगता है कि मैं अपनी फिजूल की बक-बक शुरू करूं इस से पहले आप फिल्म लगे रहो मुन्ना भाई से विद्या बालन के इस बेहद सुंदर डॉयलाग को सुन लें, मुझे पता है आपने इसे कम से कम सैंकड़ों बार सुना हुआ है ...लेिकन फिर भी इसे बार बार सुनना बहुत भाता है...एक नईं स्फूर्ति का संचार सा हो जाता है.....होता है ना?



हां, तो दोस्तो, विद्या बालन ने तो अपनी बात इतने सुंदर अंदाज़ में कर ली, अब हम भी थोड़ा शुरू हो जाते हैं।


दोस्तो, यह जो आप तस्वीर देख रहे हैं ना यह लखनऊ में हमारे अस्पताल के बाहर वाली सड़क की तस्वीर है।

पिछले कुछ दिनों से मैं जब भी अस्पताल से निकलता तो बाहर सड़क पर इतने सुंदर रंग बिरंगे फूल देख कर मन खुश हो जाता....कल मेरे से रहा नहीं गया, मैंने एक फूल उठा ही लिया....फिर लगा कि जितना सुंदर यह मुझे दूर से दिखा करता था, पास से तो यह हज़ारों गुणा ज़्यादा मनोहर है।




मैं कईं बार सोचता हूं कि प्रकृति भी हमें निरंतर सब कुछ सिखा रही है...सारे गुण जो इस में हैं उन से हम कौन सी सीख नहीं ले सकते!!

सहनशीलता

सब से पहले तो सहनशीलता ही देखिए....इतने सुंदर फूल, सब कोई पैर के तले मसल कर आगे निकल रहा है ...फिर भी प्रकृति को किसी से कोई गिला शिकवा नहीं...और हमें पब्लिक ट्रांसपोर्ट में किसी की बाजू भी टच हो जाए तो हम कैसी निगाहों से उसे घूरने लगते हैं!

परोपकार 

सब को खुशियां बांटना, सब के चेहरे पर मुस्कुराहट लाना ही जैसा इन फूलों का धर्म हो, और कुछ नहीं...किसी और से कुछ लेना देना नहीं....हर समय परोपकार की भावना..उदास चेहरों को खुशनुमा बना देने का हुनर......हम में से कितनों का आता है यह, अपने दिल पर हाथ रख कर बोलिए।

निःस्वार्थ भाव 

जो भी परोपकारी काम किया जा रहा है, ऐसी अनुपम छटा बिखेरते हुए..इस से कोई एक्सपेक्टेशन बिल्कुल भी नहीं कि कोई राही आयेगा, मेरी तारीफ़ करेगा ... मुझे इस के बदले कुछ मिलेगा.......बिल्कुल भी तो नहीं ..यही बात लिखते लिखते पुष्प की अभिलाषा गीत का ध्यान आ गया।



इस रास्ते से अधिकतर बहुत से फौजी निकलते हैं इसलिए मुझे इस गीत का तुरंत ध्यान आ गया..

प्रकृति रहस्यमयी है

पता नहीं कितने रहस्य प्रकृति की गोद में कैद हैं......और साईंसदान एक एक रहस्य खोजने में सैंकड़ों बरस गरक कर देते हैं....दोस्तो, इस फूल को देख कर यही लगता है कि दुनिया की सारी दौलत इक्ट्ठा कर के भी इस की एक पंखुडी का सृजन करने की क्या कोई कल्पना भी कर सकता है!....एक पंखुड़ी तो बहुत बड़ी बात हो गई ..

अगर हम प्रकृति से दोस्ती कर लेंगे तो यह अपने रहस्य धीरे धीरे हमारे समक्ष अनफोल्ड करती चली जाती है, आजमा कर देखिएगा।

प्रकृति हमें आशावादी बनाती है

सोचने वाली बात है कि अगर इस तरह का अद्भुत फूल बिना किसी कारण तैयार हो सकता है तो कुछ भी हो सकता है....प्रकृति संभावनाओं से परिपूर्ण है....अपने हर तरफ़ नज़र दौडाएं...संभावनाएं बिखरी पड़ी हैं......लेकिन जैसा कि विद्या बालन ऊपर वीडियो में कह रही हैं कि हमें यह सब देखने की फुर्सत ही कहां है!

और हम किसी मरीज़ को कितनी आसानी से कह सकते हैं कि यह बीमारी तो ठीक न होगी!..यह तो तुम्हारे साथ ही जाएगी।

हम तो बस दौड़े जा रहे हैं, दौड़े जा रहे हैं ...बिना इस पर विचार किए कि शहर की इस दौड़ में दौड़ के आखिर करना क्या है !

प्रकृति के पास रहेंगे...इसे निहारते लगेंगे, इस की गहराई में डूबने लगेंगे  तो किसी को धोखा दे कर कुछ पैसे बना लेने या किसी का किसी तरह का भी शोषण करने का सोच भी कैसे सकते हैं, नहीं हो पाएगा...कैसे भ्रष्टाचार से इक्ट्ठा कर के घर में बोरों में कागज के टुकड़े छिपा पाएंगे.....कितना गौण लगता है यह सब कुछ प्रकृति की विशालता के सामने.....सच में ज़िंदगी बहुत खूबसूरत है, अगर हमारे पास कुछ समय इस के साथ बिताने की फुर्सत है....

अपने हिस्से का आकाश ढूंढ कर तो देखिए..

लगता है अब बंद कर दूं इस पोस्ट को.....किसी धार्मिक चैनल के प्रवचन की अगर आप को गंध भी आ गई तो मेरी खैर नहीं....अच्छा दोस्तो, आज की यह पोस्ट विद्या बालन की इस सुंदर बात और इस सुंदर पुष्प की अनुपम छटा के नाम रही। मिसिज कह रही हैं कि इस पेड़ को फोरेस्ट फॉयर कहते हैं....मुझे नहीं पता था, न ही मैंने इस का नाम जानने की कोशिश ही की। हमें तो इसी से संतोष कर लेना चाहिए कि हमें प्रकृति नित्य-प्रतिदिन कुछ नया परोसती है.. जो कि हमारी रूह की खुराक हुआ करती है, लेकिन अगर हमारे पास चंद लम्हों की फुर्सत हो तो!



गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

खुले में ताज़ा हवा लेना भी जैसे हुआ दुश्वार

आज मैं शाम को ड्यूटी से आ रहा था तो मुझे एक मोटरसाईकिल दिखा..उस के पीछे एक मशीन सी बंधी हुई थी...मुझे अचानक ध्यान आया कि कुछ दिन पहले हम लोगों ने भी अपनी पानी की टंकी साफ करवाई थी...वह भी कुछ इसी तरह की बिजली की मशीन से चलने वाली मशीन लाया था...और कह गया था कि हर तीन महीने में एक बार इसे साफ़ अवश्य करवा लिया करिए.....आप को भी पता ही होगा कि ये पानी की टंकी साफ़ करने वाले अढ़ाई सौ रूपये लेते हैं और सक्शन मशीन से उसे अच्छे से अंदर से साफ कर जाते हैं, सारी काई-वाई अच्छे से साफ हो जाती है।

हां, तो बात हो रही थी उस मोटरसाईकिल की जिसे मैंने आज शाम को देखा....अभी मैं टंकी वाली सफाई की बात सोच ही रहा था ... कि मेरी नज़र उस मोटरसाईकिल की नंबर प्लेट पर पड़ गई...उस पर लिखा था...Pharmacist. फिर मैंने उस के चालक को देखा ..वह भी फेसमास्क पहना हुआ डाक्टरनुमा ही लग रहा था।

मेरे से रहा नहीं गया....मैंने पूछ ही लिया कि यह कौन सी मशीन है। चलते चलते उस ने बताया कि यह ऑक्सीजन बनाने वाली मशीन है...पहले तो किसी को ऑक्सीजन लगाने के लिए सिलेंडर लगता था..अब इस तरह की मशीन से काम चल जाता है...बताने लगा कि इस को बस बिजली का कनैक्शन चाहिए होता है और यह ऑक्सीजन बनाना शुरू कर देती है। वह अभी इस मशीन को किसी मरीज को ही लगाने जा रहा था..। दोस्तो, आप को अगर मैं उस का साईज बताऊं तो आप समझिए कि एक मीडियम साईज के गीज़र जैसा साईज था। मेरी मिसिज़ ने मुझे अभी बताया है कि इसे ऑक्सीजन कंसेन्ट्रेटर (Oxygen Concentrator) कहते हैं और यह मशीन अब हस्पतालों में भी उपलब्ध रहती है।

ठीक है, वह बंदा जा रहा है किसी का भला करने...ईश्वर उस के मरीज को स्वस्थ करे। लेकिन नई नईं तकनीक से कईं बार मरीज़ बेचारा बुरी तरह से कंफ्यूज सा ही हो जाता है.....अब हम सब जानते हैं कि सरकारी अस्पतालों के गहन चिकित्सा केंद्रो की हालत क्या है, ठसा ठस भरे हुए..जगह है नहीं..बैड खाली नहीं ....ऐसे में मरीज़ों को कुछ कार्पोरेट अस्पताल नींबू की तरह नचोड़ लेते हैं....हम लोग अकसर इस तरह के किस्से देखते-पढ़ते-सुनते रहते हैं। ऐसे में शायद इस तरह के लोग घर घर जा कर ऑक्सीजन लगा कर सेवाएं तो कुछ सस्ती देते ही होंगे......मुझे ठीक से पता नहीं इस के बारे में... पता करूंगा......इस की कीमत ४५००० रूपये है....ज़ाहिर सी बात है इस का किराया कम से कम ५०० -७०० रूपये तो होगा ही।

एक बात और ...आज सुबह जब टाइम्स आफ इंडिया का पहला पन्ना देखा तो एक सुर्खी दिखी ... कि दिल्ली की एम्बेसियों में जो यूरोप का स्टॉफ है उन के लिए एयर प्यूरीफॉयर खरीदे जा रहे हैं --Air Purifier-- जिस से हवा शुद्ध् की जाती है। अब कितनी होती है कि नहीं होती है, ये तो कंपनी वाले ही जाने।


लेकिन कोई कोई खबर देख कर बड़ा अजीब लगता है कि अब साफ-स्वच्छ हवा खाना भी कहीं दुश्वार न हो जाए... देख लेना जब इस तरह की खबर पहले पन्ने पर छपती है तो यह ऐसे ही नहीं छप जाती......पूरी मार्केटिंग स्ट्रेट्जी होती है इस के पीछे..शायद......बिल्कुल भेड़ चाल हो जाएगी इन्हें खरीदने में........स्टेट्स सिंबल ही बन जाएगा, देखना ऐसा ही होगा......एसी भी खरीदने जाते थे पांच सात साल पहले तो इस तरह के शब्द सुनने को मिलते थे..हवा शुद्ध भी करता है इस का यह फीचर।

अभी ओबामा के आने से पहले भी अमेरिकी एम्बेसी ने १८०० बढ़िया किस्म के एयर-प्यूरीफॉयर खरीदे थे...अपने कर्मचारियों की सेहत की सुरक्षा के लिए।

मुझे याद है कईं वर्ष पहले मैंने एक लेख लिखा था जिस में अहमदाबाद में ताजी हवा खाने के लिए ऑक्सीजन पार्लर खुलने की बात कही गई थी।

सच में हम लोग किस दौर में रह रहे हैं.....कल हमारे अस्पताल में डाक्टरों की क्लीनिकल मीटिंग चल रही थी...यही स्वाईन-फ्लू के ऊपर...और बात चल रही थी कि किस तरह से बच्चे भी आज कर स्कूल में मास्क पहने पर जा रहे हैं...तब एक सीनियर डाक्टर ने कितनी सही बात की ........उसने कहा कि हम बच्चों को कैसी दुनिया दे कर जा रहे हैं, सोच कर बहुत बुरा लगता है........मैं उन की बात से बिल्कुल सहमत हूं.....उन्होंने आगे कहा कि हम लोगों ने बचपन इतना मस्ती से खेल कूद में बिंदास अंदाज़ में बिताया लेकिन अब तो ......।।

मुझे लगता है कि आने वाले समय में इस तरह की मशीनें बनेंगी तो इस के ग्राहक भी ढूंढ ही लिए जाएंगे....लेिकन दो लाइन का मेरे संदेश यही है कि सुबह शाम घर के आस पास जिस पार्क में भी ताजी-खुशनुमा हवा मिले उस का आनंद तो दोस्तो उठा ही लिया करिए.....और उस खुशनुमा माहौल में अगर प्राणायाम् भी हो जाए तो कहना ही क्या!! और एक बात कि धूम्रपान से बिल्कुल बस कर रहिए......वैसे ही हर तरफ़ इतना ज़हर फैला हुआ है कि इस के चलते सिगरेट-बीड़ी के धुएं के कश खींच कर फेफड़ों की सिंकाई करने की ज़हमत उठाने की बिल्कुल भी ज़रूरत ही कहां है!!

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

अपनी मरजी से करवाए जाने वाले मैडीकल टैस्ट


आज सुबह मैं एक मैडीकल लैब में खड़ा था...एक व्यक्ति आया...अच्छा, उस के बारे में लिखने से पहले मैं यह कहना चाहता हूं कि ऐसी किसी परिस्थिति में किसी का मज़ाक उड़ाने की हम सोच भी नहीं सकते, बस कोई बात आप तक पहुंचाने के लिए उस की उदाहरण ले रहा हूं।

जब वह काउंटर पर खड़ा होकर उस लैब वाले कर्मचारी से बात कर रहा था तो दोस्तो, सच में मुझे मेरे शहर का बेस्ट पकौड़ें वाला याद आ गया। बिल्कुल वही भाषा इस्तेमाल हो रही थी। उस के पास डाक्टर का कोई नुस्खा नहीं था।

उसने तीन चार टेस्ट उस कर्मचारी को गिनवाए ...उस ने उस का रेट बताया...फिर अचानक पूछा कि क्या आप के यहां स्वाईन-फ्लू का टेस्ट होता है, उस के प्रश्न का जवाब हां में मिलने पर उस ने पूछा कितने में,तो लैब वाले ने कहा साढ़े पांच हज़ार रूपये में। रेट सुन कर वह चुप कर गया।

फिर वह व्यक्ति लैब वाले को कहने लगा कि ऐसा करो, एक तो वो करदो लेकिन उस दूसरे वाले को छोड़ दो, एक वो और वो भी कर दो...मुझे बिल्कुल ऐसा लग रहा था जैसे हम लोग अकसर पकौड़े वाले के सामने खड़े होकर कहते हैं ना...अच्छा तीन आलू के, दो मेथी के, दो मिर्ची और दो पनीर.....बाकी प्याज के डाल दो।

दरअसल मुझे लगता है कि कईं बार बिना किसी मैडीकल ज्ञान वाला आम आदमी को भी लगता है कि बिना डाक्टरी सलाह के ही कुछ टैस्ट करवा लिए जाएं...यहां तक कि किसी फैमली डाक्टर से भी संपर्क नहीं किया जाता... और शायद गूगल बाबा से ही पूछ लिया जाता है।

लेिकन यह गलत है... ठीक है गूगल बाबा ज्ञान प्रदान करता है, लेकिन अपनी सेहत के बारे में कोई भी निर्णय हमें अपने अल्प मैडीकल ज्ञान के आधार पर नहीं करना चाहिए.... इस से फायदा तो कुछ नहीं बल्कि नुकसान ज़रूर हो सकता है। केवल आपके चिकित्सक को ही पता है कि कौन सा टेस्ट आप के लिए ज़रूरी है, कौन सा गैर-ज़रूरी है। अपनी सेहत से संबंधित कोई भी निर्णय केवल नेट पर कुछ पढ़ लेने से या दोस्तों से सुन कर करना ठीक नहीं है।

मुझे उस समय यही लगा कि थैंक-गॉड स्वाईन-फ्लू का टेस्ट साढ़ें पांच हज़ार का है......मुझे ऐसे लग रहा था कि उस की टेस्ट करवाने की इच्छा तो है, लेकिन शायद इतने महंगे रेट के चक्कर में मामला अटक गया है......क्योंकि वह काउंटर वाला उसे बाद में कुछ समझा तो रहा था कि टेस्ट की रिपोर्ट दो दिन में मिल जाएगी।

सच में जब किसी बीमारी की जागरूकता के अभाव में कोई अफवाह फैलती है तो यही अफरातफरी का माहौल पैदा हो जाता है... कोई अपने आप ही टैस्ट करवाना चाहता है, कोई बिना कारण दवाई पहले ही से खा लेना चाहता है, कोई बच्चों को मास्क लगा कर स्कूल रवाना कर रहा है....और इन सब के चक्कर में बाज़ार में बैठा व्यवसायी, लैब का मालिक या कैमिस्ट चांदी कूटने से नहीं चूकता।

इस पोस्ट को इतनी सिरियसली न लें, बस उस व्यक्ति को और उस के लहजे को देख कर अमृतसर के पकौड़ें वाली दुकानें याद आ गईं.......बस, इतनी सी गुस्ताखी हो गई, कृपया आप माफ़ कर दें। किसी की भी सेहत किसी भी मज़ाक को विषय़ हो ही नहीं सकता।

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शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

तुम भी चलो...हम भी चलें...

दरअसल हम हिंदोस्तानियों की ज़िंदगी इतनी फिल्मी हो चुकी है कि हमें अधिकतर मौकों पर या तो कोई हिंदी फिल्म का डॉयलाग या फिर कोई गाना याद आता है...मेरे साथ तो यह बहुत बार होता है।


आज शाम मैं लखनऊ की रायबरेली रोड पर जा रहा था तो मुझे ये तीन बुज़ुर्ग मिल गये..बड़ी मस्ती से, बातें करते, हंसी-मज़ाक करते बड़ी मस्ती से टहल रहे थे। देख कर बहुत अच्छा लगा।

एक बात जो झट से स्ट्राईक की वह यह थी कि तीनों के हाथ में एक छड़ी थी...

पता नहीं मुझे क्या सूझी कि मैंने स्कूटर रोका और इस सुंदर लम्हे को अपने मोबाइल में कैद कर लिया।

उसी समय मुझे यह गीत भी याद आ गया...मुझे यह पता नहीं कि इन्हें देख कर मेरे मन ने यह गीत गुनगुनाया....या इन बुज़ुर्गों की इस समय की मनोस्थिति यह गीत ब्यां कर रहा है...


कितना सुंदर गीत है ना.......घर आकर यू-ट्यूब पर सुना और सोचा आप से साझा भी करूं, इस के बोलों पर भी ध्यान दीजिएगा।

दोस्तो, जब मैं लोगों को टहलते देखता हूं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है.....क्योंकि मैं जो समझ पाया हूं कि यह लक्षण है...जीवन है, जीवंत होने का....सेहतमंद होने का ...सेहतमंद होने के एक सतत प्रयास का.

ठीक है टहलना सब के ज़रूरी है..लेिकन अधिकतर मेरे जैसे लोग केवल नसीहत बांटनें में ज़्यादा ध्यान देते हैं लेिकन अपनी सेहत के बारे में उतने जागरूक नहीं होते जितना होना चाहिए....मैं नियमित टहलने तक नहीं जाता।

लेिकन जब बुज़ुर्गों को देखता हूं ..सुबह शाम इक्ट्ठा होकर हंसी मज़ाक करते और अपनी क्षमता अनुसार घूमते तो मजा आ जाता है....मेरे दिन बन जाता है।




मैं अपनी ड्यूटी के दौरान भी लोगों को विशेषकर पुरानी बीमारियों से ग्रस्त सभी मरीज़ों को टहलने के लिए खूब प्रेरित करता रहता हूं.....कोई कहता है कि नहीं हो पाता..मैं कहता हूं घर से बाहर तो निकलो, पांच दस मिनट ..जितना समय मस्ती से टहल पाएं ...टहला करो भाई.....अधेड़ उम्र की महिलाओं को भी मैं थोड़ा सा "भड़का"(उकसा?) देता हूं कि दिन में कुछ समय तो अपने लिए भी रखा करिए। उस समय तो मान जाती हैं...और नियमित टहलने की बात कह कर जाती हैं।

सच में दोस्तो टहलना भी एक अद्भुत व्यायाम है........सब से पहले तो आप टहल पा रहे हैं, यही अपने आप में एक कुदरत का बेशकीमती उपहार है.....इसलिए हर समय अपने भाग्य या सरकारों को कोसने से और हर समय खबरिया चैनलों के सामने बैठे रहने से कहीं अच्छा है कि एक बढ़िया से शूज़ लें और बिना वजह घर से बाहर कुछ समय के लिए निकल जाया करिए....देखिए कितना मज़ा आता है.......कोई बहानेबाजी नहीं, बिल्कुल नहीं...

बस, एक बात और कर के, इस पोस्ट को विराम दूंगा....मेरी फिरोज़ुपर में पोस्टिंग थी ..दस-पंद्रह साल पहले की बात है...एक दिन बाज़ार में मुझे एक ८०-८५ साल के बुजु्र्ग मिले...बातचीत हुई पता चला ..कि रोज़ दोपहर ४ बजे घर से निकलते हैं और १५-२० किलोमीटर टहल कर घर लौटते हैं ... कह रहे थे कि जेब में मिश्री रख लेता हूं.....मैं आप को बता नहीं सकता कि जो चमक मैंने उन के चेहरे पर देखी... उस के बाद भी अकसर आते जाते मिल जाया करते थे... सफेद निक्कर और टी-शर्ट पहने हुए और सफेद स्पोर्ट्स शूज़ डाले हुए ..हाथ में छोटा सा सफेद तौलिया लिए हुए... उन्हें देखते ही तबीयत खुश हो जाया करती थी .....क्या नाम था उन का सिक्का साहब, वे सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हो चुके थे.......बड़े हंसमुख..

मैं नहीं कहता कि हम सभी इतना ही टहलें लेकिन दोस्तो, जितनी जितनी भी हमारी क्षमता है, हम उतना तो टहलना शुरू करें.........एक पहल तो करें......क्या कहा? कल से.......आज से क्यों नहीं!!

अभी पोस्ट खत्म करते करते यह गीत याद आ गया है.........दादा जी का छड़ी हूं मैं...(फिल्म-उधार की ज़िंदगी)

लखनऊ मैट्रो और पान थूकने वालों का छत्तीस का आंकड़ा अभी से शुरू

मुझे लखनऊ में रहते दो वर्ष हो चुके हैं... सड़क पर जाते समय यही डर लगा रहता है कि कहीं किसी पान थूकने वाले का थूक मुंह पे न पड़ जाए... स्कूटर पर चलते समय तो और भी दिक्कत होती है क्योंकि कोई भरोसा ही नहीं कि कब, किस तरफ़ से पान का थूक आ जाए।

दोस्तो, चिकित्सा क्षेत्र में हूं..अस्पताल में आए किसी बीमार के थूकने पर कोई आपत्ति नहीं है न ही हो सकती है, मेरी ओपीडी में किसी मरीज़ को उल्टी हो जाती है तो मैं या मेरा सहायक उस की पीठ पर हाथ रख कर उसे सहारा देने में नहीं चूकते.....यह अपना पेशा है।

लेकिन यह जो जगह जगह पान थूकने वाले हैं ना, इन से मुझे बड़ी चिढ़ है... दीवारें तो दीवारें, शहर की सड़कें तक इस थूक से रंगी हुई हैं। यह देखने में गंदा लगता है, वातावरण के लिए खराब है और सेहत के लिए भी तो बहुत नुकसानदायक ही है।

हां, तो दोस्तो, जब यहां पता चला कि लखनऊ में मैट्रो चलेगी तो मुझे दिल्ली मैट्रो वाले दिन याद आ गये...किस तरह से उन्होंने मेरे विचार में प्लेटफार्मों पर ही चेतावनी लगा रखी है कि स्टेशन परिसर या मैट्रो में थूकने वालों पर शायद ५०० रूपये का जुर्माना ठोका जाएगा...और मुझे पता चला है कि वे इस मामले में बहुत कड़क हैं......होना भी चाहिए, अगर इतनी स्वच्छता रखनी है तो यह सब तो करना ही होगा, वरना लोग डरते नहीं है....

दिल्ली मैट्रो ने एक बढ़िया काम किया है ...तरह तरह के गल्त कामों के िलए यह कानूनी-वूनी कार्रवाई का डर नहीं डाला...हर अपराध का रेट फिक्स है, आप हर्जाना भरिए और छूट जाइए....no questions asked!

मुझे लखनऊ मैट्रो को लेकर यही चिंता थी कि अगले दो एक साल में जब इस की सेवाएं शुरू हो जाएंगी तो यहां के पान-गुटखा थूकने वालों की तो बहुत आफ़त हो जाएगी.....मैं यही सोच रहा था कि देखते हैं यहां पर मैट्रो रेल का क्या रवैया रहता है, जब इस पान-गुटखा चबाने वालों को एक तरह से सामाजिक स्वीकार्यता हासिल है तो क्या यहां पर मैट्रो प्रशासन ढीला पड़ जाएगा, अगर कहीं बदकिस्मती से यह हो गया तो मैट्रो के स्टेशन परिसरों का और मैट्रो के सवारी डिब्बों का तो हुलिया बिगड़ जाएगा।

लेिकन कल की टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट से पता चला कि यह पान-गुटखे वाला लफड़ा तो अभी ही से शुरू हो गया।

तो हुआ यह है, दोस्तो, कि मैट्रो के निर्माण कार्य के लिए मैट्रो रेल को जगह जगह बैरीकेड लगाने होते हैं....और ये तो आपने देखा ही होगा िक ये लोग बिना किसी तरह के अवरोध के अपना काम चुपचाप करते रहते हैं।

लेिकन लखऩऊ में अब मैट्रो तैयार करने वाली कंपनी इन पान-थूकने वालों से बड़ी परेशान हो गई है...लार्सन-टूबरो के एक अधिकारी ने कहा है कि मैट्रो बिछाना कोई बड़ा काम नहीं है, हम उसे करते आए हैं, लेकिन इन पान-गुटखा थूकने वालों को काबू में रख पाना बड़ा टेढ़ा काम लग रहा है।

रिपोर्ट में लिखा था कि जिस स्ट्रेच में अभी मैट्रो का काम चल रहा है, उस के आसपास मैट्रो रेलवे ने जो बैरीकेड लगा रखे हैं...आते जाते लोग दो और चार पहिया वाले इस के ऊपर सारा दिन थूकते रहते हैं जिस की वजह से वह इतने गंदे और भद्दे हो जाते हैं कि रोज़ाना सुबह आठ से दस मैट्रो कर्मचारी अपना नियमित काम छोड़ कर इन पान के दागों को धोने में ही लगे रहते हैं.....सच में इस से मैट्रो के निर्माण कार्य में बड़ी परेशानी हो रही है।

अब देखने वाली बात यह है कि यह तो अब की बात है जब कि मैट्रो का निर्माण कार्य शुरू हुआ है.... अभी यह देखना तो बाकी है कि जब मैट्रो बन कर तैयार हो जाएगी और इस पर गाड़ीयां दौड़ने लगेंगी तब क्या होता है।

आगे आगे देखिए होता है क्या, मेरी तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि काश! इसी मैट्रो के बहाने ही लखनऊ के बाशिंदों का पान-गुटखा-पानमसाला से मोहभंग हो जाए....इस से ये स्वयं भी स्वस्थ रहेंगे और लखनऊ मैट्रो -लखनऊ की शान --भी चमचमाती रहेगी।

काश! ऐसा ही हो!!

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से कैसे करें बचाव?

जैसा कि अब हम जानते हैं कि यह एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा भी एक मौसमी एन्फ्लुऐंजा ही है, इस से डरने की कोई विशेष वजह नहीं है। यह स्वाईन-फ्लू नहीं है।

क्या एहतियात के तौर पर पहले ही से दवा ले लें?

अब प्रश्न जो मन में उभरना स्वभाविक है कि क्या कोई ऐसा जुगाड़ या दवाई है कि हम लोग इस से बचे रह सकें ?
इस का जवाब यही है कि क्या हम लोग अन्य बीमारियों से बचने के लिए पहले ही से दवाई ले लेते हैं?....नहीं ना, तो फिर इस एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा के लिए भी ऐसा कुछ दवा नहीं है कि जिसे हम लो खा लें और निश्चिंत हो जाएं कि यह इंफेक्शन हमें नहीं होगा।

क्या इस से बचाव का टीका ही न लगा लें?

जी हां, इस एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से बचाव का टीका तो है लेकिन इस से भी ८०-९० प्रतिशत बचाव ही मिलता है। सामान्यतयः इस टीके को स्वास्थ्य-कर्मियों को लेने की सलाह दी जाती है और जो लोग हाई-रिस्क केटेगरी में आते  हैं..जैसे कि बहुत बुज़ुर्ग, गर्भवती महिलाएं या ऐसे लोग जिन की इम्यूनिटि कुछ दवाईयों (जैसे कि स्टीरॉयड आदि) की वजह से दबी हुई है।

कल मेरे पास एक महिला अपने इलाज के लिए आई थी, पूछने लगी कि उस की बेटी नर्सिंग का कोर्स कर रही है ..कालेज वालों ने एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा का टीका लगवाने के लिए कहा है। मैंने उसे बताया कि यह टीका जब भी अस्पताल में आएगा पहले डाक्टरों एवं स्वास्थ्यकर्मियों को ही लगेगा जिन का मरीज से सीधा और नजदीकी संपर्क रहता है। पूछने लगी का बाज़ार में इस की कितनी कीमत है, मैंने नेट पर चेक किया तो पता चला कि इस टीके का दाम  बाज़ार में २५०रूपये है।

लेकिन इस समय परेशानी यह है कि ये टीके सरकारी अस्पतालों और मैडीकल कालेजों में भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं, ये बाहर से निर्यात होते हैं... आज पेपर में पढ़ा है कि सरकारी अस्पतालों द्वारा भी इस तरह के टीकों का आयात करना एक लंबी प्रक्रिया है क्योंकि इस में लगभग दो महीने का समय भी लग सकता है।

छोटी छोटी बातें---बड़े बड़े लाभ

बड़ी सीधी सी बात है कि इस इंफेक्शन से भी बचे रहने के लिए हमें बड़ी बेसिक सी बातों की तरफ़ ध्यान देना होगा।
सब से पहले तो विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर हम लोग सलीके से खांसने और छींकने की तहजीब सीख पाएं तो हम इस तरह की बीमारियों से ही नहीं, टीबी, कुष्ठरोग जैसी अन्य बीमारियों से भी बचे रह सकते हैं।


खांसने की तहजीब (Cough Etiquettes) 

अधिकतर हमें खांसने की तहजीब नहीं है, कईं बार तो किसी पब्लिक जगह पर ऐसे लगता है कि खांसने वाले आप के मुंह में खांस रहा है। बार बार हमें याद दिलाया जाता है कि हमें अपने रूमाल में खांसना चाहिए... पता हमें सब कुछ है, लेकिन हम सुधरने वाले नहीं है।

दरअसल हमारी खांसी में जो कीटाणु निकलते हैं उनके ज़रिये बहुत सी बीमारियां एक से दूसरे बंदे में फैल जाती हैं।
अब आप सोचते होंगे कि हम सब इस तरह से आसपास के लोगों की खांसी की बदतमीजी (जी हां, यह एक बदतमीजी ही है, इतना सीखने के लिए किसी डिग्री की ज़रूरत नहीं.....अगर कोई बहुत गंभीर व्यक्ति खांस रहा है, उसे कोई सुध नहीं है, उसे तो बिल्कुल क्षमा किया जा सकता है)....लेकिन जो हट्टे-कट्टे पढ़े लिखे लोग बिना अपने मुंह ढंके खांसते रहते हैं, उन्हें यह तहज़ीब सीखने की बहुत ज़रूरत है...हम अकसर देखते हैं कि हमें यह सब बुरा लगता है, लेकिन हम लोग शिष्टाचार वश किसी से कुछ कहते वहते नहीं हैं।


अब आते हैं छींकने वालों पर

वही बात, बिना रूमाल, या हाथ या बाजू आगे किए हुए छींकने से भी बहुत सी बीमारियां फैल जाती हैं। खांसने और छींकने से जो ड्राप्सलेट्स हमारे नाक और मुंह से निकलते हैं वे कुछ मीटर तक बैठे व्यक्ति को भी अपनी चपेट में लेते हैं।

खांसने और छींकने की बदतमीजी का शिकार हो कर भी अगर कोई व्यक्ति इन बीमारियों से बच जाता है तो इस के लिए उस की इम्यूनिटि (रोग प्रतिरोधक क्षमता) को इस का क्रेडिट मिलना चाहिए।

एक बार मैं इसी एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा के संबंध में एक प्रश्न टीवी पर सुन रहा था कि हम ऐसा क्या करें कि हमारी इम्यूनिटि ठीक रहे। इस का जवाब विशेषज्ञों ने बिल्कुल सही दिया कि आप नशों, तंबाकू-गुटखा, दारू से दूर रहें, संतुलित आहार लें, रोजाना व्यायाम करें, टहला करें......इस से आप की रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी रहेगी, अधिकतर बीमारियां आप के पास नहीं फटकेंगी। लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह सब कुछ एक दो महीने ही एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से बचने के लिए अगर मान रहे हैं, फिर से पुरानी दिनचर्या और वही जंक-फूड आदि खाना-पीना शुरू हो जायेगा तो यह इम्यूनिटि टिक नहीं पाती.........यह तो दोस्तो निरंतर जीवनपर्यंत मानने वाली बातें हैं।


बार बार अच्छे से हाथ धोने की आदत

अगर हमें बार बार अच्छे से हाथ धोने की आदत है तो भी हम इस एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से ही नहीं अन्य बीमारियों से भी बचाव कर सकते हैं। हम देखते हैं कि हम लोग कितने दिन मनाने लगे हैं...वेलेंटाइन डे, चॉकलेट डे, फ्रेंडशिप डे........सब से ज़्यादा अहम् है हैंडवॉशिंग दिवस.....जी हां, पिछले कुछ सालों से मैंने देखा है कि विदेशी स्कूलों में हैंडवॉशिंग दिवस भी मनाया जाता है... यह बहुत बहुत बहुत ज़रूरी है कि हम बच्चों को तो सिखाएं ही और हम जो पहले से सब कुछ सीखे हुए हैं, उसे नज़रअंदाज़ न करें।

दूर ही से नमस्कार ठीक है

मिलने जुलने का सीधा सादा हिंदोस्तानी तरीका --दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार करने वाला-- सब से उत्तम है। हाथ मिलाने से हम लोग एक दूसरे तक बीमारियों के जीवाणु भी परोस सकते हैं...इसलिए हमेशा आदत रहनी चाहिए कि कुछ भी खाने से पहले हाथ हम लोग अच्छी तरह से धो लें, बिना धोए हाथों को मुंह, आंख, नाक में कभी न डालते फिरें, इस से बीमारियां फैलती हैं।

खांसी-जुकाम होने पर बच्चों को स्कूल न भेजें

बच्चों में खांसी जुकाम होने पर अगर बच्चे स्कूल नहीं जाएं तो यह भी एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से रोकथाम का एक बड़ा कदम है। दो दिन पहले मैं एक शिशु रोग विशेषज्ञ को टीवी पर सुन रहा था ..उस ने कितना सही कहा कि बच्चे एक दिन स्कूल जा कर अगर काले और गुलाबी रंग का भेद दो दिन बाद सीख लेंगे तो कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन अगर वे खांसी-जुकाम के दौरान स्कूल जाएंगे तो उन के बहते नाक से, खांसी से तरह तरह की इंफेक्शन दूसरे बच्चों में फैल जाती है ...और फिर उन दूसरे बच्चों के रास्ते उन के घर के अन्य सदस्य भी इस तरह के संक्रमण की चपेट में आ जाते हैं।

दोस्तो, यह बात नहीं है कि आज कल एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा की चर्चा ज़ोरों पर है, इसलिए ही हमें यह बच्चों को स्कूल न भेजने वाली एहतियात बरतनी है, यह तो भाई एक सामान्य बचाव है जो हमें हमेशा ही करना होगा ताकि बाकी बच्चे इस तरह की बीमारियों से बचे रहें......और वैसे भी बच्चे के नाक से जो पानी बहता है, और मुंह से वे जो खांसते हैं, उन के खांसने में और छींक में वॉयरस बहुत अधिक मात्रा में होते हैं और लंबे समय तक ये वॉयरस के जीवाणु उन में मौजूद रहते हैं।

मुझे एक बाल रोग विशेषज्ञ की यह बात बहुत बढ़िया लगी कि स्कूलों में यह जो नया फैशन सा है .. १०० प्रतिशत अटेंडेंस के लिए अवार्ड---इसे तो बिल्कुल खत्म कर देना चाहिए...इसी अवार्ड के चक्कर में खांसी-जुकाम से ग्रस्त छोटे बच्चे भी स्कूल रवाना कर दिये जाते हैं....जिससे दूसरे बच्चे इस की चपेट में आ जाते हैं।

बचाव की बातें काफी हो गई हैं, लगता है अब इस पर विराम लगाएं.......इस से डरने की ज़रूरत नहीं है, हर साल सर्दियों और बरसात के मौसम में होता है, किसी साल कम किसी साल ज़्यादा होता है...डेंगू का भी तो यही हाल है, कभी ज़्यादा, कभी कम। लेकिन वही पुरानी कहावत यहां भी फिट बैठती है........परहेज से इलाज भला......परहेज का मतलब कि हम लोग कैसे बचाव कर पाएं........पूरी रामकथा ऊपर लिख दी है, इन्हें मान लेने में ही भलाई है।

खुशखबरी यह है कि आज अखबार में भी आया कि बस होली तक ही ये एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा के केस मिलेंगे...जैसे जैसे तापमान बढ़ता है इस वॉयरस की बीमारी पैदा करने की क्षमता भी घटने लगती है...इसलिए इस के केसों में भी कमी आने लगती है। फिर बरसात में मौसम में, ह्यूमिडिटी की वजह से वॉयरस जल्दी जल्दी बढ़ती है और फिर से एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा के केस बढ़ने लगते हैं।

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दोस्तो, आज शिवरात्रि है, न मैंने कहीं जाकर शिव जी का विवाह सुना ..न कुछ और ... सुबह से इस इंफ्लूऐंजा के बारे में ऐसा लिखने बैठा हूं कि शाम होने को है.....अब इस के बारे में बची खुची बातें कल कर लेंगे.......जाते जाते आप बम बम भोले को याद कर लें!

एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा का टेस्ट -- कब और कैसे?

मैंने पिछली पोस्ट में एक मित्र के बारे में लिखा कि उसे खांसी-जुकाम हुआ...उसने फ़िज़िशियन से कहा कि मेरी स्वाईन-फ्लू (दरअसल ये H1N1 एन्फ्लुऐंजा है) की जांच करवा दें, वह मान गए, घर में लैब-टेक्नीशीयन आ कर गले से स्वैब ले गया.... और अगले दिन टेस्ट पॉज़िटिव आ गया, फिर उस की दवाई तो शुरू हो ही गई, साथ ही उस के परिवार के अन्य लोगों को भी बचाव के लिए दवाई दी जाने लगी, पांच दिन के लिए।

दोस्तो, मैं आपसे यह शेयर करना चाहता हूं कि यह टेस्ट बहुत महंगा है, सरकारी अस्पताल ही जो ये टेस्ट अपने सरकारी कर्मचारियों का प्राईव्हेट लैब से करवाते हैं उन्हें ही इस के लिए लगभग साढ़ें चार हज़ार रूपये चुकाने होते हैं।

मैंने अभी अभी लखनऊ की एक प्राईव्हेट लेब को फोन किया ...इस टेस्ट का रेट पूछने के लिए.. यहां पर इस का रेट साढ़े पांच हज़ार रूपये हैं और रिपोर्ट दो दिन में मिलती है...यानि आज टेस्ट करवाया तो रिपोर्ट दो दिन बाद परसों मिलेगी।

अभी मैं हिंदी का अखबार देख रहा था, कल यहां पर आर्चीटेक्चर कालेज के कुछ छात्र इक्ट्ठे हो कर मैडीकल कालेज पहुंच गये कि उन्हें एच१एन१ की जांच करवानी है...इस की दवाई लेनी है क्योंकि कुछ दिनों से उन का खांसी-जुकाम ठीक नहीं हो रहा...सीनियर डाक्टर ने उन्हें खांसी-जुकाम की दवाई दे कर और मास्क दे कर यह कह कर वापिस भेज दिया कि अगर ये दवाईयां लेने से कुछ समय बाद भी राहत महसूस न हुई तो एच१एन१ एन्फ्लुऐंजा की जांच करेंगे।

इस सीनियर डाक्टर ने बिल्कुल सही किया.... टेस्ट को टाल दिया..यह बहुत ही ज़रूरी है, वरना होता क्या है जब इस तरह की बीमारी होती है और मीडिया में खौफ़ पैदा कर दिया जाता है तो कुछ लोग अपने रसूख के बल पर यह टेस्ट करवा लेना चाहते हैं ....और हो भी जाता है, यहां रसूख से बड़े से बड़े काम हो जाते हैं, यह तो कुछ भी नहीं।

लेकिन यह गलत है। मेरे मित्र को भी अपने आप चिकित्सक को कहने की कोई ज़रूरत नहीं थी कि क्या आप मेरा एच१एन१ टेस्ट करवा देंगे।

अब आपके मन में यह प्रश्न आना स्वभाविक है कि मेरे मित्र ने किसी डाक्टर को कहा कि उसका टेस्ट करवा दे, और टेस्ट होने के बाद उस की रिपोर्ट पॉज़िटिव भी आ गई....ऐसे में तो मेरे मित्र ने बड़ी समझदारी का परिचय दिया।

नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, आप कृपया यह बात गांठ बांध लें कि चिकित्सक अपने हिसाब से अपने अनुभव के आधार पर जो काम कर रहा है, उसे करने देना चाहिए, उसी में ही हम सब की भलाई है....मित्र ने टेस्ट करवाने की इच्छा ज़ाहिर की और उसने भी कहा कि हां, ठीक है, करवा लो।

अब मैं आता हूं असली बात पर.......वह यह है कि खांसी जुकाम तो इस मौसम में बहुत से लोगों को हुआ ही करता है, सर्दी में भी होता है और बरसात में भी होता है....ऐसे में क्या हर बंदा सरकारी अस्पतालों में या प्राईव्हेट लैब में लाइनें लगा कर टेस्ट करवाना शुरू कर दे....इस एच१एन१ एन्फ्लुऐंजा वॉयरस के लिए। नहीं, इस की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है।

H1N1 एन्फ्लुऐंजा टेस्ट किस का होना चाहिए? 

हम सब लोगों की फ्लू से जान पहचान तो है ही, है कि नहीं?-- H1N1 एन्फ्लुऐंजा के लक्षण भी बिल्कुल मौसमी फ्लू जैसे ही हैं, सिर और शरीर में दर्द, नाक बहता है...और इस के लिए इऩ लक्षणों के लिए ही जो दवाईयां आदि हम लोग अकसर लेते हैं या देसी जुगाड़ --मुलैठी, नमक वाले गर्म पानी से गरारे, बुखार के लिए या बदन दर्द के लिए कोई दर्द की टिकिया ले लेते हैं....गर्मागर्म चाय-वाय खूब पीते हैं अदरक डाल कर.... क्योंकि अच्छा लगता है..और अकसर यह दो चार दिन में ठीक हो जाता है...

लेकिन अगर खांसी-जुकाम के साथ साथ कुछ चेतावनी देने वाली लक्षण भी दिखने लगें तो हमें अस्पताल में चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए....दोस्तो, मैंने यह नहीं कहा कि हमें किसी लैब में जाकर H1N1 एन्फ्लुऐंजा का टेस्ट करवा लेना चाहिए, इस की कोई ज़रूरत नहीं है, लैब वाले तैयार बैठे हैं, लेकिन उस की ज़रूरत है कि नहीं, यह पता करना तो चिकित्सक का काम है। हां, तो बात हो रही थी चेतावनी देने वाले लक्षणों की ....

चेतावनी देने वाले लक्षण 

दरअसल अगर H1N1 एन्फ्लुऐंजा का संक्रमण गले से छाती में चला जाता है और यह काम ५ से ७ दिन में हो जाता है, तो इस से मरीज़ को निमोनिया की तकलीफ़ हो जाती है, अब मरीज को कैसे पता चले कि निमोनिया हो गया है...यह हो रहा है......उसे तेज बुखार के साथ साथ सांस लेने में तकलीफ़ होगी, पेट में दर्द हो, उल्टी आए और खांसी करने पर बलगम में खून आने लगे तो तुरंत चिकित्सक से मिलना चाहिए। उस हालात में उस का H1N1 एन्फ्लुऐंजा टेस्ट करवाया जाता है और तुरंत इस बीमारी का समुचित इलाज शुरू किया जाता है।

ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि कुछ मरीज़ों में विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए... बच्चों में खांसी जुकाम तो होता ही है, लेकिन अगर इस के साथ अगर उस ने फीड लेनी बंद कर दी है, तेज़ बुखार के साथ वह सांस भी तेज़ तेज़ ले रहा है, उस की पसली चलने लगी है और बच्चा नीला पड़ रहा है तो तुरंत चिकित्सक को मिलना चाहिए। इसी तरह से बुज़ुर्गों में भी ६५ वर्ष से ऊपर वालों में अगर वे खांसी-जुकाम और बुखार होने पर गफलत में जा रहे हैं, उन के हाथ-पैर ठंड पड़ रहे हैं तो ये चेतावनी वाले लक्षण हैं....यह आम खांसी-जुकाम के लक्षण नहीं है, इन्हें चिकित्सक के पास ले कर जाना चाहिए।

उसी तरह से जब यही लक्षण सांस की बीमारी से ग्रस्त, दिल के किसी रोगी या मधुमेह रोगी या ऐसी किसी व्यक्ति में पाये जाएं जिन की रोग प्रतिरोधक क्षमता पहले ही से कम है.. इम्यूनिटी कंप्रोमाइज्ड है-- चाहे वे इम्यूनिटी दबाने वाली कोई दवाएं खा रहे हों पहले से....इन सब में भी ऊपर लिखे चेतावनी वाले लक्षणों के मिलते ही तुरंत चिकित्सक से संपर्क साधना ज़रूरी है।

कैसे होता है टेस्ट 

जिन मरीज़ों में चिकित्सक समझते हैं कि उन का एच१एन१ टेस्ट होना चाहिए तो उन का यह टेस्ट एक स्वॉब से ही हो जाता है... इस के लिए किसी तरह के रक्त की जांच की ज़रूरत नहीं पड़ती ...

मेरे विचार में बाकी बातें अगली पोस्ट में करते हैं, इस के लिए तो इतना ही काफ़ी है..एक बात जो मेरे ज़हन में आ रही है आप की तरफ़ से वह यह है कि आप सोच रहे होंगे कि मेरे दोस्त को अगर एच१एन१ इंफेक्शन का पता न चलता तो उस की दवाई शुरू न होती, जिस से उस की जान पर बन सकती थी। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है, अगर उस में ऊपर लिखे चेतावनी वाले लक्षण होते तो उस का टेस्ट हो जाता और उस का फिर इलाज शुरू कर दिया जाता। हर खांसी-जुकाम के केस में यह टेस्ट करवाने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है।

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एच१एन१(H1N1) एन्फ्लूऐंजा मौसमी है, स्वाईन फ्लू नहीं है

H1N1 (एच1एन1) एन्फ्लूऐंजा मौसमी है, स्वाईन फ्लू नहीं है...

पिछले कईं हफ्तों से एक तरह से हड़कंप मचा हुआ है...स्वाईन फ्लू आ गया है, फैल रहा है...लेकिन सब से पहले समझने वाली बात यही है कि यह स्वाईन फ्लू नहीं है, नहीं है, नहीं है।

यह स्वाईन फ्लू नहीं है...इन शब्दों पर ज़ोर देने के लिए मुझे तीन बार लिखना पड़ा क्योंकि मीडिया में बार बार स्वाईन फ्लू शब्द का ही इस्तेमाल किया जा रहा है जो कि सरासर गलत है, लोगों में भम्र पैदा कर रहा है, इसी की वजह से ही अफरातफरी का माहौल बन रहा है।

कुछ दिन पहले मैंने किसी विषय पर लेख लिखा था...लेकिन उस के कमैंट में एक भाई ने पूछा कि क्या स्वाईन-फ्लू की दवा है?..मैंने उन्हें संक्षेप सा उत्तर तो दे दिया...लेकिन उस उत्तर से मैं भी संतुष्ट नहीं था, मुझे लगा कि बात विस्तार से करनी होगी।

चार पांच दिन पहले मेरे एक मित्र का दिल्ली से फोन आया...बताने लगा कि तबीयत नासाज़ है, खांसी-जुकाम है, मैंने ही डाक्टर को कहा है कि क्या मुझे स्वाईन-फ्लू का टेस्ट करवा लेना चाहिए। डाक्टर ने कहा है--करवा लेते हैं। अगले दिन उस का फोन आया कि स्वाईन-फ्लू का टेस्ट पाज़िटिव निकला है। मैं उसे तसल्ली दी कि परेशान न होए, अपने खाने-पीने का ध्यान रखे....लेकिन उस की तसल्ली होती दिखी नहीं, दरअसल मीडिया ने स्वाईन-फ्लू के नाम ही से इतना प्रचार-प्रसार कर दिया है।

उस दोस्त की भी दवाई शुरू हो गई पांच दिन के लिए ... और घर के अन्य सदस्यों को दवाई एहतियात के तौर पर दी जाने लगी है... लेकिन क्या ऐसे हर केस में या इन के परिवार को दवाई दी जानी ठीक है, इस के बारे में मैडीकल विज्ञान के आधार पर बात करने की ज़रूरत है..आज सारा दिन मैं आप से इस एच१एन१ एन्फ्लुऐंजा के बारे में ही बात करूंगा......आज मुझे छुट्टी है, सोच रहा हूं आज शाम तक इस विषय पर सही सही जानकारी आप तक सटीक ढंग तक पहुंचा कर इस का खौफ खत्म करने के लिए अपना एक तुच्छ योगदान मैं भी दूं।

अब यह सूअर से नहीं, आदमी से आदमी में फैलता है...

जी हां, ये जो आज कर फ्लू हो रहा है, यह स्वाईन-फ्लू नहीं है, यह बस मौसमी एन्फ्लुऐंजा है... जो हर साल आता है जाता है। इसे सीज़नल H1N1एन्फ्लुऐंजा  (Seasonal Influenza H1N1) कहते हैं। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है कि यह स्वाईन फ्लू नहीं है। स्वाईन का मतलब है कि सूअर से फैलने वाला......लोगों में तो यह भी भ्रांति है कि यह सूअर का मांस खाने से फैलता है, ऐसा नहीं है, वो अलग बात है कि सूअर के मांस के साथ अन्य मुद्दे जुड़े हुए हैं जो इस पोस्ट की चर्चा का विषय नहीं है।

 दरअसल २००९ में जब स्वाईन-फ्लू आया --जब इस वॉयरस का मुखौटा सामने आया या यूं कह लें कि २००९ में जब यह वॉयरस पैदा हुई.. तब इसे पैनडैमिक एच१एन१ कहा गया था, यह विश्व के बहुत से देशों में फैलने लगा।

२००९ में जब यह फ्लू आया तो विश्व स्वास्थ्य संगठन इस पर बराबर नज़र रखे हुए था, उसने विश्व स्तर पर एलर्ट भी जारी किया था... क्योंकि यह वॉयरस का बिल्कुल नया मुखौटा था... जिस का न तो कोई वैक्सीन था, न ही लोगों के शरीर में इस का मुकाबला करने की रोग-प्रतिरोधक क्षमता ही थी।

तो यह बात अब हम सब की समझ में आ चुकी है कि यह २००९ वाली वॉयरस ही है, तब यह विश्व में पहली बार दिखी थी, लेकिन २००९ से २०१५ के बीच में हम सब में "herd immunity" पैदा हो चुकी है.......इस अंग्रेजी का मतलब केवल यही है कि इतने लंबे समय में हम लोगों के शरीर में इस का मुकाबला करने की क्षमता पैदा हो चुकी है....यह अपने अपने होता है......बिना बीमार हुए, बिना इस इंफेक्शन से ग्रस्त हुए......आप यूं समझ लें कि इस तरह की हर्ड-इम्यूनिटि हमारे लिए एक प्रकृति का तोहफ़ा है।

पहली बात तो यह कि अब सूअर वाली बात इस बीमारी के बीच से निकल चुकी है.......क्योंकि यह अब एक व्यकित से दूसरे व्यक्ति में खांसी-ज़ुकाम की तरह ही फैल रहा है.......और सीधी सीधी बात यह कि बहुत से लोगों में होगा, लेकिन गंभीर नहीं होगा, अब इम्यूनिटि है, इस से टक्कर लेने की रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो चुकी है।

मुझे ध्यान आया कि मैंने २००९ में कुछ स्वाईन-फ्लू से संबंधित लेख लिखे थे, अगर आप चाहें तो इस ब्लाग के दाईं तरफ पैनल में जो सर्च-बॉक्स बना है, उस में स्वाईन-फ्लू लिखें, तो सारे लेख आप के सामने आ जाएंगे.......मैंने भी अभी अभी देखे, लेकिन मैं जान-बूझ कर उन का लिंक यहां नहीं लगा रहा, जब यह स्वाईन-फ्लू है ही नहीं तो आप को क्यों बिना वजह उलझाया जाए।

तो दोस्त, आज सुबह जब अखबार आप के हाथ में आए तो पहले पन्ने पर स्वाईन-फ्लू के बारे में खबरें देख कर बिल्कुल भी भयमीत मन होइएगा.....इस के बारे में आज आप से बहुत सी बातें शेयर करनी हैं।

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

विविध भारती सेहतनामा-- बच्चों में दिल की बीमारियां

चलिए दोस्तो आज मैं कुछ नहीं कहता...आज आप को एक रेडियो का प्रोग्राम सुनाते हैं....मैंने इसे आज दोपहर में विविध भारती पर सुना और इसे आप तक अभी पहुंचा रहा हूं।

इस प्रोग्राम में बच्चों की दिल की बीमारियों पर चर्चा हो रही है। आप देखिए कि विविध भारती यह एक अद्भुत सेवा दे रहा है। आप इसे इस लिंक पर क्लिक कर के सुन सकते हैं....बच्चों में दिल की बीमारियां।

आप इसे इत्मीनान से सुनिए और बताईए कैसे लगा आप को यह कार्यक्रम!

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

गुटखा, देसी दारू और तंबाकू दो महीने में छूट गये


आज सुबह मेरे पास एस ३०-३५ वर्ष का आदमी आया था--अपनी छः साल की बेटी के इलाज के लिए। जब वह मेरे से बात कर रहा था तो मुझे उस का नीचे वाला होंठ एक तरफ़ से उठा हुआ दिखा। मैंने पूछा कि यहां क्या हो गया, मुझे नहीं लगा था कि उस ने तंबाकू दबाया हुआ है...शायद, उसने समझा कि मुझे पता है कि तंबाकू ही है।

इसीलिए उस ने तुरंत कहा कि कुछ नहीं है, सर, सॉरी। ऐसे ही फुंसी सी है। मैंने पूछा...तंबाकू है ना?... कहने लगा-- हां। मैंने इतना ही कहा कि क्यों इन सब के लफड़े में पड़ते हो।

उस बच्ची का इलाज होने के बाद मैंने उस आदमी से कहा कि आप बाहर जा कर कुल्ला कर के आएं और मैं फिर आप के मुंह के अंदर देखना चाहूंगा। वह तुंरत गया और कुल्ला कर के लौट आया....उस के नीचे के होंठ के अंदर का मांस सफ़ेद पड़ा हुआ था। मैंने उसे शीशे के पास जा कर दिखा भी दिया... और वह आज ही से तंबाकू के इस्तेमाल को लात मारने के लिए राजी भी हो गया।

झट से उसने तंबाकू का पैकेट जेब से निकाला और डस्टबिन में फैंक दिया......मुझे बड़ी खुशी हुई कि चलो, आज का दिन बन गया, एक और बच गया!

फिर वह जाते जाते दो मिनट में अपनी बात कह गया....उसने कहा-

"डाक्टर साहब, मैं दस साल तक देसी शराब पीता था... दो महीने पहले जब लखऩऊ में देसी नकली शराब से बहुत से लोग मरे थे, उन्हीं दिनों की बात है कि मैंने एक दिन ठेके से देसी दारू का क्वार्टर लिया, उसे चढ़ा लिया... तुरंत मेरा मुंह लाल हो गया...मैं जाते समय देसी का एक क्वार्टर घर में पीने के लिए भी ले लेता था, उस दिन भी लिया... घर जाकर मैं एक कमरे में गया, उसे भी चढ़ा लिया, लेिकन उसे पीते ही मुझे अजीब सा महसूस होने लगा, आंखों के आगे अंधेरा सा छा लगा.........बस, उस दिन से दारू पीने से तौबा कर ली और आज तक नहीं छुई।  
मैं गुटखा उस तरह का खाता था ...जिसमें मसाला अलग आता था, और तंबाकू अलग। मुझे उस में तंबाकू ज़्यादा मिला कर अच्छा लगता था, कईं बार तंबाकू-मसाला बेचने वालों से कहासुनी हो जाती थी जब मैं उन्हें कहा करता था कि आप तंबाकू कम वाला पैकेट देते हैं। उन्हीं दिनों एक दिन ऐसी ही एक तकरार से मैं इतना खफ़ा हो गया कि उस दिन से यह गुटखा बंद कर दिया।  
बस, डाक्टर साहब, आजकल यह तंबाकू चबाना ही चल रहा था. जिसे आज हमेशा के लिए त्याग दिया।"
आपने इस सज्जन की बातों से देखा कि जब हमें किसी नशे से दिल से नफ़रत हो जाती है तो कोई भी बात फिर उसे छोड़ने में हमारे आड़े नहीं आती।

यह पोस्ट मैंने इसलिए लिखी है कि इस तरह की चीज़ों का सेवन करने वालों का हौंसला बुलंद हो कि जब आप कुछ ठान लेते हैं तो फिर यह प्रबल इच्छा शक्ति (will power) ही है जो बड़े से बड़े काम करवा लेती है।

एक बात और करनी है पाठकों से......जो भी इस तरह के पदार्थ खाते हैं उन्हें अपने मुंह का स्वयं निरीक्षण भी करते रहना चाहिए, अच्छी रोशनी में आइने के सामने खड़े होकर देखिए कि कहीं कोई घाव, कोई सफेद दाग तो नहीं है, अगर नहीं है तो उसी दिन से ये सब नशे छोड़ दें, और अगर है तो अपने चिकित्सक से तुंरत संपर्क करे।

Stay safe---stay healthy.....stay blessed..
Take care!

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

अपने ब्लॉग का गूगल-प्लस पेज अवश्य बनाएं

दोस्तो, आप को पता ही होगा कि आज कल गूगल हिंदी भाषा के कंटेंट को बहुत बढ़ावा दे रहा है।

इस के लिए नेट पर मौलिक हिंदी कंटेंट की बहुत आवश्यकता है। मैं समझता हूं कि हम सब लोगों को हिंदी भाषा में कुछ न कुछ कंटेंट अवश्य बनाना चाहिए।

हिंदी में लिखने की एक शुरूआती झिझक ही है, एक बार आप लिखने लगेंगे तो बहुत ही सहज अनुभव करेंगे। अब तो इतने टूल्स हैं जिन से आप को हिंदी लिखने में किसी विशेष तकनीक के ही भरोसे रहने की भी ज़रूरत नहीं है।

क्यों न आप हिंदी में एक ब्लॉग ही बना लें.....और गूगल प्लस पर अपने ब्लॉग का एक पेज अवश्य बनाएं.


मैंने भी अपने इस ब्लॉग का गूगल पेज बनाया था कुछ महीने पहले ...यह रहा इस का लिंक ... मीडिया डाक्टर गूगल प्लस...

गूगल पेज बनाने से आप के ब्लॉग की दृश्यता तो निश्चय बढ़ती ही है ....इस के साथ आप अपने पाठकों के साथ सीधे जुड़े रह सकते हैं। एक तरफ जहां इस से यूज़र एक्सपिरिएंस तो बेहतर होता ही है, आप के कंटेंट की पहुंच भी बहुत बढ़ जाती है।

मैंने भी जब से अपने ब्लॉग का गूगल पेज बनाया है और इसे अपने ब्लॉग से लिंक किया है, उस में पाठकों की निरंतर वृद्धि हो रही है... इस से आप बेहतर हिंदी कंटेंट क्रिएट करने के लिए प्रेरित होते हैं। 

एक बात जो मैंने नोटिस की है वह यह है कि मेरे इस ब्लाग पर पहले लगभग सारा ट्रैफिक गूगल सर्च ईंजन से ही आता था ..लेकिन अब इस का गूगल प्लस पेज बनाने से लगभग उतने ही पाठक गूगल-प्लस से भी आते हैं ..जिन में से अधिकतर एंड्रायड के माध्यम से ब्लॉग को देखते हैं।

पाठकों की इतनी बड़ी संख्या का श्रेय गूगल प्लस पेज को जाता है.. 
मैं आज मीडिया डाक्टर के गूगल प्लस पन्ने पर insights चैक कर रहा था.. इस का स्क्रीन-शॉट मैं यहां लगा रहा हूं...आप नोटिस करिए कि किस तरह से ब्लॉग का गूगल पेज बनाने से नियमित पाठकों की निरंतर वृद्दि हो रही है। दूसरे स्क्रीन-शॉट में आप देखिए कि विभिन्न पोस्टों के पाठकों की संख्या दैनिक बीस हज़ार के करीब है......यह सब ब्लॉग के गूगल-प्लस पेज का ही कमाल है। 


दोस्तो, हम में से हरेक के पास शेयर करने को बहुत कुछ है, हम कहने में कईं बार झिझक जाते हैं, और लिखने में तो और भी...लेकिन इस शुरूआती झिझक को दूर रखने का भी एक ही उपाय है कि आप निरंतर लिखते रहिए...बस, अपनी धुन में लगे हुए लिखते जाइए.....आप को लिखना अच्छा लग रहा है ना, महज़ इतना ही काफी है।

अपने इर्द-गिर्द नज़र दौडाइए.... इतनी एक्टिवी है.. गूगल पेज पर फोटो, वीडियो, अपना स्टेट्स शेयर करते रहिए और एक संवाद स्थापित करिए.....अपने पाठकों को एंगेज करिए। एक बात ध्यान रखने योग्य है ...निरंतरता (regular posts) बहुत ज़रूरी है, और यह हमारे भी हित में है।

गूगल सर्च इंजन अगर इतने ज़ोरों से हिंदी के कंटेंट को आगे ला रहा है तो हम सब का भी तो कर्तव्य है कि हम लोग अपने अपने क्षेत्र से जुड़ी नई नई जानकारियां अपने ब्लॉग, गूगल प्लस आदि माध्यमों पर शेयर कर के उत्कृष्ट हिंदी कंटेंट तैयार करने में मदद करें।

और नेट पर लिखने के दांव पेच जानने की तमन्ना हो तो ये लिंक्स भी देखिएगा....चार पांच साल पहले ये भी नेट लेखन के बारे में मेरे दिल से निकले हुए भाव हैं ..

इंटरनेट लेखन के दांव-पेच 
इंटरनेट लेखन के दांव-पेच- २
इंटरनेट लेखन के दांव-पेच-३
इंटरनेट लेखन के दांव-पेच-४
इंटरनेट लेखन के दांव-पेच-५ 

बढ़ती उम्र में सेहतमंद बने रहने का फंडा

Photo Credit...Google images
चलिए दोस्तो आज आप को एक ८० साल के जवान की बातें सुनाता हूं।

आज मेरी ओपीडी में एक अधेड़ उम्र के शख्स आए...५५-६० की उम्र के ही लग रहे थे... साथ में एक २० वर्ष के करीब की एक बेटी थी... उसके इलाज के लिए आये थे।

ऐसे ही बात चली तो पता चला कि वह बच्ची उन की भतीजी है..और वे तो २० साल पहले ही सेवानिवृत्त हो चुके हैं। मुझे यह जानकर बेहद आश्चर्य हुआ.. क्योंकि मुझे उन की उम्र ६० के ऊपर लग ही नहीं रही थी, एकदम दुबला-पतला स्वस्थ शरीर और चेहरे पर चमक-दमक। मूल रूप से इटावा के रहने वाले हैं। इंटरमीडिएट तक शिक्षा है और कार्यालय अधीक्षक (ऑफिस सुपरिन्टेंडेंट) के पद से रिटायर हुए थे।

दो तीन लोग उस समय मेरे पास खड़े थे....उन की भतीजी की जांच करने के बाद मैंने उस शख्स से पूछ ही लिया कि यार, ज़रा आप दो मिनट हम सब के फायदे के लिए इस उम्र में भी ऐसी सेहत का राज़ बतलाइए।

मैं चाहता हूं कि उन्होंने दो तीन मिनट में जो कहा ...आप भी उसे पढ़े, समझें....विशेषकर आज की युवा पीढ़ी जिन की बॉडी-क्लॉक अस्त-व्यस्त है.. न खानेपीने का कोई ठिकाना, न सोने-जागने का, और खाने पीने में भी ज़्यादातर जंक फूड की भरमार है।

उन्होंने बताया...
"सुबह छः बजे उठ जाता हूं..टहलने जाता हूं रोजाना एक घंटा....सुबह केवल मुट्ठी भर चने, दो तीन बादाम, और किशमिश जो रात में भिगो देता हूं ...सुबह उस पानी को पीता हूं और चने-बादाम-किशमिश का खाता हूं, बस। फिर घर के काम काज में बिजी हो जाता हूं... थोड़ा अखवार-वार देख लेता हूं... टीवी देखता हूं लेकिन बहुत कम... केवल आस्था चैनल और खबरें। 
दोपहर में दाल रोटी साग सब्जी खाता हूं .लेकिन दो रोटी से ज़्यादा कभी नहीं। फिर आराम करता हूं। देसी-घी बाबा रामदेव के यहां से ४५० रूपये किलो लाकर रोज़ाना खाने के साथ --दाल-रोटी पर लगा कर लेता हूं। दूध पीते समय उस में छुवारे उबाल कर पीता हूं। 
चावल खाता तो हूं बहुत कम ..सप्ताह में एक बार। मीठे का शौकीन इतना हूं कि बस खाने के बाद थोड़ा गुड़ लेता हूं।  
दोपहर का खाना खाने के बाद आराम करता हूं... फिर शाम को टहलता हूं ..दो चपाती दाल सब्जी खाता हूं रात को ..नींद पूरी लेता हूं......बस यही है डाक्टर साहब अपने सेहतमंद रहने का राज़।"

मुझे उन की इतनी बढ़िया जीवनशैली के बारे में जान कर बहुत खुशी हुई।   मैंने ठहाके लगाते हुए कहा कि यार, आपने तो पूरी दोगुनी पेन्शन लेने का जुगाड़ कर रखा है(सेवानिवृत्त कर्मचारियों को १०० वर्ष की आयु होने पर उन्हें मिलने वाली पेन्शन डबल हो जाती है) ...मेरी बात सुन कर वह भी हंसने लगे ...कहने लगे आप सब का आशीर्वाद मिल गया है, यह भी हो जाएगा।

इन्होंने कभी भी बीड़ी-सिगरेट-दारू किसी तरह का नशा नहीं किया। ये कभी हस्पताल गये ही नहीं है कोई दवाई लेने.....कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। चाय केवल सर्दी के दौरान पीते हैं, गर्मी में बिल्कुल बंद।

एक दम खुशमिजाज हंसता खिलखिलाता ८० वर्षीय बुज़ुर्ग।

दोस्तो, क्या जो बातें वह बुज़ुर्ग मुझे और मेरे मार्फत आप सब को याद दिला गया...क्या वे बातें हम सब पहले ही से नहीं जानते हैं?...आप को भी लगता होगा कि इन में है क्या, लेकिन फिर भी दोस्तो, हम पता नहीं क्यों इन बातों पर चल नहीं पाते।

अगर आप उस अधेड़ रूपी बुज़ुर्ग की बातें ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि उस की हर बात में लंबी सेहतमंद ज़िंदगी का राज़ छिपा है। है कि नहीं?

काश, अगर हम इन बड़े-बुज़ुर्गों के जीवन से कुछ सीख ले सकें तो ज़िंदगी के मायने ही बदल जाएं।

एक बात का मलाल है कि मैंने उन की तस्वीर नहीं ली...आप को उन के चेहरे की तरो-ताज़गी और ज़िंदगी के प्रति उत्साह की एक झलक दिखाने के लिए। फिर कभी उन का चक्कर लगेगा तो उन के दर्शन करवा दूंगा।

वैसे तो मैं नज़र वज़र लगने में विश्वास नहीं रखता......और वैसे भी डाक्टर लोगों की नज़र भी कभी बुरी होती है क्या! यही प्रार्थना है कि ये बुज़ुर्ग शतायु हों।

वैसे मैंने कुछ अरसा पहले आप को एक दूसरे बुज़ुर्ग से भी मिलवाया था जो ७० की उम्र में ७० किलोमीटर की साईक्लिंग करते हैं......७० की उम्र में रोज़ाना ७० किलोमीटर की साईक्लिंग। 

वैसे ८० साल के एक और बुज़ुर्ग की बातें यहां भी हैं... बिना किसी तकलीफ़ के भी रक्तचाप की जांच। वैसे मैंने जब आज वाले ८० साल के बुज़ुर्ग का ब्लड-प्रेशर नापा तो बिल्कुल ठीक आया।

इन सेहतमंद बुज़ुर्गों को देख कर यही लगता है कि जो लोग ईमानदारी और सच्चाई के रास्ते पर चलते हैं, वे ऐसे ही बढ़िया जी लेते हैं। आप का क्या ख्याल है?


मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

हेल्दी स्नेक्स (स्वास्थ्यवर्धक अल्पाहार) के भी विक्लप तो हैं...

एक बात तो आप ने भी नोटिस की होगी कि आजकल स्नेक्स (अल्पाहार) के नाम पर हम लोग सेहत खराब करने वाले अल्पाहार ही इस्तेमाल कर रहे हैं। जहां पर भी आप नज़र दौडाएंगे बस जंक-फूड ही बिकता पाएंगे।

अल्पाहार ही क्यों, आज कल प्रोसेसेड फूड के अंधाधुंध इस्तेमाल से भी सेहत खराब की जा रही है.. आज कल लखनऊ में अवधी महोत्सव चल रहा है। कल उधर जाने का अवसर मिला। वहां देखा कि पहले जो कंपनियां रसगुल्ला, डोसा, वड़ा आदि के रेडीमेड मिक्सचर (पावडर) बेचा करती थीं, अब वे रेडी-टू-इट सब्जियां, दालें आदि भी पाउच में बेचती हैं। ये ६०से लेकर ८० रूपये में पाउच बिकते हैं..इन्हें बस गर्म पानी में कुछ समय के लिए डुबोना होता है और फिर पाउच खोल कर उसे इस्तेमाल कर लिया जाता है।

मैंने भी एक बार ट्राई किया था...बिल्कुल बेकार सा ... नमक से लैस.....होता ही यही है कि इस तरह के प्रोसैसेड फूड्स को तरह तरह के प्रिज़र्वेटिव डाल कर, बहुत ज़्यादा मात्रा में नमक डाल कर इतने लंबे समय के लिए--महीनों तक-- खाने के योग्य बनाए रखा जाता है। लेकिन ये स्वास्थ्य की दृष्टि से खाने के बहुत घटिया विकल्प हैं। अगर आप कभी शौक के तौर पर साल-छः महीने में एक बार यूज़ कर रहे हैं तो ठीक है, लेकिन इन का नियमित प्रयोग सेहत पर बहुत बुरा असर डालता है। बाकी, कंपनियों की बातें हैं...उन्होंने अपना सामान बेचना है।

अभी कुछ आगे ही चले थे कि एक स्टाल पर जयपुर का कोई व्यवसायी तरह तरह के भुजिया आदि बेच रहा था। तरह तरह भुजिया...जो आप इन तस्वीरों में देख रहे हैं....

चावली (सफेद रोंगी, सफेद लोबिया) भुनी हुई (हमें लग रहा है ये फ्राइड है) 

रोस्टेड जवार और सिका हुआ बाजरा (खाने में बढ़िया स्वाद था) 
मोठ जोर और मूंग जोर  
सोयाबीन भुना हुआ (रोस्टेड) 
मजे की बात है कि वह कह तो रहा था कि इन में से अधिकतर रोस्टेड हैं...यानि केवल सिके हुए हैं... ऐसा वह दुकानदार कह रहा था लेकिन हमें लग रहा था कि ये थोड़े बहुत फ्राईड हैं, और थोड़ा घी-तेल तो इस्तेमाल होता ही होगा इन के बनाने में, ऐसा हमें लगा।

इन सब का स्वाद बहुत बढिया था, चार-पांच तरह के खरीद भी लिए। लेकिन यही लगा कि हेल्दी कहने को तो हैं लेकिन अगर घी ही इस्तेमाल किया जाता है तो फिर काहे के हेल्दी।

यह है एयर-फ्रॉयर ...

लेकिन चंद मिनटों बाद ही हमें लगा कि हमारी परेशानी का समाधान मिल गया। एक स्टाल पर हैदराबाद की किसी कंपनी का कोई सेल्समेन एक एयर-फ्रॉयर बेच रहा था... कीमत १७-१८०० के आसपास... डेमो दे रहा था और जो कुछ भी वो तैयार कर रहा था, बड़ा इम्प्रेसिव सा लग रहा था..... जब उससे हमने पूछा कि दूसरी कंपनियों के एयर-फ्रॉयर तो दस-ग्यारह हज़ार के बिक रहे हैं तो यह कैसे इतने में?..कह रहा था कि इस में बस समोसे नहीं बन सकते।


हमें यह एयरफ्रायर अच्छा लगा ..लेकिन उस के पास नहीं था रेडी-स्टॉक में......एक दो दिन में जा कर ले आएंगे..
मुझे बहुत अच्छा कंसेप्ट लगा कि हम कुछ भी हेल्दी स्नेक्स केवल सेंक कर ही बना सकते हैं.....क्या पड़ा है तेल-घी में, वैसे ही अकसर हम लोग ओव्हरईटिंग करते रहते हैं।


कैसा लगा यह हेल्दी स्नेक्स का आइडिया......
वैसे अभी तो आप इस चना-जोर गर्म से ही काम चला लीजिए...

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

कीमोथेरिपी के साथ प्यार की खुराक भी...

बहुत साल हो गये एड़्स के बारे में विभिन्न भ्रांतियों को दूर भगाने के लिए एक लघु फिल्म में शबाना आज़मी आया करती थी...याद होगा आप को भी....एचआईवी से ग्रसित बच्चे के साथ शायद खाना खा रही होती हैं....और कहती हैं ....इस से प्यार फैलता है, एड्स नहीं।

आज सोच कर लगता है कि उस दौर में जब एड्स के बारे में इतनी भ्रांतियां थी, एचआईव्ही-एड्स के रोगियों के साथ इतना भेदभाव होता था, ऐसे में उस तरह की फिल्मों ने लोगों को जागरूक करने के लिए बहुत काम किया।


ऐसे ही कैंसर को लेकर भी कुछ बेबुनियाद से डर एवं भ्रांतियां हैं, मुझे ध्यान आ रहा था कि जब हम कॉलेज में थे मुंह और गले के कैंसर के रोगी के दांतों का इलाज करते हुए कईं बार हल्की सी झिझक होती ....एक अनजाना, बेबुनियाद डर...लेकिन उन्हीं दिनों फिर यह भी पता चल गया  कि यह बीमारी इस तरह से एक दूसरे में नहीं फैलती। झिझक का अनुमान इस बात से लगा सकते हैं कि उस दौर में हम लोग हर मरीज के मुंह में सर्जरी करने से पहले ग्लवज़ (दस्ताने) नहीं पहना करते थे लेकिन मुंह और गले के कैंसर के रोगियों के मुंह में सर्जरी करने से पहले दस्ताने ज़रूर चढ़ा लिया करते थे।

मुझे मेरी एक बुज़ुर्ग महिला का ध्यान आज आया......यह मुंह के कैंसर से ग्रस्त हैं...कुछ महीने पहले की बात है...एक दिन वह नहीं आई थीं...उस का बेटा और बहू अपने पांच-सात साल के बेटे के साथ मां की कुछ दवाईयां लेने आए थे।
बहुत सी बीमारियों और उस के कारणों की बात करें तो हम चिकित्सक अक्सर यह सोचने की हिमाकत कर जाते हैं कि ये सब बुनियादें बातें तो लोगों को, मरीज़ के तीमारदारों को पता ही होंगी।

लेकिन नहीं, हमें बार बार अहम् संदेश देते रहना चाहिए।

उस दिन भी वह जब युवक, उस की पत्नी और बेटा आए तो पता नहीं अचानक कैसे मैंने उस से पूछ लिया कि क्या आप को पता है कि यह बीमारी कैसे फैलती है?...उसे मेरी बात शायद पूरी समझ में नहीं आई थी, मैंने आगे कहा कि क्या उन्हें पता है कि यह बीमारी ऐसे ही एक आदमी से दूसरे में नहीं फैलती। उसने मुझे कहा कि हां, हमें पता है ...बिल्कुल पता है।

मैंने उन लोगों को कहा कि मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि आप लोगों के छोटे बच्चे हैं, ज़ाहिर सी बात है अपनी दादी के साथ सोते होंगे ..उस के साथ मिलते जुलते होंगे.......तो ऐसे में किसी तरह का भ्रम न रखा जाए।

वह युवक कहने लगा कि हमें तो कोई भ्रम नहीं, मां ही इन बच्चों से अब दूरी बना कर रखती हैं..उसे डर लगता है कि कहीं बच्चे............मैंने कहा कि इस की कोई ज़रूरत नहीं है।

मैं उस बुज़ुर्ग महिला को जानता हूं ..वे बड़ी बुद्धिमान महिला हैं।

तभी उस की बीवी बोल पड़ीं कि डाक्टर साहब, कहते हैं कि जब कीमोथेरिपी लगती है तो मरीज के शरीर में से ज़हर निकलता है जो बच्चों को नुकसान करता है। मैंने तो ऐसा कुछ नहीं सुना था, इसलिए मैंने उसे कहा कि नहीं, ऐसा कुछ नहीं है...बस कुछ बेसिक सी सावधानियां होती हैं वह भी कीमोथेरिपी लगने के अगले दो दिन तक केवल......क्योंकि जो दवाई मरीज़ को दी जाती है वह अगले ४८ घंटे के दौरान शरीर से बाहर निकलती है...और यह मरीज़ के पेशाब, मल, अश्रु एवं उल्टी में पाई जाती है...इसलिए अगर मरीज़ को उल्टी हो तो उस की देखभाल करने वाले को ग्लवज़ डाल कर अच्छे से वॉश-बेसिन या टायलेट की अच्छे से दो बार फ्लश करने की सलाह दी जाती है....विस्तृत जानकारी के लिए आप यह लिंक देखिए...अगर मरीज का इस तरह का कोई शारीरिक द्रव्य किसी अन्य की चमड़ी के संपर्क में आता है तो चमड़ी की थोड़ी irritation हो सकती है....और यह भी बस कीमोथेरिपी लगने के केवल दो दिन बाद तक।

Chemo Safety 

Safety Precautions

उस बुज़ुर्ग महिला की बहू ने यह बताया कि यह बात इस बच्चे की स्कूल की टीचर ने कही थी .. कि बच्चों को इसलिए दूर रखा जाना चाहिए। मुझे अभी भी हैरानगी है कि टीचर ऐसी बात कैसे कह सकती है। वैसे तो वह बुज़ुर्ग महिला को एक दो बार ही कीमो दी गई थी क्योंकि वह हृदयरोग से भी ग्रस्त होने की वजह से उसे सहन नहीं कर पा रही थी और विशेषज्ञों ने पहले उन में  रेडियोथेरिपी से मुंह के कैंसर के आकार को कम करने की युक्ति लगाई गई थी।

बहरहाल, आज सुबह जब उस बुज़ुर्ग महिला का ध्यान आया तो ये विचार आप सब तक पहुंचाने ज़रूरी लगे। एक तो जब किसी मरीज़ को पता चलता है कि उसे कैंसर है, वह अपनी सुध-बुध खो बैठता है, ऊपर से अस्पतालों के चक्कर बार बार काटने वाला इलाज ...सुबह से शाम तक लंबी लंबी लाइनें, कीमोथेरिपी और रेडियोथेरिपी (जिसे आम भाषा में सिंकाई कहते हैं) सहना .....पहले से ही इतना परेशान होने पर अगर उसे किसी तरह के भेदभाव की भनक भी लग जाए तो वह भीतर ही भीतर बुरी तरह से टूट जाता है.....इस तरह के मरीज़ों के तीमारदारों को बहुत ही ज़्यादा संवेदनशील बने रहने की ज़रूरत है। इलाज के दौरान तो उसे और भी ज़्यादा प्यार-अपनेपन की ज़रूरत है........करते हैं घर वाले इन सब बातों का पूरा ध्यान रखा करते हैं, फिर भी इस तरह के पाठ दोहराते रहना हम लोगों की आदतों में शुमार है, बस।

हां, एक बात ...जब किसी मरीज़ की कीमोथेरिपी चल रही हो तो उस दौरान उस की स्वयं रोग-प्रतिरोधकता क्षमता कम हुई होती है इसलिए अगर घर का कोई सदस्य या परिचित जिसे कोई इंफैक्शन आदि है ...जैसे खांसी-जुकाम, फ्लू आदि तो विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस तरह के लोग दूरूस्त होने तक मरीज के निकट संपर्क में न आएं क्योंकि इस से उसे भी ये परेशानियां हो सकती हैं।

बातें छोटी छोटी होती हैं, भेदभाव केवल कहने से ही नहीं होते ....या वे ही नहीं होते जो कुछ लोग हम से शेयर कर जाते हैं, बहुत से भेदभाव कुछ करने से या कुछ न करने से, कुछ कहने या न कहने से ही नहीं होते, बल्कि नॉन-वर्बल किस्म के भी (या ही?) होते हैं.......ऐसे किसी रोगी को अंदर तक तोड़ देने के लिए बस एक हिकारत भरी नज़र ही काफ़ी है. और इस तरह की यातनाएं भी बड़े subtle ढंग से दी जाती हैं....िबना किसी को कानों कान खबर हुए और बिना किसी को भनक लगे। प्रोफैशन में रहते हुए इतने वर्षों से बहुत कुछ देख-सुन रहे हैं। 

निष्कर्ष यही है.... दोस्तो, प्यार बांटते रहिए.....बहुत बड़ी औषधि है यह भी।




बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

बंदूक का लाइसेंस रिन्यू न करवाने की सलाह

अभी तीन दिन पहले की बात है एक शख्स से मुलाकात हो गई..वह मेरे को ओपीडी की पर्ची थमाने लगा तो साथ में एक काग़ज़ का टुकड़ा भी उसने मुझे गलती से थमा दिया।

मैंने उसे अभी सरसरी निगाह से देखा ही था कि लाल पेन से उस में एक काम यह भी लिखा हुआ था ...कि बंदूक का लाइसेंस रिन्यू करवाना है। दरअसल यह उस की उस िदन करने वाले कामों की लिस्ट थी।

वह पढ़ा लिखा और बड़ा समझदार सा इंसान है..ठीक है थोड़ा बातूनी और परफैक्शनिस्ट सा है....है तो है, क्या फर्क पड़ता है। वह पहले भी मेरे पास बहुत बार आ चुका है। पहले ही वह कईं तरह की शारीरिक परेशानियों से जूझ रहा है

इसलिए मुझे बड़ी हैरानी हुई ..और मैंने पूछ लिया कि क्या आपने बंदूक रखी हुई है...उस की उम्र ६५ के करीब होगी और बीवी भी इस के आस पास की है.......बीवी भी पास बैठी हुई थी....हिंदोस्तान की अधिकांश पतिव्रता गृहिणियों की तरह वह भी पूजा पाठ वाली नेक आत्मा है...जिन्हें अपनी राय देने का अकसर हक होता ही नहीं।

बह शख्स बताने लगा .. क्या करें डाक्टर साहब आज के जमाने में अपनी रक्षा के लिए यह सब रखना पड़ता है। उस का तर्क था कि  जब भगवान अपने पास अस्त्र-शस्त्र ऱखते थे तो हम तो मामूली इंसान ठहरे। मेरे पास इस बात का जवाब नहीं था, क्योंकि मेरा इस तरह का ज्ञान और तर्क-वितर्क क्षमता नगन्य है....इसलिए मैं चुप हो गया।

मुझे लगता है कि अभी तक उस बंदूक ने उस का एक ही काम किया ..जिसे वह बड़े गर्व से मुझे सुना गया.....उस के घर का छ्ज्जा बनना था, पड़ोसी अड़चन डाल रहे थे, बताने लगा कि डाक्टर साहब, मैं उस दिन बंदूक लेकर बाहर गली में खड़ा हो गया कि आओ, हिम्मत है तो आगे आओ... और छज्जा बन गया। और फिर अपनी बीवी की तरफ़ देख कर उस से अपनी बात पर मोहर लगवा ली........बताओ, ऐसा ही हुआ था ना?......वह बेचारी हिंदोस्तानी नारी ......उस ने झट से हल्की मुंडी हिला दी।

मैं इस बात का शुक्र मना रहा हूं कि मैं उस की इस बात पर ठहाके लगाता लगाता रह गया। 


बताने लगा कि लाईसेंस आज का नहीं है, कालेज के दिनों का है। मैंने फिर भी कहा कि छोड़ो, लाईसेंस रद्द करवा दो और बंदूक-कारतूस जमा कर दो। कहने लगा पूरा २०-२५ हज़ार का नुकसान हो जाएगा।

जब मैंने उसे बंदूक का लाइसैंस न रिन्यू करवाने की सलाह दी और कारतूस लौटाने की बात कही तो झट से उस की बीवी भी बोली कि मैं भी तो इन्हें यही कहती हूं।

एक बात जो मैंने उसे कही नहीं उस के सामने वह यह थी ..... उस के दो बेटे हैं, अच्छे काम धंधे वाले हैं, उन की बीवियां आपस में कलह कलेश करती रहती हैं जैसा कि आज लगभग हिंदोस्तान के हर घर में हो रहा है, इसी चक्कर में लड़कों ने भी बोलना बंद कर दिया है, रहते सब लोग एक ही घर में हैं......मैं उसे यह कहना चाह रहा था कि यार, आपने तो कारतूस संभाल लिए इतने वर्षों तक .. लेकिन आप के बाद क्या पता किस के हाथ यह बंदूक आ जाए और कभी गुस्से में कुछ कर बैठे। यह मैंने उसे कहा नहीं।

लेकिन जब मैंने उसे बार बार कहा कि इसे वापिस करो तो मान गया ....कहने लगा ठीक है, मैंने उसे कहा था कि जब मुझे अगली बार मिलना तो मुझे यह खुशखबरी देना।

वह यह तो कह ही रहा था कि दोनों बेटे भी यही कहते हैं कि इसे वापिस कर दो, हमें नहीं चाहिए.......और वह भी कह रहा था कि लाइसेंस रिन्यू करवाना भी एक झंझट है, कितने कितने चक्कर लगवाते हैं, पांच छः दिन कईं चक्कर काटने के बाद कहीं जा कर लाइसेंस रिन्यू होता है।

मैंने उसे इतना कहा कि ये सब हथियार वार घर में रखने शरीफ़ों के वश की बात कहां है, जो लुक्खे लोग होते होंगे उन के लाइसेंस घर बैठे ही िरन्यू हो जाते होंगे और इस भलेमानस को अपने शौक के लिए कितना कष्ट सहना पड़ता है।

वैसे उसे इस बात का तो बड़ा फख्र है कि उस के पास बंदूक है और वह यह मानता है कि आज के जमाने में यह ज़रूरी है.....वैसे उस के पास बंदूक वही है जो तीन चार फुट की होती है.....अब पता नहीं इस उम्र में वह इसे कैसे संभालेगा, खुदानाखास्ता अगर कभी ज़रूरत पड़ भी जाए।

लेकिन वह इतना तो कहता है कि शरीफ आदमी को तो पता नहीं पुलिस वाले या कोई और कब फंसा दें कि तेरे पास लाईसेंस है, बता तूं उधर क्या करने गया है.....जाते जाते ऐसी ऐसी बातें करने लगा था।

बहरहाल, मान गया लगता है कि अब लाइसेंस को रिन्यू नहीं करवाएगा और कारतूस (गोलियां) आदि जमा करवा देगा। देखते हैं।

वैसे मुझे नहीं लगता लखऩऊ जैसे शहर में इस तरह की बंदूक से कुछ ज़्यादा सुरक्षा हो जाती होगी......यहां तो ऐसी ऐसी घटनाएं रोज़ पढ़ने-सुनने को मिलती हैं कि लगता है यहां पर किसी को पुलिस या शासन का डर ही नहीं है......कुछ दिन पहले एक महिला सर्राफ को रात को नौ बजे रिक्शा पर ही गोली मार दी, जेवर लेकर भाग गए.......तीन दिन पहले एक महिला को उस के घर आ कर मार गये, बच्चे स्कूल गये हुए थे, बच्चे स्कूल से आए तो उन्हें पता चला....और इस महिला का घर शहर के एक व्यस्त एरिया में है......परसों यहां लखनऊ के सेंट्रल स्कूल का एक कैमिस्ट्री का अध्यापक पकड़ा गया, ग्यारहवीं कक्षा की अपनी ही एक छात्रा के साथ कईं महीने तक मुंह काला करता रहा, उसे गर्भ ठहर गया, उस का गर्भवात करवा दिया....घर में पता चला तो उन्होंने पुलिस में तहरीर दी......परसों एक २० वर्ष की वकालत पढ़ रही छात्रा घर से अपने पापा की जैकेट ड्राई-क्लीनर को देने गई...रात तक घर नहीं पहुंची तो अगले दिन सुबह शहर के शहीद पथ पर उस के शरीर के कईं टुकड़े मिले..........और पुलिस का कहना है कि शरीर को काटने के लिए जिस आरी का इस्तेमाल किया गया था, वह मोटर से चलने वाली थी.....

अब आप ही सोचिए कि मैंने उस बुज़ुर्ग को सही सलाह दी कि नहीं....बंदूक का लाइसैंस रिन्यू न करवाने की.....जब शहर में हर तरफ़ इतनी गुंडागर्दी, दादागिरी, रंगदारी.....और जान इतनी सस्ती हो चुकी हो तो एक चालीस साल पुरानी बंदूक किसी का क्या उखाड़ लेगी.....कुछ भी तो नहीं! लेकिन घर में रखी वह घर के ही किसी बाशिंदे का बहुत कुछ उखाड़ सकती है।

 P.S....मेरा एक मित्र फौजी अधिकारी है. उसने इस पोस्ट को पढ़ने के बाद यह टिप्पणी दी है ..छज्जे वाली बात पर कि चलो कोई काम तो हुआ...वरना अधिकांश केसों में तो तो लोग अपनी पिस्टल आत्महत्या के लिए ही इस्तेमाल करते हैं।

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

आईए दोस्तो, कुछ Quotes हम सब भी बनाएं....

दो दिन पहले मैं पिन्ट्रस्ट की साइट देख रहा था... दो घंटे हो गए...मुझे कुछ अच्छे से Quotes पढ़ने की तलब हो रही थी।

लगभग दो घंटे हो गये...मुझे एक दो ही ऐसे लगे जिसे मैं आप सब से शेयर कर सकूं... वैसे मैंने कागज पर लिख कर आप से मीडिया डाक्टर के गूगल प्लास पेज पर शेयर भी किया।


जब मैंने इसे शेयर किया तो मुझे यही लगा कि ऐसा भी क्या कि हम लोग दूसरे के Quotes ढूंढने में समय बिता देते हैं...जिसने वे बातें कही हैं वह भी तो हम सब जैसा ही मानस है..और मैंने अपने आप से पूछा कि क्या मेरे को इस बात का पता नहीं था....बिल्कुल पता था, तो फिर हम किसी की Quotes ढूंढने की बजाए स्वयं अपने लिए ही कुछ दस बीस शब्द लिख लिया करें.....it is big fun!


एक बात और भी है कि जो भी आदमी कोई quote लिख रहा है, वह अपने निजी अनुभव के आधार पर ही तो लिख रहा है, तो फिर हम सब के पास जो अनगिनत अनुभव हैं, उन का क्या होगा.


Quote कैसी है, कैसी नहीं है, यह सोचना हमारा काम है ही नहीं, हमें तो इत्मीनान इसी बात से हो जाना चाहिए कि जो मेरे दिल को कचोटता रहा था मैंने उसे शब्दों में पिरो कर राहत पा ली। बिल्कुल ऐसा ही होता है, ब्लॉगिंग में भी कईं बार कोई पोस्ट लिखने का इतना उतावलापन होता है कि सिर भारी होता है लेकिन लिखते ही बिल्कुल हल्कापन छा जाता है।

अपने लिखे Quotes हमें गुदगुदायें तो है ही, हमें इंस्पॉयर भी करेंगे और एक अच्छा रिमांईडर का भी काम करेंगे कि हम ने लोगों के साथ तो यह बात शेयर की है, मैंने एक जगह तो यह लिखा है कि मेरा resolution यह है, लेकिन मैं फिर भी क्यों भटक रहा हूं।


दोस्तो, मैंने भी यही सीखा है कि अपने अनुभव शेयर करने में बिल्कुल भी एम्बेरेस फील नहीं करना चाहिए....लेकिन यह होगा तब जब आप नियमित कुछ न कुछ लिखते रहें, शेयर करते रहें....आप को चाहे लगे कि आप ने बहुत ही बेकार लिखा है, लगे तो लगे, लेकिन शेयर करना, लिखना नियमित जारी रखिए........आप स्वयं देखिए कुछ ही दिनों में क्या बदलाव आता है।

यह बात मैंने भी आज से १२-१३ वर्ष पहले एक नवलेखक शिविर में सीखी थी, वहां पर एक विश्वविख्यात लेखक ने यही कहा था कि आप रोज़ाना एक पन्ना भी लिखें तो साल में ३६५ हो जाएंगे और इन में से ५०-१०० ऐसे होंगे जिन्हें आप कहीं छपवा भी सकते हैं.......और वैसे भी, अब ब्लॉगिंग की वजह से आप स्वयं अपने पब्लिशर बन चुके हैं।

आप में से हरेक के पास अनुभवों का खजाना भरा पड़ा है, तो फिर शुरू करिए उन्हें शब्दों का रूप देना.......और शेयर करना, अगर आप चाहें तो....


मैं नहीं कहूंगा कि मैंने दो दिन में ये Quotes बनाए, बस जो अनुभव मैं लिखना चाह रहा था, उसे कहने का साहस जुटा पा रहा हूं.....आप कब शुरू कर रहे हैं ?....सोशल मीडिया पर वही ज्ञान की बातें, तस्वीरें, वीडियो....सब कुछ बार बार इधर उधर से पहुंच जाता हैं, चलिए कुछ हम भी इस में कुछ नया कंट्रीब्यूट करें। अच्छा लगता है।

रविवार, 1 फ़रवरी 2015

कैंसर का खराब किस्मत से कोई नाता है क्या ?

कुछ दिन पहले की ही बात है जब लगभग सभी अखबारों में यह खबर सुर्खियों में रही ..कुछेक पर पहले पन्ने पर जिस में वैज्ञानिकों ने एक तरह से यह घोषणा कर दी कि कैंसर की बीमारी खराब किस्मत की वजह से होती है और लगभग दो तिहाई केसों में कैंसर का कारण बुरा मुक्द्दर ही है।

'Two-thirds of cancers due to bad-luck'

पढ़ी तो थी यह खबर....लेकिन यह पढ़ कर कुछ अजीब सा लग रहा था... बात हलक से नीचे नहीं उतर रही थी...और यह भी लग रहा था कि इस तरह की बात से तो लोग अपनी जीवनशैली बदलने के लिए कतई राजी नहीं होंगे, जब सब कुछ मुकद्दर का ही खेल है तो फिर जैसे चलता है चलने दें, यही सोचेंगे मरीज।

मरीज तो पहले से ही इतने तार्किक हैं कि एक कैंसर के मरीज़ को जब मैंने यह पूछा कि तुमने बंबई के टाटा अस्पताल में देखा होगा कि किस तरह से ये तंबाकू से होने वाले कैंसर कहर बरपा रहे हैं....उसने मुझे तुरंत कहा ...जो लोग इन सब का सेवन नहीं करते, वे भी बहुत से वहां इलाज करवा रहे थे। 

आज की टाइम्स ऑफ इंडिया देखी तो पहले ही पन्ने पर इस शीर्षक वाली एक न्यूज़-स्टोरी दिख गई....

मुझे ऐसा लगता है कि यह खबर सब को पढ़नी चाहिए ताकि अगर किसी के मन में कोई संदेह है तो वह भी निकल जाए कि बुरी किस्मत से नहीं, तरह तरह के प्रदूषण और हमारी जीवनशैली ही इस बीमारी का कारण बनती है। 

इस में भी टाटा अस्पताल के विशेषज्ञों के कथन ही छपे हैं। वे बताते हैं कि हिंदोस्तान में जो कैंसर होते हैं अगर हम लोग अपनी जीवनशैली ठीक रखते हैं और वातावरण की तरफ जागरूक रहते हैं तो उन से बचा जा सकता है..
टाटा अस्पताल के विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में तंबाकू ४० से ५० प्रतिशत कैंसर के केसों का कारण है। 

दूसरी बात यह है कि पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में कैंसर रोग की दर काफी कम है .. भारत में हर लाख की जनसंख्या के पीछे ९० व्यक्तियों को कैंसर अपनी चपेट में ले लेता है जब कि गांवों में यह दर ४५ ही है....एक लाख के पीछे ४५ लोग....जब कि पश्चिमी देशों में यह दर है .. ३५० व्यक्ति हर एक लाख की जनसंख्या के पीछे। 

केवल हम लोग किसी व्यक्ति के जीन्स का हवाला देकर ही इस तथ्य को नहीं दबा सकते कि अधिकतर कैंसर उद्योग की वजह से होते हैं......तंबाकू बहुत बड़ा उद्योग है, फास्ट फूड भी एक बड़ा धंधा है जो हमारा मोटापा बढ़ा कर कैंसर का जोखिम बढ़ाता है। 

Theories about the exact reasons for cancer and why it affects certain people and not others has eluded scientists. Genetic reasons hold true only for around 5% of all cancers. The most heart-wrenching cancers- amount for only 3% of the total incidence. Moreover, what about cases in which a woman teacher, who has never smoked or chewed tobacco, gets oral cancer or a young father gets brain cancer? There seems to be no common thread linking all cancers. 

ध्यान देने योग्य बात है कि अधिकांश तौर पर कैंसर के रोग से बचा जा सकता है। कैंसर का रोग हर साल भारत में १० लाख लोगों को अपनी चपेट में लेता है और ७ लाख लोग इस बीमारी से हर साल अपनी जान गंवा बैठते हैं।