कल दोपहर के समय मैं अपनी बिल्डिंग की पार्किंग से निकल रहा था तो मेरी नज़र अचानक इस फूल पर पड़ी....मैं देख कर दंग रह गया..पता नहीं इतना खूबसूरत फूल पहले कब देखा था, याद नहीं!
यह फूल लहरा रहा था उस लू में भी ...फुल मस्ती में...मुझे पौधे का भी नाम भी नहीं पता और ज़रुरत भी क्या है!...मुझे इस की बिल्कुल पतली सी टहनी को आराम से थामना पड़ा इस का यह फोटो खींचने के लिए...
हर बार जब भी इस तरह के फूल देखता हूं कि विचार ज़रूर आता है कि इसे तोड़ लेता हूं....लेकिन तोड़ता कभी नहीं, इस उम्मीद के साथ कि इस शाख पर लगे हुए पता नहीं ये कितनी उथल-पुथल हो चुकी रुहों को दुरुस्त करेंगे! कितने लोग इन्हें देखने भर ही राजी हो जाएंगे, मेरी तरह!
मैं ऐसा सोचता हूं कि आदमी अपने आप को जितना भी तुर्रमखां समझता हो, खुदा से बस थोड़ा ही कम समझता हो, लेकिन जब कभी इस तरह के बेनज़ीर कुदरती करिश्मे से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है तो उसी पल ज़मीन पर लौट आता है ...
आगे चलें...
अभी अखबार उठाई तो हर तरफ़ ज्ञान बांटने की बातें...हंसी भी आई...सुबह आंख खुलने से रात नींद आने पर कमबख्त इतना ज्ञान बंट रहा है फोकट में कि उलझन होने लगती है कि यार, इतने ज्ञान का करेंगे क्या... इस का एक प्रतिशत भी इस्तेमाल तो हम करते नहीं, हो पाता नहीं या हो पायेगा नहीं, ये अलग बातें हैं!
मुझे ऐसे लगता है कि कुछ बातें हमारे मन में अब ठूंस दी गई हैं...मेरे पास अपने स्कूल के ज़माने के ४० साल पुराने एक दो स्कूल के मैगज़ीन हैं...कभी कभी देख लेता हूं और दोस्तों के साथ फोटो शेयर भी कर लेता हूं... मैंने कल ध्यान दिया ...४० साल तक कभी नहीं दिया...कि स्कूल के हाल में हवन हो रहा है और हमारे दो तीन टीचर जो सरदार जी थे, वे भी पूरी श्रद्धा के साथ आहूति दे रहे हैं...मैं अभी भी अपने आप से यही पूछ रहा हूं कि यह विचार मेरे मन में आज ४० साल बाद आया तो आया कैसे! ....शायद इसलिए ही आया कि अब हमें अपने धर्म को अपनी बाजू पर ओढ़ने की बातें होने लगी हैं ...हर बात में तर्क-वितर्क के बहाने ढूंढने की बात हो गई है ... योग करने को भी हम किसी धर्म के साथ जोड़ने की हिमाकत करने लगे हैं...और भी बहुत कुछ हो रहा है ..बस आंखे खुली रखिए और देखते रहिए ..लेकिन कभी भी इस भीड़ का हिस्सा न बनिए......बस अब आप से ही उम्मीद बची हुई है कि सब से बढ़िया आपसी सौहार्द का प्रतीक आप लोग ही हैं और आप ही रहेंगे, इतिहास गवाह है!
शायर लोग कभी कभी गीत नहीं लिखते, वे हमें हमारे दिलों को टटोलने के टोटके लिख जाते हैं या ईश्वर इन के घट में बस कर ऐसे रचनाओं का सृजन करवा देता है ......जैसे वह रिफ्यूज़ी फिल्म का वह गाना .....पंछी ..नदिया.. पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके....सरहद इंसानों के लिए है, सोचो...तुमने और मैंने क्या पाया इंसा हो के!
मुझे आज सुबह सुबह कुछ दिन पहले की एक दोपहर याद आ रही थी ...मैं दोपहर में सोया हुआ था...मेरा रेडियो अकसर मेरे सोने पर भी बजता ही रहता है ...इसे अडिक्शन कहते होंगे ...लेकिन जैसे ही मैं उठा तो उस्ताद अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन का इंटरव्यू चल रहा था, मुझे तो इन का नाम भी नहीं पता था, लेकिन इन की यह गज़ल मेरे मन में उतर गई....बेहतरीन! ..यू-ट्यूब पर इन के वीडियो की आवाज़ बहुत कम थी ...इसलिए किसी दूसरे कलाकार की वीडियो लगा रहा हूं..
यह फूल लहरा रहा था उस लू में भी ...फुल मस्ती में...मुझे पौधे का भी नाम भी नहीं पता और ज़रुरत भी क्या है!...मुझे इस की बिल्कुल पतली सी टहनी को आराम से थामना पड़ा इस का यह फोटो खींचने के लिए...
हर बार जब भी इस तरह के फूल देखता हूं कि विचार ज़रूर आता है कि इसे तोड़ लेता हूं....लेकिन तोड़ता कभी नहीं, इस उम्मीद के साथ कि इस शाख पर लगे हुए पता नहीं ये कितनी उथल-पुथल हो चुकी रुहों को दुरुस्त करेंगे! कितने लोग इन्हें देखने भर ही राजी हो जाएंगे, मेरी तरह!
मैं ऐसा सोचता हूं कि आदमी अपने आप को जितना भी तुर्रमखां समझता हो, खुदा से बस थोड़ा ही कम समझता हो, लेकिन जब कभी इस तरह के बेनज़ीर कुदरती करिश्मे से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है तो उसी पल ज़मीन पर लौट आता है ...
आगे चलें...
अभी अखबार उठाई तो हर तरफ़ ज्ञान बांटने की बातें...हंसी भी आई...सुबह आंख खुलने से रात नींद आने पर कमबख्त इतना ज्ञान बंट रहा है फोकट में कि उलझन होने लगती है कि यार, इतने ज्ञान का करेंगे क्या... इस का एक प्रतिशत भी इस्तेमाल तो हम करते नहीं, हो पाता नहीं या हो पायेगा नहीं, ये अलग बातें हैं!
मुझे ऐसे लगता है कि कुछ बातें हमारे मन में अब ठूंस दी गई हैं...मेरे पास अपने स्कूल के ज़माने के ४० साल पुराने एक दो स्कूल के मैगज़ीन हैं...कभी कभी देख लेता हूं और दोस्तों के साथ फोटो शेयर भी कर लेता हूं... मैंने कल ध्यान दिया ...४० साल तक कभी नहीं दिया...कि स्कूल के हाल में हवन हो रहा है और हमारे दो तीन टीचर जो सरदार जी थे, वे भी पूरी श्रद्धा के साथ आहूति दे रहे हैं...मैं अभी भी अपने आप से यही पूछ रहा हूं कि यह विचार मेरे मन में आज ४० साल बाद आया तो आया कैसे! ....शायद इसलिए ही आया कि अब हमें अपने धर्म को अपनी बाजू पर ओढ़ने की बातें होने लगी हैं ...हर बात में तर्क-वितर्क के बहाने ढूंढने की बात हो गई है ... योग करने को भी हम किसी धर्म के साथ जोड़ने की हिमाकत करने लगे हैं...और भी बहुत कुछ हो रहा है ..बस आंखे खुली रखिए और देखते रहिए ..लेकिन कभी भी इस भीड़ का हिस्सा न बनिए......बस अब आप से ही उम्मीद बची हुई है कि सब से बढ़िया आपसी सौहार्द का प्रतीक आप लोग ही हैं और आप ही रहेंगे, इतिहास गवाह है!
शायर लोग कभी कभी गीत नहीं लिखते, वे हमें हमारे दिलों को टटोलने के टोटके लिख जाते हैं या ईश्वर इन के घट में बस कर ऐसे रचनाओं का सृजन करवा देता है ......जैसे वह रिफ्यूज़ी फिल्म का वह गाना .....पंछी ..नदिया.. पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके....सरहद इंसानों के लिए है, सोचो...तुमने और मैंने क्या पाया इंसा हो के!
मुझे आज सुबह सुबह कुछ दिन पहले की एक दोपहर याद आ रही थी ...मैं दोपहर में सोया हुआ था...मेरा रेडियो अकसर मेरे सोने पर भी बजता ही रहता है ...इसे अडिक्शन कहते होंगे ...लेकिन जैसे ही मैं उठा तो उस्ताद अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन का इंटरव्यू चल रहा था, मुझे तो इन का नाम भी नहीं पता था, लेकिन इन की यह गज़ल मेरे मन में उतर गई....बेहतरीन! ..यू-ट्यूब पर इन के वीडियो की आवाज़ बहुत कम थी ...इसलिए किसी दूसरे कलाकार की वीडियो लगा रहा हूं..
सभी बातें कितनी सही कही गई हैं!
रेडियो की वजह से मुझे इन महान शख्शियतों के बारे में पता चला ... पसंद अपनी अपनी होती है, मुझे रेडियो सुनना टीवी देखने से कहीं ज़्यादा सुकून देता है ...टीवी में अगर हम उन उछल कूद कर खबरें पढ़ने, दिखाने और सनसनी पैदा करने वाले कुछ कलाकारों की ताल के साथ ताल नहीं मिला पाते तो मेरा तो झट से सिर भारी हो जाता है ...इसलिेए मैं तो अकसर बचता हूं ..और नहीं तो पुरानी फिल्मी गीत वाला चैनल ही लगा रहने देता हूं...
लेकिन टीवी देखने का भी एक सुनहरा दौर था ...अभी हम लोग सीरियल का ध्यान आया तो यू-ट्यूब पर ये बातें सुन लीं कि ये लोग कैसे तपस्या किया करते थे...तपस्या के बिना कुछ भी संभव नहीं है ...देखने में लग सकता है कोई जुगाड़बाजी कर के ऊपर पहुंच गया ....लेकिन स्थिरता बिना तपस्या के नहीं आ सकती! ... आप भी इस वीडियो को ज़रूर देखिए...
तब यह भी नहीं था कि यह सीरियल पाकिस्तानी है, यह हिंदोस्तानी है....पाकिस्तान के बार्डर के साथ लगते पंजाब के ज़िलों में पाकिस्तान टीवी के बेहतरीन प्रोग्राम भी हम रोज़ देखा करते थे....एक तरह से समझ लीजिए....५० प्रतिशत समय तो वहां के बेहतरीन टीवी सीरियल देखते हुए बीत जाया करता था...गुरूवार को रात में एक दो तीन घंटे का पाकिस्तानी नाटक भी देखा करते थे ....अभी ध्यान आ रहा है ..पाकिस्तानी सीरियल का ...सोना चांदी का ...इन ड्रामों का एक एक किरदार याद है ...आज भी तीस साल बाद ... पता नहीं, आज कल ये प्रोग्राम आते हैं कि नहीं, मैंने पूछा नहीं किसी दोस्त से भी, शायर अब इन सूक्ष्म तरंगों पर भी प्रतिबंध लग चुका है ...
इन सब कलाकारों का भी कैनवेस बहुत बड़ा होता है...कोई भी इन्हें सरहदों में कैसे बांट सकता है....मैं हवा हूं, कहां वतन मेरा! .....अब इंटरनेट लोगों के पास है ..कुछ भी देख-सुन सकते हैं जैसे मैं सैंकड़ों बार राहत अली खां के इस गीत को सुन चुका हूं...
Universal brotherhood विश्व-बंधुत्व के अलावा कोई रास्ता है ही नहीं और हो भी नहीं सकता ... इसे समझ ले सारी दुनिया और इस रास्ते पर ही चलते जाएं....
देखिए, मैं भी ज्ञान की भारी भरकम बातें करने लग गया.....अब समय है इस पोस्ट को बंद करने का ... खुश रहिए, मस्त रहिए, सुबह सुबह ऐसा रूहानी गीत-संगीत सुनते रहिए...फूल-पत्ते, पंक्षी देखते, निहारते रहिए......सुप्रभात...आप का आज कल से बेहतर हो!