शनिवार, 8 मार्च 2008

कश्मीर सिंह दी बल्ले बल्ले....

वैसे उस बंदे दी वी जिन्नी वाह वाह कीती जावे घट ऐ...किद्दां उह दलेर बंदा पाकिस्तान दीयां वखो-वख जेलां विच दुख झेलदा रिहा.....दो तिन दिन पहलां तां जद उस दी सारी स्टोरी अखबारां विच आई सी तां यकीन मन्नियो अपने तां बई लू-कंडे खडे हो गये सन। सचमुच दिलेरी ही ऐ......ऊस दिन चंडीगढ़ तों छपन वाले अखबार ने संपादक वाले पेज ते उस दी खबर नूं पूरी कवरेज दित्ती होई सी....देख के बहुत वधीया लग्गिया......। उस दी तीवीं ...बीबी परमजीत कौर दी वी जिन्नी कु दाद देविये उन्नी ही घट ऐ.....ऊह बीबी ने खुद कम्म कर कर के अपने बच्चेयां नूं पालिया, पढाईया , लिखाईया.....हुन मैंनू लिखदिया लिखदिया खियाल आया ऐ कि अज अंतरराषटरी महिला दिन ऐ तो की जेकर अज उस ऐडे वड्डा हौंसला रखन वाली देवी नूं ही सनमानिया जांदा तां किन्ना वधीया हुंदा। वैसे तो हिंदोस्तान दी इक जनानी दे बलिदान दी एह इक जींदी जागदी तसवीर ही बन गई जापदी ऐ।
अज दीयां अखबारां विच इह पढ के बहुत तसल्ली होई कि पंजाब सरकार ने उन्नां दोवां नूं हर महीने पंज पंज हज़ार दी पैंशन देन दा फैसला वी कीता है। ऐह पढ़ के वी बहुत खुशी होई कि उन्नां नूं इक प्लाट वी दित्ता जा रिहा है ते उस प्लाट दे उत्ते मकान उसारन दा सारा खरचा वी सरकार ही अपने सिर लवेगी।
तुसीं इक गल पड़ी.....अखबार विच लिखिया होईया सी कि उस महान बंदे दे इक पुत्तर नूं पोलियो होईया होया है पर तुसीं उस दी फैमली दी ऐह वडीयाई वाली गल सुनी ऐ कि उन्नां ने उस नूं इन्नां 35सालां विच दसिया ही नहीं कि उस दे पुत ने ऐह तकलीफ ऐ....सिर्फ इसे कर के ओह पराये देश विच बैठिया होईया है ते उत्थे बैठा उह ऐवें ही दुखी होवेगा।
उस दी तीवीं न दसिया की पहलां पहलां उस दे घरवाले दी इक चिट्ठी आई सी....बस उस तो बाद उस ने उन्नां ने कईं चिटठीयां पाईंयां..............मैं तां इह पढ़ के हैरान ही रह गया कि उह बीबी दसदी ऐ कि असीं तां चिट्ठीयां पांदे रहे...सानूं तां इह वी नहीं सी पता कि साडीयां चिट्ठीयां उस तक पहुच रहीयां वी हन कि नहीं........
बस, दोस्तो, जे कर मेरे वस विच हुंदा तां मैं तां अज दे दिन उस महान औरत नूं सारे दुनिया दे किसे प्लेटफार्म उत्ते खड़ा कर के सनमानत करदा तां जो दुनिया दीयां अखां खुलियां दीयां खुलियां रह जांदीयां कि ऐ वेखो, मेरे देश पंजाब दी इक महान बीबी जिहड़ी 35 वरेयां दा वड्डा समां अपने साईं दी आस विच कढ दित्ता ......वैसे कोई पता वी नहीं सी कि उह वापिस आंदा वी कि न आंदा।
हां, काशमीर सिंह तां अपने पिंड विच आ के ऐडा खुश है कि उस ने आखिया कि मैंनूं तां अपने पिंड विच आ के ऐवें लगदै जिवें मैं पैरिस ही आ गिया हां। वैसे वेखिया जावे तां गल है वी किन्नी वड़डी.....असीं अपनी आज़ादी दी कीमत शायद पूरी तरह जानदे ही नहीं हा।
चलो सारे रल मिल के अरदास करीये कि इक दूजे दे देशे विच बंद सारे कैदी आपो-अपने घर पुज जान............ऐवें ही तां नहीं कहंदे कि ...जो सुख छज्जू दे चौबारे, उह न बलख न बुखारे।

दिल को देखो...चेहरा न देखो...चेहरों ने लाखों को लूटा !!

इस समय मैं अपने लैप-टाप पर सच्चा-झूठा का वह वाला गाना सुन रहा हूं..... दिल को देखो, चेहरा न देखो, दिल सच्चा और चेहरा झूठा....यह गाना मुझे इतना पसंद है कि मैं इसे एक ही स्ट्रैच में सैंकड़ों बार सुन सकता हूं। बिल्कुल रोटी फिल्म के उस गाने की तरह....यह पब्लिक है सब जानती है......अभी तक यह समझ नहीं आया कि आखिर इन हिंदी फिल्मों के गीतों में इतनी क्या कशिश है कि आदमी इन्हें सुनते ही झट से कईं साल पहले वाले ज़माने में पहुंच जाता है।
आज जब सुबह हास्पीटल में बैठा हुया था तो कहीं से रेडियो पर बज रहे रोटी कपड़ा और मकान के उस बेहतरीन फिल्म के गीत की आवाज़ सुनाई देरही थी....मैं न भूलूंगा....मैं न भूलूंगी...बस, 70 के दशक के तो फिल्मी गानों की क्या बात करूं.......मन करता है लिखता ही जाऊँ... लगभग ऐसे ही सैंकड़ों गीत होंगे जिन के साथ बचपनी की यादें जुड़ी हुई हैं और जब भी ये रेडियो पर, टीवी पर या लैपटाप पर बजते हैं तो बंदा अपने पिछले दिनों की याद में डुबकियां लगाना शुरू कर देता है। ये वो फिल्में हैं जो मैंने अपने पांचवी-छठी कक्षा के दौरान देखी हुई हैं। तो आप भी मेरी यादों के इन झरोखों में से अपना भी कहीं पीछे छूटा अतीत देखने की एक कोशिश तो कीजिये।

वैसे आप के यहां यह ब्राड-बैंड रखा किस कौने में है ?


“ अंकल, आप जाइए, यह आप के काम की चीज़ नहीं है।”—दो-चार दिन पहले जब मैं जयपुर के एक इंटरनेट कैफे पर बैठा अपना कुछ काम कर रहा था तो मेरे सामने वाले एन्क्लोज़र में बैठे दो 13-14 साल के लड़कों के मुंह से निकली इस बात को सुन कर मैं दंग रह गया। हुया हूं कि उस इंटरनैट कैफे का सुपरवाईज़र-सा दिखने वाला वर्कर जब उन के सामने बस थोड़ा अभी खड़ा ही हुया था कि उन दोनों लड़कों ने उसे वहां से यह कह कर हटने के लिये कह दिया कि जो काम वे कर रहे हैं वह उस के काम की चीज़ नहीं है।

लेकिन ये इंटरनैट वाले भी सब कुछ समझते हैं....उन का रोज़ का काम है और पता नहीं कितने ऐसे बच्चों से उन का रोज़ाना पाला पड़ता होगा। शायद वह सुपरवाईज़र उन दोनों बच्चों को जानता था, सो पहले तो उस ने उन दोनों को बहुत गुस्से से बोला कि चलो, तुम लोग चलो यहा से......मैं कहता हूं निकलो यहां से......। लेकिन जब उन बच्चों के कान पर जूं तक न रेंगी तो उस ने झट से अपने जेब से मोबाइल फोन निकाला और उन बच्चों से पूछने लगा कि फोन करूं ?......शायद वह सुपरवाईज़र उन बच्चों के मां-बाप को फोन करने की बात कर रहा था। बस, मुझे यहां तक ही पता है, उस के बाद मेरा ध्यान अपने काम की तरफ़ चला गया......और मुझे नहीं पता कि आगे उन का क्या हुया !

लेकिन उस दिन मैं यही सोचता रहा कि हमारे आज के बच्चे भी कितने आगे निकल चुके हैं.....एक इंटरनैट कैफे के एक कर्मचारी को इस तरह से ब्लंट्ली कह देना कि यह तुम्हारे काम की चीज़ नहीं है ....। और वह भी जब इस तरह की बात 13-14 साल के बच्चों के मुंह से निकल रही हो। यह तो कोई बात ना हुई कि यह आप के काम की चीज़ नहीं है......अब उन बच्चों को यह भी तो समझने की ज़रूरत है कि यह कोई वीडियो गेम पार्लर नहीं है !!

मुझे वैसे यह भी लगा कि इंटरनैट के ऊपर जो अपने लोगों के मन में तरह-तरह के एडवैंचर करने की धुन है ना, यह भी कुछ समय की ही बात है। बहुत जल्द सब कुछ सामान्य सा हो जायेगा। मुझे ध्यान आ रहा है कि ये जो इंटरनैट पर यूज़र्स को कुछ ज़्यादा ही प्राइवेसी उपलब्ध करवाई जाती है, इस का भी थोड़ा दोष ही है...............ठीक है, हरेक को कंप्यूटर पर थोड़ी प्राईवेसी तो चाहिये ही, लेकिन क्यूबिकल्स के आगे परदे टांग देने या शीशे की पार्टिशन्ज़ लगवा देना मुझे ठीक नहीं लगता। वैसे तो इन सब को भी हमें कुछ दिन का मेहमान ही समझना चाहिये...जैसे जैसे इंटरनैट का यूज़ देश में बढ़ेगा इस तरह के मिस-एडवेंचर्ज़ कम होते जायेंगे.........हां, हां, जब किसी चीज़ पर भी ज्यादा अंकुश लगा होता है तो उसे जानबूझ कर ट्राई करने में एक अलग तरह के आनंद की अनुभूति सी होती है.....वो ठीक ही कहते हैं ना “Stolen kisses are always sweeter!!”.....शायद यही आज हमारे यहां इंटरनैट पर हो रहा है।

मुझे ध्यान आ रहा था कि हमारे दिनों में कुछ रैस्टराओं में नवविवाहित युगलों अथवा प्रेमी युगलों के लिये एक दो कक्ष अलग से हुया करते थे.....और उन के बाहर एक परदा( अकसर बहुत गंदा सा) टंगा हुया करता था। अच्छा, आप को भी यह सब याद आने लगा है, अच्छा है। लेकिन आज कल ये परदे टंगे कहां दिखते हैं !.....एक बात और भी है ना कि उस ज़माने में जब हम लड़के लोग कोई सिनेमा देखने जाते थे.........और जब कभी बालकनी की टिकट लेने की हैसियत हुया करती थी तो कोशिश रहती थी कि सब से पिछले वाली पंक्ति में ही बैठा जाये....केवल बस इसलिये कि बॉक्स में बैठने वालों युगलों की एक्टिविटिज़ (सिर्फ़ कानाफूसी का !) का थोड़ा बहुत पता चलता रहे और हम दोस्तों का फिल्म के साथ साथ हंसी-ठट्ठा भी चलता रहे। शायद उस समय तो आंखे केवल दो ही और वह भी मुंह के आगे वाले हिस्से में लगाने के रब के इस मनमाने से लगने वाले फैसले पर गुस्सा भी आता था कि काश दो आंखे पीछे भी लगी होती। वो भी क्या दिन थे......बस हर तरफ मस्ती ही मस्ती, यकीन मानिये, हाल में घुसते हुये इन बाक्सों की तरफ कुछ इतनी हसरत से देखा जाता था कि क्या यहां बैठना हमें भी नसीब होगा.................लेकिन क्या कभी वहां बैठना नसीब हुया कि नहीं........sorry, friends, that I can’t share with you right now….that will be going too far !!... लेकिन आज बॉक्स तो क्या , शहरों में थियेटर ही नहीं दिखते हैं.................हां, तो मैं यही कह रहा था कि यह सब नया नया अच्छा लगता है, रोमांच देता है।

लेकिन इतना मुझे ज़रूर लगता है कि अगर हम अपने घर में इंटरनैट के कनैक्शन को किसी कॉमन जगह...जैसे कि लॉबी वगैरह में रखें तो कुछ तो समस्यायें कम हो ही सकती हैं।क्या है ना, कॉमन एरिया में घर के किसी न किसी सदस्य का आना जाना लगा रहता है जिस की वजह से बच्चों की इंटरनैट एक्टिविटि पर थोड़ा नज़र भी रखी जा सकती है और वे भी कुछ हैंकी –पैंकी देखने या करने से थोडा झिझकते /डरते हैं। वैसे मैं यह भी समझता हूं कि यह कोई फूल-प्रूफ तरीका नहीं है, लेकिन वही बात है ना कि ..something is better than nothing!!.....और हां, अगर यह ब्राड-बैंड कनैक्शन घर की किसी भी कामन जगह पर रखा हुया है तो बच्चे तो क्या, बड़े भी अपने काम से ही काम रखते हैं................हिंदी ब्लोगिंग, ब्लोवाणी, चिट्ठाजगत और ज्यादा से ज्यादा किसी पोस्ट पर टिपियाने के इलावा इस इंटरनैट से कोई सरोकार ही नहीं । कभी भूल से भी कोई एडवेंचर (मिस-एडवेंचर!) करने की कोई चाह ही नहीं होती !!