शनिवार, 3 सितंबर 2016

संदेशे तो तब भी आते ही थे...

अकसर मुझे ध्यान आता है हम लोग जब ननिहाल जाया करते थे तो वहां दीवार में बनी एक कांच की अलमारी के दो हैंडलों पर दो लोहे की तारें टंगी दिखी करती थीं..एक में पुराने से पुराने ख़त और दूसरी तार में पुराने से पुराने बिजली पानी के बिल पिरोये रहते थे..

उस समय तो हमें कहां इन सब के बारे में सोचने की फुर्सत ही हुआ करती थी...अब मैं सोचता हूं तो बहुत हंसी आती है कि कोई खतों वाली एक तार उठा ले तो सारे खानदान की हिस्ट्री-ज्योग्राफी समझ में आ जाए..चाहे तो नोट्स तैयार कर ले... एक बात और भी है न, तब छुपाने के लिए कुछ होता भी नहीं था, सब को सब कुछ पता रहता था...यह छुपने-छुपाने की बीमारियां इस नये दौर की देन है।

लोग अभी भी उन पोस्टकार्ड के दिनों को याद करते थे...मुझे याद है जब हम लोग पोस्ट-कार्ड या लिफाफा डाक-पेटी के सुपुर्द करने जाया करते तो हमारे मन में एक बात घर चुकी थी कि खत अंदर गिरने की आवाज़ आनी चाहिए...आवाज़ आ जाती थी तो हमें इत्मीनान हो जाता था, वरना यही लगता था कहीं उस डिब्बे में ही अटक तो नहीं गया होगा....oh my God! Good old innocent days!

  अभी यह पोस्ट कार्ड लिखते मुझे जवाबी पोस्टकार्ड का ध्यान आ गया ...इन का इस्तेमाल उन हार्डकोर बंधुओं के लिए कईं बार लोग किया करते थे जो खतों का जवाब नहीं देते थे..जवाबी खत इसी तरह से डाकिया थमा देता था ..और जवाबी पोस्टकार्ड पर अकसर खत भिजवाने का पता तक भी लिखा रहता था... आज बहुत कुछ याद आया इसी बहाने...

उन दिनों में सब कुछ विश्वास पर ही चलता था...चिट्ठी डाली है तो मतलब पहुंच ही जायेगी ... डाकिये पर पूरा भरोसा, पूरा डाक विभाग पर पूरा अकीदा, चिट्ठी जिसे भेजी है उस पर भी एक दम पक्का यकीन कि चिट्ठी मिलते ही वह जवाब भिजवा ही देगा... मुझे तो कोई चुस्त-चालाकी के किस्से याद नहीं कि किसी ने किसी की चिट्ठी दबा ली हो और मिलने पर गिला किया हो कि आप की चिट्ठी नहीं मिली..हर घर में चंद लोग ऐसे होते थे जिन की आदतों से सब वाकिफ़ हुआ करते थे...बहरहाल, सब कुछ ठीक ठाक चलता रहता था....शादी ब्याह के कार्ड, रस्म-क्रिया, मुंडन, सगाई ...सब खबरें खत से ही मिलती थीं..

शादी ब्याह से याद आया कि अब तो लोग शादी ब्याह के कार्ड भी स्पीड-पोस्ट से भिजवाते हैं अकसर, वरना कूरियर से ...पहले तो शायद दो तीन रूपये का डाक-टिकट लगा कर बुक-पोस्ट कर दिया जाता था और पहुंच भी जाया करता था...कुछ अरसा पहले की बात है कि मैं एक जगह पर स्पीड पोस्ट करवाने गया ... वहां पर दो पुलिस वाले किसी शादी ब्याह के कार्ड स्पीड पोस्ट करवा रहे थे ...३०-४० तो ज़रूर होंगे ...शायद एक हज़ार से भी ज़्यादा खर्च भी आया था ... किसी पुलिस वाले के बच्चे की शादी के कार्ड थे...

जितनी लंबी लाइनें आज कल स्पीड-पोस्ट के लिए होती हैं, उस से तो यही लगता है कि लोग अब चिट्ठी-पत्री पर भरोसा ही नहीं करते ....यहां तक की रजिस्टरी भी लोग कम ही करवाते हैं...बस, स्पीड-पोस्ट ही चलती है अधिकतर। ठीक है नौकरी के लिए आवेदन करने वाले स्पीड-पोस्ट करवाते हैं, बात समझ में आती है ...आजकल इतनी धांधलियां हो रही हैं भर्ती प्रक्रिया में ...ऐसे में कुछ तो सालिड प्रूफ चाहिए....हम लोग आज से २५-३० वर्ष पूर्व रजिस्टरी करवाया करते थे...हां, क्या आप को पता है कि अब रजिस्टरी लिफाफे नहीं मिलते डाकखानों से, सादे लिफाफे या ५ रूपये वाले डाक-लिफाफे में ही पत्र डाल कर रजिस्टरी करवाई जाती है ...

हमारे जमाने में बड़े-बुज़ुर्ग घर में घुसते ही यह पूछा करते थे कि कोई चिट्ठी आई?....सच में ये ५ पैसे के हाथ से लिखे पोस्टकार्ड और १५ वाले अंतर्देशीय लिफाफे घरों का माहौल खुशनुमा बना दिया करते थे..उन्हें परिवार का हर सदस्य पढ़ता...और फिर उसे संभाल कर रख दिया जाता ...अब वाला चक्कर बड़ा मुश्किल है हर पांच पांच मिनट पर वाट्सएप स्टेटस चैक करना और अपडेट करना ...

चिट्ठी-पत्री के बारे में संस्मरण का पिटारा है मेरे पास, सोच रहा हूं बाकी की बातें अगली कड़ियों में करूंगा..

बहुत लंबे अरसे के बाद आज टीवी पर म्यूजिक इंडिया चैनल पर यह गीत बज रहा है ...सुनेंगे...खुशी की वो रात आ गई...(फिल्म- धरती कहे पुकार के)...







आज फिर अखबार नहीं!

यह अच्छा लफड़ा है, आज फिर अखबार नहीं...

परसों अखबार नहीं आई..हम लोगों ने सोचा हॉकर से मिस हो गई होगी...

कल नहीं आई तो चिंता हुई कि अपना हॉकर प्रजापति ठीक तो होगा...कुछ दिन पहले उस की तबीयत खराब थी..

फोन किया कल...स्विच ऑफ मिला...दो तीन बार करने के बाद जब बात हुई और पूछा कि तबीयत ठीक है, तो पता चला कि उस की तबीयत तो ठीक है, लेकिन अखबार वालों की हड़ताल चल रही है..

मैंने कहा...अच्छा, कोई बात नहीं...

मैं ठीक से समझा नहीं था उस की बात, सोचा कि ड्यूटी पर जाते समय किसी चौराहे से पकड़ लूंगा अखबार ...लेकिन नहीं, वहीं भी अखबार नहीं पहुंची थी...

खबरों का कुछ पता ही नहीं चल रहा आजकल...अखबार का तो यह हाल है ...मुझे यह भी याद नहीं कि टीवी पर खबरिया चैनल को लगाए कितने दिन हो गये हैं...ऐसे ही पता नहीं क्या हो चला है टीवी पर खबरें क्या कुछ भी देखने की इच्छा ही नहीं होती..बस, लगता है रेडियो सारा दिन चलता रहे!

बंबई में जब मैं २०-२२ साल पहले एक सिद्ध समाधि योग का १४-१५ दिन का प्रोग्राम कर रहा था तो एक शर्त थी वहां कि आप लोगों ने अखबार नहीं देखनी जब तक यहां आना है ...हम लोगों ने बात मान ली थी...कभी ऐसा नहीं लगा कि कुछ छूट गया हो..

हमें बताया गया था कि अखबारें सुबह सुबह आप पढ़ते हैं तो सारी निगेटिविटी जबरदस्ती अपने अंदर ठूंस लेते हैं...लेकिन जैसे हम लोग हैं, कुछ दिन तक यह बात मान लीं, लेकिन फिर वापिस अखबार देखना चालू हो गया...

अखबारें इतना बड़ा विलेन भी नहीं हैं, यह हमारे ऊपर है हम उस से क्या ग्रहण करना चाहते हैं...सब तरह का कंटेंट तो बिखरा पड़ा रहता है ...सच में आज के इंसान की आंखें हैं यह अखबार....हम एक तरह से घर बैठे बैठे विश्व-दर्शन कर लिया करते हैं इस के जरिये...

टीवी के खबरिया चैनलों से मुझे आपत्ति है ...जिस तरह से उचक उचक के ऊंची आवाज़ में वे लोग खबरें पढ़ते हैं, सनसनी परोसते हैं....मैं नहीं सहन कर पाता....तुरंत मेरा सिर फटने लगता है ...इसलिए आज कल मुझे टीवी पर खबरें देखना बिल्कुल नहीं भाता....शायद कभी लगी होती हैं तो पांच दस मिनट देख लेता हूं ...वरना यह नहीं कि कभी खबरें देखने के लिए टीवी लगाया हो ....

अखबारों की अलग बात है ...चाहे उन का भी स्वरुप कितना भी बदल गया है ....लेकिन फिर भी आज भी भारत जैसे प्रजातंत्र में जनता में राय तैयार कराने का वे एक जबरदस्त काम तो कर ही रही है... (opinion makers!)

दो दिन से अखबारें नहीं आ रही थीं,कल रात गूगल किया तो पता चला  .... No newspaper in Lucknow for second day


अखबारें हम लोग अपने अपने घरों में मंगवाते हैं, सारा दिन पढ़ते हैं...लेकिन मुझे वह नज़ारा बहुत अच्छा लगता है जब किसी चाय की गुमटी के आसपास, किसी नाई के ठीये के नजदीक चार पांच जीर्ण अवस्था में पड़े लकड़ी के हिलते-डुलते बेंचों और पत्थरों पर टिके आठ-दस लोग एक अखबार को एक साथ चबा रहे होते हैं....एक एक चुटकुला शेयर होता है, सिने-तारिकों की फोटो पर तंज कसे जाते हैं...कार्टून पर एक साथ सब हंसते हैं...गंभीर खबर पर चर्चा करते हैं ....लेकिन वोट किसे देंगे यह राज़ हमेशा अपने मन में छिपाए रखते हैं...इसे कहते हैं असली "चाय पे चर्चा" न कि वह वाली  फेशुनेबल चाय चर्चा जिसे आप सोच रहे हैं!! इन जगहों पर मुझे प्रजातंत्र के साक्षात् दर्शन करने को मिलते हैं!

 छठी-सातवीं कक्षा में जब मैं समाचार-पत्र पर निबंध तैयार रहा होता था तो मेरे पिता जी मुझे ये पंक्तियां कहीं भी उस में फिट करने की ताकीद किया करते थे... और मैं इसे मान लिया करता था...ये लाइनें थीं...

खींचों न कमानो को न तलवार निकालो 
जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो...

अभी इस पोस्ट का पब्लिश बटन दबाते हैं इन अखबारों के पेज थ्री पर छाए लोगों की असली ज़िंदगी का ध्यान आ गया....पेज-थ्री फिल्म का वह गीत यू-ट्यूब पर मिल गया...आप भी सुनिए... फिल्म ठीक थी, यू-ट्यूब पर पड़ी है, अगर नहीं देखी तो देखिएगा कभी ... फिलहाल तो यही सुनिए...कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे !


हां, हाकर्स की हड़ताल के बारे में मेरा अोपिनियन यही है कि उन की मांगे तो मान ही ली जानी चाहिए...महंगाई बहुत है, कुछ भी हो, हर मेहनतकश को इतना तो मिले कि वह सम्मानपूर्वक अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके ..इन के पास तो कोई घोटाले कर के घर में करोड़ों रूपये छिपाने का भी कोई स्कोप नहीं है। The society should be liberal and sensitive to the aspirations of these hawkers too! What do you think?