शुक्रवार, 29 मई 2020

कोरोना की पढ़ाई पढ़ते पढ़ते ....

अमूमन लोग इतना डिग्री हासिल करने के लिए नहीं पढ़ते जितना पिछले दो-ढाई महीने में हम सब ने कोरोना की पढ़ाई कर ली...मुझे याद है मेरा ममेरा भाई जो मेरी नानी के पास रहता था, वह बी.ए की परीक्षा आने पर ही दो दिन किताबें देख लिया करता था - एक बार मैं वहीं पर था, उस का मिलिट्री साईंस का फाइनल परचा था- किताब तक उस के पास नहीं थी, अकसर वह किताबों की परवाह न किया करता ...नानी से उसने पैसे लिए, किताब लाया।

किताब भी कौन सी? - किताब के नाम पर एक कुंजी चला करती थी हमारे ज़माने में जो कोई भी परचा पास करवा देने की गारंटी लिया करती थी ... अकसर परचे से कुछ दिन पहले मिलने वाली ऐसी कुंजियां पढ़ने के लिए कम और नकल का सामान (परचियां) बनाने के लिए ज़्यादा इस्तेमाल में लाई जाती थीं...लो जी, मैंने देखा वह रात 9 बजे के करीब वह कुंजी खरीद लाया - फिर मैंने देखा कि वह उस के पन्ने फाड़ फाड़ कर नकल की सामग्री तैयार करने में जुट गया है ...साथ में कहता जा रहा था कि प्रैक्टीकल का तो सब सैट है, बस थियोरी पास करने की मेहनत लगेगी ...पेपर में नकल करने का सिलसिला उस का बचपन से ही चला आ रहा था ... पहले शरीर में जगह जगह नोटस लिख कर ले जाता था...मैं जब उससे पूछता - पपू, तुम्हें डर नहीं लगता, यार। जवाब में जब वह बिंदास हंसता तो मुझे यह बात बड़ी अजीब सी लगती...ख़ैर, उस रात भी वह नकल की परचीआं बनाने में व्यस्त रहा ....मैं और नानी सो चुके थे ...

चलिए, पपू का रिजल्ट तो देख लें, आगे चलने से पहले ...जी हां, वह हाई-सैकंड डिवीज़न में पास हो गया (जो उस दौर में एक छोटा-मोटा स्टेट्स सिंबल से कम न था) ...इसलिए मैंने कहा कि आम तौर पर बी.ए की पढ़ाई के लिए लोगों को इतना पढ़ते नहीं देखा जितना कोरोना ने पढ़ा दिया...

लेकिन आम आदमी ने जितनी भी कोरोना की पढ़ाई की या वह कर रहा है,वह बेकार है- वह वाट्सएप के आंकड़ों से सहम जाता है, अमीर मुल्कों के मरीज़ों की दिल दहला देने वाली तस्वीरें देख कर घबरा जाता है ...क्या क्या लिखें, इसे पढ़ने वाले सब जानते हैं कि हम लोगों ने वाट्सएप पर कोरोना के नाम पर परोसी गई क्या क्या जानकारी हासिल कर ली है ....लेकिन अधिकतर जानकारी उस के लिए थी ही नहीं, उस के किसी काम की थी ही नहीं, उस का उस से कोई लेना देना भी नहीं था...कुछ तो उसे गुमराह करने के लिए ठेली गई थी ...मेडीकल विषय बड़ा विशाल है, यह शौकिया पढ़ने-समझने वाली बात नहीं है ... डाक्टर लोग 10-15 साल पढ़ते हैं ...फिर कहीं जाकर वे उस मुकाम पर पहुंचते हैं जहां वे अपनी बात को अच्छे से कह पाते हैं और मरीज़ भी उन की बात को गंभीरता से लेने लगते हैं ...

तो फिर क्यों वाट्सएप पर हर तरह का कचरा देख कर हम अपना मूड खराब कर लेते हैं...मुझे तो सच में लगने लगा है कि मेरा सिरदर्द का थ्रैशहोल्ड ही कम है, कमबख़्त छोटी छोटी बात पर दुःखने लगता है ...मैं उस दौरान यही सोचता हूं कि हम लोग इस महामारी के बारे में जानते हैं ...लेकिन जो आम इंसान इस के बारे में नहीं जानता उस के ऊपर क्या गुज़रती होगी...लेकिन बात वही है कि वाट्सपर पर मिलने वाली जानकारी को छानना सब को सीखना होगा ....लेकिन यह काम जितना कहने में आसान लगता है उतना है नहीं, कम से कम थोड़ा कम पढ़े-लिक्खों के लिए...लेकिन वाट्सएप पर शेयरिंग के धुरंधरों में कम पढ़े-लिखे क्या और ज़्यादा पढ़े-लिखे क्या..

बातें तो दो चार थीं जो हम सब लोगों को शुरूआती दौर से ही चल चुकी थीं...खांसने, छींकते वक्त इंसान होने का परिचय देना है, एक दूसरे से दूरी बना कर रखनी है, नाक-मुंह को ढक कर रखना है, मिलते समय हाथ मिलाना नहीं है, हाथ साफ रखने हैं  ... बस, बात तो इतनी सी थीपता ..लेकिन उस का बतगंड ऐसा बना कि हम दूसरे चक्करों में पड़ कर सब से ज़्यादा ज़रूरी इन बातों को ही नहीं सही से मान पा रहे हैं ..

पिछले कुछ दिनों से जब से यह थोड़ी-बहुत ढील मिली है, मैंने जब भी बाहर देखा न तो आपस में दूरी बनाए रखने वाली बात का पालन होते देखा और न ही नाक-मुंह ढक लेने की बात का कोई असर होते दिखा ... मुंह पर कुछ लोग ज़रूरत से ज़्यादा हाई-फाई और महंगे फेस-मास्क टिकाए घूम रहे हैं जिन का उन के लिए कौई औचित्य नहीं है, और कुछ ऐसे ही एक पट्टी सी बांध कर बाज़ार के लिए निकल पड़े हैं .. आते जाते दारू की दुकानों पर नज़र पड़ी तो देख कर दुःख ही हुआ ...इस बार दारू के नुकसान के बारे में नहीं, लेकिन बिल्कुल पास पास खड़े लोगों को देख कर दुःख हुआ ...

बहुत से लोगों को देखता हूं कि वे फेसमास्क से मुंह तो ढक ले रहे हैं लेकिन उसे नाक से नीचे ही रखते हैं...लेकिन यह भी खतरनाक है - कितनी बार जगह जगह से कहा जा रहा है कि सादा कपड़ा, गमछा आदि भी आमजन के लिए पर्याप्त है .. लेकिन जो मैंने देखा है इस को कम लोग मान रहे हैं....

एक बात यह हम को समझना होगी कि आज कल आप के सामने वाला हर आदमी (मेरे समेत) एक बायोलॉजिक हथियार लिए हुए है ...वह सक्रिय कब होता है?-  जब वह छींकता है, खांसता है ...और ज़ोर से बात करता है ...ये वे अवसर हैं जब उस के शरीर से ड्राप-लेट्स की तरह निकलने वाले संक्रामक पार्टीकल्स उस के आसपास खड़े दस-बीस लोगों तक पहुंच जाते हैं....अब उस की छींक एक साधारण छींक थी जो गांव में किसी के द्वारा याद करने पर आती है, एलर्जी है ....या कोरोना संक्रमण से है, यह कौन तय करेगा....खांसी उसे किसी पुरानी छाती के संक्रमण की वजह से आ रही है, धूम्रपान एवं प्रदूषण से जुड़ी व्याधियों की वजह से है, या हृदय रोग की वजह से होने वाली खांसी है यह या चक्कर कोरोना का ही है, इन सब के चक्कर में आप पड़ ही नहीं सकते .....और न ही आप उस से उलझ सकते हैं कि हां, भई तुम ने छींका क्यों, खांसी क्यों करी.......बस, हर इंसान इतना ज़रूर कर सकता है कि जब भी भीड़-भाड़ वाली जगह पर निकलें तो नाक-मुंह कवर होना चाहिए....यह जो भीड़-भाड़ वाली बात मैंने कही है -- इस का भी ख्याल रखें कि आप ठेलिया से सब्ज़ी ले रहे हैं, गिनती के तीन लोग हैं ...कौन कब खांस देगा, कौन कब छींक देगा, क्या आप कह सकते हैं......इसलिए नाक-मुंह कवर रखने के अलावा कोई भी रास्ता है ही नहीं...।

फेसमास्क की बात हो रही है....इतना लिखा-पढ़ा जा रहा है भई इस मौज़ू पर भी कि कोई चाहे तो एक छोटा-मोटा थीसिस तैयार कर ले, लेकिन जैसा कि मैं तो पहले ही कह चुका हूं कि ज़्यादा ज्ञान पढ़ना और फिर शेयर करना मेरे बस की बात नहीं है, मेरा तो यह सोच कर ही सिर भारी होने लगता है ...सच में ...हम तो उस ज़माने के पढ़े लिखे लोग हैं जब क्लास में जो हमारे मास्टर जी या बहन ही कह दिया करती थीं, कापी पर लिखवा दिया करती थीं...हम तो भई उस से टस-मस नहीं होते थे, वे चीज़ें हमारे लिए पत्थर पर खुदी लकीरें हुआ करती थीं...उन्हें ही याद कर के रट लेते थे, मान लेते थे और उन पर ही अमल किया करते थे - बस, उन बातों से टस मस होने का सवाल ही पैदा नहीं होता था .. और दूसरे भर के ज्ञान का तो छोड़िए, किताबों में भी क्या लिखा है, उस से भी हमें कोई ज़्यादा सरोकार नहीं होता था, हमें तो बस अपनी तख्ती पर लिखी हुई बात ही शाश्वत सत्य लगतीं।

हमारे ज़माने के हमारे मास्टर जी हमें इतनी सी बात लिखा देते और हम चुपचाप उसे मान लेते ... खांसने, छींकते वक्त इंसान होने का परिचय देना है, एक दूसरे से दूरी बना कर रखनी है, नाक-मुंह को ढक कर रखना है, मिलते समय हाथ मिलाना नहीं है, हाथ साफ रखने हैं  ... बस, बात तो इतनी ही है...!!

अच्छा एक बात और है....छोटी छोटी बातें ही सब से ज़्यादा ज़रूरी हुआ करती हैं.... इन्हें बार बार रेडियो और अख़बार में देखने-सुनने से असर तो होता ही है ... नाक में उंगली डालने की बात करें तो फ़र्क़ कम-ज़्यादा पढ़े लिखे में इतना होगा कि यह काम पढ़ा-लिखा ज़रा परदे में करता है जब उसे कोई देख नहीं रहा है ..लेकिन करते सभी हैं.....लेकिन इन दो महीनों में दो-तीन बार जब कभी मुझ से ऐसी हरकत हुई तो मैं तुरंत बाथ-रूम की तरफ़ भागा हूं और उसी वक्त नाक और हाथ को अच्छे से साफ़ किया है ...असर तो ज़रूर होता है ...इसलिए सही जानकारी का भी पहुंचना बहुत ज़रूरी है ...एक बात है, पहले लोग जल-नेती वगैरह कर लिया करते थे ...नाक साफ रहती थी, अब मेरे जैसों को नहीं आता यह सब कुछ, सीखने की ख़्वाहिश ज़रूर है, ज़रूर सीखूंगा और किया भी करूंगा ..यह बिल्कुल वैज्ञानिक है ...लेकिन जब तक नहीं सीखते सुबह-शाम अच्छे से साबुन से हाथ धोकर नाक साफ़ कर लेने में ही समझदारी है ......आप का क्या ख्याल है, ऐसा नहीं कि मैं कह रहा हूं इसलिए समझदारी वाली बात ही होगी...आप अपनी समझ से चलिए.....जिस किसी से परामर्श करना है, करिए लेकिन छोटी छोटी बातें बेहद ज़रूरी हैं ....

डाक्टर हूं, हर वक्त सर्जीकल मास्क पहन कर घूम सकता हूं .....लेकिन ऐसा जानबूझ कर नहीं करता ....जब मरीज़ों के बीच नहीं होता हूं तो चेहर पर रूमाल इत्यादि ही बांध कर रखता हूं ....लोग जैसा हमें करते देखेंगे, वैसे ही वे भी करने लगते हैं ...लक्ष्य यही होना चाहिए कि लोग वैसे ही इतना ज़्यादा त्रस्त हैं इतने लंबे समय से ...उन्हें आसान सी बातें बताएं, उन्हें चक्करों में मत डालें ....किसी को भी चक्कर में डालना बहुत आसान है, लेकिन चक्करों के चक्रव्यूह से निकालने में थोड़ी मेहनत तो लगती है, ऐसी मेहनत करते रहना चाहिए...कोई भी चीज़ सीख कर तो कोई भी नहीं आता, जो बात हमें मालूम है, उसे बिल्कुल आसान शब्दों में दूसरों तक ज़रूर पहुंचाएं...हमारी बात में जितनी संप्रेष्णीयता होगी, उतना ही व असर करेगी..।

आज के लिए अभी के लिए इस डायरी को यहीं बंद कर रहा हूं... जाते जाते यह गाना सुनिए...