रविवार, 21 सितंबर 2014

पुरूषों का सेक्स हार्मोन भी बना एक धंधा

 इस न्यूज़-रिपोर्ट का स्क्रीन शॉट
पुरूषों में उम्र बढ़ने के साथ जब टेस्टोस्टीरोन नामक हार्मोन के स्तर में कमी आने लगे तो मांसपेशियां ढिलकने लगती हैं, कुछ लोगों को सेक्स में कुछ इश्यू होने लगते हैं और पुरूष थका थका सा रहने लगे तो अमेरिका में इस के लिए क्या किया जा रहा है, इस के लिए आप को इस न्यूज़-रिपोर्ट पर क्लिक कर के देखना होगा.....
FDA to Probe Testosterone Therapy Claims, Safety

इतना तो पता पहले ही था कि विदेशों में इस तरह के लक्षणों के इलाज के लिए मेल-सैक्स हार्मोन टेस्टोस्टीरोन को पुरूषों को दिया जाता है। यहां यह बताना ज़रूरी होगा कि यह हार्मोन टेस्टोस्टीरोन वैसे तो प्राकृतिक ढंग से ही पैदा होता है लेकिन बढ़ती उम्र के साथ यह जितनी मात्रा में शरीर में उत्पन्न होता है उस में कमी आने लगती है.....कईं बार तो इसे Male menopause (पुरूषों की रजोनिवृत्ति) की संज्ञा दी जाती है......जैसे कि महिलाओं में रजोनिवृत्ति के समय मासिक धर्म होना बंद हो जाता है।

हां, इस हार्मोन का उम्र के साथ कम होना एक स्वाभाविक सी बात है....लेकिन वियाग्रा के जमाने में कोई इसे आसानी से माने तो कैसे माने। हर बात पर कुदरत से पंगा लेना एक जुनून ही बन चुका है शायद।

हां, तो आप भी इस रिपोर्ट में देख सकते हैं कि किस तरह से दवा इंडस्ट्री को जब यह पता चला कि टेस्टोस्टीरोन का धंधा तो एक अच्छा खासा धंधा है तो बस बाकी फिर देर क्या थी।

ऐसा नहीं है कि टेस्टोस्टीरोन हार्मोन को ऐसे लोग को ही दिया जा रहा है.....कुछ लोग जिन में इस हार्मोन का प्राकृतिक स्तर वैसे ही कम होता है क्योंकि उन में पौरूष ग्रंथियां ठीक से विकसित नहीं हो पाती (hypogonadism) उन में तो यह हार्मोन दिया ही जाता है......एक अनुमान के अनुसार २०१४ में अमेरिका में २३ लाख पुरूष यह हार्मोन ले रहे हैं जिन में से आधों को इस की ज़रूरत ही नहीं है।

किस तरह से पुरूषों को लेबल करने के लिए कि इन में इस हार्मोन का स्तर कम है, क्या क्या धंधे हो रहे हैं, यह आप इन पंक्तियों में स्वयं पढ़ लें ...कि टैस्ट को ठीक ढंग से ठीक समय पर ठीक विशेषज्ञ द्वारा किया ही नहीं जाता।
इसी रिपोर्ट से ......पढ़ने के लिए क्लिक करिए
चिंताजनक बात यह है कि जिन लोगों में इस तरह का हार्मोन बिना वजह बिना ठीक तरह से टेस्ट किये ही दिया जाने लगता है उन में दिल के दौरे या दिमाग में अटैक (स्ट्रोक) का खतरा बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है।

यह हुई बात अमेरिका की.........ज़रा इन देशी हकीमों आदि की भी, नीम हकीमों की भी बात थोड़ी कर लें.......क्या आप को नहीं लगता कि ये लाखों करोड़ों की दौलत में डूबने वाले लालची किस्म के खानदानी नीम हकीम मरीज़ों को यह सब खिला खिला कर उन की अच्छी भली सेहत खराब नहीं कर रहे होंगे........अगर उन्हें दूसरी अनाप शनाप ताकत की दवाईयां खिला खिला कर कुछ बचता होगा तो।

अगर इन के शाही-बादशाही कोर्सों की या इन के इंजैक्शनों की टेस्टिंग होगी तो उन में भी यही सब कुछ तो मिलेगा........लेकिन इन की नकेल कसे तो कसे कौन!! सरकारी सांड की तरह फलते-फूलते जा रहे हैं ......अब तो केबल टीवी पर भी १०-१५ मिनट के स्लॉट खरीद कर लोगों को ताकत बेचने लगे हैं.......ये ताकत के बादशाह !!

चलो यह तो एक बात हुई, लेकिन इस गाने का यहां क्या काम?......पता नहीं यार, अच्छा लगे तो देख  लेना .........गुड नाइट......

नेट पर बिकने वाली सेहत

इतने वर्ष हो गये नेट पर मेडीकल विषयों पर लिखते हुए ... अब यह पक्का लगने लगा है कि नेट पर जो हम लोग सेहत संबंधी विषयों के बारे में पढ़ते हैं, उसे हैंडल करना बेहद मुश्किल और जोखिम भरा काम है।

आए दिन मैडीकल रिसर्च से नईं नईं बातें सामने आ रही हैं...लेिकन बहुत सी बातें अभी भी रिसर्च की स्टेज तक ही होती हैं कि विभिन्न कारणों की वजह से --(इस में मार्कीट शक्तियों की भी बहुत भूमिका है).. उन्हें आगे कर दिया जाता है।

कोई भी नेट पर मैडीकल सामग्री पढ़ने वाला आसानी से भ्रमित हो जाता है.....जिस टेस्ट की नहीं भी ज़रूरत वह जा कर करवा के आ जाएगा, जिस जांच की ज़रूरत है वह करवाएगा नहीं, नईं नईं दवाईयों के चक्कर में या नेट पर ऑनलाइन दवाईयों के चक्कर में पड़ सकता है.....और तो और, कुछ विषयों के ऊपर पढ़ कर कईं तरह की काल्पनिक बीमारियों के चक्कर में अपने मन का चैन खो बैठता है। इस तरह के पचड़ों में पड़ने की लिस्ट खासी लंबी है, कहां तक गिनवाएं।

मैं जनसंचार (मॉस कम्यूनिकेशन)  पांच वर्ष पढ़ने के बाद से पिछले सात वर्षों से निरंतर नेट पर सेहत संबंधी विषयों पर लिख रहा हूं...इसलिए जेन्यून और फालतू जानकारी के बीच अंतर जानने में दिक्कत नहीं होती..लेिकन फिर भी बहुत बार तो मैं भी कंटाल जाता हूं.......अभी अभी खबर पढ़ी कि ये आर्टिफिशियल स्वीटनर्ज़ हैं, इस से भी मधुमेह के रोगियों में रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है। इस का स्क्रीन शाट यहां लगा रहा हूं।

लो, कर लो बात......
यही कारण है कि मैं किसी को भी सलाह नहीं देता कि नेट पर कुछ भी पढ़ कर आप अपनी सेहत के बारे में महत्वपूर्ण फैसले करें....यह आप के हित में है ही नहीं। आप के फैमली डाक्टर का न तो कोई विक्लप बना है, शायद न ही बन सकता है। उस से बात कर के ही आप की कईं चिंताएं हवा हो सकती हैं।

हां, नेट में अगर जानना हो तो ह्लकी फुल्की जानकारी सेहत के बारे में....किसी टेस्ट के बारे में कोई जानकारी चाहिए हो तो वह पढ़ लें, समझ लें, किसी भी आप्रेशन के बारे में कुछ भी ऐसे ऊपरी ऊपरी जानकारी पा सकते हैं, लेकिन कोई भी निर्णय इस आधार पर लेने की कोशिश न करें.......क्या है ना, डाक्टर लोग बीसियों वर्षों तक हज़ारों मरीज़ देखने के बाद इस मुकाम तक पहुंचते हैं कि आप से चंद मिनट बात कर के, आप के कुछ टेस्ट करवा के, आप की सेहत के.. बारे में जान लेते हैं.........आप कैसे ये सब निर्णय ले सकते हैं।

एक और मशविरा .... डाक्टर से आप जितने प्रश्न करें, आप का अधिकार है...लेकिन अगर अपना नेट से पढ़ा मैडीकल ज्ञान दिखाने के लिए अगर आप कुछ कह रहे हैं तो वह भी चिढ़ जाता है, आखिर है तो वह भी इंसान, उसे कुछ भी समझते देर नहीं लगती। बेहतर हो कि डाक्टर के सामने बिल्कुल अनाड़ी (और दरअसल हम हैं भी... डाक्टर की तुलना में) की तरह ही बिहेव करें......कुछ ज़्यादा लिख दिया.......चलिए, इतना तो कर ही सकते हैं कि जो डाक्टर साहब कह रहे हैं, उसे अच्छे से समझने की कोशिश करें।

नेट पर पढ़ा करें कि खुश कैसे रहें, जीवनशैली को कैसे पटड़ी पर लाएं, खाना पीना कैसे ठीक करें, व्यायाम कैसे नियमित करने की आदत डालें, विचार कैसे शुद्ध हों (जी हां, यह भी जाना जा सकता है).....कैसे शांत रहना सीखें.....बस इतना ही काफ़ी है ......लेकिन आप कहेंगे कि इन के बारे में क्या पढ़ें, डाक्टर, यह सब तो क्या हम पहले ही से नहीं जानते क्या?.......तो फिर उन्हें व्यवहार में लाने से आप को कौन रोक रहा है। 

घड़ीसाज़ ने भी जवाब दे दिया...

६५ वर्ष पुरानी हमारे घर की घड़ी 
 उस दिन जब मैंने लखनऊ के आलमबाग में एक घड़ी की दुकान से सैल बदलवाया तो वहां बैठा एक बुज़ुर्ग घड़ीसाज़ मुझे बहुत अनुभवी लगा। उसे देखते ही मुझे मेरे घर में बरसों से बेकार पड़ी एक उस बुज़ुर्ग जितनी ही पुरानी घड़ी की याद आ गई. मैंने सोचा कि उस का मुआयना और इलाज इन्हीं से करवाएंगे।

आज दोपहर में मैं जब उसे लेकर उस कारीगर के पास गया तो उसे देखते ही उसने कहा कि इस का कुछ नहीं हो सकता,  मैंने कहा कि आप देख तो लें....शायद कुछ हो जाए...तब उस ने कहा कि इस के कलपुर्ज़े ही बीसियों साल पहले मिलने बंद हो गये।

मैंने पूछा कि शायद पुर्ज़े बदलने की ज़रूरत ही न हो, उसने कहा कि ऐसा हो ही नहीं सकता....जब कोई मशीन चलती है तो उस के पुर्ज़े तो घिसते ही हैं। बहरहाल, उसने अपने किसी दूसरे साथी को आवाज़ लगा कर पूछा कि प्रेम, इसे देखो, इस का कुछ हो सकता है। एक तरह का सैकेंड ओपिनियन ले रहा था वह बुज़ुर्ग।

उस ने भी उस घड़ी को देखते ही दूर से अपना फैसला सुना दिया.......कुछ नहीं, इस का कुछ नहीं हो सकता।
मुझे बहुत बुरा लगा.......जैसा मरीज़ों को भी लगता होगा जब कोई डाक्टर किसी मरीज़ को ऐसा जवाब देता होगा।
बहरहाल, आप को इस घड़ी के बारे में कुछ विशेष बातें बताने लगा हूं।

जब से मैंने होश संभाला इस क्लॉक को घर में देखा..... सीमेंट की एक शेल्फ पर एक कमरे में बनी हुई थी..... सरकारी घरों में शो-पीस तो हुआ नहीं करते थे।

उस शेल्फ पर मैंने बचपन से ही तीन चीज़े पड़ी देखीं......उस पर मेरी मां द्वारा एक बढ़िया सा कढाई किया हुआ मेजपोश बिछा रहता था....जिस पर तीन चीज़ें--- एक फ्रेम की हुई मेरे दादा जी की फोटो, बीच में यह घड़ी और तीसरी एक फोटो..मेरे पिता जी के इष्टदेव बाबा बालकनाथ जी की तस्वीर जिस पर वह रोज़ाना सुबह धूप-बत्ती किया करते थे।

हां, तो बात घड़ी की हो रही है......इस घड़ी को चाबी रोज़ाना दी जाती थी, और अधिकतर ....अधिकतर क्या, लगभग हर रोज़ मेरे पिता जी ही इसे चाबी दिया करते थे। दूसरा कोई भी चाबी देने लगता तो लफड़ा कर बैठता....थोड़ा सा भी ज़्यादा ज़ोर लगाने पर यह चाबी देने वाला बटन खराब हो जाता था, फिर उसे बनवाना पड़ता था।

रोज़ाना एक ही समय में इसे चाबी भरना भी जैसे घर में एक इवेंट हुआ करता था।

लेकिन इस घड़ी में अलॉर्म लगाना तो एक और भी बड़ा काम.........सारे घर को पता रहता था कि आज घड़ी में कितने बजे का अलॉर्म लगा है और किस काम के लिए लगा है, कोई पेपर वेपर की तैयारी करनी है या कोई गाड़ी वाड़ी पकड़ने का चक्कर है।

आज मैं अपने बेटे को भी यह सारा किस्सा सुना रहा था....किस्सागोई करते करते मैं यही सोच रहा था कि उस ज़माने में भी गजब का सब्र हुआ करता था...घर में किसी ने भी टाइम देखना है तो हर किसी को उस कमरे में आना ही होगा जिस की शेल्फ पर यह सजी रहती थी......नहीं तो, अपना आल इंडिया रेडियो जब टाइम बताये तो तब सुन लिया जाता था.....मुझे याद है, चाय वाय के टाइम तो रेडियो के प्रोग्रामों --खबरों आदि के साथ बंधे हुए थे।

इस घड़ी की कार्य-प्रणाली जिसे मैं आज तक न समझ पाया...
और एक बात, यह जो आप ने इस घड़ी के पिछले हिस्से की तस्वीर देखी..उस के विभिन्न बटनों को समझना मेरे लिए किसी साईंस एक्सपैरीमेंट जैसा था.....वैसे भी मैं अकेले में इस से पंगे लेता रहता था....जब भी इस में कोई भी रूकावट आती तो शक की सूईं सब से पहले मेरे पर ही जैसे रूक जाया करती... कि इसने ही छेड़खानी की होगी।

आज मैं अपनी मां जी से इस घड़ी की बातें शेयर कर रहा था तो उन्होंने मेरे ज्ञान में एक और इज़ाफ़ा कर दिया....उन्होंने बताया कि जब तेरे पिता जी ने यह घड़ी १९५० में ५० रूपये में खरीदी थी तो हमारे घर के आस पास इसे देखने आये थे.... कि अलॉर्म वाली घड़ी आई है जो कि रात के समय टिमटिमाती भी है.....टिमटिमाना तो मुझे भी याद है जब मैं अपने पिता जी के साथ रात में सोने की कोशिश किया करता तो बत्ती बंद होने के बावजूद इस में से हरे टिमटिमाते से सितारे अच्छे लगते.... यह रेडियम के कारण है।

पिता जी की घड़ी जिसे मैंने शायद १९८० से उन की कलाई पर देखा
चालीस वर्ष बाद आज मेरी कलाई पर...

अपने टेबल का दराज देख रहा था तो मेरे पिता जी की एक घड़ी पर भी नज़र पड़ गई......मैंने उन्हें १९८० के आसपास इसे पहने देखा......लगभग बीस वर्षों से यह ऐसे ही पड़ी है, आज मैंने पहनी तो अच्छा लगा......इसे कोई चाबी वाबी नहीं देनी पड़ती और न ही सेल बदलवाने का झंझट है......इस के डायल पर SEIKO -- Automatic लिखा हुआ है.... अच्छा लगा ...इस तरह की चीज़ों को आस पास रखने से बहुत से अहसास कायम रहते हैं.........आज कल मैं शायर मुन्नवर राणा साहब को पढ़ रहा हूं........शायद इतने सारे अहसास उस की वजह ही से लौट आ रहे हैं।