मंगलवार, 18 जनवरी 2011

प्राइव्हेसी की जबरदस्त डिमांड तो है, आखिर क्यों ?

अकसर आज कल दिख ही रहा है कि घर के सदस्यों की संख्या से ज़्यादा मोबाईल फोन और लगभग उस से भी ज़्यादा सिमकार्ड होते हैं। लेकिन एक तो पंगा अभी भी है – अब बेवजह किस बात का पंगा? – प्राइवेसी का। एक स्कूल जाने वाले बच्चे को भी फोन पर बात करते वक्त प्राइवेसी चाहिए। प्राइवेसी से एक बात का ध्यान आ रहा है ...एक बार मैंने मीडिया एकेडेमिक्स की एक शख्सियत से यह बात सुनी थी कि जब से यह टीवी ड्राईंग-रूम से निकल कर बच्चों के बेडरूम में पहुंच गया है, अनर्थ हो गया है। क्या है न जब टीवी को सब लोग एक साथ बैठ कर देख रहे होते हैं तो अपने आप में ही एक अंकुश सा सब के ऊपर बना रहता है –किसी ऐसे वैसे सीन से पहले कोई न कोई रिमोट का कान खींच कर किसी प्रवचन की तरफ़ सब का ध्यान सरका देगा, कोई बहाना बना के दो मिनट पहले उठ जाएगा..., कोई बड़ा-बुज़र्ग यूं ही बच्चों को हल्का सा टोक देगा तुम भी यह सब क्या देखते रहते हो......कहने का मतलब कि किसी न किसी रूप में अंकुश तो रहता ही है जब सब लोग टीवी एक साथ देख रहे होते हैं। वरना आज प्रोग्राम तो ऐसे ऐसे चल निकले हैं कि क्या इन के बारे में जितना कम कहें उतना ही ठीक लगता है !

तो बात हो रही थी फोन पर बात करते वक्त प्राइवेसी की। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह बहुत अजीब सा लगता है। अब स्कूल जाने वाले बच्चे को ऐसी कौन सी प्राइवेसी चाहिए.....कुछ ज़्यादा समझ में नहीं आता। लेकिन एक बात और भी है कि बच्चे अपने घर ही से ये सारी बातें सीखते हैं और इसलिये शायद हम सब बड़ों को भी अपने आप को टटोलने की ज़रूरत है।

मुझे याद है कि कुछ समय पहले यह मोबाइल पर बात करते वक्त कोई कोना सा ढूंढ लेना थोड़ा अजीब सा लगता था। मेरा एक सीनियर था ...कुछ साल पहले की बात है ... जब भी मैं उस के पास बैठा होता और उस का मोबाइल फोन बज उठता तो वह झट से उसे लेकर टायलेट में घुस जाता। दो-तीन बार ऐसा हुआ..मुझे यह सब इतना अजीब लगा ...अजीब क्या लगा, इंसलटिंग लगा कि मैंने उस के पास जाना ही बंद कर दिया। बस अपने भी मन की मौज है। लेकिन अब देखता हूं कि लोग कुछ ज़्यादा ही सचेत हो गये हैं...किसी का मोबाईल फोन बजने पर उस के मुंह के भाव पढ़ कर यह अंदाज़ा लगा लेते हैं कि किसी बहाने उठ कर बाहर जान ठीक है या यहीं पड़े रहो।

अच्छा मोबाइल फोन आने पर यह प्राइवेसी ढूंढने का सिलसिला है बड़ा संक्रामक--- बस एक दूसरे को देखते देखते कैसे आदत पक जाती है पता ही नहीं चलता। लेकिन जो भी हो, अब मैंने निश्चय कर लिया है कि अब सब बातें सब के सामने ही किया करूंगा --- चलिये कभी कोई अकसैप्शन हो सकती है, लेकिन वह भी कभी कभी। हर बार फोन उठा कर अलग किसी कोने में घिसक जाना कुछ शिष्टाचार के नियमों के विरूद्द सा लगता है, है कि नहीं?  भला हम ने कौन सी ऐसी बातें करनी हैं किसी से जो कि हमारे परिवार के सदस्यों के सुनने लायक तो हैं नहीं, लेकिन लॉन में बात करते वक्त चाहे पड़ोसी का बंगला चपरासी सारी बातें सुन ले। बड़ी अजीब सी बात लगती है।

वैसे तो हम लोग जब कुछ लोग बैठे हों तो बच्चे हमारे कान में आकर कुछ कहना चाहे तो हम इसे भी अकसर डिस्कर्ज करते देखे जाते हैं ... कहते हैं कि बेटा, सब के सामने जो बात करनी है करो, लेकिन फिर यह मोबाइल फोन के नियम क्यों इतने अलग से हैं?

मोबाइल फोन से लौट चलते हैं उस ज़माने की तरफ जब केवल लैंडलाइन फोन का ही सहारा हुआ करता था और वह भी कभी कभी चला करता था क्योंकि हम इतने जुगाड़ू प्रवृत्ति के नहीं थे कि वे किसी लाइन-मैन को सैट कर के रखते ताकि वह फोन खराब होते ही भाग के आ जाता और तुरंत लाइन ठीक कर के चला जाता। ज़माना वह भी याद करना होगा जब लैंडलाइन फोन बजते ही घर में मौजूद दो-तीन पीढ़ियां उस फोन वाले मेज के इर्द-गिर्द यूं इक्ट्ठा हो जाया करती थीं जैसे कि कोई सैटेलाइट का परीक्षण किया जाने वाला है।

जो भी हो, दौर अच्छा था, खुलापन था, एक फोन आता था तो सभी के साथ बात होती थी ... दिखावेबाजी नहीं थी, अब तो बस दिखावेबाजी ज़्यादा है और असल बात शायद बहुत कम है। अपने आप से पूछने वाली बात यह है कि आखिर ऐसा कमबख्त है क्या जिसे हमें अपनों ही से छिपाने की ज़रूरत पड़ रही है। और तो और, उसी पुराने दौर में एक दौर यह भी हम ने देखा है जब किसी का पीपी ( PP number)  दे कर काम चला लिया जाता था और अकसर विज़िटिंग कार्डों पर यह अंकित रहता था कि  यह नंबर पीपी नंबर है। और फोन करते या सुनते वक्त कोई परवाह नहीं कि कितने पड़ोसियों ने हमारी बातें सुन ली होंगी ... इसलिये फोन करते वक्त समय का ध्यान रखना भी बेहद लाज़मी था वरना अगली बार से यह सुविधा खत्म...... चलो, छोड़ते हैं, उस दौर की भी अपनी बहुत सी मुश्किलें थीं और अगर इन्हें गिनाने लग गया तो एक छोटा मोटा उपन्यास ही बन जायेगा जो कि मैं अभी लिखने के बिल्कुल भी मूड में नहीं हूं।

हां, तो थोड़ा इस से भी पीछे चलिये....वह दौर जब ये ट्रंककाल करते लोग या तो हिंदी फिल्मी में देखे जाते थे या फिर शहर के बड़े डाकघर में। वहां पर भी कहां यह सब इतना आसान था, पहले फार्म भरो, फिर 50 रूपये का अडवांस जमा करो, फिर लग जायो लाइन में.....बार बार नंबरों की ट्राई.....ट्राई पर ट्राई.... बाबू के साथ चिक चिक कि बई, बात तो हुई नहीं और तुम कह रहे हो इतने मिनट के पैसे दो....अब बाबू की बला से, बात हुई या नहीं हुई, उस के सामने रखी स्टाप-वॉच की गिनती के आगे किसी की न चलती थी, बड़ी सिरदर्दी थी, मुझे नहीं याद कि मैं कभी उस दौर में इन बड़े डाकघरों में यह सो-कॉल्ड ट्रंककाल के लिया गया होऊं और सफल हो कर लौटा हूं ...हमेशा हारे जुआरी की तरह साइकिल उठा कर घर की तरफ़ चल पड़ता है।

लेकिन ऐसे खुशकिस्मत लोगों को देख कर मन में बड़ी तमन्ना होती थी जिन का झट से ट्रंककाल लग जाता था और वह अंदर केबिन में बंद होते हुये भी इतने ज़ोर से बातें करते थे कि मुझे याद है कि मेरे जैसी दुःखी आत्मायें उस अमृतसर के रियाल्टो टाकी के सामने बड़े डाकखाने पर यह कह कर मन थोड़ा हल्का ज़रूर कर लिया करते थे कि ....यार, इस को ट्रंककाल करने की आखिर ज़रूरत है, इस की तो आवाज़ ही इतनी दबंग और कड़क है कि अगर यह बाहर आकर थोड़ा और बुलंद आवाज़ में  बोल दे तो दिल्ली तक तो आवाज़ वैसे ही पहुंच जाए। यह बात माननी पड़ेगी कि अमृतसर के लोग हैं बड़ी मज़ाकिया – सब से बड़ी खूबी वे किसी पर हंसने की बजाए अपने पर भी हंसने से भी गुरेज़ नहीं करते। और हर स्थिति में खुशी ढूंढ लेने की कला रखते हैं..... जिउंदे वसदे रहो, मित्तरो......

बस, अब इस कॉल को बंद करने का वक्त आ गया है, लेकिन इस से मैंने तो एक सीख अपने आप के लिये ली है कि कोशिश करूंगा कि इस प्राइवेसी को खत्म करने के लिये पहल मैं ही करूं ---मैं फिर कह रहा हूं कि कुछ परिस्थितियां हो सकती हैं जिन में शायद हमें कभी कभार कुछ प्राइवेसी चाहिये हो, लेकिन हर कॉल को ही प्राइवेट कॉल बना लिया जाए तो बहुत बार यह मोबाईल सिरदर्द लगने लगता है।

वैसे एक बात और भी है न, टैक्नोलॉजी इतनी आगे बढ़ गई ....लेकिन क्या इस से इंसानों के रिश्तों में गर्मजोशी आई? ….मुझे तो ऐसा कभी भी नहीं लगा, फेसबुक आ गई, मॉय-स्पेस आ गया लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि विभिन्न कारणों की वजह से हर तरह ठंडक ही बढ़ती दिख रही है। गर्मजोशी को वैसे आज की नई पीढ़ी शायद ही समझ सके जिसे मां-बहन-बीवी का कईं कईं दिनों की दिन रात की तपस्या से तैयार किया स्वैटर चुभता है, मां की तैयार की गई टोपी आक्वर्ड लगती है लेकिन विदेशों में तैयार दो हज़ार की ब्रैंडड स्वैटर-टोपियां ही सारी गर्माहट देती हैं, ऐसे में कोई क्या कहे। फोनों की खूब बातें हो गईं वैसे असली गर्मी तो पुराने खतों में हुआ करती थीं ---इतनी गर्माइश की अगला खत आने तक मेरे पिता जी मेरी दादी की हिंदी में लिखी चिट्ठी लगभग रोज़ाना सुना करते थे ....एक दिन कोई सुना देता, दूसरे दिन कोई दूसरा काबू आ जाता .... और अगली चिट्ठी आने तक यह सिलसिला चलता रहता था।

चलिये, अब बंद भी करूं ....लेकिन एक निर्णय लेता हूं कि आज से पूरी कोशिश रहेगी कि मोबाइल फोन पर बात सब के सामने ही हो, ऐसी भी क्या बात है, ऐसी भी क्या प्राइवेसी है, ऐसा कुछ है ही नहीं, अगर थोड़ा गहराई में सोचेंगे तो पाएंगे कि ऐसा अलग सी जगह में दुबक कर बात करने जैसी कोई बात भी तो नहीं होती --- एक आम आदमी ने कौन सा अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के मर्जर की बातें करनी हैं, कौन से ट्रेड-सीक्रेट आपस में बांटने हैं...........ऐसा कुछ नहीं है तो चलिये लाते हैं आज से अपनी बातचीत में एक नये खुलापन ........ताकि हमारा आने वाला कल आज से बेहतर हो सके, और ये जो हम ने अपने ब्लड-प्रैशर को पक्के तौर पर बढाये रखने के पुख्ता इंतज़ाम कर रखे हैं, इन से छुटकारा पाएं.....