बुधवार, 2 जून 2010

बड़ी आंत की सफाई वाला बिजनैस ?

एक वेबसाइट है जिस पर प्रिंटमीडिया एवं इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर चल रही सेहत संबंधी समाचारों की खिंचाई भी होती और जो बिल्कुल सुथरा और बिना किसी लाग-लपेट के सेहत के बारे में बढ़िया संदेश देते हैं उन की प्रशंसा भी की जाती है --इस साइट का नाम है healthnewsreview.org. मैं अकसर एक दो दिन में इस साइट को ज़रूर विज़िट करता हूं ---हो सके तो कभी कभी आप भी देख लिया करें।
मैं इस पर एक रिपोट---क्या अपने आप आंत साफ करने वाली दवाईयां सेहत में सुधार करती हैं?--- देख रहा था जिस में बड़ी आंत को साफ़ करने संबंधी एक न्यूज़-रिपोर्ट को इस साइट पर पांच सितारे मिले थे क्योंकि उस में बड़ी साफगोई से आंत की सफाई के लिये मार्कीट में आने वाले प्रोडक्टस् की पोल खोली गई है।
बड़ी आंत की सफ़ाई की बात करते हैं तो मुझे अपने योग में बहुत सक्रिय होने वाले दिन याद आ जाते हैं--यह बात आठ सल पहले की है जब हम लोग योग के एक रैज़ीडैंशियल कार्यक्रम के लिये जाया करते थे तो वहां पर एक क्रिया करते थे --शंख-प्रक्षालन। इस क्रिया के दौरान हमें एक दिन सुबह सुबह गुनगुना नमकीन पानी पीने को कहते थे ---जितना हम आसानी से पी सकें ---होता यूं था कि कुछ गिलास पीने के बाद हम लोग टायलेट की तरफ़ भागना शुरू कर देते थे --- और शायद एक घंटे में आठ दस बार हमें टायलेट जाना पड़ता था ---कुछ ही मिनटों में बिल्कुल पानी जैसे मल होने लगते थे और देखते ही देखते बिल्कुल हल्कापन --- और उस के बाद हमें चावल का पानी (क्या बोलते हैं उसे मांड) दिया जाता था।
और हमें यह सचेत भी किया जाता था कि हम लोग इस प्रक्रिया को अपने आप घर में ना आजमाएं ---केवल योग गुरू की निगरानी में ही यह प्रक्रिया दो महीने के बाद की जा सकती है। मुझे भी इस तरह की क्रिया को एक योग आश्रम में तीन-चार बार करने का अवसर मिला।
अच्छा हम लोग तो उस रिपोर्ट की चर्चा कर रहे थे जिस में कुछ विज्ञापनों का विश्लेषण किया गया है जो अपने प्रोड्क्टस के द्वारा बड़ी आंत को साफ़ करने का ढिंढोरा पीट रहे हैं। दरअसल अमीर दूर-देशों में आंत की बहुत ज़्यादा तकलीफ़े हैं --अन्य कारणों के साथ साथ वहां पर यह जो नॉन-वैजीटेरियन खाना बहुत चलता है और वह भी अत्यंत प्रोसैस्ड----इस सब से यह तकलीफ़ें जैसे कि बड़ी आंत का कैंसर जैसे रोग काफी आम हैं।
मैं जब इस रिपोर्ट को देख रहा था तो मैं भी यह सोच कर दंग था कि ऐसे कैसे किसी स्वस्थ बंदे की आंत में 10पाउंड, बीस पाउंड और यहां तक कि चालीस पाउंड तक मल फंसा रहता है जिस के परिणामस्वरूप उसे हमेशा यह बोझा ढोने के लिये मजबूर होना पड़ता है।
इस में कोई शक नहीं कि अगर पेट ठीक तरह से साफ़ नहीं होता तो तबीयत नासाज़ सी ही रहती है । लेकिन अब अगर तीस चालीस पाउंड मल आंतों में फंसे होने की बात कोई कहे तो कोई उसे क्या कहे?
इस बढ़िया सा रिपोर्ट की पारदर्शिता देखिये कि उस में एक पेट के रोगों के माहिर डाक्टर की टिप्पणी भी दी गई थी। उसे भी यह बीस-तीस-चालीस पाउंड वाली बात बड़ी रोचक दिखी--उस ने मज़ाक में यह भी कह दिया कि गिनिज़ बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड को खंगालना पड़ सकता है।
और उस ने इस तरह के प्रोड्कट्स के बारे में लोगों को यह कहते हुये भी सचेत किया कि इस में मैग्नीशयम की मात्रा इतनी ज़्यादा होती है कि यह गुर्दे के रोगों से जूझ रहे लोगों के लिये खतरनाक हो सकती है। और जाते जाते उन्होंने यह भी कह दिया अगर कोई स्लिम-ट्रिम होने के लिये इन आंत की सफाई के लिये आने वाले पावडरों का सहारा ले रहा है तो उसे भी इन से दूर ही रहने की ज़रूरत है।
वैसे आप को भी लगता होगा कि अखबार में,मीडिया में छपने वाली सेहत की खबरों की अगर रोज़ाना इतनी खिंचाई होगी तो यह सब लिख कर लोगों को भ्रमित करने वाले लोग कैसे अपने आप लाइन पर न आएंगे।
मुझे यह लिखते लिखते ध्यान आ रहा है कि रिपोर्ट का पोस्ट-मार्टम तो हो गया लेकिन क्या इस में लिखी बातों ने क्या हमें कुछ सोचने पर मजबूर भी किया ? -- बात सोचने वाली यह भी है कि आंते भी क्या करें ----ऐसी कौन सी मशीनरी है जो 365दिन चौबीस घंटे चलती रहे --कोई विश्राम नहीं ----आखिर वह कब थोड़ी सुस्ताए --- वह तो तभी हो सकता है जब हम अपने मुंह को थोड़ा विराम दें ----उपवास रखने की आदत डालें ----दिन, विधि और अवधि आप स्वयं तय करें। मैं भी सोच रहा हूं कि उपवास रखना शूरू करूं।

दाल-रोटी खाओ......प्रभु के गुण गाओ

आज कल लोग देशी टॉनिकों की बात नहीं करते--वे उन टॉनिकों की बात करते हैं जिन की मार्केटिंग में ये कंपनियां हाथ धो कर पीछे पड़ी हुई हैं। और पता नहीं लोग इन कंपनियों की बात सुनते भी हैं, हम सारा दिन दाल-रोटी-सब्जी खाने की बात करते हैं और हमारे बच्चे भी हमारी सुन कर राजी नहीं हैं--- वे भी कुछ कुछ दालों एवं ज़्यादातर सब्जियों की कटोरी को यूं पीछे सरकाते हैं जैसे उन में दवाई मिली हो।
वैसे कभी आपने यह सोचा है कि कुछ विदेशी कंपनियां जो इस तरह के टॉनिक-वॉनिक सप्लाई करती हैं वे तो कितने कितने जबरदस्त हथकंडे अपनाती हैं, अपने कर्मचारियों को आकर्षक इंसैंटिव भी देती हैं। लेकिन इन के द्वारा किये जा रहे प्रचार को काउंटर करने के लिये ----लोगों को जागरूक करने का ढांचा देखिये कितना ढीला ढाला है --- सभी अच्छे चिकित्सकों को सम्मान देते हुये मैं भी अकसर देखता हूं कि अधिकांश सरकारी हस्पतालों में डाक्टर लोग सुबह से शाम तक बीमारों की तीमारदारी में ही इतने मसरूफ़ रहते हैं कि आप को लगता है कि उन में से अधिकांश को इस तरह के जागरूकता अभियान का हिस्सा बनने का समय भी मिलता होगा।
तो फिर ऐसे में होता क्या है ? --लोगों को लगता है कि जो बाहर की कंपनियां फरमा रही हैं, वह एकदम दुरूस्त है, इन टॉनिकों को लेकर ही फिट रहा जा सकता है।
लेकिन मैं इस बात से बिल्कुल भी इत्तफाक नहीं रखता --क्या पहले लोग जीते नहीं थे --- देखा जाए तो जीते वही थे, आज तो लोग बस टाइम को धक्का मार रहे हैं।
एक बात और भी है कि सीधी सादी सी बातें भी तो लोगों को समझ में नहीं आती ---जो बातें कहने सुनने में कठिन लगें, लच्छेदार हों, मीठी चासनी में घुली हों, उन्हें वही भाती हैं।
यकीन मानिये जिस मां का बच्चा रोटी नहीं खाता, दाल सब्जी नहीं खाता ---यह लगभग एक राष्ट्रीय समस्या सी हो गई है-- वह जब डाक्टर से किसी टॉनिक के लिये पूछती है और अगर कोई भला डाक्टर अपना समय निकाल कर उस के चिप्स, बिस्कुट, भुजिया, बर्गर बंद करने की सलाह देता है और रोटी दाल सब्जी खाने की सलाह देता है तो उस मां को शायद यह सलाह सब से बेकार लगती होगी और जाते समय वह कैमिस्ट से कोई न कोई टॉनिक की शीशी तो ले ही लेती होगी।
क्या कहें, क्या न कहें---सब कुछ गोरखधंधा है --किसी कैमिस्ट की दुकान पर देखो तो उस के काउंटर पर और आसपास ढ़ेरों अनाप शनाप टॉनिक-ज्यूस बिखरे पड़े होते हैं ----रैसिपी तो सेहत की एक ही है ---सादा संतुलित आहार --जो सदियों से देश खाता आ रहा है --- दाल-रोटी-सब्जी-चावल, सलाद और मौसमी फल ---इस के अलावा कैमिस्टों की दुकान से फिटनैस ढूढना बेकार है।
मैं कईं बार बैठा बैठा सोचता हूं कि बचपन में जो बच्चे बहुत सी सब्जियों-दालों से दूर रहते हैं ----शायद छोटेपन में तो चल जाता है ---क्योंकि यह सब भी कमबख्त लाड-प्यारा की परिभाषा में आ जाता है कि अगर लल्लन नहीं खा रहा यह सब कुछ तो चलो उसे दो-तीन परांठे सेंक दें ----और यह दौर चलता ही रहता है। नतीजा यह हो जाता है कि लल्लन 10-12 साल तक फूल के कुप्पा हो जाता है ----और फिर फिटनैस ढूंढी जाती है देशी-विदेशी टॉनिकों में।
तो आज की इस पोस्ट से केवल इस बात को उठायें कि बच्चों को छोटी उम्र से ही सभी सब्जियां, दालें और अनाज खाने की आदत डालें और अगर किसी कारणवश यह सब आप से नहीं हो रहा तो एक बहुत ही ज़्यादा गंभीर मुद्दा है ----क्योंकि मेरा अनुभव तो यही कहता है कि जो बच्चे बचपन में इन कुदरती वरदानों से दूर रहते हैं वे फिर बड़े होकर भी पिज़्जा, बर्गर, हाट-डाग, चाइनीज़, हाका, कोल्ड-ड्रिंक्स, और इसी तरह की अनेकों वस्तुओँ से भूख मिटाते फिरते हैं --------सब कुछ होता है इन के पास बड़ी बड़ी डिग्रीयां, बढ़िया अंग्रेज़ी, बढ़िया पे-पैकेट, ब्रैंडेड कपडे, अतिआधुनिक मोबाइल फोन..............और भी सब कुछ जिस की कोई भी कल्पना कर सकता है लेकिन अच्छी सेहत, फिटनैस के बिना यह सब किसी काम का। अच्छी सेहत तो साधी सादे हिंदोस्तानी खाने से ही आयेगी ---- यकीन मान लें कि और कोई भी रास्ता नहीं है फिट रहने के लिये।
और अब बात कि अगर ये सब इतने टॉनिक बन रहे हैं तो ये किस के लिये ? ---ये बीमार लोगों के लिये हैं, सेहतमंद लोगों के लिये , न ही ये अच्छे खाने का विकल्प हो सकते हैं----ये जो टॉनिक-वॉनिक हैं, इन्हें अकसर क्वालीफाईड चिकित्सक बीमार लोगों को देते हैं ताकि उन को जल्दी से सेहतलाभ हो।
मेरे को जब भी कोई इस तरह के टॉनिकों आदि के बारे में बताता है, इन की तारीफ़ों के पुल बांधता है, मैं शिष्टाचार वश उस की बात तो सन लेता हूं ----लेकिन किसी भी सेहतमंद आदमी को इन की सिफारिश करना तो दूर---मैं कभी इन का नाम तक लोगों के सामने नहीं लेता और न ही अपनी ओपीडी में इन का कोई विज्ञापन ही चिपकने देता हूं -----क्या है, कईं बार लोग इस तरह के इश्तिहार से भी इन के चक्कर में आ जाते हैं। बहुत बार सोचता हूं कि हम लोगों को काम भी ढिढोरची जैसा ही है ------हर समय किसी न किसी बात का ढिंढोरा पीटते रहना --------ताकि अज्ञानता वश कोई चक्कर में न पड़े।
जाते जाते एक बात का ध्यान आ गया ---क्या आपने कभी सुना है कि फलां फलां बच्चा बचपन में तो दाल-सब्जी नहीं खाता था लेकिन बड़ा होकर वह सब खाने लग गया है ----अगर सुना है तो टिप्पणी में ज़रूर लिखना -----क्योंकि मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना।