बुधवार, 24 मई 2023

बिनाका गीत माला - कुछ यादें , कुछ बातें !

अभी मैं अपने रूम की थोड़ी साफ़ सफ़ाई कर रहा था तो अल्मारी के एक कोने में एक छोटी सी किताब दिख गई ...करीब ५० साल पुरानी है ...नाम है हिट फिल्मी गीत -बिनाका गीतमाला-३ (१९७०-१९७६)- मेरे पास तो यह दो तीन बरसों से ही है, यही बंबई से इसे खरीदा था ...उस दिन यह लग रहा था कि काश, इस के सभी अंक कहीं से भी मिल जाएं तो ले लूं...अमीन सयानी की जादुई आवाज़ भी याद है हम सब को ...

खैर, मुझे उन दिनों की याद करने के लिए ऐसी पुरानी चीज़ें लगती हैं...यह उन दिनों की बात है जब बिनाका गीत माला ही दिसंबर महीने की हमारी सब से बड़ी दिल्लगी हुआ करती थी ...हमें बस यही फ़िक्र रहती थी कि ईश्वर कृपा करें शाम को इस प्रोग्राम के दौरान हमारा रेडियो चलता रहे ....रेडियो भी उन दिनों बड़े नखरे करता था ....कईं पापड़ बेलने पड़ते थे उस की स्पष्ट आवाज़ सुनने के लिए...खैर, कभी आप को अपने रेडियो से जुड़े ब्लॉग का लिंक दूंगा ..जिसमें मैंने रेडियो के बारे में सभी बातें लिख डाली हैं....रेडियो लाईसैंस फीस देने वाले दिनों की बातें भी ..

खैर, मैं इस वक्त जब यह लिख रहा हूं सच में मुझे याद नहीं आ रहा कि क्या मनोरंजन के नाम पर हमारी ज़िंदगी मेे उन दिनों बिनाका गीतमाला के अलावा कुछ था ....अपने आप से पूछता हूं तो पक्का जवाब मिलता है ...नहीं, बिल्कुल नहींं। यह हमारे लिए ऐसे था जैसे आज की पीढ़ी के लिए बिग-बॉस...या कुछ और ...मुझे तो आज के टीवी के प्रोग्रामों के नाम भी नहीं आते ...आठ दस साल से देखा ही नहीं, ऑउट ऑफ टच....😂

हमारे बचपन का सच्चा साथी...मरफी का यह रेडियो ...आज भी देश के किसी कोने में यह हिफ़ाज़त से रखा हुआ है ...धरोहर है अपनी..

और जो इकलौता रेडियो घर में होता था हम उस के रहमोकरम पर रहते थे ...मेरे भाई को भी रेडियो सुनने का बड़ा शौक था...वह तो उस की आवाज़ साफ़ साफ़ सुनने के लिए थपथपाता ऱहता था उस को ...यह जो मैं तस्वीर यहां लगा रहा हूं यह हमारे घर के मरफी रेडियो की तस्वीर है जिस के साथ अनेकों यादें जुड़ी हुई हैं, दबी पड़ी हैं....उन में से कुछ लिख कर हल्कापन महसूस कर लेते हैं...


यह भी इसी किताब का ही एक पन्ना है ...

दिक्कत उन दिनों की यह भी थी कि रेडियो सुनना भी लगभग एक ऐब ही माना जाता था ....पढ़ाई के वक्त तो रेडियो डर डर के सुनते थे और हमारी कोशिश होती थी कि शाम के वक्त पिता जी के दफ्तर से लौटने से पहले सब गाने वाले सुन सना के उसे बंद कर दें और अपनी कोई कापी किताब उठा लें..(आठवीं क्लास में किताब में रख कर एक नावल भी पढ़ा था, बस एक बात ..उस के बाद पढ़ाई से ही कभी फुर्सत न मिली...लेकिन वह अपराध बोध उम्र भर के लिए साथ रह गया) ...रात के वक्त भी सुनने की इतना छूट न थी ...हमारा रेडियो पहले तो गर्म होने में वक्त लेता था ....ये सब बातें १९७० के दशक के शुरूआती बरसों की हैं...फिर तो १९७५ में हमने बुश का एक ट्रांजिस्टर ले लिया था ..बंबई आए हुए थे ...हमारे ताऊ जी का दामाद बुश कंपनी में बड़े ओहदे पर था ...उसने छूट दिलवा दी थी ....और मुझे याद है हम लोग उस ट्रांजिस्टर को शुरू शुरू में बहुत संभाल कर रखते थे ..अभी भी याद है शाम के वक्त आंगन में चारपाईयां बिछी हुई हैं, पंखे लगे हुए हैं, दो तीन अड़ोसी-पड़ोसी बैठे हुए हैं.....उस पर गीत बज रहे हैं, खबरें आ रही हैं, बीबीसी से भी...वह सैलों से भी चलता था और बिजली से भी ...जहां तक मुझे ख्याल है हम उसे बिजली पर ही चलाते थे ...

अगर पढ़ने में दिक्कत हो तो इस इमेज पर क्लिक कर के आसानी से पढ़ सकते हैं..


कहां यार मैं भी किधर निकल गया ....बिनाका गीतमाला की किताब है सामने और मैं कहां चारपाईयों पर उछल कूद करने लगा (उन दिनों हमें यह काम भी करना बहुत पसंद था, चारपाई के टूटने पर अपनी हड्डियों के टूटने की रती भर भी फिक्र न होती थी) ...डायमंड कामिक्स की इस किताब का दाम ३ रूपये लिखा हुआ है जो मुझे लगभग १०० गुणा दाम चुकाने पर मिली ....खरीदने की कोई जबरदस्ती नहीं थी...लेकिन मुझे चाहिए थी...इसे देखते ही मज़ा आ गया था ..

 आज की पीढ़ी को यकीं दिलाने के लिए कि रेडियो सुनने के लिए सालाना १५ रूपये की फीस डाकखाने में जा कर भरनी होती थी ...मैंने भी भरी हुई है ..(यह भी खरीदी हुई कॉपी है)..

ऊपर वाली रेडियो लाईसेंस बुक का एक पन्ना ....

१९७० से १९७६ के दिन अपने भी इन गीतों में डूबे रहने वाले दिन थे ...इस किताब में भी इन सात सालों की लिस्ट लंबी है ..जो बिनाका गीत माला की हिट परेड में शामिल किए गए ..इतनी लंबी लिस्ट कहां लिखता फिरूं....हर साल के पहले नंबर पर आने वाले गीत का नाम यहां लिखता हूं ...

१९७०- बिंदिया चमकेगी चूड़ी खनकेगी...

१९७१- ज़िंदगी इक सफर है सुहाना 

१९७२- दम मारो दम, मिट जाए गम 

१९७३-यारी है इमान मेरा यार, मेरी ज़िदगी 

१९७४- मेरा जीवन कोरा कागज़ कोरा ही रह गया...

१९७५- बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई ..

१९७६- कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ...

अभी मैंने यह सोचा कि अगर मुझे इस पोस्ट के नीचे इन सात बरसों में जो गीत पहले नंबर पर रहे....उन में से एक चुनना होगा तो मैं किसे चुनूंगा ....तो मेरी पसंद बिल्कुल स्पष्ट थी ....और उस वक्त १९७१ में मेरी उम्र थी महज़ ९ साल की ...इतना सुना इस गीत को रेडियो पर, मोहल्ले में लगने वाले लाउड-स्पीकरों पर, सर्कस के मैदानों में.....कि ९-१० साल की उम्र में भी इस गीत का फलसफा शोखी की वजह से हमारे दिलो-दिमाग में कैद तो हो गया, .लेकिन इस की समझ बहुत बरसों बाद आई...😎😁


एक तरफ़ देखिए हमारी पीढ़ी को इन गीतों को सुनने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती थी और दूसरी तरफ़ आज ही की मुंबई की तस्वीर देखिए...मोबाइल पर कुछ भी सुनने का जुगाड़ फुटपाथ पर बैठे बैठे भी हो जाता है....👍 

मुंबई - २४.५.२३