सोमवार, 22 सितंबर 2025

बरसों बीत गए भुट्टा खाए...

मुझे लगता है शायद बीस बरस हो गए होंगे …भुट्टा खाए हुए…कारण, ऐसा वैसा कुछ नहीं है …इसे हम लोग कभी भुट्टा नहीं कहते …हमारी ज़ुबान में इसे छल्ली कहते हैं….हां, काऱण, सिर्फ़ इतना है कि अब ये छल्लीयां जहां भी बिकती हैं, उन में वह पुराने वाला तो छोड़िए, कुछ भी स्वाद नहीं है ….बिल्कुल बकबकी सी लगती हैं अब छल्लीयां….क्या करें, अब उन को खाने की इच्छा ही नहीं होती तो कैसे खा लें….

कुछ दिन पहले मैं सोच रहा था कि मैं भी खाने-पीने के मामले में बड़ा ज़िद्दी हूं….अगर एक बार कुछ ठान लेता हूं कि नहीं खाना तो नही खाना….और मैं यही सोच रहा था कि बहुत सी खाने की चीज़ें मेरी ज़िंदगी से मिलावट की वजह से निकल गईं…..और बहुत सी ऐसी हैं जिन के स्रोत के बारे में अगर मैं आशवस्त नहीं होता तो मैं नहीं खाता ऐसी चीज़ों को …कोई बुरा मनाए, अच्छा मनाए….मैं तो दिल की आवाज़ सुनता हूं….


और हां, कुछ कुछ चीज़ें बदले हुए, बेकार हो रहे स्वाद की वजह से भी छूट गईं…यह सब इसलिए है कि हमने बचपन और युवावस्था में खानेपीने का सुनहरी दौर देखा है …अमृतसर में ….अमृतसर क्या और मथुरा क्या, उस दौर में लोगों को खाने के लिए अच्छा सी मिल जाता था…लालच नहीं था, कोई कीटनाशक इतने नहीं थे, स्प्रे न थे, गोबर की खाद ….और यह सब जेनेटिक्ली मॉडीफाईड का भी कुछ झँझट नहीं था…



यह छल्ली इसी वजह से छूट गई ….बंद गोभी, तोरई मुझे बहुत पसंद थीं, अब कभी कभी ठीक ठाक मिल जाती है तो खा लेते हैं…नहीं खाया जाता ….एक तो बात यह की पहले ये सब चीज़ें सारा साल नहीं बिकती थीं, साल के कुछ महीने ही होते थे बंद गोभी सर्दियों में, तोरई गर्मियों में ….और छल्लीयां भी गर्मी और मानसून के दिनों में ही बिकती थीं….अब तो पता ही नहीं कोल्ड-स्टोर से निकाल कर, अंधाधुंध कीटनाशकों का स्प्रे कर के सब कुछ सारा साल बिकने लगा है ….बस उन की रुह ही गायब है ….


दिक्कत यह है कि जिन लोगों की उम्र मेरे जितने पक चुकी है वही मेरी इस पोस्ट में लिखी बातों से रिलेट कर पाएंगे ….बाकी जिन लोगों ने वह दौर देखा ही नहीं, जो पले-बढ़े ही ये अजीब सी छल्लीयां भुट्टे खा कर हुए हैं, उन को मेरी बातें बोझिल लग सकती हैं….


पांच पैसे की छल्ली ….


आज से 50-55 बरस पहले की बात याद करता हूं तो छल्ली हमें पांच पैसे में मिल जाती थी …छोटी पांच पैसे में और बडी़ दस पैसे में …अब स्कूल से आते वक्त छोटे बच्चों के लिए वह छोटी छल्ली सी नहीं खत्म होती थी…


पूरी ईमानदारी से लिख रहा हूं कि वैसी छल्लीयां जो बचपन और युवावस्था में खा लीं, उन जैसी कभी नहीं खाई…….अब तो कोई स्कोप ही नहीं है ….अब तो भुट्टे इस तरह के बिक रहे होते हैं जैसे किसी खेत से नहीं सीधा किसी फैक्ट्री से निकल कर आ रहे हैं….उधर देखने की इच्छा नहीं होती, क्योंकि बे-स्वाद चीज़ को कोई क्या देखे, जो आदमी रूखा है, ऐंठन-अकड़ के रोग से ग्रस्त है, जब किसी को उस से ही मिल कर खुशी नहीं होती तो फिर यह तो ठहरा एक भुट्टा…..


कैसे तैयार होती थी छल्ली….


उन दिनों अमृतसर में मैं 50-55 साल पहले की बात कर रहा हूं….ये छल्लीयां बेचने का काम उत्तर-प्रदेश और बिहार से आए प्रवासी लोग किया करते थे…..लकड़ी के कोयलों के बारे में तो आप जानते ही होंगे….उन पर ये छल्लीयां भुनी जाती थीं …और पान-चबा रहे उस छल्ली वाले या वाली के होंठ पान से लाल हुए होते थे ….पान चबाना साथ साथ चलता रहता था और हाथ में एक पंखी से हवा की जाती थी ….और एक दो मिनट में बेहतरीन छल्ली तैयार….फिर उसे अच्छे से साफ कर के, उस पर नमक-नींबू लगा कर हमे दे दिया जाता था …


बेहतरीन यादें….


बहुत बाद फिर हम देखते थे भुट्टे को जिस भट्टी पर भुना जाता था, उस पर हवा करने के लिए वह मशीन इस्तेमाल होने लगी जिसे कलई करने वाले इस्तेमाल किया करते थे …लेकिन शायद वह थोड़े वक्त के बाद बंद हो गई…..या मुझे ही नहीं दिखी….लेकिन एक छोटी सी अंगीठी पर छल्ली भुनने का दौर चलता रहा ….आज भी ऐसे ही भुनती होगी लेकिन अब कभी उस तरफ़ जाते ही नहीं ….

कहां कहां खाईं ये छल्लीयां…..


उन दिनों में पिकनिक स्पॉट पर, टूरिस्ट स्पॉट पर छल्लीयां बिका करती थीं …जैसे गिरगांव चौपाटी, जुहू चौपाटी और ऐसे सभी पर्यटक स्थलों पर ये बिकती ही थीं…और सब लोग बड़े चाव से खाते थे….जैसे बाद की पीढ़ी नूडल्स और मोमोज़ की दीवानी हो गई, हम लोग भुट्टे के दीवाने थे ….और यहां तक कि मनाली के आगे रोहतांग पास है ...सुना होगा आपने नाम....जहां बर्फ जमी रहती है ...15 बरस पहले जब हम लोग वहां पर गए तो वहां पर बिहार से आया एक प्रवासी व्यक्ति भुट्टे बेच रहा था ....बस से आता था सुबह मनाली से दोपहर में लौट जाता था बस में ...सारा सामान साथ लेकर आता था ...वहां वे भुट्टे खा कर अच्छा लगा था, भूख लगी हुई थी, यही भुट्टे थे जो आजकल मिलते हैं...बेस्वाद से .बकबके से.......लेकिन वहां पर ठीक लग रहे थे, शायद कमाल भूख का भी होता होगा....😎 हम लोग यही बात करते हुए हंस रहे थे कि पंजाब में तो हम ऐसे भुट्टों को देखते नहीं।


गर्म रेत में भुनी हुई छल्ली ….


रेत में भुनी हुई छल्ली का भी अपना ही ज़ायका होता था…जिसने यह सब खाया है वही जानता है। मुझे यह भी बहुत पसंद थीं……गर्मरेत में दबा कर इसे भूना जाता था…नमक-नींबू लगा कर मज़े से खाना …..वाह क्या दिन थे भई वो भी ….


और वह उबली हुई छल्ली ….


यह मैं पानी में उबली हुई छल्ली को कैसे भूल गया….यह या तो पूरी खा सकते थे जिस पर वह भुट्टे वाला बढ़िया सा मसाला और ईमली की चटनी लगा कर देता था और याद है बचपन में हम लोग उस ईमली की चटनी को चूसते हुए उसे खा जाया करते थे …


और हमेशा जब भी अमृतसर के दुर्ग्याणा मंदिर के बाहर लगने वाले नवरात्रि मेले में जाते थे तो वहां पर दोने में डाल कर छल्ली के उबले हुए दाने मसाले और मीठी चटनी के साथ मिलते थे …बहुत स्वादिष्ट …..


मक्का भुनवाने वाले दिन …


मक्का भी बचपन और जवानी का ऐसा साथी रहा कि इस से जुड़ी सभी बातें याद हैं….उस दौर में स्नैक्स का मतलब यही होता था कि भुजवा (भड़भूंजा पंजाबी में) के पास जा कर मक्का भुनवा कर लाते थे …शहर में कईं जगह इस तरह की भट्ठीयां होती थीं ..जहां पर अधिकतर महिलाएं यह काम बड़ी मेहनत से किया करती थीं….मैं पंजाबी में भी ब्लॉग लिखता हूं और पंजाबी में लिखना मुझे सब से अच्छा लगता है ….जो मैं कहना चाहता हूं सीधा कागज़ पर उतर जाता है ….हां, तो उस पंजाबी ब्लॉग में मैंने छः साल पहले 2019 में एक पोस्ट में ऐसी ही एक भट्ठीवाली बीबी के बारे में अपनी यादें दर्ज की थीं…..अगर आप पंजाबी पढ़ लेते हैं तो इसे मेरे पंजाबी ब्लॉग के इस लिंक कर पढ़ सकते हैं….


ਬਚਪਨ ਦੀ ਭੱਠੀ ਵਾਲੀ ਬੀਬੀ - बचपन की भट्ठी वाली बीबी …..उस के बारे में इतनी यादें हैं कि उन के लिए एक पोस्ट अलग से लिखनी होगी…लेकिन वैसे करने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, लिख दिया है पंजाबी में …देखेंगे कभी अनुवाद करना हुआ तो हो जाएगा…..लिखना भी कभी कभी बोझिल काम लगता है ..जैसे मैंने इस भुट्टों के किस्से तो शुरु कर लिए हैं…लेकिन नींद आ रही है, लिखने की बिल्कुल इच्छा नहीं है, लेकिन मैं जैसा हूं मुझे पता है, अगर बात पूरी हो गई तो हो गई, वरना फिर रह जाती है ….बीसियों पोस्टें ऐसे ही आधी अधूरी पड़ी हैं लैपटाप में….. 


पंजाब में लोग मक्का खरीदते थे लेकिन पहाड़ी मक्का पंसद किया जाता था ….वह मीठा होता था….अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि मक्का भी जैसे हमारे खान पान का अभिन्न अंग था…जब बरसात के बाद सर्दियों में छल्लीयां मिलनी बंद हो जाती थीं तो फिर सूखे मक्के को भुनवा कर ….फुल्ले खाए जाते थे …फुल्ले ..वही जिन्हें अब लोग पॉप-कॉर्न कहते हैं…..पंजाबी में हम फुल्ले ही कहते थे …थे वे कुछ नहीं, ज़ुबान थोड़े न बदलती है…अभी भी फुल्ले ही कहते हैं….सर्दी में ताज़े फुल्ले और साथ में गुड़ शाम के वक्त खाने का क्या नज़ारा होता था, मेरे पास लफ़्ज़ ही नहीं है उस को ब्यां करने के लिए….


मक्की की रोटी ….


मक्की की रोटी और सरसों का साग , यह मैं कैसे भूल गया…..बचपन ही से सरसों के साथ तो मक्की की रोटी खाते ही रहे हैं और साथ में मक्की की रोटी पर देशी घी या मक्खन रख कर गुड़ की शक्कर या गुड़ मेरा मनपसंद खाना रहा है ….अभी हाल तक ….कुछ महीने पहले गुड़ की मिलावट पर एक ऐसी दिल दहला देने वाली वीडियो देखी कि कईं महीने हो गए हैं गुड़ को हाथ नहीं लगाया…वैसे भी इसी बहाने मीठा खाना थोड़ा तो कम हुआ मेरा…..


लो जी 34 वर्ष पहले दिख गए कॉर्न-फ्लैक …..


1991 में पहली बार मैंने कॉर्न-फ्लैक खाए ….कुछ दिन जहां पर रहे वहां पर नाश्ते में ये दिख जाते थे …दूध साथ में रहता था, चीनी भी। अच्छा लगा था पहली बार खाना….फिर कभी कभी खाने लगे ….


शायद थोड़ा बहुत आईडिया तो हो ही गया होगा कि ये मक्के से ही बने हैं…

फिर तो कुछ बरसों तक ये कॉर्न-फ्लैक्स छाए रहे …खाते रहे हम लोग भी …फिर धीरे धीरे जब समझ आई कि जो चीज़ ताजा़ मिल रही है वह फूड है और जो पैकेट में आ गई वह प्रोड्क्ट हो गई ….


बस, ऐसे ही धीरे धीरे कॉर्न-फ्लैक्स से भी मोहभंग हो गया….एक तो कारण यही कि ये प्रोसैस्ड फूड है, दूसरा यही कि इसमें बहुत शक्कर डालनी पड़ती थी…धीरे धीरे छूट गया यह भी खाना….अब तो तरह तरह के फ्लेवर आ गए हैं, चाकलेट वाले, और भी पता नहीं रंग बिरंगे कौन कौन से ..लेकिन मैंने अगर कुछ छोड़ दिया तो फिर छोड़ ही दिया….


भुट्टे की सब्जी ..


पिछले कुछ बरसों से भुट्टे की सब्जी भी बनने लगी है …..लेेकिन हमें जैसे अब भुने हुए भुट्टे खाने में कोई रूचि नहीं है, वैसे ही अब भुट्टे की सब्जी में भी कोई दिलचस्पी नहीं है। बस, यही ख्याल आता है कि जो सब्जी है ही इतनी बेस्वाद सी, बकबकी सी ….वह कितना पोषण दे देगी……

और ये जो बेबी-कॉर्न हैं, ये भी अजीबोगरीब किस्म के दिखते हैं बाज़ार में ….ये कितनी बड़ी तोपे हैं कह नहीं पाऊंगा क्योंकि कभी इन को खाने का शौक नहीं रहा….


छल्ली के फ़ौरन बाद पानी पीने की मनाही ....मां की सीख


बातें याद आती हैं तो पहले उन को लिख देना चाहिए…हमारी माता श्री को हमारे भुट्टे खाने की आदत से कोई एतराज़ न था….लेकिन उन्हें बस यही फिक्र रहती थी कि छल्ली खाने के बाद कहीं यह पानी पी कर अपना पेट न दुखा ले …वैसे, उस दौर में एक और बात लोगों के दिलोदिमाग में थी कि तरबूज खाने के तुरंत बाद पानी नहीं पीना चाहिए वरना बीमार हो जाते हैं….फिर तो हमारी आदत ही बन गई कि छल्ली और तरबूज़ खाने के फ़ौरन बाद पानी नहीं पीना है ….


दूसरी बात यह भी कि जैसे घरों में समोसे, कचौरियां आती थीं -अकसर गिन कर …ऐसे ही दोपहर में बहुत बार सब के लिए एक एक छल्ली लेकर आते थे ….भुट्टे के पत्ते में रखा कर, और कभी कोई भुट्टे वाले के पास कोई कागज़ होता तो वह उन में रख कर दे देता….


घर में सिके भुट्टों में कहां वह बात .....


बात और ...बाज़ार में कच्चे भुट्टे भी बिकते थे ...लेकिन घर में लाकर उन को अंगीठी पर सेंक कर वह मज़ा नहीं आता था जो बाज़ार में बिक रहे भुट्टे खाने से आता था....और बाद में जब ये भुट्टे कुकिंग गैस पर घर में कभी सेंके जाते तो ........तो क्या, भई, एक दम बेकार.....अभी लिखते लिखते याद आई एक बात कि हम लोगों ने स्टोव पर घर में सिके हुए भुट्टे भी खाए हैं, कमबख्त भुट्टों में घासलेट की बास आया करती थी....


वैसे छल्लीयां उन दिनों मीठी ही होती थीं….यह तो मैं पहले ही कितनी बार लिख चुका हूं….अभी एक बात याद आ रही है कि घर में कभी कभी कॉर्न-फ्लोर की बात होती है ….मेरे विचार में कस्टर्ड पावडर में भी यह होता होगा…..उस के ऊपर शायद कुछ लिखा तो रहता है ….मुझे कस्टर्ड खाना बहुत अच्छा लगता था लेेकिन जब से मिल्क और मिल्क प्रोडक्ट्स से किनारा किया है …कस्टर्ड भी छूट गया …


चलिए, अब एक बात लिख कर बंद करूं …बहुत हो गया….पढ़ने वालों को बोरिंग लग सकता है .. क्या करूं, मैं तो जब अपनी डॉयरी लिख रहा हूं तो उसमें सभी बातें जो भी याद आती हैं, दर्ज कर देने को उतावला रहता हूं…जाते जाते यह भी लिखना होगा कि ये जो बातें मैंने ऊपर लिखी हैं और मल्टीप्लेक्स में 400-500 रुपए में मीठे-कोटेड-फ्लेवर्ड पॉप-कार्न वाले टब की बातें क्या एक ही संसार की लगती हैं….