गुरुवार, 18 मार्च 2021

कुछ शुरुआती ख़ुशियां बाद में महंगी पड़ती है...

यह जो हम लोगों की ख़ुशी है न कि अब तो किराने का सामान और फल-सब्ज़ी भी एप से ही बुक कर देते हैं...और अगले दिन सुबह आप के दरवाज़े के बाहर उन सब चीज़ों का पैकेट पड़ा होता है ... बहुत बार डिलीवरी चार्जेज भी नहीं और अगर कुछ छोटी मोटी स्कीम स्बस्क्राईब कर लो तो सारा महीना कुछ भी डिलीवरी चार्जेज नहीं लगता ...आप चाहे तो 30 रूपये का सामान मंगवा लीजिए ...चाहे 3000 का । सुबह उठ कर जब हम उन का थैला चैक करते हैं तो उस में केले की अलग से कार्डबोर्ड के डिब्बे में पैकेजिंग देख कर हैरान होते हैं...चीकू की भी ऐसी ही पैकिंग ....हमें यह पता चलता है कि अंडों के बक्सों के आगे भी खाने पीने की सस्ती सस्ती चीज़ों की भी पैकेजिंग की भी दुनिया है ...

अच्छा, एक बात और ....इतनी इतनी बढ़िया एप्स आ गई हैं कि अगर कोई सब्जी या फल की क्वालिटि आप के मन मुताबिक नहीं है तो आप को बस उस की फोटो खींच कर एप को शेयर करनी होती है, उस आइटम के आप के पैसे लौटा दिए जाते हैं...और ये जब पैसो का लेनदेन डिजीटल ही होता है ...

सुनने में ही कितना बढ़िया लगता है ना....जी हां, लगता तो है लेकिन इस के बारे में गहराई से सोचिए कि इस तरह की जो सुविधाएं हमें एकदम निकम्मा और नकारा सा तो नहीं बना रही ....हमारी तो छोड़िए, हम तो चले हुए कारतूस हैं अब..इस से ज़्यादा और कितना निकम्मा हमें कोई बना पाएगा...हमारी तो बहुत सी ज़िंदगी कट गई लेकिन जब मैं आज के युवाओं के बारे में सोचता हूं और उन का इस तरह की एप पर भरोसा देखता हूं तो मुझे बड़ा डर लगता है ...

अच्छा आप एक बात सुनिए....ये सभी एप्स उस जेनरेशन के हाथ में हैं जिनमें से अधिकतर सभी तरह के जंक फूड पर पल रहे हैं...दालों, सब्ज़ियों के उन्हें नाम तक नहीं आते, खाना तो बहुत दूर की बात है ...अगर खाते भी हैं तो वही पीली वाली, हरी वाली, और राजमाह बस, और सब्जी में कोई बस भिंडी खाता है ...यह वह जेनरेशन है जिसे अधिकतर दालों, सब्ज़ियों के नाम तक तो आते नहीं, बाज़ार जा कर तो वही खरीदेगा न जिसे नाम आते हों या इन चीज़ों की क्वालिटि देखने की भी थोड़ी बहुत गुज़ारेलायक समझ हो ...ठीक है, आप कह रहे हैं कि यह इश्यू तो बड़े बड़े डिपार्टमैंटल स्टोर ने सेटल कर दिया है ...ये लोग वहां चले जाएंगे और वहां से खरीद लाएंगे ...लेकिन वही बात है बहुत सी ऐसी रोज़मर्रा की चीज़ें ऐसी होती हैं जिन्हें अरबपति-खरबपति "सेठों की दुकानों" से खरीदने से मुझे सख्त परहेज है ... दो चार रूपये महंगी सस्ती का सवाल नहीं है, लेकिन अगर हम सब इन धन्ना सेठों की बड़ी दुकानों से ही सब कुछ खरीदते रहेंगे तो अपने गांव से पांच दस किलो सब्ज़ी लेकर शहर में बेचने आए इंसान का क्या होगा, इस के बारे में सोचना भी ज़रूरी है ...उस से खरीदारी करना उस के एवं उस के परिवार के वजूद से जुड़ा हुआ है ... बडे़ सेठों के ऐशो-आराम वैसे ही चलते रहेंगे आप उन के कुछ खरीदें या नहीं ....

मैं जब 50 साल पहले की बातें याद करता हूं तो याद आता है कि हम किसी भी दाल सब्ज़ी को खाने से मना नहीं करते थे..कच्ची मूली गाजर भी खाते थे ..ककड़ी भी, खीरा भी ...हां, कोई एक सब्ज़ी या दाल ज़रूर होती होगी जिसे हम पसंद नहीं करते थे...अपनी बात करूं तो दालें तो सभी खा लेता था, कभी भी नुकुर-टुकुर नहीं, लेकिन सब्ज़ियों में करेला मुझे कभी भी पसंद नहीं (मुझे जितना नापसंद, मेरी नानी को उतना ही पसंद था) ....आज तक भी करेला और ग्वार की फली ही ऐसी दो चीज़ें हैं जिन्हें मैं नहीं खाता...और बचपन ही से रोज़ाना अलग अलग तरह की दालें (कभी कभी दो-तीन दालें मिला कर भी) ...और सब्ज़ियां खाते चले आ रहे हैं...लेकिन जब तक हम लोग स्कूल कालेज जाने लगे लोग इस बात पर फ़ख्र महसूस करने लगे कि उन के बेटों को तो दालों के नाम तक नहीं आते ...पीली दाल, हरी दाल...राजमा बस.....इतना ही ...फिर वक़्त ऐसा आया कि इस बात पर फ़ख्र महसूस किया जाने लगा कि हमारे लाडले को तो राजमा पसंद हैं, किसी का राजा बेटा बस पीली दाल ही खाता है ...अरहर की .....और सब्जी भी ऐसे ही एक दो ही या कोई कोई लाडला तो बस आलू ही खाता है ...

कितना लिखें ....लिखते लिखते थक गए हैं ...हमारा खाना-पीना ठीक नहीं है ...एक तो जिस तरह की कुकिंग हम लोग कर रहे हैं उस की अनेकों दिक्कतें हैं, हमारी सेहत के लिए दुश्वारियां ही पैदा करती है यह कुकिंग ...उस पर भी मैंने अपने बहुत से एक्सपेरीमेंट किए हैं अपने ऊपर ही ...फिर कभी साझा करूंगा ...और ऊपर से हमारी दुनिया भर की एप्स पर बढ़ती हुई डिपेंडेंस ...किसी भी चीज़ के बारे में जानने की ज़रूरत ही क्या है, सब कुछ दिख रहा है साइट पर....क्लिक करो और सिरदर्दी खत्म। 

नहीं ऐसा नहीं है ....जब भी हम लोग बाज़ार जाते हैं ...वहां हम बीस रूपये के आलू-प्याज़ ही नहीं खरीदने जाते ...हमें वहां जाकर दुनिया से रू-ब-रू होते हैं ...उन लोगों के रहन-सहन-बातचीत से रू-ब-रू होते हैं जिन के बीच हमें ज़िंदगी काटनी है ...हम हर सिचुएशन में, हर स्तर पर बात करना सीखते हैं....ये बातें लेटे लेटे ऑनलाइन नहीं सीखी जातीं ...टमाटर, नींबू और चीकू की सही क्वालिटी देखने के लिए उसे हाथ से टटोलना ही पडेगी ...ज़्यादा पकी हुई भिंडी और फली का पता एप से नहीं चलेगा ....और भी बहुत सी चीज़ें हैं जिन्हें बाज़ार जाकर ठेले पर खड़े होकर ही सीखा जा सकता है ....क्योंकि यह थ्यूरेटिकल ज्ञान नहीं है ... इतना प्रैक्टीकल है कि अगर गल्ती करेंगे तो उस रात के खाने का ज़ायका ही बदल जाएगा बिल्कुल.... है कि नहीं।

अच्छा एक बात और भी है ...आज कल मां-बाप बहुत ज़्यादा प्रोटैक्टिव भी हो गए हैं... उन्हें लगता है कि वे खरीदारी खुद ही कर लेंगे ...राजा बेटा कहां परेशान होगा...लेकिन यही गलती है ..खरीदारी उन्हें इस तरह से ख़ुद बाज़ार जा कर हम लोग करने नहीं देते, इन सब चीज़ों को अमूमन खाते वो हैं नहीं....जंक फूड का बोलबाला है ... कुकिंग में इन की कोई दिलचस्पी है नहीं ...ऐसे में वही स्टिरियोटाइप पैदा होते रहेंगे सदियों तक -कम से कम इस देश में ...जहां दुनिया भर का बोझ ...घर का सामान लाने का, तैयार करने का, और हंसते हंसते परोसने का सारा जिम्मा घर की गृहिणी का ही होता है ... और फिर सभी के खाने के बाद अपने खाने की सुध लेना और बाकी बचे सामान को पहले ही से ठूंसे पड़े फ्रिज में कैसे भी ठूंस देना ...क्योंकि उसे ही ये सब ख़त्म करना है ...बाकी तो घर में सभी लाट-साब हैं जिनकी तबीयत फ्रिज में रखी चीज़ें खाने से बिगड़ जाती है ...सोचता हूं कैसी व्यवस्था है इस मुल्क में भी ....एक गृहिणी जो 365 दिन बिना किसी छुट्टी के सारा दिन पिसती है ....हर चीज़ का ख्याल रखती है और किसी के पूछे जाने पर हाउस-वाईफ इस तरह से कहती है मानो कोई ज़ुर्म हो हाउस-वाईफ होना ....और जो महिलाएं आफिस के साथ साथ घर का काम भी देखती हैं ...उन की सोचिए....

अब ज़माना आ गया है इन को इन सब बेढि़यों से आज़ाद करने का - ये हम पुरूष लोग ही तोड़ेंगे तो होगा ...हरेक को आज़ादी पसंद है ...इतना कोई क्रांतिकारी काम भी नहीं करना हमें ...बस, हमें खाना बनाना-पकाना और बाज़ार से सामान लाने की जिम्मेदारी थोड़ी शेयर करनी चाहिए ...मैंने देखा है जिन घरों में बच्चे बचपन में (विशेषकर लोंडे) कुछ काम करना धरना तो दूर, पानी का गिलास तक खुद उठा कर नहीं पीते, आगे चल कर जब वे नौकरी-चाकरी के सिलसिले में बाहर जाते हैं तो वे महीने में हज़ारों रूपये खर्च कर भी भूखे ही रहते हैं ....पौष्टिकता तो गई तेल नहीं ...जंक फूड खा-खाकर भी पेट कहां भरता है.....एक भयंकर किस्म का कुपोषण जिसे सैलरी पैकेज के नशे में चूर जेनरेशन समझ नहीं रही ....इस की समझ आती है 35-40 साल के होने के बाद ...

बाज़ार जाएंगे ...कुछ खरीदेंगे अपने हाथ से ...तो कुछ नया भी ज़ूरूर पता चलेगा...मेरी इतनी उम्र हो गई है लेकिन मुझे याद नहीं कि मैं जिन भी शहरों में रहा हूं या जाता हूं वहां पर मैं जिस दिन भी बाज़ार कुछ लेने गया हूं और कुछ नया न देखा हो या सीखा हो ...मैं सात आठ साल लखनऊ में रहा और वहां पर मैंने कईं तरह की ऐसी सब्जियां देखीं जिन के बारे में हम लोगों ने कभी पंजाब-हरियाणा के बारे में सुना भी नहीं था..इन के बारे में मैं पिछले बरसों में ब्लॉग भी लिखता रहा हूं ...और बहुत सी दालों-अनाजों के बारे में पता भी दुकान पर जा कर ही चलता है ...एप पर तो सारी जानकरी काम-चलाऊ ही हो सकती है ...

कटहल की सब्जी तो खाते ही रहे हैं अकसर...

अभी कल ही की बात है ..शाम के वक्त मैं बाज़ार से गुज़र रहा था कि मेरी नज़र इस रेहड़ी पर पड़ी  जिसमें वह कटी हुई कटहल से यह फल जैसा कुछ निकाल रहा था ...देखा तो मैंने पहले भी यह बहुत बार था ...लेकिन कभी खाया नहीं, कभी खरीदा नहीं ...यही सोच कर कि पता नहीं इस कटहल का स्वाद कैसा होगा ...लेकिन कल मैं उस दुकानदार का उत्साह देख कर रुक गया...100 रुपये का आधा किलो खरीदा ... पहली बार चखा इसे कल ...लेकिन मैं इतनी अद्भुत चीज़ पहले कभी नहीं खाई...इतना बढ़िया स्वाद लगा इसका। 

वाह ही कटहल ....काश! तुम्हें इस रूप में पहले कभी चखा होता...

इस पोस्ट को बंद करते करते बस इल्तिजा यही है कि जब तक शरीर में दम है, घुटनों में थोड़ा भी दम-खम है, उन्हें ज़हमत दीजिए, खुद चल कर जाइए, सामान लाइए....बहुत सी बातें पता चलती हैं, कुछ नया सीखते हैं कुछ नया खाने को मिलता है ...और रही गुफ्तगू की बात ...इस सोशल-वोशल मीडिया के चक्कर में हम लोग वैसे ही लोगों से रू-ब-रू मिलने से कन्नी कतराने लगे हैं, हम वाट्सएप पर ही शेर बने घूमते हैं (मेरे जैसे) ....किसी से आमने-सामने बात करते हमें झिझक महसूस होती है...हम लोगों को एवॉयड करते हैं...(जितना काम के सिलसिले में ज़रूरी है उतना ही इंट्रेक्शन करते हैं ...धीरे धीरे लाइफ-स्किल्स भी कमज़ोर पड़ने लगी हैं....बस सॉफ्ट-स्किल्स के वाट्सएप स्टेट्स पढ़ कर थम्स-अप कर देते हैं) ....और अगर अब साग-सब्जी, फल-फ्रूट भी एप के ज़रिए घर के किवाड़ की खूंटी पर ही टंगे मिलेंगे रोज़ाना सुबह तो ऐसे तो हम दुनिया से बिल्कुल कट के ही न रह जाएं....

एक बात और ध्यान में आई बाज़ार जाने के नाम से ..बचपन में हम लोग मां की उंगली पकड़ कर सब्ज़ी लेने बाज़ार जाते थे ...आते वक्त मां के दोनों हाथों में सब्ज़ी से भरे थैले होते थे और हमें उंगली पकड़ने को नहीं मिलती थी ..इसलिए मां को बार बार हमारे ऊपर ध्यान रखना पड़ता था ...और एक मध्यम वर्गीय बजट में मां इतनी खरीदारी करने के बाद भी बाज़ार के आखिर में खड़े गन्ने के रस वाले या कप में मिलने वाली आइसकीम के लिए पैसे भी ज़रूर बचा कर रखती थी क्योंकि वह फरमाईश हमारी पक्की होती थी और मां ने कभी निराश नहीं होने दिया .....खुद कभी हमारे साथ उस आइस-क्रीम या गन्ने के रस का लुत्फ़ उठाया हो मां ने, हमें तो यह भी अच्छे से याद नहीं, हमें ज़िंदगी के उस दौर में यह सब सोचने की फ़िक्र ही कहां थी ....आज फ़िक्र ही फ़िक्र है लेकिन मां गायब है..