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शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

कुपोषित बच्चे --- मध्यप्रदेश हो या पंजाब, की फ़र्क पैंदा ए !!

कल सुबह मैं बीबीसी की एक रिपोर्ट पढ रहा था ---यह भारत में कुपोषण का शिकार बच्चों के ऊपर थी। बेशक एक विश्वसनीय रिपोर्ट थी---यह पढ़ते हुये मुझे यही लग रहा था कि जिन बड़े लोगों को लाखों-करोड़ों रूपये रिश्वत में लेने की कभी न शांत होने वाली खुजली होती है या जो लोग इतनी ही बड़ी रकम के घपले कर के दिल के दर्द की बात कह कर बड़े बड़े अस्पतालों में भर्ती हो जाते हैं, उन्हें इस तरह की रिपोर्टें दिखानी चाहियें ---- शायद वे चुल्लू भर पानी ढूंढने लगें ---- लेकिन इन दिल के दर्द के मरीज़ों के पास दिल कहां होता है ?

यह रिपोर्ट पढ़ते हुये मेरा ध्यान अपने फुरसतिया ब्लॉग के श्री अनूप शुक्ल जी की तरफ़ जा रहा था --एक बार उन्होंने मुझे इ-मेल की थी कि उन्होंने मेरी तंबाकू वाली सचित्र पोस्टों के प्रिंट आउट अपने ऑफिस में लगा रखे हैं और इस से उन के ऑफिस में काम कर रहे बहुत से वर्करों को तंबाखू, गुटखा, पानमसाला छोड़ने की प्रेरणा मिलती है।

लेकिन इस देश से रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार को उखाड़ने के लिये क्या करना चाहिये --- मुझे लगता है कि जो लोग इस तरह से पैसा इकट्ठा करने में लगे रहते हैं उन के दफ्तरों में बड़ी बड़ी हस्तियों की तस्वीरें टांगने से तो कुछ नहीं होता ----सीधी सी बात है कि इन्हें इन तस्वीरों के बावजूद भी शर्म नहीं आती ----लेकिन ये इन तस्वीरों की आंखों ज़रूर झुका देते होंगे। अगर इस तरह की रिपोर्टों के प्रिट आउट सामन रखने में ऐसे लोगों को कोई झिझक महसूस हो तो कम से कम भ्रष्टाचार की आंधी में अंधे हो चुके ये लोग गांधीजी के उस कथन का ही ध्यान कर लिया करें ----जिस में उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें एक तैलिसमैन ( Touchstone) देता हूं --जब भी आप कोई काम करने लगो तो देश के सब से गरीब आदमी की तस्वीर अपनी आंखों के सामने रख कर यह सोचो कि मेरा यह फैसला क्या उस अभागे आदमी का कुछ भला कर के उस की तस्वीर बदल सकता है ?

ऐसे रिश्वतखोरों के दफ़्तर में बीबीसी की इस रिपोर्ट के प्रिंट आउट उन के ऑफिस के पिन-अप बोर्ड पर या फिर टेबल के कांच के नीचे रखे होने चाहिये जिस पर कागज़ रख कर वे किसी बात के लिये अपनी सहमति देते हैं ---शायद इन बच्चों की तस्वीरें देख कर उन का मन बदल जाए।

रिपोर्ट में बड़ा हृदय-विदारक दृश्य बताया गया है ---यह भी नहीं है कि यह सब हम लोग पहले ही से नहीं जानते ---लेकिन बीबीसी संवाददाता ने जिस तरह से पास से इसे कवर किया है वह इन तथ्यों को अत्यंत विश्वसनीय बना देता है।

रिपोर्ट में मध्यप्रदेश की बात की गई है --- वहां पर एक करोड़ बच्चे हैं और जिन में से 50से 60प्रतिशत भूखमरी एवं कपोषण का शिकार हैं। इस बीमारी का इलाज करवा रहे बच्चों के पास संवाददाता गया। इस तरह के बच्चों का वर्णऩ भी इस रिपोर्ट में है जो कि इतने कमज़ोर हैं कि वे खाना न खाने/चबाने की हद तक लाचार हैं।

रिपोर्ट में साफ़ कहा गया है इस सब के लिये बहुत सी बातें जिम्मेदार हैं ---- पिछले कुछ सालों से सूखा पड़ा हुया है, भ्रष्टाचार है ----विभिन्न स्तरों पर है, इन बच्चों के लिये आने वाले राशन को इधर-करने पर भी इन सफेदपोश लुटेरों का दिल नहीं पसीजता----केवल इस लिये कि कुछ एफ.डी और जमा हो जाएं, कुछ शेयर और खरीद लिये हैं या फिर छोटी उम्र में ही बहुत से प्लॉट खरीद लिये जाएं ------लेकिन स्वर्ग-नरक यहीं हैं ----- ऐसे लोगों को बड़ी बड़ी बीमारियों से कोई भी बचा नहीं सकता क्योंकि अकसर इस तरह के स्मार्ट लोग इतने स्ट्रैस में जीते हैं कि सारी सारी उम्र की कमाई बड़े बड़े कार्पोरेट अस्पतालों को थमा कर इन्हें अपने पापों का प्रायश्चित तो करना ही पड़ता है।

हां, तो कल शाम मैं और मेरी मां अंबाला छावनी से जगाधरी की लोकल ट्रेन में सफ़र कर रहे था --- सामने वाली सीट पर एक दादी अपने दो पोतों के साथ बैठी हुई थी --- 13-14 साल की उम्र के थे वे दोनों लाडले। 50-55 मिनट का सफ़र है---लेकिन जब हम लोग गाड़ी में चढ़े तो उन्होंने ने बिस्कुटों का एक एक पैकेट पकड़ा हुआ था ----उस के बाद प्यारी दादी ने उन्हें ब्रैड-पकोडे खरीद कर दिये ---- अभी वे खत्म ही नहीं हुये थे कि दादी अम्मा ने अपने पिटारे से मठरीयां निकाल लीं और साथ में भुजिये का पैकेट पड़ा था और तली हुई मूंगफली बेचने वाले को भी दादी ने यूं ही जाने नहीं दिया ----इस के बाद बारी आई घर में बने रोटियों की नींबू के आचार के साथ खाने की।

कमबख्त नींबू के आचार के महक इतनी बढ़िया कि मेरी जैसे पास बैठे बंदे का जो दिल मितला रहा था वह उस की रूहानी खुशबू से ही ठीक हो गया। लेकिन दादी के बार बार मिन्नतें करने के बाद भी उन लाडले पोपलू बच्चों ने रोटी नहीं खाई ---- आखिर हार कर दादी खुद ही खाने लगीं। दादी उन्हें बार बार यह कहे जा रही थी कि गाड़ी में खाने का बहुत मज़ा आता है ( जिस से आप भी सहमत होंगे) और उस बेचारी ने तो इतना भी कहा कि साथ में वह उन को चाय भी दिला देगी ---- लेकिन उन दुलारों के पेट में जगह भी तो होनी चाहिये थे -----और वैसे भी जब इतनी लाडली दादी साथ तो भला कौन पड़े घर की रोटियों के चक्कर में !!

कल ही सुबह मध्यप्रदेश के बच्चे में कुपोषण की बातें पढ़ीं थीं और शाम को गाड़ी में मैं पंजाब-हरियाणा में कुपोषित बच्चे तैयार होने की प्रक्रिया देख कर यही सोच रहा था कि काश, लोग समझ लें कि बच्चों का यह खान-पान भी उन्हें कुपोषण की तरफ़ ही धकेल रहा है। दादी जी, फूल कर कुप्पा हो रहे बबलू-पपलू की सेहत पर थोड़ा सा रहम करो।

क्या इस तरह बच्चों को खाय-पिया लग जायेगा ?

हनी, हम लोग बच्चों को मार रहे हैं !!

वैसे, इस गाने में भी ये लोग अपने हिंदोस्तान की ही बात कर रहे हैं ना ?

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

भारत ने किया हैजा-रिवार्ड घोषित

अभी अभी मैं बीबीसी न्यूज़ की साइट देख रहा था --जब मैंने इस तरह की खबर का शीर्षक देखा तो मुझे भी जानने की बहुत उत्सुकता हुई कि यह कैसा रिवार्ड। लिंक पर क्लिक करने पर पता चला कि उड़ीसा के कालाहांडी़ जिले में हैजे के तीन केस मिलने के बाद उड़ीसा के स्वास्थ्य-मंत्री द्वारा यह रिवार्ड घोषित किया गया है।
अब हैजे के किसी मरीज की जानकारी देने वाले को 200 रूपये का इनाम मिलेगा और जो हैजे का मरीज ठीक हो कर अस्पताल से घर जायेगा उसे लौटते हुये कुछ कपड़े एवं 200 रूपये दिये जायेंगे।
इस समाचार को स्वयं पढ़ने के लिये यहां क्लिक करिये।

इस नगद इनाम को देने का कारण यह बताया जा रहा है कि दूर-दराज में रहने वाले लोग इस बीमारी से ग्रस्त होते हुये भी यह समझते रहते हैं कि उन्हें भगवान द्वारा किसी कर्म की सज़ा दी जा रही है और इन सब धारणाओं के रहते वे अस्पताल नहीं आते।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

इस कैंडी को तो आप भी ज़रूर ही खाया करें ...




दो-तीन दिन पहले मैं अपनी माता जी के साथ बाज़ार गया हुआ था ---रास्ते में वे बाबा रामदेव के एक औषधालय के अंदर शहद लेने गईं ---मैं बाहर ही खड़ा हुआ था, जब वह बाहर आईं तो हाथ में दो पैकेट पकड़े हुये थे जिन्हें उन्होंने मेरी तरफ़ सरका कर खाने के लिये कहा।

यह निराली कैंडी मैंने पहली बार देखी थी – आंवला कैंडी – दो तरह के पैकेट में यह दिखीं। इस का स्वाद बहुत बढ़िया था। अब आंवले के गुण तो मैं क्या लिखूं---- बस, केवल इतना ही कहूंगा कि इसे प्राचीन समय से अमृत-फल के नाम से जाना जाता है और यह आंवला तो गुणों की खान है। यह आंवला कैंडी का 55 ग्राम का पैकेट 10 रूपये में मिलता है। यह बाबा रामदेव की दिव्या फार्मेसी द्वारा ही बनाया जाता है , इसलिये हम लोग इस की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं।

मैं जब भी अपने मरीज़ों को आंवला खाने की सलाह देता रहा हूं तो अकसर तरह तरह की प्रतिक्रियायें देखने-सुनने को मिलती रही हैं। कुछ तो झट से कह उठते हैं कि उस का तो स्वाद बहुत ही अजीब सा होता है, वह हम से तो नहीं खाया जाता।

अब मरीज़ों को जो भी बात कहनी होती है तो बड़ी सोच समझ कर कहनी होती है क्योंकि अधिकतर मरीज़ डाक्टर के मुंह से निकली बात को ब्रह्म-वाक्य समझ कर उस पर अमल करना शुरू कर देते हैं। यह मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि बाज़ार से लेकर आंवले का मुरब्बा खाना आम आदमी के लिये थोड़ा बहुत महंगा ही है ---अगर तो इसे केवल किसी बीमार द्वारा ही लिया जाना हो तो शायद चल सकता है लेकिन अगर हम चाहते हैं कि एक औसत परिवार का हर सदस्य इस का नित्य-प्रतिदिन सेवन करे तो इस के इस्तेमाल का कोई सस्ता और टिकाऊ तरीका ढूंढना होगा।

यह आंवले का मुरब्बा तो मैं भी कभी कभी लेता रहा हूं ---- लेकिन बाज़ार में बिकने वाले मुरब्बा से मैं कोई ज़्यादा संतुष्ट नहीं हूं ---- बहुत अच्छी अच्छी दुकानों पर जिस तरह से बड़े बड़े टिन के डिब्बों में जिस तरह से इन की हैंडलिंग की जाती है , वह देख कर अजीब सा लगता है । व्यक्तिगत तौर पर मैं कम से कम अपने सेवन के लिये तो इस आंवले के मुरब्बे को बाज़ार से खरीद कर खाने के पक्ष में नहीं हूं---- और इस के कईं कारण हैं, दुकानों पर इस की इतनी बढ़िया हैंडलिंग न होना इस का एक मुख्य कारण है।

मैं अकसर जब मरीज़ों को आंवले के सेवन की बात कहता हूं तो वे समझते हैं कि मैं केवल इस के मुरब्बे की ही बात कर रहा हूं। कईं लोग मुरब्बे वाले आंवले को पानी से धो कर इस्तेमाल करने की बात भी करते हैं ---- क्योंकि उन्हें यह बहुत मीठा रास नहीं आता।

कईं बार मुझे अपने प्रयोग भी किसी किसी मरीज़ के साथ बांटने ज़रूरी हो जाते हैं --- क्योंकि हम सब लोग एक दूसरे से अनुभवों से ही सीखते हैं। कुछ साल पहले मुझे फिश्चूला की तकलीफ़ हो गई थी ---मैं लगभग चार पांच साल तक बहुत परेशान रहा --- अब क्या बताऊं कि चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़ा होने के बावजूद भी मैं आप्रेशन करवाने के नाम से ही कांप उठता था --- मैं सोचा करता था कि अगर मैं आंवले का नियमित प्रयोग करता रहूंगा तो शायद धीरे धीरे सब कुछ अपने आप ही ठीक हो जायेगा लेकिन ऐसा कभी होता है क्या !--- जयपुर के सर्जन डा. गोगना जी से आप्रेशन करवाना ही पड़ा और पूरे छ- महीने ड्रेसिंग चलती रही थी।

इस बात लिख कर मैं तो बस यह बात रेखांकित करना चाहता था कि मेरी उन चार-पांच साल तक चलने वाली तकलीफ़ के दिनों में इस आंवले में एक सच्चे मित्र की तरह मेरा पूरा साथ दिया। सर्दी के मौसम में तो जब आंवला बाज़ार में बिकता है उन दिनों तो मैं इसे उसी रूप में ही लेना पसंद करता हूं। इस का एक बहुत ही आसान हिंदोस्तानी तरीका है ----आंवले का आचार --- पंजाब में सर्दी के दिनों में यह बहुत चलता है।

अच्छा जब कभी आचार नहीं होता था तो मैं एक आंवले के छोटे छोटे टुकड़े कर लिया करता था और आचार की जगह इन टुकड़ों को खा लिया करता था ---इस तरह से भी ताज़े आंवले का सेवन कर लेना बहुत आसान है, इसे आप भी कभी आजमाईयेगा।
अच्छा तो जब ताज़े आंवले बाज़ार में नहीं मिलते तो तब क्या करें ---- सूखे आंवले का पावडर बना कर एक-आधा चम्मच लिया जा सकता है और यह भी मैं लगभग दो साल तक लेता रहा हूं। वो बात अलग है जिस शारीरिक तकलीफ़ का उपाय ही सर्जरी है , वह तो आप्रेशन से ही ठीक होगी लेकिन इस तरह से आंवले के इस्तेमाल से मेरा पेट बहुत बढ़िया साफ़ हो जाया करता था और मैं सौभाग्यवश उस फिश्चूला की जटिलताओं से बचा रहा।

आंवले की यह कैंडी भी बहुत बढ़िया आइडिया है --- आज कल जब बच्चे सब्जियां तक तो खाते नहीं है, ऐसे में उन से यह अपेक्षा करना कि वे आंवला खायेंगे, क्या यह ठीक है ? लेकिन मेरे विचार में उन्हें आंवले का सेवने करने के लिये प्रेरित करने के लिये इस आंवला कैंडी से बढ़िया कोई चीज़ है ही नहीं ---- इस का सेवन करने के बहाने वे आंवले के लिये अपना मुंह का स्वाद भी डिवैल्प कर पायेंगे जो कि इन की सारी उम्र मदद करेगा।

क्या है ना इस तरह की दिव्य वस्तुओं के लिये स्वाद डिवैल्प होना भी बहुत ज़रूरी है --- अब हम लोगों को बचपन से ही आदत रही है कि गला खराब होने पर मुलैठी चूसनी है और हम दो एक दिन में बिल्कुल ठीक भी हो जाया करते थे ....लेकिन अब हम लोग अपने बच्चों को इस का इस्तेमाल करने को कहते हैं तो वह नाक-मुंह सिकोड़ते हैं, और इस तरह से दिव्य देसी नुस्खों से दूर रह कर बिना वजह कईं कईं दिन तक दुःख सहते रहते हैं।

एक बार और भी है ना कि इस तरह की कैंडी खाते वक्त इसे ज़्यादा खा लेने से डरने वाली भी कोई बात नहीं --- जैसा कि मैंने उस पैकेट को दो-एक घंटे में ही खत्म कर दिया क्योंकि मुझे इस का स्वाद बहुत बढ़िया लगा। हां, अगर ज़्यादा मीठा सा लगे तो खाने से पहले धो लेंगे तो भी चलेगा।

आंवले इतने सारे दिव्य-गुणों की खान है कि इसे खाने का जहां भी मौका मिले उस से कभी भी न चूकें। और खास कर जब आंवला-कैंडी ऐसी कि बच्चे भी इसे बार बार चखने के लिये मचल जायें। तो, मेरा आपसे अनुरोध है कि आप इस आंवला कैंडी का खूब सेवन किया करें----- आज बाबा रामदेव की संस्था दिव्य फार्मेसी द्वारा तैयार इस आंवला कैंडी के लिये इस पोस्ट के माध्यम से विज्ञापन लिख कर बहुत अच्छा लग रहा है----शायद यह पहली बार है कि जब मैं किसी वस्तु का अपनी इच्छा से विज्ञापन कर रहा हूं ----- आप जिस भी शहर में हैं वहां पर बाबा रामदेव की फार्मेसी से ये सब प्राडक्ट्स आसानी से उपलब्ध होते हैं।

पांच-छः साल पहले मैं आसाम में जोरहाट में एक लेखक शिविर में गया हुआ था ---वह मुझे यह देख कर बहुत अच्छा लगा कि कुछ दुकानों पर पान-मसालों एवं गुटखों के पैकेटों के साथ साथ सूखे आंवले के छोटे छोटे पाउच एक-एक रूपये में भी बिक रहे थे ---वहां मुझे यही विचार आ रहा था कि आदमी की ज़िंदगी भी क्या है ----दिन में बार बार उसे किन्हीं दो चीज़ों में से एक को चुनना होता है और इस च्वाईस पर ही उस का भविष्य निर्भर करता है ---अब जोरहाट वाली बात ही लीजिये कि बंदा चाहे तो एक रूपये में आंवले जैसे अमृत-फल का सेवन कर ले और चाहे तो एक रूपये का पान-मसाला एवं गुटखा रूपी ज़हर खरीद कर आफ़त मोल ले ।।

शनिवार, 17 जनवरी 2009

आखिर कैसे आ सकता है हमारा सारा सिस्टम लाइन पर

बहुत हो गई ये बातें ---- गर्भाशय के कैंसर के लिये यह टीका, प्रोस्ट्रेट के कैंसर से बचाव के लिये ये वस्तुयें लाभदायक हैं, विटामिन-डी की रोज़ाना खुराक से दिल के दौरे से होता है बचाव, इस विटामिन से एलज़िमर्ज़ की रोकथाम, उस विटामिन से यह लाभ, उस मिनरल से यह होता है, उस से फलां बीमारी का बचाव होता है--- बिल्कुल ठीक सोच रहे हैं, इस तरह की इतनी सारी बातें तो जानने मात्र से ही थक जायेंगे ---उन्हें अमल में कैसे लाया जायेगा ! पहले तो इन्हें कहीं नोट करने के लिये अच्छी खासी डायरी चाहिये।

चलिये मुख्य बातें तो कोई मान भी ले----लेकिन अधिकर बातें और इस प्रकार की अधिकतर सिफारिशें माननी बहुत ही मुश्किल हैं ----वैसे तो विभिन्न कारणों की वजह से यह सब कुछ मानना नामुमकिन सा ही जान पड़ता है।
और दूसरी तरफ़ यह भी सोच रहा हूं कि कितने समय तक हम लोग तरह तरह की बीमारियों के लिये प्रदूषण, कीटनाशकों के अंधाधुध उपयोग, मिलावटी खानपान को दोष मड़ते रहेंगे ---- चलिये, यह भी सच है कि इन सब में तो गड़बड़ है ही , लेकिन ज़रा हम लोग अपनी जीवनशैली की तरफ़ नज़र दौड़ायें।

इसी गड़बड़ जीवनशैली की वजह से ही इतनी सारी बीमारियां बढ़ती जा रही हैं----उच्च-रक्तचाप, मधुमेह आदि की तो बात अब क्या करें—इन्होंने तो अब एक महामारी का रूप धारण कर लिया है, चिंता की बात यह भी है कि दिन में कितने ही मरीज़ ऐसे मिल जाते हैं जिन में कोई थायरायड़ के लिये दवाईयां खा रहे होते हैं , और कितने ऐसे मिलते हैं जो अपने बड़े हुये यूरिक एसिड के लिये दवाईयां लिये जा रहे हैं......बात ठीक भी है कि अब किसी को तकलीफ़ होगी तो दवाई तो लेनी ही पड़ेगी क्योंकि अगर दवाई नियमित तौर पर नहीं ली जायेगी तो ये थायराइड की तकलीफ़ एवं यूरिक एसिड की प्राब्लम बहुत गड़बड़ कर देती है।

लेकिन मेरा विचार है कि ठीक है कि दवाई डाक्टरी सलाह के मुताबिक ले ली जाये, लेकिन इस के साथ साथ उस के लिये यह भी शायद बहतु ही ज़रूरी है कि क्या हम लोग खाने पीने में क्या कोई संयम भी बरत रहे हैं, क्या ऐसा कुछ कर रहे हैं जिस से कि शरीर का सारा सिस्टम ही लाइन पर आ जाये। मुमकिन है कि जब सारा सिस्टम ही लाइन पर आ जाये तो डाक्टर लोग इन तकलीफ़ों के लिये दी जाने वाली दवाईयां भी लेने के लिये हमें मना कर दें।

तो फिर सिस्टम लाइन पर आये तो आये कैसे !!---जो मैंने आज तक सीखा वह यही है कि इस सिस्टम को अंग्रेज़ी डाक्टरी के द्वारा तो लाइन पर लाना बहुत मुश्किल है --- इस के लिये केवल और केवल एक ही रास्ता है ---- कि सदियों पुरानी योग विद्या की शरण लेनी पड़ेगी ----- रोज़ाना शारीरिक परिश्रम करना होगा, योग क्रियायें करनी होंगी ---कम से कम प्राणायाम् नित्य करना होगा और सब से महत्वपूर्ण नित्य ध्यान (मैडीटेशन) करना होगी ---- और इस से साथ साथ सभी तरह के व्यसनों से बचना होगा, शुद्ध सात्विक आहार लेना होगा और मांसाहार से बचना होगा ---- ( मांसाहार से बचना मेरा नुस्खा नहीं है ---- लेकिन मैं अपनी इच्छा से इस का बिल्कुल भी सेवन नहीं करता हूं)।

सचमुच प्रवचन दे देना भी बहुत आसान है ---ये सब बातें जानता हूं लेकिन फिर भी सुबह सवेरे उठ कर सैर ना करने के नित्य प्रतिदिन नये नये बहाने ढूंढता हूं ----शायद पिछले एक-डेढ़ महीने से सैर नहीं की -----पिछले लगभग डेढ़ दो साल से प्राणायाम् करने का आलस्य करता रहता हूं ---- और ध्यान भी परसों कितने ही महीनों बाद किया है --- मैंने यह सब अच्छे से गुरू-शिष्य परंपरा के नियमों में रह कर सीखा हुआ है लेकिन पता नहीं क्यों टालता रहता हूं ----टालता ही रहता हूं ----जब सुबह नेट पर बैठ कर ब्लागवाणी या चिट्ठाजगत की सैर करता रहता हूं तो बार बार यह अपराधबोध होता रहता है कि यार, यह समय यह काम करने का नहीं है , 30-40 मिनट बाहर भ्रमण कर लिया जाये...........लेकिन मैं भी पक्का ढीठ हूं -----क्या करूं ?---- मेरी समस्या ही यही है कि मैं अपने आप से इस तरह के वायदे रोज़ाना करता हूं कि कल से यह सब शुरू करूंगा लेकिन पता नहीं मैं कब लाइन पर आ पाऊंगा ----वैसे इस समय आप बिल्कुल ठीक सोच रहे हैं कि –पर उपदेश कुशल बहुतेरे !!

सोच रहा हूं कि इस वक्त इस पोस्ट को ठेल कर आधे घंटे के लिये बाहर घूम ही आता हूं ---वैसे तो एक सुपरहिट बहाना पिछले कुछ अरसे से सैर न कर पाने का यही रहा है कि बाहर ठंडी बहुत होती है ----लेकिन मुझे शत-प्रतिशत पता है कि यह मेरी कोरी बहानेबाजी है ----और भी क्या कोई काम इस मौसम में करने से रह जाता है ? नहीं ना , तो जो बातें हमें लाइन पर चलाये रखती हैं उन पर ही अमल करने में हम इतने कमज़ोर क्यों पड़ जाते हैं , पता नहीं, यह सब मेरे साथ ही होता है -----लेकिन मेरे साथ होना तो और भी ठीक नहीं है क्योंकि समाज हम डाक्टर लोगों की जीवनशैली को एक आदर्श मान कर उस का अनुसरण करना ही करना चाहते हैं ।

वैसे लाइफ को लाइन पर लाने के मैंने अभी तक के अपने सारे तजुर्बे को मैंने ऊपर दो-तीन हाइलाइटिड पंक्तियों में सहेज दिया है ---आप ने भी नोट किया होगा कि इन मे विटामिन की गोलियों की कहीं बात नहीं हो रही, किसी टानिक को पीने के लिये नहीं कहा गया है, कोई हाई-फाई बातें भी नहीं की गई हैं -------- मन तो कर रहा है कि इन पंक्तियों को फ्रेम करवा कर हमेशा अपने सामने रखा करूं --- लेकिन जब तक इन पर मैं पूरी तरह से अमल नहीं करता तब तक इस ज्ञान से क्या हासिल ---- जब ज्ञान व्यवहार में ढले तो जीवन का श्रृंगार बने !

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

ब्लड-प्रैशर का यह कैसा हौआ है ?....2

मैंने कुछ महीने पहले भी ब्लड-प्रैशर के इस हौवे के बारे में कुछ लिखा था जो यहां पड़ा हुया है, आज सुबह जब अपना रूटीन ब्लड-प्रैशर चैक करवाया तो अचानक उस के आगे फिर से कुछ लिखने की इच्छा हो गई। तो उस के आगे शुरू करता हूं।

आज मैंने जब ऑटोमैटिक मशीन से अपना ब्लड-प्रैशर चैक करवाया तो एक बाजू में 142/92 तथा दूसरी बाजू में 142/94 आया। यह ऑटोमैटिक मशीन वही वाली जिस के कफ को बाजू पर बांधने के बाद एक बटन दबा देने से कफ में अपने आप ही हवा भरनी शुरू हो जाती है और कुछ समय बाद ब्लड-प्रैशर की रीडिंग आ जाती है।

चूंकि पास में ही ब्लड-प्रैशर चैक करने की वह कन्वैंशनल मशीन ( स्फिगमोमैनोमीटर) पड़ी थी....तो विचार आया कि इस से भी बी.पी चैक करवा ही लिया जाये। उसी समय उस मशीन से चैक करवाया तो एक बाजू में 110/80 और दूसरी में 110/88 की रीडिंग थी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन दोनों मशीनों की रीडिंग्ज़ में दो-चार मिनट का ही अंतर था।

जब मैंने अपने फिजिशियन से पूछा कि आप रीडिंग पर विश्वास करेंगे तो उन्होंने कहा कि वह तो बरसों से चल रही कन्वैंशनल स्फिगमोमैनोमीटर की रीडिंग्ज़ पर ज़्यादा भरोसा करेंगे।

यह आज सुबह वाला किस्सा मैंने केवल इसलिये सुनाना ज़रूरी समझा ताकि मैं इस बार को रेखांकित कर सकूं कि आज के दौर में अगर हम डाक्टर लोग अपने आप को किसी मरीज़ के शूज़ में खड़े होकर देखते हैं तो हमें इस बात का आभास होता है कि आज के दौर में जब इस तरह की मशीनें घर-घर में आ चुकी हैं तो मरीजों का कंफ्यूज़ होना कितना स्वाभाविक सा है। रीडिंग्ज़ में अंतर तो आपने देख ही लिया है।

मैं इस समय किसी ना तो किसी मशीन की पैरवी कर रहा हूं और ना ही किसी के खिलाफ़ ही कुछ कह रहा हूं – केवल अपना अनुभव आप के सामने रख रहा हूं ताकि इस मुद्दे पर हम लोग कुछ चर्चा कर सकें।

सचमुच बी.पी का तो एक हौआ ही बना हुआ है- मैंने अपने उस पहली पोस्ट में शायद बहुत कुछ इस के बारे में लिखा था।

आज भी ब्लड-प्रैशर चैक करवाना हम में से कुछ लोगों के लिये एक हौआ ही है। खैर आप तो जानते ही होंगे कि मैडीकल साईंस में एक ऐँटिटि होती है ....वाईट-कोट हाइपर-टैंशन ..अर्थात् कुछ मरीज़ों में ऐसा देखा गया है कि जैसे ही वे किसी सफेद-कोट पहने डाक्टर को अपना बी.पी चैक करते देखते हैं तो उन का बी.पी अचानक शूट कर जाता है।

यह तो हम मानते ही हैं कि विभिन्न मशीनों में थोड़ी बहुत वेरिएशन तो होती ही है......इसलिये बार बार यही सलाह दी जाती है कि बी.पी के बारे में इतना ज़्यादा मत सोचा करें। यह जीवन-शैली से संबंधित है और जीवन-शैली में छोटे छोटे परिवर्तन लाने निहायत ही ज़रूरी हैं।

यह पोस्ट लिखने का एक मकसद यह भी है कि अगर आप अपने घर ही में हमेशा ऐसी ही किसी ऑटोमैटिक मशीन से अपना बी.पी चैक करते रहते हैं तो यह भी ज़रूरी है कि कभी कभी किसी फ्रैंडली फैमिली डाक्टर से भी अपना बी.पी अवश्य दिखवा लिया करें।

फ्रैंडली फैमिली डाक्टर से ध्यान आया कि यह भी देखा गया है कि अकसर कुछ केसों में जब किसी मरीज़ का बी.पी किसी फ्रैंडली नर्सिंग स्टाफ द्वारा लिया जाता है तो रीडिंग कम आती है।

एक बात और भी यहां कहना चाहूंगा कि ये जो कन्वैनश्नल बी.पी अपरेट्स ( स्फिगमोमैनोमीटर) भी होते हैं, किसी भी हास्पीटल में अगर कुछ अपरेट्स हैं तो थोड़ा बहुत फर्क तो इन की रीडिंग्ज़ में ही होता है लेकिन मुझे याद है कि बंबई में जिस हास्पीटल में काम करते थे वहां पर दो मशीनें ऐसी थीं जिन में यह वेरीएशन काफी ज़्यादा हुआ करती थी।

इतना लिखने के बाद मेरा यह प्रश्न बना हुया है....
क्या हर मरीज़ के बीपी की जांच इस तरह से कर पाना संभव है कि पहले एक मशीन से की जाए और फिर दूसरी से। ऐसे में कईं बार मरीज़ कहीं बिना-वजह दवाईयों के चक्कर में पड़ कर परेशान तो ना होते होंगे या फिर दवाई की ज़रूरत होने पर भी बिना दवाई के ही तो ना चलते रहते होंगे। यह सवाल मेरे मन में बरसों से है और पता नहीं कितने सालों तक चलता रहेगा।

इसीलिये जब डाक्टर मरीज के पास जाता है और उस की बी पी बड़ा हुआ होता है तो तुरंत ही उस की दवा शुरू नहीं कर दी जाती......उस का बीपी बार कुछ समय के बाद, कुछ दिनों के अंतराल के बाद चैक करने के बाद ही कोई दवा शुरू करने या ना करने का फैसला किया जाता है। जिस समय मरीज डाक्टर के पास आया है उस समय उस की क्या मनोस्थिति है इस बात का भी आप सब को पता है कि उस की बीपी की रीडिंग पर असर पड़ता है।

तो, सीधी सी बात है कि मामला शायद कुछ ज़्यादा ही पेचीदा है.....बिलकुल एक हौए जैसा लेकिन पूरी कोशिश करें कि इसे हौआ कभी बनने न दें। मस्त रहने की पूरी कोशिश करें........क्योंकि जहां मस्ती है, खुशी है, ज़िंदादिली है, हंसी-मज़ाक है वहां यह हौआ टिक नहीं पाता है। पिछले 25 सालों से ज़िंदगी की किताब से जो सीखा है, जो अनुभव किया है, आप के सामने रख दिया है।

आप के बी.पी के सदैव नियंत्रण में रहने के लिये ढ़ेरों शुभकामनायें।

रविवार, 3 अगस्त 2008

वजन कम करने का सुनहरी फार्मूला !!

अकसर हम लोग खूब पढ़ते रहते हैं कि वजन कम ऐसे होगा, वैसे होगा.....लेकिन कईं बार कुछ ऐसा दिख जाता हैकि हम लोग इस बारे में सोचने पर मजबूर हो ही जाते हैं जैसा कि मेरे साथ पिछले सप्ताह हुआ....मैंने इंगलिश के अखबार में एक कैप्सूल पढ़ा.......

वजन कम करने का सुनहरी फार्मूला क्या है ?
उस के आगे लिखा था कि कम खाओ। प्रतिदिन 500 कैलेरी कम का सेवन करें और हर हफ्ते एक पौंड वजन कमहो जायेगा। और अगर इस के साथ साथ खूब शारीरिक परिश्रम भी करेंगे तो वजन कम होने की यह प्रक्रिया और भी तेज़ हो जायेगी।


बात मेरे भी मेरे मन में लग गई। सोचा कि क्या किया जाए। वैसे किसी नॉन-मैडीकल बंदे से इस बात का ज़िक्र किया जाये तो शायद वह यही कहेगा कि कल से नाश्ता बंद या लंच बंद, या कल से फल बिल्कुल बंद...या कल से चावल बंद ....ऐसे कईं ही विचार किसी के भी मन में आने लगेंगे कि किसी तरह से ये 500 कैलेरी रोजाना कम करनी हैं।

लेकिन यह बात बिलकुल गलत है कि बिना सोचे समझे नाश्ता बंद कर दिया ....लंच बंद कर दिया......हमें सभी आहार करने हैं लेकिन फिर भी अपनी कैलेरी को कम करना है। और विशेषकर यह ध्यान रखना तो और भी ज़रूरी है कि कैलेरी कम करनी है, ठीक है लेकिन आहार तो फिर भी संतुलित ही रहना चाहिये....ऐसा नहीं होगा तो शरीर में तरह तरह की तकलीफ़ें होने लगेंगी। और फायदे की बजाए नुकसान होने की ज़्यादा आशंका है।

अब आप सोच रहे होंगे कि नाश्ता भी लेना बंद नहीं करना, लंच भी खाना है, फल भी खाने हैं तो फिर ये 500 कैलेरी कैसे कम होंगी। तो, ठीक है, मैं अपनी उदाहरण दे कर यह बाद स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं आज कल धीरे धीरे प्रतिदिन 500 कैलेरी कम करने की तरफ़ कैसे बढ़ रहा हूं....

1. मैं बहुत मीठी चाय पीने का शौकीन हूं.....मतलब कि पांच-छः चीनी के चम्मचों का ज़्यादा सेवन ....अर्थात् लगभग तीस ग्राम चीनी ज़्यादा.....यानि कि लगभग 125 कैलेरी का ज़्यादा सेवन......तो मैंने पिछले कुछ दिनों से चाय में चीनी का सेवन बिलकुल कम करना शुरू कर दिया है। और कुछ सही, 100 कैलेरी की तो बचत हो गई।दही में भी चीनी बिलकुल डालनी बंद कर दी है और मीठी लस्सी भी बंद कर दी है।

2.वैसे तो आज सुबह ही दो जंबो साइज़ के आलू के परांठे खाये हैं और वैसे भी रोज़ाना दो परांठे नाश्ते में लेता हूं। पता नहीं पिछले कईं वर्षों से ये परांठे छोड़ रखे थे लेकिन फिर से शुरू कर रखे हैं अर्थात् लगभग बीस ग्राम घी का सेवन इन परांठों की वजह से हो ही जाता है.......तो लगभग 200 कैलेरी तो इन्हीं परांठों के द्वारा ही शरीर में पहुंच गईं। तो अबयह फैसला किया है कि आने वाले दो-तीन दिनों में परांठों को भी पूरी तरह बंद कर दूंगा।
अगर मैं यह भी कर पाऊं तो कुल 300 कैलेरी एक्स्ट्रा प्रतिदिन लेने से बच जाऊंगा।

3. आगे आइए....आप के सामने एक और राज़ खोल ही दूं कि किस तरह आदमी अपनी आदतों के हाथों का खिलौना होता है।
पिछले कुछ सालों से मैंने दाल में घी या मक्खन के एक-दो चम्मच उंडेलने बंद किये हुये थे लेकिन पिछले कुछ महीनों से फिर यह काम करने लगा था जो कि पिछले कुछ दिनों से बंद पड़ा है। यानि की लगभग 50-100 कैलेरीकी और बचत।

4. बचपन से ही एक आदत है कि लगभाग रोज़ाना( डाक्टर, तू तो यार खुदकुशी की पूरी तैयारी कर रहा है !!) चावल में दूध-चीनी या घी-चीनी डाल कर खाना( वैसे बचपन में तो चीनीके परांठे भी खूब खाये हैं) .....अब अगर मेरी उम्र में यह सब चलता रहेगा तो कैसे चलेगा......यह तो वही बात हो गई कि आदमी अपने पैरों पर खुद कुल्हाडी मारता रहे। अब अगर दूध-चीनी-चावल या घी-चीनी-चावल रोजाना खाये जा रहे हैं तो लगभग 100-150 कैलेरी तो शरीर के अंदर जा ही रहे हैं। तो, अब मैंने कईं दिनों से यह वाली आदतभी छोड़ दी है क्योंकि ज़्यादा वज़न के बुरे परिणाम रोज़ाना देख कर, सुन कर, पढ़ कर डरने लगा हूं।

मैंने अपने खाने पीने की बातें यहां इस लिये लिखी हैं कि मैं एक बात को रेखांकित कर सकूं कि हमें कम खाने के लिये अपना खाना कम करने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन यूं ही ऊल-जलूल खाने से बचना होगा जैसे कि बच्चे के हाथ में बिस्कुट देखे तो खुद भी दो-तीन खा लिये....आधी कटोरी भुजिया ऐसे ही ज़रूरत होते हुये भी निगल डाली......ये कैलेरीज़ हमें देती तो कुछ भी नहीं, केवल गलत जगहों पर जा कर जम जाती हैं।

वैसे आप भी कहीं यह तो नहीं सोच रहे कि यार, डाक्टर तू अपनी पोस्टों में प्रवचन तो अच्छे-खासे करता है लेकिन तेरा खुद का खाना-पीना इस तरह का है या रहा है, यह पढ़ कर बहुत हैरानगी हो रही है। ठीक है, आप का हैरान होना मुनासिब है, लेकिन मेरी मजबूरी यह है कि मैं आपसे झूठ नहीं बोल सकता...जब तक मैं पूरी सच्चाई आप के सामने रखूंगा तो मैं अपनी बात ठीक तरह से कह ही नहीं पाऊंगा।

और हां, यह भी बताना चाह रहा हूं कि पिछले कुछ दिनों से रोज़ाना 30-40 मिनट का भ्रमण करना भी शूरू करदिया है। लेकिन बस एक ही मुश्किल है कि इन आमों के ऊपर कंट्रोल नहीं हो रहा.......रोज़ाना दो-तीन आम तो खा ही लेता हूं......क्या करूं ये आम मेरी कमज़ोरी हैं। लेकिन, एक सुकून है कि चलिये अब तो आम खत्म होने का टाइम आने को है। अगले सीज़न से एहतियात बरतूंगा।

तो, इतनी बातें करने का मतलब तो बिलकुल साफ़ ही है कि हम अपने आहार में छोटे मोटे बदलाव कर के भीअपनी कैलेरी की खपत को अच्छा-खासा कम कर सकते हैं। आप किस सोच में पड़ गये ??....मेरे साथ साथ आप भी तो कुछ बदलाव करिये, साथ रहेगा तो बदलाव निभ जायेंगे, मैं आप के resolutions की इंतज़ार कर रहा हूं।

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

विवाह से पूर्व चैक अप वाला विज्ञापन

मैं इस विषय के बारे में बहुत सोचता हूं.....और यह भी सोचता हूं कि हम लोग किसी फुटपाथ से बैंगन खरीदते हुये उसे इतनी गंभीरता से चैक करते हैं.....उस के खराब होने का अंदेशा होते ही अगली रेहड़ी की तरफ़ चल पड़ते हैं। लेकिन जब अपने बेटी-बेटों की शादी की बात आती है और उन के भावी पति अथवा पत्नी की सेहत की बात कभी छिड़ी देखी ही नहीं गई।

लगभग तीन हफ्ते पहले मैंने एक सुप्रसिद्ध लैब का एक विज्ञापन एक अंग्रेज़ी के अखबार में देखा था। ऐसा विज्ञापन मैंने तो पहले बार ही देखा था.....शायद इस से पहले भी आया हो, लेकिन मेरी नज़र न उस पर पड़ी हो। आप भी जानने को उत्सुक हो रहे होंगे कि आखिर क्या था उस विज्ञापन में।

तो सुनिये, उस विज्ञापन में उस कंपनी द्वारा उपलब्ध करवाए जा रहे विभिन्न टैस्टों की जानकारी दी गई थी। उस में अलग अलग आयु वर्ग के लोगों के लिये विभिन्न स्कीमें थीं। एक स्कीम जिसे पहली बार किसी विज्ञापन में देख कर मुझे बेइंतहा खुशी हुई वह थी .......विवाह से पूर्व युवक-युवती की जांच ( Pre-marital health check-up for individuals and couples) ……Detects presence of chronic infectious diseases. Identifies and helps prevent transmission of abnormal Hb related disorders to progeny.

मुझे यह पढ़ कर बहुत ही खुशी हुई क्योंकि मैं इस बात की बहुत हिमायत करता हूं कि शादी से पहले लड़के और लड़की का चैक-अप होना चाहिये। मुझे पता है कि हिंदोस्तानी समाज में यह बात विभिन्न कारणों की वजह से अभी लोगों के गले नहीं उतरेगी। इस के कारण भी तो बहुत से हैं।

इस देश में किसी लड़के-लड़की की शादी की जब बात चल रही होगी तो अगर कोई लड़के या लड़की की चैक-अप की बात छेड़ कर तो देखे, अगले दिन ही बिचोलिये का फोन आ जायेगा कि अभी लड़के वाले सोच रहे हैं.....चैक-अप की तो बात छोड़िये, लोग इन मौकों पर सेहत की बात करना ही महांपाप समझते हैं......मुझे कभी समझ नहीं आई कि ये लोग इतना डरे, सहमे से क्यों होते हैं !!

लेकिन कुछ भी हो लोगों की भई अपनी मजबूरियां हैं....अब अगर किसी लड़की का ब्याह किसी अमेरिका में रह रहे लड़के से तय हो रहा है और वर-पक्ष की कोई मांग भी नहीं है तो भला कौन लड़के के चैक-अप की बात घुसा कर अच्छी भली बनती बात को बिगाड़ने का साहस कर पायेगा। तो, इस तरह की विवाह से पूर्व चैक-अप की बात न छिड़ने का एक कारण जो हमारे सामने आ रहा है वह यही है कि हमारे देश में जो रिश्ते अपनी हैसियत वालों की बजाए अपने से so-called (!!!) ऊंचे या नीचे तबके ( मैं अपनी रियल लाइफ में इस तरह शब्द इस्तेमाल करने का घोर-विरोधी हूं, लेकिन यहां लिखना पड़ रहा है ) ......के साथ होते हैं, इन रिश्तों में लड़के के बापू का बड़ा सा बंगला या लड़की के डैड की फैक्टरी का रोब दूसरे पक्ष के मुंह पर पट्टी बांध देता है। और जितनी ही यह हैसियत की खाई गहरी होगी, यह पट्टी उतनी ही टाईट होती जायेगी।

एक कारण यह भी तो है कि अकसर हिंदोस्तान में रिश्तों में ही रिश्ते हो जाते हैं और लड़की या लड़के का शादी से पूर्व चैक-अप की बात कहने की भला कौन हिम्मत करे.......पता चले कि यह रिश्ता तो हुया नहीं और पहले वाले रिश्तों पर भी इस बात का असर पड़ गया।

कहने का भाव यही है कि हमारे लोगों के लिये दो जमा दो हमेशा चार नहीं हैं.....इन की समस्यायों के बहुत आयाम हैं। ये बेचारे तरह तरह के रिश्तों के बोझ तले, सामाजिक धारणाओं, रूढ़िवादी विचारों तले बुरी तरह से दबे हुये हैं .....इसलिये मैं कभी भी इन्हें किसी भी बात का दोष नहीं देता हूं......इस भोली भाली जनता का क्या दोष है..............और एक बात तो और भी बहुत दुःखद यह है कि इन मां-बाप को ही इस तरह की अवेयरनैस नहीं है तो ये क्या किसी से कुछ कहेंगे ।।

तो, फिर इस बात का समाधान कहां है....समाधान धरा पड़ा है ....इस तरह के विज्ञापनों में जिन्होंने सीधी बात ही पढ़े-लिखे लड़के-लड़की तक ही पहुंचा दी। लैब भी बहुत प्रसिद्ध है......इस लिये इस की रिपोर्ट भी पूरी विश्वसनीय होगी...यह नहीं कि नुक्कड़ पर कल ही खुली किसी लैब से रिपोर्ट ला कर लड़की या लड़के वालों को दी जा रही है जिससे उन का बस मुंह ही बंद हो जायेगा।

तो, मेरे विचार में इस बात में पहले पड़े-लिखे लड़के लड़कियों को ही करनी होगी.....और यह पैकेज भी कितना बढ़िया है कि दोनों इक्ट्ठे ही जा कर अपने टैस्ट करवा सकते हैं। क्या आप को लगता है कि यह बात किसी तरह से भी यह कुंडली –वुंडली के मिलान से कम अहमियत वाली है। नहीं ना.....बल्कि उस से भी शायद कईं गुणा ज़्यादा ज़रूरी है।
चूंकि लड़का-लड़की साथ साथ जा रहे हैं इस लिये किसी को बुरा लगने का सवाल ही नहीं पैदा होता। मुझे ऐसा लगता है कि अभी से अगर ये पढ़े-लिखे लोग इस तरफ पहला कदम उठाना शुरू करेंगे तो धीरे धीरे लोगों की झिझक दूर हो जायेगी।

मेरा यह लिखने का कारण केवल इतना है कि आप सब को भी पता है कि लोग सदियों से इन रिश्तों के समय तरह तरह के झूठ बोलते आये हैं , बीमारियां छुपाते आये हैं.........लेकिन अब तो भई जीने-मरने की बात हो गई है, दोस्तो।

कितनी बार अखबारों में पढ़ चुके हैं कि किसी विवाहित युवक को जब एच-आई-व्ही संक्रमण का पता चला तो सारा दोष उस की बीवी पर मढ़ा गया और उस के चाल-चलन पर शक किया गया। वैसे यह तो एक लंबी डिबेट है....हां, बिलकुल उस जैसी कि मुर्गी पहले आई या अंडा........लेकिन इतनी लंबी-चौड़ी डिबेट में पड़ने की बजाए सीधी तरह से लड़के-लड़की अपने मां-बाप को बीच में डाले बिना ही अपने ही लैवल पर विवाह-पूर्व अपना टैस्ट ही करवा लें तो कितने झंझटों से बचा जा सकता है।

रही बात कि हर मां-बाप का यह सोचना कि मेरे बच्चों का तो मुझे पता है ...मैं उन की गारंटी लेता हूं....उन्हें टैस्ट/वैस्ट करवाने की कोई ज़रूरत नहीं है........इस तरह की सोच में ही गड़बड़ी है, आज कल कौन किस की गारंटी ले सकता है .....इसलिये बेहतर होगा कि हम लोग शादी के वक्त इस तरह की गारंटी देना या स्वीकार करना बंद करें। बच्चों की पूरी लाइफ का मामला तो है ही......लाइफ एंड डैथ का मसला है भई।

अभी अभी लिखते लिखते मुझे लगभग 10-12साल पुरानी बात याद आ रही है....उन दिनों मैं बंबई सर्विस करता था ...एक आफीसर का बेटा था जो स्वयं भी नौकरी कर रहा था। उस 23-24 साल के लड़के को एक्सीडैंट की वजह से काफी चोटें आईं थीं और मैंने उसे आप्रेट करना था.......उस के बहुत से टैस्ट हुये थे जिन में से एक एचआईव्ही टैस्ट भी था जो उस का पॉजिटिव आया था। दो टैस्टों से इस टैस्ट को कंफर्म भी कर लिया गया था। मेरी उस के पिता से बात हो रही थो तो उस ने दो बातें कीं.....जो मुझे आज भी एकदम स्पष्ट याद हैं.....and only such casual remarks by some people have over a period of time and my education cum training at Tata Institute of Social Sciences, Bombay has revolutionized my thinking on such sensitive issues !!………………उस ने कहा कि डाक्टर साहब, आप को बताता हूं कि यह जब नया नया नौकरी लगा तो बाहर रह रहा था तो उस के पड़ोस रहने वाली एक लड़की ने इसे खराब कर दिया। और दूसरी बात उस ने कही कि मैं तो बस अपने शहर जा कर तुरंत इस की शादी कर दूंगा ......क्योंकि यह शादी के बाद बिलकुल ठीक हो जायेगा। इन दो बातों ने मुझे बहुत लंबे अरसे तक हिला कर रखा।

इसलिये आज जब यह विवाह-पूर्व युवक-युवती के चैक-अप वाले विज्ञापन वाली अखबार को ढूंढा तो दो बातें लिखने की तमन्ना जाग उठी।

शुक्रवार, 13 जून 2008

हरिद्वार में ककड़ी खाने से दो भाई मरे, अमेरिका ने लगाई टमाटर पर रोक..


कुछ दिन पहले हरिद्वार में दो भाईयों ने खेत से तोड़ कर ककड़ी क्या खाई, अपनी मौत को बुलावा दे दिया। उस के कुछ ही समय बाद उन की हालत इतनी बिगड़ गई कि एक भाई ने तो हस्पताल जाते जाते ही दम तोड़ दिया और कुछ समय बाद दूसरे की भी मृत्यु हो गई। कारण यह बताया जा रहा है कि जिन ककड़ीयों को इन भाईयों ने खेत से तोड़ कर खाया था उन पर कुछ समय पहले ही ज़हरीले कीटनाशक का स्प्रे किया गया था।

इस से एक बात फिर से उजागर हो गई है कि हम लोग खा क्या रहे हैं। यह तो अब हम सब लोग जान ही गये हैं कि हमारे यहां इन खतरनाक एवं प्रतिबंधित कीटनाशकों का भी जबरदस्त इस्तेमाल हो रहा है। रिपोर्टज़ यह भी हैं कि ये जो हमें सब्जियां-फल बड़े ताज़े ताज़े से रेहड़ीयों इत्यादि पर करीने से सजे हुये दिखते हैं इन पर भी कईं तरह के रासायनों का स्प्रे कर के इन्हें इतना फ्रेश दिखाया जाता है और ये रासायन बहुत हानिकारक होते हैं।

मैं जब भी खेतों में फसलों पर मजदूरों के द्वारा स्प्रे किया जाता देखता हूं तो अकसर उन के स्वास्थ्य के बारे में सोचता हूं कि वे किस तरह बिना किसी तरह की जानकारी के , बिना किसी तरह के सेफ्टी-गियर के...यहां तक कि बिना अपना मुंह एवं नाक ढके हुये.....इस तरह का काम करते रहते हैं। लेकिन कल ही मेरी नज़र एक रिपोर्ट पर पढ़ी है जिस में बताया गया है कि अमेरिका की शीर्ष हैल्थ एजेंसी ने यह बात कही है कि ऐसी लाईसैंसधारी पैस्टीसाइड स्प्रे करने वालों में जिन्होंने अपने जीवनकाल में एक-सौ दिन से ज़्यादा इन पैस्टीसाइडों को स्प्रे करना का काम किया है, उन में डायबिटीज़ रोग होने का खतरा 20 से 200 प्रतिशत तक बढ़ जाता है।

Licensed pesticide applicators who used chlorinated pesticides on more than 100 days in their lifetime were at greater risk of diabetes, according to researchers from the National Institutes of Health (NIH). The associations between specific pesticides and incident diabetes ranged from a 20 percent to a 200 percent increase in risk, said the scientists with the NIH's National Institute of Environmental Health Sciences (NIEHS) and the National Cancer Institute (NCI).

दो-चार दिन पहले पता चला कि अमेरिका के हैल्थ-विभाग की ओर से वहां के नागरिकों को कुछ तरह के टमाटरों का इस्तेमाल न करने की सलाह दी गई है। इस का कारण यह है कि उन के हैल्थ विभाग ने पता लगाया है कि कुछ इंफैक्टेड किस्म के टमाटरों की वजह से वहां कुछ लोगों को सालमोनैला इंफैक्शन ( salmonella infection) हो गई । यह इंफैक्शन एक बैक्टीरिया सालमोनैला की वजह से होती है जिस में दस्त लग जाते हैं जिन के साथ खून भी आने लगता है। वहां पर तो पब्लिक को इस बात के बारे में भी सचेत किया गया है कि वे जिन टमाटरों का इस्तेमाल कर रहे हैं उन के बारे में स्टोर से इस के बारे में भी पूरी जानकारी लें कि वे किस क्षेत्र की पैदावार हैं। फिर उन्होंने अपने नागरिकों को इस बारे में भी सचेत किया है कि टमाटर की कौन कौन सी किस्में इस साल्मोनैला इंफैक्शन से रहित हैं और इन का प्रयोग किया जा सकता है।


हम कहां खड़े हैं...........इस बात का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हमारे देश में हर समय इन दस्तों, पेचिशों, एवं खूनी दस्तों के मरीज़ तैयार मिलते हैं, लेकिन कभी किसी तरह का कारण पता करने की कोशिश ही कहां की जाती हैं। कितने लोग हैं जो मल का टैस्ट करवाते हैं या करवा पाते हैं......कोई समझता है यह किसी शादी बियाह में खाने से हो गया, कोई कहता है कि यह गर्मी के मिजाज की वजह से है, कोई सोचता है कि इस का कारण यह है कि उसे रात में दही पचता नहीं है, कोई सोचता है कि तरबूज, खरबूजा खाने के बाद पानी लेने से ये दस्त हो गये हैं............बस, किसी तरह के कारण की गहराई में जाने की न तो कोशिश ही की जाती है ...............वैसे, हमारे यहां की समस्यायें हैं भी तो कितनी कंपलैक्स कि किसी पेचिश के मरीज को साफ-स्वच्छ पानी पीने का मशविरा देते हुये भी लगता है कि उससे मज़ाक सा ही किया जा रहा है..........कितने दिन पी लेगा वो उबला हुया पानी !!


अब आते हैं इस बात की तरफ़ की इस से आखिर हमें सीख क्या मिलती है............सीख यही है कि दोस्तो कितना भी कह लें, खाना तो यही सब कुछ ही हम ने है....लेकिन अगर कुछ थोड़ी बहुत जन-जागरूकता कम से कम इस बारे में हो जाये कि बिना अच्छी तरह धोये हुये कोई सब्जी-फल का सेवन तो एक इंस्टैंट ज़हर है ............लेकिन फिर भी रोज़ाना कितनी सी कीटनाशकों से लैस सब्जियों वगैरह का सेवन हम लोग करते हैं.....चाहे कितनी भी अच्छी तरह से धुल चुकी हों लेकिन उस से भी वे स्लो-प्वाईज़न जैसा असर तो रखती ही हैं। लेकिन इन के खाये बिना कोई चारा भी तो नहीं है। और अगर आप कहते हैं कि ऑगैनिक हो जाएं, तो दोस्तो यह तो आप को भी पता है कि यह कितने लोगों के बस की बात है !!

इन्हीं कीटनाशकों की वजह से मैंने भी पिछले दो-वर्ष से आम को चूस कर खाना बिलकुल बंद कर दिया है। हुया यूं कि दो साल पहले कईं बार ऐसा हो गया कि जब मैं आम को चूसता और बाद में उस की गुठली को निकालने के लिये उस का छिलका छीलता तो हैरान हो जाता कि बाहर से इतना बढ़िया दिखने वाला आम अंदर से इतना सड़ा-गला और कीड़े लगा हुआ....... और ऐसा बहुत बार हुआ.............बस, तब से इतनी नफ़रत हो गई है कि अब तो आम की फाड़ी काट कर उसे चम्मच से ही खाना ठीक लगता है.....कोशिश यही रहती है कि जहां तक हो सके आम के छिलके को मुंह ना ही लगाना पड़े।

कहीं ऐसा तो नहीं कि इस समय आप आम खा रहे हों और मैंने आप का मजा किरकिरा कर दिया हो...........खाइये, खाइये....इस गर्मी के मौसम में आनंद लूटिये।

बुधवार, 20 फ़रवरी 2008

पता नहीं अब हमारे सादे पान-मसाले पर क्यों डाक्टर अपनी डाक्टरी झाड़ रहे हैं !


अभी मैं अपना लैप-टाप खोल कर स्टडी-रूममें बैठ कर सोच ही रहा था कि आज किस विषय पर पोस्ट लिखूं कि अचानक बेटे ने मेरी टेबल के सामने लगे बोर्ड पर लगे एक विज्ञापन की कटिंग को देखते हुए कहा कि पापा, यह विज्ञापन मैंने भी देखा था, बड़ा अजीब लगा था।


क्योंकि इस पान मसाले में है.....अव्वल दर्जे का कत्था(रू800प्रतिकिलो) , पवित्र चंदन(रू60000-66000प्रतिकिलो),रूह केवड़ा(रू3लाख प्रतिकिलो), ज़ायकेदार इलायची(रू450प्रतिकिलो), प्रोसैस्ड सुपारी(रू200-225प्रतिकिलो), 0%तम्बाकू(तम्बाकू के रूप में नहीं)................यह विज्ञापन किसी हिंदी के समाचार-पत्र में छपा था। अब कोई भी बंदा इतना लुभावना विज्ञापन देखने के बाद भला क्यों करेगा गुरेज़ मुंह में दो-तीन पानमसाले के पाउच उंडेलने से। और ऊपर से यह 0% तम्बाकू वाली बात ....भई यह सब कुछ लिखा हो तो पानमसाले की धूम आखिर क्यों न मचे। वैसे वो 0% तम्बाकू- तम्बाकू के रूप में नहीं वाली बात तो मेरी समझ में भी नहीं आई...........।


लेकिन यह पानमसाला खाना भी हमारी सेहत के लिए बहुत नुकसानदायक है। आप ही सोचिए कि अगर ऐसा न हो तो क्यों विज्ञापन के एक कोने में यह चेतावनी भी लिखी हो....पानमसाला चबाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। वैसे वो बात दूसरी है कि उसे लिखा कुछ इस तरह से होता है कि उसे पहले तो कोई ढूंढ ही न पाये और अगर गलती से ढूंढ ले भी तो बंदा पढ़ ही न पाये।


जी हां, पानमसाला चबाना भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इस में मौजूद सुपारी को मुंह के कैंसर की एक पूर्व-अवस्था सब-मयूक्स फाईब्रोसिस( submucous fibrosis) के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है और यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध भी हो चुका है.....


छोटे छोटे कॉलजियेट लड़कों को दो-पहिया वाहनों पर चढ़े-चढ़े नुक्कड़ वाले पनवाड़ी की दुकान के ठीक सामने वाले फुटपाथ पर पानमसाले के दो तीन पाउच इक्ट्ठे ही मुंह में उंडेलते हुए बेहद दुःख होता है....यह शौक शुरू शुरू में तो रोमांचित करता होगा लेकिन बाद में जब इस की लत पक्की हो जाती है तो फिर शायद इसे छोड़ना सब के बश की बात भी नहीं होती।


ओरल-सबम्यूक्स फाईब्रोसिस की बात चली थी तो कुछ इस के बारे में बात भी की जाये...इस अवस्था में मुहं की नर्म,लचकीली चमडी़अपनी लचक खो कर, बिलकुल सख्त, चमड़े जैसी और झुर्रीदार हो जाती है, धीरे धीरे मुंह खुलना बंद हो जाता है, मुंह में घाव और छाले हो जाते हैं और मरीज़ को कुछ भी खाने में बहुत जलन होती है। यह कैंसर की पूर्वावस्था होती है और यह अवस्था किस मरीज़ में आगे चल कर मुंह के कैंसर का रूप धारण कर ले., यह कुछ नहीं कहा जा सकता । इसलिए इस अवस्था का तुरंत इलाज करवाना बहुत लाजमी है.....क्योंकि इस अवस्था में तो कईं बार मरीज का मुंह इतना कम खुलने लगता है कि वह रोटी का एक निवाला तक मुंह के अंदर नहीं रख सकता जिस के कारण उसे फिर तरल-पदार्थों पर ही ज़िंदा रहना पड़ता है या फिर सर्जरी के द्वारा मुंह खुलवाना पड़ता है और सब से...सब से ...सब से जरूरी यह कि उसे पानमसाले की लत को हमेशा के लिए लत मारनी पड़ती है।


लेकिन इस लत को लात मारने के लिए आखिर तब तक इंतजार आखिर किया ही क्यों जाये.....यह शुभ काम हमआज ही कर दें तो कितना बढ़िया होगा....आज से ही क्यों अभी से ही अपने मुंह में रखे पान-मसाले को अभी थूक दें तो क्या कहने......शाबाश.....यह हुई न बात......मोगैंबों खुश हुया।

3 comments:

राज भाटिय़ा said...

ड्रा चोपडा जी,आप ने हमेशा ही बहुत उपयोगी जानकारी दी हे, ओर आप के आज के लेख मे **वैसे वो बात दूसरी है कि उसे लिखा कुछ इस तरह से होता है कि उसे पहले तो कोई ढूंढ ही न पाये और अगर गलती से ढूंढ ले भी तो बंदा पढ़ ही न पाये।*
तो इस के लिखने का कया फ़ायदा,अगर बडे शव्दो मे लिखा हो ओर खरीदते वक्त दिखे तब तो ठीक हे, हमारे यहां सिगरेट के पाकेट पर मोटे ओर साफ़ शव्दो मे चारो ओर चेतावनी लिखी होती हे, १६ साल से छोटे बच्चे कॊ ऎसी चीजे बेचने पर दुकानदार को भारी जुर्माना चुकाना पडता हे,जब की भारत मे बच्चे से ही यह सब मगबाते मा बाप.

पंकज अवधिया Pankaj Oudhia said...

मै तो इससे दूर ही हूँ पर मुझे लगता है कि जिन्हे तलब लग चुकी है वो इसे आसानी से छोडने से रहे। क्या हम इसका कोई विकल्प खोज सकते है जो नुकसान रहित हो? मैने हर्बल सिगरेट पर काम किया है पर इसे इतना अधिक अच्छा नही बना पाया कि असली सिगरेट वाले सब छोडकर इसे पीने लगे। कोशिश जारी है।

Gyandutt Pandey said...

केन्सर अस्पताल में बड़े भीषण केस देखे हैं मुंह के केन्सर के। पर उसी अस्पताल में मरीज की सेवा में तैनात परिवार जनों को गुटका खाते भी पाया!

शनिवार, 12 जनवरी 2008

आप को आखिर कैमिस्ट से बिल मांगते हुए इतनी झिझक क्यों आती है ?


आप भी न्यूज़ मीडिया में अकसर नकली दवाईयों की खेप पकड़ने की खबरें देखते-सुनते रहते हैं , लेकिन अभी भी आप यही समझते हैं कि ये दवाईयों आप तक तो पहुंच ही नहीं सकतींतो, क्या आप नकली-असली में भेद जानने की काबलियत हासिल करना चाहते हैंअफसोस, दोस्त, मैं आप के जज़बात की कद्र करता हूं लेकिन मुझे दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि आप कितनी भी कोशिशों के बावजूद ऐसा कर नहीं पाएंगेदोस्तो, हमें चिकित्सा के क्षेत्र में इतने साल हो गएयह काम अभी तक हम से भी नहीं हो सका !! तो फिर आप यही सोच रहे हैं कि आखिर करें तो करें क्या ---खाते रहे ऐसी वैसी दवाईया ? आखिर क्या करे आम बंदा ?-----दोस्तो, इस विषम समस्या से जूझने का केवल एक ही तरीका जो मैं समझ पाया हूं वह यह है कि आप कैमिस्ट से चाहे दस रूपये की भी दवाई लें,आप उस से बिल मांगने में कभी भी झिझक महसूस करें, प्लीज़आप यह समझ कर चलें कि जब आप बिल की मांग करेंगे तो आप को दवाई भी असली ही मिलेगी----नकली दवाई तो मिलने का फिर सवाल ही नहीं उठता,क्योंकि कैमिस्ट को उस बिल में दवाई के बारे में पूरा ब्यौरा देना पड़ता हैअगर हम इतनी सी सावधानी बरत लेंगे तो हमें पास की किसी बस्ती में बनी दवाईयों खरीदने से भी निजात मिल जाएगी


एक बात और जिस का विशेष ध्यान रखें वह यह है कि बसों वगैरह में जो सेल्स-मैन दर्द-निवारक दवाईयों के पत्ते बेचने आते हैं , उन से कभी भी ये दवाईयां खरीदेंचाहे ये सेल्समैन किसी IIM institute से नहीं निकले होते, फिर भी इन बंदों की salesmanship की दाद दिए मैं नहीं रह सकता----ठीक वही बात, दोस्तो, कि वे तो बिना बालों वाले को भी कंघी बेच डालें ! फिर भी मुझे,दोस्तो, ऐसा बिल्कुल भी नहीं लग रहा कि ये बलाग्स लिखने-पढ़ने वाले उन की बातों में सकते हैंलेकिन फिर भी मैं यह सब लिख रहा हूं ताकि आप के माध्यम से यह जानकारी आम इंसान तक पहुंच सके


दोस्तो, एक विचार जो मुझे कुछ दिनों से परेशान कर रहा है ,वह यह है कि कहीं आप को मेरी posts पढ़ कर यह तो नहीं लगता कि ये सब छोटी छोटी बातें जो मैं अकसर उठाता रहता हूं, यह तो सब को पहले ही से पता हैं..........दोस्तो, मेरा तो बस इतना सा तुच्छ प्रयास है कि ठीक है पता हैं तो अब इन को प्रैक्टीकल शेप दीजिए ----और अपने आसपास भी इन छोटी छोटी दिखने वाली बातों के प्रति जनचेतना पैदा करेंबस, दोस्तो मेरे पास यही छोटी छोटी बातें ही हैं-----जिस बंदे ने बस अपनी सारी ज़िंदगी इन छोटी-छोटी बातों के प्रचार-प्रसार के नाम लिख दी है, उस से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है ??।


दोस्तो, आप से एक रिक्वेस्ट है कि कृपया मुझे अपनी मेल कर के अथवा अपनी टिप्पणी/ feedback में यह भी लिखें कि इस बलाग के माध्यम से किन मुद्दों को छूया जाएवैसे तो मैं यह स्पष्ट कर ही दूं कि मैं कोई ऐसा तीसमार खां भी नहीं हूं---बस जो दो बातें पता हैं उन्हें आप सब से शेयर कर के अच्छा लगता है, बस और कुछ नहींबाकी सब बातें तो मैंने आप सब से सीखनी हैं..................obviously in this wonderful platform of blogging…..where we understand, share and learn from each other’s wisdom and experience.

1 comments:

Neeraj Rohilla said...

डाक्टर साहब,
आपका प्रयास सराहनीय, आप अपने प्रयासों को जारी रखिये । लोग टिप्पणी भले ही न करें लेकिन आपके ब्लाग को पढ अवश्य रहे होंगे । दूसरे, आपका लिखा हुआ अगर कोई ६ महीने या एक साल बाद भी पढेगा तो भी उसे फ़ायदा ही होगा । मैं आपसे निम्न विषयों पर लिखने की गुजारिश करूँगा ।

१) शराब पीना: लेकिन मैं इस विषय पर आपका लेख सामाजिक परिपेक्ष में नहीं बल्कि ठेठ चिकित्सा विज्ञान की नजर से जानना चाहूँगा ।

२) दमे/अस्थमा की बीमारी: मेरे परिवार के एक सदस्य इस बीमारी से पीडित हैं इसलिये मैं इस विषय पर और जानकारी चाहूँगा ।

साभार,