रविवार, 31 जुलाई 2022

बड़ौदा के बाबा ....

बताते हैं आप को बडौ़दा के बाबा के बारे में ...पहले कुछ इधर उधर की बात हो जाए...तीन चार साल पहले हमें दुबई जाने का मौका मिला...दो तीन दिन वहां रहे ...मुझे वह जगह बिल्कुल भी पसंद नहीं आई...हर तरफ इमारतें ही इमारतें, मैं अकसर कहता हूं कि मुझे अगर वहां जाने का मुफ्त टिकट भी मिले तो भी मैं दूसरी बार वहां न जाऊं...मैं वहां बहुत ऊब सा गया...हर तरफ ईट-सीमेंट के महल, चौबारे, कायदे-कानून....जहां पेड़ भी लगे हुए हैं वे भी इतने करीने से लगे हैं कि नकली दिखाई पड़ते हैं...

वैसे भी किसी भी जगह जाइए अगर वहां पर पुराने इलाकों को देखने का, महसूस करने का मौका ही न मिले तो फिर वहां जाने का फायदा ही क्या हुआ। एयरकंडीशन बसों में या मोटर गाडि़यों में हम कुछ देख ही नहीं पाते, महसूस करने की तो बात क्या करें...। मैं अकसर कहता हूं कि शहरों के अंदर जो पुराने शहर करीने से छुपे पड़े होते हैं उन को अगर किसी को देखना है तो पैदल चलना होगा, या साईकिल या शायद दो पहिया वाहन का सहारा लेना होगा....क्योंकि इन पुराने शहरों की शुरूआत ही वहीं से होती है जहां से उन बाज़ारों में, गलियों में मोटरकारें घुसना बंद होती हैं...अकसर स्कूटर वूटर तो लोग निकाल ही लेते हैं ....इन संकरी गलियों, कूचों में बसे होते हैं पुराने शहर ...इसलिए मैं अकसर सोचता हूं कि जब तक घुटने वुटने चल रहे हैं ..जो कुछ देखना है, जी भर के देख लेना चाहिए...एक बार अगर हम किसी के ऊपर आश्रित हो जाते हैं तो ज़िंदगी वैसे ही बकबकी सी, बोझिल सी लगने लगती है ....खुद को भी और दूसरों को भी ...

कुछ दिन पहले बड़ौदा में था...चार पांच रहना था...मैं जब भी मौका मिलता सुबह शाम साईकिल लेकर एक डेढ़ घंटे के लिए निकल जाता ...अलग अलग रास्तों पर निकलना, अनजान जगहों का रुख करना अच्छा तो लगता ही है ...अकसर मैं कहता हूं कि किसी भी इंसान के पास इतना कुछ है देखने को, एक्सप्लोर करने को .....कि क्या कहें...लेकिन उस के लिए हमें बस थोड़ा सा..ज़्यादा भी नहीं, अपने कंफर्ट ज़ोन से निकलना पड़ता है ..और हां, टीवी का पूर्ण त्याग भी ज़रूरी होता है....मैं जहां पर पांच दिन रहा, मैंने अपने रूम का टीवी ऑन तक नहीं किया...क्योंकि फिर यही अच्छा लगने लगता है कि इस के सामने ही बैठे रहें..

खैर, चलिए, उस दिन मै साईकिल लेकर ऐसे ही बिना किसी ख़ास मकसद के बड़ौदा की सड़के नाप रहा था कि मुझे दूर से लगा कि एक बुज़ुर्ग एक पार्क में चींटीयों को आटा डाल रहे हैं ...यह काम हम लोग बचपन में करते थे ..लेकिन कभी कभी जब ईश्वर से कोई काम होता था तभी ..मैंने साईकिल रोक तो लिया, फिर एक बार झिझक सी लगी कि क्या यार, मैं भी, खामखां, अनजान इंसान के क्या बात करूं.....लेकिन मैं उन तक पहुंच गया, साईकिल खड़ी की और उन से बात करने लगा। 

अब मैं उन से बात कैसे शुरु करता ...मैंने यही कहा कि आप को दाना डालते देख कर बहुत अच्छा लगा, इसलिए रुक गया...वह बुज़ुर्ग हंसने लगा ...उसने मुझ से मेरे बारे में कुछ नहीं पूछा ...मैंने उन से कुछ नहीं पूछा...मैंने बस इतना पूछा कि क्या वह यहां रोज़ आते हैं, कहने लगे कि हां, रोज़ आता हूं ....मैंने वही बेवकूफी वाला सवाल दाग दिया कि और भी लोग आत ेहैंं तो उन्होंने बताया कि कुछ लोग आते तो हैं, कभी कभी, लेकिन मैं तो बिना नागा रोज़ आता हूं....

मैंने देखा वह चींटीयों के झुंड ढूंढ ढूंढ कर आटा डाल रहे थे, उन्होंने बताया कि यह आटा ही नहीं है, इसमें गुड़ और देशी घी मिला हुआ है ...इस के बाद वह कबूतरों को दाना डालने लगे ...कबूतरों के झुंड जैसे उन का इंतज़ार ही कर रहे थे ...उन के पास पॉलीथीन में यह सामान भरा हुआ था ...कबूतरों के लिए दाना तो था ही, साथ में हरे मूंग भी थे, बताने लगे कि कबूतरों को यह खाना बहुत पसंद है ...

उन्होंने बताया कि वे महीने भर के लिए दो हज़ार रूपये का यह सामान इक्ट्ठा खऱीद लेते हैं ...बता रहे थे कि जो लोग अमेरिका में नौकरी धंधा करने गए हैं, वे पैसा भिजवा देते हैं, मैं इस काम में लगा देता हूं...मैंने नहीं पूछा कि कौन लोग हैं वे...कोई मतलब ही नहीं था यह सब पूछने का ...

पांच सात मिनट मैं उन के पास रहा हूंगा...लेकिन बहुत अच्छा लगा...उन के साथ फोटो भी खींच ली जिस के बिना आजकल कोई मुकालात पूरी कहां समझी जाती है...खैर, उन को यह नेक काम करते देख कर मुझे कुछ दूसरे लोग याद आ गए जो गलियो के डॉगीज़ और बिल्लीयों को सुबह सुबह कुछ खिलाने निकल पड़ते हैं...इन सब को देखना कितना सुखद लगता है...







अनजान और अजनबी बाबा को सलाम ...नदी नाम संयोगी मेले ...बहुत से लोगों से हम लोग ज़िंदगी में पहली और आखिरी बार मिलते हैं...हम दोनों एक दूसरे का नाम नहीं जानते...मैं कब उन रास्तों पर फिर से निकलूंगा ...लगभग नामुमकिन ...लेकिन उन के चेहरे की मुस्कान मेरे पास हमेशा के लिए रह गई ...हां, वहां से निकलते२ उन से कह तो दिया कि फिर मिलेंगे बाबा....लेकिन सोच यही रहा था कहां मिलेंगे ..यह भी यार तूने एक डॉयलाग ही बोल दिया ...सब कहने को ...




आप को कभी यह तो नहीं लगता कि बाबा का खिताब हासिल करने के लिए किसी विशेष रंग का चोला पहनना ज़रूरी है, लोगों को प्रवचन देना..और किसी ऊंची गद्दी पर बिराजमान होना ज़रूरी है ....मुझे कभी नहीं लगता क्योंकि मैं उस तरह के नामी-गिरामी बाबा-शाबा बहुत देख चुका हूं ...उन से तो मैं दूर भागता हूं और इस तरह के बेलौस, अनजान, अजनबी, गुमनान नेक बाबाओं को ढूंढता रहता हूं ...बाबा ने बताया कि अस्सी के ऊपर उम्र हो चुकी है, दवाई की कभी एक टिकिया नहीं ली ...अभी हाल ही में इन्होंने आंख का आप्रेशन करवाया है...डाक्टर ने कहा था कि वह १५ हज़ार रूपये लेगा .....लेकिन हंसते हंसते कहने लगे कि आप्रेशन के बाद उसने कहा कि नहीं, आप से कुछ नहीं लेना...हंस हंस कर बता रहे थे ....

मेरा बेटा अकसर कहता है कि बाप, दिल्ली की हवा में धोखा है, बंबई की हवा में मौका है ......उसी क्रम में मैं यह कह सकता हूं कि बडौ़दा की हवा में सुकून है....जैसा मुझे लगा कि अधिकतर लोग यहां पर शाकाहारी हैं, अमन-पसंद हैं, सादे हैं ....अपने आप के साथ सुकून से हैं....यह मेरा अनुभव है ...बाकी बाहरी शहर, शहरों के नए बसे हुए इलाके तो सब एक जैसे ही होते हैं जहां पर महंगी गाड़ियों की खूबसूरत कोठियों-बंगलों की एक अंधी दौड़ सी लगी होती है ....उस तरफ़ मुझे देखना भी नहीं सुहाता ...लेकिन शहर के पुराने इलाके को दो-चार दिन में महूसस करना कहां संभव हो पाता है ....और वह भी अगर सुबह शाम एक दो घंटे का वक्त आप को मिले इस यायावरी के लिए ...खैर, दो दिन पहले मैं ऐसे ही घूम रहा था तो एक बहुत पुरानी और सुंदर इमारत दिखी ...अंदर जा कर पता चला कि वह वहां की यूनिवर्सिटी है ...वहां पढ़ने वाले बच्चों को देख कर अच्छा लगा ....एक बच्चे को मैंने कहा कि मेरी तस्वीर खींच दो, उसने हंसते हंसते खींच दी ...कहने लगा कि उस के दोस्त आप के पीछे खड़े हो कर पोज़ दे रहे हैं...मैंने कहा ...वह तो और भी अच्छी बात है ... 😀😎

बडौ़दा यूनिवर्सिटी में इस को देख कर मुझे चंडीगढ़ का रॉक-गार्डन याद आ गया...खुदा जाने इस की छांव में कितनी प्रेम कहानियों ने जन्म लिया होगा ...अब भी यह आने जाने वालों को खुश कर रहा है ...





रविवार, 10 जुलाई 2022

लिखने की शुुरुआत कैसे करें....

सब से पहले तो रोज़ाना अपनी डॉयरी में रोज़ कुछ न कुछ लिखते रहिए....इतना बड़ा दिन होता है, इतने लोगों से हम मिलते हैं, इतने नज़ारे नज़र आते हैं, मोबाइल से सारा दिन चिपके रहते हैं, इतना कुछ देखते हैं, पढ़ते हैं और कभी कभी सोचने का भी वक्त तो मिल ही जाता है ...बस, इन में जो भी अच्छा, बुरा लगे जो भी आपके चेहरे पर मुस्कान ले आए या अगर कुछ उदास कर जाए, उसे अपनी नोटबुक में लिख कर फ़ारिग हो जाइए...

मैं तो अपने आप को कोई लेखक-वेखक भी नहीं मानता ..क्योंकि सरकारी नौकरी में होने की वजह से अपनी कलम पर कुछ तो लगाम कसे रखनी पड़ती है ...वरना, आप अकेले-थकेले पड़ जाते हैं, कोई भी आप के साथ नहीं खड़ा होता अगर कोई लफड़ा हो जाता है ...जब नौकरी से छूट जाएंगे तो देखेंगे कोई लगाम पकड़नी भी है या नहीं, वह तो बाद में देखेंगे....खैर, मेरे ब्लॉग्स के नीचे जो कमैंट्स आते हैं या व्यक्तिगत तौर पर मुझे जो लोग कहते हैं वह यही बात है कहते हैं कि आप का लेखन बड़ा नेचुरल है ....हां, अगर किसी को ऐसा लगता है तो उसका भी एक ही कारण है कि जो मन में आए, लिख दो ...कोई परवाह न करो ..(बस, जब तक नौकरी-चाकरी है तब तक बच के रहिए..., बाद में मेमॉयर्स की कश्ती पर तो अकसर लोग सवार होते ही हैं , वहां जी भर कर दिल खोल लीजिेए...😎)

लिखने के लिए इतना कुछ है कि ऐसे लगता है कि क्या लिखें, क्या छोड़ें ....एक बात यहां बता दूं कि २०-२२ बरस पहले जब मेैंने लिखना शुरू किया और अखबारों, पत्रिकाओं में लेख भेजने शुरू किए तो मैंने एक बार ऐसे ही एक फेहरिस्त सी बनाई कि आखिर कितने लेेख हैं जिन के बारे में मैं लिख सकता हूं ...मुझे ख्याल आ रहा है कि यही कोई ४०-४५ लेखों की लिस्ट बन पाई थी ...क्योंकि मेरी सोच तब वहां तक ही थी...

अब जैसे जैसे लिखते लिखते आप की सोच का दायरा बढ़ने लगता है तो पता चलता है कि लिखने पढ़ने की दुनिया तो समंदर है ..अगर आप सारा दिन भी लिखते रहें तो भी ज़िंदगी कट जाएगी और पता चलेगा कि आपने धूल के एक कण के बराबर भी न कुछ लिखा, और न ही पढ़ा....इसलिए जो लिखने की शुरुआत करना चाहते हैं उन के लिए मेरा नुस्खा यह है कि रोज़ कुछ न कुछ लिखा करें ...स्कूल में मास्टर लोग हमारी लिखावट सुंदर करने के लिए रोज़ाना एक पन्ना सुलेख का लिखवाते थे कि नहीं...बस, अपने लेखन में कुदरती प्रवाह लाने के लिए आप भी कुछ न कुछ रोज़ लिखिए ...और खूब पढ़िए..जो भी मन को भाए....सब कुछ पढ़िए...अच्छा, बुरा ...लेकिन अच्छा, बुरा तो कुछ होता ही नहीं, सब लिखने वाले अपने अनुभव लिख रहे हैं..आप पढ़िए सब कुछ, राय अपनी बनाइए...बार बार मुझे एक मशहूर नावलकार सुरेंद्र मोहन पाठक की बात याद आ जाती है (३०० से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं..)  ....

दो -ढाई बरस पहले जब पाठक जी दिल्ली में मिले तो इन से बात कर के मज़ा आया ...मैंने सोचा एक सेल्फी भी ले ली जाए...

एक इंटरव्यू में बता रहे थे कि उन्हें पढ़ना का इतना शौक है कि जिस लिफाफे में मूंगफली खाते हैं, उसे भी फैंकने से पहले फाड़ के ज़रूर पढ़ लेते हैं ...हा हा हा ह ाहा ....कल मैं भी मैं अपना कोई १५ बरस पहले लिखा ब्लॉग पढ़ रहा था ...उस दिन मैंने शकरकंदी खाई जिस कागज़ में उस पर एक कविता लिखी थी ..जो मेरे मन को छू गई और मैंने उस पर एक पोस्ट लिखी थी ...अभी शेयर करता हूं उस का स्क्रीन शॉट...
१५ बरस पहले लिखी इस पोस्ट को देखा तो अच्छा लगा... वैसे मैं अपना पुराना कुछ भी लिखा पढ़ता नहीं हूं ...

लिखने की शुरुआत कर रहे हैं तो सोशल-मीडिया पर या इस वॉट्सएप भी दिल खोलना सीखें ...कोई एप्रिशिएट करे या न करें ...सारे चुप रहें तो रहें ..कुछ फ़र्क नहीं पड़ता ...एक बात बताऊं जिन लोगों की आप इस सोशल-मीडिया पर परवाह करते हैं, उन सभी (जी हां, सभी, आपने बिल्कुल सही पढ़ा) से हमारे रिश्ते कांच से भी ज़्यादा नाज़ुक हैं....हम कब तक सब को खुश ही करते रहेंगे ...कब तक सब की परवाह करते रहेंगे .... और एक बात ...ज़िंदगी ने मेरे फंड़े कुछ ज़्यादा ही क्लियर कर रखे हैं...जब भी मुझे लगता है कि कुछ लिखूं या न लिखूं ..दिल खोल के लिखूं या न लिखूं.....तो मैं अपने आप से यह कहता हूं कि ये जो कुछ सैंकड़ों लोगों की तुम परवाह के चक्कर में अपने एक्सप्रेशन को रोक रहे हो, यह भी सब छलावा है दोस्त ...अगर तुम्हें किसी दिन कुछ हो गया...तुम इस फ़ानी दुनिया से ही कूच कर गए तो मुमकिन है तुम्हारी कोई बात भी नहीं करेगा ...बस कुछ लोग RIP लिख कर वहां से कट लेंगे और ग्रुप में अगली पोस्ट किसी कॉमेडी-शो की होगी ...इसलिए किसी की भी परवाह करते रहना, अपने आप को दबाए रखना, अपने आप को खिलने ही न देना भी अपने साथ ही किया हुआ एक गुनाह तो है ही, समाज के साथ भी बेइंसाफी है क्योंकि हम में से हर एक के पास इतना कुछ कहने को है जिससे कोई न कोई कब कोई अहम् सबक ले ले, कोई प्रेरणा ही ले ले ....

यह जो टॉपिक मैंने शुरू कर तो दिया है ...पंगा सा ही ले लिया है ..क्योंकि मेरे पास इतना कुछ कहने को है, एक पोस्ट में तो आएगा नहीं.... लेकिन मैं इसे अपने दिल से लिखने की पूरी कोशिश करूंगा ..जो सीखा है, जो समझा या जो भी महसूस किया इस लिखने-पढ़ने की दुनिया में सब कुछ बांट दूंगा इन पोस्टों में ...वैसे मैंंने कुछ बरस पहले इंटरनेट पर लिखने के बारे में ५-७ पोस्टें भी लिखी थीं कि इंटरनेट पर लेखन के क्या कायदे-कानून हैं, दांव-पेंच हैं...वे भी ढूंढ कर अगली पोस्ट में शेयर करता हूं ..

कुछ बातें इधर उधर की भी शेयर करना चाह रहा हूं ..हमारे कुछ साथी हैं जिन से मुझे पिछले कुछ दिनों में दो-तीन बार कुछ ऐसा सुनने को मिला कि आज तो वह वक्त पर घर के निकल जाएंगे ....क्योंकि उन्हें बच्चों के साथ, मां के साथ वक्त बिताना है ...कहीं जाना है ...और यह कहते कहते वे मुझे इतने खुश दिखे कि उन की बात सुनते ही कोई भी भावुक हो जाए....काश, हम सब लोग ऐसा ही कर पाएं ...वर्क-लाइफ बेलेंस अच्छे से कर पाएं ...और अपनों को भी अपना वक्त दें ...उन के साथ वक्त बिताएं, घूमने जाएं, एक साथ बैठ कर बारिश का लुत्फ़ उठाएं...और कुछ नहीं तो बस सब लोग एक साथ बैठें और पुराने दिनों की मीठी यादों के पोखर में ही उछल-कूद करते रहें ...

और हां, एक बात और हैं ...दुनिया में रहते हुए हम लोग बहुत कुछ देखते हैं..कुछ के साथ धक्का होते देखते हैं, कुछ को बहुत से फेवर मिलते देखते हैं जिन के लिए वह हकदार भी नहीं होते, बस चाटुकारिता उन की सब से बड़ी स्पैशलिटी होती है ...Master in Sycophancy! 😎 लेकिन हम कुछ कहते नहीं....एक खतरनाक चुप्पी की चादर ओढ़े रखते हैं ...लेकिन लिखने वाले ये सब अपने दिल के ज़खीरे में सहेजे रहते हैं ...वे खुद नहीं जानते कब उन की कलम अल्फ़ाज़ की जगह, इस जमा हुए लावे को ही उगल दे...यह कोई नहीं बता सकता। 

इस वक्त जब मैं यह लिख रहा हूं ...साथ में विविध भारती भी बज रहा हूं ...मुंबई ेमें बारिश हो रही है .... साथ में रेडियो पर बारिश के सुपर-डुपर गीत बज रहे हैं...एक से बढ़ कर एक ...सच में समझ ही नहीं आ रहा कि यहां पोस्ट में किस को एम्बेड करूं और किसे रहने दूं....


मुस्कुराते रहिए, खुश रहिए... अभी मशहूर कामेडियन जगदीप साहब का इंटरव्यू चल रहा है ....फ़रमा रहे हैं...

या तो दीवाना हंसे,
या जिसे तू तौफ़ीक बख्शे, 
वरना इस दुनिया में ....
मुस्कुराता कौन है .....

अगली पोस्ट में यह शेयर करूंगा कि आखिर लिखने के आइडिया कहां से आते हैं, कहां से इंस्पिरेशन मिलती है ... जल्दी मिलते हैं ... ...


शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

108 हैं चैनल ..पर दिल बहलते क्यों नहीं!

यह लाइन मेरी लिखी नहीं है ...लगे रहो मुन्नाभाई के एक गीत की लाइन है ....लेकिन छोटी सी यह लाइन है बहुत पते की ...सोचने पर मजबूर करती तो है ही...इस लिंक पर क्लिक कर के आप इसे सुन सकते हैं ..आज से ४०-४५ बरस पहले जब घर-मोहल्लों में नया नया टीवी आया तो एक ही चैनल था और बहुत बार तो उस बक्से के सामने तब तक चिपके रहते थे जब तक कि टीवी वाले नमस्ते कह कर अपने प्रोग्राम बंद न कर देते थे...

अब १०८ चैनल नहीं हैं...इन की गिनती कईं सैंकड़ों में तो होगी ही ...लेकिन इन्हें देखना तो दूर की बात है, कभी गिनती जानने की भी इच्छा ही नहीं हुई। क्योंकि मुझे अच्छे से याद भी नहीं कि टीवी देखे हुए कितने बरस हो गए...कच्चा पक्का आईडिया इतना है कि मां थीं तो वह खबरिया चैनल ज़रूर देखती थीं ...और करती भी क्या घर में सारा दिन अकेले बैठे बैठे....खैर, मां को जुदा हुए पांच बरस हो गए ..शायद उन के बाद कभी रिचार्ज ही नहीं करवाया...

ऐसी क्या नाराज़गी हो गई टीवी से ? - नहीं, ऐसी कोई नाराज़गी नहीं है, बस टीवी देखना, उस पर खबरें सुनना नहीं अच्छा लगता तो नहीं अच्छा लगता, कोई मजबूरी नहीं है कि ज़रूर उन्हें सुनना ही है, ऐसा भी तो नहीं है, कोई कानून भी तो नहीं है न अभी तक ....जब कभी ऐसा कोई नियम आएगा तो देखा जाएगा....तब तक तो ऐसे ही चलेगा...दरअसल टीवी पर जब हमने उछल उछल कर परोसी जाने वाली, सर-दर्द पैदा करने वाली खबरें देखनी-सुननी शुरू की तो हमारी तबीयत ही बिगड़ने लगी ...एक तो बाहर से थके-मांदे आओ और सोफे पर पसरते ही वही सेंसेशनल खबरों का पिटारा खोले हुए चैनल ....बस, यूं ही कईं बरस पहले यह निश्चय कर लिया कि हटाओ यार इन्हें ....ये तो बीमार कर के रहेंगे ....बस, इसी तरह से टीवी ज़िंदगी से निकल बाहर हो गया...

जहां तक ये ड्रामे, सीरियल, नौटंकी की बात है ...वह सब तो असल ज़िंदगी में जहां हम लोग काम करते हैं, जहां रहते हैं ...वहां ही यह सब कुछ इतना दिख जाता है कि छोटे या बड़े परदे पर भी यह सब देखा जाए, सच में सहन नहीं कर पाते ...सहन नहीं कर पाते तो होता क्या है, कुछ खास नहीं, बस जो लोग संवेदनशील होते हैं, उन्हें सर-दर्द पकड़ लेता है जो सेरिडॉन से भी नहीं जाता ...वैसे भी बार बार दर्द की टिकिया खाने से कहीं बेहतर है कि सर-दर्द पैदा करने वाली चीज़ को ही ज़िंदगी से बाहर किया जाए...और यहां मैं कुछ बी बढ़ा-चढ़ा कर नहीं लिख रहा हूं ..ऐसा लिखने की मेरी क्या मजबूरी हो सकती है, कुछ भी तो नहीं ....लेकिन जो आपबीती है वह तो लिखने वाले लोग लिख कर ही दम लेते हैं ...

ये जो ओटीटी प्लेटफार्म आ गए हैं ...इन पर जो फिल्में या सीरिज़ आती हैं ...कईं बार देखने बैठते हैं तो दस-पंद्रह मिनट में ही या तो बंद कर देते हैं या उसे देखते देखते जब १०-१५ मिनट में सो जाते हैं ..पता ही नहीं चलता...और हां, यह जो १०-१५ मिनट की समय अवधि लिख रहा हूं, पूरी सच्चाई से लिख रहा हूं ......क्या करें, हमारा मन लगता ही नहीं इस तरह के कंटेंट में ....क्योंकि हम ने १९६०,७०,८० का फिल्मों का सुनहरा दौर देखा हुआ है ... जब एक एक फिल्म हमें दिनों तक सोचने पर मजबूर करती थी और बहुत सी फिल्मों में जो सीख थी वह जाने-अनजाने हमेशा हमें रास्ता दिखाया करती थी ..

मुझे क्यों है आज कल की अधिकतर फिल्मों, ड्रामों , सीरियल्ज़ या सीरीज़ से इतनी शिकायत ....बस दो बातें कर के अपनी बात समाप्त करूंगा ..सब से पहला कारण तो यही है कि जिस भाषा का इस्तेमाल वे लोग करते हैं या तो वह बिल्कुल फिरंगी टाइप लगती है ...या इतनी फुटपाथ छाप ज़ुबान का इस्तेमाल होता है कि वह एक आम भारतीय की भाषा है ही नहीं ...स्क्रिप्ट में बार बार पर गालियां लिखने से कोई लेखन महान नहीं हो जाता ...पुराने दौर की फिल्में देखिए, किस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता है ....क्योंकि उन सब फिल्म मेकर्ज़ के सामाजिक सरोकार थे जिन को उन्होंने बखूबी निभाया ...

भाषा से याद आया ..पुरानी कोई भी फिल्म देख लीजिए...आप को संवाद में या नगमों में जो भाषा सुनने को मिलेगी ....वह भाषा ही एक आम हिंदोस्तानी की भाषा है ....न वह हिंदी है न उर्दू है ...वह तो हिंदोस्तानी है जिसे हिंदोस्तान बोलता है, उस में हिंदी भी है और उर्दू भी...ज़मीन के ऊपर बार्डर की लकीर खींचने से लोग तो इधर-उधर तितर-बितर हो सकते हैं...भाषाएं नहीं ऐसे बंटा करतीं....लोग उर्दू को मुस्लमानों की और हिंदी को हिंदुओं की भाषा समझने की बेवकूफी करने लगे ...और यह एक बिल्कुल गलत नज़रिया है....फालतू सोच है ...क्योंकि भाषाएं मुल्कों की नहीं, मज़हबों की नहीं, इलाकों की हुआ करती हैं...लेकिन हमें पहले एक दूसरे से लड़ने-मरने से फ़ुर्सत मिले तब न हम भाषा-वाषा के बारे में सोचें....जो आवाज़ें यहां वहां से हिंदोस्तानी भाषा के समर्थन में उठती हैं, वे कब से कैसे खामोश हो गईं, किसी को पता ही नहीं चलता। 

उर्दू की बात छोड ही दीजिए, हिंदी तक आज की पीढ़ी लिखना नहीं जानती, जो जानते हैं वे लिखते नहीं या लिखना नहीं चाहते ...फिल्मों में काम करने वाले कलाकार जो आज कल की पीढ़ी के रोल-माडल हैं वे तो हिंदी पढ़ना ही नहीं जानते ...इसलिए सारी स्क्रिप्ट अकसर देवनागरी की बजाए रोमन में ही लिखी जाती है ...अब वह कहने को हिंदी तो हो गई लेकिन हर ज़ुबान के विभिन्न अक्षरों की आकृतियां-सजावट-डिज़ाईनिंग, उन की बनावट-बुनावट भी उस ज़ुबान का ही हिस्सा हुआ करती है ....उन से भी बहुत कुछ ब्यां होता है ..बिना लिपि के वह ज़ुबान कैसी ...निष्प्राण, बिना रुह वाली ज़ुबान जिसे रोमन स्क्रिप्ट में भी कलाकार लोग सही उच्चारण के साथ पढ़ नहीं पाते ...और बडे फ़ख्र से कहते हैं कि मेरी हिंदी बिल्कुल अच्छी नहीं है ...और बाद में डबिंग-वबिंग से सारी बातों पर परदा पड़ जाता है ...

हम वैसा ही लिखेंगे जैसा हम पढ़ेंगे ...यह बात उन लेखकों के लिेए है जो फिल्में, सीरियल या दूसरा कुछ भी लिख रहे हैं...उन का कोई कसूर नहीं ...अपना अनमोल हिंदी या आंचलिक भाषाओं या क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य अकसर उन्होंने पढ़ा ही नहीं हुआ....पुरानी फिल्मों की कद्र वे जानते नहीं, पुराने डॉयलाग , गीत उन्हें सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन हर तरफ रिमिक्सिंग का दौर है ...आज कल आप देखिए बहुत ही कम फिल्में ऐसी बन रही हैं जिन के डॉयलाग आप को बहुत मुतासिर करते हैं, और बहुत ही कम गीत ऐसे हैं जो हमारे साथ फिल्म देखने के बाद बने रहते हैं, वरना हमें याद ही नहीं रहता कि क्या गीत था...क्योंकि उस के लिरिक्स की मुझे तो समझ ही नहीं आती कि गीतकार कहने का क्या चाह रहा है ...शायद मेरी अब उम्र हो गई है मुझे इसलिए समझ न आती हो , अगर आप को आती हो तो नीचे कमैंट में जाते जाते एक लाइन टिका दीजिएगा। 

फिल्में, ड्रामे लिखने वालों के ऊपर भी पूरा दोष मढ़ देना कितना मुनासिब है, मैं नहीं जानता, मैं कोई भाषाविद् नहीं हूं ...न ही फिल्मकार हूं, बस एक आम हिंदोस्तानी की तरह अपने मन की बात लिख रहा हूं ....अभिव्यक्ति की आज़ादी का इस्तेमाल कर रहा हूं ...जो लिखने वाले हैं वे भी तो आज के समाज से ही आते हैं ....और अगर साहित्य या फिल्में हमारे समाज का दर्पण होती हैं, जो बिल्कुल सत्य बात है ...तो फिर वे लोग तो वही लिखेंगे जो आज समाज में घट रहा है ...जो वे देख रहे हैं, जिस के बीच वे पले-बढ़े हैं, जिस तरह का कंटेट देखते-सुनते वे बड़े हुए हैं ...अब क़लम की पैनी धार के लिए इतनी सारी चीज़ें जो दरकार होती हैं, वे आएं तो आएं कहां से ....और दुनिया एक झटके में उन का काम आसां कर देती है ...जेनरेशन गैप ..दो पीढ़ीयों की सोच में फ़र्क की बात है, और कुछ नहीं ....चलिए, जो भी चल रहा है, वह ऐसे ही चलता रहेगा लेकिन इतना तो हम देख ही रहे हैं जिस तरह का अधिकतर कंटेंट बन रहा है .(अपवाद तो हमेशा से रहे ही हैं), उसे अगर कोई एक बार भी देख ले तो गनीमत है ...मेरे से तो नहीं देखा जाता ...ऊपर लिख ही चुका हूं ...इसी वजह से वे कालजयी रचनाएं बन ही नहीं पाती ..वैसे गीत नहीं बन पाते जिन्हें हम पचास बरसों से हज़ारों बार सुन चुके हैं लेकिन कान अभी भी तरसते हैं उन को सुनने के लिए....है कि नहीं?

पुराने दौर के फिल्म बनाने वालों ने संघर्ष देखा....देश के विभाजन की त्रासदी को झेला, बंबई में आने पर कहीं खाने या ठहरने का ठिकाना नहीं, इधर उधर भटकना, मारे मारे फिरना...फिर रात कैसे भी कहीं भी पसर कर काट लेना, मुफलिसी, मायूसी, अभाव, देश के दयनीय हालात, भूखमरी, सूखा, बीमारी .....उन सब महान फिल्ममेकर्ज़ ने वह सब देखा, उसे हंडाया (जिया), और सब कुछ उन के अंदर आत्मसात होता चला गया ....जिन महान गीतकारों के गीत हम सुनते नहीं थकते, जिन संगीतकारों या गायकों के हम मुरीद हैं, सब की ज़िंदगी की अमूनन ऐसी ही कहानी थी ...मैं तो इन लोगों के बारे में पढ़ता रहता हूं और इसलिए इन लोगों के लिए मेरे दिल में बहुत इज़्ज़त है ...लेकिन आज कल की पीढ़ी जो आगे आ रही है, उन्होंने संघर्ष देखा ही नहीं, वह कहते हैं न कि मुंह में चांदी के चम्मच के साथ पैदा हुए ...अपना अपना मुकद्दर है, वे फिल्मों में आए भी ज़रूर, लेकिन एक-दो-चार फिल्मों के बाद ऐसे गायब हुए कि न तो कभी कहीं नज़र ही आए, न ही कभी याद आए... 

रेडियो पर भी यही सरदर्दी है ....बहुत से चैनल हैं ..लेकिन अकसर बहुत से ऐसे हैं जिन पर इस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता है या ऐसा कंटेंट परोसा जाता है कि वहां पांच मिनट भी नहीं टिका जाता ....क्योंकि लगता ही नहीं कि वे अपनी बात कर रहे हैं ....मेरा बेटा भी लंबे समय तक एक काफी मशहूर प्राईव्हेट एफएम चैनल पर रेडियो-जॉकी रहा ... और शाम के वक्त तीन चार घंटे का उस का रोज़ाना एक टॉक-शो होता था ....जिसे बताते हैं युवा लोग बहुत पसंद करते थे ....लेकिन ईमानदारी से कहूं तो मैंने उस प्रोग्राम को कभी नहीं सुना ...यह इसलिए लिख रहा हूं कि क्योंकि मुझे पता है वह मेरे ब्लॉग भी कभी नहीं पड़ता ...जब कभी उसे लिंक भेजता हूं तो इतना ज़रूर लिख देता है कि पापा, बाद में पढूंगा ....। मैं पढ़ने-लिखने की पूरी आज़ादी का पैरोकार हूं, मैं उसे इतना भी नहीं कह पाता कि बाद में पढ़ने वाली बात तो यह है कि बेटा, मैं तुम्हारी दादी की डॉयरी तक पढ़ने की फ़ुर्सत नहीं निकाल पाता ...जो वह इतने चाव से लिखा करती थीं कि उस के नाते-पोतियां पढ़ेंगे और उसे याद किया करेंगे कि दादी भी पढ़ी लिखी थी (ऐसा वह अकसर कहा करती थीं...). 

अच्छा तो जाते जाते यह भी बता दें कि अगर मुझे आज के कंटेंट से इतनी शिकायत है तो मैं फिर मन बहलाने के लिए करता क्या हूं ...टाइम्स आफ इंडिया देखता हूं, किताबों और मैगजीनों को अकसर उठा लेता हूं, कभी कभी दो चार मिनट के जो वाट्सएप पर वीडियो या मैसेज दिख जाते हैं, वे देख लेता हूं ...वैसे वह भी बहुत कम ...और हां, रेडियो पर विविध भारती या आकाशवाणी सुनता हूं ..और पुराने दौर का जब कोई गीत याद आ जाता है तो उसे बिना एयर-फोन के दो चार बार सुन लेता हूं ....डायरी लिखता हूं कभी कभी लेकिन वो सब नहीं लिख पाता जो लिखना चाहता हूं ...कुदरत के साथ वक्त बिता लेता हूं कभी कभी ...हंसमुख इंसानों से मिलना-जुलना पसंद है जो खुल कर अपनी बात करें और खुल कर मेरी भी सुनें ...और इतना सब कुछ करने के बाद अगर वक्त बच जाता है तो ख्याली पुलाव बनाने लगता हूं ...भूख का ख्याल भी तो रखना पड़ता है ...हा हा हा हा 😎

वैसे मैं इतना ज्ञान बघारता नहीं हूं जितना आज इस पोस्ट में लिख दिया है ....लेकिन हर इंसान का कुछ उसूल होता है, अपना यह है कि ब्लॉग में जो भी लिखा है, १५ साल से उसे कभी भी एडिट नहीं किया, उसे डिलीट करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता ..कम से कम लिखने में इतना ईमानदारी तो बरत ही लेता हूं...अगर आप इसे पढ़ते पढते इस लाइन तक पहुंच ही गये हैं तो मेरी कच्ची कलम को झेलने के लिए बहुत शुक्रिया....गाना सुनते हैं अभी एक....