मंगलवार, 29 सितंबर 2015

पॉलिथीन हटाओ...देश बचाओ

आज शाम घर लौटते मैं सोच रहा था कि स्वच्छता मिशन अभियान बहुत बढ़िया है...लोगों ने एक मिशन की तरह इस के बारे में सोचना और इस पर काम करने का सोचना शुरू तो किया।

लेिकन जिस मात्रा में हर तरफ़ पॉलीथीन बिखरा पड़ा रहता है, उसे देख कर मन बेहद दुःखी होता है...कोई जानवर उसे चबाए जा रहा है, कहीं पर पॉलीथीन के ढेर सड़क किनारे पड़े हुए हैं...हर जगह पॉलीथीन ने गंद मचा रखा है।

मैं सोच रहा हूं पिछले शायद १५-२० सालों में बड़े कानून बने, कितनी कोर्ट कचहरियों ने इस के विरूद्ध फैसले दिये, कितनी जगहों पर इस पर बैन भी लगा.....कितनी बार हम लोग टीवी रेडियो एवं अन्य कार्यक्रमों में इस के बारे में सुनते हैं...लेकिन असर कितना है, आप को कितना लगता है, मुझे तो भाई कुछ भी असर दिखता नहीं कहीं भी....बिल्कुल नहीं..

हम वैसे ही पॉलीथीन की थैलियों में सब्जियां उठाते हैं, दूध की थैलियां लाते हैं, ढाबे से दाल, सब्जी, दही...जलेबी, समोसे....क्या कुछ नहीं मिलता इन घटिया किस्म की पॉलीथीन की थैलियों में......और फिर हम लोग रोज़ देखते हैं कि जगह जगह पर सफाई कर्मियों ने इन्हें इक्ट्ठा कर के आग लगाई होती है....जो बच जाती हैं, वे या तो सीवर को बंद कर देती हैं या जानवरों के पेट में जा कर उन के लिए आफ़त बन जाती है।

बड़ा अफ़सोस होता है जब मैं इस के बारे में िवचार करता हूं कि हम भी कितने ढीठ प्राणी हैं... इस में मैं भी शामिल हूं...कितनी बार सामान लाने के लिए घर से कपड़े या जूट का थैला लेकर ही नहीं जाता। बेकार में हम लोग प्रवचन झाड़ने में बहुत आगे हैं....लेिकन उस का फायदा क्या, बेकार में कईं बार लगता है अपना समय खराब किया करते हैं।

मुझे कभी यह नहीं समझ आता कि जब ये कमबख्त पॉलीथीन की थैलियां नहीं थी तो हम लोग कैसे काम चलाते थे....(जिस तरह से फोटोस्टैट के दिनों से पहले हम कैसे काम चलाया करते थे) करिए कि किस तरह से हमारे परिवार के लोग घर से कपड़े के थैले, प्लास्टिक की टोकरियां ले कर चला करते  थे..जाते अभी भी हैं, लेकिन फर्क इतना है कि अब उन थैलों में यही प्लॉस्टिक की दर्जनों पन्नियां डाल दी जाती हैं। पता नहीं यह कपड़े का थैला लेकर चलना और फांटां वाला पायजामा पहनना कब से अपमानजनक समझा जाने लगा!

याद आ रहा है फ्रिज से पहले का दौर....बर्फ लेने अगर बाज़ार में साईकिल पर जाना होता तो घर से एक छोटा तोलिया लेकर जाना....वरना अगर साईकिल में कैरियर न होता तो हाथ में पकड़ कर वह २५-५० पैसे का बर्फ़ का टुकड़ा लाना पड़ता....जितना मरजी एक हाथ से दूसरे हाथ में बर्फ शिफ्ट करते रहना, लेकिन फिर भी घर पहुंचते पहुंचते हाथ सुन्न हो जाया करता। 

आप भी याद करें कि किस तरह से कितने राज्यों ने पॉलीथीन की पन्नियों को बैन किया ...कुछ था ना कि इतने माइक्रोन वाली तो चलेंगी, इस से कम मौटाई वाली न चल पाएंगी.....लेकिन कानून बने, हम लोग उस का तोड़ पहले निकालने में एक्सपर्ट हैं। वैसे भी मुझे नहीं लगता इस तरह के बैन का कहीं ज़्यादा कड़ाई से पालन हुआ हो।

यह पोस्ट इसलिए लिखी कि आज ध्यान आ रहा था कि बहुत ही सख्ती से इस का विरोध किया जाए......कुछ ऐसा कानून हो कि ये पन्नियां रखने वालों को भी तुरंत ऑन-दा-स्पाट जुर्माना देना पड़े और जिस ग्राहक के हाथ में थैली हो उसे भी जुर्माना देना पड़े.....कितना बढ़िया ख्याली पुलाव है...क्योंिक मुझे पक्का यकीन है यहां पर यह कभी नहीं हो पाएगा...जहां पर हम लोगों से तंबाकू, गुटखा, पानमसाला, तंबाकू वाले मंजन, पेस्ट, खैनी, ज़र्दा ही नहीं छुड़वा पाए, ये पॉलीथीन की थैलियां कहां हमारे कहने से कोई छोड़ देगा!!

जो भी हो, लेिकन मुझे यह पोस्ट लिखने का यह फायदा हुआ है कि मैं बीते हुए कल की तुलना में आज पॉलीथीन के बारे में ज्यादा सजग हो गया हूं और कोशिश करूंगा कि कपड़े का थैला ही लेकर निकला करूं..किसी और कानून की इंतज़ार किए बगैर क्या ही अच्छा हो हम लोग चुपचाप बिना किसी तर्क-वितर्क के कपड़े के थैले लेकर चलना शुरू कर दें, जिन समारोहों में जाते हैं वहां अगर प्लास्टिक के कप-गिलासों या डोनों में कुछ दिया जा रहा है तो उस के बारे में थोड़ी जन चेतना पैदा करें...ज्योत से ज्योत जलाते चलिए !!

जाते जाते मुझे आज अपने कालेज के दिनों के साथी डा मनोज गोयल द्वारा भेजे एक व्हाट्सएप संदेश का ध्यान आ गया...बड़ी सुंदर बात थी उस संदेश में .....दुनिया में हर बंदा अपने आप में हीरो है, बस बात केवल इतनी सी है कि कुछ की फिल्म रिलीज़ नहीं हुई!...यह बात मन को छू गई।