मुझे यह बात हैरत में डालती है बेशक ....दुःख होता है या नहीं, इस के बारे में कुछ ज़्यादा नहीं कहूंगा क्योंकि दुनिया में वैसे भी हम लोग किसी के रुखस्त होने पर उस इंसान के लिए कहां रोते हैं, हमारा स्वार्थ हमें रूलाता है ....थोड़ा, बहुत या घड़ियाली भी ...चलिए, छोड़िए इस को ....मुझे इन छोटी छोटी ख़बरों की मार्फ़त इस फ़ानी दुनिया का एक रिमांइडर ज़रूर पहुंच जाता है ...
जब हम लोग सही सलामत होते हैं तो हम यही सोचते हैं कि ऊपर अल्ला,ईश्वर, ़गॉड है और नीचे हम इस दुनिया को चला रहे हैं...हम लोग तरह तरह की चालें चलते हैं...अपना स्वार्थ देख कर ही सामने वाले से बात करते हैं...किसी को नीचा गिराने में कसर नहीं छोड़ते और किसी की चाकरी, चापलूसी करते नहीं थकते ....सोचने वाली बात है यह सब किस लिए...
राज्य सभा का एक यू-ट्यूब चैनल है ....उस पर गुफ्तगू नाम से सीरीज़ है ... जहां तक मुझे ख़्याल है उस में अभी तक चार-पांच सौ बड़े लोगों के साथ इंटरव्यू सहेजे पड़े हैं...और इस गिनती में इज़ाफ़ा होता रहता है ...मैं अकसर इन लोगों की बातें ज़रूर सुनता हूं ...मुझे अच्छा लगता है ...इस इंटरव्यू की अवधि 30-40 मिनट से लेकर 60 मिनट तक होती है ...बहुत ही उम्दा प्रोग्राम है यह ....और यह मैंने नोटिस किया है कि मैं उन लोगों की ही इंटरव्यू देखता हूं जिन के बारे में कुछ न कुछ सुन रखा है, जिन के बारे में थोड़ी ख़बर है ....लेकिन उस लिस्ट में शायद 80 से 90 प्रतिशत शख्शियतें मेरे लिए अनजान ही हैं ... लेकिन यह मेरी कमी ही होगी....चैनल वालों के सिलेक्शन पर कोई सवाल नहीं उठा सकता ...क्योंकि अब तक जिन शख्शियतों के बारे में मैं जानता हूं उन को तो सुन ही चुका हूं ...लेकिन उस फ़ेहरिस्त में जिन 80 प्रतिशत लोगों के बारे में कुछ नहीं जानता, नाम ही पहली बार पढ़ता हूं कईं बार तो ....लेकिन जब उन की बातें सुनने लगता हूं तो समझ में आता है कि वह कितना बड़ा फ़नकार है, अदीब है...निर्देशक है, संगीतकार है ...सामाजिक कार्यकर्ता है ...वगैरह वगैरह ...लेकिन फिर भी ज़मीन से जुड़ा हुआ ही लग रहा है ...ऐसे ही बिना वजह हवा में उड़ता नहीं दिख रहा ...हैरानी मुझे इस बात की होती है कि यह शख़्स पिछले 50 सालों से अपने काम में इतना सक्रिय था और मुझे इस के बारे में इल्म तक न था।
खैर, यह बात तो हुई बड़ी शख़्शियतों की ....लेकिन मेेरा विश्वास यह है कि अगर सड़क के किनारे चल रहे किसी भी इंसान की हम लोग आपबीती सुनने लगेंगे --उस के संघर्ष, उस के सपने, उस की शक्ति, उस की कमज़ोरी के बारे में सुनने लगेंगे तो हमें आभास होगा कि यार इस इंसान पर तो फ़िल्म बन सकती है ...यह तो अपने आप में एक नावल है ... और मैं तो अकसर कहता हूं कि इस दुनिया में हर इंसान अपने अंदर कम से कम एक नावल का कंटैंट तो दबाए बैठा ही है ...लेकिन यहां सुनने की परवाह किसे हैं...कोई सुनना नहीं चाहता, कोई सुनाना नहीं चाहता ....हम सब अपने अपने स्वार्थ के कीचड़ की दलदल में निरंतर धंसे चले जा रहे हैं....जब तक कि कोई अखबार वाला हमें भी दो बॉय दो सेंटीमीटर के कॉलम में नहीं धकेल देगा ...लेकिन वहां तक भी तो वहीं पहुंच पाएंगे जो " कुछ कर जाएंगे "....वरना 99.99 प्रतिशत लोगों के तो आने-जाने का कुछ पता ही नहीं चलता ..
कईं बार लगता है कि हम लोग अपनी ज़िंदगी जी ही नहीं पाते सही ढंग से .... एक बार कहीं पर पढ़ा था कि स्टेज पर कोई ड्रामा हम देखते हैं तो उस में हर किरदार का अपना वक्त है...जब तक स्टेज पर ड्रामा चल रहा है ...वह किरदार सजीव है..लेकिन अगर अगले दिन बाज़ार में आपको वही किरदार अपनी वही ड्रेस में दिखे, वैसे ही वह संवाद करे ...और बाजा़र में घूमता हुआ भी वह खुद को वही किरदार ही समझे तो इस का क्या अंजाम होगा, मेरे कहने की ज़रूरत नहीं है। शायद हम लोगों की भी यही समस्या है ....
जब हम लोग कुर्सी पर बैठे होते हैं (छोटी या बड़ी कोई भी--कुर्सी तो कुर्सी है, जनाब) ...तो यह पॉवर का नशा बहुत से लोगों के दिमाग़ पर चढ़ जाता है .....(शुक्र है कि इस लेख को पढ़ने वालों में से कोई भी ऐसा नहीं है, मुझे पता है) ...हम अजीब अजीब हरकते ं करते हैं....अपने आप को बड़ा सम्राट समझने की बेवकूफ़ी करने लगते हैं...किसी से मिलते नहीं, किसी का काम नहीं करते , किसी से सीधे-मुंह बात नहीं करते ....किसी बाहरी प्रेशर के कारण हम लोग गलत काम भी कर देंगे ...लेकिन विनय-अनुनय की भाषा हमें समझ ही नहीं जाती .... बाहरी तौर पर तो हम अपने आसपास के तीन-चार चाटुकारों को पॉवर-सेंटर लग रहे होंगे ....लेकिन अंदर ही अंदर वह "सम्राट" सोचता है कि वह कितना खोखला है, कितना डरा-सहमा हुआ ...क्योंकि न ही तो वह अपने स्तर पर कोई निर्णय ही ले पा रहा है और बिना किसी तगड़े प्रेशर के वह कुछ करता ही नहीं है ...
शर्मा जी बहुत नामचीन लेखक हैं....उस दिन उन्होंने तो एक स्वीपिंग स्टेटमैंट ही दे डाली ...कहने लगे कि बिना किसी स्वार्थ के या डर के कोई किसी का काम करता ही नहीं...मैंने पूछा कि क्यों फिर आप यहां-वहां चक्कर लगाते फिरते हो....
उन का जवाब सुन कर मुझे बड़ी हंसी आई ...
कहने लगे ....काम-वाम तो किसी ने कुछ करना नहीं, मैं तो तमाशा देखने जाता हूं...कुर्सी पर बैठे लोगों की लाचारी पढ़ता हूं, उन के हाव-भाव पढ़ता हूं, उन की नौटंकी देखता हूं....उन के मौन को पढ़ता हूं , उन के खालीपन को टटोलता हूं ....उन की एक्टिंग देखने जाता हूं ....
लेकिन इस से आप को मिलता क्या है ...मैंने बीच ही में टोक दिया....
यार, तुम ने भी कैसे अनाडी़ जैसे बात कर दी ....यही तो मेरा रॉ-मेटीरियल है लिखने का ...मुझे यही सब बातें तो फिर अपने लेखन
में गूंथनी होती है ..
और इस के साथ ही वे ठहाके लगाने लगे.....
वाह, शर्मा जी, वाह ...आप का भी कोई जवाब नहीं....
शर्मा जी ने एक नसीहत पिला दी उस दिन - देखो, भाई, हम लोग जितने भी तीसमार खां बन जाएं कम से कम दूसरों के साथ एक इंसान की तरह बर्ताव करना न भूलें - अगर हम ऐसा नहीं कर पाते और हम तरह तरह की मैनीपुलेशन गेम्स खेलने लगते हैं...तो यह भी एक मानसिक समस्या ही है .... और इस का सही निदान कुर्सी पर उतरने के बाद या छिनने के बाद ही होता है ....लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ...
शर्मा जी ने चाय की आखिरी चुस्की लेते हुए कहा कि कुछ भी हो, भाई, कुछ भी बन जाओ.....सारी दुनिया को भले ही जेब में रखने के क़ाबिल बन जाओ....लेकिन हमेशा ज़मीन के साथ जुड़े रहो, ज़मीन पर ही रहो और ज़मीन पर रहने वाले लोगों के साथ बहुत अच्छे से पेश आओ....उस को सुनो.....क्योंकि ये जो सब कुर्सीयां-वुर्सीयां हैं ये सब थोड़े वक्त के लिए हुआ करती हैं....बाद में तो कोई पहचानेगा भी नहीं..!!
सोच रहा हूं शर्मा जी का बात में दम तो था! काश, हम भी शर्मा जी के बताए रास्ते पर चल पाएं!!
संसार की हर शै का इतना ही फ़साना है ...इक धुंध में आना है, इक धुंध में जाना है ...