बुधवार, 31 दिसंबर 2008

पाबला जी के नाम पत्र –

पाबला जी, सति श्री अकाल -
सब से पहले तो आप का धन्यवाद इस बात के लिये करना चाहूंगा कि आप ने मेरा एक लेख पढ़ने के बाद उस पर एक बहुत अच्छी पोस्ट लिखी – उसे पढ़ कर बहुत अच्छा लगा – मैं यह केवल औपचारिक तौर पर ही नहीं कह रहा हूं बल्कि आप के साथ विस्तार से अपने विचार बांटने की कोशिश करता हूं।

जब कोई हमारे लेखन के बारे में बताता है तो मैं समझता हूं वह हिंदी भाषा के साथ साथ हमारी भी बहुत सेवा कर रहा है --- मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ --- एक बात है ना कि पाबला जी अगर कोई ठीक तरह से समझायेगा तो ही सुधरने की गुंजाईश रहती है। इसलिये भी मैं आप का बहुत धन्यवादी हूं।

आप ने लिखा कि मेरे ब्लॉग पर अंग्रेज़ी शब्दों की भरमार होती है – आप ने बिल्कुल सही कहा – और उसी दिन से मैंने यह ठान ली है कि जितना हो सकेगा इस तरफ़ दिया करूंगा। और अगर कभी कोई किसी भारी भरकम अंग्रेज़ी के शब्द का इस्तेमाल करना भी पड़ा तो शिष्टाचार वश उस के साथ ही एक प्रकोष्ठ में उस का हिंदी में शब्दार्थ लिख दिया करूंगा।

मैं आज ही सुबह देख रहा था कि अपने ज्ञानदत्त पांडे जी के चिट्ठे पर उन की आज की पोस्ट में उन्होंने एक अंग्रेज़ी शब्द को देवनागरी में लिखा तो लेकिन उस के साथ ही ब्रैकट डाल कर उस का हिंदी में शब्दार्थ भी लिख दिया –यह देख कर अच्छा लगा और कोशिश करूंगा कि नॉन-मैडीकल शब्दों के लिये मैं भी कुछ इस तरह की व्यवस्था कर दिया करूं ।

आपने बिल्कुल सही कहा कि जैसे चोपड़ा का सिर किसी शुद्ध हिंदी की साइट पर जाकर भारी होता है ,ठीक उसी तरह से किसी हिंदी प्रेमी का मेरी ब्लाग पर आने के बाद अंग्रेज़ी के इतने शब्द देख कर थोड़ा बहुत नाराज़ होना स्वाभाविक ही तो है। इस बात ने मुझे अपने अंदर झांकने का मौका दिया कि यार सिर दर्द की शिकायत केवल मेरी ही नहीं है, ऐसा दूसरे लोगों के साथ भी हो सकता है जो मेरी ब्लाग पर आते होंगे और कईं बार कुछ इंगलिश के शब्दों के चक्कर में नाराज़ भी हो जाते होंगे।

और एक बहुत ही खास बात जिस के साथ आप ने मुझे रू-ब-रू करवाया वह यह कि किसी हिंदी भाषी को क्या पड़ी है कि वह गूगल सर्च करते समय डायबिटिज़ ही लिखे --- आपने बिल्कुल सही कहा कि वह सीधे सीधे मधुमेह लिख कर ही क्यों न मधुमेह से संबंधित जानकारी प्राप्त कर लेगा ---- पाबला जी, आप के साथ पूरी तरह से सहमत हूं और विशेषकर जब मैंने इन दोनों तरीकों से गूगल-सर्च के नतीजे देखे तो मेरी तो आंखें ही खुल गईं।

आप ने बिल्कुल दुरूस्त कहा कि हम लोग वैसे भी तो कईं बातें सीखते ही हैं फिर हिंदी को भी सुधारने के लिये हमेशा प्रयासरत रहना चाहिये --- ऐसा ही होगा --- और ऐसा करने के लिये हम लोगों को किसी जगह जाने की ज़रूरत भी तो नहीं है --- हिंदी के चिट्ठों पर ही सब कुछ मिल जाता है – आज सुबह वकील साहब ( दिनेशराय द्विवेदी जी) की पोस्ट देखी जिस में उन्होंने विराम, अल्पविराम आदि के बारे में इतनी सहजता से समझा दिया कि क्या कहें !!

दरअसल मेरी बस एक ही समस्या है कि जब मैं किसी चिट्ठे पर हिंदी के बहुत बहुत कठिन शब्द देखता हूं तो मेरी ध्यान फिर वहां लगता नहीं ---- अब आप सोच रहे होंगे कि इस का क्या है यार, एक हिंदी की अच्छी सी डिक्शनरी खरीद लो ना --- दरअसल पाबला जी, शब्द कोषों का तो पूरा संग्रह है लेकिन बस तुरंत उस का शब्दार्थ देखने का आलस्य ही कर जाता हूं।

लेकिन अभी लिखते लिखते ही ध्यान आ रहा है कि अब एक ही चंद शब्दों को उस समय किसी कागज़ पर लिख लिया करूंगा और बाद में किसी समय उस का मतलब ढूंढ लिया करूंगा --- यहां मुझे ध्यान आ रहा है शास्त्री जी का ( sarathi.info) – मुझे लगता है कि वह हिंदी भाषी नहीं है लेकिन उन का भाषा ज्ञान देख कर मैं अकसर दंग रह जाता हूं। सीखने की सौभाग्यवश कोई भी सीमा होती नहीं है इसलिये मैं भी कोशिश करूंगा कि अपनी हिंदी में थोड़ा बहुत सुधार लाता चला जाऊं।

सोच रहा हूं कि एक ऐसा ब्लाग शुरू करूं जिस पर दिन में जितने कठिन शब्द देखे उन 8-10 शब्दों का शब्दार्थ उस में लिखा करूं --- इस समय यही विचार बन रहा है कि इस से एक तो आप सब हिंदी के विद्वानों को यह पता चलता रहेगा कि हिंदी के एक औसत पाठक का स्तर क्या है – उसे क्या मुश्किल लग रहा है , वह कितना समझ पा रहा है --- सोचता हूं यह काम तो शीघ्र शुरू करूंगा – स्वयं मेरे को भी इस से लाभ होगा और शेष हिंदी का औसर ज्ञान रखने वाले ( मेरे जैसे) बंधुओं के लिये भी यह ब्लॉग उपयोगी होगा --- इस के बारे में आप का क्या ख्याल है, लिखियेगा।

बस, अभी तो कहने को इतना ही है, पाबला जी, पत्र यहीं बंद कर रहा हूं --- आप को पत्र लिख कर बहुत अच्छा लगा --- और आप सब को भी नववर्ष की बहुत बहुत शुभकामनायें। और जाते जाते यह बताना चाहूंगा कि आप की पोस्ट देख कर बहुत ही अच्छा लगा --- आप ने कहा था कि मैं इसे अन्यथा न लूं ---वैसे तो सर उन में ऐसा कुछ था ही नहीं कि जिसे मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति अन्यथा ले सके और दूसरा यह कि मेरी खाल बहुत मोटी है । इसलिये आप से सविनय अनुरोध है कि भविष्य में भी अपना भाई समझ कर उचित मार्ग-दर्शन करते रहियेगा। शुभकामनाओं सहित,

प्रवीण
यमुनानगर

मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

चलो यार थोड़ा ठंड का इंतजाम करें ....





जब देश के इस भाग में यह जुमला दो दोस्तों के बीच बोला जाए तो समझ लिया जाये कि शाम को लवली पैग की तैयारी हो रही है, चिकन फ्राई की बात हो रही है, टिक्के, फिश-फ्राई की तैयारी हो रही है , चिकन-सूप का प्रोग्राम बन रहा है वरना खरोड़ों के जूस ( बकरे की टांग) की चाह हो रही है।

लेकिन हम इस ठंड का इंतजाम करते हैं चलिये सीधी सादी मूंगफली से --- अभी अभी बाज़ार से लौटा तो घर के पास ही एक रेहड़ी पर एक दुकानदार मूंगफली भून रहा था –मैं भी वह खरीदने के लिये खड़ा हो गया और ये तस्वीरें सभी वही ही हैं।

हम लोग पंजाब में बचपन से देखते रहे हैं कि मूंगफली की रेहड़ी पर एक बहुत बड़ा ढेर लगा रहता है – उस के बीचों बीच एक छोटे से मिट्टी के बर्तन में उपले या छोटी छोटी लकड़ीयां जलाई जाती थीं। और हर ग्राहक को मूंगफली उस बर्तन को उठा कर गर्मागर्म देता था --- और अगर कोई दुकानदार थोड़ा आलस्य करता था और ढेर में से किसी दूसरी जगह से मूंगफली देने की कोशिश भी करता था तो उसे ग्राहक से हल्की सी झिड़की भी पड़ जाती थी कि गर्म दो भई गर्म।

फिर कुछ समय तक हम लोग मूंगफली के पैकेट खरीद कर ही काम चला लिया करते थे --- लेकिन उस में कभी इतना मज़ा आता नहीं है --- पता नहीं क्यों --- कितनी तो खराब मूंगफली ही उस में भरी होती है !!


पिछले लगभग तीन साल से मैं यमुनानगर – हरियाणा में हूं और यहां पर मूंगफली खाने का मज़ा ही अपना है । जैसा कि आप इस फोटो में देख रहे हैं इस शहर में जगह जगह रेहड़ीयों पर मूंगफली बिकती है --- बस, आप यह समझ लीजिये कि पहला जो भट्ठीयां नीचे ज़मीन पर हुआ करती थीं अब ये भट्ठीयां रेहड़ी के ऊपर इन दुकानदारों ने बना ली हैं।


आप को ये तस्वीरें देख कर ही कितना अच्छा लग रहा होगा --- ठंडी छू-मंतर हो रही है कि नहीं ? – इन दुकानदारों ने लकड़ीयों आदि का इस्तेमाल कर के भट्ठी जलाई होती है – जिस पर ये थोड़ी थोड़ी मूंगफली लेकर सेंकते रहते हैं और उसी समय ग्राहकों को देते रहते हैं – इन रेहड़ीयों के इर्द-गिर्द खड़ा होना ही कितना रोमांचक लगता है ---किसी कैंप-फॉयर से कतई कम नहीं --- और आप को यह बताना भी ज़रूरी है कि इस मूंगफली को नमक में भूना जा रहा है --- इस मूंगफली का टेस्ट बहुत बढ़िया होता है।

अभी मूंगफली की बात खत्म नहीं हुई तो ध्यान आ गया है रोहतक की शकरकंदी का ---जिसे दुकानदार रेत की धीमी आंच में सेंक कर इतना बढ़िया कर देते हैं कि क्या बतायें --- वैसे एक बात है इन मौसमी बहारों का मज़ा जो रेहड़ी के पास ही खड़े हो कर खाने में आता है ना उस का अपना अलग ही रोमांच है।

वैसे भी व्यक्तिगत तौर पर मेरा बहुत ही दृढ़ विश्वास में गुमनाम हो कर जीने का मज़ा ही अलग है --- जहां कोई किसी को ना पहचाने --- सब अपनी मस्त में मस्त --- तो लाइफ का मज़ा ही आ जाये --- जहां पर जीवन की छोटी छोटी खुशियों उसे इस बात के लिये न बलिदान करनी पड़ें कि यार, मैं यहां खड़ा हो जाऊंगा तो लोग क्या कहेंगे--- मैं यहां खड़ा होकर कुछ खा लूंगा तो लोग क्या कहेंगे ---- कहेंगे सो कहेंगे --- यह उन की समस्या प्राचीन काल से है --- उन्होंने तो कुछ तो कहना ही है !!
चल बुल्लिया चल उत्थे चलिये,
जित्थे सारे अन्ने,
ना कोई साडी जात पछाने,
ना कोई सानूं मन्ने।

मूंगफली की बात हो रही है और कहां हम लोग मूंगफली खाते खाते गपशप करते करते उस महान पंजाबी सूफी संत बाबा बुल्ले शाह की तरफ़ निकल गये।

हां, तो मैं उस रेहड़ी वाले की बात कर रहा था --- मैंने उस की रेहड़ी के पास खड़े खड़े ऐसे ही कह दिया --- पहलां तां हुंदियां सन भट्ठीयां, हुन एह कम हुंदै रेहड़ीयों पर –( पहले तो यह काम भट्ठीयों के द्वारा होता था लेकिन अब यही काम रेहड़ीयों पर होता है ) --- मेरे पास ही खड़े एक सरदार जी ने कहा --- हुन तां न ही भट्ठीयां ही रहीयां ते ना ही भट्ठीयां वालीयां ही रहीयां --- ( अब न तो भट्ठियां ही रहीं और न ही भट्ठी वालीयां ही रहीं !!) --- मुझे भी उस समय बचपन के दिन याद आ रहे थे जब हम लोग मक्का लेकर एक भट्ठी पर जाया करते थे और उस के पास एक बोरी के टाट पर बैठ जाया करते थे --- वह हमें पांच मिनट में फारिग कर दिया करती थी --- कहां वह नायाब मक्का और कहां ये पैकेट वाले अंग्रेज़ी कार्न-फ्लेक्स !!-- आज भी मुझे जब कोई पूछता है ना कि कार्न-फ्लेक्स खाने हैं तो मेरी आधी भूख तो इस इंगलिश के नाम से ही उड़ जाती है।

यह मैं जिस मूंगफली की रेहड़ी की बात कर रहा हूं --- इन के द्वारा बहुत ही बढ़िया किस्म की मूंगफली इस्तेमाल की जाती है – बिल्कुल साफ --- और इतनी बढ़िया महक।

लगभग छःसात साल पहले मैं जब एक नवलेखक शिविर में गया तो मुझे कुछ आइडिया नहीं था कि लेखन कैसे शुरू करना होता है --- और वहां से आने के बाद कईं साल तक मुझे लगता रहा कि यार ये लेखों के विषय तो बड़े ही सीमित से हैं --- जब मैं इन सब पर लेख लिख लूंगा तो फिर क्या करूंगा --- लेकिन पिछले दो-तीन साल से यह आभास होने लगा है कि केवल हमारा आलस्य ही हमारे आड़े आता है --- हम कलम उठाने में ही केवल सुस्ती कर जाते हैं---वरना लेखों का क्या है ---- लेखों के बीसियों विषय हमें रोज़ाना अपने इर्द-गिर्द दिखते हैं – बस इस के लिये केवल शर्त इतनी सी है कि बस केवल आंखें और कान खुले रखें और हमेशा ज़मीन से जुड़े रहें ।

अच्छा दोस्तो अब मूंगफली काफी खा ली है , थोड़ा थोड़ा खाना खा लिया जाये ----उस के बाद मूंगफली को गुड़ के साथ लेकर फिर बैठते हैं । बिल्कुल सच बताईयेगा कि इस पोस्ट के द्वारा इस सर्दी में भी आप को गर्मी का अहसास हुआ कि नहीं ---- क्या कहा…… नहीं ? ….फिर तो आप को इस मूंगफली के लिये यहां यमुनानगर ही आना होगा।

आज जब मैंने उस 19-20 साल के नवयुवक को देखा ....

तो मुझे पहले तो यही लगा कि वह मेरे पास किसी दांतों की तकलीफ़ के आया है लेकिन जैसे ही मुझे पता लगा कि वह हैपेटाइटिस-बी के लिये कुछ टैस्टों के लिये साइन करवाने के आया है तो मुझे बहुत बुरा लगा। दोस्तो, बुरा इसलिये लगा क्योंकि इस नवयुवक का व्यक्तित्व किसी अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी से किसी भी तरह से कम नहीं था ---मुझे लगता है कि उस का कद छः फुट तो होगा ही और सामान्य स्वास्थ्य भी बहुत बढ़िया था।

मेरे पास वह युवक इसलिये आया था क्योंकि कुछ एडवांस टैस्ट जो हमारे हास्पीटल में नहीं होते, उन टैस्टों को हमारा हास्पीटल बाहर प्राइवेट लैब से करवाने की व्यवस्था करता है और उस के लिये उस की स्लिप पर चिकित्सा अधीक्षक( जो काम मैं आजकल देख रहा हूं) – की स्वीकृति के लिये वह मेरे पास आया था।

अभी मैं उस की टैस्टों वाली स्लिप पढ़ पाता जिसे फिज़िशियन ने लिखा हुआ था, इतने में ही उस का पिता कहने लगा कि इसे देखो, क्या आप को लगता है कि इसे पीलिया है ? – मैं थोड़ा चुप था – उस की बात समझने की कोशिश कर रहा था। उस लड़के ने आगे बताया कि बस कुछ समय पहले वह पंजाब गया हुआ था और वहां पर उस ने रक्त-दान किया था। और कल ही वहां से फोन आया है कि मेरे रक्त में हैपेटाइटिस-बी के विषाणु ( वायरस) पाये गये हैं।

उस लड़के एवं उस के पिता की बातचीत से यही लग रहा था कि वे समझ रहे हैं कि लड़के ने रक्त दान किया है और इसी की वजह से वह इस हैपेटाइटिस-बी की चपेट में आ गया है। ऐसा मैंने पहले भी कुछ हैपेटाइटिस-बी के मरीज़ों के मुंह से सुना था और एक-दो एच.आई.व्ही संक्रमित व्यक्तियों से भी ऐसा ही कुछ सुन रखा था।

मुझे उस लड़के के साथ पूरी सहानुभूति थी --- बहुत बुरा लगता है जब हम लोग किसी इतने कम उम्र के इतने हृष्ट-पुष्ट इंसान को मिलते हैं जिसे अभी अभी पता चला हो कि उसे हैपेटाइटिस-बी की इंफैक्शन है। इसलिये मैंने उसे एवं उस के पिता को 10 मिनट लगा कर बहुत अच्छी तरह से इस के बारे में बता दिया।

दरअसल होता यूं है कि जब भी कोई रक्त दान शिविर लगता है तो रक्त-दाताओं का पता एवं फोन नंबर इत्यादि नोट किया जाता है – रक्त को इक्ट्ठा करने के बाद उस की यह जांच की जाती है कि उस में एचआईव्ही, हैपेटाइटिस बी, हैपेटाइटिस सी एवं मलेरिया जैसे रोगों के कीटाणु तो नहीं है ---अगर किसी रक्त दाता के रक्त में इस तरह का कोई संक्रमण पाया जाता है तो उस रक्त को नष्ट कर दिया जाता है और उस रक्त दाता को सूचित कर दिया जाता है । इस नौजवान वाले केस में भी यही हुआ था।

जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूं कि लड़का बहुत ही स्वस्थ था --- उस का पिता पहले ही से मेरे को जानता था । उस के जो टैस्ट अभी करवाने के लिये फ़िज़िशियन ने लिखा था उस के बारे में मैंने उन्हें समझाया कि ये टैस्ट केवल इसलिये हैं कि लड़के के रक्त की पूरी तरह से जांच की जा सके --- हैपेटाइटिस बी की दोबारा जांच होगी, हैपेटाइटिस सी की भी होगी --- क्योंकि इन दोनों संक्रमणों के फैलने का रूट एक जैसा ही है। ये दोनों ही या तो संक्रमित सिरिंजों एवं सूईंयों के द्वारा, या संक्रमित रक्त के द्वारा अथवा संक्रमित व्यक्ति के साथ यौन संबंध स्थापित करने से ही फैलते हैं।

मुझे उस नवयुवक से ये सब बातें करने के बाद यह नहीं लगा कि वह ऐसे किसी कारण के बारे में कोई ठीक से हिस्ट्री दे पाया है --- न तो उसे कभी रक्त ही चढ़ा था, न ही उसे कभी इंजैक्शन वगैरा लगने का ध्यान था और यौन-संबंधों के बारे में मैंने उस की उम्र को देखते हुये कुछ ज़्यादा प्रोब करना ठीक नहीं समझा ।

मैंने उसे समझाया कि ऐसा नहीं कि यह जो तकलीफ़ हो गई है यह लाइलाज है --- अभी तुम्हारे सारे टैस्ट हो रहे हैं—उस के बाद यह निर्णय होगा कि तुम्हारा क्या इलाज चलेगा—कोई चिंता की बात नहीं है।

सोचता हूं कि हमारे लिये भी किसी मरीज़ को बिल्कुल एक तकिया कलाम की ही तरह यह कह देना कितना आसान होता है कि यार, चिंता न करो – सब ठीक होगा। शायद कईं बार मरीज़ की मनोस्थिति को भांपते हुये ये शब्द कहने भी बहुत ज़रूरी होते हैं।

यह पाठकों की सूचना के लिये बताना चाहता हूं कि हमारे देश की लगभग दो फीसदी जनसंख्या इस हैपेटाइटिस-बी के वायरस की कैरियर है – इसे हम लोग कहते हैं एसिंपटोमैटिक कैरियर्ज़ – अर्थात् ऐसे लोग जिन के रक्त में हैपेटाइटिस बी की वायरस तो है लेकिन उन्हें इस से संबंधित बीमारी अभी नहीं है ---- और अभी ही क्यों, कईं बार तो कुछ लोग बिना किसी तकलीफ़ के सारी उम्र केवल कैरियर ( संवाहक) ही रहते हैं --- उन्हें तो इस से कोई तकलीफ़ होती नहीं लेकिन बेहद दुःखद बात यह है कि वे इस वायरस को किसी भी दूसरे व्यक्ति को देने में पूरे सक्षम होते हैं – चाहे तो अपने रक्त के द्वारा, अपनी लार के द्वारा अथवा यौन-संबंधों के द्वारा।

उस युवक के बारे में बहुत बुरा इसलिये भी लगा कि अभी उस की इतनी छोटी उम्र है ---अभी पूरी उम्र पड़ी है उस के आगे --- अगर वह एसिंपटोमैटिक कैरियर भी है ( asymptomatic carrier of Hepatitis B virus) – अगर टैस्टों से इस बात का पता चला – तो भी उपरोक्त कारणों की वजह से एक बहुत बड़ी परेशानी तो हो गई ---सारी उम्र खौफ़ के साये में जीना पड़ेगा --- I really felt very very bad for this youngman – He was the picture of perfect health !!

अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर इन नौजवान में हैपेटाइटिस-बी का वॉयरस आया कहां से --- अब इस के बारे में क्या कहा जाये ---जब तक किसी से उचित हिस्ट्री प्राप्त नहीं होती, कुछ कहा नहीं जा सकता – इतना तो तय है कि आती तो वॉयरस रक्त के अथवा किसी अन्य बॉडी फ्लूयड़ ( body fluilds ) के माध्यम से ही ।

हैपेटाइटिस बी से बचाव के टीके का ध्यान आ रहा है --- अकसर लोग इसे कितना लाइटली लेते हैं --- लेकिन देखिये जिस किसी को भी यह इंफैक्शन हो जाती है उस की तो सारी ज़िंदगी ही बदल जाती है।

उस नवयुवक की लंबी स्वस्थ ज़िंदगी के लिये मेरी ढ़ेरों शुभकामनायें एवं आशीष !!

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

ब्लॉगिंग की डगर की मेरी रूकावटें ...

एक साल से ज़्यादा हो गया है इस ब्लॉगिंग के चक्कर में पड़े हुये ---लेकिन बहुत बार बहुत कुछ लिखना चाहते हुये भी आलस्य कर जाता हूं- इस के कारण आज आप के समक्ष बैठ कर ढूंढने का प्रयास कर रहा हूं ---

1. एक कारण इस आलस्य का यह है कि मुझे मोबाइल फोन से कंप्यूटर में या लैपटाप में तस्वीरें ट्रांस्फर करने का ज्ञान नहीं है। और पिछले एक साल से ही सोच रहा हूं कि यह काम सीखना है --- लेकिन बस सोचता ही रहता हूं। मेरे पास इतनी इतनी बढ़िया तस्वीरों का संग्रह है कि क्या बतलाऊं ---- मुझे पता है कि यह सीखना 10-15 मिनट का काम है । लेकिन पता नहीं कभी इच्छा ही नहीं होती --- लेकिन इस चक्कर में मेरे लेखन पर बहुत ही ज़्यादा असर पड़ रहा है, इसलिये अब सोचता हूं कि इस काम को गंभीरता से लेकर इन तस्वीरों को लैपटाप पर ट्रांसफर करना भी सीख ही लूंगा।

इस आलस्य का एक कारण यह भी है कि हमारे घर में इतनी ज़्यादा तारें हैं कि मैं उन्हें देख देख कर कंफ्यूज़ ही रहता हूं। बस, मेरा तो नेट लग जाये तो मैं इत्मीनान कर लेता हूं। इतनी ज़्यादा तारें होने की वजह से जिस वक्त जिस केबल की ज़रूरत होती है वही नहीं मिलती, बस सब कुछ मिल जाता है। इस अव्यवस्था में मेरे बेटों की भी काफ़ी भूमिका है ---- कभी इन उपकरणों को व्यवस्थित करने की उन्होंने भी कोशिश नहीं की।

2. दूसरा कारण भी वैसे तो इस से मिलता जुलता ही है कि एक अच्छे खासे डिजीटल कैमरे से तस्वीरें लैप-टाप में ट्रांस्फर करना अभी मैंने सीखा नहीं है और छोटी छोटी बात के लिये मुझे किसी के ऊपर निर्भर रहना कुछ ठीक नहीं लगता। इसलिये बस उस में बंद तस्वीरें उस में ही बंद रहती हैं जब तक कि कोई उन को लैपटाप में या कंप्यूटर में ट्रांस्फर न कर दे।

लेकिन अब सोचता हूं कि अगर चिट्ठाकारी करनी है तो इन सब बातों का कार्यसाधक ज्ञान तो होना बहुत ही ज़रूरी है और विशेषकर अगर आप किसी विज्ञान से संबंधित विषय पर लिख रहे हैं तो इन उपकरणों की ज़रूरत तो और भी बढ़ जाती है।

3. तीसरा कारण है कि मैं बड़ा परफैक्शनिस्ट किस्म का इंसान हूं ---जब तक मैं किसी बात के बारे में स्वयं पूरी तरह से आश्वस्त न हो लूं, मैं उसे पब्लिक डोमेन पर डालना उचित नहीं समझता हूं। वैसे चिकित्सा जैसे विषय में अगर कोई लिख रहा है तो यह विश्वसनीयता बेहद आवश्यक है ---वरना लिखने के नाम तो बहुत कुछ लिखा जा ही रहा है। तो, इस लिये सब तथ्य जुटाने के चक्कर में कईं बार थोड़ी ऊब सी होने लगती है।

लेकिन पता नहीं यही कारण है कि मैंने अपनी कुछ पोस्टों में अपने व्यक्तिगत जीवन, प्रोफैशनल जीवन से उठाकर इतनी गहरी बातें इन चिट्ठों पर डाल दी हैं कि मैं अपने आप को बिल्कुल खाली समझने लगा हूं --- एकदम हल्का। इतना हल्का कि जिन जिन विषयों पर मैं लिख चुका हूं उन के बारे में मेरे द्वारा कुछ भी और कहना बचा नहीं है ।
और इतना भी जानता हूं कि जब कभी इस चिट्ठा पर कोई किताब छापने की खुराफ़ात सवार होगी (मुझे पता है कि देर-सवेर यह होगी ही !!) तो बिना किसी संपादन के ही इसे छपवा दूंगा और सारी टिप्पणीयां भी साथ ही लगी रहने दूंगा ---यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि चिट्ठाकारी पर छपने वाली किताब की महक इसी तरह ही कायम रह सकती है।

4. ब्लागिंग को सुंदर बनाना नहीं आता ---सुंदर से मेरा भाव है कि कुछ एचटीएमएल नुस्खों के द्वारा किस तरह से ब्लाग को सुंदर बनाया जा सकता है इसे सीखने की मेरी इच्छा तो बहुत है लेकिन पता नहीं कुछ बात बन ही नहीं रही । अब मैं समझता हूं कि पोस्ट में हाइलाइटिंग होनी बहुत ज़रूरी है लेकिन पता नहीं बार बार भूल जाता हूं । अब सोचता हूं कि ये सब बातें जब सीखूंगा तो किसी नोटबुक में नोट कर लिया करूंगा।

5. बहुत बार अतीत में चला जाता हूं --- सब से पहले मैंने 9-10 साल सर्विस बंबई में की ---बहुत अच्छा था ---बंबई सैंट्रल में ही हम लोग रहते थे ---शाम को कभी चौपाटी, कभी मैरीन ड्राइव, कभी नरीमन प्वाईंट और कुछ नहीं तो बंबई सैंट्रल स्टेशन का पांच नंबर प्लेटफार्म ही इतना लंबा था कि अपनी बिल्डिंग से नीचे उतर कर वहां पर ही पंद्रह बीस मिनट टहल लिया करते थे। बंबई में मैंने बहुत कुछ सीखा --- इस नगरी में भी ऐसी बात है कि जब आदमी वहां पर रह रहा होता है तो लगता है कि कैसे भी हो, बस यहां से भाग लिया जाये लेकिन जब यह नगरी छूट जाती है तो इस की बहुत ही ज़्यादा याद आती है --- और अब जहां पर हूं वहां पर किसी जगह घूमने जाने का आलस्य ही लगा रहता है ---- अजीब सी सड़के, ट्रैफिक की कोई इतनी व्यवस्था नहीं, सड़कों पर स्ट्रीट लाइटें कभी जल पड़ी कभी बंद रहीं ----- बस, यूं कह लीजिये कि जैसे तैसे कट रही है। इसलिये ये सब बातें जब सोचने लग जाता हूं तो कुछ भी लिखने की इच्छा नहीं होती।
लेकिन यह कोई मेरी ब्लागिंग के लिये इतनी बड़ी रूकावट नहीं है ---- यह बहानेबाजी ज़्यादा है ।

वैसे इतना लंबी चौड़ी पोस्ट लिखने के बाद लग रहा है कि यार, ये रूकावटें भी क्या कोई रूकावटें हैं ---- अपने आप से कह रहा हूं कि बहाने बनाने छोड़ और ब्लागिंग को गंभीरता से लेना शुरू कर ---- और ध्यान आ रहा है कि मुझे तो इस प्रभु का बार बार शुक्रिया अदा करना चाहिये कि मैं एक ऐसे प्रोफैशन में हूं जिस में जनता-जनार्दन की सेवा कर सकता हूं, कंप्यूटर है, इंटरनैट है, अच्छी भली सोच है और अंगुलियां दुरूस्त हैं लिखने के लिये तो इस के इलावा तो जो भी रूकावटें गिना डाली हैं वे तो वास्तव में कोई रूकावट न हुईं।

देखिये, जब हम लोग कलम उठा लेते हैं तो हमें बहुत सी बातें अपने आप ही समझ आने लगती हैं ---जैसे मुझे आज यह आभास हो गया है कि मैं अपनी ब्लागिंग की डगर पर आने वाली जिन रूकावटों की बात कर रहा हूं वे तो बहुत ही तुच्छ हैं । तो इसलिये यह निश्चय किया है कि अगले तीन-चार दिनों में ही ऊपर लिखी सभी रूकावटों को दूर करने की पूरी पूरी कोशिश करूंगा ---ताकि पहली जनवरी 2009 से जो पोस्टें लिखूं उन को अपने ढंग से लिखूं ----- न तो फोटो डालने के लिये कोई आलस्य हो और न ही हाइलाइटिंग के नाम से ही घबराना पड़े
---------------इसे आप मेरा नव-वर्ष का अग्रिम संकल्प जान लीजिये या कुछ और, लेकिन नये वर्ष में मैं अपने चिट्ठे को नय रूप, नया स्वरूप देने का वायदा अपने आप से कर रहा हूं।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

और जैसे ही मैंने उन्हें डायरी लिखने की सलाह दी ......

डायरी मैं भी लिखता हूं—मैंने एक चिट्ठा ही बना रखा है –डाक्टर की डायरी से --- लेकिन मुझे पता है कि मैं उसे लिखने में इमानदारी नहीं कर रहा हूं। मैं यह इसलिये नहीं कह रहा हूं क्योंकि मैंने उस में कुछ गलत लिखा है, तोड़-मरोड़ के लिखा है, बात यह नहीं है---तो फिर बात है क्या ? – बात वास्तव में यह है कि मैं बहुत सी ऐसी बातें लिखने के लिये हिम्मत नहीं जुटा पाता हूं जो मुझे वास्तव में मुझे सब से ज़्यादा कचोटती रहती हैं। और डायरी लिखते वक्त किसी बात को गल्त तरीके से पेश करना या कुछ बातों को बड़ी शातिरता से छुपा लेना --- देखा जाये तो जुर्म तो एक सा ही हुआ ---हुआ कि नहीं ?

इसी डायरी से बात याद आ रही है मुझे मेरे एक बुज़ुर्ग मरीज़ की- लगभग 70 वर्ष के होंगे। पहले वह नियमित तौर पर अपनी पत्नी के साथ मेरे पास आते थे और उनकी बातचीत में बहुत गर्म-जोशी देखने को मिलती थी। मुझे वह बहुत ज़िंदादिल इंसान दिखते थे।

एक महीना पहले जब वह मेरे पास आये तो मुझे बुझे बुझे से लगे --- परेशान से ---क्या है ना कि इस उम्र के किसी इंसान के चेहरे को पढ़ना और भी आसान हो जाता है ---सारी किताब ही हमारे सामने खुली पड़ी होती है। मैंने उन्हें दवाई देने के बाद पूछ ही लिया कि क्या बात है आज आप पहले जैसे चुस्त-दुरूस्त नहीं दिख रहे । कहने लगे कि बस ऐसे ही कुछ परेशानियों ने घेर रखा है ।

जब मैं उन के मैडीकल के केस-पेपर्ज़ देख रहा था तो उस में से कागज़ का टुकड़ा भी पड़ा था जिस में उन्होंने सैनेटरी के सामान का पूरा हिसाब किताब रखा हुआ था ---मिस्त्री को दिये गये पैसे के बारे में भी लिखा हुआ था। मुझे उन से बात कर के ऐसा लगा कि वह शरीर से ज़्यादा दुःखी नहीं हैं, मन से कहीं ज़्यादा दुःखी हैं।

मैंने उन से पूछा कि क्या आप डायरी लिखते हैं- जवाब मिला नहीं। मैंने उन्हें कहा कि आज अभी आप हास्पीटल से निकल कर पहला काम यह करेंगे कि एक डायरी खरीदेंगे, ज़रूरी नहीं कि यह कोई बहुत महंगी किस्म की हो। अगर आप चाहें तो एक स्कूल वाली नोट बुक खरीद लें और घर जा कर आज से ही डायरी लिखना शुरू कर दें।
वह महानुभाव मेरी बात बड़ी तन्मयता से श्रवण कर रहा था ---मैं लोहा गर्म देखते हुये आगे कहना शुरू किया --- आप उस में वह सब कुछ लिख डालिये जिसे किसे से कहते हुये या तो आप डरते हैं, झिझकते हैं और या जिसे कोई सुनना ही नहीं चाहता। वह मेरी बात बड़े ध्यान से सुन रहे थे।

मैंने उन के केस-पेपरों में सैनिटरी वर्क्स का कागज़ देखा था – बता रहे थे कि वे घर में कुछ सैनिटरी का नया काम करवा रहे हैं। तो मैंने उदाहरण इसी बात की ली—मैंने पूछा कि क्या उस का काम सब ठीक चल रहा है--- तो उन्होंने दिल खोलना शुरू किया कि मैं इन मिस्त्रीयों से भी बड़ा परेशान हूं – एक दिन काम कर जाते हैं, चार दिन कोई और काम पकड़ लेते हैं। मैंने उन्हें आगे कहा कि क्या आप जानते हैं कि इस तरह की बातों का इलाज क्या है ----मैंने उन्हें कहा कि आप डायरी लिखा कीजिये।

मैंने उन्हें कहा कि आज डायरी की शुरूआत इस सैनिटरी वाले काम से ही करें ---- सैनिटरी का काम घर की सफाई करना है और यह डायरी मन की सफ़ाई करनी शुरू कर देगी। तो फिर आज आप यूं लिखिये कि किस सैनिटरी मिस्त्री से आप परेशान हैं --- वह क्यों आप के लिये सिरदर्द बना हुआ है --- उस से आप को क्या गिले-शिकवे हैं ---- सब कुछ उस में इमानदारी से लिख डालिये --- लेकिन शर्त केवल यही है कि जब आप उसे लिखें तो शत-प्रतिशत इमानदारी बरतें—उस में कुछ भी लिखना चाहें, बिना किसी रोक-टोक के लिखिये ---वह आप की डायरी है, कोई परवाह नहीं। आप किसी को बुरा भला कहना चाह रहे हैं तो लिख डालिये न, आप को भला इस कायनात में कौन ऐसा करने से रोक रहा है। किसी को गालियां देने की इच्छा हो रही है, तो यह शुभ कर्म भी कर डालो। वह बुज़ुर्ग मेरी बातें बड़ी लगन से सुन रहे थे।

वैसे तो मैं जिस सत्संग में जाता हूं वहां पर किसी को बुरा भला कहने के लिये बिल्कुल मना किया जाता है – गाली गलौज की बात तो बहुत दूर की बात हो गई। लेकिन जब कोई आदमी बदलेगा तब बदलेगा --- तब तक तो अपनी नोटबुक और कलम ज़िंदाबाद। मैं उन को कह रहा था कि लिखते हुये किसी बात की परवाह न किया करें—जो बात भी, जो इंसान आप को परेशान किये हुये हैं उन के बारे में दिल खोल कर लिखा करें। अगर आपकी आप के पड़ोसी के साथ टुक-टुक रहती है तो यार आप को कम से कम इसे कागज़ पर उतार लेने से कौन रोक रहा है, लिखिये बिंदास हो कर लिखिये। मेरी इस बात पर उन की तो बांछें ही खिल गईं और उन्होंने जो ठहाका लगाया वह मैं कभी नहीं भूलूंगा ----विश्वास कीजिये, मज़ा आ गया, मुझे लगा कि मेहनत सफल गई। और मैं उस ठहाके को हमेशा याद रखूंगा।

मैंने उन्हें आगे बताया कि इस बात की परवाह मत करिये कि इसे कोई पढ़ लेगा—वैसे हो सके तो आप घर में सब को बता कर रखिये कि मेरी डायरी जब तक मैं जीवित हूं तब तक कोई भी न पढ़े। फिर भी अगर गलती से कोई पढ़ भी ले, तो यह तो उस की समस्या है। और मैंने उन्हें आगे सुझाव दिया कि पहले पन्ने पर यह नोटिस भी लिख दें कि अव्वल तो इसे कोई पढ़े नहीं, वरना अगर गलती से, जिज्ञासा वश पढ़ भी ले तो इस में लिखी किसी बात के बारे में मेरे से चर्चा न करे।

मैं उन बुज़ुर्ग के चेहरे के बदलते भाव देख रहा था --- मैंने फिर उन्हें कहा कि यह काम आज से ही शुरू हो जाना चाहिये। उस दिन जाते जाते कहने लगे कि डाक्टर साहब, आप से बातें करने के बाद मुझे तो अभी से ही बहुत अच्छा लगने लगा है, मैं आज ही यह रोज़ाना लिखने का काम करना शुरू करता हूं। जाते जाते मैंने उन्हें इतना ही कहा कि देखिये, शरीर के लिये तो आप ने दो एक दवाईयां खा लीं और आप फिट हो गये, लेकिन अफसोस इस मन के लिये कमबख्त कोई टेबलेट ऐसी बनी नहीं है जो इसे लाइन पर ला सके ---उस काम के लिये नये नये तरीकों की खोज करनी होगी और डायरी लिखना और पूरी इमानदारी से अपनी बात को अपने आप को कहना उसी दिशा में किया गया एक ऐसा ही सार्थक प्रयास है।

पता नहीं हम कितनी बातें अपने मन के अंदर ही दबा कर बैठे रहते हैं, किसी से करने में झिझकते हैं, डरते हैं ( विभिन्न कारणों की वजह से) – और सब प्रकार की बीमारियों को अपने शरीर में घर बनाने के लिये निमंत्रण देते रहते हैं। पंजाबी में हम लोग अकसर कहते हैं ---- दिल खोल लै यारां नाल, नहीं तां डाक्टर खोलणगे औज़ारां नाल ( दिल खोल ले यारों से, वरना डाक्टर खोलेंगे औज़ारों से )--- अब अगर यार की जगह कोई डायरी ले रही है तो क्या फर्क पड़ता है।

यह तो बुज़ुर्ग हैं ना आज की तारीख में बहुत अकेले हैं ---- इस के कारण लिखने की मुझे यहां ज़रूरत महसूस नहीं हो रही --- सब कुछ आप जानते हैं। और यही अकेलापन इन की अधिकांश तकलीफ़ों की जड़ है। ये शारीरिक बीमारियों को कुछ नहीं समझते, उन को तो ये बड़े खेल-पूर्ण भाव से सहन कर लेते हैं, उन से टक्कर भी ले लेते हैं , और बहुत बार जीत भी जाते हैं ---- लेकिन इन्हें इस जीत हार की इतनी परवाह नहीं होती, दरअसल ये लोग हारते हैं तो अपनों से ही हारते हैं ---- अपने बेटों-बहुओं के हाथों जब से हारते हैं, जब अपने पौतों के हाथों हारते हैं ---तो इन से यह सहा नहीं जाता, ये टूट जाते हैं और तरह तरह की मन की तकलीफ़ों के शिकार हो जाते हैं ----विशेषज्ञ कुछ भी कहें, लेकिन अभी तक कोई टेबलेट मेरे विचार में तो बनी नहीं जो किसी के मन को भी स्थायी तौर पर दुरूस्त कर डाले। इसलिये भी यह डायरी लिखनी बहुत आवश्यक है ---गांव में कुछ लोग यह सब कुछ लिखने पढ़ने की जगह गांव की चौपाल पर बैठ कर, बुज़ुर्ग महिलायें घर के बाहर खटिया डाल कर अपने मन को हल्का करने का काम बखूबी कर लिया करती थीं ----अब अगर कोई इसे निंदा-चुगली की संज्ञा दे तो दे, अगर बस चंद मिनटों के लिये मुंह की मैल उतार लेने के बाद, अपने तपते हुये मन की तपिश (गर्म हवा, हवाड़) निकालने के बाद उन्हें अच्छा लग रहा है, तो अपना क्या जाता है !!

और मैं जिस बुज़ुर्ग की बात कर रहा था उन्हें मैंने इतना भी कह दिया कि जब आप कुछ महीनों बाद,अपने वर्षों बाद अपनी ही लिखी डायरी पढ़ेगे तो मज़ा आ जायेगा।

लेकिन मैं यह सब कुछ इतनी विश्वसनीयता से कैसे लिख रहा हूं --- क्योंकि मैं यह सब कुछ लिखता रहता हूं ---- जब कभी सिर भारी होता है तो यह काम सिर को हल्का करने के लिये करना ही पड़ता है। नेट पर लिखना ठीक है, लेकिन इस काम के लिये तो आपकी अपनी कापी और पेन से बढ़ कर कोई हथियार है ही नहीं---- नहीं, नहीं, ऑनलाइन डायरी हम लोगों के लिये नहीं है, ऐसा मैं सोचता हूं। कुछ लोग लिखते हैं –लेकिन अनॉनीमस ढंग से लिखते हैं ---जो लोग अपने नाम से, अपनी सही पहचान के साथ लिखते हैं वे बधाई के पात्र हैं। वैसे भी हिंदी में क्या कोई ऑन-लाइन डायरी लिख रहा है--- वैसे तो यह ब्लाग भी ऑन-लाइन डायरी ही है, लेकिन मैं पर्सनल ऑन-लाइन डायरी की बात कर रहा हूं !!

ऑन-लाइन डायरी में अगर अपनी पहचान बता कर के कोई डायरी लिख रहा है तो मेरे विचार में वह पूरी इमानदारी चाहते हुये भी बरत नहीं पाता है। अपने उजले पक्ष के बारे में लिख लिख कर आदमी खुद ही परेशान हो जाता है, चलिये अगर अपने अंधकारमय पक्ष के बारे में किसी से नहीं भी बात करनी तो कम से कम अपने आप से लिख कर बात करने से हम क्यों अपने आप को रोके रखते हैं ? बात है कि नहीं सोचने लायक --- अगर हां, तो उठाइये कलम से और अभी एक नोट बुक पर अपना गुब्बार निकालना शुरू कर दीजिये। और जैसा मैंने अपने उस बुज़ुर्ग मरीज़ को यह भी कहा था कि आप यह लिखना तो शुरू करें, देखिये आप की ज़िंदगी में हरियाली और खुशहाली आ जायेगी------- दोस्तो, अगर आप के आप पास भी कोई बुझी सी आत्मा आप को दिख रही है तो उस तक भी मेरा यह संदेश अवश्य पहुंचा दीजियेगा, कृपा होगी – समझूंगा पोस्ट लिखने का परिश्रम सार्थक होगा।

बड़े दिन की बहुत बहुत मुबारकें --- कल रात ही मैं रोहतक से लौटा हूं और आज यहां यमुनानगर में घना कोहरा छाया हुया है।

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

डायबिटिज़ के पैर में बिंदी लगाने से इतनी नाराज़गी !!

इस शनिवार की सुस्त सी शाम में निठल्ले बैठे बैठे गूगल सर्च के बारे में एक बात का ज्ञान हो गया है- इसलिये आगे से नेट पर हिंदी लिखने में और हिंदी में गूगल सर्च करते वक्त सावधानी बरता करूंगा। बस, मैंने ऐसे ही डाय़बिटिज के नाम से गूगल सर्च की - नोट करें कि जब मैं गूगल-सर्च के लिये डायबिटिज़ लिख रहा था तो गलती से मेरे से की जगह लिखा गया अर्थात् के पैर में बिंदी लग गई। फिर भी मैंने इस की परवाह की - सोचा कि इस से क्या फर्क़ पड़ेगा --- मैंने सर्च के बटन पर कर्सर ले जाकर सर्च दबा दिया।

मैं सर्च रिज़ल्टस देख कर बहुत हैरान हुआ ---गूगल सर्च ने कहा कि इस शब्द के लिये कोई रिज़ल्टस ही नहीं हैं। मैंने ध्यान से देखा तो यही पाया की के पैर में बिंदी पड़ी हुई है - तो मैं समझ गया कि यहां भी इस बिंदी का ही पंगा है। मैंने तुरंत उसी तरह से दोबारा डायबिटिज़ लिखा जिस तरह से मैं आम तौर पर अपनी पोस्टों में लिखता हूं -- तो रिज़ल्ट्स में मेरी कुछ पोस्टें दिख गईं ( जो कि मैं देखने के लिये गूगल सर्च पर बिना वजह आवारागर्दी कर रहा था)

फिर उस के बाद मैंने एक और एक्पैरीमैंट करना चाहा --- मैं अब गूगल सर्च पर डायबिटीज़ लिखा ---अब भी रिज़ल्ट बदल गये। मेरी किसी पोस्ट में जहां पर मैंने डायबिटीज़ लिखा हुआ था, वह प्रकट हो गई।


मैं कुछ कुछ समझने लगा कि यह हिंदी के स्पैलिंग्ज़ की भी कितनी बड़ी भूमिका है नेट में ----कहीं भी बिंदी लगी या हटी, कहीं सिहारी की बिहारी बनी और कहीं भी आंचलिक पुट आया नहीं कि सर्च रिज़ल्ट्स ही बदल गये
मैं अब बैठा बैठा यही सोच रहा हूं कि आने वाले समय में यह नेट पर हिंदी एक सशक्त माध्यम बस अब बनने ही वाला है --मैं अधिकतर स्वास्थ्य विषयों पर ही लिख कर अपने अल्प-ज्ञान का दिखावा कर लेता हूं ( अधजल गगरी छलकत भारी !!) लेकिन मैं अकसर फीड-जिट में अकसर देख कर हैरान हो जाता हूं कि किस तरह के सीधे साधारण की-वर्ड्स लिख कर सेहत के किसी विषय के लिये गूगल सर्च की जा रही है।

हिंदी हिंदी हम पिछले साठ सालों से कह रहे हैं ----लेकिन अब हिंदी का दौर गया है --- यह हम सब प्रत्यक्ष देख ही रहे हैं। किसी भी शब्द को हिंदी में लिख कर गूगल-सर्च कीजिये और कुछ कुछ तो सर्च करने वाले के हाथ में लग ही जाता है। इस का कारण यही है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग इस हिंदी रूपी यज्ञ में दिन प्रतिदिन अपनी आहूतियां लगातार डालते जा रहे हैं जो भी किसी ज़रूरतमंद की सर्च -रिज़ल्ट के रूप में प्रकट होती हैं।

और मुझे लगने लगा है कि हिंदी नेट पर बढ़ भी रही है और वह भी इतने प्रजातांत्रिक स्टाइल में ---जब कोई भी व्यक्ति विश्व में हिंदी में कोई जानकारी ढूंढ रहा है तो उसे शुरू शुरू में स्पैलिंग्ज़ वगैरह की इतनी चिंता करने की ज़रूरत नहीं ----शायद ज़रूरत नहीं , लेकिन ज़रूरत तब लगने लगेगी जब उसे वांछित जानकारी के लिये स्पैंलिंग्ज़ तो ठीक करने ही होंगे --- शायद इस से हम लोगों की हिंदी में भी सुधार होने लगा।

मैंने सोच रहा हूं कि इस देश में कहते हैं इतने कोस पर पानी और इतने कोस पर बोली बदल जाती है - तो फिर हम कुछ भी कर लें किसी भी टापिक को सर्च करते वक्त हमें इस तरह की थोड़ी परेशानियों से तो रू--रू होना ही पड़ेगा ---लेकिन क्या ये वास्तव में ही परेशानियां हैं ? आइये सोचते हैं।

जब हम लोग नेट पर लिख रहे होते हैं तो ----चलिये मैं अपनी ही बात करता हूं ---कईं बार कोई स्पैलिंग गल्त हो भी जाये तो ज़्यादा परवाह किये बिना आगे बढ़ जाते हैं ----लेकिन आज लग रहा है कि यह बात बिल्कुल ठीक नहीं है ---- अगल हम चाहते हैं कि सर्च रिज़ल्ट्स के माध्यम से हम लोगों तक पहुंच सकें तो यह संभव तभी होगा जब हम शुद्द लिख रहे हैं ----शुद्ध से मेरा मतलब वह वाली हिंदी नहीं जिसे देख कर, पढ़ कर, सुन कर एक आम हिंदोस्तानी डर जाता है --- उसे लगने लगता है कि यार, यह अपने बस की बात नहीं है।

इसलिये पढ़े-लिखे इंगलिश वर्ग को अगर हम लोग नेट के माध्यम से हिंदी से जोड़ना चाहते हैं तो हमें बोल चाल वाली हिंदी ही यहां भी लिखनी होगी ---बिल्कुल वही वाली हिंदी है जो हम लोग अपने घर में, अपनी गली-मुहल्ले में यूं ही किसी से बतियाते हुये इस्तेमाल करते हैं। बिलकुल - 100% आम हिंदी ---- जिससे किसी को डर नहीं लगता --- बस, जो अपनी सी लगती है ऐसा करना इस लिये तो और भी ज़रूरी है क्योंकि यह पढ़ा लिखा वर्ग अपने मतलब की जानकारी ढूंढने के लिये इसी आम भाषा के की-वर्ड्स का ही इस्तेमाल करता है - ऐसा मैं सैंकड़ों बार नोटिस कर चुका हूं।

मैं भाषा का स्टूडैंट तो हूं नहीं --लेकिन फिर भी सोच रहा हूं कि क्या कुछ ऐसा भी होता है कि हिंदी में सब लोग वही शब्द इस्तेमाल करें जो बर्तनी के हिसाब से ठीक है -----बर्तनी शब्द भी मैं ब्लागिंग में कईं बार सुन चुका हूं, लेकिन इस का मुझे कुछ ज्ञान नहीं है। लेकिन अब लगने लगा है कि भाषा के सही शब्दों का ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है ---वरना सब लोगों की लिखावट में अपने अपने क्षेत्र का हिंदी पुट होगा तो गूगल सर्च करने पर तो डाय़बिटिज़ से भी पेचीदा खिचड़ी पक जायेगी। अब इस बात पर तो हिंदी के धुरंधर लिक्खाड़ ही प्रकाश डाल सकते हैं।

अच्छा एक बात और भी करनी है ---- मुझे बहुत बार कहा गया कि हिंदी विकि पीडिया पर भी मैं स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर लेख लिखा करूं ---- मैं बहुत बार उस साइट पर भी गया ---- लेकिन दस-पंद्रह मिनट में ही सिर भारी होने की वजह से वापिस लौट आता था ---कारण ? --- अब कारण क्या बताऊं , वहां पर लिखी हुई हिंदी किसी दूसरे लोक की दिखती है ---शायद अपनी सी नहीं लगती --- उस साइट पर घूमने से लगता है कि यह तो बस बुद्धिजीवियों का जमावड़ा है जहां पर वे अपना ज्ञान केवल अपने आप में ही बांटे जा रहे हैं --- अगर मेरा उस साइट पर इतनी बार जाने के बाद यही हाल है तो एक हिंदी का औसत नेट-यूज़र जब हिंदी विकिपीडिया पर जायेगा , वह तो तुरंत ही वहां से भाग खड़ा होगा। इसलिये इस हिंदी वीकिया में लिखने वाले को यही सुझाव है कि हिंदी का स्तर थोड़ा घटाओ ---- सब तरह के लोग वहां पर कुछ ढूंढने रहे हैं , इसलिये सब का ध्यान रखो, भाईयो।

वैसे मुझे एक तरीका दिखा ---मैंने दो तीन दिन पहले पेपर में पढ़ा कि विकिपीडिया ने मद्रास में एक विकि एकेडमी शुरू की है ---तो मैं अंग्रेज़ी की विकिपीडिया पर गया तो वहां पर सारी हिदायतें आराम से समझ में जाती हैं ---तो मेरा सुझाव यह है कि अगर आप में से भी कुछ लोग हिंदी वीकिपीडिया पर अपना योगदान देना चाहते हैं लेकिन वहां पर लिखे निर्देश हिंदी में समझ नहीं पाते हैं तो अंग्रेज़ी वीकिपीडिया में उन्हें देख कर हिंदी में लिखना शुरू कर दीजिये।

बस, अब इतना लिखने के बाद सुस्ती गायब सी हो गई है -- पता नहीं एक ही शब्द को सैकंड़ों हिंदी भाषी अपने अपने अंदाज़ में कितने कितने अलग ढंग से लिखते होंगे -- ऐसी ही एक उदाहरण डायबिटिज़, डाय़बिटिज़, डायबिटीज़ की आप ने देख ली ----वैसे आप भी कुछ शब्द लिख कर गूगल सर्च कर कुछ एक्सपैरीमेंट क्यों नहीं करते ?