कल दोपहर के खाने में सोयाबीन की दाल और आलू मेथी की सब्जी थी...मुझे खाने की इच्छा नहीं थी, मैंने चाय ली और लेट कर टीवी देखने लग गया..कुछ समय बाद दो तीन अमरूद खा लिए...फिर खाने की इच्छा ही नहीं हुई।
रात में जब हम लोग मटर-पुलाव खा रहे थे तो श्रीमति ने पूछा कि सोयाबीन लेंगे...मेरे मना करने पर उन्होंने यही कहा..."लगता है सोयाबीन देखते ही आप की तबीयत नासाज़ हो गई है, जैसे बच्चों की भूख उड़ जाती है। वैसे ही इसे छःमहीने बाद बनाया है।"
बात सुन कर मुझे बिल्कुल ऐसा लगा जैसे कि मेरी चोरी पकड़ी गई हो...जी हां, मुझे सोयाबीन के किसी भी तरह से इस्तेमाल से नफ़रत है। न ही सोयाबीन की दाल, न ही सोयाबीन की बड़ी और न ही न्यूट्री ...हां, बस थोड़ा बहुत अालू की सब्जी में इसे खा लेता हूं।
सोयाबीन की दाल जैसी कोई चीज़ होती है इस का पता ही शायद १७-१८ वर्ष की उम्र में किताबों से चला था...कभी घर में इसे देखा ही नहीं...खाना तो बहुत दूर की बात हो गई।
होस्टल में रहते हुए मेरे साथ वाले रूम में राकेश पुरी ने सोयाबीन खिलाई सब से पहले... उस की मां उसे अच्छे से भून कर यह साथ दिया करती थी लेकिन उसे पसंद नहीं था यह सब...पसंद हमें भी कहां था यह सब खाना..लेिकन अकसर वह हमारे आगे रख दिया करता था, इसलिए थोड़ी खा लिया करते थे...लेिकन एक बात वह तैयार इतनी बढ़िया होती थी कि खाते खाते अच्छा लगने लगा.
मैं क्यों यह सब यहां लिख रहा हूं ...शायद मैं अपने आप को समझाने की कोशिश कर रहा हूं कि ऐसा नहीं है कि पढ़े लिखे होने के बावजूद हम अपने खाने पीने के बारे में ठीक से चुनाव कर पाते हों.....अब इसी सोयाबीन की ही उदाहरण लीजिए...मैं अपने बहुत से मरीज़ों को सोयाबीन को किसी भी रूप में लेने की सलाह जब देता हूं तो उन्हें बताना नहीं भूलता कि यह प्रोटीन का बहुत ही बढ़िया स्रोत है ... इस में ४० फीसदी के लगभग प्रोटीन होता है ...और हमारे जैसे विकासशील देश में तो इस का महत्व और भी ज़्यादा है।
लेिकन फिर भी मैं स्वयं सोयाबीन नहीं खाना चाहता...मजबूरी में खा लेता हूं ...इस से यही बात समझ में आती है कि ज़रूरी नहीं कि केवल ज्ञान मात्र से ही हम लोगों का खान-पान स्वास्थ्यवर्धक हो जाता है ... ऐसा नहीं है, सेहत से जुड़े लोग धूम्रपान करते हैं, गुटखा चबाते हैं...पुलिस वाले बिना हेल्मेट के वाहन दौड़ा रहे होते हैं, मैं डैंटिस्ट हूं लेकिन रात में ब्रुश नहीं करता ... बहुत से दांत खराब करवा के बावजूद भी ...कथनी करनी में फ़र्क तो है ही निःसंदेह।
लेिकन बात एक और भी है अगर अच्छी आदतें हमें बचपन में नहीं पड़तीं तो फिर आगे भी हम ऐसे ही रहते हैं।
खाने के बारे में बातें करते हैं, सोयाबीन की बात मैंने की...मैं अकसर शेयर करता हूं कि मैं दो सब्जीयां नहीं खाता, एक करेला और दूसरी ग्वार की फली....मुझे बहुत बेकार स्वाद लगता है इन दोनों का ...इसका भी कारण यही कि १८-२० साल की उम्र तक कभी ग्वार की फली की शक्ल नहीं देखी ..उस के बाद कभी कभी सुन लिया करते थे इसे यह गंवार लोगों के लिए है... करेला इसलिए नहीं खाता था कि कड़वा होता है, बस, फिर उस के बाद कभी इच्छा ही नहीं हुई..कभी एक दो करेले खा लेता हूं ...कोई रूचि नहीं होती इसे खाने में।
सोचने वाली बात है कि इस सुस्त सी दोपहरी में मैं क्यों अपना यह अपने खाने-पीने की थाली लेकर बैठ गया हूं.. कोई खास बात नहीं, बस ऐसे ही यह ध्यान में आता है जब आज कल के बच्चों की तरफ़ देखता हूं कि जो बच्चे ज़्यादा जंक फूड नहीं खाते, फॉस्ट-फूड नहीं लेते ...उन में से भी अधिकांश बच्चे ऐसे हैं जो मैंने देखा है कि उन्हें बस एक तरह की दाल, राजमा-चावल, पनीर या ऐसे ही दो तीन चीज़ें हैं जो पसंद ... बस, वे इन्हें ही बार बार खाना चाहते हैं... सब्जियों से नफ़रत है ...
कुपोषण वह तो है ही जो हम गरीब बच्चों में देखते हैं, संभ्रांत परिवारों के बच्चे जो बहुत कुछ खा तो लेते हैं लेिकन पौष्टिकता-रहित होता है अधिकतर यह सब कुछ...यह भी एक तरह का कुपोषण ही पैदा कर रहा है.. संतुलित आहार से कोसों दूर।
मैं अकसर यह शेयर करता हूं अभिभावकों से कि बच्चों को हर तरह की दाल-सब्जी खाने के लिए तैयार करना चाहिए.. जो तत्व एक में हैं वे दूसरी में कम हैं, जो तत्व या यूं कह लें कि विटामिन आदि एक रंग की सब्जी या फल में हैं वे दूसरी में नहीं हैं....कहने का मतलब बदल बदल के दाल-सब्जी लेना और विभिन्न दालों को मिला कर खाना...यही संतुलित पौष्टिक आहार है .....मैं नहीं कहता, हमारे प्राचीन आयुर्वेद के ग्रंथों में दर्ज है यह सब कुछ...हमारा खान पान कैसा हो, क्या नहीं खाना है किस समय.....सब कुछ तो कह दिया गया है, अब और कुछ कहने की ज़रूरत है नहीं दरअसल, बस पुराने पाठ बार बार दोहराए जाने की ज़रूरत है।
बच्चे आज कल घरों से बाहर रहते हैं...दूध वूध अकसर होस्टलों में मिलता नहीं, अगर मिलता भी है कि आप उस की गुणवत्ता की क्लपना कर सकते हैं, किस तरह का दही मिलता है हम जानते हैं, फल-फ्रूट के लिए बच्चे थोड़ा प्रयत्न कर लें, इस की कल्पना करने में भी थोड़ी कठिनाई ही होती है ... ऐसे में शारीरिक तौर पर तो बच्चों में थोड़ी कमजोरी आ ही जाती है ...जो देखने वाले को दिख जाती है लेिकन सब से बड़ी त्रासदी यह है कि कुछ तत्वों की कमी युवावस्था में दिखती नहीं लेिकन उस के प्रभाव बहुत बुरे होते हैं ...किस किस के बारे में लिखें, ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं जिन की कमी की वजह से आगे चल कर बहुत परेशानी हो जाती है ..
मुझे अभी ध्यान आ रहा है कि बच्चे सरसों के साग तक से दूर भागते हैं.....मैं कईं बार सोचा करता हूं कि अगर यह सब ये अभी नहीं खा रहे तो क्या आज से दस-बीस साल बाद अचानक इसे खाना शुरू कर देंगे.....ऐसा लगता तो नहीं अगर अपने अनुभव से देखूं तो भी।
हम लोग जिन चीज़ों को बचपन में नहीं खाते, हमारे स्वाद डिवेल्प नहीं हो पाते, बड़े होने पर भी अकसर हम इन चीज़ों से किनारा ही किए रहते हैं.....इस पोस्ट का बस यही एक विनम्र प्रयास है कि हम लोग बच्चों को शुरू से ही सब तरह की दालों एवं सब्जियों को खाने के लिए प्रेरित करें ... यह कैसे करना है, यह का जुगाड़ आप को खुद करना होगा.. वैसे मैं और मेरी मिसिज़ मिल कर भी यह काम अपने बच्चों के लिए नहीं कर पाए...ऊपर लिखी खाने पीने की बातें लगभग सभी उन्हीं की कहानी है। मैं अपने बड़े बेटे को पौष्टिक खाने के बारे में कहता हूं तो वह मेरी बात मज़ाक में उड़ाते हुए कहता है ....."Dad, what have you gained by healthy eating? ...Just weight!!"
अभी जुगाड़ की बात कर रहा था तो कल व्हाट्सएप पर मिले एक जुगाड़ का ध्यान आ गया...माहौल को थोड़ा हल्का करने के लिए उसे आप तक पहुंचा रहा हूं...
मुझे अकसर लोग पूछते हैं कि आप क्या बाहर नहीं खाते, नहीं मैं बाहर नहीं खाता, मुझे अच्छा नहीं लगता बिल्कुल...मैदा मैं वैसे ही नहीं खाता...लगभग न के बराबर....बस, अमृतसर के केसर के ढाबे का खाना और बंबई के दादर में प्रीतम का ढाबा मैं कभी भी खा सकता हूं.....अमृतसर में तो मैं अपने खाने-पीने के सारे कायदे-कानून तोड़ने को तैयार हूं ...हर गली, हर नुक्कड़, हर बाज़ार अपना सा लगता है .....लेिकन केसर के ढाबे तां ते बई कोई जवाब ही नहीं..
केसर दा ढाबा अमृतसर |
एक बाबा है न जो टीवी पर आता है और जिसे अचानक कहीं से गुलाब जुमान या हलवा दिखने लग जाता है और अपने दुःखी भक्तों पर कृपा खोलने के लिए वह उन्हें इन का भरपूर सेवन करने की सलाह दे देता है... मुझे तो केसर के ढाबे का इतना बढ़िया खाना देख कर बस अब फिल्मी गीत ही याद आते हैं ...हमेशा पोस्ट को समाप्त करते समय जो गीत मेरे ज़हन में आता है, मैं उसे आप तक पहुंचा दिया करता हूं...तो आज इस गीत का ध्यान आ गया... पल्ले विच अग्ग दे अंगारे नहीं लुकदे... (पल्ला का मतलब का दामन और नहीं लुकदे का मतलब है छिपते नहीं...)..हिना फिल्म से...