मंगलवार, 19 जुलाई 2011

इंडोनेशिया में दाईयां भी करती हैं दादागिरी

आज एक खबर देख कर पता चला किस तरह से इंडोनेशिया में दाईयां दादागिरी पर उतर आती हैं... इन का स्टाईल तो भाई बंबई के हफ्ता-वसूली करने वाले भाई लोगों जैसा ही लगा ...एक औरत की उदाहरण से यह सारी बात बीबीसी की इस स्टोरी में बताई गई है।

हां तो कैसी दादागिरी इन दाईयों की? – अगर कोई महिला बच्चे को जन्म देने के पश्चात् इन दाईयों की फीस नहीं चुका पातीं तो ये उस के बच्चे को मां को देती ही नहीं ---उसे अपने पास ही रख लेती हैं। और कुछ केसों में तो ये उन बच्चों को आगे बेच भी देती हैं....और जो कर्ज़ इन्होंने महिला की डिलिवरी करने के एवज़ में लेना होता है, वह इसलिये बढ़ता रहता है क्योंकि उस में बच्चे के पालन-पोषण का खर्च भी जुड़ने लगता है। हुई कि न घोर दादागिरी ? --- Indonesian babies held hostage by unpaid midwives.

एक महिला अपनी दास्तां ब्यां कर रही है ... इस रिपोर्ट में वह बता रही है कि गर्भावस्था के दौरान उस का अल्ट्रासाउंड हुआ नहीं, इसलिये प्रसव के दौरान ही पता चला कि उस ने तो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया है ... लेकिन अस्पताल वाले दो बच्चों को डिलिवर कराने के लिए डबल फीस मांगने लगे ...उस दंपति के पास पांच सौ डालर जितनी रकम थी नहीं .... तो क्या था, वही हुआ जिस का डर था!!

बच्चे को क्लीनिक वालों ने अपने कब्जे में रख लिया ...और वह दंपति अस्पताल की दोगुनी फीस जमा करने का जुगाड़ करने लगे... और जब पैसे इक्ट्ठे हो गये तो दाई के पास गये तो पता चला कि बच्चा तो आगे बिक चुका है। खैर, किसी सामाजिक कार्यकर्त्ता की सहायता से बच्चा तो वापिस मिल गया।

खबर देख कर यही लग रहा था कि दुनिया में क्या क्या हो रहा है, यार, इस हिसाब से अपना देश तो बहुत बेहतर हुआ ....मतलब दाईयों की दादागिरी तो नहीं है कम से कम.... लेकिन नवजात शिशुओं की यहां वैसे ही कितनी समस्याएं हैं इस पर एक लेख लिखने की कितने दिनों से सोच रहा हूं .... लेकिन इस विषय पर लिखते समय मन टिकता नहीं ....टिके भी कैसे, जिस दिन से कोलकाता में एक साथ 18 नवजात् शिशुओं के मरने की खबर सुनी है, बहुत बुरा महसूस हो रहा है।

बुरा महसूस इसलिये भी होता है कि किसी नामी-गिरामी महंगे अस्पताल में तो किसी की डिलीवरी के समय महिला डाक्टर के अलावा बच्चों का विशेषज्ञ(Paediatrician) तो क्या, नवजात् बच्चों का विशेषज्ञ (Neo-natologist) भी मौजूद रहता है और जनता जनार्दन को किस तरह से दाईयों के हत्थे चढ़ने पर मजबूर होना पड़ता है ....और कईं बार तो अस्पतालों की चौखट पर ही माताएं बच्चे जन देती हैं.... आप इस से कैसे इंकार कर सकते हैं क्योंकि ऐसी खबरें अकसर मीडिया में कभी कभी दिख ही जाती हैं..... जो भी है, गनीमत है कि मेरे भारत महान् में दाईयों की ...गर्दी (नहीं, यार, दादागिरी ही ठीक है) नहीं चलती ....लेकिन क्या पता कुछ कुछ चलती भी हो, लोग तो वैसे ही कहां कुछ बोलते हैं!!

पानी रे पानी ....तेरा रंग कैसा !

आज दुनिया में पानी के लिये बड़े लफड़े हो रहे हैं और कहते हैं कि आने वाले समय में देशों की लड़ाईयां पानी के लिये हुआ करेंगी। पीने वाले पानी की तो बहुत सी समस्या है।

मुझे ध्यान आ रहा है कि जो मैं लगभग सात-आठ साल पहले कोंकण रेलवे रूट पर यात्रा कर रहा था तो एक स्टेशन पर नीचे उतरा और देखा कि नल के पास एक नोटिस लगा हुआ था—आप को यहां से पानी की बोतल खरीदने की कोई ज़रूरत नहीं है, इस नल में जो पानी है उसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के तयशुद्दा मानकों की कसौटी पर भली भांति टैस्ट किया गया है और इसे आप बेझिझक पीने के लिये इस्तेमाल कर सकते हैं!!

और ऐसा नोटिस कोंकण रेलवे के उस स्टेशन पर ही नहीं दिखा ...पता चला कि ऐसे नोटिस उस रेलवे के सभी स्टेशनों पर लगे हुये हैं। काश, सभी सार्वजनिक जगहों पर इस तरह के बोर्ड दिखें ताकि पब्लिक का भरोसा बना रहे।

बचपन में ध्यान है जब ये पानी की रेहड़ी वालों ने पांच पैसे में पानी का एक गिलास बेचना शुरू किया तो अजीब सा लगता था ...फिर दस पैसे, फिर पच्चीस, और देखते ही देखते अब यह एक रूपये में बिकता है ..हां, शायद अब नींबू भी डाल दिया जाता है उसमें। लेकिन ये ठेले वाले इस पानी को किन जगहों से लाते हैं उस पर भी एक प्रश्नचिंह समय के साथ लग गया है।

अब आलम यह है कि बाहर किसी रेस्टरां, किसी फूड-स्टाल पर कहीं भी पानी पीने की इच्छा ही नहीं होती। साल भर लोग पानी से पैदा होने वाली बीमारियों का शिकार होते रहते हैं, कुछ मर भी जाते हैं ..विशेषकर छोटे बच्चों एवं बड़े-बुज़ुर्गों के लिये जल से पैदा होने वाले रोग जानलेवा भी सिद्ध हो सकते हैं।

कुछ दिन पहले टीवी पर आपने भी देखा होगा किस तरह से कानपुर में गंगा को बेहद प्रदूषित किया जा रहा है.. लेकिन वहां ही क्यों, हर जगह हम लोग इन नदियों का भयंकर शोषण किये जा रहे हैं, उन्हीं नदियों की पूजा करते हैं और उन्हें में ही .......क्या कहें, हर जगह जल-प्रदूषण के प्रभाव दिखने लगे हैं। पंजाब में इतने कीट-नाशक इस्तेमाल हो रहे हैं जो फिर जा कर जमीन में मिल जाते हैं ..... कि कुछ शहरी इलाके ऐसे हैं जहां पर कैंसर और कईं असाध्य रोगों के रोगियों की लाइनें लगी हुई हैं। सब चीख-चिल्ला रहे हैं... लेकिन इस का समाधान हो क्या रहा है?
समाधान क्या है, वह 10-12 रूपये वाली बोतल हरेक के हाथ में थमा दें......क्या यह संभव है इस देश में..... पता नहीं कभी किसी सार्वजनिक स्थान पर इस बोतल से पानी पीते हुये बहुत अजीब सा लगता है ... सामने ही कोई बीमार सा दिखने वाला वृद्द, कोई गर्भवती मां अपनी गोद में उठाए बच्चे को तो वही पंचायती टूटी से पानी पिला रही होती है और हमें अपनी जान इतनी प्यारी कि हम उस 12 रूपये वाली बोतल के अलावा बाहर से कहीं भी पानी पी ही नहीं पाते ...........क्या करें, मजबूरी है, जब जब भी बाहर से पानी पिया है ...दो चार दिन बाद खाट ही पकड़ी है।

मुझे यह भी ठीक नहीं लगता जो लोग कह देते हैं कि नहीं, नहीं, कभी बाहर पानी पी लेना चाहिये .....या घर के बाहर तो पानी बाहर का ही पीना होता है ... उस से इम्यूनिटि कायम रहती है.... इस बारे में तो बस यही है कि मजबूरी के नाम पर हरेक बंदा किसी भी जगह से पानी पीने के लिये तैयार हो जाता है। मैं कहता हूं कि घर के बाहर मुझे मिनरल वॉटर के अलावा कोई पानी नहीं चलता.. लेकिन चंद ही घंटों में अगर कुछ ऐसे हालात हो जाएं कि बोतल मिले नहीं और प्यास बर्दाश्त नहीं हो तो मैं भी उस टब से भी पानी मिलने से गनीमत समझूंगा जिस में सब लोग डिब्बा डुबो डुबो कर पिये जा रहे हैं।

पीने वाले पानी की समस्या विषम है... पता नहीं मैंने कुछ साल पहले कहीं पढ़ा था कि ऐसी टैक्नोलॉजी आ गई है या आने वाली है कि आप किसी रेस्टरां में बैठे हैं, पानी का गिलास सामने आते ही आप उस में एक पेन-नुमा यंत्र कुछ लम्हों के लिये डालें ...और पानी हो गया पीने लायक।

पानी के बारे में बहुत सजग रहने की ज़रूरत है ... दो तीन पहले मैं बीबीसी पर देखा कि वैज्ञानिक आजकल crowd-sourcing के द्वारा पानी की गुणवत्ता लेने की फिराक में हैं। क्राउड-सोरिंग से मतलब यह है कि जब किसी टैस्टिगं के लिये किसी कर्मचारी की बजाए पब्लिक ही इस में सक्रिय भाग लेने लगे ... इसे ही क्राउड-सोरसिंग कहते हैं।

पानी के बारे में होता यही है कि हम लोग किसी स्रोत से पानी की टैस्टिंग के लिये वहां से पानी को लैब में भेजते हैं ...फिर कुछ दिनों बाद रिपोर्ट आती है ....और अगर रिपोर्ट आती है कि यह तो पानी पीने लायक था ही नहीं तो इस का क्या फायदा हुआ ... हज़ारों लाखों ने तो तब तक उस पानी से अपनी बुझा कर बीमारी को मोल ले लिया होगा। इसलिये हमारी टैस्टिंग में बहुत सी खामियां हैं।

हां, तो मैं जिस बीबीसी रिपोर्ट की बात कर रहा था उस में बताया गया है कि water-canary नाम से एक ओपन-सोर्स है जिस के द्वारा हम किसी भी जगह से पानी लेते हैं...तुरंत उस यंत्र में एक लाइट जग जाती है हरी या लाल.... यह बताने के लिये की यह पीने योग्य है कि नहीं। उसे यह GPS से जुड़ा हुआ यंत्र तुरंत उस जानकारी को ट्रांसमिट कर देता है। लेकिन, प्रश्न वही कि फिर आगे क्या ? ---आगे यही कि जिस एरिया से पीने के पानी की प्रदूषित होने के समाचार बार बार आएंगे वहां पर मानीटरिंग को और भी पुख्ता किया जाएगा, क्लोरीनेशन को और प्रभावशील ढंग से किया जाएगा, और भी इस तरह की व्यवस्था की खबर ली जा सकेगी।

क्लोरीनेशन से ध्यान आया – 15 साल पहले मेरे गांव में बाढ़ आई – कुछ दिनों बाद जब हम लोग घर वापिस आए तो पानी बिल्कुल मटमैला आ रहा था ... यह बोतलें वोतलें कहां से मिलतीं ...फिर ध्यान आया कि क्लोरीन की गोलियां डाल कर इसे ही पिया जाए ....यकीन मानिए मैंने बीसियों दुकानों से पूछा ...मुझे क्लोरीन की गोलियां कहीं से नहीं मिलीं......हार कर हम लोग उस मटमैले पानी को ही उबाल कर पीते रहे।

कईं बार लगता है इस देश की बेहद विषम समस्याएं हैं .... कोई सुझाव देते हुए भी डर लगता है ...किसी को घर में कोई इलैक्ट्रोनिक यंत्र लगवा कर पानी शुद्ध कर लेने की सलाह देते हुये भी झिझक महसूस होती है....बहुत से लोगों को तो ऐसा कहने की हिम्मत ही नहीं होती ......क्या पता कोई पलट के कह दे ....डाक्टर, रोटी ज़रूरी है या वह यंत्र। फिर भी, जैसा भी पानी हम पी रहे हैं उस की सही तरह से हैंडलिंग के द्वारा भी हम लोग पानी से होने वाले रोगों से काफी हद तक बच सकते हैं।

लेख लिख लिया ...फिर भी लगा समय बेकार कर दिया .... खाली खाली सा लग रहा है ...न ही तो मैं समस्या को पूरी तरह से ब्यां कर पाया और न ही किसी समाधान का हिस्सा ही बन पाया..... इसलिये केवल थ्यूरी ही लिख कर आप से छुट्टी ले रहा हूं।