रविवार, 7 जून 2015

मैगी बॉय-बॉय-- अब सब्जियों की सोचते हैं...

आज हम लोग एक दुकान पर थे तो मैंने ऐसे ही दुकानदार से ऐसे ही पूछा कि मैगी है?...उसने कहा कि वैसे तो बंद है, हम नहीं बेचते लेकिन अगर आप को चाहिए तो मिल जाएगी। उस दुकान के वर्कर ने कहना शुरू किया कि लोगों को वहम हो गया है, अब तो अगर मैगी खाने से किसी को बुखार भी हो गया तो लोग कहेंगे कि मैगी से ही हुई है, इसलिए अब हम इसे बेचते ही नहीं। 

लेिकन एक बात तो है कि पिछले बीस-तीस सालों में लोगों की सेहत इस तरह के जंक-फूड ने बिगाड़ी है, उस का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। और जितनी चांदी इन कंपनियों ने लूटी है, उस का भी हिसाब नहीं हो सकता....याद है कुछ वर्ष पहले इसी मैगी वालों ने मैगी में दो-चार सूखी सब्जी के टुकड़े घुसा कर उसे स्वास्थ्यवर्धक खाने के रूप में पेश किया था। 

मुझे नहीं लगता कि मेरी उम्र के लोगों को मैगी पसंद आई होगी.....मैं अपनी बात करूं तो यही है कि बच्चे जब खाते थे तो मैं उन के जिद्द करने पर एक चम्मच ले लिया करता था ..लेकिन उसी से मेरी तबीयत खराब हो जाया करती थी...एसिडिटी.....मेरे को भी शायद वहम हो गया था....लेकिन मुझे कभी भी जंक फूड ..मैगी, पिज्जा, बर्गर, मोमो ...अच्छे लगे ही नहीं.

हां, तो आज जब हम लोग कॉलोनी के बाहर सब्जी ले रहे थे तो मुझे यही लग रहा था कि यह गोल्डन समय है ...जब लोगों को मैगी से नफ़रत हो रही है, ऐसे समय में बच्चों को ज़्यादा से ज़्यादा सब्जियां खिलाई जानी चाहिए। 

सब्जियों का तो ऐसा है ...मैं अकसर कहता हूं कि जो दाल-सब्जियां हम लोग बचपन में खाते हैं....हम बड़े होकर भी उन्हें भी खाते हैं...मुझे तो ऐसा लगता है कि जो चीज़ें हम लोग बचपन में नहीं खाते ...उन्हें कुछ वर्षों के बाद खाने लगेंगे ...ऐसा मुझे नहीं लगता। 

ग्वार की फलीयां 
मैं बचपन में करेला नहीं खाता था....अब भी नहीं खाता.....बहुत कोशिशों के बावजूद भी इसे नहीं खा पाता....कभी एक आधा खा लिया तो खा लिया। उसी तरह से हम लोगों को बचपन में यही समझ में आया कि ग्वार की फलियां सेहत के लिए ठीक नहीं होतीं...अमृतसर में तो इतना भी कहा जाता था आज से ३०-४० साल पहले की इसे गवार खाते हैं...लेकिन अब हमें पता है कि यह बहुत पोष्टिक है. लेकिन अब इसे चाहते हुए भी खा नहीं पाते। 

मैंने अकसर अपने इस ब्लॉग में बहुत बार लिखा है कि मुझे अकसर बाज़ार में इस तरह की सब्जियां दिख जाती हैं जिन्हें मैंने पहले खाया होना तो दूर, कभी देखा भी नहीं होता, और न ही मैं उन के नाम ही जानता हूं।

मैं यहां लखऩऊ की सब्जियों के बारे में एक बात शेयर करना चाहूंगा कि यहां पर सब्जियों की क्वालिटी बहुत बढ़िया है ...बेंगन इतने बढ़िया और मुलायम हैं कि आलू-बैंगन की सब्जी, बैंगन का भुर्ता बहुत ही बढ़िया तैयार होता है...लौकी, तोरई आदि की भी बहुत बढ़िया...यहां पर परमल की सब्जी भी बहुत चलती है..चूंकि हम लोगों ने बचपन में पंजाब में कभी इसे देखा नहीं, हमें इस का स्वाद डिवेल्प नहीं हो पाया। 

एक बात और लोबिया की फली भी यहां बहुत बढ़िया मिलती है...पहले पंजाब में यह इतनी आसानी से नहीं मिलती थी। 

आज मैंने इस सब्जी को देखा तो पूछने पर पता चला कि इस सब्जी का नाम कुल्लू है....इसे छिलने के बाद, काट कर बनाया जाता है। मैंने इसे काट कर देखा तो पता चला कि यह अंदर से कैसी होती है!

कुल्लू नामक सब्जी 


हम आदर्श बातें करने में तो खूब एक्सपर्ट हैं....लेकिन सच्चाई यह है कि बढ़ती उम्र के साथ हम लोग नईं सब्जी खाने तक का तो एक्स्पेरीमेंट कर नहीं सकते ....शायद करना ही नहीं चाहते! 

इसलिए मेरे मरीज़ जब अपने बच्चों के लिए मेरे से टॉनिक का नाम पूछते हैं तो मैं उन्हें यही कहता हूं कि इसे दाल-रोटी-साग सब्जी खाने की आदत डालिए, हर तरह की सब्जी खिलाइए ताकि इस को इऩ सब का स्वाद पता चले और आगे चल कर यह इन्हें नियमित खाता रहे..

बच्चे दालें, सब्जियां नहीं खाते....यह भी एक तरह से हमारी राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है.......मुझे डर है कि यह कहना कि हमारे बच्चे घर का खाना पसंद नहीं करते...यह भी कहीं एक स्टेट्स सिंबल ही बन जाए। 

आज अखबार में आया कि अब मेकरोनी, बर्गर आदि की क्वालिटी की भी जांच होगी........बहुत अच्छा है, होना चाहिए....इन कंपनियों ने हमारी सेहत के साथ खिलवाड़ कर कर के अपने इतने बड़े एम्पॉयर खड़े कर लिए हैं। कुछ ही कह लें इन्हें हमारी सेहत की बिल्कुल भी चिंता नहीं है. ...वरना सारे मानक विकसित देशों में तो तयशुदा सीमाओं के अंदर ही होते हैं.....सीसा हो या फिर एमएसजी हो.......लेकिन यहां पर व्यवस्था का ढुल-मुल रवैया इन को मानकों की धज्जियां उड़ाने की हिम्मत देता है। 

एक खुखबूदार बात कर लें.....खरबूजों की ...पहले अमृतसर में सफेद से खरबूजे ही ज़्यादा दिखते थे ..कुछ दिनों के लिए भूरे खरबूजे आते थे जो ज्यादा मीठे होते थे....फिर पता चला कि कुछ खरबूजे राजस्थान से आते हैं जो ज़्यादा मीठे होते हैं.....सूंघ कर लोगों को खरबूजा खरीदते देखना बड़ा हास्यास्पद तो लगता है लेकिन यह कितना प्रेक्टीकल जुगाड़ है ना! खरबूजों की भी अलग अलग शक्ल अकसर दिख जाती है....हम लोग जब फिरोजपुर में तो वहां पर बंगे बिका करते थे...ये देखने में होते खरबूजे जैसे ही थे लेकिन बिल्कुल फीके से...वहां पर रहने वाले लोगों में ये खूब पापुलर थे। 

लखनऊ में इस तरह के खरबूजे आजकल खूब बिकते हैं.
इन खरबूजों के देख कर मुझे बंबई के पेड़ें याद आते हैं..बिल्कुल वैसी ही शेप में
लखनऊ में इस तरह के खरबूजे भी आजकल दिखते हैं.....बहुत मीठे हैं....हर जगह के अपने स्वाद ...अपने अद्भुत रंग...बस, सब लोग ऐसे ही खाते-पीते-फलते-फूलते रहें....बच्चों को भी सब्जियां रास आने लगें....आमीन!!